Thursday 11 February 2016

श्लील-अश्लील




एक बार स्वर्ग की नर्तकी उर्वसी को अपने रूप यौवन पर बड़ा अभिमान हो गया था. उसने ऋषियों को चुनौती दे डाली थी- वे मेरा नृत्य देख कर अपने आपको रोक नहीं सकेंगे.
तो इंद्र ने उसके कहने पर एक नृत्य सभा का आयोजन किया और ऋषियों को भी बुला भेजा.
उर्वशी ने इंद्रसभा में वस्त्रउतार नृत्य प्रारंभ किया. नृत्य बहुत सुंदर था, सभी सभासद और ऋषि उर्वशी का नृत्य देख मंत्रमुग्ध हो गए.
तभी नृत्य करते करते उर्वसी ने अपना एक अंगवस्त्र उतार फेंका और नृत्य जारी रखा. एक ऋषि से उर्वशी का यह नृत्य देखा नहीं गया. उसने सभा छोड़ दी.
नृत्य रत उर्वशी ने इधर एक-एक अंगवस्त्र उतार कर फेकने शुरू किेए उधर एक-एक ऋषि सभा छोडकर जाने लगे, लेकिन एक ऋषि हठी निकला. उसने सभा नहीं छोड़ी. उर्वशी को लगा अब उसका गर्व टूटने ही वाला है. और तब उसने अपने शरीर का अंतिम वस्त्र भी उतार फेंका. नृत्य वास्तव में सुंदर और अद्भुत था. सभा में उपस्थित वह अंतिम ऋषि उठा और तालियों से उर्वशी के नृत्य की प्रशंसा की किंतु सभा से उठकर गया नहीं. बोला, उर्वशी, तुम्हारा नृत्य अद्भुत है परंतु एक कमी अभी भी रह गई है. एक वस्त्र अभी भी शेष रह गया है तुम्हारा, तुम उसे भी उतार फेंको. ऋषि का ईशारा था, यह देह भी तो एक वस्त्र ही है जिससे उसके होने (beeing) को सजाया गया है.
यह वाक्य कान में पड़ते ही उर्वशी नृत्य करते करते रुक गई. ऋषि का अर्थ उर्वशी की समझ में आया और वह पछाड़ खाकर ऋषि के पैरों पर लुढ़क गई. उसका सारा अभिमान चूर चूर हो गया था.

Monday 8 February 2016

अंगुलिमाल : उत्तर प्रसंग/कहानी

रचनाकार में प्रकाशित       8-2-2016




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उत्तर प्रसंग
तथागत अंगुलिमाल को साथ लेकर उस स्थान पर आ गए जहाँ वह ठहरे हुए थे. वहाँ उनके शिष्य बड़ी व्याकुलता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे. अभी तक उनके शिष्यों के हृदय की बढ़ी हुई धड़कनें थमी नहीं थीं. वे प्रशनाकुल हुए बड़ी तेज गति से तथागत के समीप सिमट आए और उनका कुशल-क्षेम पूछने लगे.
तथागत ने वन में घटी घटना से अपने शिष्यों को अवगत कराया और फिर अपने नए शिष्य से उनका परिचय कराया-
           “ये हैं हमारे संघ के नए संन्यासी, अंगुलिमाल. ये तुम लोगों के साथ ही रहेंगे. तुमलोग इनसे किसी प्रकार की छेड़-छाड़ न करना. इनके संबंध में किसी से कोई चर्चा भी न करना”.
तथागत की देशना में किसी तरह के प्रचार का स्थान नहीं था. उनका प्रयोग-क्षेत्र मनुष्य था.
