Saturday 19 May 2018

मुक्तिबोध की कविताः ‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन-7

 शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव            19-05-2018              रचनाकार में प्रकाशित


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पूर्व प्रसंगः
आतताइयों के हाथों पकड़ा जाकर काव्य-नायक कवि उनसे कड़ी सजा तो पाता है पर वह अनुभव करता है कि उसकी आत्मा बहुत ही कुशल है. वह उसकी देह में रेंगती संवेदना की उष्ण धारा और उसके झनझनाते तारों को समेट कर उसके मन में एक पत्थर-सा कठोर गठान बना देती है और चुपचाप दूर किसी फटे हुए मन (आतताइयों के अत्याचार से दूर स्थित उद्विग्न मन) की जेब में गिरा देती है (अर्थात दूर स्थित व्यक्ति तक यह संवेदना अपनी फैंटेसी-रचना द्वारा पहुँचा देता है). और काव्य-नायक पाता है कि समस्वर सहानुभूति की कोमल सनसनी कहाँ नहीं है अर्थात सब जगह है. सिर्फ उसपर धूल पड़ी हुई है. आतताइयों के विरुद्ध क्रोध का प्रभंजन डोलता सभी के मन में है, भीषण शक्ति भी है सबके अंदर, पर उनका मन हिमवत (जड़वत) और दीन हीन है. ऐसे ही हम अपना जीवन जिए जा रहे हैं. कवि अनुभव करता है कि यह जीवन भी अजीब अजीब रूप धारण करके अपने लक्ष्य के पथ पर (जीवन यापन के) चलता चला जाता है.

खंड-7 का भाष्यः

रिहा!!.............................................................................................तनाव दिन रात
उक्त अंतर्सोच की उधेड़बुन में पड़ा कवि अकस्मात पाता है कि उसे रिहा कर दिया गया है और उसके पीछे कुछ छाया-मुख (जासूस) लगा दिए जाते हैं. अब वे छायामुख हर पल उसका पीछा करते हैं. ये छायाकृतियाँ, जहाँ भी वह जाता है वहाँ, उनकी (छायामुखों की) भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद (जासूसों की आँखों की पुतलियों से जुड़ा कोई रहस्यमय यंत्र) संगीत मारते हैं अर्थात (उसके पास ही अपने होने का) ध्वनिसंकेत देते हैं. उनकी दृष्टि पत्थरी (निर्मम) है पर बहुत चमक वाली और पैनी है.

कवि को अपने पीछे आततायियों की जासूसी नजर होने और अपनी निष्क्रियता को महसूस कर इस निर्णय पर पहुँचता है कि उसे अब कुछ साथी खोजने होंगे. क्योंकि साथी बना कर ही वह आततायी दृष्टि से पीछा छुड़ा सकता है और उसका सामना भी कर सकता है. ये साथी कैसे भी हों- काले गुलाब-से, स्याह सिवंती या श्याम चमेली-से (यानी कोमल कांत) कैसे भी हों. कवि सोचता है उसे उन्हें भी साथी बनाना होगा जो भूमि के भीतर पाताल-तल में खोहों के जल में खिले हुए सँवलाए कमल-से ही क्यों न हों जो कबसे (क्रांति के) संकेत भेज रहे हैं और सुझाव-संदेश भी भेजते रहते हैं (कवि का ईशारा शायद उन क्रांतिकारियों की तरफ है जो आततायियों से बचने के लिए भूमिगत हो अपनी सक्रियता जारी रखे हुए थे. इसका और अधिक स्पष्ट अर्थ जानने के लिए जब मैंने नंदकिशोर नवल की आलोचना पुस्तक “लिराला और मुक्तिबोध” की ओर रुख किया तो मैंने पाया कि उन्होंने उसमें संकलित अपने लेख ‘अँधेरे में’ की अपनी व्याख्या में इस स्थल को छुआ ही नहीं है) साथी चुनने का विचार जब कवि के मन में आया कि इतने में सहसा उसे दिखा कि दूर क्षितिज पर, सफेद, नीले, मोतिया, चंपई और गुलाबी फूल, बिजली की नंगी लताओं (तने तारोंरूपी) से भर रहे हैं या उनमें गुँथे हुए हैं (कवि कठिन परिस्थति में भी प्रकृति जुड़े बिना नहीं रहता. संभवतः यह उस समय के क्षितिज के सौंदर्य का चित्रण है जब वह छितिज आततायियों के चंगुल से मुक्त कवि के सामने होता है. उस समय संभवतः संध्या का समय है और खंभों पर विद्युत के बल्ब जल उठे हैं जो किसी लता में गूँथे हुए से लगते हैं). उस क्षण की प्रकृति का यह आह्लादकारी दृश्य देख कर कवि के मन में होता है कि उन फूलों को समेट ले. उसके हाथ इस हेतु उठ भी जाते हैं. वह उन फूलों (सितारों, विद्युत-बल्बों) को अपलक देखने लगता है. इससे अचानक उसके भीतर विचित्र स्फूर्ति आ जाती है और वह जमीन पर पड़े हुए चमकीले पत्थरों (जो विद्युत बल्ब की रोशनी में चमक रहे हैं) को लगातार चुन कर बिजली के फूल बनाने की कोशिश करने लगता है. उसके मन में होता है कि ये उसके प्रस्तर (बलबों की रोशनी में चमकते पत्थर) भी हर क्षण रश्मि विकिरित करते हैं. ये रेडियो-ऐक्टिव (स्वतः रश्मि विकिरित करने वाले) रत्न की तरह हैं ये बिजली के फूलों की भाँति ही यत्नपूर्वक बनाए गए हैं. किंतु इस आह्लादकारी छवि को देखने के बावजूद कवि में गहरे असंतोष का भाव है. क्योंकि शब्दों द्वारा उस दृश्य की पूर्णाभिव्यक्ति के लिए वह अपने पास शब्दों के अभाव का संकेत पाता है. अतः वह एक गहरी असंतुष्टि का अनुभव करता है. उसे महसूस होता है कि वह जिसको अभिव्यक्त करना चाहता है उसके लिए उसके पास शब्दों का अभाव-सा है.

विद्युत-फूलों की इन पंक्तियों में कवि काव्य का चमत्कार देखता है. यह चमत्कार अपनी चमत्कारिता के जितना ही रंगीन है. किंतु इस काव्य-चमत्कार में उष्मलता नहीं वल्कि ठंढापन है. कवि को लगता है उसके भी फूलों (जिन्हें उसने जमीन पर पड़े चमक रहे पत्थरों को चुन कर बनाया है) में तेज है पर ये भी शीतल ही हैं (ये भी जीवन की उष्मा से अछूते हैं, थोड़ा अतिरेक करें तो कह सकते हैं कि इनमें क्रांति की उष्मा नहीं है). फिर भी उसके अंदर तीव्र इच्छा है कि (बल्बों में जलती बुझती) बेचैन बिजली की नीली ज्वलंत (वीकीर्ण हो रही किरणरूपी) बाँहों में अपनी बाँहों (जमीन पर पड़े जुने हुए पत्थरों से विकिरित रश्मिरूपी) को उलझा कर प्रदीप्त (प्रकाश से भरी) लीला करता हुआ पूरे आकाश में साथ साथ घूमे. (कदाचित कवि यह कहना चाह रहा है कि उसमें क्रांति की ज्वाला है पर ढंढी है फिर भी वह उसे ही समस्त लोक में पहुँचाना चाहता है). वह महसूस करता है कि उसके पास बिजली का गौर (गोरा) रंग नहीं है. वह भीम आकार वाला काला मेघ है (जिसके गर्भ में बिजली छिपी रहती है) किंतु उसमें गंभीर आवेश है और संयम का अथाह प्रेरणा-स्रोत है. वह अनुभव करता है कि इन रंगीन पत्थर-फूलों से उसका काम नहीं चलेगा. वह चिंतामग्न होकर स्व-कथन करता है- वह क्या कहे, उसके मस्तक के कुंड में सत-चित-वेदना-सचाई और गलती ज्वलित है अर्थात सत्य, सद्चेतना, शोषित के प्रति सहानुभूति व सत्यकथन उबलता रहता है और उसकी मस्तक-शिराओं में तनाव दिन रात बना रहता है.

