Friday 24 July 2015

हिंदी कोशों में भिन्न भिन्न शब्द-क्रम - महावीर सरन जैन का प्रत्युत्तर

गुरुवार, 23 जुलाई 2015


प्रो. महावीर सरन जैन
"हिंदी कोशों में भिन्न भिन्न शब्द-क्रम" शीर्षक आलेख पढ़ा। जो सवाल लेखक ने उठाया है वह तार्किक है। इसका कारण यह है कि अनुस्वार, अनुनासिकता और विसर्ग अलग अलग हैं। इनके सम्बंध में न केवल सामान्य व्यक्ति अपितु हिन्दी के कतिपय विद्वानों एवं आलोचकों को भी अनेक भ्रांतियाँ हैं। आजकल अनुस्वार और अनुनासिकता के अन्तर को विश्वविद्यालय स्तर के बहुत से हिन्दी के प्रोफेसर भी नहीं समझते। समय मिलने पर मैं इस विषय पर लेख लिखने की कोशिश करूँगा। 
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय (उच्चतर शिक्षा विभाग) के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' शीर्षक पुस्तक का अनेक वर्षों की सतत साधना और तथाकथित भाषाविदों, विभिन्न विश्वविद्यालयों, संस्थाओं के भाषा विशेषज्ञों, पत्रकारों, हिन्दी सेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मंत्रालयों के सहयोग से सन् 2010 में संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण प्रकाशित किया है।
सन् 1966 में प्रकाशित 'मानक देवनागरी वर्णमाला' तथा 'परिवर्धित देवनागरी वर्णमाला' तथा सन् 1967 में प्रकाशित 'हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' इन तीनों पुस्तिकाओं के समन्वित रूप को संशोधित और परिवर्धन के साथ केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने सन् 1983 में 'देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' शीर्षक से पुस्तिका प्रकाशित की थी। उस समय भी निदेशालय ने यह दावा किया था कि इसके निर्माण में भाषाविदों, पत्रकारों, हिन्दी सेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मंत्रालयों का सहयोग लिया गया है और एक सर्वसम्मत निर्णय तक पहुँचने का प्रयास किया गया है। सन् 1983 में प्रकाशित पुस्तक का 27 वर्षों के बाद जो संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हुआ है उसमें बढ़चढ़कर दावा किया गया है कि यह संस्करण हिन्दी भाषा के आधुनिकीकरण, मानकीकरण और कंप्यूटीकरण के क्षेत्र में नई दिशा प्रशस्त करेगा। पुस्तक में जो नियम बनाए गए हैं, उनमें परस्पर विरोध है। यह बहुत चिन्त्य है

अनुनासिकता नासिक्य व्यंजन नहीं है। यह स्वरों का ध्वनिगुण है। निरनुनासिक स्वरों के उच्चारण में फेफड़ों से आगत वायु केवल मुखविवर से निकलती है। अनुनासिक स्वरों में वायु का अंश नासिका विवर से भी निकलता है जिसके कारण स्वर अनुनासिक हो जाता है। अनुनासिकता का लिपि चिह्न चंद्रबिन्दु है। ( ँ )। व्यवहारिक कारणों से शिरोरेखा के उपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) के स्थान पर केवल बिन्दु (अनुस्वार चिह्न ं ) के प्रयोग का चलन बढ़ गया है। बहुत से लोग अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु में भेद नहीं करते। यह गलत है।
हिन्दी शिक्षण आरम्भ करते समय भाषा अध्यापक को शब्द में जहाँ भी अनुनासिकता हो वहाँ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) का ही प्रयोग करना सिखाएँ। बाद में यह बताया जा सकता है कि इ, ई, ओ, औ की मात्रा जहाँ हो वहाँ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) के स्थान पर केवल बिन्दु (अनुस्वार चिह्न ं ) का प्रयोग कर सकते हैं। अनुस्वार कोई एक व्यंजन ध्वनि नहीं है। यह विशेष स्थितियों में पंचमाक्षर ( ङ, ञ, ण, न, म ) को व्यक्त करने के लिए लेखन का तरीका है। संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग य, र, ल, व, श, स, ह के पूर्व नासिक्य व्यंजन को प्रदर्शित करने के लिए तथा संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो विकल्प से पंचमाक्षर को प्रदर्शित करने के लिए लेखन का तरीका है। उदाहरण -
कवर्ग के पूर्व अंग, कंघा ं = ङ
चवर्ग के पूर्व अंचल, पंजा ं = ञ
टवर्ग के पूर्व अंडा, घंटा ं = ण
तवर्ग के पूर्व अंत, बंद ं = न
पवर्ग के पूर्व अंबा, कंबल ं = म