अंगुलिमाल ने बौद्ध-संन्यासी का चीवर धारण कर लिया. वह तथागत की नित्य की दैनिक देशना में सम्मिलित होने लगा और अन्य संन्यासी शिष्यों के साथ भिक्षा के लिए भी जाने लगा. पुरवासियों को उसके संबंध में कुछ भी पता नहीं होने दिया गया. उन्हें केवल इतना ही पता था कि भगवान वन में अंगुलिमाल के विचरण-भेत्र की ओर गए थे. किसलिए गए, कहाँ तक गए, कब आए, अंगुलिमाल से उनकी भेंट हुई या नहीं, इसका उन्हें कुछ भी पता नहीं हुआ. क्योकि यह प्रयाण बुद्ध की दैनिक चारणा का अंग था. पुरवासियों को क्या पड़ी थी कि वे भगवान के शिष्यों से, उनके साथ क्या घटा, क्या नहीं घटा इसकी पड़ताल करें. कुछ घटा होता तो आश्रम में कुछ हलचल अवश्य होती.
उधर उसकी माँ भी वन से वापस आ गई. आकर अपनी दैनिक चर्या में लग गई. अंगुलिमाल के बुद्ध का शिष्य बन जाने से वह बहुत प्रसन्नचित थी. उसका पुत्र सम्राट के हाथ में पड़ने से बच गया था. यदि पड़ जाता तो उसे मृत्यु की सजा निश्चत थी.
भले ही उसका पुत्र डाकू-हत्यारा हो गया था, उस माँ के मन में पुत्र के प्रति आक्रोश का भाव होते हुए भी उसके प्रति अभी भी स्नेह शिथिल नहीं हुआ था. उसका स्नेह ही उसे पुत्र से मिलने जाने के लिए बाध्य कर देता था. वन में जिस समय उसने पुत्र को तथागत के चरणों में झुके देखा उसके नेत्र छलछला आए थे. एक क्षण के लिए उसकी ममता में ऊफान सा आ गया था. उस क्षण उसके मन में हुआ कि वह पुत्र को अपनी आँचल में समेट ले, पर उसने अपने को रोक लिया था. भावावेश के क्षण में भी उसे लगा कि वह क्षण उस कृत्य के लिए उपयुक्त नहीं था.     
अंगुलिमाल तथागत के साथ उनके प्रवासाश्रम में आ गया, बौद्ध आश्रम में निभाई जाने वाली सभी चर्याओं को उसने अपना भी लिया. आश्रम में ध्यान  करना अनिवार्य था. वह ध्यान के लिए भी बैठने लगा पर ध्यान साध नहीं पाता था. ध्यान-मुद्रा में बैठकर ज्योंही वह नेत्र मूँद कर अपने भीतर प्रवेश करने का प्रयत्न करता उसके मन में उसके वे हत्या-कृत्य उभर आते जो उसने 999 उँगलियों को प्रप्त करने के लिए किए थे. वह आत्मग्लानि से भर जाता और घबराकर ध्यान से उठ जाता.
वह दिन-रात पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा. किंतु अपने संन्यासी साथियों पर वह इसे प्रकट नहीं होने देता था.
उसकी समूची सूचनाएँ नित्य तथागत तक पहुँचती रहती थीं. पर ये सारी सूचनाएँ उसकी बाह्य गतिविधि की ही होती थीं.
अगुलिमाल इससे अनभिज्ञ था. उसकी अनभिज्ञता में तथागत उसके प्रति अपने कर्तव्य निभा रहे थे. उसके मन में घट रही अंतर्घटनाओं को वह उसके मन पर अपना ध्यान फेंक कर जान लेने में समर्थ थे. उनके संबंध में ये तथ्य मिलते हैं कि जहाँ वह अपने शिष्यों के साथ ठहरते थे, यदि वहाँ कोई जनश्रद्धा-स्थल होता, तो अपने शिष्यों से, उस स्थल पर ध्यान फेंक कर, यह जानने को कहते कि देखो इस स्थल की सही स्थिति क्या है. उनके शिष्य उस पर अपना घनीभूत ध्यान फेंक कर उन्हें बताते कि वहाँ किसी साधु की या किसी तपस्वी की समाधि है.
इसी बीच तथागत को सूचना प्राप्त हुई कि सम्राट प्रसेनजित उनका दर्शन करना चाहते हैं.
