Tuesday 30 January 2018

पिछले अंक में भाष्य किए ‘अँधेरे में’ कविता की आलोचनाः




आलोचना:


कविता का भाष्य करते समय मै स्थल-स्थल पर आलोचनाएँ भी देता चला हूँ. पर उसका संबंध अर्थ को स्पष्ट करने से ही अधिक है, कविता के काव्य-गुण से नही. इसकी काव्य-वस्तु कवि की कूट-बुद्धि से संयोजित लगती है. जीवन के कमरेएक कूट-पद है. जीवन को कमरों के रूप में कैसे देखा जाए, बौद्ध आचार्य नागार्जुन से राजा मिनांडर ने पूछा. आचार्य आप किससे आए हैं? आचार्य ने कहा, ‘‘रथ से’’. राजा ने आगे पूछा, क्या पहिया रथ है? ‘नहीं’, क्या उसका धुरा रथ है? ‘नहीं, आचार्य ने कहा. इस तरह कई प्रश्नों के उत्तर नहीं में सुन कर राजा ने कहा, तब आप झूठ बोल रहे हैं कि आप रथ से आए हैं. जीवन के इन कमरों के बारे में भी ऐसे प्रश्न उठाए जा सकते हैं जो काव्येतर नहीं होंगे. विभिन्न काल-खंडों में कवि का जिया जीवन कवि के जीवन के कमरे नहीं हो सकते. उसके फेफडे, हृदय आदि भी कमरों की तरह व्यवहृत नहीं हो सकते. अतः मैंने इन कमरों को उनके व्यक्तित्व-खंड माना है. यह काव्य-गत चिंता के मेल में है. कवि की जीवन के कमरों जैसे प्रयोग वाली कल्पना में कोई काव्यगत-सौंदर्य नहीं दिखता.

अँधेरे में कविता का नायक मेरे जाने मुक्तिबोध स्वयं हैं. वह जिस कमरे में हैं वह पुरानी पड़ चुकी है. उसमें सुधार चाहिए. या कहें उनके व्यक्तित्व के जिस खंड में उनकी चेतना है वह पुराने ढर्रे की सोच में है, उसमें नयापन चाहिए. मुक्तिबोध ने जब अपनी काव्य-यात्रा शुरू की थी, तो वह अपने मन में लेकर चले थे कि कविता में चल रही वायवीयता को और कविता के पुराने उपकरणों को बदल कर रख देंगे, और उन्होंने बदला भी. हाँ उनके इस प्रयास में कविता कितनी कविता रह गई और कितनी राजनीतिक वक्तव्य के निकट का संवेदनाभरित वक्तव्य, इसका निर्णय केवल आलोचना के मर्मज्ञ ही कर सकते हैं. 

कमरे में सुनाई दे रही पग-ध्वनि से ध्यान हटा मुक्तिबोध जब बाहर देखते हैं तो निकटवर्ती तालाब के जल, पास की पहाड़ी और वृक्षों की फुनगियों पर कुछ ज्योति देख किसी चिंतन में डूब जाते-से लगते हैं. वह अपनी अन्य कविताओं में पूँजीवाद साम्यवाद और शोषक शोषित की अक्सर चर्चा करते हैं. अतः उनके इस ज्योति-दर्शन से उपजे चिंतन को पूँजी-चिंतन (पूँजीवादी चिंतन नहीं) क्यों न माना जाए. क्योंकि अब भारत स्वतंत्र था. नेहरु के नेतृत्व में भारत में हो रहे विकास को वह देख रहे थे. वह देख रहे थे कि पूँजी के बिना जीवन की गाड़ी चल नहीं सकती. उनके प्रशंसक उन्हें अभाव से लड़ने वाला संघर्षशील व्यक्ति मानते हैं. किंतु मार्क्सवाद या साम्यवाद में खेती के अलावे पूँजी पैदा करने की कोई और व्यवस्था नहीं है. क्या जाने मशाल की ज्योति देख उनमें साम्यवाद में भी पूँजी पैदा करने के लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य की बात सोचने की भावना जगी हों. आजादी के बाद के समय में पूँजी की कमी के कारण तमाम आर्थिक योजनाओं को वह असफल होते देख रहे थे. अतः बहुत संभव है आजादी के दिनों की अपनी भूमिका से अलग हट वह पूँजी-चिंतन में लगे हों और पूँजी-चिंतन का फैंटेसी उन्होंने जुलूस में चलती ज्योतिष्क मशालों के रूप में बनाया हो. (अभी एम्प्रेस मिल की घटना नहीं घटी थी) संभवतः उनके मन में पूँजी के उपार्जन का कोई बल्ब जलने-जलने को हो कि मशालों की ज्योति बुझ गई. ज्योति के बुझते ही उन्हें लगा कि किसी ने (इस प्रकार के चिंतन के विरोधी) अँधेरे में पकड़ कर उन्हें मौत की सजा दे दी हो. मुझे इस स्थान पर मुक्तिबोध अन्य मार्क्सवादियों से थोड़ा भिन्न लगते है जो केवल पूँजीवाद के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा लेकर चलते हैं, किसी समाधान में नही जाते.

इसी समय उन्हें मशालों की लाल ज्योति से (मशालें बुझने को हैं. उनकी ज्योति अब लाल हो गई है) कोहरे में नहाया एक रहस्य-पुरुष दिखता है जिसको वह अपनी अभिव्यक्ति बताते हैं. बड़े मजे की बात है, अभिव्यक्तिरूप वह रहस्य-पुरुष अर्थात रहस्यमय अभिव्यक्ति उनके अनुभव और चिंतन के दुखते मूलों से मुक्त होकर रूपाकार होना चाहती है, कि इसी समय मशाल की ज्योति बुझ जाती है ( चिंतन-शक्ति चुक जाती है अथवा साम्यवाद का कोई और लुभावना विचार ओवरलैप कर जाता है) और वह बेचैन निष्प्राण-सा हो जाते है. उसे देख उनके तन में थरथराहट उत्पन्न हो जाती है. थरथराहट इसलिए कि उनका चिंतन मार्क्सवाद की ओर झुका है और इस समय उनके मन में उससे उलट उद्भावना उठ रही है. यह कहने की बात नहीं कि साथी के जरा भी विचलित होने पर मार्क्सवादी बुरी तरह आक्रामक हो उठते है. रामविलास शर्मा पर उनकी टिप्पणी देखिए.

मशालों की ज्योति बुझ जाने पर (पूँजी के विचार पर लगाम लग जाने पर) मुक्तिबोध को लगता है उनकी आँखों में काली पट्टी बाँध कर जैसे उन्हें सूली दे दी गई हो. और सूली के बाद उनके अचेत शरीर को एक खड्ड में डाल दिया गया हो. पाठक थोड़ा ध्यान टिकाएँ तो वह पाएँगे कि अपनी दुर्गति के लिए वह किसी और को दोष दे रहे हैं. किसी ने आँखों में पट्टी बाँध दी, किसीने सूली पर चढ़ा दिया और किसीने उनको अचेत अवस्था में खड्ड में डाल दिया. पर किसने? वह तो एक कमरे मों बंद थे. कमरे के गवाक्ष से बाहर के अँधेरे में खिलती ज्योति का आनंद ले रहे थे. ऐसे में कौन-से अदृश्य हाथ उनतक पहुँच जाते हैं जिनका उन्हें अहसास तक नहीं होता और वे हाथ उनको सूली पर चढ़ा देते हैं? मार्क्सवादी लेखों में अक्सर पढ़ने को मिलता है कि मार्क्सवादी लेखकों या विचारकों की दुरवस्था का कोई और ही कारण होता है, वह स्वयं उसका कारण नहीं होते, जैसे झरने के जल ने उसे भिंगो दिया वह झरने के पास नहीं गया.

मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति के संपुट में, मार्क्सवाद में भी स्वतंत्र रूप से पूँजी उत्पन्न करने की अवश्य कोई धारणा घुली मिली रही होगी जो मार्क्सवादियों की सामान्य सोच से अलग होगी. अतः अपनी संभावित अभिव्यक्ति के सामने कदाचित इसीलिए उनमें थरथराहट उत्पन्न हो गई हो..   

ऐसा सोचने का कारण है. एम्प्रेस मिल का गोलीकांड सन् 1956-58 के बीच हुआ होगा (नंदकिशोर नवल, निराला और मुक्तिबोध, चार.....पृष्ठ 121). एक साक्षात्कार में मुक्तिबोध के रेडियो के सहयोगी अनिल कुमार (सन् 1956) ने,एम्प्रेस मिल गोलीकांड का जिक्र कर कहा है , शैलेंद्रकुमार भी तब वहीं थे, मुक्तिबोध से उन्होंने कहा था :  महागुरू, कविता लिखोगे?  वह बोले- नहीं, थोड़ा पकने दो. कुछ दिन बाद पता चला, कविता अडररिपेयर पड़ी है. एक टिन की पेटी थी उनके पास. कहते थे, फर्स्ट राइटिंग क्या होता है अनिल कुमार, कि जो हम कहना चाहते हैं न, वह पहले झटके में छूट जाता है. रिपेयर के लिए उठाते हैं तो रूप ही बदल जाता है. संश्लिष्टता के कारण लंबाई आ जाती है, गहराई भी (निराला और मुक्तिबोध, चार लंबी कविताएँ, नंदकिशोर नवल, पृष्ठ 125). मुक्तिबोध ने यहाँ रिपेयर शब्द का प्रयोग किया है. यह मुझे बहुत खटक रहा है. कविता तो शब्दों में संपूरित संवेदनाओं के द्वारा संबोध्य तक संप्रेषित होती हैं, क्या कविताएँ भी मशीनों की तरह रिपेयर की जा सकती हैं?

उक्त पंक्तियों से लगता है कि मुक्तिबोध ने अँधेरे मेंकविता एम्प्रेस मिल में घटी घटना के पूर्व ही लिखनी शुरू कर दी थी. और उसे अंडररिपेयर मानकर उस टिन की पेटी में रख दी थी. ऐसा मैं इसलिए सोचता हूँ क्योंकि इस कविता के प्रथम दो खंडों में मिल की घटना का आभास तक नहीं है. इसका आभास मिलता है कविता के तीसरे खंड में. संभव है शैलेंद्र कुमार के टोकने के बाद उन्होंने मिल की घटना को पकने देकर अर्थात अच्छा ताना-बाना बुन कर अंडररिपेयर कविता में पिरो दिया हो. पूरा पकने देने का यह भी अर्थ हो सकता है कि मार्क्सवादी ढाँचे में उसकी चूर गाँठ टीक से बैठा दिया जाए. इसमें उनके पूँजीवाद का अत्याचार, फासिज्म की आशंका, सबके लिए जगह थी. किंतु सन् 1962 में भारत पर चीन का जो हमला हो गया, मुक्तिबोध के चित्त को हैरान कर गया होगा. शायद इसी मानसिक स्थिति में उन्होंने इस कविता के शीर्षक से आशंका के द्वीप अंश हटवा दिया. अब प्रश्न था फासिस्ट या साम्राज्यवादी सरकार कौन, कम्युनिस्ट चीन या लोकतंत्रात्मक भारत?




Tuesday 23 January 2018

मुक्तिबोध की कविता :‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन -1


      शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव    23-01-2018    रचनाकार में प्रकाशित

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‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की एक श्रेष्ठ कविता है. पर इसको समझने में मुझे बड़ी कठिनाई हुई, इसलिए नहीं कि इसका पैटर्न नया है, शिल्प नया है, वरन् इस कारण कि इसकी काव्यवस्तु और अभिव्यक्ति दोनों उलझी हुई हैं. शब्द-रचना और उसकी व्यंजना में कहीं-कहीं एकान्विति नहीं है. कहीं-कहीं शब्दों के अर्थ जानने के लिए मुझे अपनी बुद्धि लगानी पड़ी है. इससे मुझ पर मनमानेपन का आरोप लग सकता है.

यह पूरी तरह से एक राजनीतिक कविता है. कवि की सोच का दायरा राजनीतिक है. इसमें कविता को राजनीतिक परिणाम तक ले जाने के लिए कवि ने कई योजनाएँ की हैं. पर अपने संबोध्य जन तक अपनी सोच, चिंतन और राजनीतिक भावातिरेक को पहुँचाने के लिए इसमें उनकी कोई योजना नहीं दिखती जो उसे आपाद संवेद्य बना दे. कवि की राजनीतिक संवेदनाएँ जन के मस्तिष्क तक पहुँच कर घिरनी काटने लगती है. कविता की प्रथम पंक्ति दखिए:

'जिंदगी के...'

‘जिंदगी के’ पद के बाद कवि ने तीन बिंदु रखे हैं. उनके ऐसा करने में कोई बात तो होगी ही. क्या बात हो सकती है? इसे समझने में मस्तिष्क झनझना उठता है. मुक्तिबोध ने कहीं कहा है कि मेरी कविताएँ शिक्षित वर्ग के लिए है. अब यहाँ एक शिक्षित का यह हाल है तो अशिक्षित वर्ग की क्या दशा होगी? जबकि भारत में मार्क्सवाद के प्राणाधार ये अशिक्षित ही हैं. सुधीश पचौरी ने एक जगह उल्लेख किया है कि मुक्तिबोध यह मानते थे कि उनकी कविता किसी की समझ नहीं भी आ सकती है.

कविता की काव्यवस्तु के राजनीतिक होने में कोई हर्ज नहीं. अभी कुछ दिन पहले गोरखपुर में एक पुस्तक-विमोचन समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार रामदेव शुक्ल ने कहा कि आज की कविता बिना राजनीति के नहीं लिखी जा सकती. यह अवस्था कभी भक्तिकाल में थी जब भक्ति के बिना कोई कविता नहीं लिखी जा सकती थी. किंतु सन् साठ-सत्तर के दशक में मुक्तिबोध ने अपनी इस श्रेष्ठ कविता के लिए विषय राजनीति ही चुना था- शोषक-शोषित की राजनीति. इसके लिए उन्होंने पैटर्न चुना- मिल-मजदूर की हड़ताल का. सन् साठ-बासठ के आस पास नागपुर के एम्प्रेस टेक्सटाईल मिल-मजदूरों ने वेतन में वृद्धि के लिए स्ट्राइक की थी जिसमें पुलिस को गोलियाँ चलानी पड़ी थीं. कविता में जिक्र है कि इसमें मार्शल लॉ भी लगा था, किंतु तत्कालीन आलोचक इसका कोई जिक्र नहीं करते.

मुक्तिबोध ने यह कविता एक विशेष मनोदशा में लिखी थी. यह मनोदशा थी मध्यप्रदेश सरकार द्वारा, प्रदेश के स्कूलों की पाठ्य पुस्तक के लिए लिखी गई उनकी इतिहास-पुस्तक को प्रतिबंधित कर देने से उनको लगे सदमा की. वह इससे बहुत क्षुब्ध हो उठे थे. इसे उन्होंने सत्ता, पूँजीपति, शोषकों की साजिश समझी. वह अपने मित्रों से इस प्रतिबंध की बातें करते समय उग्र हो जाते थे. गले की नसें फूल जाती थीं. उन्हें भय हो गया कि कहीं प्रदेश अथवा देश में फासिस्ट शासन न स्थापित हो जाए. प्रेमचंद के ‘सोजेवतन’ पर भी प्रतिबंध लगा था, और कंपनी सरकार कोई उदार सरकार न थी. लेकिन वह सदमे में नहीं आए थे.

