Wednesday 18 April 2018

मुक्तिबोध की कविता : ‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन-5

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव            18-04-2018               रचनाकार में प्रकाशित

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एक विचारणीय प्रश्न:
पहल-108 में प्रकाशित पने लेख (‘शताब्दी पुरुष : ग. मा. मुक्तिबोध में’) में अच्युतानंद मिश्र ने मुक्तिबोध की फैंटेसी के संबंध में एक प्रश्न खड़ा किया है- आखिर मुक्तिबोध को फैंटेसी की जरूरत क्यों पड़ती है..अपने समय के दवाबों से तो मुक्तिबोध इस ओर नहीं मुड़तेवह कहते हैं, इसपर कम ही विचार किया गया हैउनकी पैंटेसी को अमूमन उनकी काव्य-कला या टेकनिक से ही जोड़ कर देखा गया है. मुझे भी उनकी फैंटेसी, कला का एक रूप ही लगती है. लेकिन लेखक का प्रश्न भी ध्यान खींचता है.

नयी कविता से कुछ पहले चलें तो छायावाद के कवियों पर अपने समय का दबाव साफ दिखाई देता है. खासकर ब्रिटिश सत्ता का दबाव. तब देश में उस सत्ता से स्वतंत्र होने की छटपटाहट थी. प्रेमचंद के सोजे वतन में इस स्वतंत्रता की मुहिम की ध्वनि महसूस कर ब्रिटिश सत्ता ने उसपर प्रतिबंध लगा दिया था. समय के इस दबाव ने ही छायावादियों को प्रस्तुत को अप्रस्तुत के माध्यम से व्यक्त करने को बाध्य कियाः

                          यमुने! तेरी इन लहरों में किन अधरों की आकुल तान               (निराला)

लेकिन मुक्तिबोध पर समय का ऐसा कोई दबाव नहीं दिखता. तारसप्तक में उनकी प्रकाशित कविताएँ गाँधी के “अंग्रेजों! भारत छोड़ो” की मुहिम के आसपास ही लिखी गईं होंगी. पर इन कविताओं पर न इस मुहिम का कोई दबाव दिखता है न उसमें इसकी कोई गूँज ही है. हाँ, इन कविताओं में वह साम्यवाद की ओर झुके जरूर दिखाई देते हैं. और उनका भारतीय साम्यवाद, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसी विदेशी संस्था के पर-चिंतन में डूबा दिखता है. इस संस्था का मानना था कि भारतीय स्वतंत्रता का साथ देना उचित नहीं है क्योंकि सोवियत रूस द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सत्ता का साथ दे रहा है. मुक्तिबोध पर इस पर-चिंतन का दबाव अवश्य दिखता है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने जनता का पक्ष न लेकर साम्राज्यवादी शक्ति का पक्ष लिया. इसीलिए कभी कभी उनका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करना एक व्यंग्य-सा लगता है. मुक्तिबोध वस्तुतः अपनी ही आकांक्षाओं के दबाव में थे. हिंदी काव्य के क्षेत्र में वह स्वयं एक दबाव लेकर आए - छायावादी काव्यानुभव और काव्य-रीति को बदल देने का दबाव लेकर.

मुक्तिबोध की यह कविता स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नेहरू-शासन में लिखी गई थी. इस शासन में न तो मार्क्सवादी पार्टी पर कोई पहरा था न मार्क्सवादी विचारों पर ही, कि मुक्तिबोध अपने मार्क्सवादी विचारों पर कोई दबाव महसूस करते. अलबत्ता उनकी इतिहास और संस्कृति विषयक स्कूली पाठ्यपुस्तक पर म प्र सरकार द्वारा प्रतिबंध अवश्य लगा था. पर वह, कुछ प्रकाशकों और एक संगठन विशेष के अनुरोध पर लगाया गया था. कुछ कम्युनिष्ट भी उसपर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में थे. यह प्रतिबंध सत्ता की किसी नीति के तहत नहीं लगा था न यह पूँजीवादी या सामंतवादी प्रतिबंध था. वैसे भी यह पुस्तक मुक्तिबोध के स्वतंत्र चित्त का अध्ययन नहीं थी. यह हिटलर और गोलवरकर के विचारों की प्रतिक्रिया में लिखी गई धी. इसमें ऐतिहासिक तथ्य पर कम, प्रतिक्रिया पर ध्यान अधिक था. इस प्रतिबंध का दवाब उनपर अवश्य था पर इसे समय का दबाव नहीं कहा जा सकता.

तो फिर मुक्तिबोध के लिए, कविता में फैंटेसी के प्रयोग का क्या कारण हो सकता है. मिश्र कहते हैं कि मुक्तिबोध की फैंटेसी को हम उनके अवचेतन को चेतन के अनुभव में बदलने की प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं...समूची अँधेरे में कविता एक भविष्यतकाल को निरूपित करती है. यहाँ सोचने जैसी बात है कि जब चेतन व्यक्तित्व की छिपी स्मृतियाँ ही अवचेतन मन कहलाती है (बी के चंद्रशेखर, मन का सहज विज्ञान) तब अवचेतन को चेतन के अनुभव में बदलने की प्रक्रिया क्या चीज है. हाँ यह स्मृति के रूप में संचित अनुभव को अवचेतन से चेतन में बाहर निकालने जैसी बात अवश्य है. इस प्रक्रिया में उनकी यह फैंटेसी प्रकट यथार्थ से एक रचनात्मक दूरी की तरह है. तो क्या यह माना जाए कि मुक्तिबोध ने “अँधेर में” कविता में जिस पैंटेसी की रचना की है वह उनकी कभी की अनुभूत है, जो उनके अवचेतन में छिप अथवा संचित हो गई हो. तब यह भविष्य का यथार्थ रचने जैसी बात कैसे हुई. लेकिन मार्क्सवादी आलोचकों की दृष्टि में मुक्तिबोध की फैंटेसी भविष्य की बात करती है (मिश्र के नुसार निरूपित है). उदाहरणस्वरूप वे उस कविता के रचना-समय के बाद देश में लगी इमर्जेंसी की ओर संकेत करते हैं. लेकिन उस तानाशाही निर्णय पर लोकतंत्र की शक्ति की विजय की तरफ से वे अपनी आँखें मूँद लेते हैं जैसा देश की स्वतंत्रता के विषय में उन्होंने किया. मुक्तिबोध को तो इस बात की कल्पना भी नहीं थी कि लोकतंत्र की शक्ति तानाशाही शक्ति को मात दे सकती है. लगता है मार्क्सवादी आलोचक किसी भी बात को बंद कपाट से देखते हैं. उन्हें यह नहीं दिखता कि नब्बे के दशक में (यदि जन के मनोनुकूल अर्थात जनाकांक्षाओं को पूरी करने वाली सत्ता के संदर्भ में सोचें) सोवियत संघ की साम्यवादी सत्ता किस तरह ध्वस्त हो गई, और चीन की साम्यवादी अर्थव्यवस्था किस तरह पूँजीवादी व्यवस्था की ओर मुड़ गई, इसका भविष्यकथन मुक्तिबोध की इस कविता में है या नहीं. इस कविता की समयावधि को लें तो यह भी तो भविष्य का यथार्थ है. तो फिर किस प्रकार मुक्तिबोध की यह कविता, उनकी विश्वदृष्टि के परिप्रेक्ष्य में, भविष्य को निरूपित करती है. उनके मन में यह प्रश्न तो उठता है कि क्या बेबिलोन नष्ट हो जाएगा पर यह सवाल नहीं उठीता कि क्या यु एस एस आर की साम्यवादी सत्ता भी बिखर जाएगी.