हिन्दी में परम्परागत दृष्टि से तवर्ग एवं पवर्ग के पूर्व नासिक्य व्यंजन ध्वनि [ न्, म्, ] को अनुस्वार [ं] की अपेक्षा नासिक्य व्यंजन से लिखने की प्रथा रही है। सिद्धांत उपर्युक्त स्थितियों में, दोनों प्रकार से लिखा जा सकता है। मगर कुछ शब्दों में नासिक्य व्यंजन के प्रयोग का चलन अधिक रहा है। उदाहरण के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के दशकों तक मार्गदर्शक डॉ. नगेन्द्र अपने नाम को 'नगेंद्र' रूप में न लिखकर 'नगेन्द्र' ही लिखते रहे। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग के नामपट्ट में भी 'हिंदी' रूप का नहीं अपितु 'हिन्दी' रूप का ही चलन रहा है।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित "देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण" शीर्षक पुस्तिका में अनेक विरोध हैं। हिन्दी जगत में हिन्दी एवं हिंदी दोनों रूप मान्य रहे हैं। निदेशालय के नियम बना दिया है कि केवल अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाए। जो रूप सैकड़ों सालों से प्रचलित रहे हैं, उनको कोई व्यक्ति या संस्था अमानक नहीं ठहरा सकती। किसी भाषा का कोई वैयाकरण अपनी ओर से नियम नहीं बना सकता। उस भाषा का शिष्ट समाज जिस रूप में भाषा का प्रयोग करता है, उसको आधार बनाकर भाषा के व्याकरण के नियमों का निर्धारण करता है।
आज भी उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लिखा जाता है। आज भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन लिखा जाता है। संघ की पत्रिका का शीर्षक है - पाञ्जन्य। निदेशालय इन रूपों को अमानक मानेगा। गलत ठहराएगा। मैं हिन्दीतर क्षेत्रों में जाता हूँ। वे कहते हैं - हम सैकड़ों सालों से हिन्दी, कङ्गन, कम्पन, पाञ्जन्य लिखते आए हैं। भारत सरकार का निदेशालय इनको गलत ठहराता है। प्रचलित एवं मान्य रूपों को गलत ठहराना कितना गलत है - यह विचारणीय है। निदेशालय को मानकीकरण के निर्धारित नियमों पर पुनर्विचार करना चाहिए। भाषा के प्रसार की नीति होनी चाहिए। उसके प्रयोक्ताओं के बीच भ्रम फैलाने के हर कदम का हर हिन्दी प्रेमी को विरोध करना चाहिए। भारत सरकार ने निदेशालय की स्थापना इस कारण की है वह हिन्दीतर क्षेत्रों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को गति प्रदान करे।
अगर उसके किसी कदम से हिन्दीतर क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोक्ताओं में भ्रम पैदा हो रहा है तो उसका कर्तव्य है कि वह उस कदम को वापिस ले ले। कोई व्यक्ति या कोई संस्था भाषा के प्रचलित रूपों को अमानक नहीं ठहरा सकता।
संस्था को हिन्दी के प्रसार के लिए काम करना चाहिए। हिन्दी के प्रसार की गति को अवरुद्ध करने का काम नहीं करना चाहिए।