अब अभिव्यक्ति................................................................................अच्छी न लगती
इन पंक्तियों से लग रहा है कि देश की सामाजिक, राजनीतिक परिस्थिति को लेकर कवि के मन में घोर आक्रोश है. उसे यह अहसास भी है कि उसके अंदर शक्ति है, साहस है पर व्यापक फलक पर वह अपने तीखे विचार को रखता नहीं. अबतक वह अकेला था. अब वह साथी बनाने में जुट जाता है. इस मनस्थिति में अनायास दृढ़ संकल्प करता है- अब उसे अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे. उन सभी मठों और गढ़ों को तोड़ने ही होंगे जो शोषकों ने शोषितों को प्रताड़ित करने के लिए बना रखे हैं. अब उसे इन दुर्गम पहाड़ों (वे अवरोध जिन्हें शोषकों ने उन शोषितों तक पहुँचने से रोकने के लिए बना रखा है) के उस पार पहुँचना ही होगा, तभी कहीं उसे वे (श्रमिक की) बाँहें देखने को मिलेंगी जिनमें हर पल एक अरुण कमल (श्रम का) काँपता रहता है अर्थात जिनके काँपते हाथों में उनके श्रम का फल (अरुण कमल) होता है. उस कमल को ले जाने के लिए (उस श्रम के महत्व को अंगीकार करने के लिए) उसे (कवि को) झील (उस कमल थामे बाँह और कवि के बीच की झीलनुमा अर्थात तरल दूरी) के हिम-शीत (शरीर को गला देमे वाले) सुनील जल में धँसना (प्रवेश करना) ही होगा. अर्थात तमाम कठिनाइयाँ झेली ही पड़ेंगी.

रिहा होने के बाद कवि कुछ सक्रिय अनुचिंतन में डूबा लगता है. चिंतन से बाहर आने पर उसे भान होता है कि आकाश में चाँद उग आया है. गलियों में आकाश एक लंबी चीर-सा मालूम होता है जिसमें चंद्रमा की किरणें तिरछी पड़ रही हैं. ऐसा लगता है जैसे वे किरनें गली में स्थित उस नीम (वृक्ष) पर तिरछी मार सी पड़ रही हों जिसके नीचे एक गोल चबूतरा स्थित है और उसपर नीली चाँदनी में कोई सुनहला दीया जल रहा है. यह दृश्य ऐसा लग रहा है मानो कोई अदृश्य स्वप्न ही साक्षात साकार हो उठा हो. भाग रहे कवि को राह में मकानों के बड़े बड़े सूने खंडहर मिल रहे हैं जिनके मटियाले भागों में (अर्थात खंडहर के वे भाग जो मिट्टी से एकाकार हो गए हैं) फूलों से भरी महकती रातरानी खिलती रहती है. वह अपनी जवानी में होते हुए भी लज्जित सी लगती है (अपने सामने खंडहर को देख कर). लगता है तारों से टपकती रोशनी उन्हें अच्छी नहीं लग रही.

भागता मैं दम छोड़.............................................................................तो भी अंतस्थ
रिहा होने के बाद भी कवि भाग ही रहा है. और भागते हुए कई मोड़ों को पार कर जाता है. पर भागते हुए भी वह चौकन्ना-सा है. उसे लगता है कि खंडहर की बच रही दीवालों के उस पार कहीं बहस गरम है (कदाचित सामयिक परिस्थिति पर). उन बहस करने वालों के दिमाग में जान है, उनके हृदयों में दम भी है. उनकी बहसों में सत्य से सत्ता के युद्ध का रंग है (अर्थात उनके मनस में सत्य के लिए सत्ता से युद्ध करने की उत्तेजना है). किंतु कवि अपने को कहीं कमजोर महसूस कर रहा है. उसे अहसास होता है कि उसकी सारी कमजोरियाँ उसके साथ हैं. वह अचानक पाता है कि लोग नगर की अँधेरी सुरंगनुमा गलियों में चुप चाप आ-जा रहे हैं. उनके पैरों में दृढ़ता है, गंभीरता है. बालक और युवा वर्ग शांतचित्त किसी आभ्यंतरिक बात (सोच) में व्यस्त दिखाई दे रहे हैं. किसी के अंदर अग्नि धधक रही है (याने वे आक्रोस और उत्तेजना में है) तो भी वह अन्तस्थ ही है, अपने में ही डूबा हुआ है.

विचित्र अनुभव...............................................................................ओपने से दुकेला
कवि के लिए यह विचित्र अनुभव है. भागने के दौरान वह लोगों की जितनी ही पंक्तियों (कतारों) को पार कर आगे बढ़ता है उतना ही वह पीछे रह जाता है, अकेला. अर्थ यह कि लोगों की पाँतें इतनी लंबी हैं कि कितना भी वह आगे जाता है उसे लगता है अभी वह पीछे ही रह गया है, जैसे वह लोगों की भीड़ का पिछला पैर हो. इसी बीच लोगों का एक और रेला उसके पीछे से चला और अब सभी उसके साथ हैं. वह इस अद्भुत दृश्य को देख कर आश्चर्य में पड़ जाता है कि चलते हुए लोगों की मुट्ठियाँ बँधी है. मुट्ठी बना रही उनकी अँगुलियों की संधियों से लाल लाल किरणें फूट रही हैं (शायद साम्यवाद के झंडे उनकी मुट्ठियों में हों). कवि और आश्चर्य में पड़ जाता है जब उसे महसूस होता है कि ये लोग उसके ही विक्षोभ-मणियों और विवेक-रत्नों को लिए साहस के साथ अँधेरे में आगे वढ़ रहे है. अर्थ यह कि इन लोगों में वैसा ही विवेक और क्षोभ दिखाई दे रहा है जैसा उसके भीतर है. किंतु वह उनसे अपने को अलग और अकेला महसूस करता है. हाँ वौद्धिक जुगाली में वह अपने को दुकेला पाता है अर्थात वह सोचता है कि उसके साथ निज के अतिरिक्त बुद्धि भी है अतः वह दुकेला है.

गलियों के.............................................................................पारिजात-पुष्प महकते
कवि अँधेरी गलियों में भागा जा रहा है. इतने में कोई चुपचाप उसके हाथों में एक पर्चा थमा जाता है. पर्चा मिलते ही कवि के भीतर की कोई गुप्त शक्ति जागरित हो जाती है और उसके हृद-मन में उस पर्चे की चर्चा होने लगती है अर्थात पर्चा में क्या है वह रहस्य उसे कुरेदने लगता है. वह उस पर्चे को ध्यान से पढ़ता है और पढ़ कर आश्चर्यचकित हो उठता है. वह देखता है कि उसमें तो उसी के गुप्त विचार, उसकी दबी संवेदनाएँ, उसके अनुभव और उसी की पीड़ाएँ जगमगा रही हैं अर्थात व्यक्त की गई हैं. वह सोचने लगता है, आखिर यह सब क्या है.

कवि भाग रहा है अवश्य किंतु प्रकृति भी उसके मन और आँखों में झाँक झाँक जाती है. वह अपने मन के भीतर अपनी सोच को शब्द देने में लगा है. उसके शब्दों से बनी लकीरों (पंक्तियों) के बीच में आकाश झाँकता है अर्थात आकाश की लुभावनी झलक भी उसे बेधती है. और उसे अपने चिंतन-वाक्यों की पंक्तियों में आकाशगंगा-सी फैली दिखने लगती है. वाक्यों के उन शब्द-व्यूहों में तारे चमकते-से नजर आते हैं. इन तारक दलों में भी आँगन (शब्दाकाश) खिलता है अर्थात शब्दों के बीच के खाली स्थान (आँगन) चमकने लगते हैं. उसमें चंपा के फूल-सी चमक आती है. और शब्दाकाशों के कानों में गहरे तुलसी-से श्यामल चेहरे खिलते हैं और इन चेहरों के सुंदर मुखों से पारिजात-पुष्पों की महक लिए हुए आशय 
(सार्थक बातें) निकलते हैं.

पर्चा पढ़ते हुए........................................................................................ जन को
पर्चा पढ़ते हुए कवि हवा में उड़ने लगता है अर्थात बड़ी बड़ी बातें सोचने लगता है. कुछ ऐसा कि उसे लगता है कि वह चक्रवात की गति से आकाश में घूमने लगा है. किंतु उसके साथ वह जमीन पर भी सर्वत्र अपनी सचेत उपस्थिति पाता है. वह महसूस करता है कि वह प्रत्येक स्थान पर- चौराहे पर, दुराहे व राहों के मोड़ पर और सड़क पर उपस्थित है और काम में लगा है. वह पर्चे की सभी बातों को मानता है और उसे लोगों को मनवाने पर अड़ा है.

और तब (पर्चे की बातें मनवाने के समय) उसे दिशा (कर्तव्य-दिशा) और काल (प्रवहमान समय) की दूरियाँ अपने ही देश के नक्शे के समान टँगी हुई और रंगी हुई लगती हैं (याने नक्शे में रंगीन लकीरों से दिखाई गई सी). कवि सोचता है कि उसने जो स्वप्न देखा है और इस पर्चे में जिनकी वह अभिव्यक्ति पाता है उन स्वप्नों की कोमल किरनें ऐसी हैं कि मानो वे घनीभूत संघनित और द्युतिमान शिलाओं में परिणत होकर दृढ़ हो गई कर्मशिलाएँ (कर्म के पत्थर) हैं, जिनसे स्वप्नों की मूर्तियाँ बनेगी. जिसकी सस्मित (हास भरी) सुखकर (सुख देने वाली) किरणें ब्रह्मांड-भर में गतिमान होकर सबकुछ नाप लेंगी. कदाचित कवि का आशय है कि उसने जिस समाज-रचना का स्वप्न देखा है उसकी किरणें सर्वत्र फैल जाएँगी. उसे तो सचमुच में उसकी जिंदगी की सरहद सूर्यों के प्रांगण (जिस समय सूर्य की रोशनी धरती पर पड़ती है उस समय का पृथ्वी का हिस्सा सूर्य का एक प्रांगण होगा) के पार जाती-सी दिखती है. अर्थ यह कि उसके सपने का समाज समूचे संसार में होगा.