मुझे लगता है, मुक्तिबोध के फैंटेसी के प्रयोग की वजह वर्तमान के यथार्थ से उनका बच निकलना हो सकता है. क्योंकि सन् 1962 में भारत पर साम्यवादी चीन का आक्रमण होता है, साम्राज्य की सीमा बढ़ाने के लिए ही तो. यह एक साम्राज्यवादी घटना थी. लेकिन इस घटना की कोई ध्वनि उनकी इस कविता में नहीं मिलती. जबकि यह कविता इसी घटित घटना के आस-पास लिखी गई थी. इसमें मुक्तिबोध चीनी-साम्यवाद की इस साम्राज्यवादी मनसा की ओर से अपनी आँखें मूँदे रहते हैं. इस कविता के प्रारंभिक ड्राफ्ट में वह देश में जिस पूँजीवादी, साम्राज्यवादी और सामंतवादी शासन के पैलने की आशंका करते हैं, वह एक राजनीतिक चातुर्य से अधिक नही लगता.

मुझे इस कविता में उनकी फैंटेसी का एक कला-रूप ही दिखता है. वह अपनी अतृप्त इच्छाओं को केवल इसी विधि से कविता में व्यक्त कर सकते थे. उनकी अतृप्त इच्छा थी पूँजीवादी और सामंतवादी विरूपता और उसकी भयावहता को जनता के सामने रखना जिसके लिए पाश्चात्य साम्यवादी चिंतकों द्वारा वातावरण बनाया गया था. इसमें एक राजनेता की-सी मनोवृत्ति काम करती दिखती है. किंतु नेहरू शासन में ऐसी किसी भयावह घटना घटने की गुंजाइश उन्हें नहीं दिखी तो उन्होंने इस कविता के ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ में प्रकाशन के लिए जाने से पूर्व इसके पहले के शीर्षक से ‘आशंका के द्वीप’ अंश हटवा दिया. मुक्तिबोध ने अपनी फैंटेसी में एक जन-क्रांति की कल्पना करते हैं है पर इस जन-क्राति के स्वरूप की वह कोई चर्चा नहीं करते. इस जनक्रांति को एक भविष्य-कथन के रूप में देखा जाए तो इमर्जेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण द्वारा छेड़ी गई संपूर्ण क्रांति की ओर हमारा ध्यान जाता है. पर यह गाँधी के तरीके की क्रांति थी, जनता की लोकतंत्री शक्ति के इजहार की क्रांति, बोल्सेविकों और माओवादियों की तरह की क्रांति नहीं जिसमें सत्ता के प्रतिष्ठापन के लिए खूनी खेल खेला गया था.

भाष्यः

एकाएक मुझे..................................................................................................स्वप्न सरीखा
सेना द्वारा पकड़े जाने के डर से भागता हुआ कवि एक बरगद के पेड़ के पास आकर खड़ा हो गया. यहाँ खड़ा वह सामने का दृश्य देखने रहा है. एकाएक उसे भान होता है जैसे किसी अजनबी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया हो. इस स्पर्श से वह चौंक उठता है. अचानक उसके शरीर में सिर से पैर तक एक थर-थराहट की भयानक अनुभूति रेंग जाती है (शायद उसे पकड़ जाने की प्रतीति हुई हो). किंतु अगले क्षण उसे अनुभव होता है, यह स्पर्श बरगद के पत्ते का है जो ऊपर से गिर कर उसके कंधे से आ लगा है. वह सोचता है क्या यह किसी प्रकार का ईशारा या संकेत है. क्या यह किसी अदृश्य की चिट्ठी है. इसमें क्या इंगित है, कौन सा ईशारा है (अदृश्य की इस चिट्ठी में, किसी पूँजीवादी या सामंतवादी शक्ति की प्रताड़ना से कवि की चेतना को सतर्क करने का ईशारा तो नहीं). फिर कवि का ध्यान उसके अपने परिवेश की ओर जाता है. वह सैन्य-जुलूस के एक सैनिक द्वारा देख लिए जाने से सजा पाने के डर से भागा हुआ है. स्मरण होते ही वह फिर दम छोड़ कर भागने लगता है और एक ही दम में कई मोड़ पार कर जाता है. वह भाग रहा है और बंदूकें धाँय-धाँय चल रही हैं. मकानों के ऊपर गेरुआ प्रकाश (गोलियों के साथ निकलता प्रकाश) छा रहा है (बताया जाता है कि सोवियत रूस में स्टालिन द्वारा जनता पर कुछ इसी तरह गोलियाँ चलवाई गईं थीं सत्ता पर कबजा बनाए रखने के लिए, इस कविता के लिखने के कुछ ही वर्ष पूर्व). कई मोड़ घूमने में दम छोड़ भागते हुए कवि को लगा कि वह पृथ्वी और आकाश को ही घूम लिया अर्थात उसने काफी दूरी तय कर ली. और फिर वह एक मुँदे हुए घर के पास पहुँचा और उसमें लगी हुई पत्थर की सीढ़ी के उस पार (छुप कर) अपना सिर पकड़ कर बैठ गया. दिमाग चक्कर खाने लगा और भँवरें आने लगीं. उन भँवरों में उसे स्वप्न सरीखा कुछ दिखा. स्वप्न में डूबा कवि उस स्वप्न के अंदर स्वप्न देखने लगा-

भूमि की सतहों............................................................................................भीतें हैं झिलमिल
कवि अपनी साधारण स्वप्न-कल्पना से, और गहरे स्वप्न में प्रवेश करता है अर्थात गहराई से कल्पना करने लगता है. कल्पना की गहराई में वह महसूस करता है कि भूमि की सतहों के बहुत नीचे अँधेरे से युक्त एक प्राकृत खोह है. वहाँ बहुत एकांत है. वह खोह बहुत विस्तृत है. उस खोह के साँवले तल में अँधियारे को भेद कर कुछ पत्थर चमक रहे हैं. ये पत्थर सामान्य पत्थर नहीं हैं. इनमें तेजस्क्रिय (तेजोद्दीप्त) मणि हैं, रेडियोएक्टिव रत्न बिखरे पड़े हैं. इन रत्नों पर एक प्रबल प्रपात झर रहा है. प्रपात से झरते प्राकृत जल में आवेग है. उसकी लहरें द्युतिमान अग्नि सरीखी मणियों पर से फिसल फिसल कर बह रही हैं और लहरों के तल में से किरणें फूट रही हैं. और उन रत्नों से, उसके रंगीन रूपों की आभा पूट रही है. इस खोह की बेडौल भीतें झिलमिल झिलमिल कर रही हैं. यह खोह क्या है और ये रत्न क्या हैं, यह अगले छंद में स्पष्ट होता है.

