Wednesday 25 October 2017

मुक्तिबोध की कविताओं में काव्यत्व - एक अरूप शून्य के प्रति

रचनाकार में प्रकाशित,        24-10-2017

मुक्तिबोध और उनकी कविताओं में काव्यत्व // शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मुक्तिबोध एक कठिन कवि है. उन्हें एक बार पढ़ने के बाद उनकी कविताओं में दुबारा पढ़वा लेने का आकर्षण नहीं है. उनकी कविताओं को समझना भी एक दुरूह कार्य है. उनके शब्दों में, शब्द-चयन में, अर्थसंभरण में और बिम्ब-निर्मिति आदि में भी आकर्षित करने वाला सौंदर्य नहीं है. उनकी कविताओं की आरंभक पंक्तियों में यह गुण भी नहीं है कि अगली पंक्तियों तक पाठक को ले जाने के लिए उसमें उत्सुकता जगाए. टी एस इलियट की कविता ’द वेस्ट लैंड‘ भी एक दुरूह कविता है किंतु उसकी आरंभक पंक्तियों की रचना और शब्द-चयन कुछ ऐसे है कि पूरी कविता को पढ़ने के लिए पाठक में उत्सुकता जगाते हैं. ‘द वेस्ट लैंड’ कविता को मैंने इसलिए उदाहृत किया है क्योंकि मुक्तिबोध पश्चिम के अनुसरण में अधिक हैं.
फिर भी मुक्तिबोध में कुछ है जो उनको पढ़ने के लिए हमें बाध्य करता है. उनकी कविताओं में हिंदी कविता के आदि से छायावाद तक की काव्य-रचना-प्रक्रिया से अलग रचना-प्रक्रिया मिलती है. उनमें अद्यतन बोध से संपृक्त दृष्टि और दृष्टि-विस्तार का आयोजन मिलता है. शब्दों में काव्य-संवेदन को पिरोने की और उसे भास्वर बनाने की उनकी योजना अलग है. दुरूह होने के बावजूद उनकी कविता अपने इस नए शिल्प के कारण आकर्षित करती है. इस शिल्प में परंपरागत भाववस्तु ने काव्य वस्तु का स्थान ले लिया है. छंदों में लयहीन मुक्तछंद का प्रयोग, दुरूह प्रतीक और विंब-योजनाएँ उनकी कविताओं की आम विशेषता है. इनकी कविताओं में जो कुछ भी है सब नया है, अद्यतीत है, उनके अपने पूर्ववर्तियों की परंपरा से अलग हैं. अशोक वाजपेई ठीक ही कहते हैं कि वह हिंदी में गोत्रहीन कवि हैं. किंतु उन्हीं के साक्ष्य से यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने पश्चिम में अपना गोत्र खोज लिया था.
हिंदी में नयी कविता का वातावरण बनाने में मुक्तिबोध और अज्ञेय का बहुत बड़ा योगदान है. किंतु ये दोनों लोग अंग्रेजी लेखकों के अनुसरण में हैं. मुद्राराक्षस के अनुसार तारसप्तक की भूमिका में अज्ञेय के कई सिद्धांत-वाक्य अमरीकन मॉडर्निष्ट कवियों के सिद्धांत-वाक्यों के हूबहू अनुवाद हैं. मुक्तिबोध के कला के जिन तीन क्षणों की प्रायः चर्चा होती है वे उनके अपने चिंतन का परिणाम नहीं हैं. उन्होंने ‘ड्राईडन’ के कवि-कल्पना के तीन स्तरों- अन्वेषण, फैंसी और वक्तृत्व को ही कुछ व्याख्या के साथ अनुभव के, संवेदना के और अभिव्यक्ति के क्षण कहा है (बिंब प्रतिबिंब, नंदकिशोर नवल). एक और बात मुक्तिबोध में देखने को मिलती है. वह समुच्चरित शब्दों के भेद की गहराई में जाने का प्रयास नहीं करते, अनुभव और अनुभूति का उनके लिए एक ही अर्थ है. हालांकि स्कूलों में इनके अर्थों में भेद लिखने के लिए प्रश्न पूछा जता है.
मुक्तिबोध पर जो भी आलोचनाएँ मिलती हैं वे मार्क्सवादी आलोचनाएँ हैं. वे आलोचनाएँ महिमामंडक अधिक हैं और एक खास विचारधारा से प्रभावित हैं. पं हजारी प्र द्विवेदी और नंददुलारे वाजपेई जैसे धुरीण और आग्रहमुक्त आलोचकों ने इनपर कुछ छिटफुट ही लिखा है. इनमें इन्हें प्रयोगवादी और नई कविता का प्रमुख कवि बताया गया है. कई मार्क्सवादी आलोचक इन्हें निराला की कोटि का महाकवि कहते हैं तो कई इन्हें निराला के बाद का सबसे बड़ा और केंद्रीय कवि कहते हैं. इन मार्क्सवादी आलोचकों की स्थति यह है कि ये छायावाद की लीक तोड़ कर कुछ नया करने के ताजातरीन उत्साह में छायावाद की कड़ी आलोचना करते थे. किंतु आगे चल कर अपने कुछ वक्तव्यों के समर्थन में वे छायावाद से ही समर्थन लेने लगे थे (नयी कविता और अस्तित्ववाद- रामविलास शर्मा). ऐसे में उन्हें अस्थिर-चित्त कहा जाए तो उन्हें शिकायत नहीं होनी चाहिए. प्रगतिवादी कविता के आरंभ में मार्क्सवादी कवियों में भी एक विशेषता दिखती है. प्रगतिवादी कविता तो पनपी निराला और पंत के चित्तों में, आगे बढी दिनकर और बच्चन की लेखनियों से लेकिन इसे मार्क्सवादी कवियों ने लपक लिया. इस टाईप की कविताओं का प्रगतिवादी नाम इन्हीं का दिया है. लेकिन इसमें कविताओं की प्रगति इतनी ही हुई कि इसकी भाववस्तु, विषयवस्तु में बदल गई. कुछ शिल्प बदला, कुछ शब्द-चयन बदले, शब्दों में सौंदर्य डालने के नाम पर उनमें अजनवी अलंकरण डाले गए. उसमें शोषक और शोषित की बातें की जाने लगीं, वह भी इस कदर कि मार्क्सवादी चलन की कविताएँ ही प्रगतिवादी कविताएँ कहलाने लगीं. एक और बड़ी बात दिखी कि जन में इस नयी कविता (चाहे किसी वादी की हो) से दूर भागने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी. अभी भी वे व्यंग्य कार्टून याद आते हैं जिनमें दिखाया जाता था कि मंच पर कवि कविता सुनाए जा रहे हैं और श्रोता ऊब कर पंडाल से जा चुके होते हैं. मेरे देखे नयी कविता की सौंदर्याभिव्यक्ति में कोई प्रगति नहीं हुई. जैसे, नाद सौंदर्य या विचार-सौंदर्य आदि में. सम जीवन में तो एक लय का होना परम आवश्यक है. साम्यवाद में भी एक लयबद्ध जीवन की ही कल्पना है.
मुक्तिबोध ने साहित्य के क्षेत्र में सन् 1936 में प्रवेश किया (मु. बो., आलोचना स. अं. 55). आरंभ में वह छायावाद के सौंदर्यलोक की तरफ आकर्षित थे (नंदकिशोर नवल, विंब प्रतिबिंब). किंतु छायावादी छवि से शीघ्र ही वह अपने को अलग कर लिए (आलोचना, अं वही). उनको रूसी लेखक टॉल्सटॉय का यथार्थ-लोक अपनी तरफ खींचता था. वह यथार्थवादी दृष्टिकोण वाली नए ढंग की कविताएँ लिखना चाहते थे (आलोचना, अं वही). कुछ दिनों तक वह प्रगतिवादी कविताएँ लिखते रहे. फिर वह फ्रांसीसी दार्शनिक बर्गशाँ की ओर आकर्षित हुए. बर्गशाँ के प्रभाव में उनकी लिखी कविताएँ ‘तारसप्तक’ में संकलित हैं (नं. कि. नवल, पु वही). किंतु उन्हें तृप्ति नहीं मिली. उनको कविता की अपनी स्टाईल और अपनी यथार्थवादी अभिव्यक्ति की खोज थी जो उन्हें मार्क्सवाद में मिलती दिखी. पर उनकी व्यक्ति-चेतना को वहाँ भी सुकून नहीं मिला. वह अपने चिंतन की खिड़कियाँ बंद नहीं रखना चाहते थे. बाद की, उनकी मृत्यु पूर्व तक की कविताएँ इसी द्वन्द्व में पड़े एक बेचैन मन की कविताएँ लगती हैं. ‘अँधेरे में’ कविता में संभवतः वह अपनी निर्द्वन्द्व अभिव्यक्ति की ही खोज में हैं जिसमें उनकी व्यक्ति-चेतना और यथार्थ-चेतना मेल में हों.