कविता का भाष्य :


पहले कविता में प्रवेश: 
यह है कविता का सार-संक्षेप:

यह कविता फैंटेसी शिल्प में लिखी गई है. इसमें कवि किसी जुलूस का एक कल्पना-चित्र बनाता है. वह स्वयं भी इस कल्पना-चित्र का एक हिस्सा हो जाता है. रात में निकाले गए जुलूस के साथ मशालें भी हैं. मशालों से प्रसारित ज्योति, पास के तालाब, पहाड़ी और वृक्षों के शिखरों की फुनगियों पर चमक उठती है. मशालों के आगे बढ़ते रहने से धीरे-धीरे वृक्षों के झुरमुट के पास का अँधेरा जब पूरा छँट जाता है तो कवि को लगता है कि किसी खोह या गुफा का द्वार खुल गया हो. रात साफ नहीं है, कोहरे के अवगुंठन में है. जब मशालें बुझने लगती हैं तो उनकी श्वेत जयोति लाल होने लगती है. इसी समय कवि को (मशालों की) लाल रौशनी में नहाया हुआ एक रहस्य-पुरुष दिखता है. वह लुभावने चेहरे वाला है. कवि उसे अपनी अभिव्यक्ति कहता है. फिर मशालें बुझ जाती हैं. तब कवि को लगता है जैसे उसे किसी सूली पर टाँग दिया गया हो. और उसका शरीर किसी खड्ड में डाल दिया गया हो अचेतन अवस्था में.

यह जुलूस किसने और क्यों निकाला है, इसका यहाँ कोई स्पष्ट संकेत नहीं. किंतु कवि का जुलूस के दरम्यान लाल रंग में नहाए हुए रहस्य-पुरुष को देखने और उसे देख कर काँपने लगने, फिर रौशनी के बुझ जोने पर मृत्यु के समान बोध से भर  उसके  अचेत होकर शून्य के खड्ड में गिर जाने की अवस्थाएँ कुछ कहती हैं. यह कोई सामान्य जुलूस नहीं हो सकता. संभव है यह जुलूस राजनीतिक हो जिससे मुक्तिबोध प्रभावित हो रहे हैं, क्योंकि वह भी राजनीति से संबंधित हैं.

अब कविता को लें

कविता की प्रथम पंक्ति ‘जिंदगी के...’ से व्यंजित होता है कि कवि किसी सोच में पड़ा है. दूसरी पंक्ति “कमरों में अँधेरे” से प्रतीत होता है कि वह अपनी जिंदगी को कमरों में बँटा पाता है. पर जिन्दगी के कमरों में बँटे होने के अभिधार्थ से इसका अर्थ नहीं सुलझता, क्योंकि यह कविता है. मेरी समझ से कमरों का लक्ष्यार्थ ही लिया जा सकता है, और वह लक्ष्यार्थ होगा कवि का व्यक्तित्व. मनोविज्ञान में व्यक्तित्व के खंडों में बँटे होने की बात की जाती है.

मेरी समझ से कवि की उक्त तरह की प्रतीति चेतन अवस्था में संभव नहीं है. ऐसा तभी संभव है जब कवि परिवेश से कटा भावातिरेक में डूबा हो या स्वप्न में हो. कवि यहाँ भावातिरेक में नहीं है, किसी सोच में डूबा है. सोचते सोचते कदाचित उसे एक झपकी आती है और वह स्वप्न में खो जाता है. इसीलिए मैंने प्रथम पंक्ति के बिंदुओं में छिपे आशय का अर्थ किया है- “स्वप्न में देखे गए”. इस तरह प्रथम दो पंक्तियों का अर्थ हुआ- “जिंदगी के, स्वप्न में देखे गए कमरों में अँधेरे”. कविता को फैंटेसी में ढालने का यह बड़ा ही सुंदर प्रयोग है
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कवि यह कविता अपनी चेतनावस्था में लिख रहा है. उसे अपनी झपकी में देखे गए स्वप्न का स्मरण होता है. वह अपनी अभिव्यक्ति को पाने की इच्छा को लेकर उसका एक कल्पना-चित्र बनाता है. “वह स्वप्न में, अपनी जिंदगी को कमरों में या व्यक्तित्व-खंडों में बँटा देखता है. उन कमरों में (व्यक्तित्व-खंडों में) अँधेरा है अर्थात् अभिव्यक्ति अस्पष्ट है. अँधेरे में ‘एक कोई’ (अभिव्यक्ति की चेष्टा में कवि की चेतना) है जो लगातार चक्कर लगा रहा है (व्यक्तित्व-खंडों का तल-स्पर्श कर रहा है). कवि को उसके पैरों की आवाज (व्यक्तित्व-खंडों की नाड़ियों का आलोड़न) बार-बार सुनाई देती है (अनुभव होता है). पर वह दिखाई नहीं देता. लगता है जैसे वह किसी तिलस्मी खोह (व्यक्क्तित्व-खंड भी तिलस्मी खोह ही है) में कैद है. खोह की भीत के उस पार से (व्यक्तित्व-खंडों के दूसरे छोर से) खोह का (व्यक्तित्व-खंड का) घनीभूत और रहस्य-भरा अंधकार (अभिव्तक्ति की अस्पष्टता) बहुत पास से ध्वनि के समान (अंतर्ध्वनि से) अपने अस्तित्व को अनिवार जनाता हुआ (अभिव्यक्ति की सीमा तक पहुँचता) घूम रहा है (उद्बुद्ध हो रहा है)). कवि चाहता है, वह उसके अस्तित्व से परिचित हो ले. 

जब किसी विचार या धारणा की कभी सटीक अभिव्यक्ति नहीं मिलती तो विचारक का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसे पाने में लग जाता है. विचारक के व्यक्तित्व के हर खंड में उसकी अनुगूँज सुनाई देने लगती है. यही स्थिति यहाँ कवि की है.

उसके (‘कोई एक’ के) होने के भान से कवि का हृदय धक्-धक् करने लगता है. उसका हृदय उससे पूछ उठता है, वह कौन है  जिसकी पगध्वनि सुनाई तो देती है पर वह दिखाई नहीं देता. स्वप्नस्थ कवि जिस कमरे में बैठा है, उसकी दीवारें बहुत पुरानी हैं. उनके पलस्तर फूले हुए हैं. कमरे में अकस्मात एक फूला हुआ पलस्तर टूटता है और उसमें से चूने भरी रेत गिरती है. फिर फूली पपड़ियाँ ऐसे टूटती-खिसकती हैं कि उससे दीवार पर एक बड़ा चेहरा बन जाता है. उसमें खुद ही मुख, नुकीली नाक, भव्य ललाट और दृढ़ ठुड्डी उभर जाती है, वह एक अनजानी, अनपहचानी आकृति होती है. उसे देख कवि के मुख से निकल पड़ता है, कौन है वह, जो दिखता तो है किंतु पहचान में नहीं आता? उस आकृति को देख उसे कोई स्मृति आती है और उसके मुख से निकल पड़ता है, कौन, मनु?

