Tuesday 15 March 2022

पत्रिका साखी-33 में ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'मत होने दो' पर एक आलोचनात्मक दृष्टि

 


साहित्यिक पत्रिका साखी-33 में संपादक ने साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि ज्ञानेन्द्रपति की कोरोना-कवलित कालखंड में लिखित कविताओं को स्थान दिया है। उनमें से उन्होंने उन्हीं के "मत होने दो" कविता को उन कविताओं के शुरू में आमुख के रूप में दिया है-
"मत होने दो
इन दिनों जब संक्रामक कोरोना वायरस ने हमें दूर-दूर कर दिया है एक दूसरे से
अस्तित्ववादी दर्शन का महावाक्य-"दूसरा व्यक्ति नरक है"
तुम्हारा जीवन-दर्शन न बन बैठे कहीं
इन कोरोना-कातर दिनों में
करुणा को कवलित मत होने दो
थोड़ी दूर रहो,
पर मित्र मन को विगलित न होने दो।"
निश्चित ही कोरोना-कवलित कालखंड में लिखित और साखी-33 में स्थान पाई कवि की सभी कविताओं में यह कविता संपादक को विशिष्ट और महत्व की लगी होगी, तभी इसे उन्होंने उन कविताओं के आमुख के रूप में दिया है। मैंने इस कविता को उन कविताओं के आमुख के रूप में देने के पक्ष को कई तरह से समझने की चेष्टा की पर इस संदर्भित कविता में मुझे कोई उल्लेखनीय बात नहीं दिखी जो उन कविताओं का आमुख बनने का कारण बने। काव्य की दृष्टि से मुझे इसमें कोई विशिष्टता नहीं दिखती। इस कविता की पंक्तियाँ सीधी सरल और सपाट हैं। इसमें बातें किसी प्रतीक या बिंब के माध्यम से नहीं कही गई हैं जिससे कोई करुणापूरित संवेदना छलकी पड़ रही हो। विचार की दृष्टि से भी इसमें कोई भास्वर विचार नहीं दिखा जिसपर संपादक रीझ गए हों। किसी किसी नई कविता में कहीं कहीं पंक्तियों को तोड़ कर वाक्य सरणियाँ कुछ इस ढंग से विन्यस्त की गई मिलती हैं कि उनके शिल्प से ही उसमें काव्य जैसी अनुभूति मिलती है पर इसमें वैसा शिल्प भी नहीं है। काव्यशिल्प तो अलग, गद्यकाव्य के शिल्प से भी, जिसमें कविता का-सा आनंद आता है, यह कविता कोसों दूर है। हाँ, इसमें किसी राजनीतिक पुट को सायास ढूँढ़ा जा सकता है पर उसमें कविता की करुणा की संवेदना को संप्रेषित करने की होती क्षमता होती तो वह अनायास ही छलक पड़ रही होती।
इस कविता की पंक्तियों से किसी तरह के भाव के संप्रेषण की आहट नही मिलती, सिवाय करोना-पीड़ितों को दी गई इस प्रगल्भ सलाह के कि वे अस्तित्ववाद के महावाक्य- 'दूसरा नरक है' सूत्र का कायल अपने को न होने दें। करोना वायरस ने उन्हें एक दूसरे से जो अलग कर दिया है, यह प्रकृति की करुणा है उनपर। यह उस कोरोना वायरस के संक्रमण से उनके बचने के लिए डाक्टरों की, उनको दी गई एक चेतावनी भर है। इस चेतावनी में यह निहित नहीं है कि दूसरे से इसलिए दूरी बनाए रखो क्योंकि 'दूसरा नरक के समान है' जैसा कि अस्तित्ववाद के महावाक्य में कहा गया है। दूसरे को नरक के समान मानने से व्यक्तियों के अंतः में उद्बुद्ध करुणा मर जाएगी।
लेकिन इस सलाह में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि कवि की यह सलाह केवल कोरोना काल के लिए ही है या कोरोना-विरत काल के लिए भी है,
केवल कोरोना-कातर लोगों के लिए ही है या कोरोनामुक्त लोगो के लिए भी है। कविता में इस असमंजस का होना उसमें दी गई सलाह में एक कमी के होने को द्योतित करता है।
रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि से इस कविता को कविता नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि इसकी पंक्तियों में जीवन की कोई संवेदित सरणी नहीं है। मात्र कोरोना का उल्लेख कर देने से कोरोना-काल के जीवन का कोई अनुभूत पीड़ा-भार इसमें नहीं जुड़ जाता। हाँ उस कालखंड के जीवन को कोरोना-कातर कहने से उस काल की एक पीड़क स्थिति का बोध अवश्य होता है पर करोना से पीड़ितों को एक कथित महावाक्य में दर्शाई एक खास जीवन-स्थिति को न मानने की मानसिक सलाह उस पीड़ा को घना नहीं कर पाई है। केवल एक नीति का संबोधन भर बन कर रह गई है यह सलाह, रहीम के दोहों की तरह।