मुक्तिबोध मार्क्सवादी थे या नहीं पर मार्क्सवाद का उनपर गहरा प्रभाव था. उन्होंने अपनी कविताओं में मार्क्सवादी चिंतन और बोध का उपयोग किया है. भारतीय मार्क्सवादियों की एक विशेषता है कि वे मार्क्सवाद के सिद्धांत पर निश्चिंत नहीं चलते. मार्क्सवाद का एक प्रमुख सिद्धांत है सर्वहारा का अधिनायकवाद जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कोई जगह नहीं है. सोवियत रूस में जब कोई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम ले लेता था तो उसे जेल में डाल दिया जाता था (जैसे साल्झेनिस्तिन को). चीन में तो उभी हाल ही में एक स्वतंत्रचेता लेखक की जेल में ही मृत्यु हुई है. ऐसी घटनाओं पर भारत में अति मुखर भारतीय मार्क्सवादी मार्क्सवाद के अनुसरण में चल रहे क्षेत्रों में घटित इन घटनाओं के विरुद्ध मुँह ही नहीं खोलते. ये मार्क्सवादी, भारत में अपने ही वाद के उलट होते हैं. यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए इन्हें लोकतंत्र प्रिय हो जाता है. हर घटना में (शांति हेतु ही क्यों न हुई हो) उन्हें फासिज्म ही दिखता है. किंतु चीन में थ्येन ऑन मान के दमन को ये फॉसिज्म नहीं मानते. कविता पर उनकी राजनीति हाबी होती है. कविता में कविता का स्वतंत्र व्यक्तित्व वह नहीं मानते. कहने का अर्थ यह कि भारतीय मार्क्सवादी मार्क्सवाद की और कविता की व्याख्या अपनी सुविधानुसार करते हैं. ‘आलोचना’ त्रैमासिक के पचपनवें अंक के संपादकीय में अपूर्वानंद कहते हैं कि मार्क्सवाद भारत में सोवियत संघ की छननी से छनकर आया था. इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय मार्क्सवादी मार्क्सवाद को जानने, समझने और पचाने में कितने परिश्रमशील रहे होंगे! हाँ, आम भारतीय मार्सवादियों की अपेक्षा मुक्तिबोध में एक विशेषता दिखती है. रूसी समाज को स्थिर करने के लिए वहाँ स्टालिन द्वारा कराए गए कत्लेआम को वह फासिज्म भले करार न दिए हों पर उसके इस कृत्य से वह सहमत नहीं थे.
मुक्तिबोध, अपने मार्क्सवाद में (नंदकिशोर नवल मार्क्सवाद के कई रूप बताते हैं, बिंब प्रतिबंब), सिद्धांततः उसमें अनपेक्षित व्यक्ति-स्वातंत्र्य को स्थान देते हैं. इसी आधार पर रामविलास शर्मा उन्हें मार्क्सवादी नहीं मानते. पर नंदकिशोर नवल उन्हें बेधड़क मार्क्सवादी करार देते हैं. ये मार्क्सवादी कितने अस्थिरचित्त हैं इसका अनुमान रांगेय राघव की इस कठोर टिप्पणी से लगाया जा सकता है जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के संबंध में है- “मार्क्सवादी लेखक किस भाषा की बात करते हैं यह आजतक जाना नहीं जा सका. वे प्रायः वही भाषा लिखते हैं जिसे बिरला का हिंदुस्तान (उस समय की एक साप्ताहिक) या डालमियाँ का धर्मयुग (तब का साप्ताहिक) छापता है. कैसे वही भाषा कम्युनिष्टों के हाथ में पड़कर जनतांत्रिक हो जाती है और हिंदुस्तान, धर्मयुग में प्रतिक्रियवादी, यह स्पष्ट नहीं होता” (इंद्रप्रस्थ भारती, सितंबर सन् 2017). रामदरश मिश्र ने भी बहुत पहले प्रसिद्ध साहित्यिक मासिक ‘आजकल’ के एक अंक में लिखे अपने लेख में लिखा था कि एक कवि (नाम याद नहीं) जबतक प्रलेस में थे, उनकी बड़ी प्रशंसा होती थी लेकिन किन्हीं कारणों से जब वे जलेस में चले गए तो वह प्रलेस वालों के लिए बहुत बुरे कवि हो गए.
मैंने इन बातों की चर्चा यहाँ इसलिए की कि आलोचना की आज जो दुर्गति है उसमें इस तरह की मनस्थियों, चाहे मार्क्सवादियों की हो या गैरमार्क्सवादियों की, का बहुत बड़ा हाथ है. मार्क्सवादी आलोचना का तो वाकायदा एक ढाँचा है. इसमें कवि की कविताओं में समाज की झलक अवश्य मिलनी चाहिए. मैनेजर पाण्डेय उसमें ‘जन’ की चर्चा आवश्क मानते हैं (पाखी में छपी एक परिचर्चा की चर्चा में). हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह ‘जन’ कौन है. मेरी समझ में स्वातंत्र्य-रण में गाँघी के पीछे जो लोगों का एक सैलाब उमड़ चला था वह जन ही था. किंतु मार्क्सवादी (साम्यवादी) उसे ‘जन’ नहीं मानते. इस ‘जन’ में स्वाधीनता नामक जीवन-मूल्य की पुकार थी. इसमें सभी वर्गों के लोग थे. इसी ‘जन’ के ‘’भारत छोड़ो’’ आंदोलन की बदौलत देश आजाद हुआ पर मार्क्सवादी भाईयों ने इस आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों का साथ दिया. तो क्या मार्क्सवादियों का ‘जन’ समाजवाद में प्रशिक्षित जन है? या ‘जन’ वह है जिसे मार्क्सवाद में प्रशिक्षित करना आसान है. मुक्तिबोध, लेनिन के समय की सोवियत सत्ता की छोटी छोटी घटनाओं पर कलम चलाते हैं किंतु गाँधी के नेतृत्व वाले विराट ओंदोलन पर उनकी लेखनी मौन ही रही. मुझे लगता है, उस समय मुक्तिबोध मार्क्सवादी चिंतन (बंद चिंतन) और व्यक्ति-स्वातंत्र्य-चिंतन के द्वन्द्व में पड़ गए थे. मुक्तिबोध राजनीतिक चेतना के कवि थे और उनके राजनीतिक विचार स्पष्ट नहीं थे.
मुक्तिबोध की यह मनःस्थिति आजीवन बनी रही. वह नए ढंग की मॉडर्निस्ट कविताएँ लिखना चाहते थे. लेकिन माडर्निज्म के तत्वों को ग्रहण करने और पचाने की वह क्षमता इनमें नहीं थी जो कभी भारतेंदु में थी. आधुनिकता का दौर तभी से शुरू हुआ. उसी समय भारतीय साहित्य में और हिंदी साहित्य में भी आधुनिकता के ‘स्वाधीनता’ नामक तत्व का प्रवेश हुआ. लेकिन आरतेंदु के साहिय से ऐसा नहीं लगता कि यह कहीं से लिया गया है या वह पश्चिम के वैसे ही प्रभाव में हैं जैसे नए कवि. यह पता लगाने के लिए एक शोध की आवश्यकता होगी. पंत और निराला की कविताओं को पढ़ने से भी ऐसा नहीं लगता. जबकि यह तथ्य है कि इनपर बंगला और अंग्रेजी साहित्य का बहुत प्रभाव था. क्योंकि इनकी पाचन शक्ति हिंदी की पाचन शक्ति की तरह की थी. किंतु अज्ञेय और मुक्तिबोध के साहित्य तो प्रथमदृष्टया ही पश्चिम से प्रभावित दिखते हैं, प्रभावित ही नहीं, उसके अनुसरण में भी दिखते हैं. मुक्तिबोध पर अंग्रेजी साहित्य का इस कदर प्रभाव था कि वे अपनी कविताओं के शीर्षक और विषय तक पश्चिम से लिए हैं. ‘ओरांग ऊटांग’, ‘क्या बेवीलोन सचमुच नष्ट हो गया’ आदि विषय ऐसे ही हैं.
आज की आलोचना मार्क्सवाद से आक्रांत है. आलोचना के इस ‘वाद’ के ढाँचे में हिंदी आलोचना बुरी तरह जकड़ी हुई है. आज एक तरह से हिंदी साहित्य पर मार्क्सवादियों का एकाधिकार लगता है. आज की अधिकांश हिंदी की बड़ी साहित्यिक पत्रिकाएँ उन्हीं के संपादकत्व में निकलती हैं. उनमें गैरमार्क्सवादी लेखकों का प्रवेश वर्जित तो नहीं पर इसके लिए उन्हें बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं.
अब कवि की कविता “एक अरूप शून्य के प्रति को लें:
कविता का यह शीर्षक आलोचनीय है. प्राय: कविता का शीर्षक, उसी कविता की एक पंक्ति होता है. या यह शीर्षक ऐसा होता है जिसमें कमोबेश कविता का उद्देश्य परिलक्षित हो. इस शीर्षक से लगता है कि कवि को अरूप ‘शून्य’ से कुछ कहना है. यह कहना कुछ दर्शन सरीखी बातें होंगी. ‘तुम’ संबोधन ‘अरूप शून्य’ के लिए ही है. मैं भारतीय पाठक हूँ, मुझे लगा उन्हें कदाचित बौद्ध नागार्जुन के शून्यवाद पर कोई बात करनी हो. किंतु कविता में प्रवेश करने पर ऐसा कुछ नहीं मिलता. इसमें ‘अरूप शून्य’ का जो चित्र खींचा गया है वह अरूप शून्य का नहीं है. जिसका चित्र खींचा गया है वह विराट रूपवाला कोई असाधारण व्यक्ति है. ‘अरूप शून्य’ और एक व्यक्ति जैसा !