इस कविता के लिखने के कुछ ही पहले मुक्तिबोध ने “कामायनी एक पुनर्मूल्यांकन” का लेखन पूरा किया था. लगता है उनके मन में अभी भी कामायनी के मनु की स्मृति ताजा थी. अतः दीवार पर बनी आकृति को देख उन्हें मनु की याद आ गई. मनु कामायनी का एक जीवंत व्यक्तित्व है.

कवि ने, कमरे में उक्त ‘कोई एक’ के पद-चापों को सुनते हुए, उत्सुकतावश कमरे के बाहर की ओर रुख किया. उसने देखा, शहर के बाहर, पहाड़ी के उस पार तालाब आदि घुप्प अँधेरे में डूबे हैं. तालाब का जल निस्तब्ध है. पर सहसा उसके तम से श्याम हुए जल के भीतर से एक श्वेत आकृति उभरती (तालाब में मशाल की ज्योति पड़ती है जो कोहरे में कुछ ऊपर उठ कर एक आकृति-सी बनाती है) है और जल के ऊपर कोहरे की चादर मे लिपटा एक बड़ा चेहरा फैल जाता है. वह चेहरा मुसकुराता है, अपनी पहचान बताता है (अस्पष्ट संकेतों द्वारा). किंतु कवि हतप्रभ है. वह कुछ समझ नहीं पाता. अधोप्रकट पंक्तियों के मशाल की दूर से आती रोशनी तालाब के जल पर पड़कर चमक उत्पन्न करती है जो पास आते जाने से बढ़ती जाती है और कोहरे पर प्रत्यावर्तित होकर एक चेहरे-सा दिखने लगती है.

तभी कवि के आश्चर्य की सीमा नहीं रहती, जब वह देखता है कि तालाब के आस पास के अँधेरे में डूबे हरे हरे वन-वृक्ष चमक उठते हैं, वृक्षों के शीश पर बिजलियाँ नाच उठती हैं अर्थात उनकी फुनगियों पर प्रकाश की किरणें चमचमा उठती हैं, पेड़ों की शाखाएँ और डालियाँ एक दूसरे से टकरा उठती हैं (जुलूस के तेजी से चलने से उपार्जित हवा के कारण) जैसे एक दूसरे पर अपने सिर पटक रही हों. तभी लगा वृक्षों के पीछे अँधेरे में छिपी किसी तिलस्मी खोह का का द्वार अकस्मात धड़ से खुला जो (अँधेरे रूपी) एक पत्थर से बंद था. वृक्षों की ओट में पसरे अँधेरे को भेद कर मशाल की रोशनी सामने आ गई.

इसके आगे कविता में प्रयुक्त डॉट बिंदुओं से यह राज खुलता है कि ज्योति की ये रश्मियाँ किसी जुलूस के साथ चल रहे मशालों की हैं (इसके प्रभाव का वर्णन पहले, स्रोत का परिचय बाद में). यह जुलूस रात में निकला हुआ है. इन डॉटमूलक बिंदुओं के विश्राम के बाद कवि कुछ यों अनुभव करता है:

मशालों की अजीब-सी लाल लाल रोशनी (पास से देखने हर बुझती हुई मशाल जो अभी बुझी नहीं है, से निकलने वाली रोशनी लाल होती है) प्रकृति के हर अंतराल के विवर के अँधेरे में घुस रही है. अर्थात जहाँ जहाँ अँधेरे का वास है उन सभी जगहों के अँधेरे में प्रवेश कर रही है. लाल-लाल रोशनी के कारण बाहर फैला कोहरा भी लाल-लाल दिखता है. इस कोहरे में कवि को, सामने लाल कोहरे में नहाया हुआ एक पुरुष दिखाई देता है जो साक्षात रहस्य है या कहें गहन रहस्य से भरा हुआ है. कवि की दृष्टि में उस रहस्य-पुरुष का ललाट तेज और प्रभा से युक्त है (अभिव्यक्ति के प्रकट होने के मुहाने पर होने से उसकी रहस्यमयता और अधिक हो गई है. क्षितिज के उषा-किरण-सी वह लाल है.) उसे देख कर कवि के शरीर में अद्भुत थरथराहट उत्पन्न हो जाती है (इस थरथराहट के अद्भुत होने से प्रतीत होता है कि यह थरथराहट वास्तविक से भिन्न है. इसमें भय के साथ कुछ और विकार भी मिश्रित हैं). वह रहस्य-पुरुष गौरवर्ण है. उसकी आँखें दीप्ति से भरी हैं. मुख सौम्य है. संभावित स्नेह-सा अर्थात जिस प्रिय में प्रेम की संभावना हो (अपने को ठीक ठीक अभिव्यक्त करना एक बडी बात है. एक परिपक्व कला है. ठीक ठीक अभिव्यक्ति आने को हो तो उसके आह्लाद का रूप कुछ ऐसा ही होता है.) ऐसे प्रिय के रूप को देख कर कवि एक विलक्षण आशंका से भर जाता है (आशंका इसलिए कि अभिव्यक्ति की प्रसन्नता कहीं प्रतिकूलता में न बदल जाए. यह भूलना नहीं चाहिए कि मुक्तिबोध लोकतंत्र को भी उतना ही महत्व देते हैं जितना मार्क्सवाद को. शंका है उनकी अभिव्यक्ति के रूप में दोनों समवेत न हों, कोई इतर रूप हो) उस भव्य, अजानुभुज (जिसके हाथ उसके घुटने तक पहुँचते हैं) को देखते ही कवि साक्षात एक गहन संदेह से भर जाता है (गाँधी भी आजानुभुज थे). अभिव्यक्ति, कवि जिसके पाने की चेष्टा में है, क्षितिज से उगते सूरज की तरह लाल और रहस्य से भरी है. परंतु उसके मन में सूरज के उगने का आह्लाद नहीं है. उसे शंका है सूरज उगेगा या नहीं याने उसकी अभिव्यक्ति उसे मिलेगी या नहीं. कहीं उनपर काले बादलों (अनर्गल साहित्यिक आंदोलनों) का साया न पड़ जाए.

मुझे कवि की शंका यों दिखती है. कवि मार्क्सवाद से प्रभावित है जहाँ अभिव्यक्ति पर अधिनायकवाद का पहरा है और वह व्यक्ति की स्वतंत्रता के भी पक्ष में है, जो लोकतंत्र का मूल्य है. कवि किस अभिव्यक्ति की तलाश में है? यह स्पष्ट नहीं.
पर कविता की अगली पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि उस रहस्यमय व्यक्ति को कवि अपनी अब तक की न पाई गई अभिव्यक्ति मानता है- याने वह अभिव्यक्ति, जिसे कवि अभी पा नहीं सका है. कवि उसे अपनी संभावनाओं (अपने होने), उसमें निहित प्रभावों (जो दूसरों को भावित कर सके), प्रतिमाओं (अपने रूपों) की और अपने परिपूर्ण के आविर्भाव (जिसमें कवि का पूरा व्यक्तित्व उच्छल हो) की पूर्ण अवस्था मानता है. कवि को लगता है वह रहस्य-पुरुष उसके हृदय में रिस रहे उसके ज्ञान का तनाव है, और उसकी आत्मा की प्रतिमा है.

