Friday 15 February 2019

बोध की ठिठकन (1982)

 काव्य संकलन - 

 शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव, रचनाककार में प्रकाशित, 14-02-2019


बोध की ठिठकन (कविताएँ 1982)

बोध की ठिठकन

तुम्हारी परिचिति के शून्य में
मेरे बोध की ठिठकन
कुछ क्षण दीप जलाती है-
तुम्हारे पथ से गुजरना
बहुत कठिन नहीं
अपने आत्यंतिक आयाम में
बस ठहर जाना है-
मेरे अभिसरण से
तुम्हारी पगडंडी-हवाओं में
कोई खरोंच नहीं लगती
न मेरे होने के किसी फलक में
पीड़ा खुदती है-
मैं महसूसने लगा हू
जो कुछ भी आकुंचन चुभता है
वह
मेरे द्वारा बुनी गुई
मेरे मन की समाई की
फटन का चीत्कार है-
मेरी मनोनिर्मिति
किसी शिशु-नाभि की तरह
मेरी देह-घाटी में
कुछ इस कदर जुड़ी है
कि इसकी थोड़ी सी करवट
मेरे पोरों में
सृजन की पीड़ा उड़ेलती है-
मैं पूरी तरह चाहता हूँ
मेरा सृजन-शिशु
पहरों से अलग
किसी एकांत घाटी में
अपनी ऑखें खोले
क्योंकि तब
aअपने प्रसव को
मैं अपना अर्ध दे सकूँगा
मेरा प्रसव अर्थ ढूँढ़ सकेगा
तभी उसकी सृजनशीलता
अपनी आत्यंतिक संभावनाओं का
खोजी हो सकेगा-
मेरे सृजन पर पहरे हैं-
मौन की समृद्धि का अहसास
मुझे है
मगर पंक्ति
मुझे कुंठा पिलाने में सक्षम है-
अपने होने के संकटापन्न पलों से
अनभिव्यक्त चलना
कुछ ही कठिन है
मगर पंक्ति की पंक्तियों से गुजर कर
अकेले हो रहना
बहुत कठिन है-
जो भी प्रयास अभी तक
मैंने किए हैं
आमूल हिल गया हूँ
हॉ यह जरूर है
कि मैं अभी तक उखड़ा नहीं
मेरी स्थिति
डोरी के मध्य में
सॅभाल में लगे नट की तरह है-
07-02-82

2-

मन के किसी कोने में

ज्वार-भाटी तरंगें
मेरी काया के रंध्रों में
रूप भरती हैं-
इस रूपक दिनचर्या में
कुछ ऐसा भी होता है
कि मेरे अंदर
अपनी पहचान की दुविधा में
कोई थिर हो जाता है.
इस थिरादट में
तरंगों को ही नहीं
बीचियों की सिहरन को भी
दह तटस्थ महसूसने लगता है.
अब मेरी रूपनिर्मिति के आयाम
बदलने लगे हैं.
वायु में तिरते थपेढ़ों से
रोज दिन मेरी टकराहट होती है
मगर अब
चोटों के सहलाव पर जीना
मुझे पसंद नहीं.
प्रतिक्रिया पंख फड़फड़ाती है
पर मूल को पाने का आकर्षण
कुछ इतना गाढ़ा है
कि तरंगों की उभरन और तिरोहण में
फर्क करना कठिन है.
मेरी देह-घाटी में
पत्तियों की मर्मर तक से
खरोंच उभरती है
फिर भी वहाँ अंतराल में
कुछ अक्षत रह जाता है.
घाटी में उमड़ते हलचलों के
तटस्थ दर्शन में
कभी कदा
कोई दीर्घाती दीप्ति-तरंग
मुझे मेरे अंतराल से
जोड़ती भी होती है.
इस जुड़ाव के क्षण में
मैं ताजा अनछुआ
कदाचित क्वाँरा हो जाता हूँ.
27-4-82