इस शीर्षक से प्रतीत होता है कि ’अरूप शून्य’ कई हैं जिसमें से एक को संबोधित कर यह कविता लिखी गई है- ‘एक अरूप शून्य के प्रति’. सामान्य तर्क है, यदि ’अरूप शून्य’ है तो “सरूप शून्य” अवश्य होना चाहिए. जगत में हर अनुलोम का विलोम उपस्थित है. लगता है मुक्तिबोध की दृष्टि में शून्य के दो रूप हैं- ‘अऱूप’ और ‘सरूप’. उनके अनुसार ‘अरूप’ शून्य भी कई हैं. इसमें से एक को वह यहाँ संबोधित कर रहे हैं. मुक्तिबोध की यह सूझ अद्भुत और अभूतपूर्व है.
मुक्तिबोध की शून्य की अवधारणा क्या है, उनके साहित्य में न तो इसकी कोई पहचान मिलती है न सूचना. फिर उन्होंने यह शीर्षक क्यों चुना, जिसमें शून्य के संबंध में कोई बात ही नहीं की गई है. प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक नंदकिशोर नवल इस गुत्थी को यह कह कर सुलझाते हैं कि यह ‘अरूप शून्य’ ‘ईश्वर’ का प्रतीक है. इस कविता को सीधे ‘ईश्वर के प्रति’ शीर्षक देने में कवि को क्या अड़चन थी ?
यह कविता लिखी तो गई है “एक अरूप शून्य के प्रति” पर वह संबोधित है एक सरूप को जो शून्य नहीं है. इसे ‘ईश्वर’ का प्रतीक मान लिया जाए तो क्या किसी समाज में शून्य को ईश्वर माना गया है?, मुझे ऐसा कहीं सुनने को नहीं मिला. कविता में एक जगह ‘ओ रे निराकार शून्य’ संबोधन आया है, ‘ईश्वर’ संबोधन नहीं. वस्तुतः लोक-धारणा के ईश्वर को नकारना मार्क्सवाद की पहचान है, इसीलिए ‘अरूप शून्य’ को ईश्वर का प्रतीक माना गया लगता है. मार्क्सवादी चिंतक राधामोहन गोकुल जी कहते हैं- “ईश्वर एक ऐसा कल्पित पदार्थ है, जिसे कभी किसी ने अपनी ज्ञानेंन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं किया, इसलिए कि उसका सर्वथा अभाव है.” इस हेतु वह केवल अंग्रेजी लेखकों का उद्धरण देते हैं. पूर्वी विचारकों में विवेकानंद का नाम लेते हैं जो ईश्वर के कर्तारूप को अस्वीकार करते हैं किंतु उसके क्रिएटीविटी (Creativity) रूप को नहीं. गोकुल जी Creater और Creativity में अंतर नहीं कर पाते. प्रेम को भी आँखों से देखा नहीं जा सकता, किंतु उनकी दृष्टि में वह अस्तित्वान है, वह उसके वस्तुगत रूप के होने की जिद पर नहीं अड़ते. उनकी दृष्टि में माँर्क्सवाद के अस्तित्व के लिए केवल ईश्वर का वस्तुगत रूप होना आवश्यक है. अगर ईश्वर के अतींद्रिय रूप को मानने वाले रह जाएँ तो मार्क्सवाद का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. शायद यही कारण है कि गोकुल जी विज्ञान को सत्य का पर्याय मानते हैं. जबकि विज्ञान वस्तुओं को समझने परखने का मात्र एक दृष्टिकोण है जिसके पहलू हैं प्रयोग और विश्लेषण. यह विचारशील वक्तव्य नहीं है.
मुक्तिबोध ने यदि अपने विवेक का सहारा लिया होता तो भारत में घटित उस तथ्यात्मक घटना पर विचार अवश्य करते, जिसे संचार माघ्यमों से जानकर, दूर देश में बैठे प्रसिद्ध विचारक और अनुभावक मैंक्समूलर प्रभावित हुए बिना न रह सके थे. पर मुक्तिबोध अपने ही घर में घटित इस घटना की उपेक्षा कर गए. मेरा ईशारा उस घटना की तरफ है जो महान दार्शनिकों, भारत के विवेकानंद और जर्मनी के फ्रेडरिक नीत्से के साथ घटी. ये दोनों किसी न किसी रूप में ईश्वर को जानना चाहते थे. ईश्रर को जानने की प्रबल आकांक्षा लिए विवेकानंद रामकृष्ण के पास पहुँचे थे. और उनसे सीधे पूछा था- “क्या ईश्वर है?”
“हाँ है. मैं उसे वैसे ही देखता हूँ जैसे तुम्हें.”
यह कह, रामकृष्ण ने विवेकानंद के दाएँ कंधे पर अपना पैर रख दिया. विवेकानंद बताते हैं कि उस क्षण उन्हें किसी शक्ति का ऐसा झटका लगा कि वह तत्काल समाधिस्थ हो गए. उन्हें ईश्वर का बोध हुआ. भारतीय अभिधारणा में ईश्वर का बोध ही होता है अनुभूति के द्वारा. नीत्से ने ईश्वर को वस्तुरूप में जानना चाहा क्योंकि बाईबल का ईश्वर संसार का निर्माता है, Creater है (ईश्वर ने छै दिन में संसार को बना दिया). किंतु उन्हें विक्षिप्तता मिली. ओशो कहते हैं नीत्से अपने गहन प्रयास में उसी अवस्था में पहुँच चुका था जो समाधि पाने के पूर्व की स्थिति होती है. पर उस अवस्था के पार भी जाया जा सकता है यह कला पश्चिम में विकसित ही नहीं है. यह कला केवल सूफियों और पूर्व के धर्मों में ही विकसित है. रामकृष्ण-सा गुरु मिल गया होता तो नीत्से बुद्ध हो गया होता.
उक्त घटी घटना एक तथ्य है. इस कविता को लिखने के पूर्व मुक्तिबोध का दायित्व था कि वह इसका विश्लेषण करते और जाँचते-परखते. कविता लिखने के पूर्व विवेक और विचारशीलता की यही माँग थी.
कविता का अर्थः
रात और दिन.................... .................. ................................................पलंग पर सोए हो.
कवि कहता है- ओ रे अरूप शून्य ! तुम रूपवान हो. तुम्हारी रूपाकृति के, रात और दिनरूपी दो लंबे चौड़े कान हैं, एक स्याह और एक सफेद. तुम अपने कान से आसमान को ढँके हुए आदिकाल से आसमानी शशि (एक पाठ शीशे है) के पलंग पर सोए हुए हो. इस शशि या शीशे से आकाश की स्वच्छता का बोध होता है. एक अन्य पाठ में यह प्रत्येक दस घंटे में एक करवट बदलता है, साँझ और उषाकाल के समय को छोड़ कर. बहुत सूक्ष्म निरीक्षण है कवि का !
इस शून्य का ईश्वर अर्थ लें तो यह क्रिश्चियनों या मुस्लिमों का ईश्वर (गॉड, अल्लाह) है. इनके ही ईश्वर आसमान में रहते हैं. वे अक्सर कहते हैं “ऊपरवाला खैर करे” या ऊपर वाला जाने. भारत में ईश्वर को अंतर्यामी कहते हैं. वह सृष्टि के कण कण में है- हममें तुममें खड्ग खंभ में घट घट व्यापे राम.
धरती के (?) चीखों के शब्द..........................................................................सर्वज्ञ हो नींद में
कवि ‘अरूप शून्य’ से कहता है- मैं सन्न हूँ यह गुन कर कि धरती पर चीख पुकार मची है. उन चीखों के शब्द तुम्हारे कानों के चतुर्दिक ऐसे गूँज रहे हैं, मानों बेचैन पंखदार कीड़े तुम्हारे बालों पर बैठते हैं, भिनभिनाते हुए घूमते हैं, पर तुम्हारी निद्रा टूटती नहीं (भारतीय भक्तों का ईश्वर तो, सुने बिनु काना, विष्णु क्षीर सागर में सोते हैं पर दुनिया की खोज खबर रखते हैं). तुम्हारी आँखें धुँधली निहारिका जैसी हैं. तुम्हारी आँखें खुली हैं. उसकी पुतलियाँ लाल-लाल हैं, बुलबुलों की तरह बनती बिगड़ती हैं. इनमें करोड़ों कनीनिकाएँ हैं, फिर भी तुम्हें जन-समस्याएँ दिखाई नहीं देतीं. तुम्हारी आँखों में देखने की अनेक क्षमताएँ हैं, उनमें अनेकों बनते बिगड़ते दृष्टिकोण हैं. पर तुम नींद में हो. नींद में होने से बोलते नहीं. इसीलिए सर्वज्ञ कहे जाते हो (बोलने से सर्वज्ञता की पोल खुल जाती है).·
‘अरूप शून्य’ का यह चित्रांकन न फबता है न उचित लगता है. हाँ ईश्वर के वस्तुगत रूप का ऐसा चित्रण हो सकता है पर कवि की दृष्टि में इश्वर तो है ही नहीं. इन पंक्तियों के माध्यम से कवि संभवतः यह कहना चाहता है कि वैसे तो तुम निरूप हो पर यदि तुम्हारा रूप होता तो ऐसा ही होता, एक दैत्य जैसा.·यह चित्रण उन आम बाबाओं के जैसा है जो सबकुछ जानने का ढोंग करते है.