Tuesday 21 July 2015

हिंदी कोशों में भिन्न भिन्न शब्द-क्रम

मंगलवार, 21 जुलाई 2015                   'रचनाकार' में प्रकाशित



- शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

‘प्रभात बृहत् हिंदी शब्दकोश’ का कुछ अंश इंटरनेट पर उपलब्ध है. जब मैं उसे देख रहा था तो मेरा ध्यान संपादक की ‘भूमिका’ में उद्धृत कुछ पंक्तियों पर गया. ये पंक्तियाँ डॉ राकेश गुप्त की पुस्तक ‘हिंदी कोशों का भ्रष्ट शब्द-क्रम’ (प्रका. सन् 1994) से ली गई हैं. डॉ गुप्त ने इसमें लिखा है- “इस प्रकार हिंदी के कोशकारों ने एक ओर अनुस्वार का स्थान अ—औ से पहले रख दिया है, वहीं दूसरी ओर उसे ङ् ञ् ण् न् और म् से भी और पीछे ढकेल दिया है. उनका यह अराजकतापूर्ण कार्य न तो शास्त्रसम्मत है, न तर्कसम्मत है और न परंपरासिद्ध.“ यह पढ़कर मैं भी उत्सुक हुआ कि कुछ कोशों की पड़ताल करूँ. मैंने महसूस किया कि सन् 1994 तक के कोशों में जो त्रुटियाँ थीं सो तो थीं ही, उसके आगे के एक कोश में तो ये त्रुटियाँ भ्रम भी उत्पन्न कर रही हैं. आगे इसका ब्योरा दे रहा हूँ.

मेरे सामने इस समय हिंदी के तीन शब्दकोश हैं--प्रामाणिक हिंदी कोश (सं. आचार्य रामचंद्र वर्मा, सन् 1996, संशोधित संस्करण), वर्धा हिंदी शब्दकोश (सं. डॉ राकेश सक्सेना, सन् 2013), प्रभात बृहत् हिंदी शब्दकोश (सं. डॉ श्याम बहादुर वर्मा, सन् 2010) और केंद्रीय हिंदी निदेशालय की एक पुस्तिका ‘देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण, सन् 2010’ जिसमें कोश-निर्माण के लिए उपयोगी शब्द क्रम के सुझाव दिए गए हैं. इन तीनों कोशों और निदेशालय की पुस्तिका में जो कोश-क्रम (कोश में सम्मिलित किए गए समस्त शब्दों का आद्यंत वर्ण-क्रम) दिए हैं, वे अकारादिक्रम (अ-----औ क-------ह) में ही हैं पर एक ही वर्ण से शुरू हुए शब्द-क्रम के वर्ण-क्रम में भिन्नता है. किसी में शब्द-क्रम अंकारादिक्रम मे हैं, तो किसी में अँकारादिक्रम में. शब्द का द्वीतीय वर्ण वर्णमाला के क्रम में न होकर कवर्ग के पंचम वर्ण से शुरू होता है जो अनुस्वार का रूप लेकर कोश-क्रम के प्रथम वर्ण की शिरोरेखा पर लग जाता है ( अं कं ).

1. प्रामाणिक हिंदी कोश में वर्ण से शुरू शब्दों का वर्ण-क्रम है-
अं (1.अं- ङ् ञ् ण् न् म् का बिंदीरूप, 2. अँ, 3. अं- अनुस्वार) अः अ
अ के बाद द्वतीय वर्णों का वर्ण-क्रम-
क...घ च...झ ट...ण त...न प...म य...ह
एक वर्ण का क्रम-
कं(ङ्) कँ कं(अनुसंवार) कः क का कि की कु कू कृ के कै को कौ क्
य र ल व श ष स ह.

इस कोश में शब्द-क्रम अं से प्रारंभ है. अं से प्रारंभ शब्द-क्रम में द्वितीय वर्ण क्रमशः ङ् ञ् ण् न् म् हैं जो के ऊपर बिंदीरूप में हैं. ये पंचम वर्ण अपने ही वर्ग के वर्णों से जुड़ते हैं, जैसे-अंक (अङ्क)...अंचल (अञ्चल)..अंडा (अण्डा)..अंत (अन्त..अंब (अम्ब). अं के नीचे का अनुनासिक रूप अँ, फिर अं है, जैसे, अंक...अँकुड़ा...अंचल...आँचल... तत्पश्चात क्रम में अनुस्वार (अं )है. यह सिर्फ य र ल व श स ह के ही पूर्व आता है, जैसे, (अंश...). अनुस्वार के बाद विसर्ग (छंद..छः) का स्थान है. और तब के साथ द्वितीय वर्ण स्वर और फिर वर्ण वाले शब्द शुरू होते हैं और पर समाप्त होते हैं. जैसे- अए अउर...अकड़...ह तक. क्ष त्र ज्ञ और श्र अपने वर्गों के अंतर्गत अपने निर्धारित स्थान पर रखे गए हैं.