वास्तव में सम्राट वहाँ के पुरवासियों की प्रार्थना पर एक बड़ी सेना लेकर अंगुलिमाल को पकड़ने के लिए उसी समय चल पड़े थे जब तथागत जंगल की ओर प्रयाण किए थे, अंगुलिमाल से मिलने. मार्ग में उन्हें सूचना प्राप्त हुई कि तथागत अपने शिष्यों के साथ उसी जंगल के पास के गाँव में ठहरे हुए हैं जो अगुलिमाल का विचरण-क्षेत्र है. सम्राट ने पहले तथागत के दर्शन करने का निर्णय लिया.
सम्राट की सूचना पाते ही तथागत ने उन्हें बुला लिया. तथागत के पास आकर सम्राट ने उनका अभिवादन किया और उनसे अपने आने का उद्देश्य बतायाः
           “यहाँ के पुरवासियों की प्रार्थना पर हम यहाँ आए हैं. किसी अंगुलिमाल नाम के डाकू ने उनके प्राण संकट में डाल रखा है. वे उससे बहुत आतंकित हैं. जो भी जंगल के मार्ग से जाता है वह उनकी हत्या कर उनकी उँगलियाँ काट लेता है. हम अपने सैनिकों के साथ उसे पकड़ने आए हैं.”
तथागत ने सम्राट की बातें सुनीं. पूछा-
           “सम्राट, यदि मैं अंगुलिमाल को आपके सामने ला दूँ, तो आप उसके साथ क्या करेंगे.”
सम्राट ने कहा- 
          “मैं उसपर आक्रमण नहीं करूँगा. उसे आपके आश्रम में रहने की अनुमति दे दूँगा”.
तथागत ने अपनी दायीं ओर कुछ दूरी पर बैठे एक सन्यासी की ओर इंगित कर सम्राट से कहा-
          “वह रहा आपका अंगलिमाल, दाढ़ी मूंछें कटी हुई, संन्यासी वेश में”
उसे देखते ही सम्राट कुछ डग कूद गए और तलवार खींच लिए. तथागत ने कहा- “सम्राट अब तलवार की कोई आवश्यकता नहीं”.
सम्राट कुछ क्षण उसे देखते रह गए.  पुरवासियों ने सम्राट के सामने डाकू अंगुलिमाल का जो चित्र खींचा था, यह अंगुलिमाल उससे एकदम भिन्न था. पुरवासियों ने सम्राट के समक्ष उसे बड़ी बड़ी दाढ़ी-मूँछों, शीश पर अग्नि की लपटों-सा फड़-फड़ाते बालों और कठोरता लिए खिंचे खूंखार चेहरे वाला चित्रित किया था. और यह जो सामने है एकदम श्मश्रुविहीन, सौम्य, शांतचित्त और शीतल स्वभाव का है. सम्राट के मन में तुरंत यह बात कौंध गई, जिसे हम वश में नहीं कर पाए उसे तथागत ने....
बुद्ध का वचन सुन सम्राट ने तलवार वापस अपने म्यान में रख ली. उनकी अनुमति लेकर उसे अपने पास बुलाया, उसे चीवर भेंट किया और प्रवासाश्रम में रहने की अनुमति दे दी. और तथागत के प्रति अपनी धन्यता व्यक्त कर तथा उनकी अनुमति लेकर राजधानी सेना सहित श्रावस्ती के लिए प्रस्थान कर गए.
अंगुलिमाल को यह सब अद्भुत लगा. उसके वन्य जीवन में उसकी माँ के अतिरिक्त कोई उससे मिलने नहीं आता था. सहानुभूति के कुछ शब्द तो उससे कोई कैस कहता. उसके कर्म ही वैसे थे. किंतु उसके मन में कहीं कुछ पड़ गई गाँठें खुलती सी उसे अवश्य अनुभूत हुईं.
उसके मन की गतियों पर बुद्ध की अंतर्दृष्टि निरंतर बनी हुई थी. उसके मन को उसके पूर्वकृत्य बहुत व्याकुल किए हुए थे. इसके कारण ध्यान छोड़कर वह बीच ही में उठ जाता और अनमना हो टहलने लगता. जब उसे किसी पर उसकी की गई क्रूरता का दृश्य उसके सामने उभरता तो उसके रोम-रोम सिहर उठते. हत्या करते समय कभी उसके हाथ काँपे नहीं थे.