फिर भी, यशस्काय...................................................................................कीर्ति यह तुम्हारी
.तुम नींद में हो, या कहें मूर्तियों में सुसुप्त हो, फिर भी तुम्हारा यश सर्वत्र फैला हुआ है. दिक् और काल के सम्राट् माने जाते हो तुम. हालाँकि मेरे देखे तुम कुछ नहीं हो, तुम्हारा कोई महत्व नहीं है फिर भी जनता में तुम महत्वशाली हो. उनके लिए तुम सबकुछ हो. तुमने अपने एक कल्पननिक योग्य की पूँछ (इसका अर्थ समझ से परे है) के बालों को काट कर अपने ओठों पर किसी नट-नायक की तरह मूँछ जैसा लटका रखा है. नट-नायक का अपनी मंडली पर पूरा रुआब रहता है, तुम्हारा रोब भी समूचे संसार पर है. जगत में किसी में तुमसे टकराने की हिम्मत नहीं है. किसी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह तुम्हारी सत्ता को न माने. जब तुम्हारी मूँछों के बाल हवा में बलखाते, लहराते हैं तो हवा में मँडराते हमारे चेहरों पर उसके खुरदरे स्पर्श चुभते हैं, उसपर लाल लाल खरोंच उभर आते हैं, और हम समझते हैं यह कोई तुम्हारी नैतिक अनुभूति है जो हमें कष्ट देती है. कदाचित मुक्तिबोध का सोचना है कि यह ईश्वर ही ईश्वर-भक्तों के लिए नैतिकता का स्रोत होता है. पर यह नैतिकता उसके जैसे लोगों को कष्ट देती है. वह कहते हैं-तुम्हारी यह नैतिकता की कीर्ति झूठी और सठियाई हुई है.
यहाँ ईश्वर का चित्रण उन बाबाओं की तरह किया गया है जो अपने भक्तों के शीश पर चँवर फेर कर आशीष देते हैं. यह ईश्वर अकेला नहीं है, इसका कोई काल्पनिक योग्य भी है (क्रिशचियनिटी मे शैतान की कल्पना है) जो पूँछ वाला है. उसकी पूँछ के बाल काट कर इस ईश्वर ने अपनी मूँछ बना ली है. नंदकिशोर नवल ने इसे ईश्वर-दैत्य कहा है (दैत्यों में किसी की पूँछ के बाल काट कर अपनी मूँछ बनाने का आचरण होता है क्या?)
यहाँ तक मुक्तिबोध ने ‘अरूप शून्य’ का अपनी कल्पना के सरूप ईश्वर के रूप का चित्रण किया है.
शायद अरूप शून्य के बारे में कहना उनकी शक्ति के बाहर की बात थी. क्या ईश्वर का कोई पश्चिमी या पूर्वी भक्त अपने ईश्वर को ऐसे भदेस रूप में देखता है. क्या अरूप शून्य का, कवि का यह यथार्थ अनुभव या अनुभूति है? तब तो नई कविता के उसूल के अनुसार इस अनुभूति की प्रामाणिकता चाहिए.
दरअसल मुक्तिबोध ने इस कविता के माध्यम से भक्तों के ईश्वर का भोंड़ा मजाक उड़ाया है. कुछ वैसा ही जैसा एक विश्वविद्यालय के वाईसचांसलर कलबुर्गी अंधविश्वास दूर करने के नाम पर मूर्तिपूजकों का मजाक उड़ाते थे.
पर तुम भी................................................................................................अँधियारी डूब हो
इस बंद में कवि कहता है- किंतु, ईश्वर ! तुम भी खूब माया के धनी हो. तुम्हारी माया से खिंच कर तुम्हारे भक्त की आत्मारूपी कुतिया अपने स्वार्थ-सफलता की चाह में पहाड़ी की चढ़ाई पर हाँफती हुई भी चढ़ जाती है (ढाल पर लोग उतरते हैं, चढ़ते नहीं). राह में उसे गैरभक्तरूपी कुत्ते (जो तुम-ईश्वर को नहीं मानते) उसे छेड़ते हैं, छेंकते हैं. लेकिन तुम चढ़ाई की उँचाई के डोह में अँधियारी डूब हो. डोभ यानी दह. तुम इस दह में डूब कर (नहा कर) बाहर आए प्राणी की तरह हो. तुम्हारे इस ऱूप से तुम्हारी मायाविता टपकती है.
इस बंद में कवि शून्य में ईश्वर को सरका लाया है. इस बंद में वह ईश्वर के भक्तों का उपहास करता है. उसके लिए भक्तों की आत्माएँ कुतिया हैं और राह में छेड़ने वाले कुत्ते ईश्वर के विरोधी हैं. कहीं ये मार्क्सवादी तो नहीं. कम्युनिस्ट देश में चर्च जाने वाले भक्तों को मार्क्सवादी ही छेड़ते हैं.
मुक्तिबोध तो अब रहे नहीं. मैं मार्क्सवादियों के सामने एक तथ्य रखता हूँ. वैज्ञानिक, कल-पुर्जों से एक ढाँचा बनाकर उसमें विद्युत प्रवेश कराकर उस ढाँचे में गति उत्पन्न कर देता है. वह माँ के डिंब और पिता के शुक्राणु को एक परखनली में डालकर एक उपयुक्त उष्मा पर संरक्षित कर देता है तो उसमें प्रजनन की क्रिया शुरू हो जाती है. यहाँ अलग से उसमें विद्युत प्रवेश नहीं कराता. लेकिन कोई शक्ति उसमें प्रवेश करती है. बिना शक्ति के कोई गति नहीं आती. तो भ्रूण बनाने के लिए यह शक्ति कहाँ से प्रवेश करती है? क्या यह सार्वत्रिक Creativity नहीं है. विद्युत छोटे छोटे सेलों में अंशरूप में होती है तो Creativity भी तो छोटे छोटे अंशों मे भक्त-मनुष्यों में हो सकती है. Creativity को कुतिया कहने का अर्थ है कवि अपनी पूरी क्षमता से ईश्वर के अस्तित्व को नकारना चाहता है पर क्या नकार पाता है? यह Creativity की धारणा पूर्वीय धारणा है.
मात्र अनस्तित्व..................................................................................................भी खूब है.
यहाँ कवि आश्चर्य प्रकट करता है कि ईश्वर, जो (मात्र?) अनस्तित्व है अर्थात जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसका संसार में इतना बड़ा अस्तित्व, उसको बहुत से मानने वाले? यहाँ ‘मात्र’ विशेषण के साथ अनस्तित्व को पढ़ने पर अर्थ होता है- अनस्तित्व के साथ कुछ और होता तो वह अस्तित्व और बड़ा होता. यह एक भ्रामक वाक्य है. कवि के अनुसार ईश्वर एक घुप्प अँधेरा है पर उसका उजाला बहुत तेज है. घुप्प अँधेरे का तेज उजाला? बात गले उतरती नहीं. संभवतः कवि कहना चाहता है कि ईश्वर तो खुद अँधेरे में है, उसे किसी प्रकार का कोई ज्ञान नहीं है किंतु लोग उसकी महिमा से अभिभूत हैं. लोग-बाग निराकार ब्रह्म के सीमाहीन शून्य के बुलबुले में गोल-गोल घूम कर जाने क्या खोजते हैं. ब्रह्म के सीमाहीन शून्य के बुलबुले? शून्य के बुलबुले से भी कवि का तात्पर्य क्या ईश्वर की महिमा से है? शून्य को कवि ने न-कुछ के अर्थ में प्रयोग किया है. न-कुछ में से बुलबुले कहाँ से निकलते हैं. हाँ उसके प्रति आकर्षित लोगों को ऐसा लगता होगा कि वे उसकी बूँद-बूँद महिमा से अभिभूत हो रहे हैं. यह कवि की अपनी कल्पना का प्रक्षेपण हो सकता है, अनुभव नहीं. यह शून्य या सिफर का अपना अँधेरा है. इसमें बिना बत्ती (क्या आत्म-प्रकाश की बत्ती? पर बिना ज्ञान के आत्म-प्रकाश कहाँ.) का सफर भी खूब है. यानी ईश्वर अँधेरे से भरा है और लोग-बाग उसमें बिना प्रकाश के ही सफर करते हैं. अद्भुत सूझ है कवि की. ईश्वर को मानने वाले तो ईश्वर को ही प्रकाश मानते हैं. और कवि उसकी महिमा में लोगों को बत्ती लेकर जाने को कहता है.
सृजन के घर में................................................................................. ऱिश्वतखोर थानेदार.
कवि कहता है- सृजन के घर में अर्थात जहाँ सृजन हो रहा है, तुम मनोहर और शक्तिशाली हो किंतु दुर्जन के घर में विश्वात्मक फैंटेसी अर्थात विश्वमय दिवा-स्वप्न या स्वप्नचित्र. सृजन का घर? धरती पर केवल एक ही सृजन का घर है. स्त्री की कोख. ईश्वर वहीं शक्तिशाली है! और दुर्जन के भवन में विश्वमय स्वप्नचित्र! इस विश्वमय स्वप्नचित्र से क्या अर्थ है कवि का, क्या दुर्जनों का क्रीड़ा-लोक? इसका अर्थ करते हुए नंदकिशोर नवल ने दुर्जन से मेल बिठाने के लिए सृजन को सज्जन कर लिया है. लगता है यह ईश्वर मुक्तिबोध की अपनी कल्पना का है. लोक-व्याप्त ईश्वर की दृष्टि सज्जन या दुर्जन सब पर समान रूप से पड़ती है. पर मुक्तिबोध के इस कल्पित ईश्वर की सज्जन और दुर्जन के लिए अलग अलग व्यवस्था है. कवि का ईश्वर प्रचंड शौर्य वाला और अंट-शंट बरदान देता है, वह खूब रंगदारी करता है. वह सज्जन और दुर्जन दोनों, जो एकदम विपरीत छोर पर हैं, के द्वारा पूजा जाता है. यह चुंगी वसूलने के लिए स्वर्ग के पुल पर भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट और रिश्वतखोर थानेदार की तरह तैनात है. यानी स्वर्ग पाने की अभिलाषा वाले लोगों से वह चढ़ावारूपी घूस उसी तरह लेता है जैसे कोई भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट और रिश्वतखोर थानेदार.