कवि कहता है कि वह परिणत है अर्थात उसने अपने को बदल लिया है, एक अन्य समाज-रचना के पक्ष में अपने को कर लिया है (काव्य-क्षेत्र में आने के बाद उन्होंने साम्यवादी विचारधारा को अपना लिया). वह कहता है कि कविता में कहने की उसे आदत नहीं है पर कहे दे रहा है कि वह वर्तमान समाज में चल नहीं सकता. वर्तमान समाज उसके रहने के लायक नहीं. क्योंकि इस समाज में पूँजी से जुड़े हुए हृदयों का बोलबाला है. और पूँजी से जुड़ा हृदय कभी बदल नहीं सकता. उसके अनुसार स्वातंत्र्य चाहने वाला व्यक्तिवादी (पूँजीवाद में व्यक्ति को महत्वपूर्ण माना जाता है. साम्यवाद में व्यक्तिवादी होना एक दोष माना जाता है) मुक्ति (शोषण से मुक्ति) की कामना करने वाले मन को छल नहीं सकता न ही मुक्तिकामी जन को छल सकता है.

पूँजी से जुड़ा हृदय कभी बदल नहीं सकता”, मुक्तिबोध का यह चिंतन एक परिपक्व मस्तिष्क का चिंतन नहीं लगता. क्योंकि मार्क्स के साथी एंजेल्स एक मिल के मालिक थे. अतः कहा जा सकता है कि एक वह पूँजीपति (पूँजीवादी नहीं) थे. किंतु उनका मन जनता के प्रति बदल गया था. भारत में गाँधी जी के अनुयायी जमनालाल बजाज भी पूँजीपति थे पर उनकी सहानुभूति श्रमिकों के प्रति अधिक थी.

आलोचनाः
‘अँधेरे में’ कविता के इस खंड में कवि कई स्थलों पर अचानक विषय परिवर्तन करता दिखाई देता हैं. उस स्थल की पंक्तियाँ कवि की एक स्वतंत्र अनुभूति को प्रकट करती-सी प्रतीत होती हैं. खंड-7 की यह कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है - रिहा!!/ छोड़ दिया गया मैं….चमक है पैनी। इसमें आतताइयों के चंगुल से कवि के छूटने भर की चर्चा है. कैद में मिली प्रताड़ना के फलस्वरूप उसके मन में क्रोध उमड़ा होगा, वह उत्तेजित हुआ होगा. पर इसकी चर्चा यहाँ नहीं है, जिसके चलते उनके विरोधस्वरबप उसे साथियों के खोजने की आवश्यकता पड़ी होगी. अगली पंक्तियों में सीधे वह अपने लिए साथियों की खोज करने की बात करने लगता है- मुझे अब खोजने होंगे साथी....भेजते रहते। ये पंक्तियाँ कवि की एक अलग ही मनस्थिति को दर्शाती हैं. इसमें कवि की आतताइयों से लड़ने की व्यग्रता और आक्रोस का आभास नहीं है. इन पॆक्तियों में खोजे जाने वाले साथियों के गुण और प्रकार का चित्र है. पर वह साथी क्यों खोजना चाहता है, इसका इसमें कोई संकेत नहीं है. यह ‘क्यों’ ही उक्त दोनों अनुभूति खंडों को जोड़ सकता था. इसके बाद की पंक्तियों में वह आकाश के छितिज के सौंदर्य में खो जाता है जो एक स्वतंत्र ही अनुभूति है. यहाँ वह बिजली के फूलों को अपलक देखने में लीन हो जाता है और उसे बटोरने के लिए हाथ उठा लेता हैं. अचानक उसे लगता है इन विद्युत के फूलों से उसका काम नहीं चलेगा (वह करना क्या चाहता है इसका कोई संकेत यहाँ नहीं है). हाँ इतना वह अवश्य कहता है कि उसके मस्तक की शिराओं में दिन रात तनाव बना रहता है. पर उसके पास उसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्दों का अभाव-सा है. इसी तरह इस कविता में अन्य स्थल भी हैं जो स्वतंत्र अनुभूति-से लगते हैं.
काव्य-भाषाः
इस कविता-खंड में कवि की काव्य-भाषा न तो स्वतःस्फूर्त है न ही स्वाभाविक. इस कविता में जन की बात की गई है, जन तक इस कविता का संदेश पहुँचता है या नहीं यह तो कवि और जन ही जानें, मुझे तो इस कविता का संदेश लेने के लिए अपने विवेक का उपयोग करना पड़ा है. संभव है मेरा विवेक कवि के विवेक के कहीं आड़े पड़ गया हो. जब कवि के पीछे छायाकृतियाँ लगा दी जाती हैं तो कवि कहता है- (उनकी) भौंहों के नीचे के रहस्यमय छेद/मारते हैं संगीत- मेरे विवेकानुसार भौंहो के नीचे के रहस्यमय छेद आँखों की पुतलियाँ ही हो सकती हैं जिससे ईशारा किया जा सकता है. कवि के रहस्यमय छेद संगीत मारते हैं. अभिधा में संगीत मारने का कुछ अर्थ नहीं होता. और मेरे जानने में संगीत मारना कोई मुहाबरा भी नहीं है. तो फिर कवि इस काव्यगत वाक्य-विन्यास से क्या कहने का प्रयास कर रहा है. मेरे विवेक ने इसका अर्थ ध्वनि-संकेत देना किया है जो अक्सर गुप्तचर करते हैं. फिर कुछ आगे चलने पर एक पंक्ति मिलती है- शब्दाकाशों के कानों में गहरे तुलसी श्यामलखिलते हैं/चेहरे!! यहाँ शब्दाकाश का अर्थ किया जा सकता है- शब्दों के बीच का खाली स्थान, किंतु उस खाली स्थान के कान से क्या लक्ष्यार्थ लिया जाए. और फिर उन कानों की गहराई में खिलते चेहरे से क्या आशय लिया जाए. शबदाकाश में खिलते चेहरे तो उस शब्द को गुन कर आनंद लेने वाले से हो सकता है. कवि की एक पंक्ति है- कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ , हालाँकि कवि जो कुछ कह रहा है वह कविता में ही कह रहा है. कदाचित उसका आशय है वह कविता में राजनीतिक भाषण नहीं दे सकता पर बात राजनीतिक ही है अतः उस राजनीति को वह कविता में कह दे रहा है.

अक्सर कुछ आलोचक मुक्तिबोध को निराला की कोटि में रखना चाहते हैं. पर मुक्तिबोध की इस सर्वश्रेष्ठ कविता के भाष्यार्थ के बाद मेरा अनुभव कुछ अलग है. निराला की कविताओं में शब्दों की दुर्बोधता अवश्य है पर थोड़ा सा प्रयास करने पर उनकी कविताओं का अर्थ खुलकर हृद-मन में आनंद की अनुभूति देने लगता है पर मुक्तिबोध की कविताओं के साथ ऐसी अनुभूति नहीं होती. इसमें केवल बुद्धि-विलास है जो थकान देता है आनंदानुभूति नहीं.

Monday 7 May 2018

मुक्तिबोध की कविता : ‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन-6

 शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव            07-05-2018             रचनाकार में प्रकाशित 


                               पृष्ठभूमिः
clip_image002खंड-5 में सैन्य-जुलूस की फैंटेसी में कवि जुलूस के हाथ में पड़ने के भय से भाग रहा है. भागते भागते वह एक मुँदे हुए घर की पत्थर की सीढ़ी के नीचे छिप कर बैठ जाता है. उसके सिर में गोल गोल भँवरें-सी आने लगती हैं. उन गोल गोल भँवरों के केंद्र में उसे एक स्वप्न-सरीखा दिखने लगता है. उस स्वप्न में वह अपने को एक प्राकृतिक अँधेरी गुहा में पाता है, जहाँ उसे अनेक चमकते रत्न बिखरे पड़े दिखते हैं. वह अनुभव करता है कि वे रत्न वास्तव में उसी के अनुभव, विवेक और वेदनारूपी रत्न हैं जिसका उपयोग उसे लोक-हित-क्षेत्र में करना था किंतु कर नहीं सका, इन्हें जनोपयोग से वंचित कर दिया. उसे लगा कि वे सब उसके लिए खतरनाक थे. लेकिन इस विचिकित्सा में न पड़ वह प्रकट समस्या से जूझना तय करता है. किंतु इस समय कवि अपनी फैंटसी का रूप बदल देता है, दृश्य बदल जाता है, और खंड-6 की पंक्तियाँ आरंभ होती हैं.

