Saturday 1 May 2021

‘कविता भविता’ (काव्य) की समीक्षा:




  
                                                          फेसबुक पर पोस्टेड    10-04-21 से 13-04-21 तक 

          कवि– ज्ञानेंद्रपति, संस्करण 2020       समीक्षक : शेषनाथ प्रसाद श्री

कविता भविता (काव्य) की

#कविताओं में प्रवेश के पूर्व

विता भविता कवि ज्ञानेंद्रपति का नवीनतम कविता-संग्रह है। कवर फ़्लैप पर दी सूचना के अनुसार यह उनका नवाँ कविता-संग्रह है। कवि रामप्रकाश कुशवाहा के सौजन्य से फेशबुक के द्वारा मुझे इसकी सूचना मिली। इस कविता के शीर्षक ने मुझे आकर्षित किया, इसे पढ़ने की इच्छा हुई और मैंने इसे सेतु प्रकाशन से मँगा लिया। संग्रह को पूरा पढ़ने के बाद मन हुआ कि इस पर कुछ लिखूँ। क्योंकि प्रचलित कविता-लेखन से ये कविताएँ थोड़ा हट कर लगीं - संवेदना में, विषय में और प्रस्तुतीकरण में भी। पढ़ने में ये कविताएँ रुचिकर भी लगीं।

रचनारत कवि के सृजन पर लिखना कुछ खतरा मोल लेने जैसा है। क्योंकि आवश्यक नहीं कि हर अनुभूतिशील सर्जक के बोध का स्तर समान हो। और सर्जक यदि समीक्षा भी करने लगे तो बोध में अंतर पड़ने से समीक्षक के अर्थ और संदर्भ-ग्रहण में भी अंतर पड़ सकता है। और तब यह अन्तर समानुभूति की जगह विवाद का कारण हो सकता है। आज के वातावरण में विवाद की ही गुंजाइश अधिक है। ज्ञानेंद्रपति जी हिन्दी काव्य-जगत के एक स्थापित कवि हैं और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित भी हैं। सन 2004 में प्रकाशित उनके काव्य-संग्रह संशयात्मा पर सन 2006 में उन्हें यह पुरस्कार मिला था। तब समीक्षा का जोखिम और बढ़ जाता है।   

अक्सर देखने को मिलता है कि समीक्षारचयिता के सोच से थोड़ा भी इधर उधर हो जाए तो स्थापित कवि बुरी तरह फट पड़ते हैं। कवि उद्भ्रांत का उदाहरण मेरे सामने है। फेशबुक पर आए उनके एक विचार पर मेरी एक छोटी सी टिप्पणी उन्हें अखर गई थी। अंततः उन्होंने फेसबुक-फ्रेंडशिप भी तोड़ दी थी। कवि उद्भ्रांत मेरी पीढ़ी के हैं और कवि ज्ञानेंद्रपति भी।

कविता भविता को पढ़ने के बाद मैं कह सकता हूँ कि मेरे और ज्ञानेंद्रपति जी के युगबोध में पर्याप्त अंतर है। मेरे पहलू में बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में आए उस सांस्कृतिक तूफान (ओशो) के सौगात भी हैं जिससे हिन्दी-कवि अभी तक मुँह फेरे हुए हैं। मेरी कोशिश रहेगी कि कुछ ऐसा लिखूँ जो कविता भविता में कवि के बोध की ऊष्मा को महसूस कर सकूँ।  

ज्ञानेंद्रपति जी के संशयात्मा’ कविता-संग्रह के शीर्षक से संकेत मिलता है कि वह अपने तत्कालीन युग के व्यवहार में कोई संशय पसरा हुआ अनुभव करते हैं। सन 2004 में उन्हें या जनपक्ष को कौन सा संशय घेरे था, पता नहीं। देश की प्रभुसत्ता किसके हाथ में होयह कविता-जीवी के लिए कोई मायने नहीं रखता। उसके लिए मायने रखता है मनुष्य-चेतना में उभर रहा भाव या संशय जो मनुष्य के जीवन-विकास को प्रभावित करता है। हाँ एक संशय अभी तक हिन्दी के साहित्य-जगत में छाया हुआ है। वह है ईश्वर के होने’ ‘न होने का संशय। स्पष्टत: यह पश्चिम का मार्क्सीय प्रभाव है। पर असरकारी है।

इस  समय  फेसबुक पर कुछ  कवियों  द्वारा उक्त प्रश्न को चिंतन

मनन के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। ज्ञानेंद्रपति जी उन कवियों से परिचित हैं। कुछ लोग ईश्वर के न होने के प्रमाण में प्रेमचंद को भी पेश कर रहे हैं। यह वामपंथी सोच भी है। पर पता नहीं ये लोग ओशो की छाया से भी क्यों कतराते है, जिन्होंने धार्मिक होकर भी डंके की चोट पर ईश्वर के व्यक्तिरूप अस्तित्व से इंकार किया है। ये लोग ओशो के इस बात का जवाब क्यों नहीं देते कि, ईश्वर हो या न हो बिना किसी सृजनशील शक्ति के कोई सृजन (पार्थिव या चेतन) संभव हो ही कैसे हो सकता है। वह निहारिकाओं के सृजन के लिए पार्थिव बिग-बैंग में हुआ विस्फोट हो या जीव-रचना के लिए माँ की कोख में चेतन भ्रूण का बनना हो। ओशो से एक बातचीत में वैज्ञानिक हरगोविंद खुराना ने कहा था कि पार्थिव ज्ञान से चेतना की खोज कैसे की जा सकती है।   

प्रश्न उठता है बिग-बैंग में यह अंत:स्फोट की शक्ति आई कहाँ से, यदि ब्रह्मांड में कोई अकारण सतत सृजनशील शक्ति उसमें अंतर्बाह्य विद्यमान न हो। और फिर यह सृष्टि टिकी कैसे है बिना किसी सृजनशील शक्ति (आकर्षण स्वरूप) के विद्यमान रहते। लोहे के दो अणु पास रख दिए जाएँ तो कोई सृजन संभव नहीं हैं। पर उनको एक उद्देश्यपूर्ण उपकरण के रूप में (मानुष्य-चेतना के द्वारा) पास रख कर उन्हें चुम्बकीय शक्ति उपलब्ध करा दी जाए और वह सतत उपलब्ध रहे तो वे अणु सृजन की ओर अग्रसर हो जाते हैं। यह पार्थिव शक्ति से पार्थिव सृजन है। इससे केवल पदार्थ का परिचलन हो सकता है। कुंजी मनुष्य-चेतना के हाथ में होती है। मशीनों के परिचालन में पार्थिव विद्युत या ईंधन-शक्ति की जरूरत पड़ती है।

लेकिन माँ की कोख में जीव की रचना होती है। कोख में पहले पुरुष

के शुक्राणु और स्त्री के डिंबाणु संचित होते हैं पार्थिव रूप में। फिर उनमें अंतःस्पर्शी योग होता है जिससे चेतन भ्रूण बनता है। यही चेतन भ्रूण जीव की काया में विकसित होता है। ऊपर के अनुभव से स्पष्ट है कि भ्रूण के निर्माण हेतु भी उक्त अणुओं के अंतःस्पर्शी योग के लिए एक ऐसी शक्ति चाहिए जो भ्रूण भी बनाए और उसमें चेतना का भी आधान कर सके। वैज्ञानिकों ने इसके लिए कुछ प्रयोग भी किए हैं। उन लोगों ने शुक्राणुओं और डिंबाणुओं को एक प्रखनाली में एक साथ रखा। उनमें पार्थिव ऊर्जाओं को प्रवेश कराए पर वे भ्रूण–सृजन में असफल रहे। तब वे उस परखनली में माँ की कोख के ऊष्मीय एवम अन्य वातावतरण को मेंटेन किया तो चेतनायुक्त भ्रूण बना। और उस भ्रूण को एक माँ की कोख में स्थापित करने से उन्हें अनुकूल फल मिला। हुआ क्याहुआ यह कि अनुकूल स्थिति पा कर चतुर्दिक विद्यमान सार्वभौम रूप से  सृजनशील शक्ति ने उसमें प्रवेश कर चेतनायुक्त भ्रूण बना दिया। आज नहीं कल इस अकारण विद्यमान सतत सक्रिय सृजनशील शक्ति का अनुभव विज्ञान को भी हो, क्योंकि सजीव सृजन कल भी हो रहा था, आज भी हो रहा है और कल भी होगा। विज्ञान ने इस परिघटना को जानने के अपने प्रयास को अभी विराम नहीं दिया है।   