कवि ईश्वर-भक्तों को चेताता है कि उनका ईश्वर पक्षपाती और भ्रष्ट है. देखने की बात है कि वह न-कुछ हो कर भी भ्रष्ट है.
ओ रे निराकार....................................................................................................आविर्भूत.
इस बंद में कवि ईश्वर को ‘निराकार शून्य’ कहकर संबोधित किया है. अबतक के बंदों मे इस ईश्वर का निराकार शून्य की तरह चित्रण नहीं है, ‘निराकार शून्य’ स्वयं ही एक विवादास्पद प्रयोग है. संत कवि कबीर ने जिस निराकार ईश्वर को संबोधित कर कविताएँ लिखीं हैं, थोड़े से ईशारे से वे समझ में भी आती हैं और आनंदानुभूति भी देती हैं. पर इन पंक्तियों के पढ़ने पर कोई भी संवेदना नहीं उभरती, आनंदानुभूति तो दूर की कौड़ी है. कविता का मूल धर्म तो पाठक के हृदय में संवेदना जगाना ही है जो इन पंक्तियों मे नदारद है. नंदकिशोर नवल भी इस भाषा को अकाव्यात्मक भाषा कहते हैं (बिंब प्रतिबिंब). (एक नयी बात यहाँ देखने को मिलती है- अकाव्यात्मक भाषा में भी कविता लिखी जाती है). कवि का निराकार शून्य (ईश्वर) अपनी कीर्ति को सँवारने के लिए कवि के जनों की सारी महान विशेषताओं को उधार ले लिया है, निज को अवशेष कर लिया है अर्थात बचा लिया है, उसके पास अपनी कोई विशेषता नहीं है. और सभी जगह आविर्भूत (उत्पन्न) होकर यश की काया वाला बन गया है. यह विचित्र लगता है. लोक-कल्पना में ईश्वर आविर्भूत नहीं होता. वह तो सर्वत्र वर्तमान है. वह लोक-कल्याण के लिए प्रकट होता है.
हमें तो यही पता है कि लोक-भावना को ईश्वर की जैसी प्रतीत होती है वह उन्ही विशेषणों से अपने आराध्य को विभूषित करता है. उनका ईश्वर लोगों से उनकी विशेषताएँ माँग कर अपने को विभूषित नहीं करता. लेकिन कवि तो व्यंग्य के मूड में है, व्यग्य ही नहीं वह प्रतिक्रया में भी है. वह अपनी उद्भावना को ऊपर कर लोक-धारणा के ईश्वर का उपहास करता है.
भई साँझ...................................................................................................सरीसृप-स्रक-सा.
लगता है अपनी कल्पना के ईश्वर से अलग हट कर कवि मंदिर के ईश्वर का जो अनुभव लेता है, इन पंक्तियों में उसी अनुभव को व्यक्त करता है. वह कहता है- मैं शाम के समय कदंब के बृक्ष के पास स्थित मंदिर के चबूतरे पर बैठ कर जब कभी तुझे देखता हूँ, मुझे भयभीत आँखों वाले हंस और घाव भरे कबूतर याद आते हैं. मुझे याद आते हैं मेरे लोग, उनके सब हृदय रोग, उनके घुप्प अँधेरे घर और उनके चेहरे पर चिंता के पीले पीले अंगारों जैसे पंख (?).  इस क्षण भगवान की भक्त शबरी और उसकी झोंपड़ी में (गरीबी की प्रतीक) जलती ढिबरी भी याद आती है. मुझे अपना प्यारा-प्यार देश भी याद आता है जो लाल-लाल सुनहले आवेश से भरा हुआ है (शायद यह ईशारा है स्वातंत्र्य आंदोलन में भाग ले रहे लोगों की तरफ जिसके वह विरोध में थे). संभवतः वह कहना चाहते हैं कि ये लोग अपनी भौतिक स्थिति की ओर ध्यान नहीं दे रहे और जोश आवेश से भरे हुए हैं (व्यंग्य?). आगे कवि कहता है कि मैं (कवि) अंधा हूँ. खुदा के बंदों (सेवकों) का बावला (पगलाया) बंदा हूँ. यह एक विरोधाभाषी वक्तव्य है, क्योंकि कवि के काव्य-उद्देश्य को देखते हुए इसका अर्थ होगा वह जन-सेवक है खुदा का सेवक नहीं. यह कोई काव्यानुभूति है या एक राजनीतिक वक्तव्य? इसका एक अन्य अर्थ भी हो सकता है- वह खुदा के बंदों का बंदा अर्थात स्वयं खुदा का बंदा.है. इस दृष्टि से कवि की तरफ से यह एक वंचना है. अंधा बावला बंदा भी कैसा? सदा नहीं पर कभी कभी, शंका के काले-काले मेघ-सा, गणित की काटी हुई तिर्यक रेखा और किसी सरीसृप (पेट के बल चलने वाले जीव, जैसे सर्प) की माला के समान. इस तरह के बंदों का मेरे (आलोचक के) मन में कोई चित्र नहीं उभरता न कोई संवेदना जगती है.
इस बंद में कवि की दृष्टि एक तरफ लोगों द्वारा पूजे जा रहे ईश्वर पर है और दूतरी तरफ उसकी पूजा कर रहे लोगों की आर्थिक स्थिति पर. शबरी, ढिबरी की रोशनी में टूटी-टाटी झोपड़ी में रहती है. ईश्वर ने क्या दिया है उसे. मंदिर में घूमते फिरते हंस–कबूतर भी भयभीत-से लगते हैं. ईश्वर उन्हें सुरक्षा नहीं देता.
मेरे इस साँवले........................................................................................ ....जरूरत नहीं है.
यह कविता का अंतिम बंद है. इसमें कवि अरूप शून्य (ईश्वर) को अपनी उपलब्धि से अवगत कराता है- देखो, मेरे इस साँवले चेहरे पर कींचड़ के धब्बे पड़े हैं, दाग हैं (किस तरह के दाग, दाग तो स्थाई होते हैं, पहले से पड़े होंगे). और मेरी इन फैली हथेलियों पर अग्नि-विवेक की जलती हुई आग है. किंतु कवि अगले ही क्षण इसे नकार देता है (स्यात आग का उन्हें भ्रम हो गया था, कींचड़ से आग तो निकलती नहीं) और महसूस करता है कि वह ज्वलंत (प्रकाशमान) सरसिज है. इसे छाती तक पानी में फँस कर और संसाररूपी कींचड़ के जिंदगीरूपी दलदल में धँस कर वह सरसिज निकाल लाए हैं. इसीलिए वह भीतर से गीला हैं और पंक से आवृत हैं. इस क्षण वह स्वयं घनीभूत हैं अर्थात तृप्त हैं. यह सरसिज संभवतः समाजवाद का है जो उनहें तृप्ति दे गया है. वह कहते हैं, हे अरूप शून्य (ईश्वर)! अब मुझे तेरी कोई जरूरत नहीं, गोया ईश्वर ने उनसे कहा हो वह उनकी जरूरत है..
सरसिज प्रकृति की एक स्वतंत्र खिलावट है. कवि ने कींचड़ में धँस कर उस खिलावट को तोड़ लिया, अपने अंदर खिलाया नहीं. तोड़ी हुई खिलावट कवि की खिलावट कैसे हो गई? इस हेतु कवि के अग्नि-विवेक ने काम किया है या प्रतिक्रिया की अति ने? यह कुछ उसी की तरह की कल्पना है जैसी हातिमताई की कहानी में आबे जम-जम लाने की.
समीक्षा
मुक्तिबोध का स्थान निस्संदेह नयी कविता की लीक बनाने वाले अग्रणियों में है. यह कविता भी उनके मन की एक नयी उद्भावना है, एक नयी लीक है. इस कविता के माध्यम से वह ईश्वर का निषेध करना चाहते हैं. ईश्वर-निषेध की हमारे यहाँ चार्वाकों की एक लंबी परंपरा है, पर नयी कविता में संभवतः यह सर्वथा एक नयी पहल है. किंतु दोनों अभिव्यक्तियों में अंतर है. चार्वाक ईश्वर का निषेध करते हैं एक दर्शन खड़ा कर, किंतु मुक्तिबोध ईश्वर की आलोचना करते हैं उसे न-कुछ मानते हुए उसका उपहास उड़ाकर.