खंड-6 का भाष्यः
सीन बदलता...................................................................................................टुकड़े व तिनके
पूर्व स्वप्न-चित्र में एक सीढ़ी के नीचे अपने को छिपा देख रहा कवि अब एक अन्य नया स्वप्न-चित्र बनाने में तत्पर हो जाता है. इस नए स्वप्न-चित्र में सीन बदलता है, इसमें वह अभ्यंतर से बाहर निकल कर नगर के दृश्य का चित्रांकन करता है- स्वप्नवत चित्रांकन. इस सीन में एक सुनसान साँवला (अँधेरे की स्याही से रंगा) फैला हुआ चौराहा है, जहाँ वह भाग कर पहुँचा है. उस चौराहे के बीच में एक वीरान (जहाँ कोई आता जाता नहीं) गेरुए रंग का एक घंटाघर है. उसका गुंबद कत्थई रंग से रंगे बुर्जों से घिरा है जिससे होकर साँवली हवाओं के बहाने काल टहलता है अर्थात समयधीरे धीरे  बीत रहा है. गुंबद पर चार घड़ियाँ टँगी हैं, जिनके चेहरे (ढाँचे) रात में पीले (कदाचित बिजली की पीली रोशनी में) दिखते हैं. इनमें मिनट के चारों काँटों की गतियाँ अलग अलग हैं, चारो अलग अलग कोण पर स्थित हैं. लगता है ये चारो काँटे किसी तरह के चार अलग अलग संकेत दे रहे हैं, मानो मन के अंदर चार अलग अलग मतियाँ गतिमान हैं. मन में बुद्धि की अनेक गतियाँ होती हैं, कभी कभी उनका एक दिशा-धारा में बहाव नहीं होता, वैसे ही इस समय मिनट के इन चारो काँटों के समय-परिणामों में बहाव नहीं है. ऐसा लगता है कवि फैंटेसी की रचना में तो लगा है पर उसका चित्त अव्यवस्थित है.
उधर खंभों पर बल्ब के रूप में बिजली की गरदनें लटकी हैं. ये बल्ब जल तो रहे हैं पर लगता है ये अपने द्वारा की जा रही ऱोशनी पर शर्मा रहे हैं अर्थात बल्बों में पर्याप्त उजाला नहीं है. इन बल्बों की इस मद्धिम रोशनी में ही बेचैन ख्यालों के पंखों वाले कीड़े (पतिंगे) मचल मचल कर गोल गोल उड़ रहे हैं अर्थात उनमें जलते बल्बों तक पहुँचने की बेचैनी है. उनके गिरते पड़ते इन बेचैन उड़ानों में उन्हें अपने पंख भी खोने पड़ते हैं किंतु फिर भी बल्ब तक पहुँचने के लिए वे मचल रहे हैं. इन अनवरत उड़ते पतिंगों के पंख टूट कर और रोशनी के प्रवाह में उड़ते तिनके घंटाघर के तल में गिरते हैं.

गुंबद-विवर.........................................................................................................परंतु अड़ा है
फिर कवि की दृष्टि गुंबद के एक विवर में बैठे हुए उन बूढ़े अनजान पक्षियों पर पड़ती है, जिनके यहाँ (नगर के घंटाघर पर) होने की संभावना नहीं होती. वे बहुत तीक्ष्ण दृष्टि से सब ओर देख रहे हैं मानो उनके इरादे भयानक रूप से चमक रहे हैं. गिद्ध पक्षी ही ऐसे होते हैं जिनका नगरों में होना संभव नहीं होता. इनकी दृष्टि बहुत तीक्ष्ण होती है, अति दूर से से ही ये अपना शिकार देख लेते हैं. कदाचित इन बूढ़े पक्षियों में कवि ने उन गिद्धरूपी शोषकों की उद्बावना की है जो अब बूढ़े हो चुके हैं किंतु अपने शोष्य शिकार पर अभी भी नजर गड़ाए हैं. चौराहे पर अद्भुत सन्नाटा है. अगर कोई यहाँ गतिशील भी है तो उसकी गतियों में बिखराव है (उनकी गतियां समतुल नहीं है). उन गतियों में रफ्तार नहीं है. ऐसा लगता है जैसे कोई दुष्ट इच्छा (वाली शक्तियाँ) गश्त कर रहीं हैं. जुलूस में चलते सैनिक भयानक लग रहे हैं. जाने किस थकी हुई (निरंतर गति करने से तो नहीं?) झोंक में वे रात के अँधेरे में सिगरेट सुलगाते हैं. उनकी दियासलाई की तिल्ली की लौ में उनके अचानक ताँबे-से चेहरे से उनकी ऐंठ झलक उठती है. उस पल भर की लौ में उनके ड्रेस की पथरीली सलवटें साँप-सी लगती है. लेकिन वे सैनिक अत्यंत सतर्क है. उनके चेहरे का रंग हर पल बदलता है, कहीं कुछ अनपेक्षित न हो जाए. वह हर बार चतुर्दिक ताक रहे हैं. उनका बंदूकों का साँवला (रात के अँधेरे के कारण) जत्था संगीन की नोकों पर टिका हुआ है (हर पल उनका ध्यान संगीन पर है). यह जत्था, घंटाघर के पास के चौक के बीचोबीच एक त्रिकोण बनाए खड़ा है जिसके शीर्षों को मिलाया जाए तो एक गोला बन जाए. इस जत्थे के अतिरिक्त टैंकों का एक दस्ता भी खड़ा है जो खड़े खड़े उँघता सा दीख रहा है. लेकिन अपनी जगह वह पूरी तरह अडिग और चौकस है.

भागता मैं दम.................................................................................................खून का तालाब
कवि अपनी स्वप्न-कल्पना में दम छोड़ भागता हुआ कई मोड़ पार कर गया. उसके भागते पैरों में पड़ी चप्पलों से आती चट चट की आवाजें उसपर चाँटों-सी पड़ती हैं (जैसे उसपर चाँटे पड़ रहे हों). इस भागने में उसके पैरों के नीचे से कींच उछल कर उसकी छाती और चेहरे पर पड़ते हैं. सहसा उसे ग्लानि की मितली आने लगती है (शायद इसतरह भागने को लेकर उसे ग्लानि का बोध होने लगता है). नगर की गलियाँ गोल गोल खोह जैसी हैं, जिसमें व्याप्त अँधेरा उसके चेहरे और हाथों पर हमला-सा करता जान पड़ता है. ये गलियाँ अजीब उमस और दुर्गंध से भरी हुई हैं. उसे इन गलियों में रुँधा हुआ उच्छ्वास अर्थात रुक रुक कर साँस लेता लेना पड़ता है. फिर भी उनसे होकर दम छोड़ भागता हुआ वह कई मोड़ लाँघ जाता है. रात के अँधेरे में उसे कहीं कहीं धुँधले से आकार दिखाई पड़ते हैं. कवि यह निर्णय नहीं कर पाता है कि ये आकार भयभीत करने वाले हैं या अँधेरे से ढँके घरों के हैं. इन सबको पार करता हुआ कवि अचानक अपने को कोलतार से बने एक लंबे चौड़े, ठंढे (शीत पड़ने से ठंढे हुए) और स्याह (अँधेरा छाए) रास्ते पर पाता है. वहाँ पहुँच कर उसकी बेचैन आँखें सब ओर देखती हैं, पर उसे वहाँ कोई नहीं दिखता, कहीं कोई नहीं दिखता. बस, श्याम आकाश में संकेतों की भषा जैसी तारों की आँखें चमचमा रही हैं. और उसके दिल में जैसे एक ढिबरी-सी टिमटिमा रही है (अर्थात उसके हृदय में कुछ हल्के भाव उभर मिट रहे हैं).