3

तुमसे जुड़ना

एक अलग ही आयाम में
प्रवेश पाना है.
तुम्हारे होने की
दीर्घाती दीप्ति-छुअन
मेरे पोरों में कुछ थिराती है.
क्षितिज के समान्तर
दौड़ती आकांक्षाएँ
कभी मुझसे एकाकार थीं
आज उनके पदचिन्हों की छाप
मैं गिन सकता हूँ
महसूस सकता हूँ.
मेरी अस्मिता के गहन तलों से
उदित होता कोई तटस्थ
जो अब प्रतीति नहीं रहा
मुझे तुम्हारी सत्ता से जोड़ने में
संलग्न है.
इतना मुझे भान है
मेरे पोरों को बेधती
तुम्हारी सुवास
कहीं पास ही से उठती है
मगर अभी अंतरिक्ष निरभ्र नहीं है.
धुंध में
दीए की लौ का
मद्धिम-सा कलात्मक उभार
मुझे झलकता है.
सर पर पड़ती
परिवेश के हथौड़े की चोट
उसमें टिमटिमाहट जोड़ती है
पर तुम्हें भी भान होगा
पलकों की अपलक वृत्ति पर
मैं सवार हूँ.
तुम्हारे आयाम में
मैं प्रवेश पा सकूँगा
इस संभावना का अर्ध्य
अपनी अँजुरी में सजाए
अधमुँदीआँखों का ध्यान साधे हूँ.
25-4-82

4.

अपने आत्यंतिक स्वरूप को

पहचान सकूँ
इसीलिए
तुम्हारी घाटी के तरल स्पंदन की
टोह में
मैं कान पाते हूँ.
मैं प्रयोग रत हूँ.
मैंने दिशाओं से अपने को
काट रखा है.
पड़ोसी परिदृश्यों के
कठिन कोमल संस्पर्श
प्रवासी तरंगों का जुलूस बनाए
मेरे त्वचा-द्वारों पर
सनसनी फैलाए है.
अनुपल घनी होती
यह सनसनी
मेरे पोरों में सिहरन जगाती है.
मेरे प्रयासों के तहत
मेरी अस्मिता में
विपरीत ध्रुवों वाली
दो अतियाँ रच जाती हैं
मैं तनावग्रस्त हो जाता हूँ.
लेकिन अब
अपनी दृष्टि-दिशा में
मैंने एक मोड़ दिया है.
अब मेरी अस्मिता में
अपसारी एवम अभिसारी
द्विधा तरंगों का
अभिस्वीकरण है.
मेरी कोशिश है
मेरे पोर पोर में
इनकी धड़कनों का प्रतिसंवेदन
रेंगता रहे.
अपनी अंतर्बाह्य गतिविधियों का
मैं गवाह भर हूँ.
कह नहीं सकता
इन क्षणों की
अनुभव बनती अनुभूति का
आह्लाद है अथवा
कोई आकस्मिक अतिरेक
कि पंखुरियों में बसती
खुसबू की तरह
मेरी काया के परमाणुओं में
कुछ मनोमय जुड़ता जा रहा है
कलियों की किलावट की तरह.
12-5-82

5.

संध्या के झुटपुटे सा

मेरे मन के तीर का लक्ष्य
तुम्हारी शिथा है
अविरत, अविच्छिन्न, क्वाँरी.
मैं भीड़ में हूँ, भीड़ का हूँ
मगर भीड़ से भिन्न भी हूँ.
भीड़ की टिप्पड़ियाँ
कभी दुलराती हैं
कभी कोंचती हैं
कभी मेरे मन की रचना में
तनाव बोती हैं
फिर भी मेरे होने में कहीं कुछ है
जो मुझे संतुलन देता है.
मेरा करवट लेता मौन
मेरे जिस्म में
एक तिलमिलाता टिकाव जोड़ता है.
शुरू से ही मेरी अस्मिता
मेरी प्रयोगशाला रही है
अपने प्रयोगों में मैंने
उछलती टिप्पणियों को पकड़ा है.
अस्तित्व की गहराई में
गलाने के पूर्व ही
उसे चीरा है फाड़ा है
फिर सम्मतियाँ अभिकल्पित की हैं.
मैं महसूस करता हूँ
इन प्रयोगों में
मैं स्वयं अपनी पकड़ से
छूटता रहा हूँ.
अपने संकल्पित प्रयोगों में
मुझे अनुभव की मार खानी पड़ी है
लेकिन मेरा चोट खाया मन
दुर्वह अतिरेकों से लथफथ
तुम्हारी शिखा के
निरंतर दृष्टि-संपर्क में हूँ.
इस जागरित दृष्टि-संपर्क की भी
कुछ अनोखी प्रतिपत्तियाँ है.
यह अनोखा ही है
कि देखते देखते
प्रयोग की पटरी बदल भी गई
पर
उस बिंदु का रेखांकन कठिन है
जहाँ से लीक अलग हुई.
अब मैं भीड़ के आक्षेपों को
अपनी काया के परमाणुओं से
टकराने देता हूँ.
परमाऩुओं के दीर्घाते कंपन
मेरी समाई को भीड़ से जोड़ते हैं
इस जुड़ाव में कोई तरल बहता है
जिससे मैं भीड़ का
और भीड़ मेरी हो जाती है.
एक संपूर्ण ईकाई की थिरकन
मुझमें लहराने लगती है
और मेरे अतिक्रमण में
विद्रोह खोद देती है.
18-5-82