उसकी इस मानसिक गतिविधि को ताड़कर बुद्ध ने उसके मानसिक भाव के अनुरूप ही ध्यान की एक विधि दी. उसे विपस्सना ध्यान करने को कहा. इस ध्यान में तीन चरण होते हैं- पहले चरण में साधक को अपने मन में उठते हुए भावों- कृत्यों, विचारों- को साक्षी भाव से देखना होता है. दूसरे में भीतर जाती साँसों और तीसरे में बाहर निकलती साँसों को देखना होता है. बौद्ध साहित्य कहता है स्वयं बुद्ध ने इसी ध्यानविधि से ज्ञान प्राप्त किया था.
अंगुलिमाल के लिए यह बहुत ही उपयुक्त ध्यान था. उसके मन में  उसके पूर्वकृत्य बार बार उभर आते थे. और वह ग्लानि से भर जाता था. वह यह ध्यान मनोयोग से करने लगा और उसे यह सधने भी लगा. ध्यान में जब भी उसका कोई पूर्वकृत्य उभरने से उसका मन उद्विग्न होने लगता, वह उन कृत्यों को अंतर्मन से सायास देखने लगता. वैसा करने से उसके उभरते कृत्य विरल होने लगते और वह धीरे धीरे स्वस्थ-चित्त हो जाता और उसका ध्यान घना होने लगता.
तथागत उसे ध्यान में थोड़ी सफलता प्राप्त करते देख आश्वस्त हुए. वह उसकी चित्त-दशा में हो रहे परिवर्तन पर अधिक ध्यान दे रहे थे. वह प्रतीक्षा में थे कि उन्हें एक अवसर मिले और वह अंगुलिमाल के चित्त पर एक परिवर्तनकारी प्रयोग करें.
शीघ्र ही उन्हें एक सुयोग भी मिल गया.
एक दिन अंगुलिमाल संन्यासियों के साथ जब आश्रम की ओर लौट रहा था तो मार्ग में एक पुरवासी के घर से उसे एक स्त्री के रोने का स्वर सुनाई पड़ा. गृहस्वामी से पूछने पर उसे ज्ञात हुआ कि उसकी पुत्रवधू प्रसव की पीड़ा से तड़प रही है. उसके प्रसव में कठिनाई हो रही है. प्रसव पीड़ा झेल रही उस स्त्री के प्रति उसके मन में करुणा उमड़ आई. उसके मन में हुआ कि उसकी पीड़ा को न्यून करने के लिए उसकी कुछ सहायता की जानी चाहिए. किंतु तत्काल उसेकोई उपाय नहीं सूझा.
वह आश्रम आकर तथागत को बताया और पूछा- “भगवन उस गर्भवती स्त्री की पीड़ा को न्यून करने के लिए मैं क्या कर सकता हूँ”.
तथागत ने उससे कहा- “अंगुलिमाल, पीड़ा झेलती उस गर्भवती स्त्री के पास जाओ और कहो-
         ‘बहन, जबसे मैंने जन्म लिया है, मुझे स्मरण नहीं होता कि मैंने अपने संज्ञान में किसी जीवित प्राणी की हत्या की हो. इस सत्य के द्वारा आपकी पीड़ा कम हो और सुख प्राप्त हो, आपके गर्भ में पल रहा शिशु भी सुख प्राप्त करे’.
अंगुलिमाल ने तथागत के उस कथन को सुना, किंतु उसे यह कथन सत्य के परे लगा. उसने इस कथन के प्रति अपनी हिचकिचाहट प्रकट की.
वास्तव में तथागत पहले अंगुलिमाल के मन की स्थिति को जानना चाहते थे. अपने पहले कथन को मानने में उसकी हिचकिचाहट देख उन्होंने यह जान लिया कि वह जन्म से हिंसक प्रवृत्ति का नहीं है. उसकी हिचकिचाहट का अर्थ था कि उसे उनका वह कथन उसके प्रति सत्य को व्यक्त करता प्रतीत नहीं हुआ.