लेकिन देखने वाली बात है कि उसके उपहास के लिए कवि अपनी कल्पना का एक ‘अरूप शून्य’ अथवा ईश्वर का बिंब रचता हैं. रात और दिन इस ईश्वर के कान हैं. वह आकाश को, करवट में एक कान से ढँक कर पलंग पर सोया है. धरती पर चीख-पुकार मची है पर उसकी ध्वनि उसके कानों में नहीं पहुँचती, उसके शब्द, उसके कान और सिर के बालों के हिलने से लगता है, उनपर पंख वाले कीड़ों की तरह भिनभिनाते हैं (मानो वह दैत्य है). वह घोर निद्रा में है. कवि की दृष्टि में, असल में ईश्वर कुछ नहीं है, अनस्तित्व है, किंतु उसका यश सर्वत्र फैला है. वह सम्राट का रुतबा रखता है. नींद में होने से वह सर्वज्ञानी है क्योंकि वह बोलता नहीं, बोलने से उसकी अज्ञानता की पोल खुल सकती है. ईश्वर को कोसने और उसका उपहास उड़ाने के लिए क्या कवि ने यह कोई फैंटेसी बनाई है? ईश्वर-भक्तों के ईश्वर की यदि ऐसी कोई कल्पना मूर्ति होती तो इस उपहास में कुछ दम भी होता. संभव है पश्चिम के ईश्वर की ऐसी कोई कल्पना हो क्योंकि वह आकाश में रहता है. उसीने सृष्टि को बनाया है (बाईबल) तो कोई न कोई उसका रूप होगा ही. और यह रूप पश्चिमी कलाकारों के निकट का है. किंतु भारतीय ईश्वर की ऐसी कोई कल्पना-मूर्ति नहीं है. ऐसा न होने से कवि ईश्वर का उपहास कर वह स्वयं ही उपहास का पात्र बन गया है. जिस तरह की भाषा का इस कविता में प्रयोग किया गया है कत्तई सुरुचिपूर्ण नहीं है. नंदकिशोर नवल भी इस भाषा को अकाव्यात्मक मानते हैं. फिर भी वह इस कविता को विश्व की सर्वश्रेष्ठ कविता मानते हैं. पता नहीं कैसे. ईश्वर के इस चित्रण से न कोई संवेदना छलकती है न उसके प्रति किसी प्रकार की घृणा या सहानुभूति उभरती है जिससे कोई पाठक ईश्वर से विरत हो जाए. कविता की पंक्तियों से किसी तरह की काव्यानुभूति नहीं होती.
कवि के कविता के तीन क्षणों को लें. इनमें प्रथम क्षण, अनुभव का क्षण है. निश्चित ही यह सद्यः अनुभव का क्षण नहीं होगा, वह गहन अनुभव का क्षण होगा और कवि-विवेक पर कसा भी गया होगा. किंतु ऐसा लगता नहीं. क्योंकि एक ही समय में (उन्नीसवीं सदी में) दो महापुरुष हुए जो ईश्वर को जानना चाहते थे, पूरब में विवेकानंद और पश्चिम में फ्रेडरिक नीत्से. रामकृष्ण के पद-स्पर्श से विवेकानंद को ईश्वर मिला अनुभूति के रूप में. किंतु नीत्से ईश्वर को वस्तुरूप में देखना चाहता था. उसे वस्तुगत ईश्वर नहीं मिला. उसने घोषणा कर दी “ईश्वर मर गया है.” उसके पास अनेक अंतर्दृष्टियाँ थी जिसे वह संभाल नहीं पाया, फलतः विक्षिप्त हो गया. मुक्तिबोध इस मंथन में नहीं जाते कि रामकृष्ण के पद-स्पर्श से विवेकानंद के साथ आखिर क्या घटा कि वह अकस्मात समाधिस्थ हो गए. उनके स्नायुओं में कौन सी तरंग घुमड़ गई जिसे उन्होंने ईश्वरानुभूति समझा. उस अनुभूति से उनमें कौन सी संवेदना जगी कवि ने यह जानने की कोशिश नहीं की.
जितना मुझे ज्ञात है, मैं यह कह सकता हूँ कि कवि अपने आप में परिपूर्ण नहीं होते वल्कि वे अनुभव और अनुभूतियों से आपूरित होते हैं, आपूरण के लिए कोई वर्जना नहीं होती कि वह इससे ले या उससे.
रामकृष्ण के पास ध्यान की लंबी परंपरा थी. ईश्वरानुभूति से उनका शरीर शक्ति का पुंज हो गया था. उन्होंने विवेकानंद पर शक्तिपात कर उन्हें भी ईश्वर का दर्शन करा दिया, अनुभूति के रूप में. विवेकानंद की एक-एक कोशिका ईश्वर को जानने की आकांक्षा से भरी थी. नीत्से ईश्वर को अपने से अलग वस्तुरूप में खोज रहे थे. उनके सामने बाईबल का ईश्वर था जिसने छै दिन में संसार को बनाया. यानी वह वस्तुरूप है. वह क्रिएटर है जबकि भारतीय धारणा में ईश्वर क्रिएटिविटी है. ईश्वर मनुष्य के भीतर है. संसार को किसी क्रिएटर ने नहीं बनाया. संसार बना है क्रिएटिविटी से. मुक्तिबोध ने इस संबंध में किसी तरह की खोजबीन की जरूरत नहीं समझी. ईश्वर के विरोध के लिए उनका बस इतना ही जानना काफी था कि ईश्वर है तो दिखाई क्यों नहीं देता. वह राधामोहन गोकुल के तर्कों में उलझ कर रह गए. वह भी यही कहते हैं कि ईश्वर अगर है तो उसे दिखाई देना ही चाहिए. लेकिन यह नहीं कहते कि सत्य और प्रेम को क्यों नहीं वस्तुगत होना चाहिए. जबकि इनके अस्तित्व हैं पर ये दीख नहीं पड़ते.
प्रसिद्ध पश्चिमी मनोवैज्ञानिक कार्ल जुस्ताव जुंग चेतना की भूमिका के संबंध में फ्रायड से सहमत नहीं था. वह चेतना के संवंध में और आगे जानने के लिए, रमण महर्षि के संबंध में एक किताब पढ़ कर, उनसे मिलने भारत आया और उनसे सत्संग कर संतुष्ट हुआ. रमण महर्षि सन् 1950 में मरे. मुक्तिबोध भी अपनी खोज पूछ में उनके पास जा सकते थे. पर वह नहीं गए. इसे देख कर तो अनकी व्यक्ति-चेतना की स्वतंत्रता की बात भी अर्थपूर्ण नहीं लगती. उनका यह भी सोचना छद्म लगता है कि व्यक्ति व्यक्ति समान है. उन्होंने व्यक्ति व्यक्ति में भेद किया तभी तो रमण महर्षि के पास नहीं गए. उन्होंने अपनी खिड़कियाँ बंद कर ली थीं.
कवि ने इस कविता में फश्चिम के क्रिएटर ईश्वर को भारतीय अवधारणा के क्रिएटिविटी ईश्वर पर बलात लादने की कोशिश की है.
कविता लिखने के पहले कवि उहापोह में पड़ा लगता है. कवि कविता का शीर्षक रखता है ‘एक अरूप शून्य के प्रति’ पर कविता में अरूप शून्य का कहीं जिक्र ही नहीं है. यहाँ अरूप शून्य के माध्यम से किसी सरूप को संबोधित किया गया है. ‘अरूप शून्य‘ एक विचारशीलता का भ्रम देता है. क्योंकि हमारे यहाँ नागार्जुन का शून्यवाद एक दर्शन के रूप में विद्यमान है. पर यहाँ शून्य के साथ अरूप लगा हुआ है. शून्य का यह अरूप विशेषण दिमाग में चुभता है. कविता में वह सरूप हो गया है और कुछ दूर तक चल कर निराकार और अनस्तित्व हो गया है. यहाँ पश्चिम की अवधारणा में पूरब की धारणा को मिला दिया गया है. यह एक स्वस्थ चिंतन का आभास नहीं देता. ईश्वर का वस्तुगत रूप होना चाहिए की जिद में अनुभूति को तिलांजलि दे दी गई है. यह निराकार संबोधन ही संकेत देता है कि कवि के कविता लिखने का अभीष्ट ही है ईश्वर पर व्यंग्य करने के बहाने ईश्वर-भक्तों के विश्वास को छलनी-छलनी करना.

अगली कड़ी- मुक्तिबोध अँधेरे में
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
715 डी, पार्वतीपुरम, चकशाहुसेन,
बशारतपुर,
गोरखपुर 273004

Friday 1 September 2017

देवेंद्र आर्य की दृष्टि में देवेंद्र कुमार बंगाली : कवि-कर्म और दलित-संबंध

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

देवेंद्र कुमार बंगाली गोरखपुर के कविता-क्षेत्र में एक अच्छा खासा नाम हैं. वह गामीण परिवेश के कवि हैं और शहरी परिवेश के भी.
इनके दो संकलन मेरे सामने हैं-“देवेंद्र कुमार की प्रतिनिधि कविताएँ” और “आधुनिक हिंदी कविता के पहले दलित कवि देवेंद्र कुमार बंगाली”. इन दोनों संकलनों को कवि देवेंद्र आर्य ने संपादित किया है.
आर्य ने इस दूसरे संकलन की एक विस्तृत भूमिका लिखी है. इस भूमिका में कवि के कवि-कर्म पर और उनका व्यक्तिगत परिचय देकर उनके दलित-संबंध पर चर्चा की गई है. इसमें उनके काव्यत्व पर एक हल्की समीक्षात्मक टिप्पणी भी है जिसमें उनके समूचे काव्य की चर्चा की गई है. कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व की सुंदर और संतुलित विवेचना भी की गई है. इस विवेचना को निर्मम कहा जा सकता है. क्योंकि इसमें कवि की स्तुति में समय न खर्च कर उनकी कविताओं की, उनके सृजित बिंबों की आलोचना की गई है. आज की आलोचना से अलग इसमें सूक्ष्मग्राही दृष्टि से काम लिया गया है.
इस भूमिका का आधार लेकर, इस लेख में, आर्य की दृष्टि से देखे गए कवि के कवि-कर्म और व्यक्तित्व पर मैंने कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी दी है.