ऐसे क्षण में कवि को लगता है, जैसे रास्ते के बीच में ही उसे कोई अपनी ओर खींच रहा है. और वह विना कोई तर्क किए जादू से बँधा हुआ उसी ओर चल पड़ता है. जब वह आगे बढ़ता है तो उसे एक उँची खड़ी तिलक की पाषाण-मूर्ति दिखती है जो एक सपाट सूने में निस्संग, स्तब्ध और जड़ीभूत (अचल) खड़ी है. किंतु वह ज्योंही उसके पास पहुँचता है, वह पाषाण-पीठिका उसकी अंतरानुभूति में कुछ हिलती सी प्रतीत होती है. वह यह महसूस कर चौंक उठता है (अरे यह क्या!) कि इस प्रस्तर-मूर्ति के कण-कण में कंपन है और उनसे नीले इलेक्ट्रॉन (शक्ति की स्फुलिंग) झर रहे हैं. और प्रतिमा के सब ओर नीली चिनगारियाँ गिर रही हैं. उस मूर्ति के तन से अंगार झर रहे हैं (संभवतः इस फैंटेसी की उद्भावना से कवि तिलक के तेजस्वी और ओजस्वी व्यक्तित्व का चित्र खींच रहा है). इसी क्षण कवि को लगा, तिलक की मूर्ति के पत्थरी अधरों पर जैसे एक मुसकान काँप गई हो (उभर आई हो) और उसकी आँखों में बिजली के फूल सुलग उठे हों (कदाचित कवि के अंतर्मंथन में ऐसा लगा हो- कहाँ उन्होंने विगत में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक क्रांतिचेता जनसमूह का नेतृत्व किया था और कहाँ यह क्रांति की बातों में उलझा वुद्धिजीवी कवि). इसी समय उसका ध्यान तिलक की प्रस्तर-मूर्ति के भव्य ललाट की नासिका पर जाता है जिसमें से जाने कबसे खून बह रहा है, उससे लाल लाल गर्म रक्त टपक रहा है (उनका अगरखा इस टपकते खून के धब्बों से भर गया है), मानो अतिशय चिंता के कारण उनके मस्तक के कोष ही सहसा फूट पड़े हों और मस्तक का वह रक्त ही उनकी नासिका से बह उठा हो. उस बहते रक्त को देख कवि की संवेदना जाग उठती है. उसके मुख से निकल पड़ता है- हाय, हाय ओ पितः! आप चिंतित न हो. हम अभी जीवित हैं, चिंता करने की कोई बात नहीं. यह कह, कवि उस पाषाण-मूर्ति के ठंढे पैरों को बरबस अपनी छाती से चिपका कर रुआँसा हो उठता है (कदाचित इसलिए कि उसमें वैसी तेजस्क्रियता नहीं है). उसकी देह में करुणा के काँटे तन जाते हैं अर्थात करुणा उसे अब काँटों सी लगने लगती है, उसकी पीड़ा उसे टीसने लगती है. कवि सहसूस करता है कि उसकी छाती, सिर और बाँहों पर बिजली की नीली चिनगियाँ गिरने लगी हैं (उसे करुणा की चुभन की अनुभूति होने लगी है). तिलक की मूर्ति से टपकते खून को वह अपने हृदय में टपकता अनुभव करने लगता है. उसे लगने लगता है जैसे वह टपकता खून उसकी आत्मा में तालाब बन कर बह रहा हो. (यहाँ तालाब बन कर बहने का प्रयोग खटकता है. तालाब बहता नहीं है, मुहाबरा नदी बहने का है).

इतने में......................................................................................................सुरागरसी-सी कुछ
इसी क्षण कवि अपनी छाती के भीतर कुछ ठक्-ठक्-सा होता अनुभव करने लगता है. सिर में धड़-धड़ होने लगती है जैसे अंदर कोई हड्डी कट रही हो (कटने की आवाज धड़ धड़ तो नहीं होती). उसके मन में जबरदस्त फिक्र हो आती है. उसका विवेक जाग उठता है. उसे लगता है जैसे उसका विवेक उसके सोच पर (विचार शक्ति पर) एक तीखा (तेज धर वाला) रंदा चला रहा है- स्यात उसे एक सम चिंतन-भूमि पर लाने के लिए. उसे यह भी लगता है जैसे उसके अंतर में एक बसूला चल रहा हो (काट छाँट के लिए) और कोई उससे उसके निजत्व को छीले जा रहा हो.(कवि के मन में ये सारे विकार उत्पन्न हो रहे हैं तिलक की मूर्ति की नासिका से बहते रक्त को देख कर).

सन् 1908 में बंबई की कपड़ा मिलों के श्रमिकों की विशाल हड़ताल को, तिलक ने उसका नेतृत्व कर, जब राजनीतिक बल दे दिया तब उन्हें गिरप्तार कर कोर्ट में पेश किया गया. कोर्ट ने उन्हें छह दिन की सजा दे दी. तो उसके विरोध में लाखों श्रमिकों ने कोर्ट को घेर लिया जिसे तितर वितर करने के लिए सेना को गोलियाँ चलानी पड़ीं, कदाचित इसी का रूपक यहाँ खड़ा किया हो कवि ने. तिलक श्रमिकों के साथ खड़े हुए थे).

कवि ने अनुभव किया कि इसी समय उसके भी भीतर कोई जिद जाग उठी, कोई बड़ा भारी हठ उठ खड़ा हुआ (शोषितों और श्रमिकों के लिए कुछ करने की), या कहा जाए कि उक्त अनुभूति में वह भी कुछ कर गुजरने की दृढ़ता से भर गया. किंतु इतने में ही बंदूकों की धाँय-धाँय- धड़ाके से आसमान काँप उठा. उस क्षण (गोलियों से बचने के लिए) उसके पैरों में विजली की रफ्तार आ गई अर्थात वह तेजी से आगे बढ़ा और नगर की खोह-सी गलियों के अँधेरे में गुम हो, उसके अँधेरे में एक ओर थक कर बैठ गया और कुछ सोचने विचारने लगा. वहाँ उसने अनुभव किया कि अँधेरे में डूबे मकानों के छप्परों के पार से किसी के रोने की पतली सी आवाज आ रही है, जो सूने में दूर तक काँप रही है (मद्धिम ध्वनि में फैल रही है). उसमें कराहों के भी स्वर हैं. उन कराहों-से रुदन की लहरों में पाशविक प्रताड़ना से हो रही भयानक वेदना थरथरा रही है (यह वेदना करुणा को कँपा देने वाली है). कवि उस वेदना को अपने कानों से महसूस करने की चेष्टा करता है, कि इतने में उसे सामने सर्दी में कोई बोरे को ओढ़ कर, अपने हाथ पैर समेटे, काँपता हुआ हिल रहा दिख जाता है. उसकी स्थिति को देख कर कवि को लगता है, कहीं वह मर न जाए. कवि ने देखा कि इतने में उसने अचानक अपना सिर खोला. उसके बिखरे बाल और कान दिखने लगे. फिर वह अपना मुँह खोलता है, लगा जैसे वह कुछ बुदबुदा रहा है. किंतु कवि उसे सुनने का प्रयास नहीं करता. उसने जब उसे ध्यान से देखा तो बोरा ओढ़े वह पुरुष उसका कोई परिचित-सा लगा जिसे वह कभी खूब देखा है, कई बार निरखा भी है पर उसे पा नहीं सका है अर्थात उसके अनुभव-क्षण में वह डूब नहीं सका है. कवि के अंतर में उठा कि अरे हाँ वह तो फलाँ है पर उसके विचार उठते ही दब गए जैसे और आगे सोचने का उसका साहस ही चला गया हो. लेकिन फिर उसने साहस बटोरा तो उसे स्पषट दिखा कि अरे बोरे में लिपटे व्यक्ति का वह मुख, वह तो गाँधी जी हैं. उसे एक झटका लगा, गाँधी जी और इसतरह पंगु (निष्क्रिय) हालत में. बहुत आश्चर्य है. वह वितर्क करता है- लेकिन नहीं, वह पंगु हालत में नहीं हैं वरन देश के हालात की जाँच पड़ताल में रूप बदल कर निकले हैं, कुछ सुरागरसी (सुराग-रसी-सुराग लेने में रस लेने वाले) के समान.

(अहमदाबाद टेक्सटाइल्स वर्कर्स ने सन् 1918 में अपने डी ए के वापस लिए जाने के खिलाप गाँधी के नेतृत्व में आंदोलन किया था, यही वजह लगती है मुक्तिबोध द्वारा गाँधी के, इस फैंटेसी में याद किए जाने की)

अँधेरे की स्याही.................................................................................................खोहों तहों में
उस देव (गाँधी) को स्याह अँधेरे में डूबा सामने पाकर कवि अत्यंत दीनता अनुभव करने लगता है. और जैसे ही उनके पास जाता है उसे बिजली का एक झटका-सा लगता है मानो वह देव कह रहे हों- भाग जा, दूर हट जा यहाँ से, वह बीत गए जमाने का चेहरा हैं (अर्थात जो उन्हें करना था वह कर चुके हैं), अब तुम्हारा जमाना है, तू आगे बढ़ जा अर्थात आगे जो करना है वह तुझे करना है. किंतु कवि वहाँ से हटता नहीं, उस देव-मुख को वह देखता रहता है. उस देव के व्यक्तित्व में अभी भी गंभीर दृढ़ता की वैसी ही सलवटें हैं जैसी कभी हुआ करती थीं, उनकी वाणी में भी वैसी ही गुरुता और गंभीरता है. कवि ने उनको यह कहते अनुभव किया कि यह दुनिया कचरे का ढेर नहीं है जिस पर दानों को चुगने के लिए चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट या मुर्गा जोर जोर से बाँग देकर मसीहा बन जाए. जन-नेता बनना कोई आसान बात नहीं है. कवि ने अपनी कल्पना में उन्हें कहते सुना कि मिट्टी का हर कण गुणों से भरा है. वे जनता के गुण हैं. जनता के गुणों से ही उसके भविष्य का उद्भव संभव हो सकता है. उनके ये शब्द गंभीर थे. इन गंभीर शब्दों को कहते वे आगे बढ़े, पर जाने क्या क्या कह गए, सभी कुछ कवि के पल्ले न पड़ा. किंतु उनकी बातों को सुन कवि बहुत उद्विग्न हो उठा.