वह रहस्य-पुरुष कवि की आत्मा की प्रतिमा है, कवि का यह वक्तव्य तो समझ में आता है पर कवि का यह काव्य-वक्तव्य, “हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव”, कुछ अनूठा है. मुक्तिबोध के लिए ज्ञान एक तनाव है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में ज्ञान तनाव नहीं है. ज्ञान बुद्ध को हुआ था, उनकी चेतना सम हो गई थी. उनकी पूरी जिंदगी समरसता से भर गई थी. और यहाँ ज्ञान मुक्तिबोध को तनावग्रस्त कर रहा है. सीधी सी बात है, मुक्तिबोध ज्ञान के पश्चिमी अर्थ को लेते हैं जहाँ उसका अर्थ होता है सूचनाओं का संग्रह. अगर इन सूचनाओं में कोई अपने विचारों के लिए पुष्टि ढूँढ़ने जाए तो अन्य विचारों से जोड़ बैठ न पाने पर केवल तनाव ही हासिल हो सकते हैं. एक और बात, मुक्तिबोध यह भी महसूस करते हैं कि उनकी सूचनाओं (तथाकथित ज्ञान) के तनाव उनके हृदय में रिस रहे हैं. जबकि हृदय भावों का आश्रय है तनावों का नहीं. तनाव हृदय के द्रवण में विलुप्त ही होते है.

उक्त तमाम प्रतीतियों के बाद भी कवि आश्वस्त नहीं है, लगता है कि वह रहस्य-पुरुष उसके मन की उक्त विभिन्न अवस्थाएँ है. कवि इन्हें गंभीर पश्नों के रूप में ले रहा है. कवि के लिए ये प्रश्न गंभीर तो हैं ही खतरनाक भी हैं. वह इसी सोच के तनाव में है कि मशालें बुझ गईं मानो बाहर के गुंजान और जंगलों से आती हुई हवा ने फूँक मार कर उन्हें बुझा दिया हो (किसी प्रतिकूल परिस्थिति के कारण). कवि को लगा जैसे उसने (हवा ने, विपरीत विचारवालों ने, संभवतः शोषकों ने) उसे पकड़ कर अँधेरे में मौत की सजा दे दी हो. मशालों की ज्योति के बुझने से अँधेरा कवि को और गहरा गया लगा जो उसके लिए अधिक पीड़दायक हो उठा, इतना कि उसे मौत का अहसास-सा होने लगा..

उस क्षण, मशालों के बुझ जाने से कवि को लगा मानो उसकी आँखों पर काले डैस (काली स्याही से जिसका प्रयोग लिखते समय किया जाता है) के समान अँधेरे की एक काली पट्टी बँध गई हो. मशालों के बुझने से वह जहाँ जैसा था उस स्थिति में खड़ा रह गया मानों उसे किसी खडी पाई की सूली पर टाँग दिया गया हो. उसे ऐसा भी लगा कि उसे किसी शून्य विंदु के खड्ड में अचेतन स्थिति में गिरा दिया गया हो. इस उक्ति से यही लगता है कि कवि अपने कमरे में अचेत होकर गिर गया.
समाज में कवि ने अपनी अर्थात शोषित वर्ग की बहुत-से विरोधी शक्तियों की पहचान की है. उन्हीं से उनको अधिक डर है. मुक्तिबोध को समाज और व्यक्ति में भी द्वंद्व दिखता है, हालाँकि वह दोनों को अलग-अलग मानने वाले थे

आलोचनाः (अगले अंक में)

Saturday 13 January 2018

मुक्तिबोध अँधेरे में


शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव//   13-01-2018     //    रचनाकार में प्रकाशित

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
(शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव)