मेरे विचार से इस 'मत होने दो' कविता को कवि के कविता समुच्चय के लिए आमुखरूप देने में संपादक को, इसमें पिरोए अस्तित्ववाद के महावाक्य - "दूसरा नरक है" ने आकर्षित किया है। साठ और सत्तर के दशक में पश्चिम में इस महावाक्य ने तो धूम मचाया ही था, हिंदी कविता को भी इस दार्शनिक वाक्य ने बहुत आंदोलित किया था। उस समय यह वाक्य प्रगतिवादी कवियों के लिए तो उनके कंठ का हार बन गया था। आज भी इस वाक्य के प्रति उनका आकर्षण बना हुआ है। वे इसे एक महावाक्य की तरह देखते रहे हैं और आज भी देख रहे हैं।
मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि कोरोनाकाल में लिखी इस कविता में, ज्ञानेन्द्रपति को अस्तित्ववाद के इस महावाक्य के जिक्र की जरूरत क्यों आन पड़ी। क्या कोरोनाकाल में करोनापीड़ित लोग डाक्टरों द्वारा परस्पर दूरी बनाए रखने की दी गई सलाह को एक दूसरे को नरक के समान मानने की सलाह मानने लगे थे? लेकिन मार्च 20 से मार्च 22 के बीच भारत के किसी अखबार, किसी पत्रिका, किसी सूचना-माध्यम या किसी लेखन में इस तरह की बात का जिक्र नही आया। मैं तो सोचता हूँ कोरोना काल में यहाँ के कोरोना-पीड़ितों में शायद ही कोई इस तथाकथित महावाक्य को याद किया हो। कुछ सक्रिय प्रगतिवादियों को छोड़ कर शायद ही कोई इसे जानता भी हो।
ज्ञानेन्द्रपति इस कविता में यह मानते हैं कि इस वाक्य को जीने का एक सूत्र बनाने से लोगों के बीच घुड़ रही करुणा मरेगी ही फिर भी वह इसे एक महावाक्य की ही तरह याद भी कर रहे हैं।
आज इस महावाक्य ('दूसरा नरक है') की स्थिति तथाकथित की है। यह तथाकथित महावाक्य फ्रेंच दार्शनिक सार्त्र का है जो अस्तित्ववादी से मार्क्सवादी बन गए थे। उन्नीस सौ साठ के पहले इस दार्शनिक के इस सूत्र को किसी ने काटने का साहस नहीं किया था। सत्तर के दशक में ओशो रजनीश ने इसे गलत कहा और कहा सार्त्र को यह पता नहीं कि अस्तित्व क्या है। वह बुद्धि से सोचते हैं, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से नहीं। अस्तित्व को तो 'ध्यान' में होकर ही जाना जा सकता है। उन्हें ध्यान का कोई पता नहीं है। और ध्यान में जानी गई बात यह है- The other is not hell. The otherness is hell - दूसरा नरक नहीं है, दूसरेपन के भाव का मन में उठना नरक के समान है। ओशो को यह कथन भारतीय संस्कृति का अनुभूत है, बुद्धि से सोचा गया नहीं।
ओशो ने यह बात सार्त्र के जीवन काल में ही कही थी। सारी दुनिया उनके कथनों से उद्वेलित थी, आज भी है। सार्त्र और उनके अनुवर्ती भी उद्वेलित हुए होंगे। बीसवीं सदी बीत गई, आज इक्कीसवीं सदी का बाईसवाँ वर्ष चल रहा है पर न तो सार्त्र का प्रतिवाद सामने आया न ऊनके किसी अन्य अनुवर्ती का प्रतिवाद उस कथन के बिरोध में आया।
वास्तव में महावाक्य यह है- "दूसरा नहीं, दूसरेपन के भाव का होना नरक है।" महावाक्य जीवन में उन्मेष लाते हैं अवनति और खतरा नहीं। 'दूसरा नरक है' मानने का परिणाम हिटलर का यहूदियों के प्रति व्यवहार में देखा जा सकता है।
मेरा सुझाव है, संपादक और ज्ञानेन्द्रपति दोनों ओशो के उक्त कथन को हृदयंगम करके देखें। और महाभारत के उस बोधकथा को भी पढ़ें जिसमें पेड़ पर बैठा एक पक्षी पेड़ की छाया में आग जला कर भूखा प्यासा बैठे बहेलिए की भूख मिटाने के लिए अपने को उस आग में झोंक देता है। प्रकृति की करुणा के बशीभूत पक्षी दूसरेपन का भाव खोकर बहेलिए का आहार बन जाता है।
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव,
गोरखपुर,
15-03-2022