6

लो तुम्हारे पहलू में

मैंने खुद को डाल दिया.
तुम्हारे बोध की सिहरन ही
मेरे हाथ लगा वह सूत्र है
जो मेरी आस्था को आयाम देता है.
इस आस्था के सहारे
अपने समूचे नर्क के साथ
मैं तुम्हारे आमंत्रण को
समर्पित हूँ.
लो मेरे तारों पर
उँगलियाँ फेरो
स्वरों के नियंत्रण हेतु
खूँटियाँकसो
तुम्हारे व्यापार में
मेरा कोई दखल नहीं होगा.
मेरे समर्पण में
हमारा पार्थक्य आभासित है
तुम्हारी मर्जी के खेल में
मैं अपना एक आयाम खोलूँगा.
तुम्हारे स्पंदन के आघातों से
मेरे तारों में जो ध्वनि जगेगी
उन्हें अपनी काया के अणु अणु में
प्रतिसंवेदित होने दूँगा
और सह उत्पादित अंतर्संवेदनों को
अपनी प्रतीति पर छोड़ूँगा
एक प्रयोग की तरह.
मूझे अनुभव की गहराई में
आविर्भावों की डोरी पकड़ कर
अपने आत्यंचिक बोध के क्वाँरेपन में
उतरना जो है.
20-6-82

7

खूँटियों पर टँगे

इन लोगों में
कल मैं भी शुमार था.
मुक्ति का अनुरोध लिए
ये अब भी वहीं टँगे हैं
मैं उन कतारों से
अब अलग हूँ.
जकड़न के विरोध में
प्रतिक्रिया के मेरे पंखों ने
करवटें ली थीं
ये पंख
मेरे पोरों में अनथक फड़फड़ा कर
अब उन्मन सोए पड़े हैं.
खूँटी पर टँगा मैं
बस खूँटी ही हो रहा था
मी अस्मिता
मेरी धरोहर नहीं थी.
मेरे लहू में
फंदों के कसाव का समंजन
ज्वारों को
भाटो मेंबदल दिया था
मगर आकुंचनों की सिहरन
अभी भी
मेरी आलोचना को कँपाए थी.
मेरी दबी पीड़ाएँ
मुक्त होने की आकाँक्षा में
जीवन पा रही थी.
कई बार मन किया
परती में उगी दूबों में
फुदकती जिड़ियों को बुलाऊँ
और कहूँ
इन झीने धागों को
अपनी चोचों से तोड़ कर
वे मुझे आजाद करें.
मगर उनकी विशिष्ट फुदकन ने
मुझमें संदेह उभार दिया.
फिर सोचा
चिड़ियों को बुला कर
कितना आजाद हो सकूँगा मैं
मेरी इयत्ता तो फिर भी
माँग की निर्भरता से
निर्भार नहीं हो सकेगी
फंदेबाजों की चुनौती
मेरी धमनियों में
कहीं स्वीकार पा सकेगी क्या.
मुक्ति की आकांक्षा
फिर भी क्या शेष नहीं रहेगी.
मैंने चिड़ियों को नहीं बुलाया.
मगर यह क्या
मेरे यों सोचने के दरम्यान ही
जकड़न ढीली होने लगी
और आज मैं
किसी भी पंजे की चुनौती
स्वीकार करने की स्थिति में हूँ.
यह मेरा अनुभव तो नहीं
मगर शायद
मुक्ति की भूमिका
व्यक्ति की देह-घाटी में ही
लिखी जाती है
जिनकी जड़ों की पनाह
मन की उर्वर भूमि में होती है. 12-7-82

8.