विज्ञान अपनी हर खोज को एक नाम देता है। सृजन की करणभूत पार्थिव शक्तियों को उसने- चुम्बकीय, विद्युतऔर परमाणु शक्ति जैसा नाम दे रखा है। उसे इस सततसृजन-शक्ति को भी एक नाम देना होगा। क्योंकि उसे इस सृजन-शक्ति का अहसास है। अध्यात्म तो इस शक्ति को ईश्वर या परमात्मा नाम देता है। जयशंकर प्रसाद इसे अदृष्ट कहते हैं। कविता इस चेतन-शक्ति की ही उपज है। उद्भावना, अनुभूति, प्रेम, सौन्दर्यानुभव के लिए भी चेतना की सक्रियता ही जिम्मेदार है। जीवनानुभूति चैतन्य में ही संभव है। संभवतः इसीलिए ज्ञानेंद्रपति ने अपनी  कविता भविता’  में कविता  को लेकर  सबसे अधिक कविताएँ लिखी हैं।    

अनुमान लगा सकता हूँ कि संशयात्मा में ज्ञानेंद्रपति जी किसी ऐसे ही संशय से घिरे होंगे या आम लोगों को उससे घिरा हुआ महसूस किए होंगे। आज समूचे भारत के धार्मिकराजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक वातावरण में जो समस्याएँ पटी हुई हैं उन सभी को किसी न किसी संशय ने उलझा रखा है। उन समस्यायों की जडों तक पहुँचने के लिए न तो किसी को चाव है न फुरसत। हर किसी को इनकी जडों तक पहुँचने की चेष्टा में एक डर घेरे हुए लगता है- अपने को खो देने का डर।

कविता भविता में भी कवि के मन को एक संशय घेरे प्रतीत होता है- कविता की भविता (होने या बने रहने) का संशय। कदाचित यह मेरा भ्रम हो पर कविता-संग्रह के फ्लैप पर छपे देहरीदीप की पंक्तियों में साफ झलकता है कि “कविता यह है या वह है” की अनिश्चितता या  भ्रम की स्थिति अभी भी बनी हुई है। यह कथन देखें-कविता क्या है’ इसकी ढेरों परिभाषाएँ गढ़ी गईं पर “पारे को अंगुलियों से उठाना संभव न हो सका।“ पारे को अर्थात कविता को (क्या पारा और कविता में कोई साधर्म्य है?), उँगलियों से अर्थात भौतिक प्रयास याने विचारों से, ‘उठाना याने पहलू में लेना। हृदय का स्थान मस्तिष्क ने ले लिया। उपमा और उपमान में साधर्म्य की स्थिति बनी रहे, इससे ध्यान हटा लिया गया। वाल्मीकि के क्रौंच-क्रंदन की आपूरित करुणा की तीव्रता के बोध को हृदय से न ले कर मस्तिष्क से लिया गया। नयी कविता के लिए एक आंदोलन छेड़ा गया। इसे छेड़ने वालों ने कविता की आस्तित्विक जड़ तक पहुँचने के लिए एक नया प्रयास किया। इन लोगों ने आधुनिकता के विज्ञानसम्मत चिंतन के सहारे कविता की रचना-प्रक्रिया को समझ कर कविता के उत्स तक पहुँचना चाहा। ध्यान देने योग्य है कि विज्ञानसम्मत चिंतन पदार्थगत चिंतन तक ही सीमित है। इसके लिए मुक्तिबोध ने बर्गसा की रचना-प्रक्रिया के मत को रचना के तीन क्षणों में प्रस्तुत किया। और अज्ञेय ने कुछ अमेरिकी कवियों के सुर में सुर मिलाकर तारसप्तक में राहों के अन्वेषण का विचार उछाला। लेकिन वे कविता की जड़ तक नहीं पहुँच सके। इन लोगों ने अपनी नयी कविताओं से कविता के उद्यान में मरुभूमि की ही स्थितियाँ उत्पन्न कीं। पर ज्ञानेंद्रपति की इन कविताओं की स्थिति कुछ भिन्न है। फ्लैप पर दिए देहरीदीप के मत में उनकी इन कविताओं में सर्वदिक प्रस्थान का भाव है।      

सर्वदिक प्रस्थान अर्थात सभी दिशाओं में प्रस्थान। कविता के संदर्भ में उसके सभी आयामों में प्रस्थान। कविता के आयामों की बात उठाकर देहरीदीप ने बड़ा ही मौलिक प्रश्न उठा दिया है। कविता के इन आयामों में मनुष्य-चेतना के मस्तिष्क और हृदय दोनों आते हैं केवल मन-मस्तिष्क नहीं। कविता भविता की समीक्षा में मैं देहरीदीप के संकेत को ध्यान में रखते हुए उतरना चाहूँगा।      

#‘कविता भविता की कविता-काया (शिल्प) में प्रवेश:

कविता भविता में ज्ञानेंद्रपति की कुल 122 कविताएँ संकलित हैं। इनमें छोटी, मँझोली और बड़ीसभी आकार की कविताएँ हैं। इनका काव्यरूप मुक्तक जैसा है। इनमें व्यक्त अनुभूति मुक्तक की खंडानुभूति का अहसास देती है। पर ये मुक्तक के लिए अपनाए जाते रहे छंदों के नियमों में बँधी नहीं हैं। ये छंद-मुक्त कविताएँ हैं। मैं इन्हें मुक्त छंद में लिखी गई काविताएँ कहना पसंद करूँगा। क्योंकि तब यह छंद भारतीय छंदों की सरणी की अगली कड़ी बन जाता है, और यह उस चिंतन का भी हिस्सा बन जाता है जो मानता है कि समूची सृष्टि प्रकृति की एक छंद है।  

इनमें लगभग 38 कविताएँ केवल कविता को लेकर हैं। कवि ने इनमें मैं शैली का प्रयोग कुछेक में ही किया हैकुल चार-पांचेक में। किसी में मैं प्रकट है, किसी में अप्रकट। इनकी भंगिमा को देख कर लगता है कि कवि नयी कविता के तेवर से अपनी कविताओं का तेवर कुछ अलग रखना चाहता है। पर इनकी कुछ बड़ी कविताएँ उनका साथ देने से इंकार करती लगती हैं। इनमें कुछ अनुभूतिपरक हैं तो कुछ वर्णनपरककुछ क्षणिका जैसी हैं तो कुछ में राजनीति के स्वर भी सुनाई देते हैं। जहाँ राजनीति के स्वर हैं वहाँ कविताएँ कुछ कुंठित सी लगती है। कवि ने इस संग्रह को उन “भावी कवि-पीढ़ियों के हाथों में सौंपा है, “जिनकी हथेलियों की लकीरों में हृदय-रेखा और मस्तिष्क-रेखा के बीच एक लकीर कविता की भी होगी।” कदाचित आज के कवियों की हथेलियों में कविता की रेखा नहीं है। कवि असमंजस में पड़ा लगता है।

छायावाद तक कविता में हृदय में उठते भाव सर्वोपरि थे। नयी कविता में बुद्धि को सर्वोपरि माना जाने लगा। अब कविता हृदय-रेखा से मस्तिष्क-रेखा में ला दी गई। प्रगति-प्रयोगवाद का सिलसिला चला। इस दरम्यान कुछ लोगों को लगा कि कविता कहीं खो गयी है। फिर कुछ समय बाद कुछ कवियों को लगा कि अब कविता की वापसी हो रही है। ये कवि बुद्धि की उलझन में फँस कर अस्थिर होते रहे। ज्ञानेंद्रपति ने, लगता है इस उलझन से बचने के लिए एक नई राह अपनाने की सोची है। वह सोचते हैं-कविता की रेखा, हृदय (करुणा)-रेखा और मस्तिष्क (बुद्धि)-रेखा के बीच में होनी चाहिए। हृदय और बुद्धि में संतुलन तभी सध सकेगा।उनका शीर्षक विहीन समर्पण वाक्य देखें-

भावी कवि-पीढ़ियों के हाथों में जिनकी हथेलियों की लकीरों में हृदय-रेखा और मस्तिष्क-रेखा के बीच एक रेखा कविता की भी होगी  

ऐसा होने पर मेरे देखे तब न तो कविता ही अपने समूचे आयाम में खुल पाएगी न बुद्धि ही। कविता भावातिरेक में खिलती है फूल की तरह और बुद्धि तर्क के आयाम के परे नहीं जा सकती। बुद्धि की नियति तर्ककविता के आयामों में गुंफित हो सकता है पर तर्कातीत में लय हो जाने पर ही उसका सौंदर्य निखर सकेगा। तर्क अपने चरम पर रूढ़ि बन जाए तब कविता खो जाएगी। तब वह कविता की काया भले ही पा जाए, राजनीति का उपकरण बन कर रह जाएगी।    

पश्चिमी साहित्य के दमदार संपर्क में पड़ कर नयी कवितावादी कविता को केंद्र से न पकड़ कर परिधि से पकड़ने की चेष्टा करने लगे। पर कविता उनकी पकड़ से छूट निकलती रही। फलत: वे उधेड़बुन में पड़ गए। उन्हें अपने प्रयास पर संशय होने लगा। लगता है ज्ञानेंद्रपति  भी उस संशय से अभी उबरे नहीं हैं। कविता क्या है, वह कैसी होवह कहाँ होती हैउसका उत्स कहाँ है। लगता है इन प्रश्नों का समाधान ही वह  इस संग्रह की कविताएँ  लिख कर करना