गोरखपुर एक ऐसा जन-क्षेत्र है जहाँ के जन, कविता कवि सम्मेलनों में अधिक सुनते हैं, पढ़ते कम हैं. कविताएँ पढ़ता है प्रबुद्ध वर्ग. देहाती परिवेश के प्रति संवेदनशील होते हुए भी देवेंद्र कुमार प्रबुद्ध वर्ग के ही कवि जान पड़ते हैं.
कविता के क्षेत्र में देवेंद्र कुमार बंगाली का सत्तर के दशक में ही आविर्भाव हो गया था. उस समय (सन् 1966-68 में) मैं नीना थापा इंटर कॉलेज में था, मेरे अध्यापक मित्र सैयद असगर मेंहदी आपसी कविता-चर्चा के दौरान कभी कभी देवेंद्र कुमार बंगाली का नाम लेते थे, उनकी एकाध कविताएँ भी सुनाते थे. ये कविताएँ वे अपने रेल कर्मी पिता से पाते होंगे. देवेंद्र कुमार बंगाली भी रेल-कर्मी थे और मेंहदी के पिता भी. इनमें साहित्यिक रुचि भी थी. बंगाली की कविताएँ नयी शैली की होतीं थीं. तब कविता में वादों की आँधियाँ चल रहीं थीं. लेकिन देवेन्द्र कुमार किसी वाद से ग्रस्त होते सुनाई नहीं दिए. गोरखपुर से बाहर उनकी कविताओं की चर्चा कम ही हुई.
अस्सी के दशक में प्रबुद्ध वर्ग में उनकी कविताओं की चर्चा होने लगी थी. सन् 1972 में उनकी पहली कृति प्रकाशित हुई- ‘कैफियत’, और सन् 1980 में ‘बहस जरूरी है’. किंतु सन् 2016 के पुस्तक मेला में ही मुझे आर्य द्वारा संपादित उनकी एक प्रतिनिधि कविताओं का संकलन मिला. और दूसरा संकलन उसके कुछ ही समय बाद.
इस दूसरे संकलन की भूमिका पाँच खंडों में है. पहले खंड में कवि के संबंध में सामान्य बातें की गई हैं. कवि के व्यक्ति के संबंध में संपादक का आकलन है कि वह एक सहृदय, सरल-हृदय, संवेदनशील पर चुप्पा कवि थे. उन्होंने अपनी कविताओं में अपने परिवेश (सोच, समझ और जीने) के अनुभव को समेटा है.
भूमिका के तीसरे खंड में आर्य, कवि के संबंध में एक आलोचना योग्य बात कहते हैं-
देवेंद्र कुमार बिना कहीं घोषित किए कि वे दलित रचनाकार हैं, साहित्य के ब्राह्मणवाद पर गहरी चोट
कर जाते हैं (पृष्ठ 23).
इस उद्धृतांश के अध्ययन से अनुमान होता है कि देवेंद्र कुमार के मन में कहीं न कहीं दलित-कुंठा दबी पड़ी थी. वह भोले भाले थे पर सरल-हृदय नहीं थे. उनमें एक चतुर व्यक्ति का वास था. क्योंकि उनकी काव्योक्ति को ब्रह्मणवादी सीधे न समझ कर समझते समझते कहीं समझ सकते थे कि उनकी कोई खास कविता ब्राह्मणवाद पर कटाक्ष है और फौरी प्रतिक्रिया से बच सकते थे (यह कोई टिप्पणी नहीं, उस वाक्य का लक्ष्यार्थ प्रतीत होता है). उनके सहकर्मी जगदीश नारायण श्रीवास्तव बताते हैं कि वह अपने प्रति जातिसंज्ञक संबोधन से चिढ़ते थे.
आर्य पृष्ठ 24 पर कहते हैं- चाहे जिस भी कारण से, उनकी लगातार उपेक्षा हुई और वे हिंदी के सवर्ण साहित्य परिसर में मुख्य धारा से काट दिए गए.
भूमिका से लिए इस उद्धृतांश में शुरू का वाक्य बहुत विरोधाभासी है. संपादक आर्य के ही अनुसार देवेंद्र कुमार बंगाली गोरखपुर के अपने समय के वह नवोदित कवि थे जिनकी कविता धर्मयुग ने छापी, और वह प्रचार पाए. साप्ताहिक हिंदुस्तान ने भी छापी तथा अन्य और पत्रिकाओं ने भी छापी. फिर भी आर्य की यह उलाहना? जहाँ तक उनपर किसी आलोचनात्मक पुस्तक की बात है, शहर के कुछ नामचीनों को छोड़कर अभी भी कई कवि हैं जो इस दृष्टि से उपेक्षित हैं, और ये सभी दलित नहीं हैं. गणेश पाणडेय खुद अपनी जमीन बना रहे हैं. बंगाली किन्हीं कारणों से अपनी जमीन नहीं बना पाए यही कहना युक्तिसंगत है. देवेंद्र कुमार बंगाली जैसे स्वाभिमानी कवि के लिए परमुखापेक्षिता की बातें करना उचित नहीं लगता. अन्यों ने उनकी उपेक्षा कर दी इसलिए वे कम चर्चित हुए यह कहना भी ठीक नहीं. जायसी तो कई सौ बर्षो तक साहित्य जगत में उपेक्षित रहे. किंतु सूफी समुदाय में परम पूजित रहे. क्या ‘बंगाली’ दलित समाज में उतने ही सम्मान्नित थे? आर्य को इसपर भी विचार करना चाहिए था. मुझे तो नहीं लगता कि उनकी कविताएँ दलितों में बहुत लोकप्रिय थीं.
उक्त उद्धृतांश के परवर्ती वाक्य में किसी “सवर्ण साहित्य परिसर” का उल्लेख है. क्या हिंदी साहित्य जगत में वाकई सवर्ण साहित्य परिसर नाम की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई संस्था है? धर्मयुग जैसी उक्त पत्रिकाओं के संपादक सवर्ण थे तो ये पत्रिकाएँ सवर्ण साहित्य परिसर का अंग हुईँ मान लिया जाए तो सवर्ण साहित्य परिसर में मुख्य धारा से उन्हें कहाँ काटा गया. वे मुख्य धारा की पत्रिकाएँ थी और उनने देवेंद्र कुमार की कविताएँ छापी थीं. आज दलितों में से भी हिंदी साहित्य जगत में प्रखर लेखक-विभूतियाँ हैं पर उनमें से किसी ने उनके काव्य पर अपनी लेखनी नहीं चलाई. आर्य यहाँ किसी तरह की कुंठा से पीड़ित दिखाई दे रहे हैं,
भूमिका में संकलन संपादक आर्य ने (पृष्ठ 17-18 पर) बंगाली के एक बिंब सृजन की अस्वाभाविकता को दिखाया है. बंगाली द्वरा वह सृजित बिंब है-
कविता को अच्छी होने के लिए
उतना ही संघर्ष करना पड़ता है
जितना एक लड़की को औरत होने के लिए
(यह वसंत : बहस जरूरी है)
आर्य यहाँ मान बैठे हैं कि कविता सायास लिखी जाती है (कवि भी यही संकेत करते है) और आयास के संघर्ष में विकसित होती कविता को किसी लड़की के औरत होने के प्रकृत विकास के साथ जोड़कर बिंब खड़ा करना त्रुटिपूर्ण है. बात तो पते की है, पर आर्य को इस तथ्य पर भी गौर कर लेना चाहिए था कि मिथुनरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर क्रौंच के मारे जाने पर मादा क्रौंच के चीत्कार से बाल्मीकि के हृदय में जो करुणा उमड़ी और वाणी से निःसृत हुई, उसने अनूठी कविता का रूप धारण कर लिया. यह कविता सायास नहीं थी स्वतःस्फुरित थी, किसी लड़की के औरत होने में नैसर्गिक विकास जैसी. बाल्मीकि की करुणा नैसर्गिक थी और वाणी भी.
अपनी उक्त आलोचना को और स्पष्ट करने के लिए आर्य ने उन्हीं की एक अन्य काव्य-पंक्ति उद्धृत की है-
धूप और अँधेरे की मिली जुली इच्छा है
कि मछलियाँ तालाब से बाहर आएँ...
अपने खाए जाने के खिलाफ
दबी जुबान से ही, मगर कुछ बोलें (परिसंवादः बहस जरुरी है)
और उनकी काव्य-दृष्टि पर टिप्पणी करते उक्त भूलभुलैया में फँस गए हैं-
यह एक इतिहासविरोधी काव्य-दृष्टि है. एक तो धूप और अँधेरे की मिली जुली इच्छा नहीं हो सकती. एक यदि पक्ष है तो दूसरा उसका प्रतिकार. दूसरेव्यवस्था चाहती ही यह है कि मछलियाँ पानी से बाहर आकर विद्रोह करें ताकि उनका विद्रोह आत्महत्या में बदल जाए.