पाता हूँ निज को............................................................................................जूझना ही तय है
उस स्वप्न में कवि अपने को उस खोह के भीतर पाता है. और उन द्युतियों को विक्षुब्ध (कदाचित उसका उपयोग न कर पाने के कारण) नेत्रों से देख रहा है. और तेजस्क्रिय मणियों को हाथों में लेकर उन्हें विभोर (विमुग्ध) आँखों से देख रहा है. नेत्रों से देखने परखने से वह अकस्मात पाता है कि दीप्ति में वलयित ये पत्थर कोरे रत्न नहीं हैं, वरन ये हैं उसके अनुभव, वेदना, उसके विवेक से निकले निष्कर्ष जो यहाँ पड़े हुए हैं (अभी उसके विचारों के स्तर तक नहीं पहुँच सके हैं). ये उसके विचारों की रक्तिम अग्नि (विचारोत्तेजना) के मणि हैं. ये उसके प्राणों के जल-प्रपात में प्रतिपल घुल रहे हैं (अर्थात इसमें उसके प्राणों की स्निग्धता और स्नेह मिले हुए हैं). इनसे जो किरणें निकल रही हैं उसमें गीली हलचल है अर्थात उसमें प्राणों और हृदय की तरलता है. कवि अफसोस करता है कि उसने इन विचार-मणियों को अपनी अकर्मण्यता से गुहा वास दे दिया है (अर्थात सक्रिय विचार में लेने से विरत हो गया है). लोक-हित-क्षेत्र से और जनोपयोग से वह इन्हें बंचित कर दिया है. यही नहीं वह उन्हें खोह मे डाल कर (अपने से दूर कर) किसी के लिए उपयोगी होने से निषिद्ध कर दिया है. कवि यह स्वीकार करता है कि वे विचारादि खतरनाक थे. उनके व्यवहार में आने से यह नौबत आ पड़ती कि जनों के बच्चे भीख माँगने नगते (इससे कवि का आशय क्या इन विचारो के विकल्पहीन होने से है). फिर वह महसूस करता है कि इस तरह से विचार करने का यह समय नहीं है. इस समय केवल एक ही चीज तय है, समस्याओं से जूझना.

आलोचनाः
बरगद के वृक्ष का बिंब खड़ा कर कवि ने दो बातें साधनी चाही है. गाँवों में बरगद का विशाल छायादार वृक्ष दीन हीनों का शरण होता है. अतः इस बिंब से वह शोषित, प्रताड़ित, दीन-हीन जनों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता है और दूसरे एक सिरफिरे पागल कवि के माध्यम से आत्मालोचन करता है. उसका यह आत्मालोचन इस कविता-खंड में भी चलता है. भागते भागते पत्थर की एक सीढ़ी के पास छिप कर जब वह एक गहन सोच में डूब कर स्वप्न देखने लगता है- स्वप्न में स्वप्न- तो वह अपने को एक अँधेरी खोह में पाता है. जो कदाचित उसकी अंतर्गुहा की खोह है. वहाँ उस घुप्प अँधेरी खोह में चमकते रत्नों के रूप में उसे उसके अपने ही अनुभव, वेदना और विवेकपूर्ण निष्कर्ष पड़े दिखाई देते हैं. इनका उसकी अंतर्गुहा में पड़े रहना उसे अफसोस में डाल देता है. इसके लिए वह अपनी ही आलोचना करने लगता है या कहें अपने को कोसने लगता है कि इन विचार और अनुभव रूपी मूल्यवान रत्नों का लोक-हित के क्षेत्रों में उसने उपयोग नहीं किया. लेकिन कवि कुछ अतिरिक्त समझदारी में पगा लगता है- कहने लगता है अब यह सब सोचने से क्या फायदा. अब तो जूझना ही तय है. लेकिन कवि की उक्त निष्क्रियता हमें सोचने पर बाध्य करती है कि कवि का उक्त उनुभव उसकी एक किस्म की लापरवाही ही है. तो फिर इस लापरवाही के साथ समस्याओं से जूझने के लिए कितना आवेग हो सकता है.

यह कविता राजनीतिक है. इसमें कवि ने काव्य को उँड़ेलने की जगह एक विचार को गूँथने का प्रयास किया है. किंतु इस कविता में जिस विचार को गूँथा गया है उसमें कोई सौंदर्य नहीं झलकता. क्योंकि इसमें उदात्तता नहीं है. इससे हमारे पोरों में संवेदना नहीं उमड़ती. कवि केवल फैंटेसी की रचना में निमग्न है. इस फैंटेसी के माध्यम से ही उसे पता चलता है कि उसकी अंतर्गुहा में उसके अनुभव-विवेकादि दबे पड़े हैं. क्यों दबे पड़े हैं, क्यों उसके सत चित सक्रिय नहीं हो पाते उसका कोई चित्ताकर्षक और संवेदनात्मक चित्रण नहीं है. भाषा में प्रवाह नहीं दिखाई देता. अगर कहीं भाषा में प्रवाह बनता भी है तो अचानक कवि की अभिव्यक्ति-मुद्रा के बदलते ही उसके सहज प्रवाह में व्यवधान पड़ जाता है. कविता-पंक्ति “क्या वह चिट्ठी है किसी की?” और “भागता मैं दम छोड़” पंक्ति के बीच संवेदनात्मक प्रवाह छिन्न सा प्रतीत होता है. अंतिम पंक्तियों- “वे (अनुभव, वेदना. विवेक निष्कर्ष) खतरनाक थे/(बच्चे भीख माँगते) खैर” में कवि के विचार का सौंदर्य बिखर कर रह जाता है. कविता के अंतिम वाक्य-विन्यासों “यह न समय है, जूझना ही तय है” में कुछ अटपटा संबंध है जिसे कवि के पक्ष में हमें ठीक करके अर्थ लिकालना पड़ता है. अन्यथा इनके सहज प्रवाह में निहितार्थ बाधित होता है.