चाह रहे है।

इस संग्रह का कविता भविता’ नाम उन्होंने सोद्देश्य रखा है। भविष्य की कविता उनकी दृष्टि में कैसी होनी चाहिएइसमें उसकी परिकल्पना और उदाहरण दिखते प्रतीत होते हैं। ऐसा कर कवि कहीं यह तो नहीं जाताना चाहता कि वर्तमान पीढ़ी के कवियों के हाथों में कविता की लकीरें मद्धिम पड़ गई हैं। या प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता आदि के मकड़जाल में फँस कर कवियों की वर्तमान पीढ़ी अपने हृदय की आर्द्रता खो चुकी है। यहाँ द्रष्टव्य है कि कवि भावी कवि-पीढ़ी के हाथों में कविता की लकीर के होने की बात तो करते हैं पर यह नहीं सोचते कि कविता के पाठकों के हाथों में कविता के आस्वादन की लकीर होनी चाहिए या नहीं। क्योंकि कविता कवि और पाठक के बीच एक सेतु की तरह है। सर्जक की कविताएँ उसके पाठक या आस्वादक के बिना क्या महत्व रख सकेंगींपाठकों का संस्कार पाठकों का स्तर देख कर लिखे बिना नहीं हो सकता है। पाठकों को समानुभूति में लाने की चेष्टा कविता लिखने में प्रथम वरीयता रखती है।    

छायावाद तक कविता के पाठकों को कविता का आस्वादक या सहृदय माना जाता था। ज्ञानेंद्रपति जी उत्तर आधुनिक काल के कवि हैं। उत्तर आधुनिक काल विज्ञानसम्मत सोच या कल्पना को तरजीह देता है। हाथ की लकीरों की विद्या सामुद्रिक विद्या है जो विज्ञानसम्मत नहीं मानी जाती। उत्तर आधुनिक युग का कवि, कविता की किस्मत हाथ की लकीरों में क्यों देखने लगायह एक अबूझ और असहज बात है।  

संकलन की पहली कविता के पूर्व कवि ने निराला की देवी सरस्वती’ कविता के समापक अंश को उद्धृत किया है। तुम्हीं चिरंतन जीवन की/ उन्नायक, भविता/ छवि विश्व की मोहिनी/ कवि की सनयन कविता   कदाचित इस आशय से कि अपनी कविताओं को वह छायावादी संवेदनशीलता की निरंतरता में प्रस्तुत करना चाह रहें हों। अपने इस संकलन के शीर्षक का भविता खंड उन्होंने यहीं से लिया है।

कवि ने इस संग्रह को समेटते हुए अपना परिचय दिया है, एक अनोखे अंदाज में- “मैं... दिशासीन/दिशान्वेषी एक पक्षी हूँ” (अंतिम कविता के पूर्व की कवितान-कुछ, पृ 190)। और अंतिम कविता (पृ 191) में कहते हैं- “(मैं) अलविदा में हिलता हुआ हाथ हूँ”। यह स्वर नयी कवितवादियों का-सा लगता है। इस अभिव्यक्ति के कई अर्थ निकले जा सकते हैं। इसके अर्थ संदर्भ तक पहुँचना एक रोचक बात होगी। ऐसी पंक्तियाँ रोमांच-सर्जन की प्रवृत्ति की भी द्योतक होती हैं।  

#‘कविता भविता’ की कविताओं में भाविक प्रवेश:

विता भविता की लगभग एक तिहाई कविताओं का विषय कविता’ है।  

स संग्रह की पहली कविता– कविता की प्रतीक्षा कविता को ही लेकर है। कवि अपनी कविता की प्रतीक्षा में बैठा है। कविता की प्रतीक्षा में उसका बैठना कुछ अटपटा सा लगता है। हो सकता है उत्तर आधुनिक काल की यह कोई नयी मानसिकता हो। कविता की प्रथम पंक्ति में कविता की प्रतीक्षा में रत कवि का सीधा और सपाट स्वर स्फुटित होता है -

कविता की प्रतीक्षा में बैठा हूँ”    

एक पंक्ति-विराम के बाद अगली पंक्ति में वह संकेत देता है कि भोर में उसके कक्ष की खिड़की तक एक चिड़िया आई थी- भोर की चिरइया। उसके स्वर में उसके लिए एक संदेश था। पहले उसने ध्यान नहीं दिया। उसे अकस्मात ख्याल आया कि यह तो चिरइया के कंठ-स्वर में उसकी कविता का स्वर था। वह अपने

कवि से (मुझसे) मिलने आने को कह गई है-  

भिनसारे ही कह गई थी

भोर की चिरइया के कंठ-स्वर से  

कि आएगी वह...

मिलने..- अपने कवि से”  (कविता की प्रतीक्षा में, पृ 11)

इसका भान होते ही कवि औचक जगा था। तबतक वह पियदूती चिरेया उड़ गई थी। दूतियों की भूमिका तो रीति काल के बाद समाप्त मानी जा रही थी पर उत्तर आधुनिक युग के कवि को भी उसकी जरूरत पड़ेगी विश्वास नहीं होता। पियदूती एक संदेशवाहिका की भूमिका में होती थी। यहाँ पियदूती का प्रयोग खटकता है। यह और भी खटकता है क्योंकि यह कविता की दूती अर्थात प्रिया कविता की दूती होकर आई है। कवि केशव इसे कवि-प्रिया ही कहते हैं। यह प्रिय की दूती कैसे हो सकती है। कवि असावधान लगता है। उस चिरइया के प्रति कवि के पियदूती सम्बोधन में कवि का उमड़ा प्रेम परिलक्षित होता है। फिर कविता के प्रति उसमें कितना प्रेम उमड़ रहा होगा! किन्तु उसकेउससे मिलने आने की बात कह कर कवि ने अपने और उसके बीच एक दूरी ड़ाल दी है।

“औचक जगा था मैं

लेकिन तबतक

उड़ गई थी पियदूती चिरइया”            (वही पृ 11)

भोर की चिरइया की भनक पा कर कवि औचक जगा तो उसे बस चिड़िया का एक कोमल पखना हवा में मँडराता हुआ धीरे धीरे धरती पर उतरता दिखा। यह देख उसके अंदर एक संवेदना उभरती है। उसे लगता है वह पखना जैसे उसके जीवन की धरती पर उतर रहा है। उसे अपना जीवन धरती की तरह लगने लगता है। जीवन को धरती की उपमा देना कुछ जीवंत नहीं लगता-

बस उसका नन्हा-सा पखना

हवा में मँडराता हुआ

मेरे जीवन की धरती पर उतर रहा था

धीरे धीरे                           (वही, पृ 12)

पहले उस पखने को कवि ने यों ही निरूद्देश्य हवा में उड़ने वाला पखना समझा। पर उसकी नवजात-सी कोमलता से उसने पहचाना कि वह तो चिड़िया का नन्हा ऊष्म पंख था, उसकी देह से जुड़ा रहने वाला (मानो अन्य उड़ते पखने किसी चिड़िया की देह से जुड़े न रहते हों)-

ओह! मैंने पहचाना

उड़ने वाला नहीं, देह से लगा रहने वाला

नन्हा ऊष्म पंख था चिड़िया का

जो जीवात्मा के ---

---अस्तित्व की ऊष्म छांव में

बदलती है रक्त की प्रकृति

शीतरक्त उरग उष्णरक्त विहगों में विकसते हैं   (वही पृ)

फिर उसके मन में एक उद्भावना होती है। उसकी बुद्धि की त्तर्कना में कुछ तरलता आ जाती है। उसके मन में उठता है कि यह पंख चिड़िया की जीवात्मा के निकटतम उसके अस्तित्व की ऊष्म छांव में विकसित हुआ है, शीतरक्त उरग (सर्प) से उष्णरक्त विहगों (चिड़ियों) में विकासमान हो कर। किन्तु जीव-विकास की कथा कहती इस पंक्ति में कवि का व्यक्त अनुभव पाठक को काव्यार्द्र नहीं करता। कवि ने उसे उठाया-

मैंने उसे उठाया...