कभी था कि

अपने होने का बीज
अपनी आंतरिक गहराइयों में
ढूँढ़ता था
मेरे मन का नियामक
जंगलों, गिरि गुहाओं का
एकांत सन्नाटा था.
आज
मेरे रंध्रों से सरसराती
परिवेश की धड़कनें
मेरे मन की नियामक हैं.
कहीं भी कुछ घटे
कोई बात बने बिगड़े
सभी कुछ
मेरे देह-गुण का आहार बन कर
मेरे चित्त की
पंखुरियाँ रचते हैं.
मेरे रचनाशील का विकास
रोज दिन के चढ़ाव उतराव में
असहज ग्रंथियों द्वारा
बुना जाता है.
मों अस्वाभाविक अपरिचय में
खोने लगा हूँ.
मेरे होने का केंद्र
आज कहीं बाहर विस्थापित है.
अपने ही केंद्र को
कस्तूरी मृग की तरह
अपने परितः ढूँढ़ रहा हूँ.
ओ मेरे निपट एकांत
नहीं लगता कि मेरे ठिकाव की ईंटें
मुझसे कहीं बाहर हैं.
मेरी खोज चात्राएँ
अब मेरे ही ऊपर मुझे फेंकने लगी हैं
आज भी मेरा होना
मेरा अपरिचित है.
15-7-82

9

मेरा हरएक पल

तुम्हारी घाटी के स्पंदन
महसूसने लगा है.
कभी कदा
घनीभूत होता यह अहसास
मेरे रचना के क्षणों को
बुनता है
मैं रचनाशील हो उठता हूँ.
मगर
मेरा भीड़ भरा मन
इन स्पंदनों को
सोखने लगता है
मेरी रचना के पल
छूट चलते हैं.
बहुत थोड़े से अवसर होते हैं
जब मेरा एकांत
मेरा अपना होता है.
मेरे सन्नाटे में
मेरी संवेदना के द्वार
खुलते हैं
मैं अपने साथ होता हूँ.
बस यह सन्वाटा भर ही
मेरा अपना था.
तुम्हारे स्पंदन के खरोचों से
सुगबुगाता मेरा होना
सन्नाटे की उखड़ती साँसों के साथ
मन के विस्तार में
धुँधलाता परिचय
छोड़ रहा हूँ.
26-7-82

10.

मेरी उत्कंठा है

पीड़ा और सृष्टि का उल्लास
मेरी रगों में खेले.
किसी आसन्न-गर्भा
युवती के रोमांच
कल्पना की तरंगों में
उसकी ढीली पड़ती झिझक
रचना के कोनल तंतुओं पर
कुदरत की फिरती उँगलियों के
उष्मल स्पर्श
यह सारा कुछ
मेरे अनुभव में तिरे
उठती ऊँचाइयों के साथ
गहराइयों में तुले
मैं उत्कंठित हूँ.
मेरे मन के
द्वैध बहावों में
रचना के पल
निश्चित ही उर्मिल हैं
उन्हें मेरे जीवन का लहू मिले
मैं आतुर हूँ.
इस आतुरता ने ही
मुझे तुम्हारे समीप खींचा है
क्योंकि मैं
प्रसूति की अनजान
मगर नैसर्गिक रचना के
अनुभूत पलों को
सीधी पहचान के अनुभवों में
जीकर
ऐसी कृति को
प्रकृति की थाली में
परोसना चाहता हूँ
जो अपनी निजी पहचान से
अभिषिक्त तो हो ही
मेरे तईं भी अपरिचित न हो.
बहुत सी बेडौल, अपरिचित,
असंतुलित आकृतियाँ
पेवंदों का अभिषेक लिए
यहाँ लुढ़क रही हैं.
इस जुलूस में
कुछ और जोड़ देना
मुझे मंजूर नहीं.
सृष्टि की संवेदना
मेरे पोरों मे तिरे
मगर मेरा सृष्ट
इतिहास का रेखांकन हो
छलांग लेती
नई जीवन धारा की
नेतृ-बूँद से
अंतरिक्ष के विराट आमंत्रण का
प्रस्फुटन हो. 4-8-82