इतना कह वह आत्मा का पिंजर उठ खड़ा हुआ जो मात्र मूर्ति की ठठरी भर था (गाँधी जी की काया ऐसी ही थी भी). उसकी नाक पर चश्मा, हाथ में डंडा, कंधे पर एक बोरा और उनकी बाँहों में एक शिशु था. यहाँ फैंटेसी में उस अस्थिपिंजर (गाँधी) की बाँहों में शिशु को देख कवि आश्चर्य से भर उठता है. उसे यह बहुत अद्भुत बात लगती है. देव की बाँहों में यह शिशु कैसे. तब उस प्रकाश-पुरुष ने मुस्करा कर उससे कहा – यह शिशु (स्वातंत्र्य-शिशु अथवा राष्ट्र-शिशु) चुपचाप मेरे पास सोया हुआ था (स्वतंत्रता मिलने के कुछ समय पश्चात तक स्वतंत्र देश पर गाँधी का नैतिक अनुशासन था. यह सहिष्णुता और सहअस्तित्व के आंदोलन के फलस्वरुप उन्हें प्राप्त हुआ था). वह कवि से उस शिशु को सँभालने के लिए कहते हैं- लो इसे सँभालो और इसे सुरक्षित रखना. साम्यवादियों को बहुत आशा थी कि सत्ता में, स्यात उन्हें भी सहभागिता मिल जाए. कदाचित उसी आशा का प्रस्फुटन है यहाँ.

इसके प्रत्युत्तर में कवि उनसे कुछ कहने को होता है (कल्पना में) कि इतने में वह कल्पना से बाहर आ जाता है और देखता है कि उसके सामने अब कोई नहीं है. उस क्षण उसे अँधेरे का फैलाव ज्यादा गहरा और ज्यादा अकेला लगने लगता है. वह बालक अब उस आत्मा के पिंजर से कवि की बाँहों में आ जाता है और उससे लिपट कर चुपचाप उसके गले से लग जाता है. छाती और कंधे से चिपके उस आकाशा-से निर्मल नन्हे-से शिशु का बहुत ही प्यार भरा, कोमल और सुकुमार स्पर्श पाकर कवि अत्यंत अभिभूत हो उठता है (या कहा जाए कि देश को मिली स्वतंत्रता से वह अभिभूत है). उस (स्वातंत्र्य-शिशु के) भार की गंभीरता का अनुभव (उत्तरदायित्व की गंभीरता), उसके भविष्य की गंध (दशा दिशा) और अँधेरी (कठिनाइयों भरी) दूरियों की टोह लेता हुआ, आकाश के तारों को साथ लिए (स्वप्नवत होकर) कवि आगे चला जा रहा है. और उन फासलों की खोहों व तहों में वह घुसता जा रहा है जो शिशु के वर्तमान और भविष्य के बीच पसरा हुआ है.

सहसा रो उठा............................................................................................... चला जा रहा है
कवि के कंधे से चिपटा वह शिशु सहसा रो उठता है. कवि को वह आवाज अतिशय परिचित सी लगती है. उसे लगता है, पहले भी कई बार वह इस आवाज को कहीं सुन चुका है. उसे लगता है, इस आवाज में अब किसी क्षोभ का स्पोटक आएगा (अर्थात कोई क्षोभ फूट पड़ेगा). उसे लगता है इस आवाज में गहरी शिकायत है और भयंकर क्रोध का पुट है (क्रोध-शायद देश की अपूर्ण स्वतंत्रता पर. यहाँ यह उद्भावना की जा सकती है कि साम्यवादी इस स्वतंत्रता को सफल नहीं मानते थे. संभव है कवि शिशु के इस रोते स्वर में साम्यवाद के स्वर को ही वाणी दे रहा हो). इस आवाज को सुनकर कवि को डर सताने लगता है कि कहीं इस स्वर को कोई सुन लेगा तो वह और शिशु दोनों ही कहीं नहीं रह सकते (कवि डरता है, कहीं कोई उसके इस असमंजस को भाँप न ले). कवि की ये पंक्तियाँ सीधी सरल नहीं हैं. ये हमें कुछ उलझन में डाल देती हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि लोकतंत्र से विलग एक अपरिचित कंधे (साम्यवाद के) को दे दे दिए जाने से शिशु रो उठा हो. कवि को डर है कि यह क्षोभ भरा स्वर कहीं कोई सुन लेगा तो शिशु और उसके दोनों के लिए ठीक नहीं होगा. अतः कवि शिशु को पुचकारता है, दुलारता है, उसे समझाने के लिए गाने भी गाता है. उसके अधरों से आधी-अधूरी लोरी भी फूट पड़ती है. वह शिशु को चुप करने की जितनी भी कोशिश करता है शिशु और भी क्रोध से भर चीखने लगता है. उसकी आँखों से आँसू निकल कर कवि के कंधों पर टपकने लगते हैं.

लेकिन कवि इस समय बहुत खुश है, वह समझ नहीं पा रहा है कि इस क्षण वह बहुत खुश क्यों है. वह तृप्त दिखता है यह सोच कर कि जिस बात को वह अपने जीवन में नहीं कर पाया वह यह शिशु कर रहा है (कवि के क्षोभ और उसकी असंतुष्टि को अपने रुदन के से प्रकट कर रहा है). वह शिशु की पीठ थपथपाता कर उसे शाबाशी देता है.है. शिशु के प्रति उसकी आत्मा गीली हो जाती है अर्थात शिशु के अपने मनोनुकूल कृत्य को गुन उसके हृदय में करुणा उमड़ आती है. इस सोच के साथ कवि के पैर आगे बढ़ रहे हैं और मन भी आगे की सोच रहा है. इस तरह कवि किसी भीतरी सोच में डूब जाता है. वह महसूस करता है कि उसके हृदय की थाल में रक्त का तालाब उमड़ रहा है और उस रुधिर से लाल लाल किरणें फूट रहीं हैं. उसके अनुभव के रक्त में उसके संकल्प डूबे हुए हैं जो उसके साथ साथ चल रहे हैं. और इनके साथ वह (कवि) अँधेरी गलियों में चला जा रहा है

इतने में पाता हूँ...................................................................................सत-चित-वेदना-भास्कर!
अँधेरी गलियों में चलते कवि को सहसा लगता है कि इसके कंधे पर जहाँ शिशु था अव वहाँ कुछ नहीं है. न जाने वह शिशु कंधे से उतर कर कहाँ चला गया. अब उसके स्थान पर सूरजमुखी के फूलों के गुच्छे आ गए हैं. इन सुनहरे पुष्पों से प्रकाश की किरणें विकिरित हो रही हैं और उन किरणों के हर कण (रैखिक धारा) कवि के कंधों, सिर, गालों, तन और रास्तों पर पड़ रहे हैं. यह महसूस कर कवि खुश हो जाता है. उसके मुँह से निकल पड़ता है – भई वाह, खूब. कवि यह प्रसन्नता महसूस करता आगे बढ़ रहा है कि इतने में एक गली आ जाती है. गली में वह एक दरवाजा खुला हुआ देखता है. उसमें बने जीने में अँधेरा है. जीने से पास कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है यानी वहाँ मंद प्रकाश फैल हुआ है. कवि धीरे धीरे आगे बढ़ रहा है. अब उसके कंधे से फूलों के लंबे गुच्छे भी गायब हो जाते हैं. वह आश्चर्य में पड़ जाता है. वे गुच्छे क्या हुए, कहाँ गए. कंधों से गुच्छे गायब होने से उसके कंधे पर का भार हल्का होना चाहिए था किंतु उसके कंधे किसी अन्य वजन से अचानक दुखने लगते हैं. वह कंधो पर हाथ फेरता है- ओ हो, फूलों की जगह अब यहाँ बंदूक आ गई है. वह विस्मय विमुग्ध हो उठता है- वाह. वा. यह तो वजनदार रायफल है.