कोमल काया में उसकी

कविता का सनेह-संदेसा बाँचता-सा      (वही, पृ 12)

वह उस पंख को देख उसकी उँगलियाँ कोमल हो आईं। वह कोमल हो आई अपनी दो अंगुलियों के बीच उसे उठा लेता है। उस समय उसे कुछ अतींद्रिय अनुभव होता लगा जैसे उसकी अंगुलियाँ उसे छू कर पवित्र हो गई हैं। वह उसे अपने सिर से कुछ ऊपर तक उठा कर उसकी काया में कविता का संदेश बाँचने-सा लगा जो उसकी आँखों में कुछ आँजता-सा हो। उसकी संवेदना कवि के केवल बाह्य को ही छुई।  इस कविता को पढ़ कर पाठक के अंदर  कोई ऐसी अनुभूतिनहीं जगती जो पाठक को किसी करुणा से सराबोर कर दे। कवि की मंशा मेरी समझ से एक बार फिर से प्रगति-प्रयोग-काल की कविता से संबन्धित प्रश्नों को फिर से ताजा कर देना है।

संकलन  की  इस प्रथम कविता में मैंने अपने  ढंग से प्रवेश करने की चेष्टा की है। पहले मैंने इसके कथन की भंगिमा को अनुरेखित कर इसके कथ्य को समझना चाहा है। मुझे इसमें कवि ज्ञानेंद्रपति अपनी कविता के लिए एक नयी राह के अन्वेषी-से लगते हैं। इसमें कुछ खास बातें दिखती हैं। जैसे, कवि और कविता के बीच एक दूरी - प्रतीक्षा की दूरी - होती है। कविता कवि से मिलने को उत्सुक है और कवि कविता की प्रतीक्षा में है। कविता कवि के जगने (उद्बोधित होने) तक का इंतजार नहीं करती। कवि को कविता के आने का अहसास हो जाए इस हेतु वह अपना प्रतिनिधि एक पखना चिड़िया से कवि की खिड़की पर छोड़वा देती है। कवि पखने की कोमल काया में कविता का संदेश बांचता है। संदेश शायद यह था कि कविता और कवि के अस्तित्व अलग अलग हैं। कविता तरल है, कवि स्थूल। कविता भौतिक दृश्यों में कवि के समक्ष साक्षात होती है, कवि उसे देख, सुन और स्पर्श कर कुछ अतींद्रिय अनुभव करता है। और वह अपनी लेखनी की स्याही से उसे शब्दों में ढाल कर पाठकों के सामने प्रत्यक्ष करता है।

इस कविता की इन खासियतों को देख मन में प्रश्न उठता है, क्या ज्ञानेंद्रपति जी फिर से कविता की कोई नयी पहचान प्रस्तुत करना चाहते हैंमुक्तिबोध “एक साहित्यिक की डायरी” में और अज्ञेय आत्मनेपद व भवन्ती में यह प्रयास कर चुके हैं। लेकिन वहाँ भी कवि और कविता को प्रतीक्षा की दूरी पर होने की बात नहीं कही गई है। डायरी के रचना के तीन क्षण में भी पहला क्षण कवि के अनुभूति-सम्पन्न होने का है जो प्रतीक्षा में रहने से नहीं हो सकता। कवि राहों का अन्वेषी भी तभी हो सकता है जब उसके पास कहने को कुछ हो, वह भावों से आपूरित या उद्वलित हो। कविता भविता के फ्लैप के देहरीदीप के सर्वदिक प्रस्थान की एक दिशा, कवि और कविता के बीच की दूरी में प्रस्थान करना भी है क्या?    

हम तो यही जानते हैं कि कविता कवि के भीतर उद्भावित होती है, कवि के अन्तःकरण में जगती है। क्रौंच-बध के करूण दृश्य को देख कर बाल्मीकि के भीतर कविता जन्मी थी। अब  बाल्मीकि ने कविता में उस करुणा को किस तरह पिरो कर संप्रेषित किया इस पर विवाद-संवाद हो सकता है। हाँ, वर्तमान की आधुनिकता ने विचार को भी कविता की प्रभावान्विति के लिए एक अनिवार्य तत्व माना है पर उसमें सौंदर्य की तरलता  भी उतनी  ही सघन होनी  चाहिए जितना करुणा का समावेशन।     

इस कविता की अभिव्यंजना से स्पष्ट होता है कि कवि सहज स्थिति में नहीं है। ऐसा नहीं कि चिड़िया के कोमल ऊष्म पखना को देख और स्पर्श कर उसका हृदय सजल होने लगा हो। कविता भाव से पहचानी जाती है। हाँउसकी एक गुणगत पहचान है, उसका किसी न किसी संवेदना से सिक्त होना। हो न हो कवि कविता की भावना कर संवेदना से सिक्त होना चाहता है। कविता की प्रतीक्षा के बहाने वह अपने में किसी न किसी संवेदना को उभरने देने के लिए कुछ घटित होने की प्रतीक्षा में है। कुछ घटित होता भी है। भोर की चिरइया का कोमल पखना हवा में मँडराता हुआ उसके पास आता है और उसमें संवेदना की आर्द्रता पुरने लगती है। पर कवि की संवेदना उसके अस्तित्व से स्फुरित नहीं होती, न ही कविता उसके हृदय में उद्भावित होती है। उसकी कविता उससे दूर, कहीं और होती है। कवि उससे मिलने की कामना करता है तब वह अपने कवि से मिलने आती है। मिलनेपर क्योंकरसंभव है वह किसी बहाने कवि में संवेदना जगाने आती हो। आज के कवियों को स्वयं संवेदित होते देखा नहीं जाता। किसी घटना में कविता स्वयं उद्बुद्ध होती है, जिससे कवि बौद्धिक संवेदना पाकर उसे शब्दों में पिरोता है।  

उस दिन भी, जिस दिन कवि ने यह कविता लिखी, भिनसारे ही उसे एक चिड़िया का कंठ-स्वर सुनाई दिया था। चिड़िया के कंठ-स्वर में मिठास तो थी हीकुछ विशिष्टता भी थी। जैसे उसके स्वर से उत्प्लवित समीर की लहरियाँ कुछ कहना चाह रहीं हों। कवि को प्रतीत हुआ कि इस कंठ-स्वर से उसकी कविता उससे मिलने के लिए आने को कह रही है। कवि के उक्त वर्णन से तो यही लगता है कि वह दिन रहते या रात ढले तक अपनी कविता के आने की प्रतीक्षा में बैठा था। इससे तो यही संकेत मिलता है कि भोर के बाद ही वह कभी आई होगी। फिर अगले कवितांश में- “औचक जगा था मैं लिखने का क्या तुक है। जगना तो सोने से ही होता है जो भोर में या सुबह में होता है। होश में आने को भी जगना कहते हैं। पर प्रतीक्षा में कवि होश खो बैठा था ऐसा नहीं लगता। औचक जगा था मैं की बात तभी युक्तिसंगत हो सकती है जब चिड़िया भोर में ही आई हो और जबतक कवि समझे समझे या जब कवि को इसका भान हुआ हो कि उसकी कविता ही उस चिरइया के कंठ-स्वर में बोली थी, तब वह अचानक जगा था लेकिन तब तक वह पियदूती चिरइया उड़ गई थी साथ में कविता भी। आखिर चिड़िया का स्वभाव भी- चंचल, चौकस ठहरा। कोई खटका हुआ और उड़ गई। मेरी समझ से यह एक शिल्पगत दोष है जो कवि की असावधानतावश हो गई लगती है।   

भाव को गहन करने के लिए कविता अलंकृत भी की जाती है पर मेरे देखे यहाँ रूपक का सहारा अवश्य लिया गया है, जैसे जीवन की (जीवनरूपी) धरती पर। पर इसमें जीवन्तता नहीं है। कविता का मानवीकरण किया गया है पर वह परिवेश नहीं दिया गया है जिससे उसमे एक चमक और भास्वरता आती। यहाँ सिर्फ यही ध्वनित होता है कि कविता कहीं चली गई थी, अब वापस आ रही है जैसा कि नयी कवितावादी कभी इसकी उधेड़बुन में थे।        

मैं इस कविता के समानान्तर अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के प्रियप्रवास की भूमिका से एक वाकया का जिक्र करता हूँ। अवध में एक कवि आए थे फारसी भाषा के। वह अवध की गलियों में घूम रहे थे। तभी एक किशोरी की आवाज उनके कानों में पड़ी। वह अपनी माँ के पीछे यह कहते हुए दौड़ रही थी—“माय रे माय मोरे साँकरे पगन में कांकरी गड़तु हैं।“ यह सुन उनके मुख से अनायास निकल गया- “जहाँ की एक ग्राम्य किशोरी की वाणी में इतनी मिठास है वहाँ के कवियों की वाणी कितनी मधुर होगी!” नयी कविता-काल के कवियों की भाषा में तो दूर-दूर तक ऐसी मंत्र-मुग्धक ध्वनि नहीं मिलती। ज्ञानेंद्रपति की कविता में क्या ऐसी छलकती हुई काव्य की स्वर लहरी है जो स्वयं अपने आप में कविता हो?