Wednesday 5 January 2022

अलविदा 2021

 अलविदा 2021













अलविदा, अलविदा,
टाटा!
इक्कीसवीं सदी का
इक्कीसवाँ वर्ष! टाटा!
जा रहे हो, जाओ
यह तो तुम्हारी नियति है
अच्छा होता
अपनी इस इति को भी
साथ लेते जाते।
तुम्हारी यह इति इतनी जिद्दी
इतनी प्रवाही है कि
भूलना भी इसे हम चाहें
तो नहीं भूल सकते
चाहें कि हम इसे उपेक्षित कर दें
वह बेपरवाह है
हमारे चेहरों पर
हमारे चित्तों पर
अपने समय का लेख
वह लिख ही जाती है
ईलेक्ट्रान-बिंदुओं की लिपि में।
जाने अनजाने
जरा भी स्मृतियों में हम फिसलें
ये उभर आती हैं स्मृति पटल पर
संवेदनाओं का ज्वार लिए
जिसमें होते हैं दंश
फूलों के भी काँटों के भी
स्फुरित हो जाते हैं सारे रोंगटे
मदु-कटु, कटु-मृदु रोमांचों का
संभार लिए।
अब देखो
तुम अभी गए नहीं पर
तुम्हारे बीतने की
आहट भर से
वर्ष भर के दंशों की पीड़ा
अभी से हमें सालने लगी है।
पिछली सदी से
तुम्हें दाय में मिले कोरोना-कहर
अभी भी हमें डरा रहा है
ओमीक्रोन के नाम से।
कहीं बाहर से संक्रमित कोविद-19 ने
तुम्हारे बीते पूरे बीसवें वर्ष में
कोरोना, क्वारंटीन, लाॅकडाउन
माउथ-मास्क, ढाई गज की दूरी
बरतने जैसी चेतावनियों से
हमें भिड़ा दिया।
जैसे तैसे
इस महामारी से हम निपटे
कि
ईर्ष्या से भरे राजनीतिक तूफान ने
हमें जकड़ लिया
कुछ की सत्ता की भूख ने
हमारे संविधान के
चौथे खंभे को भी
व्यभिचारी आचरण से
आक्रांत कर दिया
विधायिका को उच्छृंखलता ने
डँस लिया
न्यायपालिका में भी
विद्रोह के अंकुर उग आए
राजनीति ने
उसके भी आधार को
कुपोषित कर दिया
कार्यपालिका भी विभ्रष्ट होते होते
बची
ज्यादा चांस थे
उसके विभ्रष्ट होने के
हांफती कलपती किसी तरह
वह संतुलित बनी रही
देश ने छलनी होकर भी
अपनी अस्मिता को बचाए रखा।
बीतती सदी!
तुम्हारा आभार मानेंगे हम
किसान आंदोलन-
जो एक छद्म आंदोलन का रूप
लेने लगा था- को
तुमने एक स्खलन से रोक लिया
देश में अराजक स्थिति आने से
रह गई।
देश के अंदर
बाहर के शत्रुओं को
सूराख नहीं मिला
अंदर के शत्रुओं को
बाहर के शत्रुओं से
बल नहीं मिला
वे हाथ मलते रह गए
सत्ता के साथ
छीना झपटी भी हुई पर
नहीं दुहराई हमने सन् बासठ की
वह भयानक भूल।
हमें पहली बार लगा
अपार बल है समुद्र लाँघने की
हममें
हम अपना बल भूले हुए हैं
हनुमान की तरह।
हमें याद है
हमें झिंझोडा था शास्त्री ने
सत्तर के दशक में
इंदिरा ने
हमारे हाथों से
गर्दन पकड़ ली थी पाक की
पर आह! आत्मश्लाघा में
मान लिया उन्होंने
हमारे बल को अपना बल