Wednesday 11 April 2018

मुक्तिबोध की कविता : अंधेरे में–भाष्यालोचन–4

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव       रचनाकार में प्रकाशित         11-04-2018

कुछ फैंटेसी के बारे में-
मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में फैंटेसी शिल्प का प्रयोग किया है. यह “अँधेरे में” कविता तो पूरी फैंटेसी ही है. इसे हिंदी में फंतासी भी कहते हैं. फंतासी का अर्थ है कल्पना. इसमें कल्पना द्वारा चित्रांकन किया जाता है अथवा इमेजेज बनाए जाते हैं. फ्रायड के अनुसार असंतुष्ट व्यक्ति अपनी अतृप्त इच्छाओं को व्यक्त करने के लिए फैंटेसी का सहारा लेते हैं. 

हिंदी साहित्य में फैंटेसी का सर्वप्रथम प्रयोग डॉ सम्पूर्णानंद ने सन 1953 में किया “पृथ्वी से सप्तर्षिमंडल” नामक अपना विज्ञान-फंतासी लिख कर. यह एक लघु उपन्यास है. इसमें उन्होंने पृथ्वी से दिख रहे सप्तर्षिमंडल का चित्र प्रस्तुत किया है. उन्होंने उसमें कल्पना का पुट देकर उस चित्र को मनोहारी बना दिया है. लेकिन इस चित्रण में किसी भी स्तर पर वैज्ञानिक नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ है. फैंटेसी वस्तुतः कोरी कल्पना नहीं है. इसमें कल्पना के सहारे अंतर्वस्तु का चित्रांकन किया तो जाता है, पर यहाँ कल्पना अनर्गल नहीं होने पाती. आधुनिक विज्ञान-फंतासी के जन्मदाता डेनियल डेफी ने अतरिक्ष यात्रा का कथानक लेकर अपना विज्ञान-फंतासी “कॉन्सोलिडेटर” लिखा है. इसमें अतरिक्ष यात्रा का कल्पना-प्रवण और प्राणवान चित्रण किया गया है. इसमें अंतरिक्ष के ज्ञान का आधार पूरी तरह वैज्ञानिक है पर यात्रा का आधार लेखक के मन की अपेक्षा के अनुसार है. कुछ विज्ञान-फंतासियों में कृतिकारों ने विज्ञान द्वारा ज्ञात तथ्यों के अलावे कुछ और भी होने की कल्पना की है जिसकी आगे चलकर वैज्ञानिक खोजों द्वारा पुष्टि भी हुई है. यह फैंटेसी की सामर्थ्य को दिखाता है.

देखा जाए तो भारतीय साहित्य भी फैंटेसी से अपरिचित नहीं है किंतु यहाँ यह कोरी कल्पना है. यहाँ यह किस्सा के रूप में है जिससे केवल मन की कुतूहल को ही शांति मिलती है.

कविता में फैंटेसी का प्रथम प्रयोग संभवतः मुक्तिबोध ने किया है. उन्होंने अपनी अतृप्त इच्छाओं को व्यक्त करने के लिए इसका सहारा लिया है. ऐसा करना उनकी मजबूरी-सी लगती है. “अँधेरे में” कविता में इसकी साफ झलक मिलती है. इस कविता के आरंभिक खंड में उन्होंने जो कई कल्पना-चित्र बनाए हैं वे उनके अस्थिर मन के द्वारा निर्मित लगते हैं. इनके द्वारा वह कुछ कहने का प्रयत्न कर रहे हैं. उनके अस्थिर व बेचैन मन के भीतर कुछ घुमड़ रहा है जिसे अभिव्यक्त करने की राहें उन्हें नहीं मिल रहीं. इन कल्पना-चित्रों में यथार्थ की झलकें मिलती नहीं दिखती. जबकि फैंटेसी-शिल्प में यथार्थ के चित्र ही कल्पना द्वारा लंबाए और प्रभावकारी बनाए जाते हैं. और यथार्थ की कोख में ही अतृप्त इच्छाभिव्यक्ति की लकीरें खींची जाती हैं. यहाँ तो सिर्फ इतना ही साफ दिखता है कि कवि के मन में जो प्रतीति उलझी हुई है उसे वह व्यक्त तो करना चाहता है पर अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा. कदाचित वह उसी अभिव्यक्ति की खोज में है जो उसके विचारों और अहसासों को स्पष्टता दे और संप्रेष्य बना सके.

कवितारंभ के कल्पना-चित्र कवि की अभिव्यक्ति की राहें बनाने की चेष्टा-से लगते हैं. जिस रक्तालोकस्नात पुरुष की, इस राह में, झलकी मिलती है वह कवि के मन की थाह देती है. वह थाह है कवि द्वारा जगत को (लाल रंग में रंगे) मार्क्सवादी नजर से देखने की. वह उसकी व्याख्या मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ही करना चाहता है. किंतु उसका मन दोलायमान है. वह मार्क्सवादी व्यवस्था में भी लोकतंत्रात्मक अभिव्यक्ति के पाने की कामना करता है. यह आगे चल कर स्पष्ट होता है. “एक अरूप शून्य के प्रति” कविता की जड़ मार्क्सवादिता से वह बाहर निकलना चाहता है. उसमें उसकी दृष्टि केवल बाईबिल के इस वक्तव्य, कि ईश्वर ने इस जगत की सृष्टि छह दिन में की, तक ही सिकुड़ी है.

प्रथम दो खंडों को जब कवि स्वाभाविक विस्तार नहीं दे पाता है तब इसके तीसरे खंड में वह अकस्मात एक प्रोसेशन की फैंटेशी का प्रयोग करता है. दरअसल उसके मन में तत्कालीन भारतीय समाज का मार्क्सवादी विश्लेषण तैर रहा है उसके शोषक और शोषित में बँटे होने का. आजादी पाने के बाद उसे कुछ आशा थी कि उसमें कुछ परिवर्तन होगा, शोषकों पर नकेल कसी जाएगी. पर ऐसा होते उसे दिख नहीं रहा. उसके मन में शोषकों की भयावह शोषण-लीला का एक चित्र है जिसे वह अपने काव्य के माध्यम से लोगों को दिखाना चाहता है. उसकी इसी अतृप्त इच्छा की पूर्ति में सिविल लाईन्स के कमरे में पड़े पड़े उसके मन में किसी श्रमिक हड़ताल के दमन हेतु निकाले गए शोषकों के प्रोसेशन का चित्र उभर आता है. कवि अपने कमरे में पड़ा हुआ है, उसे सियारों का हो-हो और ट्रेनों के पहियों के घहराने की आवाज सुनाई दे रही है. पहियों के घहराने की आवाज से उसे संदेह होता है कि कहीं ट्रेन एक्सीडेंट न हो जाए. और इसी क्षण कविता का यह छंद बंद होता है और अगले ही क्षण कवि के मन में प्रोसेशन की बात कौंधती है. प्रोसेशन का कवि के मन में कौंध की तरह आना कविता में फैंटेसी का स्वाभाविक तौर पर आना नहीं माना जा सकता. तो क्या यह कहा जा जाए कि मुक्तिबोध की कविताओं में फैंटेसी स्वाभाविक विकास की तरह नहीं आती. इस प्रोसेशन का वर्णन कवि ने सामने घट रही घटना की तरह किया है किंतु प्रोसेशन में जो चित्र दिया गया है वह यथार्थ रूप में तत्काल घटित हो रही घटना का नहीं है. वह मार्क्सवादी दृष्टि से भारतीय समाज का विश्लेषित चित्र है, इस समाज को शोषक और शोषित में बाँट कर देखने का. इसमें शोषितों में दहशत पैदा करने के लिए शोषकों द्वारा निकाले गए भयंकर जुलूस का चित्र जो कवि के मन में है, वह उसके द्वारा कभी देखे जुलूस का है अथवा उसकी कल्पना द्वारा संयोजित है. ऐसा होने की उसके मन में आशंका है. यह सब प्रकृतिगत रात के अँधेरे में नहीं हो रहा, यह कवि के मन के अँधेरे में हो रहा है. ‘अँधेरे में’ शीर्षक कवि के मन के अँधेरे के लिए है. कवि के अपने अभिप्सित के कहने का यह अंदाज क्या काव्यमय है?