कविता भविता की प्रथम कविता के बाद की लगातार कई कविताएँ कवि और कविता को ही लेकर हैं। ये अधिकतर बहुत छोटी हैं- क्षणिका जैसी, पर क्षणिका हैं नहीं। इनका टूटी पंक्तियों में लिखा जाना (कविता लिखने की यही विधि आज प्रचलन में है) इनके कविता होने का अहसास अवश्य दिलाता है पर इसमें काव्य-संवेदन की जगह कवि का पाठकों के लिए कविता और कवि के संबंध में प्रबोधन अधिक है। कविता धूपछांही’, (पृ 13) में वह कहते हैं- कविता धूपछांही होती है/यह अनुभूतियों की विविधवर्णी वर्णमाला में लिखी जाती है। तुम सुख में होओ या उदास, यह तुझे जी से लगाकर गलबांही देती है।“ कविता की विविध वर्णी वर्णमाला समझने जैसी चीज है। वर्णमाला भाषा की होती है। वर्ण, भाव-वहन में तभी सहयोगी होते हैं जब वे किसी सार्थक शब्द में विन्यस्त हों। यहाँ अनुभूतियों को कवि ने भाषा के स्तर पर ला खड़ा किया है। हाँ, अनुभूति-खंडों को भाषा में इस तरह प्रस्तुत किया जाए कि वे मिल कर एक अन्वित समग्र अनुभूति का अहसास कराएँ तो वहाँ अनुभूतियों के विविधवर्णी वर्णमाला का अहसास हो सकता है। पर इस पूरे संग्रह में ऐसी कोई कविता नहीं है जो ऐसा अहसास करा सके। एक कविता (पृ 14) में वह एक ज्योतित कविता, एक हंसमुख कविता और एक छोटी कविता में क्या मुखर रहता है, बताते हैं। धरती पर, धरती की तरह (पृ 15) में वह कहते हैं- “दिन और रात के दो गोलार्धों वाली धरती की तरह/घूमती धरती पर घूमता रहेगा कवि/ उसकी भटकनों में व्यथाएँ और आशाएँ समाएंगी।“ आज का कवि दूसरों के दुख से दुखी दिखता है पर इस दुख में राजनीतिक व्यथाएँ ही घुमड़ती दिखती हैं। कवि (पृ16) शीर्षक में वह कवि को शब्दों से आकंठ भरा पर मितभाषिता की विधा का पथिक मानता है।“ लेकिन कवि की मितभाषिता में काव्य की धारा भी उमड़े, यह भी होना चाहिए। कविता के पास’ (पृ 17) कविता में ज्ञानेंद्रपति जी कवि की तलाशी लेते हैं। और कहते हैं- “कवि के पास भी/नख हैं और आँखें हैं” पर उसकी “आँखों में नाखून नहीं/कवि के नखाग्रों में आँखेँ हैं।“ याने कवि को जहाँ कविता नहीं मिलती होगी वहाँ वह अपने नखाग्रों की आँखों से काम लेता होगा। बहुत से पशु पक्षी अपने भोजन को पहचानने के लिए अपने नखाग्रों का सहारा लेते देखे जाते हैं। कविता करुण-हृदय का भोजन ही तो है। कवि को चाहिए (पृ 18) में वह कवि की जरूरतों पर भी ध्यान देते है-कवि को दानी कर्ण नहीं/कर्णदानी चाहिए/मुक्तचित्त श्रोता /कि मुक्तहस्त लुटा सके वह सर्वस्व मुक्तकंठ। (यह पूरी कविता है)। लेकिन श्रोता को क्या चाहिए? मुझे याद हैं नयी कविता को ले कर सन् सत्तर के दशक की पत्रिकाओं में निकलने वाले सचित्र व्यंग्य जिनमें एक व्यंग्य बहुत आम था। कवि माइक पकड़े आत्मविभोर हो कर कविता सुना रहे हैं। कविता समाप्त होने पर जब वह आँख खोलते हैं तो केवल एक व्यक्ति को सामने बैठा पाते है। खुश हो कर जब वह उसे धैर्य से पूरी कविता सुनने के लिए शाबाशी देते हैं तो वह कहता है- “और लोग तो बहुत पहले ही जा चुके थेमैं इस इंतजार में बैठा हूँ कि मेरा माइक कब खाली हो और मैं उसे लेकर जाऊँ।“ श्रोता और पाठक को क्या चाहिए ज्ञानेंद्रपति जी यह नहीं बताते। ज्ञानेन्द्र जी की एक कविता है जहाँ न जाए रवि (पृ 19”। यह वाक्य-खण्ड कविता का शीर्षक भी है व उसकी प्रथम पंक्ति भी। देखें- जहाँ न जाए रवि/चूहे के बिल में/समा जाना चाहता है कवि/---अगहन के धान की बाल की तरह/ जिसे---चूहा ही ले जाता है खुश-खुश।“ कहावत हैजहाँ न जाए रवि वहाँ जाए कवि। किन्तु अगहन के बारिश के दिनों में कवि केवल चूहे के बिल में ही प्रवेश कर पाता है। उन दिनों अन्य बिलों में रहने वाले जीवों की क्या स्थिति होती होगी उसकी वह टोह नहीं लेता। देखने वाले तो यह भी देखते हैं की चूहों (दलित?) के बिलों से मजदूर धान की बालियों को निर्मम हो कर निकाल लेते हैं। अपनी इस कविता में संग्रह का कवि दुनिया को सुधारने का मोह पाले हुए है- दुनिया को धुनिया चाहिए एक  (पृ 21) कविता में कृतिकार, पाठक को प्रबोध देता है- दुनिया को धुनिया चाहिए एक/सबकुछ को जो धुन कर रख दे/कबीर-सा जुलाहा---/उधेड़े फिर बुन कर रख दे।“ अद्भुत है कवि का यह गुनना कि कबीर ने बनी बनाई रचना को उधेड़ा और फिर बुन कर रख दियाजैसा विज्ञान करता है। नहींकबीर का झीनी झीनी चदरिया बुनने का अनुभव उनकी अंतरानुभूति द्वारा प्रकृति की कोख में प्रवेश कर प्रकृति के आपूरण द्वारा जीवन बुनने का अनुभव है।

कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि इन कविताओं में कविता कम, पाठकों को कवि और कविता के संबंध में प्रबोधन अधिक है। आज साहित्यिक, राजनीतिकसामाजिक और धार्मिक हर कोने से आए दिन आवाज आती है कि हमारी संवेदनाएँ मर चुकीं हैं। मेरे देखे जीवन में संवेदनाओं को घना करने का दायित्व साहित्य पर, खासकर कवियों पर अधिक है। कवि की ये रचनाएँ हममें कितनी जीवंत संवेदना बुन रही हैं यह मैं सुधी पाठक की समझ पर छोड़ता हूँ।   

संग्रह की आरंभिक कविता में कवि अपनी कविता की प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी कविता चिड़िया के कंठ-स्वर में आई और उसके पखना के रूप में कोई संदेश छोड़ कर चली गई। कवि ने उस पखने का तलस्पर्श किया, उसमें कुछ बाँचा और उसमें कुछ स्फुरण हुआ। कुछ प्रबोधक कविताएं लिखने के बाद उसने सोचा- क्यों न कुछ निराला लिखेँ/इक नयी देवमाला लिखें---खल पोतें दुन्या पर एक ही रंग/ बैनीआहपीनाला लिखें– क्यों न पृ 20। प्रगति-प्रयोग काल में मुक्तिबोध व अज्ञेय कविता में छायावादी संस्कृति को बदल देने की ठान कर चले थे। हुआ क्या? नयी कविता में हृदय की आर्द्रता कम से कमतर होती चली गई। संवेदनाएँ क्षीजती चली गईं। फिर भी लगता है ज्ञानेंद्रपति जी में अभी भी वही संकल्प घूर्णित है। वह भी कुछ निराला लिखना चाहते हैं, एक नयी देवमाला (कविता की नयी वर्णमाला), चौतरफ अंधेरे का राज (समाज में फैले), एक तीली उजाला (जीवन में समरसता लाने की कोई दिखती उम्मीद) लिखना चाहते हैंजैसे विज्ञान अपनी स्थूल भाषा में श्वेत वर्ण में उपस्थित सात रंगों को बैनीआहपीनाला लिखता है। क्या बैनीआहपीनाला जैसे याददास्त के लिए बनाए शब्द काव्य की भाषा हो सकते हैं?