वह जिस जीने के सामने खड़ा है, वहाँ खुला हुआ कमरा है, साँवली हवा बह रही है, उसकी खिड़कियों से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे झाँक रहे हैं. चारों तरफ वीरान (शून्य स्थान) है जैसे बर्फीली (जिसमें शून्यता का बोध हो) साँस-सी फैली हुई है. सारा सामान तितर-बितर फैला पड़ा है. और उसी के बीच में उसने देखा कोई जन जमीन पर बाँहें फैलाए पसरा हुआ (मरा पड़ा) है, जैसे (बचते बचाते) आखिरकार ढह पड़ा हो. कवि उस जन को, टॉर्च से प्रकाश कर देखता है, और चौंक जाता है- अरे यह क्या, यह तो खून भरे बालों में उलझा एक चेहरा है, इसके भौंहों के बीच में गोली लगने का सूराख है. उसके गालों पर, बहे खून का एक परदा पड़ गया है और अधरों पर खून की पड़ी कत्थई धारा सूख गई है. आँखों पर पड़ा चश्मा फूट गया है किंतु नाक सीधी है. कवि अफसोस से भर जाता है- ओफ्फो, यह तो उसका एकांत-प्रिय सुपरिचित मित्र है, वही, जिसका अहसास उसके लिए एक सचाई थी. वह एक कलाकार था. उसके हृदय में गलियों के अँधेरे का (जीवन के स्याह पक्ष का) भार था किंतु अपनी कार्य-क्षमता से वंचित था अर्थात उसे कार्यरूप में परिणत नहीं कर सका था. वह अपना असंग अस्तित्च चलाता था अर्थात उसका अस्तित्व निस्संग था (या कहें राजनीतिपोषित नहीं था). उसके अपने सपने शुचितर विश्व के मानवीय हृदयों के मात्र सुकुमार सपने थे. उसके दिल में स्वप्न, ज्ञान और जीवनानुभव, जो कहें, रह रह कर हलचल मचाते थे. वह उस हलचल (उद्वेलन) को किसी को दे नहीं पाया था अर्थात किसी को अपनी चिंता से उद्वेलित नहीं कर सका था. आज वह शून्य के जल में (अनाम रह कर) नीरव (बिना शोर शराबे का) डूब गया. उसकी कला का कोई उपयोग नहीं हो पाया. कवि सोचने लगा, किंतु जो हो, वह अचानक किसी झोंक में आकर यह क्या कर गुजरा (शायद आततायी ताकतों का विरोध कर दिया) कि उनके द्वारा वह संदेहास्पद समझा गया और उन बधिकों के हाथों मारा गया. वह मुक्ति (शोषण से) का इच्छुक था.उसी की तृषा से उसका हृदय आर्त था. मुक्ति के यत्न में निरंतर लगे होने से ही वह सबका प्यारा बन गया था. वह अपने में प्रकाश से भरा था. इस प्रकार उसका बध होने से एक युग की मृत्यु हो गई, एक जीवनादर्श मर गया. इतना होने से कवि को लगता है उसको कोई चिढ़ा रहा है कि तुम भी तो कवि-कलाकार हो, तुम्हारा भी यही हश्र हो सकता है. उसके सामने सवाल उठता है कि अबतक वह क्या कर रहा था, सब ओर केवल भागता फिर रहा था. लेकिन खुद को कोसना उसे उचित नहीं लगता. वह इस कृत्य को छोड़ एकदम जरूरी दोस्तों को खोजने और नए नए सहचर को पाने में लगा देना चाहता है. वह चाहता है उसका कृत्य सकर्मक हो और वह सत, चित और वेदना के सूर्य को पा सके ( सत्य और सद्चेतना को तो सूर्य कहा जा सकता है किंतु वेदना को?).

जीने से उतरा..................................................................................................हिम थॉरोली!!
अँधेरे में स्थित जीने से कवि उतरा. उतरते ही एकाएक वह कुछ विद्रूप रूपों से घिर गया अर्थात भद्दे चेहरे वाले अनेक सैनिकों ने उसे घेर लिया. इनकी पकड़ एक मशीन की-सी थी. इन भयानक आकारों से घिरा अब वह आततायी सत्ता (कल्पना-चिंतन में) के सम्मुख था. आततायी सत्ता के सम्मुख होने पर कवि का हृदय एकाएक धड़क कर रह गया. उसने सोचा आखिर यह हुआ क्या. उसके पूरे शरीर में भयानक सनसनी फैल गई. सैनिकों में से किसी ने उसका कॉलर पकड़ कर उसका गला दबाया. किसी सैनिक मे उसे एक जोर का चाँटा मारा. उस चाँटे के पड़ने से उसे लगा जैसे उसकी कनपटी टूट गई और गाल की पूरी त्वचा उखड़ गई. उसके कान में जैसे भयानक अनहद नाद की भनभन भर गई अर्थात कान झनझना उठे. आँखों में लाल लाल तितलियाँ तैर गईं और उससे नीली चिनगियाँ निकलने लगीं. उसके सामने छितिज पर कोहरे के धुँधलके में डूबे गोल गोल घेरे उगने डूबने लगे. कवि को दिखा कि उस वर्तुल (गोल घेरे) के केंद्र के चक्रिल (चक्रनुमा) फैलाव में, बड़े बड़े टॉवर गिर, धँस रहे हैं. उसे उनसे गेरुए ज्वाला वाला घुँघराला धुँआ उठता दिख रहा है. कवि को महसूस होता है कि उसके हृदय में एक भगदड़-सी मच रही है (वह बहुत उद्विग्न हो उठा है). उसे दिखा कि सामने के उजाड़ बंजर टीले पर कोई सहसा रो उठा है, कोई रो रहा है और कोई सहायता देने के लिए भाग-दौड़ में है. कवि अनुभव करता है कि यह सब उसके भीतर कहीं उसके अंतर्तत्वों का पुनर्प्रबंध, पुनर्व्यवस्था अथवा पुनर्गठन-सा होता जा रहा है.
फिर दृश्य बदलता है. एक नया चित्र खड़ा हो जाता है. कवि को जबरन एक गहरे अँधियारे कमरे में, जो स्याह और शून्यवत अर्थात एकांत-सा है, ले जाया जाता है, उसे एक टूटे-से स्टूल पर बिठाया जाता है, और उसके सिर की हड्डी तोड़ी जाती है अर्थात पिटाई की जाती है, यह पिटाई उसे ऐसे लगती है जैसे किसी लोहे की कील पर लगातार बड़े बड़े हथौड़े पड़ रहे हों. उसे नगता है उसके शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला गया है. और ये प्रहारकर्ता देख रहे हैं कि कवि के मस्तक-यंत्र में विचारो की कौन सी उर्जा है, मस्तिष्क के किस शिरा में कौन सी धक धक (इस उर्जा को उछाल रही) है, किस रग में किस तरह की फुरफुरी है, कहाँ है वह देखने वाला कैमरा जिसमें तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते हैं. कहाँ कहाँ सच्चे सपनों के अर्थ मिलते हैं और कहाँ क्षोभक (क्षुब्ध करने वाले) और स्फोटक (एकाएक फूटने वाली) शिराएँ हैं. कवि के मन में एक अंतर्व्यंग्य-सा उठता है- प्रहारकों! भीतर कहीं अंदर गड़े हुए और तलघर के अंदर छिपे हुए उस प्रिंटिंग प्रेस को भी खोजो जहाँ चुपचाप खयालों के पर्चे छपते हैं और बाँटे जाते हैं. इस अस्थि-कवच में ही कहीं इस संस्था (प्रचार की) का सेक्रेटरी भी होगा, उसे भी खोज निकालो. शायद उसका ही नाम आस्था (विश्वास) है. मस्तिष्क में कार्यरत इस टुकड़ी का सरगना कहाँ है, खोजो. वह आत्मा कहाँ है, उसे भी खोजो. कवि इस कल्पना-क्रम में एक चिढ़ी हुई आवाज को महसूस करता है. वह किसी को कहते सुनता है, मि गुप्ता, इसकी (अस्थि-कवच की) स्क्रीनिंग करो, थॉरोली क्रॉस एक्जामिन करो. (यह वाक्य जाँच की प्रक्रिया को जीवंत बनाने भर के लिए है).

चाबुक चमकार...............................................................................................फटे हुए मन की
कवि महसूस करता है कि पीठ पर यद्यपि चाबुक की चमकार (फटकार) पड़ने से पीठ की चमड़ी उखड़ गई है, और उसमें रक्त की कत्थई रेखाएँ उभर आई हैं, किंतु यह आत्मा (शरीर में उर्जा संचरित करने वाली शक्ति) बहुत ही कुशल है. उसकी देह में रेंग रही संवेदना की गरम, कड़ुई, गहरी धारा और उसके झन झन करते, थरथराते तारों को समेट कर, और उसके सब वेदना-विस्तार को इकट्ठा करके, उसका मन उनकी छोटी सी सख्त, मजबूत और कड़ी गठान बाँधता देता है, ऐसा कि मानो पत्थर हो (अर्थात सारी तकलीफों को झेलता अपने मन को पत्थर की तरह कड़ा कर लेता है). लेकिन अगले क्षण वह जोर लगा कर उसी गठान को हथेलियों से चूर करता हुआ उसको धूल में बिखेर देता है अर्थात उसे महत्वहीन कर देता है. वह भावहीन हो जाता है. इस तरह उसका मन उसकी देह की हद से दूर हट किसी और अलग जगत में चला जाता है (वह किसी और चिंतन में लग जाता है). यह क्षण कवि को विचित्र लगता है जैसे सिर्फ जादू हो यह. उस क्षण, मात्र वह बिजली-सा हो रहता है, यद्यपि एक खोह में किसी खूँटे से बँधा ही सही (खंभे के तारों में बहती बिजली-सा). उसके आस पास मानो कोई दैत्य है अर्थात गैरसहानुभूतिपूर्ण वातावरण है. ऐसा होने पर भी वह (कवि) वहाँ से मीलों पार कहीं बहुत दूर चुपचात एक पत्र के रूप में किसी की जेब में गिर जाता है, ऐसी जेब जो किसी फटे पुराने मन की हो यानी उसकी (कवि) संवेदना किसी उथले मन तक पहुँचती है.