कवि की यही परेशानी है. नेहरू युग तक भारत में पूँजीवाद अभी ठीक से आया भी नहीं था, न ही नेहरू पूँजीवाद के समर्थक थे. वह तो समाजवादी समाज की संरचना में लगे थे. और मुक्तिबोध पूँजीवादी समाज की खामियों के साथ उसमें उपस्थित शोषकों की भूमिका को रेखांकित करना चाहते थे. अतः यह प्रोसेशन का जो बिम्ब उल्होंने रचा है वह शोषितों को डराने के लिए शोषकों द्वारा निकाले गए संभावित जुलूस का है. यह शोषितों में दहशत पैदा करने की कोशिश का चित्रण है. इसमें फैंटेसी की यह कल्पना अनुस्यूत है कि पूँजीवाद किस प्रकार समाज पर अपना प्रभुत्व जमाने की चेष्टा करता है. मुझे तो इसमें विदेशी पूँजीवादी शक्ति का ही द्योतन दिखाई देता लगता है.

मुक्तिबोध की कविता : ‘अँधेरे में’, खंड 4

भाष्यः

अकस्मात.........................................................................................................गल रहा दिल
काव्य-नायक कवि गत खंड में अपनी प्रोसेशन की फैंटेसी में साँस ले रहा था. इस खंड में भी वह सिविल लाईन्स के कमरे में पड़ा पड़ा कल्पना में डूबा है. किंतु उसकी ज्ञानेंद्रियाँ सजग हैं. कवि को लगा था कि उस सैन्यबद्ध प्रोसेशन के किसी सैनिक की दृष्टि उसपर पड़ गई है. अतः इस डर से कि उनकी गतिविधि को नंगा (क्रूर रूप में) देख लेने के कारण वे उसे सजा देंगे, वह कमरे से भाग चला था (कल्पना में). इसी समय अकस्मात उसे दूर कहीं चार के गजर के खड़कने की (अर्थात चार बजने की) आवाज सुनाई देती है. घंटे की आवाज सुन उसका दिल धड़कने लगता है, जाने क्या हो. पकड़ जाने के भय से उसके मन पर मटमैले वल्मीकि जैसा आवरण पड़ा था अर्थात उदासी छा गई थी. उसके उस मनरूपी वल्मीकि में सहसा कुछ हलचल हुई. भय के मारे उसकी आँखों के सामने अनेक हायफन-डैसों जैसी काली काली लीकें अंदर बाहर लिकलने पैठने लगीं (जैसे चोट लगने से आँखों से चिनगी फूटने-मिटने लगती है). उसे चारो तरफ बिखराव महसूस होने लगा. वह स्वयं को अपने कमरे में लेटा हुआ है. उसे लगता है कि उस कमरे की छत के काले काले शहतीर उसके हृदय को दबोचे ले रहे हैं. यद्यपि कमरे के बाहर आँगन के नल में जल (सप्लाई वाले) के आने की खड़खड़ाहट है जैसे वह अपने आगमन की सूचना देने के लिए खँखार रहा हो और निर्भय होने को कह रहा हों. उस क्षण कवि अपने को एकाकी और कमजोर महसूस कर रहा है. उसे लगता है उसके शरीर में बल नहीं है, अँधेरे में उसका दिल गल रहा है अर्थात उसके हृदगत भाव में दृढ़ता नहीं है, अस्थिरता व्याप रही है.

एकाएक.................................................................................................................एक जन
रात के शान्त, नीरव वातावरण में प्रोसेशन की हलचल से कवि को एकाएक जग (जागतिक क्रिया कलाप) के होने का भान होता है. उसे लगता है सब ओर अखबारी दुनिया का फैलाव है (अर्थात अखबार जिसे खबर का विषय बनाते हैं), उसी का फँसाव, घिराव और तनाव व्याप्त है. ये ही सारी विकृतियाँ अखबारों का मसाला बलती हैं. उसे महसूस होता है कि नगर में पत्ते न खड़के (नगर की शांति भंग न हो) इसलिए सेना ने शहर की सारी सड़कों को घेर लिया है. इस दृश्य को देख कवि की बुद्धि की नाड़ी समय की धक् धक् को गिनने लगती है अर्थात घड़ी घड़ी क्या हो रहा है, आगे क्या होने वाला है इसके प्रति उसकी बुद्धि चेतस हो जाती है. वह सोचने लगता है, आखिर यह सब है क्या. यह सैनिकों द्वारा शहर की घेरेबंदी क्यों. कवि भौंचक है कि क्या किसी जन-क्रांति के दमन के निमित्त यह मार्शल-लॉ लागू हुआ है! यह जनक्रांति की बात कवि के मन में कहाँ से आई, सवाल उठता है. पर यह फैंटेसी, कुछ समीक्षकों के अनुसार वास्तव में एक घटी घटना का चित्रांकन है. कवि के समकालीनों का कहना है कि मध्यप्रदेश के एम्प्रेस कॉटन फैक्टरी में श्रमिकों की एक बड़ी हड़ताल हुई थी. हड़ताल में जो जुलूस निकला था उसे ‘नया खून’ पत्रिका की ओर से कवर (cover) करने के लिए स्वयं कवि उसमें सम्मिलित हुआ था. उसी हड़ताल को एक जन-क्रांति की तरह प्रस्तुत करने की भावना यहाँ की गई है.