11

लोग मुझे सुनें

मेरे गीत गुनगुनाएँ
मेरी भी यही आकांक्षा है.
हृदय के आविर्भाव
मन की तरंगों में
रूप लेते हैं.
मेरी बोध-यात्रा
अभी अधूरी है
मेरी नींव की ईंटें
संभावना-द्वार की खोज में
दस्तकें अगोरती हैं
अपनी निजी पहचान की
पीड़ा लिए
कागज पर कुछ उकेरने की
अकुलाहट
सुगबुगाती है.
ऐसे में जो
मेरी पंक्तियों में ढरकता है
उसके शब्द-संदर्भ
लड़खड़ाते हैं
अर्थ-संहतियाँ
सहजता खोजती हैं
मैं बोझ के नीचे दब जाता हूँ.
निरंतर मेरी कोशिश है
मेरे होने से निचुड़ा रस
जिसमें मेरा सबकुछ प्रविष्ट है
मेरे अस्तित्व से छलक कर
बहे.
लोग उसे सुनें, पिएँ भी
मगर लोगों को सुनाने के लिए
लोगों की तरंगों में
मैं गाने को तैयार नहीं
मेरी अपनी ही तरंगें
मेरे बोध का साक्षी हो सकेंगीं
मैं अपनी तरंगों में
अपनी खिलावट बिखेरूँगा..
9-8-82

12.

तुम्हें अराध लूँ

तो भोर की किरनें
शायद मेरे क्षितिज पर भी
झांकने लगें.
मेरा संवेदनशील क्षितिज
अंधड़ तूफानों के
चरण-निक्षेप सें
घबराता नहीं
उसने अपनी खिड़की
पंखुरियों में जगती उषा
संपुटों में ढलती संध्या
के लिए ही नहीं
जलती दोपहरी के
उत्तप्त-स्पर्श के लिए भी
खोल रखी है.
दूर धरती से
जहाँ आकाश मिलता है
घहराते बादलों से झाँकती
सूरज की तरुणकाई
उसने देखी है.
उसके दामन में
अनेक कड़वे मीठे प्रत्यक्ष
उभरे और गायब हुए हैं.
उसके पोरों को सिहराती
अहसासों की दस्तकों ने
उसकी आँखों के सामने
एक जाला सा बुन दिया है
मगर तुम्हारी लौ में
उनकी गाँठें दिखती हैं.
इन गाँठों पर आँखें टिकाए
जलते बुझते अनुबोधों को
मैं अनुभव की आँच में
पकाने लगा हूँ.
अपने रंध्रों के द्वार
मैंने खोल दिए हैं.
मुझे उम्मीद है
बादल छँटते ही भोर की किरनें
मेरे क्षितिज पर भी
जरूर छिटकेंगीं.
22-8-82

13.

अस्तित्व का काव्य

तुम मेरे क्षणों में
सर्जना के द्वार खोलो
मेरे क्षणों में
रचना का उद्वेलन है.
तुम मेरे अस्तित्व का
काव्य हो
तुम्हारे सागर में तिरोहित
मेरी सर्जना की बूँदें
रूप लेते टूट जाती हैं.
वे रूप लें तो ही
तुम्हारे बोध का प्रकाश
मेरे होने को बेध सकेगा
रूप लेता
सीमाबद्ध जीवन ही तो
वह माध्यम है
जिसमें तुम्हारी अभिव्यक्ति
अनुबोधित होती हैं.
इतिहास के क्षण पकड़ कर नहीं
रचना के क्षण पकड़ कर
मैं इतिहास से जुड़ने का
आकांक्षी हूँ
हो सकता है
इतिहास का अवबोधन ही
कहीं मुझे
मेरे निकट ला खड़ा करे.
रचना के क्षणों को
अपने निकट एकांत में भी
पाने की कोशिश करता हूँ
इसीलिए सन्नाटा भी बुनता हूँ
पर सन्नाटा बुनते बुनते
टूट जाता है.
कहीं ऐसा तो नहीं
इतिहास और सन्नाटा
दो बिपरीत ध्रुव हों
जो एक साथ साधे न जा सकें
हालाँकि इतिहास भी तो
एक सन्नाटा अलाव है.
तुम मेरे क्षणों को रचो
शायद मेर क्षण रच जाएँ
तो मुझमें
रचनांकुरों की दिशा भी
खुल सके. 16-10 82

14.