और रौंद दिया हमें ही
ईमर्जेंसी की प्रताड़ना से।
पर राख में दबी चिंगारी
कभी बुझती नहीं
जयप्रकाश ने फूँक मारी
राख में दबी चिंगारी
दहक उठी
और हमने देखा
एक नया सबेरा।
पर हाय!
अपना एक सबल नेतृत्व
हम विकसित नहीं कर सके
सत्ता के कुछ लोलुपों ने
हमें बाँट हड़प कर
एक रिमोटी नेतृत्व तैयार किया
सारी दुनिया को मिल गया मौका
हम पर हाबी होने के लिए
अभी भी लपलपा रही वह जीभ
हमें निगल लेने को।
पर हम सब कुछ झेलते भी
अपने निरंतर अनुषंगी प्रयास से
अब विकसित किया है
एक जुझारू नेतृत्व
तुम्हारी पनाह में
कई कमियों के होते हुए भी
यह नेतृत्व
हमें अहसास करा रहा है
हम फिर से मथ सकते हैं सागर
हममें इतना बल है।
तुम्हारे समय के लेख
जो हमारे चित्तों पर अंकित हुए हैं
वे हमें कुरेदते हैं
इन कुरेदनों में उत्तेजना भी है
शम के अंश भी हैं
पर सबसे ऊपर
एक संतुलन का संदेश भी है
संयम का तेज भी है
यद्यपि इसमें
कुटिलता की झिलमिलाहट भी है
पर देश के प्रति समर्पण
और बलि जाने के भाव का तेज
सभी संवेदनशील मर्मों को
प्रतिपल भेदने को उद्यत भी है।
हमारे कवि लेखक
जो कभी द्वीप बने हुए थे
नदी के
हमें अफसोस है
अब वे लहरों के द्वीप हो रहे हैं
अपने ही भँवरों में
उलझ सुलझ रहे हैं
अभिव्यक्ति की आजादी का
बड़ा शोर है चतुर्दिक
वे कितना अभिव्यक्त हो रहे हैं
कितनी अभिव्यक्ति दे रहे हैं
सभी सहृदय उलझ गए हैं
इसी को समझने में
पर असमंजस में पड़ गए हैं
ये सभी तो
काटने में ही लगी हैं
एक दूसरे को
प्रगतिशीलता बदल गई है
अंधविश्वास में।
गनीमत है कि सुधी जन
देश के वातावरण के संयमन से
निराश नहीं हुए हैं अभी।
तुम्हारे क्रोड़ के आँचल तले
सभी प्रयासरत हैं
हारमोनी बनाने में
युग के मनों में
तुम्हारे जाने के बाद भी
बढ़ती रहेगी यह धारा
लक्षण यही दिखते हैं।
तुम्हारे इक्कीसवें वर्ष के युगों में
जूझते रहे हैं हम
कई तरह के संघर्षों से -
आत्मगत, पारस्परिक, बहिरागत
खाद्य के मोर्चे पर,
युद्ध के मोर्चे पर,
भीतरघाती छलों, द्वेषों से,
पर सनातन पाचन ने शायद
हमें सहारा दिया
और हमने अपने प्राचीन
सामासिक संयमन को
उद्बुद्ध किया
हम स्वयं और सार्व के प्रति
सदाशय हुए
आज औरों की ही नहीं
अपनी नजरों में भी
अपने को प्रतिष्ठित कर लिया है।
जाओ, खुशी खुशी जाओ
हम कोशिश करेंगे
तुम्हारे समय में आत्ममुग्ध
अपने संयमन को
हम अगली सदी में भी
ले जाएँगे।
28-12-2021
गोरखपुर
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव ,
गोरखपुर।