नेट पर दिए मजदूर हड़ताल के इतिहास में एम्प्रेस मिल की हड़ताल को रोकने के लिए मार्शल-लॉ लगाने का जिक्र नहीं है. तिलक की गिरफ्तारी पर मुंबई (तब के बंबई) के कॉटन-मिल-श्रमिकों की हड़ताल को रोकने के लिए मार्शल-लॉ लगाया गया था. और वह वास्तव में एक जन-क्रांति थी. एम्प्रेस मिल की हड़ताल को जन-क्रांति कहना गले नहीं उतरता. क्योंकि जन-क्राति के मुद्दे व्यापक होते हैं, केवल वेतन-वृद्धि नहीं. फिर भी कविता में इस प्रकार की व्यंजना को स्थान देना कविता का कोई अवगुण नहीं कहलाएगा. किंतु यथार्थ को फैंटेसी में बदलने की कला पर यह चोट जरूर है. हाँ इस स्थिति को देख कर कवि को मार्शल-लॉ लगने की भ्रांति हो रही हो तो यह अलग बात है (हालाँकि मार्क्सवादी आलोचक वास्तविक रूप से मार्शल-लॉ लगने की बात करते हैं, कवि ने भी आगे मार्शल-सॉ लगने की बात की है).

शहर में मार्शल-लॉ के लागू होने जैसी स्थिति को देख कवि दम छोड़ गलियों में भाग खड़ा हुआ. उसकी साँसें फूलने लगीं. उसने महसूस किया, जमाने की जीभ निकल पड़ी है अर्थात इसे देख उसके साथ शहर के लोग भी हतप्रभ हैं. जुलूस में से किसी ने कवि को देख लिया था अतः उसे लग रहा है उसका कोई लगातार पीछा कर रहा है. और वह दम छोड़ कर भाग रहा है. भागते भागते कई मोड़ घूम जाने पर उसे एक चौराहा दिखता है. वहाँ रुक कर वह थोड़ी देर साँस लेना चाहता है क्योंकि उसके अनुमान में वहाँ फिलहाल कोई सैनिक पहरेदार नहीं होगा. फिर उसे अंधकार से बने स्तूप के समान एक विशाल बरगद का पेड़ दिखाई देता है जो बहुत भयंकर है. यह बरगद का पेड़ ऐसा है जहाँ सभी उपेक्षित, वंचित और गरीब शरण लेते हैं. यही स्थान उनका घर और बरगद के शीर्ष का फैलाव उनकी छत होता है. उसके ही तल के अँधेरे में जो एक खोह-सा दीखता है, उसमें गृह विहीन कई प्राणी इस समय सो रहे हैं. अँधेरे में डूबे डालों में जो मटमैले चीथड़े लटक रहे हैं, वे इन्हीं अत्यंत दीन हीनों के पूँजी-धन हैं. कवि दृढ़ता से कहता है कि उस बरगद के तल में एक सिरफिरा जन रहता है.

किंतु आज..........................................................................................................रह गए तुम
इस फैंटेशी में कवि द्वारा एक सिरफिरे जन की कल्पना की गई है. वह निरुद्देश्य नहीं है. सिरफिरे व्यक्ति बिना किसी डर भय के अपने अंतस्तल की बातें करते रहते हैं जिसमें अपनी और जगत दोनों की आलोचना के लिए स्थान होता है. कवि भी, जिन्हें जगत की वास्तविक प्रतीति होती है, सिरफिरे ही माने ताते हैं. वे केवल जीवन के पक्षधर होते हैं किसी मत विशेष के नहीं.

इस छंद में कवि महसूस करता है कि बरगद के तल में इस रात कुछ अजीब बात हो रही है. वह सिरफिरा व्यक्ति जो कत्तई पागल था आज प्रज्वलित घी के समान लग रहा है. वह आज जाग्रत-बुद्धि के समान है, जैसे उसकी बुद्धि जाग्रत हो गई हो. इस समय उसका सिरफिरापन जाता रहा लगता है. वह एक प्रबुद्ध कवि की तरह उँचे गले से कोई पद गा रहा है. पद के भाव से लगता है जैसे वह अपने को उद्बोधित कर रहा है. वह पद उसके आत्मोद्बोधन से भरा है. सड़कों पर निकल रहे सैनिक-जुलूस से उत्पन्न हुई उस असहज स्थिति में उस सिरफिरे का गान कवि को अद्भुत लगता है. वह उसपर टिप्पणी कर बैठता है- यह भी खूब है. क्या उसे पता नहीं कि नगर में वाकई सैनिक प्रशासन कायम है. क्या उसकी बुद्धि भी इस क्षण जग गई है और वह आत्मविश्लेषण में लग गया है. कवि महसूस करता है कि उस सिरफिरे पागल के गीत में करुणा से भरे हृदय की रस-ध्वनि है. वह उस स्वर से जगत को परिचित कराना चाहता है, इस हेतु वह इस कविता में उसका गद्यानुवाद देता है अर्थात गद्यरूप कविता में उसे बताता है.

वह बुद्धिप्रज्वल पागल अपने मन को संबोधित करते हुए कह रहा है, हे मन! तुम तो आदर्शवादी और सिद्धांतवादी थे. तूने अबतक क्या किया. कैसा जीवन तूने जिया कि वह पूरा व्यर्थ हो गया. अपना पेट भरना ही तुम्हारा ध्येय बन कर रह गया और इसतरह तुम आत्मा से हीन हो गए. तुम्हारी स्थिति ऐसी हो गई मानो लोगों की शादी में कनात-से तनने लगे और किसी व्यभिचारी के लिए बिस्तर बनने लगे अर्थात तुम ऐसे कार्यों में लग गए जो तुम्हारे आदर्शों और सिद्धांतों के विपरीत थे.