खैरकवि की कविता अब कवि से प्रतीक्षा नहीं कराती। कवि अब हर समय सजग रहता है।

ब उसे अहसास होता है कि उसकी ”अपनी ही कोई कविता/साँझ के किसी गाढ़े क्षण की तरह/बाहर-भीतर को घेर लेती है”” (अपनी ही कोई कविता पृ 36) ध्यान दें उसकी कविता उसे साँझ के गाढ़े क्षण की तरह घेरती है प्रत्यूष बेला की ऊषा की तरह नहीं। इस कविता की काया में निश्वास भरा है, जो जीवनेच्छा की उर्जा के क्षरण का द्योतक है। काश कवि अपनी कविता को ऊर्जा-क्षरण से मुक्त करा कर उसे प्रबल जीवनेच्छा के उच्छवास की ऊर्जा से भर देता।

कवि को अंधेरा बहुत प्रिय है- “अब इसी धूसर आकाश में/खुलेगी/अँधेरे की अंजलि---/जगेगी अमावस्या---अमावस्या के पास जितने तारे/उतनी, कवि!/ तेरी कविताएँ।”- इसी धूसर आकाश में(पृ 36-37)। अनुभव में तो यही आता है कि अँधेरा उजाले की अनुपस्थिति है। अँधेरे का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। सूरज ज्यों ज्यों अस्ताचल की ओर अग्रसर होता जाता है अँधेरा धरती पर फैलता जाता है। आँखों की ज्योति जाने पर जो अँधेरा जीवन में भर जाता है क्या अँधेरे के गीत गाने से वह पुन: प्राप्त हो सकती है? इसके लिए तो ज्योति के गीत गाने या आँखें प्राप्त करने की चेष्टा ही करनी होगी। विधायकत्व को अपनाना ही उचित होता है। कवि की कविताएँ विविधवर्णी हैं। उनमें से कोई कविता चमकती है/स्मृति की तरह, कल्पना की तरह/स्वप्न की तरह, भविष्य की तरह” जब वह पास होती है। दूरियों में कोई/--- चमकती है नदी की तरह, मरीचिका की तरह/कोई---चमकती है कि वहाँ खुल गई हो भाषाखुल गया हो आकाश/खुल गया हो समय/(ऐसे में मैं) एक विरवे की तरह बढ़ता हूँ ---/पाने को अपना ही फल कोई कविता चमकती है (पृ 39) इस कविता में कवि अपने को अपने में लीन एक कविताजीवी व्यक्ति की तरह प्रस्तुत कर रहा है। वह अपनी ही कविता की चमक से मंत्रमुग्ध है। यहाँ चमक शब्द ध्यातव्य है। चमक भौतिक तत्वों के बाह्य आवरण में होती है। इसमें गहराई नहीं होती। गहराई में तो बोध होता है, अनुभूति होती है। ये अपनी कविता में भविष्य की चमक देखते हैं। कौन सी चमकचेहरे पर आत्मानुभूति की ओप वाली या किसी प्रस्तुति में फेसक्रीम की लेप वालीवह सोचता है उसकी कविता को दूर से कोई देखे (पुस्तकों में पढे) तो उसे उसकी कविता में नदियों के सीने पर खेल रही लहरों की और मरीचिका में सूखी रेत की चमक दिखाई पड़े और वह चमक देख कर चमत्कृत हो जाए। उसे उसकी गहराई में उतरने की आवश्यता महसूस नही होती। कवि गुनता है कि ऐसी चमत्कृति पाने पर भाषा स्वत: खुल जाती है (मुँह से वाह! निकाल जाता है), खुला आकाश अपना हो जाता है, समय खुल जाता है (अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मिल जाती है)। और तब वह (कवि) एक विरवे (अंकुर) की तरह बढ़ने लगता है। अर्थात उसके अंदर संवेदना भरने लगती है-मनुष्य के बोध की या उसके जागतिक प्रसार कीनहींअपने ही कर्तृत्व (लिखी कविता) का फल पाने के लिए अर्थात उसकी लोक स्वीकृति या अस्वीकृति के फल की

इसके लिए कवि अपनी कविता की भाषा (पृ 45)  की भी बात करता है। अत: अपनी कविता के लिए प्रचलितत शब्दों में लिखी हुई भाषा को एक अभूतपूर्व भाषा की तरह देखता है। क्योंकि वह अनुभूतियों की भाषा है, यदि आवश्यक हो तो अनुभूतियों की कमियों को पूरा करने के लिए समतुलित भाषा को खोजने का भी काम करती है। यही भाषा कवियों के मुख से उच्चरित होती है जो मनुष्यों की भाषा होती है। प्रकारांतर से कवि काव्यभाषा को परिभाषित करता लगता है। संग्रह में कवि की कविताओं की भाषा सरल और जनसुलभ है।

कविता के शीर्षक की अनिवार्यता को ले कर कवि ने दो कविताएँ लिखी हैं जिसमे उसने अपना अनुभूत बताया है- “शीर्षक कविता का शीश है/फिर भी सबसे अंत में गढ़ा जाता है/हाथों में लिए भी/एक कदम पीछे हटकर”शीर्षक कविता का शीश है, (पृ 60,)। शीर्षक साफ झलकता है सामने फिर भी कविता पूरी होने के बाद ही उसे रचा जाता है ताकि उसमें कवि की अनुभूति अनुध्वनित होती प्रतीत हो। हालांकि कविता शीर्षक की बात’ (पृ 61) में वह यह भी अनुभव करता है कि अपना शीर्षक हाथ में लिए/कोई कविता प्रकट होती है कभी/छिन्नमस्ता नहीं, युक्तमस्ता” और “कभी ढूँढे नहीं मिलता/बन चुकी कविता का शीर्षक” लेकिन “कवि नहीं कह सकता नाम में क्या रखा है”। कवि ने इस संग्रह में अपनी कविताओं के जो शीर्षक दिए हैं वे संबन्धित कविता की पहली पंक्ति हैं। अगर कविताओं के शीर्षक को संख्या में क्रम दे दें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि प्रथम पंक्ति में ही उसकी अनुभूति संघनित है। उसे पाठक प्रथम पंक्ति को पढ़ कर ही पा लेगा। अब ये कविताएँ कविता की परिभाषा से कविताएँ हैं या कवितानुमा पंक्तियों में, कविता के संबंध में कविता रचनेवालों को कुछ सलाह है।

कवि अपनी कविता के सम्बन्ध में सब ब्योरा देता है- कविता उससे मिलने आती है, उसके लिए कुछ सँदेश छोड़ जाती हैशाम के किसी गाढ़े क्षण की तरह उसे बाहर भीतर घेर लेती है। वह उसका भरपूर आनंद लेता है पर वह कविता को किस तरह जीता हैकभी बताता नहीं। कुछ कविताएँ और कुछ कविताएँ ‘ (पृ 84) में वह कविताओं को लाने की तरह बताता हैं। यानी कविताएँ लाई जा सकती हैं- “कुछ कविताएँ तो मैं/खेतों से शकरकंद की तरह/खोद कर लाया”---“कुछके लिए मैं/कितना-कितना घूमा/ गोयूथों के पीछे-पीछे-----” लेकिन जो कविता वह इन विभिन्न तरीकों से लाया है, उन कविताओं का आनंद लेने के पात्र क्या उसके पाठक नहीं हो सकतेक्या उस आनंद की कोई झलक इन प्रस्तुत कविताओं में उन्हें नहीं मिलनी चाहिए?

कविता  लिखते  समय  कवि  की  दृष्टि  आलोचकों  की  तरफ  भी जाती है। कविता होगी तो आलोचक भी होंगे। जैसा आज का उनका परिदृश्य है, कवि के देखे उनका भविष्य का परिदृश्य भी वैसा ही होगा। कवि और आलोचक’ (पृ 86) कविता को देखें। इसमें वह महसूस करते हैं- “नेबुलर बादलों की तरह/ कविताओं का कुहासा है/ भविष्य के आकाश में/कवि के” अपनी दूरबीन से/इतना भर ही देख पाता है वह/माथा उठा” और आलोचक-“माथा झुका/अपनी खुर्दबीन से/ सबकुछ साफ साफ देखता आलोचक/--माथा घूमता है जिसका नभान्त ऊँचाइयों से।“ कविता करते-करते नहीं, कवितनुमा पंक्तियों में बातें करते-करते कवि कविता के प्राणों पर भी प्रहार करने लगते है। वह कवि के भविष्य के आकाश में नेबुलर बादलों की तरह कविताओं का कुहासा देखने लगते हैं। नेबुलर बादल वे बादल हैं जो किसी तारे की मृत्यु (सुपरनोवा) के समय होने वाले विस्फोट से उत्पन्न हुए गैसों और धूल से बनते हैं। कवि के विचार से कविताएँ किसी ऐसी ही मृत्यु के समय के उत्सर्जन है, जो पारभासक कुहासों की तरह कवि को घेरे रहते हैं (कवि की स्मृतियों में अथवा कल्पना में)। ये कवि के आर्द्र हृदय के स्फोट नहीं हैं। और आलोचक, माथा झुका कर खुर्दबीन से कविता में सबकुछ देख लेता है। लेकिन आश्चर्य, वह उस दृश्य को जो उसकी स्मृतियों से बंधी हैनहीं जानता। नभ की ऊँचाइयों की तरफ देखने से उसका माथा घूमने लगता है। भविष्य का यह आलोचक ऐसा होगा।

इस संग्रह की एक कविता का शीर्षक है- क वि ता दे’, (पृ 122) । यह शीर्षक चौंकाता है। हिन्दी में ऐसा कोई शब्द भी नहीं है। कविता को गौर से पढ़ने पर समझ में आता है कि पूरी कविता में चार अनुच्छेद हैं। प्रत्येक अनुच्छेद की प्रथम पंक्ति का पहला शब्द अक्षर ’, ‘वि’, ‘ता और दे से शुरू होता है। ये अक्षर मोटे टाइप में दिखाए गए है। मैंने ऐसी ही एक कविता अपने दो रिटायर्ड सीनियर प्रवक्ताओं की बिदाई में लिखी थी। उसकी विशेषता थीकविता की पहली पंक्ति का पहला शब्द एक प्रवक्ता के नाम के प्रथम अक्षर से शुरू हो तो दूसरी पंक्ति का पहला शब्द दूसरे प्रवक्ता के नाम के प्रथम अक्षर से शुरू हो। और इस तरह कविता पूर्ण होते होते उन दोनों प्रवक्ताओं के नाम एकांतर क्रम से आ जाएँ। पर यह कविता अपने शीर्षक से किस विशेषता को ले कर जुडी है सीधे तौर पर समझ से परे है। हाँइस कविता के प्रत्येक अनुच्छेद इन अक्षरों से प्रारम्भ होते हैं। यह कोई रचना कौशल नहीं कहा जाएगा।  