सभी प्रचलित कोशों और अधुनातन कोशों में, जिसमें हरदेव बाहरी का ‘हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश’ और अरविंद कुमार का ‘समांतर कोश’ आते हैं, में भी इसी कोशक्रम को अपनाया गया है. अरविंद कुमार ने अपने कोश के ‘..कोश का उपयोग ऐसे करें’ शीर्षक में स्पष्ट भी किया है—“वर्णमाला में (वर्णक्रम) है अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ अं अः और कोशों में (शब्द-क्रम) है अं अः अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ—(पृष्ठ 14).”

2. वर्धा हिंदी शब्दकोश में वर्ण से शुरू शब्दों का वर्ण-क्रम है-
अँ अं (अं-ङ् का बिंदीरूप, अं- अनुस्वार) अः अ आ-------ए ऐ ऑ
ओ औ
अ के बाद द्वीतीय वर्णों का वर्ण-क्रम- उक्त कोश की तरह.
एक वर्ण का क्रम-रूप-
कँ कं(ङ्) कं(अनुस्वार) कः क का---------------के कै कॉ को कौ क्
य------------------ह

इस शब्दकोश का प्रारंभ उक्त कोश के विपरीत अँ से होता है, गोया अँ कोई वर्ण हो. अँ वाले शब्दों के चुक जाने के बाद शब्द-क्रम में अं है. का अनुस्वार उक्त कोश की तरह ङ् ञ् ण् न् म् का बिंदीरूप है. इसमें कुछ अंग्रेजी शब्दों (जैसे- डॉक्टर) के हिंदी में बहुप्रचलित हो जाने से ध्वनि को भी स्वर वर्णों में के बाद और के पहले स्थान दिया गया है. यदि वर्णमाला में ध्वनि वर्ण के रूप में स्वीकृत हो जाए तो (ह्रस्व ध्वनि) के लिए स्वर वर्णों में यह स्थान उचित जान पड़ता है. वैसे यह वैयाकरणों पर निर्भर है कि को वर्णमाला में क्या स्थान देते हैं, स्वर को अनुनासिक उच्चारण देने वाले चंद्रबिंदु जैसी ध्वनि की तरह अथवा एक स्वर वर्ण के रूप में.

डॉ राकेश सक्सेना ने इस कोश में contract और confrence जैसे अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में ले लिया गया मान लिया है और उनका हिंदी रूप कोश में इस प्रकार दिया दै- कॉन्ट्रैक्ट, कॉन्फ्रैंस. यह हिंदी की प्रकृति के अनुरूप नहीं है. ऐसा करना पंचम वर्ण के अपने ही वर्ग के वर्णों से जुड़ने के नियम के आधार को ही ध्वस्त कर देना है. अब हिंदी के विचारशील विद्वानों को यह तय करना होगा कि ऐसे अंग्रेजी शब्दों को हिंदी के कोश में रखना है तो किस प्रकार रखा जाए या रखा ही न जाए.

केंद्रीय हिंदी निदेशालय की पुस्तिका में शब्दकोश के लिए शब्द-क्रम सुझाया गया है (2.9.3)-
आं आँ आ ऑ आः....
कं कँ क का कॉ कः .........क्
इसमें प्रचलित कोशों से अलग अनुनासिक (अँ) शब्दों को अं वाले शब्दों (उक्त कोशों की तरह पहले ङ् फिर अनुस्वार के साथ) के बाद एक ही क्रम में रखने का सुझाव है जो ‘वर्धा हिंदी शब्दकोश’ के विपरीत है. को के बाद और अः के पूर्व रखा गया है जो तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता.

3. प्रभात बृहत् हिंदी शब्दकोश- इस कोश में भी उक्त कोशों के कोश-क्रमों की तरह ही कोशक्रम रखा गया है. किंतु शब्द-क्रम हिंदी वर्णमाला के अनुसार है. इसमें शब्द वर्ण से शुरू होते हैं. शब्दों का वर्ण-क्रम यों है-
अ अं अः अँ 
अ के बाद द्वितीय वर्णों का क्रम है-
इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ, अनुस्वार(अं), विसर्ग(अः), क...ङ च...ञ
ट...ण त...न प...म य र ल व श ष स ह अँ(चंद्रबिंदु वाले शब्द)
एक वर्ण का क्रम-
क का कि की कु कू के कै को कौ क्
कं(ङ्) का स्थान कवर्ग में ङ् के आने पर ही है, ञ्,ण् के भी.....
क या किसी अन्य प्रथम वर्ण के बाद द्वीतीय वर्ण का क्रम-
पहले स्वर वर्ण (अ...औ) जैसे- कई, फिर अनुस्वार (अंश), फिर विसर्ग (छः), क से ह तक के वर्ण, फिर चंद्रबिंदु (कँ)