इस छंद में सिरफिरा कवि आत्मग्लानि में डूब रहा है. वह आत्मकथन करता हैः अपने आदर्शों को लेकर मैंने अनेक दुख सहे, ऐसे कि दुखों को तमगों की तरह पहन लिया, अपने ख्यालों में ही दिन रात रहने लगा, बुद्धि का भी साथ छूट गया, अकेलापन मेरा संगी साथी हो गया, जिंदगी निष्क्रिय-सी हो गई जैसे कोई तलघर हो जिसका कभी उपयोग न होता हो. पागल यह सोच कर पीड़ित है कि वह अबतक कुछ न कर सका, उसका जीवन जीना व्यर्थ हो गया. वह अपने होने से ही पूछता है, बताओ, किस किस के लिए तुम जीए, दौड़े. करुणा के कितने क्षणों से तुम रूबरू हुए और कितने से मुँह मोड़ लिए और पत्थर बन गए. तुमने लिया बहुत ज्यादा और दिया बहुत कम. अर्थात तुम्हारे आदर्शों और सिद्धांतों से देश को कुछ भी न मिला. एक तरह से देश मरा हुआ-सा ही लगने नगा और तुम्ही एक जीवित बच रहे. तुमने लोक-हित-पिता (मार्क्सवादी विचार तंतु?) को घर से निकाल दिया अर्थात उसके महत्व को ठीक से समझा नहीं. अतः अपनी विचारणा में उसे स्थान नहीं दिया. हे मेरे आत्म! तुमने जन-मन की करुणा-सी माँ को अर्थात जन के मन में उमड़ने वाली करुणा को जो माँ की ममता-सी होती है, कोई महत्व नहीं दिया, और स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया अर्थात पूँजीवादी उत्पादों को अपना लिया. शोषितों और गरीबों के प्रति जो तुम्हारे भावनागत कर्तव्य थे उसे तुमने छोड़ दिया. हृदय के मंतव्य मार डाले अर्थात हृदय से सोचना बंद कर दिया. गरीबों के प्रति जो सहानुभूतिमय भावना तुम्हारे मन में उमड़ती थी वह जैसे सूख गई. बुद्धि का तो तुमने कपाल ही फोड़ दिया अर्थात तुम्हारी बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया. अब तुम तर्क करने से कतराने लगे. तुम्हारी चेतना जैसे जम गई, जाम हो गई और उसी जड़ता में तुम फँस गए और अपने द्वारा उत्पन्न किए गए कींचड़ में धँस गए. परिणति ऐसी हो गई कि अपने ही स्वार्थों के तेल में अपने विवेक को बघार डाला, याने विवेक से काम लेना बंद कर दिया, और अपने आदर्श को ही खा गए अर्थात अनदेखा कर दिया. सोचो, अबतक तुमने क्या किया, क्या और कैसा जीवन जीया जिसमें केवल लिया, दिया बहुत कम. इससे देश मर गया पर तुम जीवित रह गए.

मेरा सिर....................................................................................................विक्षिप्त मस्तिष्क
उस सिरफिरे का गीत, स्वप्न में परिचालित मुक्तिबोध के मन को विचलित कर गया. उस गीत में उल्लिखित बातों को सोच कर उनका सिर गरम हो गया. उनके विचारों के स्वप्नों में आलोचन-प्रत्यालोचन का दौर चल पड़ा. मन में विचारों के चित्र उभरने लगे या कहें कविता में कही गई बातें उनके मन में चित्रवत आने लगीं. और वह चिंतनग्रस्त हो गए. वह निजता से मुक्त हो बेचैन हो गए अर्थात अपने बारे में सोचना छोड़ जगत-जीवन की चिंता में पड़ गए. वह असमंजस में पड़ गए कि जग-जीवन की पीड़ा के लिए वह क्या करें, किससे कहें, कहाँ जाएँ, दिल्ली या उज्जैन. संभवतः दिल्ली की याद उनके मन में इसलिए आती है क्योंकि राजसत्ता दिल्ली में थी जिसमें प्रवेश कर ही कुछ किया जा सकता था, और उज्जैन की इसलिए कि उज्जैन में ही उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ का एक सम्मेलन कर आंतरिक शक्ति बटोरी थी. उस पागल सिरफिरे की कविता के अर्थानुगमन के बाद कवि यह समझता है कि उस पागल की अपनी स्थिति वैदिक ऋषि शुनःशेप के शापभ्रष्ट पिता अजीगर्त के समान ही है जिसने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए पुत्र को बलि के लिए वरुण के यज्ञ में प्रस्तुत कर दिया था. इस पागल ने भी जगत-जन के संघर्ष में देश को मरने दिया अपने स्वार्थ के लिए, और अपने को बचा लिया. उस पागल का अपना एक अलग ही व्यक्तित्व है, वह अपने आप में खोया हुआ है. मुक्तिबोध का कवि सोचता है कि वही पागल उसे रात में अकस्मात मिलता था (जिसकी पूर्व के कविता खंडों में चर्चा है) और दिन में पागल की तरह रहता था, सिरफिरा विक्षिप्त मस्तिष्क लेकर. तो क्या यह समझा जाए कि तालाब के तम-श्याम जल में उर्ध्व उठती हुई द्युति, मशालों के साथ प्रकटित रक्तालोकस्नात पुरुष और कमरे की साँकल को खटखटाता ‘कोई’ में इसी सिरफिरे की आत्मा थी? क्या उस सिरफिरे के आत्मोद्बोधन में मुक्तिबोध के स्वयं का आत्मोद्बोधन ध्वनित है जिसमें उसके मन की बेचैनी को अभिव्यक्ति देने की चेष्टा है.

हाय, हाय! ……………………………………………………………………………नींद गँवा दी
उस पागल का गान सुन मुक्तिबोध का मन हाय, हाय कर उठा. वह अचंभित हो उठे कि उस सिरफिरे ने यह क्या गा दिया. प्रत्यक्ष में यह क्या नयी बात कह दी उसने. कवि उसे सुन कर किसी छाया-मूर्ति के समान स्वयं अपने ही सामने खड़ा हो गया (अपने ही से बातें करने लगा). उसकी अपने से ही बहस होने लगी और उनपर परस्पर तमाचे लगने लगे. अर्थात कवि का व्यक्ति उसके अपने होने से ही उलझ गया. किंतु उसे तत्काल ही महसूस हुआ, छिः, अपने से ही लड़ना तो पागलपन है. परस्पर आलोचना प्रत्यालोचना वृथा है. गलियों में भयावह अंधकार फैला हुआ है. उसे (कवि को) लगा शायद उसी के कारण यह मार्शल-लॉ लगा है, उसी के मन-मस्तिष्क की निष्क्रियता ने इस दुर्घटना को आमंत्रित किया है. वह यहाँ तक सोच बैठता है कि उसी के कारण यह दुर्घट घटना घटित हुई है. इसी वर्णित प्रतीति को गुन कर कुछ समीक्षकों ने मुक्तिबोध को एक प्रखर आत्माभियोगी कवि के रूप में प्रस्तुत किया है. कवि कहता है चक्र से चक्र लगा हुआ है अर्थात घटनाएँ भी अनायास नहीं घटतीं. वह सोचता है, बाहरी दुनिया में कियाओं और घटनाओं का जितना तीव्र द्वंद्व है उतनी ही तीव्र गति से वह द्वंद्व भीतरी दुनिया में भी चल रहा है. फिक्र से फिक्र लगी हुई है याने एक फिक्र खत्म हुई नहीं कि दूसरी सामने आ खड़ी होती है. कवि बड़ी तीव्रता से अनुभव करता है कि उस पागल ने उसके दिन रात के चैन को तो भुला ही दिया है, उसकी रातों की नींद भी गवाँ दी है.