प्रथम अनुच्छेद की प्रथम पंक्ति ’ से शुरू होती है। - कवि को रोज की तरह कुछ काम करने थे- रने थे कुछ काम” फिर आराम। लेकिन सुबह जागते ही, बिस्तर पर ही आँखें मूँदे-मूँदे उसने तय किया कि आज लिख ही डालेगा वह कविता जो कई दिनों से उसके भीतर पक रही थी- “लेकिन सुबह की आँख खुलते ही/विस्तरे पर आँखें मूँदे-मूँदे ही/तय किया मैंने कि आज लिख ही डालूँगा वह कविता/जो पक रही थी दिनों से भीतर ही भीतर/बिम्ब फलों की तरह-।” कभी कविता का इंतजार कभी उसका भीतर ही भीतर पकना!

दूसरे अनुच्छेद की प्रथम पंक्ति वि से शुरू होती है। कवि वह कविता लिखने ही वाला था कि विहान हो गया। और विहान होने के साथ ही उसे एक अशुभ समाचार मिला-विहान के साथ ही आई खबर/कि न रहीं मेरे गंऊवाँ की घरनी” वह सीधे अस्पताल पहुँचा। वहाँ से घरनी के शव को लेकर श्मशान गया। उसके मन में अपनी घरनी के लिए इतना ही दुख जगा कि वह एक कागज की चिड़िया की तरह हल्की हो गई थी।“ केमोथेरेपी ने केशों के साथ भष्म कर दिए थे राग-द्वेष” मानो घरनी के साथ उसका राग के साथ द्वेष भी था जो उनके केशों तक ही सिमटे थे। पत्नी के रहते उनके प्रति अमूर्त राग और द्वेष की क्या स्थिति थी कविता में नहीं खुलती। बस इतना पता चलता है कि राग-द्वेष के भष्म हो जाने के बाद भी “धीर बंधाने में चुकता लगा धीरज तब भी” इतना दुख से भर गया था कवि! इस कविता में इस पंक्ति का गठन विचारणीय है- “कि न रहीं मेरे गंऊवाँ की घरनी” । मेरे गंऊवाँ (कोई व्यक्ति?) की घरनी या मेरी गंऊवाँ की (गाँव वाली) घरनीइस पंक्ति से यह भी ध्वनि निकलती है की एक घरनी शहर में भी होगी।    

तीसरे अनुच्छेद का पहला शब्द ता से शुरू होता है। उस दिन का दिन तातल था अर्थात दिन धूप से ताप रहा था। “तातल दिन के संताप को---“ लिए कवि कवि श्मशान घाट से आकरनहा-धोकर आराम कर ही रहा था कि घंटी बजी। जा कर देखा तो वह एक दोस्त था जो मुद्दतों बाद मिला था। दोनों गले मिले। फिर निकल पड़े सैर को पैरों को लिए (यह पंक्ति हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल नहीं है)- फिर हम निकल पड़े पैरों को लिए सैर को” दिन भर घरनी के न रहने का दुख कैसा रहा पता नहीं।

चौथा अनुच्छेद दे अक्षर से शुरू होता है। कवि दोस्त के साथ सैर कर “देर रात लौटा---।“ दरवाजा खुला तो उसे नहीं लिखी गई कविता की याद आई जिसे भविष्य की कविता होनी है। उसे लगा जैसे दवाजा उसी ने खोला हो- “ऐसा लगा, दरवाजा उसी ने खोला हो सुधीर/खुशआमदीद कहती हुई”। किन्तु उस मौन आवाज  में  कोई  उलाहना  नहीं  थी- “और  उसकी अध्वनित आवाज में कोई उलाहना नहीं थी”

प्रथम और दूसरे अनुच्छेद में वर्णित घटना मार्मिक है। अपने अंदर

उमड़ी वेदना को कवि ने जो वाणी दी है वह उसके दुख की सीमा को बताती है – विहान के साथ ही खबर आई/नहीं रही गंऊवा की घरनी” और “ओह! धीर बंधाने में चुकता लगा धीरज तब भी” किन्तु इस पंक्ति के अंतिम दो शब्द दुख की गुरुता को कम कर देते हैं। “तब भी याने घरनी के कैंसर से पीड़ित होने, कागज की चिड़िया की तरह हल्की हो जाने और केमोथेरेपी के कारण उसके केशों के भष्म हो जाने के बाद भी धीरज धीर बंधाने में चुकता लगा। याने ये तत्व धीर बंधाने में पर्याप्त नहीं थे। यह बात कुछ अनोखी है, समझ से परे है।

कविता के संबंध में कवि और भी बहुत सी बातें करता है- पर तुम नहीं जानते/कविता का काम तुम्हारे बगैर नहीं चल सकता”तुम्हारा काम: कविता का काम’ (पृ 132)। कवि जैसे किसी कविहृदय को सूचना दे रहा है या आगाह कर रहा है। वह कविता सड़क से भी उठाता है जैसे कोई सड़क से सिक्का उठाता है। कविता के संचय की प्रवृत्ति है उसमें।

इन छोटी कविताओं में अपनी ही प्रतिच्छवि” (पृ140) कविता बार बार मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट हरती है। इसलिए नहीं कि यह एक उत्कृष्ट कविता है, वरन इसलिए कि इसमें एक विशिष्ट युग-सत्य को उद्घाटित किया गया है- वह है समकालीन कवियों का सत्य। “कवि कौन कहे कविराज थे वे कब से/अब तो राजकवि हैं/अपनी ही प्रतिच्छवि हैं/बुझे हुए रवि हैं-नाम वही है, दाम सही है/सफलता की राह यही है”। यहाँ नाम, दाम और सफलता की राह को बताने की जरूरत नहीं है। इसकी तो पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर चर्चा होती रहती है। “एक कविता उठाता हूँ,’ (पृ 179) कविता में वह महसूस करता है कि सृष्टि की हर पगडंडी पर और हर छोटे-बड़े प्राणी में कविता की स्थिति है। लेकिन इस कवि के लिए कविता झलकती है। वह पगडंडी पार करते कीड़े को अपनी पीठ पर अनंत आकाश उठाए चलता महसूस करता है। वह उससे कहता है- “दिखती दुनिया में अनदिखती अपनी दुनिया में जाओ/अपनी झलक में झलकती कविता/सौंप कर मुझे, वही, पृ 180। कवि की दृष्टि में कविता झलकती है।

आज के समय में कविता की जगह कहाँ है इसका भी जिक्र किए बिना उससे नहीं रहा जाता। कहता है - “साप्ताहिक में/स्तम्भित है कविता एक ओर---/वही कविता कोना है हृदय का कोना”साप्ताहिक में,’ (पृ 181) । सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय तारसप्तक के कवियों को कविता की राहों के अन्वेषी मानते हैं। ज्ञानेंद्रपति जी कहते हैं- “कविता का रास्ता तो/ बना-बनाया होता नहीं” लेकिन वन में घास-पात, झाड-झंखाड़ में– “जिधर भी दौड़ जाए आतुर मृग (कवि)/बन जाता है मार्ग” (कविता का)। उसी तरह –“भाषा के भावकुल विस्तार में/कविता के धावक पैरों के आगे नहीं पसरी होती/पीछे छुटती”- कविता-विपथ पृ 181। लेकिन कविता की इन उपमान पंक्तियों की “कविता के धावक पैरों“ पंक्ति-खंड ने मुझे उलझन में ड़ाल दिया। क्या के यहाँ अनुपयुक्त नहीं लगता?