हिंदी में विसर्गयुक्त शब्द संस्कृत से आए हैं. ये प्राय शब्द के बीच में आते हैं, द्वीतीय वर्ण-क्रम के बाद --अतः प्रायः. लेकिन शब्दकोश में इन्हें रखने का नियम एक ही है.
यह कोश पहले से संबंधित विविध सूचनाएँ देता है. के साथ द्वितीय वर्ण (अ—औ) से बने शब्द आते है (अउर, अए..). फिर अनुस्वार वाले शब्द (अंश..), फिर विसर्ग वाले शब्द, यदि हों, फिर के साथ से प्रारंभ कर तक वाले शब्द और अंत में अँ से बने शब्द आते हैं.
अंग्रेजी शब्दों की ध्वनि को इस कोश में स्थान नहीं दिया गया है. डॉ वर्मा ने डॉक्टर को डाक्टर लिखना पसंद किया है. अब विद्वान ही इस संबंध में उपयुक्त निर्णय ले सकते हैं.

उक्त कोशों और निदेशालय की पुस्तिका में दिए गए शब्द-क्रम की समीक्षा से स्पष्ट हो जाता है कि सबके शब्द-क्रम अलग अलग हैं. हिंदी कोशों के लिए यह कत्तई सराहनीय स्थिति नहीं है. आज हम हिंदी को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित कराना चाहते हैं पर हम अपने ही में इतने विखरे हैं कि यह आशा धूमिल ही लगती है.

आश्चर्य की बात है कि सन् 1994 में डॉ राकेश गुप्त ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी कोशों का भ्रष्ट शब्द-क्रम’ में कोशों की इन व कुछ और त्रुटियों की ओर (देखें, भूमिका, प्रभात बृहत् हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ सोलह)* कोशकारों का ध्यान आकृष्ट किया था पर किसी ने उसपर ध्यान नहीं दिया. डॉ हरदेव बाहरी का हिंदी कोश, हिंदी-अंग्रेजी कोश और अरविंद कुमार का समांतर कोश इक्कीसवीं सदी में आए हैं पर इन लोगों ने बींसवी सदी की पुरानी परिपाटी को ही अपनाना उचित समझा. हालाँकि डॉ बाहरी मानते हैं कि कोशक्रम वर्णमालाक्रमानुसारी होना चाहिए. केंद्रीय हिंदी निदेशालय भी यही सुझाव देता है- “शब्दकोश निर्माण में भी सही अकारादि क्रम का पालन आवश्यक है” निर्देश बिंदु (2.9). पर इसमें अनुस्वार और विसर्ग को वर्णमाला के वर्णों के क्रम में रखा ही नहीं गया है जबकि इनकी पुस्तिका के निर्देश बिंदु 3.6.1.2 में अलुस्वार को व्यंजन माना गया है.

हिंदी के प्रथम शब्दकोश हिंदी शब्दसागर (सं श्यामसुंदरदास प्र सन् 1928), जिसमें रामचंद्र वर्मा आद्यंत सहयोगी रहे, के निर्माण में शब्द-क्रम के लिए जो अंकारादिक्रम अपनाया गया है, और जो आजतक अपनाया जा रहा है, वह उस समय के लिए उपयुक्त था. क्योंकि हिंदी की आरंभिक कोश-रचना के समय कोशकारों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती थी, हिंदी शब्दों के रूप को स्थिर करना. हिंदी के सामने तब विश्वभाषाओं के कोशों की चुनौती नहीं थी. तब हिंदी जाननेवालों के सामने हिंही वर्णमाला के परिचय की अनिश्चितता नहीं थी (इसे आगे के शीर्षक ‘हिंदी वर्णमाला की अराजकता’ में मैंने दिखाया है). तब हिंदी की वर्णमाला सुनिश्चित थी. प्राथमिक स्तर पर ही विद्यार्धी इसमें इतने निपुण हो जाते थे कि अनुस्वार से शुरू होने वाले शब्दों में पंचम वर्णों वाले शब्दों को भी आसानी से खोज लेते थे. किंतु आज वह स्थिति नहीं है. आज विशव की संपन्न भाषाओं के कोश हमारे सामने हैं जो पूरी तरह व्यवस्थित व अपनी अपनी वर्णमाला के क्रमानुसार हैं. हिंदी कोशकार आधुनिक कोश-चेतना से संवेदित होते हुए भी इसके प्रति बेफिक्र लगते हैं.