मुक्तिबोध अँधेरे में
मुक्तिबोधः
मुक्तिबोध की ‘एक अरूप शून्य के प्रति’ कविता के अध्ययन के उपरांत अब मैं उनकी ‘अँधेरे में’ कविता के परिशीलन में प्रवृत हो रहा हूँ. यह कविता उन्होंने सन् 1957 ई के आसपास ‘अँधेरे में : आशंका के द्वीप‘ शीर्षक से लिखनी शुरू की थी जो सन् 1962 में जाकर पूर्ण हुई. ‘कल्पना’ पत्रिका में यह इसी शीर्षक से छपी भी, लेकिन जब लश्रमीकांत वर्मा के संपादकत्व में ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ उनका पहला संकलन छपा तो उसमें यह कविता ‘अँधेरे में’ शीर्षक से छपी. भूमिका में वर्मा ने बताया कि मुक्तिबोध की इच्छा से ‘आशंका के द्वीप’ अंश मूल शीर्षक से हटा दिया गया. हालाँकि वर्मा के मत से यह अंश इस कविता के उद्देश्य की पूर्ति ही करता था.
‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की सबसे लंबी कविता है. यह आठ खंडों में बँटी हुई है. रूप इसका प्रबंधात्मक है और भाव राजनीतिक. इस राजनीतिक भाव या संवेदना में केवल द्वंद्व के स्वर ही भास्वर हैं. यह द्वंद्व मार्क्सवाद का प्रातिनिधिक तत्व है जो उसके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की धुरी है. इस वाद में द्वंद्व ही विकास को गति देता है. द्वंद्व को यदि प्रतियोगिता तक ही सीमित रखें तो बात में दम हैं. पर मैं सोचता हूँ, मार्क्सवाद में मनुष्य-समाज दो वर्गों में बँटा है- सर्वहारा वर्ग और पूँजीवादी वर्ग. मार्क्सवाद के अनुसार इन्हीं दोनों के द्वंद्व से समाज विकास को प्राप्त होगा. तो फिर सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी वर्ग के प्रति हमेशा खड्ग-हस्त क्यों बना रहता है?
इसका कारण है. मुझे नहीं लगता कि मुक्तिबोध ने इसपर कभी विचार किया होगा. पूँजी जीवन का एक आधार है, एक शक्ति है. पर यह पैदा की जाती है. वर्तमान में सर्वहारा वर्ग के पास पूँजी पैदा करने की कोई युक्ति नहीं है. इनके पास पूँजी पैदा करने की एक युक्ति थी, सामूहिक खेती की, जो असफल हो चुकी है. किंतु पूँजीवादी वर्ग के पास पूँजी पैदा करने की कारगर युक्ति है. उनकी आज की युक्ति है, उद्योग. आदि मानव के पास यह पूँजी-उत्पादक युक्ति आखेट था, फिर पशुपालन हुआ, फिर कृषि हुई, फिर उसका रूप सामंती हुआ. आज का उद्योग उसी का विकसित रूप है. यह सर्वहारा वर्ग भी उस उद्योग का एक हिस्सा है, बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा, जो मजदूर कहलाता है. मजदूरों के यहाँ पूँजी पैदा करने की केवल एक ही युक्ति है, किसी उद्योग का हिस्सा बनना, फिर समान कार्य समान अवसर का सिद्धांत प्रस्तुत कर उनसे अपना हिस्सा माँगना. ’अँधेरे में’ में कवि द्वारा जिस जनक्रांति की बात की गई है वह वस्तुतः एम्प्रेस मिल के मजदूरों द्वारा वेतन में वृद्धि के लिए की गई हड़ताल थी.
यह कविता मुक्त छंद में लिखी गई है. यह छंद वर्णिक और मात्रिक छंदों की अग्रिम कड़ी में है, निराला द्वारा विकसित. इसका स्वरूप भारतीय संस्कृति और प्रणाली के अनुरूप था. उसमें लय थी, उसमें हर तरह की भाव-व्यंजना के लिए सामर्थ्य थी, भाव भले ही राजनीतिक हों, उस पीढ़ी के कवि और आलोचक उसकी व्यंजना में कभी भी तिक्तता नहीं आने देते थे. अब तो तिक्तता परोसना (वह भी विकृत रूप में) कवियों का स्थायी भाव हो गया है. मुक्तिबोध भी इससे अछूते नहीं हैं. इस कविता में पूँजीवादी तत्वों की भर्त्सना में वह बहुत तल्ख हो गए हैं.
मैं अभी भी यह समझ नहीं सका हूँ कि मुक्तिबोध यह क्यों नहीं समझ सके कि मार्क्स ने भले ही एक दर्शन विकसित किया हो, उनका उद्देश्य राजनीतिक था- सत्ता का विरोध कर सत्ता तक पहुँचना. इनका उद्देश्य मनुष्य तक पहुँचना नहीं था. पर मुक्तिबोध का क्षेत्र साहित्य था. साहित्य का परम उद्देश्य मनुष्य तक पहुँचना है. साहित्य का संबंध मनुष्यमात्र से ही है, जहाँ सारा खेल संवेदना का है. राजनीति में तो संवेदना व्यक्त भर कर दी, काफी है. साहित्य में संवेदना का कार्य तब पूर्ण होता है जब व्यक्ति संवेदित हो जाए, द्रवित हो जाए. मुक्तिबोध की कविता में यह गुण नहीं है. इनकी कविताओं के भाव बुद्धि के जटा-जूट में भटककर रह जाते हैं. ये चित्त को बेचैन ही कर सकते हैं, शांत नहीं. कभी कभी मुझे यह व्यंग्य-सा लगता है कि मुक्तिबोध द्वंद्वों से मुक्त होना चाहते थे.
साहित्य के क्षेत्र में अभी अभी मुक्तिबोध की अर्द्धशती मनाई गई है. उनकी ‘अँधेरे में’ कविता की अर्द्धशती भी मन चुकी है. इस अर्द्धशती में मुक्तिबोध और उनकी कविताओं से संबंधित अनेक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिले. इनमें कई-एक अच्छे और कई सामान्य दर्जे के थे. लेकिन एकाधिक लेखों को पढ़ने पर महसूस हुआ कि वर्तमान मार्क्सवादी आलोचकों में रामविलास शर्मा के प्रति बहुत गुस्सा है (हालाँकि रामविलास शर्मा आज भी सर्वश्रेष्ठ मार्क्सवादी आलोचक के रूप में मान्य हैं). क्योंकि शर्माजी ने उनकी दृष्टि में मुक्तिबोध की छवि बिगाड़ दी है. उन्होंने मुक्तिबोध को खंडित व्यक्तित्व का कवि बता दिया है, जबकि ये आलोचक मुक्तिबोध को निराला की कोटि में रखना चाहते हैं, सभी कुछ में- आत्मसंघर्ष में, भाव-व्यंजना में, काव्य-प्रतीति में अथवा काव्य-वस्तु में. पर ये जोड़ बैठा नहीं पाते. इनके तर्क कमजोर पड़ जाते हैं.
इस अर्द्धशती में प्रकाशित लेखों में कुछेक लेख ऐसे भी देखने को मिले जिसमें मुक्तिबोध को ऊँची कोटि का कवि दिखाने के लिए आलोचक आलोचना की एक कुतर्की विधि अपनाते लगते हैं. मुक्तिबोध भविष्य के कवि हैं. उनकी कविता की गति भविष्य की ओर है. ‘आजकल’ में एक लेखिका लिखती है- उनकी (मुक्तिबोध की) भविष्यवाणी सन् 2014-15 में सही सिद्ध हो गई. कैसी भविष्यवाणी? देश में फासिस्ट शासन के आने की भविष्यवाणी. पाठक विचारें, सन् 2014-15 में केंद्र में लोकमत से चुनी हुई नरेंद्र मोदी की सरकार सत्तारुढ़ हुई थी. हाँ, उस सन् में एक बात अवश्य हुई थी. जिन मार्क्सवादियों ने नेहरू की सहानुभूति पाकर कांग्रेस सत्ता में अपने लिए बरसों से जगहें बना ली थीं उनकी सुविधा पर आँच आ गई. बर्षों की सत्ता-सुविधा पाकर भी इन मार्क्सवादियों ने साहित्य के, राजनीति के, संस्कृति के, इतिहास के और अर्थ आदि के क्षेत्र में कोई नयी जमीन नहीं तोड़ी थी, कम से कम मुझे तो नहीं मालूम. स्वयं मुक्तिबोध को ही देखें. इन्होंने इतिहास की एक पुस्तक लिखी, जो मध्यप्रदेश के स्कूलों के कोर्स में लगी. कुछ संगठनों ने, जिसमें कम्युनिस्ट भी शामिल थे पुस्तक में छपे इतिहास के कुछ अंशों पर आपत्ति की, विरोध किया, जुलूस निकाले. पुस्तक प्रतिबंधित हो गई. मुक्तिबोध बहुत व्यथित हुए, जैसे उन्हें सदमा लग गया हो. वस्तुस्थिति यह थी कि इन्होंने आर्यों के प्रशंसातिरेक वाले हिटलर और राष्ट्रीय सवयंसेवकसंघ प्रमुख गोलवलकर के लेखों को पढ़ा. वे आर्यों को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ जाति मानते थे. वे दोनों इतिहासविद नहीं थे. वे जो चाहें लिखें, महत्व तो इतिहासविदों की सम्मति का होता है. पर मुक्तिबोध न तो इतिहासविद थे न इतिहासकर, न ही भारत के प्रसिद्ध इतिहासकारों का पक्ष लिया था. इनका झुकाव मार्क्सवाद की ओर था. इन्होंने अपने इतिहास में जैसे नयी जमीन तोड़ी. हम सब जानते हैं आर्यों के बारे में अनेक मत है. मुक्तिबोध अपने मार्क्सवाद के अनुसार जो उपयुक्त लगा उसे स्वरचित इतिहास में डाल दिया. विरोध तो होना ही था.