मेरी समझ में कविता को लेकर लिखी गई इन तमाम कविताओं में कविता के संबंध में ही बातें की गई हैं। कहीं प्रबोधन है तो कहीं सलाह। कहीं कविता की जगह कहाँ है, की बात की गई है तो कहीं कविता की राहों के अन्वेषी होने से असहमति व्यक्त की गई है। उसके अनुसार कवि में संवेदना भरी उद्भावना जग जाए तो कविता अपनी राह स्वयं बना लेती है। कहीं कविता कवि को बुलाती सी प्रतीत होती है तो कहीं संध्या के क्षणों की तरह कवि को घेरे लगती है। इनमें कविताएँ  अप्रस्तुत हैं, शब्द में भी भाव में भी। हृदय अनार्द्र रह जाता है।

विता भविता में कवि ने अन्य विषयों को ले कर भी कविताएं लिखी हैं। ये कविताएँ सामान्य ढंग की सामान्य विषयों को लेकर लिखी गई हैं। कुछ मत्वपूर्ण भी हैं। उनके लिए एक अलग फ़लक की आवश्यकता होगी। इसमें कुछ लंबी हैं, कुछ मँझोली तो कुछ छोटी भी। पर यहाँ मैंने कवि की कविता को लेकर लिखी गई कविताओं पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया है। 

संग्रह के अंत की दो कविताओं में कवि ने अपना परिचय दिया है कुछ अनोखे ढंग में। न-कुछ (पृ 190) शीर्षक कविता में वह कहता है-“ मैं कोई दिग्गज तो नहींदिशासीन/दिशान्वेषी एक पक्षी हूँ/हवारोही—हलका-फुलका उड़ता-उधियाता/मुझसे नहीं टकराओगे---/समय के ओसावन में/उड़ जाऊंगा मैं/सुबह की ओस-सा/मेरा न होना/आकाश के न होने की तरह बच रहेगा---तुम्हारी रिक्तता में, तुम्हारी मुक्तता में।“ कवि लोगों को समझा रहा है कि वह कोई दिग्गज तो नहीं है जिसकी समाज में अधिक मान्यता है पर वह दिशाओं पर आसीनदिशाओं की खोज में तत्पर एक पक्षी (जैसा) है, हलका फुलका, हवा पर आरोहण करने वाला उड़ता, उधियाता। पक्षी चाहे हलका हो या भारी उसके हवा पर आरोहण के लिए उड़ना आवश्यक है लेकिन उधियानाउधियाने में पक्षी का अपने ऊपर नियंत्रण कहाँ रह जाता है। जबकि आरोहण के लिए अभियानी (यहाँ कवि) को अपने ऊपर नियंत्रण होना चाहिए। शक्तियों- सत्ता या किसी और- की झोंक में उधियाते कवि की क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना ही की जा सकती है। और दिशा की खोजकैसी और किस? कविता कीकविता की खोज में उधियाता कवि किसी कोलंबस की तरह समुद्र की लहरों के झटका खाता आकाश के जिस भी किनारे से लग जाएगा उसे ही कविता का होना मान लेगा, जैसे इंडिया की खोज में चला कोलंबस अमेरिका को ही इंडिया मान लिया था।

कवि, कविता के रूप (चमक) से ही अधिक परिचित लगता हैं उसकी आत्मीयता से नहीं। वह इस कविता के माध्यम से लोगों को चेताना भी चाहता हैं। मुझे पढ़ने वालों मुझसे टकराना नहीं। मुझसे टकराओगे तो मैं समय के ओसावन में वैसे ही उड़ जाऊंगा जैसे सुबह की ओस। ओसावन कृषि-कर्म में प्रयुक्त होने वाला शब्द है। धान या रवि की फसल से दानेवाले गुच्छे (बाली) अलग कर देने के बाद उसकी दवनी कर उससे भूसा निकालने के लिए सूप जैसे उपकरण से उसे ओसाया जाता है। इससे भूसा उड़ कर अलग हो जाता है और खालिस दाने अलग हो जाते हैं। (इसके लिए सूप में भूसा समेत धान या गेहूं रख कर उसे दोनों हाथों से सिर के पास तक लेजाकर और सूप को नीचे की तरफ तिरछा कर हवा का रूख देख कर गिराया जाता है। भूसा सहित धान या गेहूं नीचे गिरता है और हवा के बहने से भूसा (निस्सार तत्व) उड़ जाता है और धान या गेहूं (सार तत्व) अलग होकर नीचे गिर जाता हैं।) समय के ओसावन में क्या ओस की बूंदें इसी प्रक्रिया से उड़ती हैं या वे धूप की गर्मी से वाष्प बन उड़ जाती हैं। दुनिया बने या बिगड़े ओस के बनने या उड़ने की प्राकृतिक प्रक्रिया हमेशा एक सी जारी रहती है। और ओसावन तो मानुषिक प्रक्रिया है। यह उपमा सटीक नहीं लगती। प्रगति-प्रयोग काल के या समकालीन कवि भी उपमा-उपमान में स्वाभाविकता बनाए रखने पर ध्यान नहीं देते। कवि या कविता क्या निस्सार तत्व हैं?

अपने ओस की तरह उड़ जाने को कवि आज की भाषा में अपने न होने  की तरह व्यक्त कर रहा है। कवि से

कोई उसकी कविता के माध्यम से ही टकरा सकता है। आज की आलोचना को देखिए तो हर आलोचक कविताओं से या तों टकरा रहा है या मुठभेड़ कर रहा है। इस संग्रह में कवि पहले से ही सतर्क है। कोई उससे टकराए नहीं, नहीं तो वह न हो जाएगा। अजीब चुनौती है- तुम टकराओगे तो मैं अदृश्य हो जाऊंगा पौराणिक पात्रों के जैसेकदाचित उसके न होने से उसका तात्पर्य कविता के न होने से हो। क्योंकि एक पीढ़ी के कवि जाते हैं तो अगली पीढ़ी के कवि आ जाते हैं कविता करने के लिए। वह संकेत दे रहा है कि मैं भले ही न हो जाऊँ लेकिन आश्वस्त रहो मेरा न होना’ आकाश के न होने की तरह तुम्हारी रिक्तता में, तुम्हारी मुक्तता में बच रहेगा। रिक्तता में बच रहना तो समझ में आता है पर मुक्तता में? मुक्तता में कैसे बच रहेगा। मुक्ति तो व्यक्ति की अपनी विशेषता है।

बच रहना आज कल हिन्दी कविता-लेखन या आलोचना में एक मुहाबरे की तरह व्यवहृत हो रहा है। इस बच रहने से कवि का क्या आशय हो सकता है? कवि के बच रहने से क्या होना जाना है? हाँ कविता के बच रहने का मूल्य अवश्य है। लोक-कवि आज लोक में बचे हुए नहीं हैं पर उनकी लोक-कविता आज भी लोगों के दिलों में झंकृत हो रही है। इसका मनोहारी दृश्य आज भी खेतों में रोपनी के समय या उनके त्योहारों के उल्लास में देखा जा सकता है। छठ महापर्व के इस गीत में तो महाकवि कालिदास भी विस्मृत हो जाते हैं-

केरवा जे फ़रेला घवद से,

ओपर   सुग्गा   मेंडराय,  ओपर---

मरबों रे सुगवा  धनुख से

केरा    दीहे    जूठीआय,  केरा----

सुगवा जे मरलो धनुख से,

सुग्गा    गिरे   मूरूछाय,  सुग्गा----

सुगनी जे रोएले वियोग से,

आदित  होहू  ना  सहाय।  आदित---

कवि के बच रहने की बात तो यहाँ माकूल नहीं ठहरती।

संग्रह की अंतिम कविता “अलविदा में हिलता हाथ” (पृ 191) में कवि अपने संबोध्य से कह रहा है- मैं “अलविदा में हिलता हुआ हाथ हूँ।“ चाहे जिस दशा में तुम रहो- “हाथ हिलाओ/ या नहीं /या अपने में खोए रहो मैं “दूर होता हुआ भी तुमसे मुखातिब” हूँ/-“आखिर को शब्द नि:शब्द हो जाते हैं/-अर्थ आजाद हो जाता है-तुम्हारी साँसों में शामिल”। यह तुम संबोध्य कौन है? कवि किसको अलविदा कह रहा है? क्या पिछली कवि-पीढ़ी को? या अपनी ही कविताओं को या वह अपना एक विशिष्ट परिचय दे रहा है। सामान्य अर्थ तो यही हो सकता है कि तुम आए, मेरे साथ ठहरे, दिल खुश हुआ, अब जा रहे हो, अलविदा। पर जिस ढंग से यह अलविदा कहा रहा है इसमें कवि की बेचारगी झलकती है- जाओ, तुम्हें जाना ही है। अलविदा। अब मैं अलविदा में केवल हिलता हुआ हाथ भर रह गया हूँ। तुम मेरी तरफ मुड़ कर देखो या नहीं, हाथ हिलाओ या नहीं, भले ही अपने में खोए रहो, मैंने जो शब्द तुम्हें दिए अब वो आकाश हो कर तुम्हारी साँसों में शामिल हो गए हैं। इस आकाश से तुम्हारी हमारी निरंतरता बनी रहेगी। हो न हो कवि अपनी कविताओं को नहीं, पिछली कवि-पीढ़ी को अलविदा कह रहा है। और एक ढंग से अपना परिचय भी दे रहा है कि वह इन कविताओं को लिख कर बहुत आह्लादित महसूस नहीं कर रहा है।

कवि की कविताओं के सर्वदिक प्रस्थान की देहरीदीप की घोषणा मुझे कहीं भी फलित होते नहीं दिखी। कविता में सर्वदिक प्रस्थान के आयाम असीमित होते हैं।                             

30-04=21