लेकिन खुशी की बात है कि उक्त उदाहृत कोशों में डॉ श्याम बहादुर वर्मा द्वारा संपादित ‘प्रभात बृहत् हिंदी शब्दकोश‘ (प्र सन् 2009) आधुनिक कोश-चेतना की कसौटी पर खरा उतरता है. इसमें कोश से संबंधित त्रुटियाँ दूर कर दी गई हैं. संभव है कोई त्रुटि रह गई हो. मुझे आशा है वह इस कोश के कोशकारों की सजग दृष्टियाँ उसे खोज ही लेंगी. आगे के खोशकारों के लिए यह उदाहरणस्वरूप है. उन्हें अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पड़ेगा.

हिंदी वर्णमाला की अराजक स्थिति

हिंदी कोशकारों ने भले ही अपने कोशों में शब्द-क्रमों को अंकारादि या अँकारादिक्रम को अपनाया हो, वर्णमाला का क्रम एक ही है. वह है-

स्वर वर्ण-     अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ 11
अयोगवाह     अं अः                        2
व्यंजन वर्ण    कवर्ग से पवर्ग तक ड़ ढ़ समेत   27
अंतस्थ और उष्म वर्ण     (य----------ह)        8
संयुक्त व्यंजन वर्ण       (क्ष त्र ज्ञ श्र)1        4 =52
1. क्+ष् से क्ष्, त्+र् से त्र, ज्+ञ् से ज्ञ्, श्+र् से श्र् पहले संयुक्त वर्ण ही बनता है. अ से जुड़ने पर हल चिह्न हटता है.

यही वर्णमाला बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के प्राथमिक स्तर की पुस्तकों में रहती थी. लेकिन जबसे हिंदी के मानकीकरण के प्रयास होने लगे हैं समस्या और उलझती चली गई है. आज की प्रचलित हिंदी व्याकरण की प्राथमिक पुस्तकों/व्याकरण में वर्णमाला से संबंधित भिन्न-भिन्न मत देखने को मिलते हैं. देखें-

वैयाकरण वासुदेवनंदन प्रसाद ने अपने व्याकरण में वर्णमाला में 48 वर्ण माना है, क्ष त्र ज्ञ श्र को वर्ण नहीं माना है, वचनदेव कुमार ने 49, (अं अः श्र को छोड़ कर), हरदेव बाहरी ने 53 (ऴ को भी वर्णमाला में गिना है) और N C E R T के मानक व्या. में 55 (गृहीत आ ज फ, नीचे बिंदी, को वर्णमाला में रखा गया है) वर्ण माने हैं. प्रतियोगी परीक्षार्थियों के लिए बाजार में उपलब्ध प्रतियोगिता-पुस्तकों में भी यही स्थिति देखने को मिलती है.

केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने अपनी पुस्तिका के प्रारंभ में ही हिंदी वर्णमाला की सूची दी है जिसमें 50 वर्ण हैं. इसमें से अं अः को हटा दिया गया है. यह और भ्रम उत्पन्न करने वाला है. ताज्जुब यह कि पुस्तिका के निर्देश बिंदु 2.9 में अनुस्वार को व्यंजन माना गया है फिर भी इसे वर्णमाला में स्थान नहीं दिया गया है. डॉ वासुदेवनंदन प्रसाद ने अनुस्वार और विसर्ग दोनों को व्यंजन माना है. व्यंजन बिना स्वर का सहारा लिए उच्चरित नहीं हो सकते. अनुस्वार और विसर्ग भी स्वर के सहारे ही उच्चरित होते हैं. इन्हें व्यंजन की तरह ही स्वर के सहारे ही लिखा जाता है.
वैयाकरणों को वर्णमाला को लेकर इस भ्रम दूर करना ही होगा.