रोज दिन के

तोड़ते जोड़ते अहसासों के बीच
अपने को सरकाता हुआ मैं
जब कभी भी
अकेलेपन में होता हूँ
निर्लेप सत्य का ऊफान
तुम्हारी करुणा के आवेश से
कंठ तक आ आ कर
लौट जाता है.
मैं सत्य कथन से
बंचित रह जाता हूँ.
पढ़ा लिखा हूँ
मैं भी समझे बैठा हूँ
कि सत्य कहने का
मुझे पूरा अधिकार होना चाहिए
पर ऐसा क्यों होता है
सत्य कथन से
मुझे कौन बंचित कर देता है.
यह कोई तेज तर्रार
बाहरी रोक है अथवा
कोई अपनी ही निपट कमजोरी
जो अपनी अपरिमित शक्ति से
मुझे अपरिचित बना देता है.
क्योंकि अधिकार होना चाहिए
इस उपदेश वाक्य की व्यंजना
कुछ ऐसी लगती है, जैसे
स्नायुयों में धावित दुर्बलता को
इस गंभीर वाक्य से
हम कोई आवरण दे देना चाहते हैं.
यह मिलावट का युग है
एक कड़वा सत्य है
मगर कड़वे सत्य की स्वीकृति से भी
लोग कतराते हैं.
मेरा अहुभव है
मिलावट का युग है कहते वक्त
वे अपने को बाद कर लेते हैं.
हाँ, कवि इस सत्य से कतराते नहीं
वे सत्य और झूठ की मिलावट को
कल्पना का सुनाम देकर
इसकी कठोरता को
कोमल अवश्य कर लेते हैं.
मगर यह युग
कुछ निराले ढंग से विस्मयकारी है
कवि शिवम और सुंदरम केआवरण में
इस मिलावट को कुछ ऐसे रच रहे हैं
कि भदेश और स्टंट हो भी
तो वे कसूरवार नहीं माने जाते
लोक-रंजक रचनाओं के नाम पर
वे सुर्खियों में टँक जाते हैं.
16-10-82

15.

अजित कुमार की एक

कविता की प्रतिक्रिया में
रेलवे के पहियों को
पटरी से जोड़ा गया
ताकि वे चलने को स्वतंत्र तो हों
पर उच्छृंखल न हों
और हाँ
धरती के यान को
तेज रफ्तार की तकनीक भी मिल जाए
सोचनें में कुछ हद तक
लगता भी यही है
पर पहिए तो जहाज को भी मिले
पर पटरीविहीन होने पर भी
पहिए उच्छृंखल नहीं हुए.
जाहिर है कि
स्वतंत्रता की नकेल कहीं और है
शायह वहीं जहाँ उच्छृंखलता की है.
स्वप्नशीलों ने
इमारतों की नींव को पटरी देकर
कोई भूल नहीं की
भूल उनसे निरीक्षण में हुई
आकाश में उठती ऊँचाई के अनुपात में
पेड़ों की गहरी जड़ों के साथ
वे नीचे नहीं धँस सके.
उन्होंने ईमारत को ऊँचाई तो दी
मगर नींव को गहराई नहीं दे सके.
समय की माँग के साथ
उन्होंने रफ्तार तेज तो की
पर उसके पहलू में सोए
आकस्मिक खतरों से
वे सजग न हो सके
संतुलन टूट गया
ईमारत के टिकाव के लिए
उनके सोच-संदर्भ में
कहीं चूक अवश्य हुई
पर वह संदर्भ पटरी का नहीं था
हटरी तो एक रुढ़ि हो सकती है
जो खोजी हुई दिशाओं में
यात्रा करने को अभिशप्त है
अनखोजी दिशाओं के खतरों को
वह उठा नहीं सकती.

16.