आलोचक नंदकिशोर नवल की एक कृति है ‘चार लंबी कविताएँ’. इनमें कविताओं में दो, ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की हैं और ‘सरोजस्मृति’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ निराला की. ये चारो लेख बहुत अच्छे बन पड़े हैं. पर इनपर कुछ लिखने का कोई विचार मेरे मन में नहीं है. इन लेखों को पढ़ने के दौरान मैंने गौर किया कि आलोचक इन लेखों के माध्यम से किसी न किसी विध मुक्तिबोध को निराला की कोटि तक पहुँचाना चाहते हैं. कई और मार्क्सवादी आलोचक भी यह लालसा लिए हुए हैं. पर यह क्योंकर. क्या मार्क्सवादी आलोचक रचना के स्तर पर थक हार चुके हैं?
थोड़ा सा, निराला और मुक्तिबोध की कृतियों पर. निराला के काव्य में उनकी करुणा सबपर बरसी है- चाहे वह धनी वर्ग हो या अंत्य वर्ग, कुल्लीभाट. धूप में पत्थर तोडती हुई श्रमसीकर से भींगी बाला हो अथवा पत्रांक में सोई जुही की कली. मुक्तिबोध की करुणा, यों तो किसी पर बरसी नहीं , पर उनकी संवेदना के छींटे उनके शब्दों पर अवश्य पड़ सके हैं. वह भी उन्हीं पर अधिक पड़े हैं, जो सर्वहारा वर्ग के हैं. ये छींटे पूरे मनुष्य-समाज पर नहीं, उसके एक वर्ग पर पड़े हैं.
मुक्तिबोध की काव्य-पंक्तियाँ ऊबड़ खाबड़ और लय विहीन हैं (समूची सृष्टि में लय है तो इनकी सृष्ट काव्य-पंक्तयों में क्यों नहीं). मुक्तिबोध ने जब पहली बार इस कविता का पाठ किया था तो सुनने वालों में अशोक वाजपेयी भी थे. वह बताते हैं कि जिस कमरे में वह कविता सुन रहे थे वह बीड़ियों के अधपीए टुकड़ों से भर गया था. वह कहते हैं  मुक्मुतिबोध  कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाते थे फिर बीड़ी पीते थे और फिर अधपिया टुकड़ा फेंक कर दूसरी ले लेते थे. वह कविता सुनाते सुनाते और हम श्रोता सुनते सुनते बेहाल हो गए थे. कहने का तात्पर्य यह कि न कविता में रस था न कविता सुनाने वाले में. सुधीश  पचौरी  उन्हें    बींड़ीवादी कवि (तिरछी नजर, दैनिक हिंदुस्तान) कहते हैं. बींड़ी में उन्हें बहुत रस मिलता था.
‘अँधेरे में’ का काव्यशिल्प फैंटेसी है. कविता में यह एक अमरीकी काव्य-शिल्प है. सन् 1960 ई के आस-पास अमरीकी साहित्य में इस काव्य-शिल्प की बड़ी गूँज थी. मुक्तिबोध ने इसे सीधे वहीं से ग्रहण कर लिया है, हालाँकि भारत के प्राचीन साहित्य में फैंटेसी शिल्प पर अनेक कहानियाँ मिलती हैं. जो भी हो  हिंदी कविता के लिए फैंटेसी एकदम नया काव्य-शिल्प है. फैंटेसी का अर्थ होता है- स्वप्नचित्र अथवा कल्पना चित्र. कविता में इसका प्रयोग करते समय इसमें यथार्थ में घटित घटनाओं को स्वप्न-चित्र बनाकर प्रस्तुत किया जाता है.:
The genre of fantasy is an opportunity to dream of reality as we might like it to be.
हिंदी में फैंटेसी शिल्प में कविता लिखने वाले मुक्तिबोध अकेले कवि हैं, अपनी धारा के एक मात्र गोत्रहीन कवि.
फैंटेसी शिल्प में उनको एक सुविधा भी हुई है. ‘अँधेरे में’ कविता में उन्होंने यथार्थ को फैंटेसी अर्थात स्वप्न में बदला है. यह कविता उनके लिए एक दुःस्वप्न है. हम जानते हैं, स्वप्न में दिख रहे दृश्यों में कोई तरतीब नहीं होती. दृश्य में कई अनुक्रम नहीं भी दिखते. तो रचना में यथार्थ स्वप्न जैसा दिखे इसके लिए मुक्तिबोध ने कुछेक तथ्य इस कविता में छोड़ दिए हैं. जैसे कविता की काव्य-वस्तु में उन्होंने शहर में मास्टर लॉ लगने का जिक्र तो किया है किंतु उस परिस्थिति का जिक्र नहीं किया जिस कारण मास्टर लॉ लगा. वह परिस्थति थी नागपुर एम्प्रेस कपड़ा मिल के मजदूरों की हड़ताल. इस हड़ताल में निश्चित ही तोड़ फोड़, मारपीट और आगजनी हुई होगी. ऐसी ही स्थिति में मार्शल लॉ लगता है. लोकतंत्र में भी शांतिस्थापन के लिए मार्शल लॉ की व्यवस्था है, कविता में इस हड़ताल को उन्होंने जनक्रांति कहा है, या कहें जनक्रांति की भावना की है.
मुक्तिबोध एक चिंतनशील कवि हैं. उनका चिंतन, आलोचना और कविता दोनों में उच्छल है. पर उनके इस चिंतन की उड़ान मार्क्सवाद और लोकतंत्र में उलझी हुई है. झुकाव उनका मार्क्सवाद की ओर है, किंतु पड़े लगते हैं वह लोकतंत्र के मोह में. ‘अँधेरे में’ कविता में उन्हें फासिज्म की जो आशंका है, वह अभिव्यक्ति की आजादी के खत्म हो जाने की है. इससे वह डरे हुए से लगते हैं. अभी कुछ दिन पहले इस ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ को लेकर देश में एक मुहिम छिड़ गया था. इसे छेड़ा था मार्क्सवादियों ने. पर ध्यान देने योग्य है कि ‘’अभिव्यक्ति की आजादी’’ लोकतंत्र का मूल्य है, मार्क्सवाद का नहीं. मार्क्सवाद का मूल्य है सर्वहारा का अधिनायकवाद. और इसमें अभिव्यक्ति को अधिनायक के अनुशासन में माना गया है. मार्क्सवाद कहें, साम्यवाद कहें या समाजवाद, इसमें समाज प्रमुख है और लोकतंत्र में व्यक्ति. मुक्तिबोध मार्क्सवाद और लोकतंत्रवाद दोनों को एक साथ साधना चाहते थे. पर साध नहीं पा रहे थे. उनकी यह साध (साधने की इच्छा) द्वंद्व बनकर उनके मस्तिष्क में अँटक गई थी. इसी द्वंद्व के साधने की चेष्टा में वह एक निराली अभिव्यक्ति की खोज में थे. इस अभिव्यक्ति की खोज में वह सन् 1957 से सन् 1962 तक बेचैन रहे वह बड़ी मनोव्यथा में थे. जब वह परम अभिव्यक्ति नहीं मिली तो उन्होंने बड़ी ईमानदारी से इस तथ्य को अपनी अंतिम कविता ‘अँधेरे में’ में व्यक्त कर दिया.
मुक्तिबोध अपने जीवन के हर मोड़ पर द्वंद्व में दिखाई देते हैं. वह पूजा को ढोंग मानते थे और कुलदेवी की उपासना में भी शामिल होते थे. वह नास्तिक थे और नास्तिकता के पार जाते भी दिखाई देते हैं. उनके द्वंद्व का, एक शोध छात्रा प्रभा दीक्षित ने ‘आजकल’ के नवंबर 2017 के अंक में, “मानसिक द्वंद्वों के विकल कवि” शीर्षक अपने लेख में बड़ा ही रोमांचक वर्णन किया है.