किसी की मनस्थिति को जानने का उनका यह अपना ढंग था. एक सत्य घटना आपके सामने रखूँ. जब बट-वृक्ष के नीचे नरकंकाल जैसा शरीर लिए बैठे तथागत को सुजाता की खीर खाकर ज्ञान प्राप्त हुआ था, सुजाता उन्हें बट वाले बाबा कहने लगी थी. वहाँ के ग्रामवासी भी उन्हें बट वाला बाबा मानकर उनके पास अपने भले के लिए आशीर्वाद माँगने जाने लगे थे. एक दिन एक ग्रामणी रोती हुई अपने अभी अभी मृत पुत्र को लेकर उस बट वाले बाबा के पास आई और उसे जीवित कर देने का आग्रह करने लगी. तथागत ने उसकी प्रार्थना ध्यान से सुनी. उन्होंने उस ग्रामणी से कहा-
         “तुम एक मुट्ठी सरसो लाओ. यह सरसो उस घर का होना चाहिए जिस घर में कोई मृत्यु न हुई हो. मैं तुम्हारे पुत्र को जीवित कर दूँगा”.
ग्रामणी वापस गई और अपने ग्राम के हरएक घर घूम आई किंतु उसे एक भी घर ऐसा नहीं मिला जिसके घर किसी की मृत्यु न हुई हो. आकर उसने  स्थिति बताई. तथागत ने उससे कहा-
         “मृत्यु जीवन का ध्रुव सत्य है.  इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता”.
अंगुलिमाल की हिचकिचाहट को देख तथागत ने उसे एक दूसरा कथन सुझाया. उन्होंने पूर्व कथन को थोड़ा सुधारा और कहा, उससे कहना-
          “बहन, मैं जन्म से ही उदार हृदय का हूँ. मुझे स्मरण नहीं होता कि मैंने अपने संज्ञान में किसी जीवित प्राणी की हत्या की हो. इस सत्य के द्वारा आपको सुख प्राप्त हो, आपके गर्भ में पल रहा शिशु भी सुख प्राप्त करे”.
तथागत का यह कथन उसे अपने अस्तित्व के निकट का और उपयुक्त लगा. वह उस गर्भवती स्त्री के पास गया और तथागत के उस कथन को आशीर्वादस्वरूप उससे कहा. करुणा से भरे हृदय वाले अंगुलिमाल के उस आशीर्वाद के संवेदनशील शब्द-तरंगों ने उस गर्भवती स्त्री पर अनुकूल प्रभाव डाला. उसने एक शिशु का आसान प्रसव किया.
जब सम्राट के सामने अंगुलिमाल का रहस्य प्रकट हुआ, इसे ग्रामवासियों ने भी जाना. सम्राट को उसे चीवर भेंट करते देख उनके मन मे उसके प्रति थोड़ी सहानुभूति जगती दिखी. उसके आशीर्वाद से गर्भवती स्त्री को प्रसव पीड़ा से मुक्त हो जाने की घटना ने उनमें उसके प्रति सहानुभूति को और गहरा कर दिया. किंतु कुछ ग्रामवासी अभी भी उससे रुष्ट थे. वे अपने स्वजनों की हत्या करने वाले को भूल नहीं पा रहे थे.
अंगुलिमाल भिक्षाटन के लिए अभी तक अपने संन्यासी साथियों के साथ जाता था. तथागत ने अब उसे अकेले जाने को कहा. स्यात उनका ध्यान उन ग्रामवासियों की ओर था जो उससे अभी भी रुष्ट थे. वह जानना चाहते थे कि उसके अकेले होने पर वे उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं. उसके साथ उनके द्वारा किए जाने वाले व्यवहार का उनुमान अवश्य रहा होगा पर उसकी चर्चा तथागत ने उससे नहीं की. वह चाहते थे कि अंगुलिमाल स्वयं उस व्यवहार का अनुभव करे. यह अनुभव उसका अपना अनुभव होगा और उससे निपटने की सूझ भी उसकी अपनी होगी. इसीसे उसके अस्तित्व में खिलावट आएगी.