कुछ ऐसा करो मित्र

कभी कभी मेरे होने में
अचानक
दो एक पल सन्नाटा बुन जाता है.
तब मेरी इयत्ता नहीं होती
बस एक निस्सीम प्रवाह होता है.
तब न मैं होता हूँ
न मेरा सर्जक
सिर्फ एक रचना होती है
एक द्रष्टा होता है.
मन के कोरा हुए क्षितिज पर
तुम्हारी रश्मि-दस्तकें
किरणों में उरह जाती हैं
क्षणों में बीत रहा मैं
कदाचित अपने अस्तित्व के
निकट होता हूँ
मुखौटों से विहीन
भेद-स्तरों से रहित.
कुछ ऐसा करते मेरे मित्र
ये पल मुझमें ठहर जाते
या इन पलों में
मैं ठहर जाता.
आग्रही मनोनिर्मितियों और
ग्रंथियों के टूटने के खतरे
समकालीन प्रवाह के थपेड़ों में
बिगड़ते संतुलनों को झेलती
पत्ती की तरह
संत्रास और कुंथा मैं झेल सकूँगा.
बीते पलों में गरिमा पिरोने में
मे रस नहीं
जीवंत पलों के संस्कारों में बैठना
मुझे आता है
सन्नाटा भरे इन पलों में ठहर कर
अपने में होने का उल्लास
और परिवेश से कटाव का
संकटापन्न अहसास
कुछ उधार का ओढ़ने से
मुझे बेहतर लगता है.
दो एक पल का यह सन्नाटा
जीवन से भरा
मेरे अस्तित्व के तट पर बरसता
मेरे अंतर्बाह्य सहभागों का
जीवित साक्षी होता है.
मित्र कुछ ऐसा करो
मेरे होने में ये पल
गहरा उठें..
30-11-82

17.

मेरी ग्लास भर प्यास में

एक घूँट तृप्ति भी मिले
तो मैं स्वीकारूँगा
और पूरी तृप्ति के लिए
उस छोटी सी तृप्ति को ही
सीढ़ी बना लूँगा.
मेरी प्यास के छोर
अतीत और भविष्य के गर्भ में
गड़े हैं
स्मृति और संभावना की हद तक
मैं दौड़ लगाता हूँ
प्कृति के विस्तार में
जो कुछ भी घट रहा है
अपने को फेंक कर
उसमें क्षण भर हो लेता हूँ
पर बहुत कुछ पाने की प्यास
तृप्त नहीं हो पाती.
मैं अपने आप पर
फेंक दिया जाता हूँ
अकेला, निरवलंब, प्रत्याहत
एक द्वीप की तरह.
बंधु मुझे लगता है
मैं एक द्वीप ही हूँ
जिसकी अपनी अलग गहराई
और उत्तुंगता है
उसके अपने दीए हैं
जो तुम्हारे संभाल में हैं
इस दीए की लौ
मेरे पोरों में नहीं छिटक रही
शायद इसीलिए प्यास गहरी है
किसी भी व्याज से
एक घूँट रोशनी मिले
तो उस पछ को मैं पकड़ लूँ
माँग और आलोचना में विश्राम
जरूर मिलता है
पर भटकावों के दुख
बहुत पीड़क हैं. 26-11-82

18.

अक्सर तो नहीं

पर कई दफा ऐसा होता है
जब मेरे पासअकूत खिले क्षणों का
संयोग जुट जाता है.
ये क्षण
सूरजमुखी फूलों की रश्मि-सजगता
और कदंब फूलों के रोमांच-से
लदे फदे होते हैं.
मेरे चित्त में
क्षण भर को ही सही
पर मुक्त पलों का आह्लाद
जाग उठता है
मेरी आँखों के कोरकों में
करुण स्रावों का गीलापन
मुखर हो उठता है
और कुछ अतींद्रिय बोध का
दृष्टि-द्वार खुल जाता है
मेरे अस्तित्व की धारा
तुम्हारे निकट से
बह पड़तीहै.
मगर हाय री बिडंबना
इन क्षणोंके टिकाव
थिर नहीं होते
न जाने कहाँ से पलक झपकते ही
बादल का कोई मांसल टुकड़ा
मेरे आकाश में सरक आता है
जब मेरी अनुभूति में खो चुका
धरती का स्पर्श
वापस लौट आता है
और मेरी हेह में चुभती कीलों का दर्द
मेरे चित्त को स्याह कर जाता है.
मेरे होने की खो गई इयत्ता
फिर रूप धारण करने लगता है
मेरे अनुभव का रेखांकन
अभिव्यक्ति की अभीप्सा में
अँट नहीं पाता
तब मैं अनुभव नहीं
अनुभव की किसी स्मृति-रेखा की
एक चिप्पी हो जाता हूँ. 2-11-82