समस्वर समताल...........................................................................................लक्ष्यों के पथ पर
कवि सोचता है कि सारी प्रताड़ना के बावजूद वह अपने भीतर समस्वर औ समताल से भरा है. उसमें सहानुभूति की कोमल सनसनी अनुप्राणित है. वह सोचता है, वह कहाँ नहीं है, वह सभी जगह है यानी उसमें उमड़ रही संवेदना हर कोई में उच्छल है. और उसकी निजता? उसके भीतर बिजली के जीवित तारों जैसी है. वह उन ज्वलंत तारों की भीषण गुत्थी-सी भीतर पड़ी है, और बाहर बाहर धूल-सी भूरी दिखती है. कवि को बोध होता है कि वह उस क्षण जमीन की पपड़ी (जगत की दुश्चिंताएँ) और उसके अंदर दहकती आग (अर्थात क्रोधावेश) और उग्र प्रभंजन (तोड़फोड़ का आलोड़न) को लेकर भी उसका मस्तिष्क हिमवत (जड़वत) है और उसका हृदय बिल्कुल निश्चल है. उसमें कोई तूफान नहीं उठ रहा है. कवि को लगता है उसमें भीषण शक्ति है किंतु वह आत्मा का दीन और मैला पोशाक धारण किए हुए है. इस उक्ति से शायद इस ओर संकेत है कि शोषकों के प्रति उसके मन में (जन-मन के प्रतिनिधि के रूप में) तीब्र आक्रोश है और उनसे जूझने की शक्ति भी है किंतु आत्मा का परंपरागत दर्शन उसे दीन और दुर्बल बनाए हुए है. वह विस्मय में है कि कैसे विचित्र रूपों को धारण करके जीवन अपने लक्ष्य के पथ पर चलता है.

समीक्षाः
इस खंड की अंतर्वस्तु बदलती है, वैसे ही, जैसे उपन्यास के उच्छ्वास बदलते हैं. पिछले खंड में कवि अपनी अंतर्गुहा में था और उसमें विखरे पड़े अपने विवेक-रत्नों को देख रहा था. इस खंड में फैंटेसी का सीन बदलता है. अब वह नगर के एक सुनसान चौराहे पर है, जहाँ दुष्ट इच्छाएँ गस्त करती हैं.

कवि इस खंड में कुछ प्रतीकों और बिंबों का सृजन करता है जिसमें कुछ निहितार्थ गूँथे गए प्रतीत होते हैं. एक बिंब है घंटाघर में चतुर्दिक लगी घड़ियों का. घड़ियों के मिनट के काँटे अलग अलग कोण पर हैं, उनकी गतियाँ भी अलग अलग हैं. समय की इन विसंगत गतियों को दिखाकर कवि कहीं युग-मस्तिष्क की गति-दिशाओं की तरफ तो ईशारा नहीं कर रहा? क्योंकि स्वातंत्र्य-आंदोलन को लेकर, चार का तो नहीं पता, पर दो राजनीतिक दिशाएँ अवश्य थीं- एक गाँधीवादी और दूसरी साम्यवादी. फिर उसने गुंबद के एक विवर में बैठे कुछ असंभव पक्षियों (जिनके चौराहों पर दिखने की संभावना नहीं होती, जैसे गिद्धों की) के प्रतीक का प्रयोग किया है. वह बहुत तेज नजरों से सब ओर देख रहे हैं. उनके इरादे भयानक लगते हैं. लगता है इन पक्षियों में उस शोषक वर्ग को कल्पित किया गया है जो आम नहीं होते, छिपे रूप से शोषण करते हैं.

फिर कवि कुछ अनोखे बिंब खड़ा करता है. यहाँ उसकी फैंटेसी की ताकत देखने और अनुभव करने जैसी है. एक तो यही कि दम छोड़ भागते कवि को एक सुनसान स्थान में तिलक की पाषाण-मूर्ति खड़ी मिलती है जो अकेली है. किंतु यह जड़ीभूत मूर्ति इतना जीवंत है कि लगता है उसके पाषाण-तन से अंगारे झर रहे हैं, उसकी आँखों में बिजली के तेजस्वी फूल सुलग रहे हों. कदाचित इस उद्बावना से कवि तिलक के उस दृढ़ और ज्योतिष्क व्यक्तित्व का स्मरण करता लगता है जिसने यह घोषित किया था कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. वह उस मूर्ति में मानवीय संवेदना भी स्थापित करता है. वह उनुभव करने लगता है कि उस मूर्ति की नासिका से खून की धारा बह रही है. उसे लगता है (श्रमिकों अथवा मजदूरों) की दशा से चिंताग्रस्त तिलक के मस्तिष्क-कोष के फटने से यह रक्त बह उठा है. कदाचित इस बिंब के बहाने वह सन 1908 में तिलक के श्रमिकों का साथ देने और इसके लिए कोर्ट द्वारा उन्हें छह दिन की सजा देने की स्मृति को वह तजा करना चाहता है.

एक बिंब है- गोलियों की धाँय-धाँय के बीच बिजली की रफ्तार से भागता कवि नगर की एक खोहरूपी गली में, हाथ पैर समेटे, बोरा ओढ़े किसी को काँपते देख चौंकता है. अरे, यह तो गाँधी जी हैं. कदाचित इस बिंब-रचना से कवि का इस तथ्य की ओर संकेत है कि नेहरू के नेतृत्व में सत्ता की प्रतिष्ठा के बाद वह (गांधी) सत्ता की केंद्रीय भूमिका से अलग थलग कर दिए गए थे. किंतु उस बूढ़े की आत्मा अभी भी जीवंत थी. कवि के उस बोरे की तरफ आगे बढ़ने पर एक गुरु गंभीर वाणी में उसे डाँट पड़ती है- मुझ-गुजरे जमाने को मत देख, आगे बढ़ जा. कहा जा सकता है कि इस बिंब की रचना, गाँधी जी के संघर्षों को भुनाकर सत्ता-रस का आनंद लेने को आतुर लोगों को कवि चेतावनी देने के लिए करता है. इस बिंब में वह गाँधी जी अपने पास सोए पड़े स्वातंत्र्य-शिशु को कवि के कंधों पर डाल देते हैं- लो, संभालो इसे. कदाचित ऐसा कर कवि स्वातंत्र्य-फल में अपनी (साम्यवाद की) भी सहभागिता की उम्मीद देख रहा होगा. कंधे पर पड़ा यह शिशु पहले रोता है. कदाचित इसलिए कि वह कंधा उसके लिए (उसके लोकतांत्रिक अस्तित्व के लिए) एक अपरिचित कंधा (साम्यवादी) प्रतीत होता है.

कवि उस सद्यःजात स्वातंत्र्य-शिशु की सुकुमार त्वचा के स्पर्श से अभिभूत हो उठता है. स्वतंत्रता पाकर वह भी अय़भिभूत है, वह स्पर्श उसे सूरजमुखी-फूलों के गुच्छे के कोमल स्पर्श जैसा लगता है. किंतु कुछ ही क्षण में वह फूलों का गुच्छा गायब हो जाता है और उसके स्थान पर एक बंदूक आ जाती है. स्पष्ट है कि गाँधी जी के साधनों के सहारे प्राप्त स्वतंत्रता पर कवि का विश्वास नहीं है. उसे सोवियत रूस के बोलसेविकों की सशस्त्र क्रांति का रास्ता भाता है. अतः फूलों के गुच्छे की जगह उसके कंधे पर बदूक आ जाती है. मैनेजर पांडे मानते हैं कि मुक्तिबोध भविष्य के कवि हैं, किंतु उनके, बंदूक से आजादी प्राप्त करने के भविष्य-कथन क्या हश्र हुआ है, नक्सलाइटों और माओवादियों की सशस्त्र क्रांति में इसकी एक झलक देखी जा सकती है. आज यह सशस्त्र क्रांति....

एक अन्य बिंब में कवि एक कलाकार को एक कमरे में मरा पड़ा पाता है. वह सबका प्रिय था पर शोषकों को कलाकारों के जनप्रिय होने न होने से क्या मतलब. कलाकार तो अपने में ही डूबे रहते हैं. वे समर्थन और विरोध की राजनीति से कोसों दूर रहते हैं. वह कलाकार शोषकों की सत्ता के प्रदर्शक जुलूस द्वारा मारा जाता है.

इस खंड की कविता, अबतक के छहों खंडों की कविताओं में सबसे लंबी है. गुत्थियाँ इसमें भी हैं पर वे बहुत उलझन में नहीं डालतीं. इसमें वर्ण्य और चित्रण-शिल्प का भरपूर उपयोग किया गया है. प्रतीक और बिंब- रचना ही इसकी जान है. हालाँकि इन बिंब-रचनाओं में स्वाभाविकता कम और आयास बहुत हैं. इसकी भाषा और वाक्य-विन्यास को पाठकों की सहानुभूति की अत्यंत आवश्यकता है. यह इस कविता की कमजोरी है.