मैं इस बरगद....................................................................................................छटपटा रही है
कवि अपनी रची पैंटेसी में उस बरगद के पास खड़ा पाता है. वहाँ वह अपने चेहरे को किसी अथाह गंभीर साँवले जल से घुलता अर्थात विकृत होता महसूस कर रहा है. उसका मन दूर सामने झुके हुए, गुमसुम, टूटे हुए घरों में (टूटे हुए घर जिसमें सन्नाटा है) फैले अतल (जिसका कोई ओर छोर न हो) अंधकार को देख कर दुखित हो रहा है. इसके अतिरिक्त ओस से धुली हुई इस साँवली रात में उसे किसी गुरु गंभीर महान अस्तित्व की महक भी आ रही है (यहाँ कभी कर्मठ लोगों का वास रहा होगा) मानो किसी खंडहर के प्रसारों में गुलाब, चमेली आदि फूलों से भरे उद्यान रात के अंधकार में पल पल मँहक रहे हों. मगर वे उद्यान अब कहाँ हैं, अँधेरे में कुछ पता नहीं चलता. सब ओर मात्र सुगंध का ही प्रसार है. किंतु कवि अनुभव करता है कि इस सुगंध की बहती लहर में कोई छिपी वेदना, कोई छिपी गुप्त चिंता छटपटा रही है. कदाचित उक्त से कवि का यह कहना है कि कभी यहाँ दीन, दुखिया और पीड़ितों से सहानुभूति रखने वाले रहते होंगे. यह उन्हीं के सद्कर्मों और सदाशयता की सुगंध है जिसमें उन निराश्रितों, शोषितों की छटपटाती वेदना का आभास मिलता है.

समीक्षाः
यह कविता-खंड ‘अकस्मात’ पद से शुरू होता है. पिछले खंड से इसकी निरंतरता देखी जाए तो कवि सैन्य-जुलूस के किसी सदस्य के द्वारा देख लिए जाने के कारण पकड़े जाने के डर से गलियारे में भाग लिया. भागने की धुन में वह समय के प्रति चेतनशील नहीं रहा. जब रात के चार बजने के घंटे से उसका ध्यान भंग हुआ तो उसे लगा, वह चार का गजर कहीं अचानक खड़क गया है. इस खड़क से उसके भीतर कुछ हलचल-सी होने लगी है. मन चल-विचल हो उठा. उसे चारो ओर विखराव दिखाई देने लगा. किंतु कमरे के भाग चला कवि जब इस कविता खंड में कहता हैः “मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ.” तो उसका यह काव्य-वाक्य हमें अचंभे में डाल देता है- अभी अभी वह गलियारे में भाग रहा था और अभी अपने को कमरे में लेटा हुआ बता रहा है. इसतरह की अभिव्यक्ति से कविता की निरंतरता और उनकी फैंटेसी बाधित होती है. पर इसको कलागत दोष मानने के बजाय यह कहा जा सकता है कि कवि अपनी एक स्वप्न-कल्पना की फैंटेसी बनाता है फिर अगली स्वप्न-कल्पना की फैंटेसी रचने हेतु थोड़ी देर के लिए जाग्रति में आ जाता है. हर फैंटेसी के रचने के समय वह एक ही परिवेश में रहता है. उसकी स्वप्न-कल्पना बदलती रहती है. यह कहना ही उपयुक्त लगता है कि वह जाग्रत स्वप्न की अवस्था में है.

कवि अगले छंद का आरंभ भी ‘एकाएक’ पद से करता है. नगर में सैन्य-जुलूस निकला है तो नगर में तनाव होगा ही, यह अखबारों का विषय बनेगा ही, इसकी कल्पना कर एकाएक उसे संसार का भान हो उठा, सेना ने सड़कें घेर ली है, यह गुन उसकी बुद्धि की रग धड़कने लगी है- कहीं किसी जन-क्रांति के दमन-निमित्त यह मार्शल-लॉ तो नहीं लगा है. क्योंकि ऐसी व्यवस्था तभी की जाती है. मार्क्सवादी आलोचक कहते हैं मुक्तिबोध की कविता भविष्य की ओर लक्ष्य करती है. पर भारत में किसी स्तर पर कभी मार्शल-लॉ लगा हो ऐसा पता नहीं चलता. हाँ, इंदिरा-शासन में हुए जनांदोलन (यह जन-क्रांति नहीं थी) को दबाने के लिए इंदिरा ने इमर्जेंसी लगाई थी जरूर पर वहाँ जीत लोकतंत्र की हुई थी. सत्ता के दुरूपयोग के खिलाफ लोकतंत्र का हथियार भी सफल हो सकता है मुक्तिबोध को इसकी कल्पना भी नहीं थी.

कविता में कवि द्वारा निर्मित बरगद का बिंब बहुत ही जीवंत और सार्वजनिक चित्त से सरोकार रखने वाला है. बरगद का पेड़ विशाल और छायादार होता है. इसकी छाया में बहुत सारे गरीब और गृहहीन जन शरण लेते हैं. वे अपना एकमात्र धन अपने मटमैले कपड़े उसी की शाखों पर डाल कर निश्चिंत खर्राटे लेते है और कुछ जीवन-चर्या भी निपटाते हैं. ऐसे लोगों के बीच कुछ भटकते विक्षिप्त-से दिखने वाले व्यक्ति भी मिलते हैं जो वास्तव में विक्षिप्त नहीं होते. कहीं कद्र न पाकर वे ऐसे सरल लोगों के बीच आ रमते हैं. कवि की फैंटेसी में यहाँ इस बरगद के नीचे एक सिरफिरा व्यक्ति रहता है जो कभी भी कुछ भी कहता रहता होगा. उसकी बातें, यहाँ शरण लिए जन कभी चाव से सुनते होंगे, कभी उसपर हँसते होंगे. कवि ने, अपने कल्पनानुभव की रात में (जिस रात में वह मार्शल-लॉ लगने की कल्पना करता है), लक्ष्य किया कि वह सिरफिरा इस समय किसी से कुछ कह नहीं रहा वल्कि कुछ गा रहा है. उसका गीत करुणा और व्यथा से भरा है. उस गीत के बहाने लगता है कवि स्वयं आत्मलोचन कर रहा है. वह अपने पर ही अभियोग लगाता है कि जगत-जन के लिए उसने कुछ नहीं किया, जो भी किया केवल अपने लिए किया. जिससे जगत में मृत्यु की छाया जैसा मार्शल-लॉ लग गया और उसने इस कोठरी में कैद होकर अपने को बचा लिया-शापग्रस्त अजीगर्त की तरह. उसे लगता है उसी की अकर्मण्यता के कारण यह मार्शल-लॉ लगा है. वह लोगों को ठीक से जगा नहीं सका, साम्यवाद के प्रति उद्बोधित नहीं कर सका.