19

कभी से मैं गुलाब की

इस अधखिली कली को
देख रहा हूँ
यह अभी भी
उतनी की उतनी ही खिली है
जितनी पहले देखे में थी.
लगता है
इसके प्राणों का उष्मल आवेग
जो अंतरिक्ष का आमंत्रण पाकर
ट्टी से रस निचोड़ता
उर्ध्वाधर बहकर
उस तक पहुँचता था
कहीं उसके कँटीले तन में
उलझ कर रह गया है,
क्या अंतरिक्ष के आह्वान से
असके परमाणु अपरिचित हो गए
जो उस कली की पंखुरियाँ
छितराने की उतसुकता
और उल्लास का संवेग
खो बैठी है.
अथवा मिट्टी से
जीवन-उर्जा लेने का द्वार
उसकी किसी विकृति ने
अवरुद्ध कर दिया है.
अथवा मिट्टी से अबाध जीवन-संचय
उसकी किसी ग्रंथि में उलझ कर
किसी विस्फोट की कोई भूमिका
तय कर रहा है.
अगर यह विस्फोट
किसी जीवन को प्रसव देगा
यदि वह कली हो तो विकृत होगी
यदि वह काँटा हो तो दुर्दांत होगा
जीवन-धारा का यह ठहराव
महसूसने
और अनुभव उतारने जैसा है-
सम्यक अनुभव से ही
गलाया जा सकता है.
इस कली का अल्प खिला रह जाना
किसी प्रसव के
ठहर जाने जैसा है
सृजन के क्षणों की यह पीड़ा
मैं बराबर झेल रहा हूँ.
यह कली
मेरे अस्तित्व के कितना निकट है
जभी मैं इस ठहरी खिलावट को
तन्मय हो देखता हूँ
मेरे पोरों में ठहरी खिलावट
उससे तादात्म्य कर बैठती है
कुछ तुम्हीं करो मेरे मित्र
इस अवरुद्ध खिलावट की चुभन
बड़ी पीड़क है. 25-2-82

20.

जिन सच्चाईयों में

मैं आकंठ डूबा हूँ
तुम्हारी निकटता पाने को
उन्हीं से भाग रहा हूँ.
मैंने एकांत भी पैदा किया
उसकी प्रतीतियाँ झेली भी
मगर तुम्हारी भीत
मैं टटोल न सका.
उस पथिक के उद्बोधन से
अपने गिर्द की सच्चाईयों में
जब मेरी आँखें खुलीं
मैंने पाया
तुम तक जाने वाले रास्ते
रोटी से होकर ही
गुजरते हैं
जब रोटी का ठोसपन घुलता है
मेरे पोरों की संवेदना
पुष्ट होती है.
मेरे अनुभव में
बला का यह सत्य उघड़ता है
कि रोटी को लहू बनाने की कला
बस तुम्हें ही आती है.
धरती का ठोसपन
जब फूलों की खिलावट में
मुस्कराता है
तो दरअसल उसमें
बहुत सी बातें आहरित होती हैं—
अंतरिक्ष की पुकार
उनके प्राणों में पुलक जगाती है
मिट्टी का संवेग
उसके रूप में थिरकने लगता है
प्रकृति थिरक कर
उसके रूप को सँवारती है
मगर इस फूल को
विनिमय की कलानहीं आती
धरती फूल का ग्राहक नहीं होती
बस उसके सौंदर्य को
मौन पी लेती है.
मगर मेरे होने में
फूल के सारे आहरण होने बावजूद
विनिमय भी जुड़ता है
ग्राहकता भी जुड़ती है
संशय और संभावना की
अपार क्षमताएँ भी जुड़ती हैं.
रोटी का ठोसपन
जब मेरे होनें में घुलता है
तो यह सब भी अनायास
मेरे अस्तित्व की परिधि बन जाते हैं
परिवेश के बोध, अहसास
तमाम कुंठाएँ, संत्रास
कँटीले तनावोंकी चुभन
मेरे होने का हिस्सा हो जाते हैं.
इनसे बचने के लिए
मैं रोटी खाना नहीं छोड़ सकता
हाँ, रोटी के साथ जुड़ी
भूख की मूर्छा के प्रति मैं जाग सकता हूँ
इस जागने का भी
अपना अनूठा स्वाद है.
रोटी के साथ तिर कर
मुझमें जुड़ने वाले सारे रिसाव
अब मेरी निर्वेद स्वीकृति है.
रोटी की सच्चाईयों में डूब कर
मैं अतिक्रमण का मार्ग ढूढ़ूँगा
क्योंकि ये द्वार आंगन के पार नहीं
आंगन में ही खुलते हैं.
26-12-82