कई जगह वह मुक्त होने की बात करते हैं. पर यह मुक्ति किससे? अपने द्वंद्वों से या समाज के द्वंद्वों से? एक दृष्टि है कि अपने द्वंद्वों से मुक्ति पा ली जाए तो समाज के द्वंद्वों से मुक्त हुआ जा सकता है. क्योंकि समाज व्यक्तियों का ही समूह है. एक दृष्टि है कि पहले समाज के द्वंद्वों से निपट लिया जाए, फिर अपन द्वंद्वों की ओर रुख किया जाए. मुक्तिबोध इसी मत के लगते हैं. व्यक्ति के द्वंद्व रह ही जाएँ तो समाज के द्वंद्व जा सकते हैं क्या?
मेरे देखे वह अपने द्वंद्वों से मुक्त होना चाहते थे. कदाचित ‘अँधेरे में’ कविता में परम अभिव्यक्ति की खोज का प्रयत्न उनकी इसी चाह की ओर इंगिति है. लगता है उन्होंने निराली अभिव्यक्ति को ही द्वंद्वों से मुक्त होने का रास्ता मान लिया था जिससे द्वंद्वों में रहा भी जा सके और मुक्ति का अहसास भी बना रहे. यह उनके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के प्रति आकर्षण का प्रभाव है.
पर द्वंद्व में रहकर क्या द्वंद्व से मुक्त हुआ जा सकता है? क्या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में मुक्ति पाने की कोई अवधारणा है? यह वाद मुक्ति की बात करता भी है तो शोषण से मुक्ति की बात करता है. शोषण से मुक्ति का अर्थ है, एक शोषण से मुक्त होकर दूसरे शोषण में फँसना. साम्यवादी रूस, लाल चीन और क्यूबा के समाज इसके उदाहरण हैं. ये पूँजीवाद के शोषण से मुक्त हुए तो अधिनायकवादी शोषण में फँस गए.
‘अँधेरे में’ कविता को पढ़ा तो मैंने कितनी बार पर यह पूरी तरह पल्ले नहीं पड़ी. अब इसकी अर्द्धशती (यह कविता सन् 1957-62 के बीच लिखी बताई जाती है) में मैं इसका अध्ययन या उसको समझने की चेष्टा कर रहा हूँ. इस समय एक सुविधा भी है. नयी कविता का हो-हल्ला, खंडन मंडन अब समाप्त हो चुका है. विचारों, स्थापनाओं और प्रयोगों ने लगभग स्थायित्व पा लिया है. हालाँकि अभी भी ऐसे स्वर सर उठा लेते हैं पर ये अंधभक्ति के विकल स्वर ही अधिक हैं. जैसे ‘मुक्तिबोध-शती में छपी ये बातें कि मुक्तिबोध भविष्य के कवि हैं”. कई आलोचकों ने इसी बात को शब्द बदल कर कहा है. मंगलेश डबराल उन्हें स्थानांतरगामी (स्थान बदलने वाले, लक्ष्यार्थ भविष्य में गति करने वाले) कवि कहते हैं. यह कथन अधिक से अधिक नास्त्रेदमन के भविष्य-कथन जैसा ही भाग्य रखते हैं. पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर ग्रेग गुल्डीं को मुक्तिबोध की कहानी क्लॉड ईथर्ली के एक वक्तव्य में उन्हें लगता है कि “मुक्तिबोध ने.....मेरा मानना है कि वे कुछ और आगे जाते हैं, वे यहाँ हमें भूमंडीकरण की प्रक्रिया दिखाते हैं” (साहित्य वार्षिकी—इंडिया टुडे सन् 2017)
मंगलेश डबराल ने आजकल, नवंबर सन् 2017” के अंक में. ‘अँधेरे में’ कविता के प्रभाव को यों व्यक्त करते हैं- “इस कविता ने...एक पूरी पीढ़ी (सन् 1964-74 की) को उस अकविता की दैहिक भूल भुलैया में भटकने से रोक दिया (जो)..उन दिनों...शब्दों में दैहिक कुंठा और अराजकता की नदियाँ बहा रही (थी). बड़ा अजीब वक्तव्य है यह.. ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ सन् 1964 में प्रकाशित हुआ. इसी में यह कविता (‘अँधेरे में’) छपी थी. लगभग इसी वर्ष जगदीश चतुर्वेदी, भगवान सिंह आदि ने अकविता आंदोलन को छेड़ा. ये ‘अँधेरे में’ कविता से प्रभावित होते तो अकविता आंदोलन को ये छेड़ते ही क्यों. वास्तव में वे पश्चिम की एंटी पोएट्री से प्रभावित थे. कदाचित ऐसे ही आलोचकों के कारण, मुक्तिबोध के भीतर जो वासतविक मुक्तिबोध छिपा है वह प्रकट नहीं हो पाया है. मुक्तिबोध अँधेरे में ही रह गए है.
शैलेन्द्र चौहान कहते हैं मुक्तिबोध एक प्रतिबद्ध कवि हैं. वह एक पक्षधर कवि हैं (आजकल, नवंबर, सन् 2017). संवेदना में कोई पक्षधरता या प्रतिबद्धता होती है, मुझे नहीं मालूम. मुझे यही ज्ञात है कि संवेदना कोई भी हो, उसकी अभिव्यक्ति यदि काव्यमय है तो ही दृदय की भूमि नम होती है, उसमें कुछ अंकुरित होने की संभावना जगती है. तभी पाठक के आपाद स्नायु मंडल में असीमित खनक जगती है. प्रतिबद्धता और पक्षधरता के तो अपने अपने घेरे होते हैं. इन मूल्यों से बँध कर कोई खुले आकाश में उड़ान नहीं भर सकता. खैर यह जानने का मेरा हक है कि मुक्तिबोध किसके प्रति प्रतिबद्ध हैं किसका पक्षधर हैं? प्रतिबद्धता और पक्षधरता राजनीति में ही हो सकता है या राजनीति जैसे वातावरण में. मुक्तिबोध कहते भी हैं, पार्टनर तुम्हारी पाँलिटिक्स क्या है. वह पक्षधर लगते हैं मार्क्सवादी राजनीति के. पर मुझे तो वह मार्क्सवाद और व्यक्तिवाद की डालियों पर झूलते दिखते हैं.
जब मैं ‘अँधेरे में’ कविता के अध्ययन में रत हुआ तो लगा मैंने ठीक ही महसूस किया था. मुक्तिबोध की कविताएँ समझने में आसान नहीं हैं. इन कविताओं की काव्य-वस्तु बहुत उलझी हुई है. कवि का कविताओं का पैटर्न एकदम नया है. लिखने का ढंग अलग है. शब्द-संयोजन नया है पर ऐसा कि काव्य-पंक्तियों का अन्वय करने पर भी अर्थ-संदर्भ और अर्थ जानने में बुद्धि की अच्छी खासी कसरत हो जाती है. भारतीय मन के लिए इसमें कुछ अजनबीपन भी है.
इनकी ‘ एक अऱूप शून्य के प्रति ’ कविता का जब मैं भाष्य करने चला था तो इसके शीर्षक ने ही मुझे उलझन में डाल दिया था. मुक्तिबोध का शून्य, रूपवाला भी है और बिना रूप का भी. हालाँकि यह शून्य गणित का नहीं, साहित्य का है. वहाँ यह अरूप शून्य भी वहाँ संख्या में कई हैं. यह भी एक उलझन है कि कवि लिखना चाहता है एक अरूप शून्य के प्रति, पर लिख डालता है एक विलक्षण कुरूप जीव (जिसे नवल जी ने ईश्वर-दैत्य कहा है) के प्र्रति.
यह कैसी काव्य-रीति है. कुछ सोचने पर अकस्मात मेरे दिमाग में आया कि हो न हो कवि यह ईश्वर पर व्यंग्य कर रहा है. क्योंकि उसका ईश्वर पर विश्वास ही नहीं. वह ईश्वरवादियों पर व्यंग्य ही कर सकते थे.
एक बात सबसे आश्चर्य की लगी कि अनुभव को महत्व देने वाले मुक्तिबोध ईश्वर के अनुभव के लिए बिना ध्यान में डूबे ही (यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी है) ईश्वर को व्यंग्य की वस्तु मान लिए. ईश्वर को ईश्वरवादियों ने ध्यान में डूब कर जाना है जबकि मुक्तिबोध ध्यान में कभी डूबे ही नहीं. यह हो नही सकता कि मुक्तिबोध को ध्यान का पता न हो. वस्तुतः वह चिंतन में स्वतंत्र नहीं, पश्चिमी चिंतकों के अनुकरण और अनुसरण में थे. उन्होंने ईश्वर को तर्क के सहारे जानना चाहा. हालाँकि बुद्धि नीत्से को कहाँ ले गई उन्होंने देखा ही.
इससे लगता है मुक्तिबोध के मन में बहुत उलझाव था. वह कुछ ठहर कर अपने इस उलझाव को समझने का प्रयत्न नहीं करते थे. उस क्षण उनके भीतर उमड़ता कोई आवेग उन्हें किसी एक ओर ठेल देता था. यह आवेग उनके पश्चिम के चिंतन की समानुभूति में होने का है. मुझे लगता है, मुक्तिबोध की कविताओं को समझने के लिए उनके मन के उलझाव की प्रकृति तथा अमेरिकी और पश्चिमी काव्यांदोलनों को जानना आवश्यक है.
उनकी कविताओं में हमारी मिट्टी की खुशबू नहीं है.