तथागत की अनुमति लेकर भिक्षाटन के लिए अब वह गाँव में अकेले ही  निकलना आरंभ किया. पहले ही दिन गाँव में प्रवेश कर जब वह एक गृहस्वामी  के द्वार पर भिक्षा के लिए खड़ा हुआ, अभी पात्र आगे बढ़ाया भी न था कि उसे भिक्षा देने से मना हो गया. और ज्योंही अगले गृहस्वामी की ओर आगे बढ़ा, एक पत्थर उसके शीश पर लगा. उसने हाथ से अपना शीश पकड़ लिया. पर रुका नहीं, आगे ही बढ़ा. अभी दूसरे गृहस्वामी तक वह पहुँचा भी न था कि उसके शरीर पर एक डंडा आकर लगा. किंतु उसके डग रुके नहीं, अगले गृहस्वामियों की ओर बढ़ते गए. उसपर प्रहार होने भी नहीं रुके. और इतने प्रहार हुए कि चोटों से आहत हो वह धरती पर गिर गया. जब संध्या तक वह आश्रम नहीं पहुँचा तो उसके साथी उसे ढूँढ़ने निकले. उन्हें वह ग्राममार्ग के एक स्थान पर घायल पड़ा मिला. वे उसे उठाकर आश्रम ले आए, सेवा सुश्रुषा किए. तभी तथागत आ गए. उन्होंने उससे पूछा-
          “अंगुलिमाल, जब ग्रामवासी तुम पर प्रहार कर रहे थे तो तुम्हारे मन में क्या हो रहा था?”
          “भगवन, मेरे मन में उनके प्रति थोड़ा भी क्रोध नहीं आया. जब भी उनके प्रहार मुझपर होते थे, एक क्षण के लिए मेरे द्वारा उनके स्वजनों की की गई हत्याएँ मुझे स्मरण हो आती थीं.”
          “किंतु वे तुम्हें चोट पहुँचा रहे थे. चोट से तुम्हें पीड़ा होती होगी.”
          “यह तो मात्र चोट लगने की पीड़ा है. इन लोगों ने तो अपने स्वजनों के खोने की पीड़ा सही है. भगवन, मेरे प्रति उनके मन में आया क्रोध स्वाभाविक था.”
         “अंगुलिमाल, तुम भिक्षाटन के लिए अकेले जाते रहना. यह तुम्हारे ध्यान की साधना का एक अंग है. तुम्हारे साथ ग्रामवासी जो भी व्यवहार करें बिना उसके प्रति प्रतिक्रिया किए उन व्यवहारों के प्रति अपने मन में उठते भावों का साक्षी बने रहना.”
वह अब और उल्लास से भिक्षाटन पर जाने लगा. किंतु उसके प्रति ग्रामवासियों के क्रोध में कोई न्यूनता नहीं आई. अब वे प्रहार पत्थर, डंडे से नहीं वरन क्रोध-वाण से उसपर आक्रमण करते रहे. वे किसी भी तरह उसके प्रति नम्रता वरतने की मुद्रा में नहीं प्रतीत होते थे.
अंततः तथागत को बीच में पड़ना पड़ा. वह अंगुलिमाल के प्रति अब पूर्णतः आश्वस्त थे. उन्होंने ग्रामवासियों को समझाया. यह अंगुलिमाल अब तुम लोगों को कोई हानि नहीं पहुँचाएगा. इसका दायित्व मेरा है. भूत में इसने जो हानि तुम्हें पहुँचाई है उसे होनी मान लेनी चाहिए. इसी में तुम्हारी भलाई है. पूर्व कृत्य को सदा स्मरण किए रहने से जीवन की गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकेगी. कालवश तुम्हारे परिवार में कोई मृत्यु होती है तो उसे तुम्हें भुलानी ही पड़ती है. तुमलोग इस अंगुलिमाल को स्वीकार कर लो. यह तुम्हारे लिए हितकारी ही सिद्ध होगा.
ग्रामवासियों ने तथागत की इस देशना को शीश झुकाकर स्वीकार किया.
                                                  7-2-2016