उक्त काव्य-पंक्तियों की यह आलोचनात्मक व्याख्या बहुत अटपटी लगती है. इस क्षण विद्वद्जनों का कहना मुझे याद आ रहा है कि अभिव्यक्ति की भाषा दो प्रकार की होती है, एक तथ्यानुवर्तनी और दूसरी भावानुवर्तनी. काव्य में भावानुवर्तनी भाषा का प्रयोग होता है. भावानुवर्तन के वशीभूत होने से ही कवि काव्य में प्रतीकों और बिंबो तथा मानवीकरण का संयोजन करता है. काव्य में प्रतीक भी बोलते हैं, बिंब भी बोलते हैं और मानवीकरणकृत तथ्य भी बोलते और इच्छाएँ रखते हैं. राजेश जोशी के जिद काव्य-संकलन की कविता अँधेरे के बारे में कुछ वाक्य का अँधेरा और उजाला दोनों बोलते हैं और इच्छाएँ भी रखते हैं. और आर्य यहाँ धूप और अँधेरे का इच्छायुक्त होना इतिहासविरोधी बता रहे हैं (इतिहासविरोधी अथवा तथ्यविरोधी?). ‘मिलीजुली’ शब्द से संकेत मिलता है कि उनकी अकेली अकेली इच्छाएँ हो सकती है. अकेली अकेली हो सकती हैं तो मिलीजुली क्यों नहीं. भावानुवर्तन की भाषा में किसी की भी इच्छाएँ हो सकती हैं.
अपनी इस आलोचना में आर्य ने एक और उलझन पैदा कर दी है- वह धूप को पक्ष और अंधेरे को उसका प्रतिकार बता रहे हैं. उन्होंने इस बात का ख्याल नहीं किया कि अँधेरा का अपना कोई अस्तित्व है ही नहीं. अँधेरे का होना धूप के न होने से ही है. जबतक दीया जलता है अँधेरा पास फटकता नहीं, दीया बुझा अँधेरा हाजिर. फिर इनको पक्ष और उसके प्रतिकार (प्रतिपक्ष) का प्रतीक कैसे माना जा सकता है. पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अस्तित्ववान होते हैं. उन्होंने इसमें व्यवस्था को भी ला खड़ा किया है. लगता है उनपर मार्क्सवादी विचारधारा हाबी है. मछलियाँ पकृति की व्यवस्था में जल में रहती हैं. मछुआरा किसी मानवी व्यवस्था में अपने जीवन यापन के लिए उन्हें जल से निकालता है, जल से निकलते ही मछलियाँ मर जाती है. आर्य व्याख्या करते हैं कि मानवी व्यवस्था मछुआरों द्वारा मछलियों को जल से इसलिए निकलवाती है कि वे आत्महत्या कर सकें (या मनुष्यों के जीवन-यापन में सहयोग दे सकें?). आर्य की यह व्याख्या जबरदस्ती की है. अगर देवेंद्र कुमार बंगाली ने व्यवस्था को आततायी दिखाने के लिए यह बिंब सृजित किया
है तो यह त्रुटिपूर्ण है.
मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या बिंब ऐसे नहीं होने चाहिए जिसमें कवि जो अर्थ संप्रेषित करना चाहता है, उसके कुछ अर्थ-संकेत उसमें हों. मुक्तिबोध ने अपनी अँधेरे में कविता में एक रक्तस्नात पुरुष का बिंब सृजित किया है. यह बिंब अभी भी आलोचकों के लिए एक पहेली है. सबने इस बिंब पर अपने अपने अर्थ आरोपित किए हैं.
देवेंद्र आर्य भूमिका में एक विवादास्पद बात भी करते हैं-
देवेंद्र कुमार अपने को दलित मानते थे या नहीं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वे दलित थे या नहीं ?” (पृष्ठ 24).
देवेंद्र कुमार बंगाली दलित थे या नहीं, यह तय करना बहुत महत्वपूर्ण क्यों है. सरकारी फाईलों में तो ऐसा करना कई कारणों से जरूरी होता है किंतु साहित्य में भी ऐसा करना....यह जान लेने से क्या उनके काव्य-व्यक्तित्व में कोई निखार आ जाएगा, जिससे दलित न कहने से वह वंचित रह जाते? आर्य के इस तर्क के आधार पर तो अम्बेडकर को दलित महात्मा या रैदास को दलित संत कहना चाहिए. कुमार के स्वयं को दलित न मानने के पीछे कोई कारण रहा होगा. आर्य को उसे जानने की कोशिश करनी चाहिए थी. उनकी इच्छा के विपरीत उनके प्रति दलित विशेषण प्रयुक्त करना आर्य के किसी विशेष प्रयोजन की ओर ईशारा करता है. दलित शब्द एक राजनीतिक शब्द है. संभव है कुमार को दलित कहने के पीछे उनका कोई राजनीतिक उद्देश्य हो.
देवेंद्र कुमार बंगाली को दलित विशेषण से विभूषित करते हुए आर्य उन्हें आधुनिक हिंदी कविता का पहला दलित कवि कहते हैं. कवि को दलित कहने से आर्य का क्या उद्देश्य हो सकता है. इसका हल्का सा अनुमान उनकी इस पंक्ति में झलकता है- आखिर ऐसा क्यों हुआ कि आज जो दलित नहीं है, वह भी चाहता है कि उसे दलित साहित्यकारों में शुमार कर लिया जाए (पृष्ठ 21). शायद आर्य को यह भय हो गया लगता है कि कहीं इन दलित साहित्यकारों (में से कोई) दो पीढ़ी पुराने प्रमाण-पत्र पर स्वयं को (पहला दलित कवि) रेखांकित न करा ले (वही पृष्ठ). कैसा बेतुका भय है यह. आर्य शोध छात्रों के लिए भी कुछ नहीं छोड़ना चाहते. इसी पृष्ठ पर वह यह भी कहते हैं- स्वयं देवेंद्र कुमार ने कभी यह जाहिर नहीं होने दिया, न व्यक्तिगत बातचीत में न कविता में, कि वे जन्मना दलित हैं. आर्य ने उनकी मन:स्थिति को जानने की चेष्टा नहीं की कि कवि ने ऐसा क्यों किया. वह केवल जिज्ञासा भर करके रह गए- देवेंद्र कुमार की इस मन:स्थिति के पीछे कुंठा थी या उनकी प्रगतिशील-वाम चेतना? (पृष्ठ वही).
कवि को दलित विशेषण से अभिहित करने के पूर्व उन्हें उनके मन की स्थिति को जानने का प्रयास करना चाहिए था. हालाँकि वह इतना अवश्य कहते हैं- वे सबके प्रिय और आदरणीय बनना चाहते थे (पृष्ठ23). बस केवल इतना ही कारण था उनके अपने को दलित कहकर प्रकट न करने का? और ऐसा सोचना कोई गलत तो नहीं था.
इसी पृष्ठ 23 पर आर्य यह भी कहते हैं- देवेंद्र कुमार के लिए उनका मात्र कवि-रूप ही महत्वपूर्ण था, दलित कवि-रूप नहीं. उन्हें अलग से दलित-बैसाखी की जरूरत नहीं पड़ी. किंतु उनकी मृत्यु के उपरांत आपने उन्हें दलित-बैसाखी को पकड़ा ही दिया और अफसोस जताते हैं- काश! उन्होंने इसपर (दलित-बैसाखी ग्रहण करने पर?) सचेतन रूप से ध्यान दिया होता तो शायद कुछ मार्मिक कविताएँ हिंदी जगत को दे पाए होते. दलित-बैसाखी न लेने के कारण उन्हें वह प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़ी थी जिसके चलते दलित साहित्य का अलग अस्तित्व सामने आया. तो आपने उन्हें दलित विशेषण देकर उनकी यह कमी पूरी कर दी?
मुझे यही समझ आ रहा है कि भले ही देवेंद्र कुमार ने आज के दलित-साहित्य जैसी मार्मिक कविताएँ न दी हों पर वह दलित कवि अर्थात दलितों में से एक कवि हैं और पहले कवि हैं यही बताना भूमिका लेखक की मंशा है.
‘दलित कवि’ से एक और अर्थ का द्योतन हो सकता है- दलितों के कवि या कहें दलितों के संबंध में सोच समझ रखने और उनके लिए कविता लिखने वाले कवि. एक तीसरा अर्थ भी लिया जा सकता है ‘दलित कवि’ का- दलित चेतना के कवि.
भूमिका में दलितों के प्रति उनकी सोच समझ या दलितों के लिए उनकी लिखी कविता का तो कोई जिक्र नहीं है पर दलित परिवेश को लेकर लिखी एकाध कविता का जिक्र अवश्य है. पर ऐसी कविताएँ तो दलित परिवेश से बाहर के कवि भी लिखते हैं और लिखे हैं. सन् 1929 में लिखी निराला की एक कविता है-
दलित जन पर करो करुणा
दीनता पर उतर आए प्रभु
तुम्हारी शक्ति वरुणा. (अणिमा)
इस कविता में दलित शब्द को व्यापक अर्थ में लिया गया है. जिसमें दीनता हो वे सभी दलित हैं चाहे वे किसी वर्ग से हों. आगे चल कर राजनीति में अम्बेडकर के डिप्रेस्ड क्लास को दलित कहा गया जो एक सीमित अर्थ देता है. इस सीमित में भी सीमित वर्ग (चमार या अछूत) के लिए आर्य ने दलित शब्द का प्रयोग किया है. आर्य की इस सोच ने थोड़ी देर के लिए मुझे सोच में डाल दिया कि बंगाली को उनकी जाति बताकर उन्हें दलित कवि कहने की उन्हें क्या आवश्यकता आन पड़ी, जबकि आर्य के अनुसार ही मृत्युपर्यंत वह अपने को दलित कहलाने को तैयार नहीं थे.
खैर, दलित कवि से आर्य का क्या यह भी मकसद हो सकता है- दलितों के कवि अथवा दलित चेतना के कवि- यह जानने के लिए एक अलग लेख तैयार करने की आवश्यकता जान पड़ती है. वह फिर कभी.
                                                                                                                    रचनाकार में प्रकाशित 01-09-2017