Sunday 26 February 2012

केजरीवाल का बयान


        संसद सदस्यों के सम्बन्ध में केजरीवाल ने जो बयान दिया है वह बहुत ही कडा  है. संसद सदस्यों का इसपर भड़कना स्वाभाविक है. क्योंकि सांसद चुने जाने के बाद सत्ता के स्वाद का जो अहम् इनके अन्दर आ जाता है यह टिपण्णी उसपर एक हमला है. हालांकि  ये जो बातें केजरीवाल ने एक मंच से कही है येही बातें मीडिया अक्सर आंकड़ों के माध्यम से कहती रहती है. इस पार्टी में इतने बाहुबली हैं, इतने अपराध के लिए आरोपित हैं जिनपर केस  चल रहे हैं.
      कितनी  अजीब बात है कि कल इन आरोपितों को सजा मिल जाय तो ही इन्हें अपराधी माना जाएगा. क़ानून कि दृष्टि से यह बात ठीक लगती   है. अब सोचने जैसी बात है कि जो व्यक्ति खुलेआम अपराध कर रहा है जिसे लोग देख समझ रहे हैं, क़ानून  ने उसे  अभी अपराधी  नहीं ठहराया है. बस इसी पेंच का सहारा लेकर राजनीतिक दल उसकी दबंगई का लाभ  वोट पाने के लिए उठाते हैं.प्रश्न उठाता है कि यह व्यक्ति  जब चुनकर संसद में जाता है तो उसकी मानसिकता क्या रातों रात बदल जाती है ? क्या यह  व्यक्ति  स्वस्थ क़ानून बनाने का कभी समर्थक हो सकता है .क्या इसकी आपराधिक मानसिकता क़ानून बनाते वक्त काम कर रही नहीं होती है. कौन नहीं जानता है कि लालू, मुलायम और मायावती जैसे आय से अधिक संपत्ति के लिए आरोपित लोग कांग्रेस सरकार के    केवल  इसीलिए समर्थक हैं  कि वह उनके केस को कमजोर करने में सहायक होगी. लेकिन क़ानून की पकड़ में अभी ये नहीं हैं. लालू के राज में अपराधियों की बाढ़  थी  और वे अपनी सत्ता को बनाये रखने वके लिए उन्हीं के पक्ष में खड़े थे. नितीस राज में तो वह अपनी खोई शाख को पाने के लिए तो वह अपराध के लिए सजाप्राप्त शहाबुद्दीन से जेल में भी मिलाने गए थे. ऐसा करके लालू समाज के लिए कौन सा मूल्य स्थापित कर रहे थे .उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त द्वारा आरोपित मंत्रियों को मायावती ने  अपने क्मंत्रिमंडल से निकाला और मात्र वोट प्राप्त करने के लालच में उनमें से कुछ  को भाजपा और कांग्रेस ने अपना लिया .आखिर  इन पार्टियों के विचार में अपराध की  क्या धारणा है. किस मूल्य की रचना कर रहे हैं ये दल समाज में.
      आये दिन विधान मंडल में या संसद में मारपीट की घटनाएं होती रहती हैं. कुर्शियाँ फेंकी जाती हैं, जूते चप्पल चलते हैं, कुरते फाड़े जाते हैं. और ये ही लोग सदाचरण का जनता  को सीख देते हैं, जनता के कल्याण का क़ानून बनाते हैं. राजनीति में ऐसी परिस्थितियों की भी अपेक्षा होती है. किन्तु ऐसी परिस्थितियां अपवाद की तरह होती हैं. लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में तो सत्ता की केंद्रीय चेतना में देश और समाज नहीं हैं, सत्ता में केवल अपने को बनाये  रखनेका ही ध्येय  दिखाई देता है.और यह आम बात हो गई है.
       वस्तुस्थिति देखी जाय तो केजरीवाल कोई गलत बात नहीं कह रहे हैं. उनकी बात कड़वी है. सामान्य आचरण में इसे विरोध में भाषा पर नियंत्रण खो देना देना कहा जा सकता है.लेकिन विना कड़ी टिप्पणी  के आज कोई किसी बात पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझता. मोरारजी देसाई   के प्रधानमंत्रित्व काल में ओशो ने
संसद को पागलखाना तक कह दिया था.बड़ी आलोचना हुई थी  इसकी राजनीतिक क्षेत्र में. संसद के सामने ओशो  (तब के आचार्य रजनीश) को  पेश करने तक की बात हुई थी. लेकिन ओशो ने जब संसद में उपस्थित होने की बात स्वीकार कर ली तब राजनीतिज्ञों की सिट्टीपिट्टी ग़ुम हो गई थी. आखिर संसद एक अवधारना  ही तो है. लेकिन संसद सांसदों से बनती है.सांसदों  के आचरण में खोट होगी तो वह कहाँ से सहस बटोर सकेगी एक शेर का मुकाबला करने में. मंसूर की क्रूरता से हत्या कर क्या मंसूर की बहाई   हुई धरा को रोका जा सका था?  

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