Sunday 29 December 2013

मौसम बदलेगा



ई- पत्रिका अनुभूति में प्रकाशित नचिकेता की कविता क्या मौसम बदलेगा पर एक प्रतिक्रिया

मौसम तो बदलेगा ही
उसे अनुकूलता की प्रतीक्षा 
नहीं होती.  

पक्षी चहकेगें ही
उन्हें चहकने के लिए
किसी की अपेक्षा 
नहीं होती.

मउराए अंकुरों में भी
हरीतिमा आएगी
बस प्रकृति की निकटता भर
पाने की देर है
पर मित्र ! हम तो
अपेक्षाओं के पुलिंदे हैं
इनमें एक जबतक हरी हो 
दूसरी मउरा जाती है.

मौसम तो बदलता है
हमारी अनुभूति में

प्रकृति के आँगन में
सूरज का उगना और डूबना
प्रकृति के तुक हैं
पर इनके प्रतिसंवेदन
और सिहरन
हमारी अनुभूति में ही सरक 
व द्रवीभूत होकर
हमारे होते हैं

सूरज की अरुणाई में खोए हम
दरअसल हम्हीं
सूरज को उगाते और डुबाते हैं

मौसम तो बदलेगा ही

जरा सोचें 
क्या नए मौसम को
अपने में समोने के लिए
हमारे भीतर की ग्रहणशीलता
उर्वर है.



                  



              

Sunday 22 December 2013

राजनीति की दिल्ली दिल्ली की राजनीति-2

दिल्ली की राजनीति

कभी दिल्ली राजनीति की थी, आज राजनीति दिल्ली की है. राजनीति का दिल्ली का होना प्रारंभ होता है सन 1947 ई से पं जवाहर लाल नेहरू के स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री बनने के साथ. सत्ता हस्तांतरण के समय भारत के प्रधानमंत्री के लिए सरदार बल्लभभाई पटेल और राजगोपालाचारी चुने गए थे पर गाँधी जी के कहने से इन लोगों ने जवाहर लाल के पक्ष में अपने नाम वापस ले लिए. वह इस पद को पाने के लिए बहुत आतुर भी थे. उनकी यह आतुरता इस घटना से प्रकट होती है. भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के प्रश्न पर गाँधी ने अल्टिमेटम दे दिया था कि यह बँटवारा उनकी लाश पर होगा. पर सत्ता हस्तांतरण में देरी होते देख जवाहर लाल ने उनके इरादे की अनदेखी की. बाद में पटेल भी उनसे सहमत हो गए. नेहरू डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भारत गणतंत्र का (26 जनवरी 1950 को) प्रथम राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में भी नहीं थे. सन 1955 में तो उन्होंने 'प्रसाद' की उम्मीदवारी का बाकायदा बिरोध किया. पर राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे दमदार लोगों के जबरदस्त बिरोध के आगे उनकी एक नहीं चली. असल में जवाहर लाल नहीं चाहते थे कि सरकार में उनके कैलिबर का कोई व्यक्ति हो. भीमराव अंबेडकर जैसे कुछ को अपने मंत्रीमंडल में ले भी लिया था उन्होंने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. जयप्रकाशनारायण की स्वतंत्र विचारधारा भी उन्हें पसंद नहीं थी. जवाहरलाल के अंकुश से असंतुष्ट होकर सी. रीजगोपालाचारी ने भी कांग्रेस से अलग होकर अपनी ''स्वतंत्र पार्टी'' बना ली. देखने लायक है कि ये लोग कांग्रेस के प्रभावी सदस्य थे. अंबेडकर तो संविधान निर्माता ही थे. उस समय के अखबारों में अक्सर चर्चा होती रहती थी कि नेहरू सम्राट अशोक बनना चाहते है. पंचशील का सिद्धांत देकर और अमरीका और रूस को करीब लाकर वह यही संकेत देना चाहते थे. इसमें कोई संदेह नहीं कि नए भारत की आधारशिला नेहरू ने ही रखी पर इससे जितनी उनकी अपनी छवि चमकी उतनी देश की सूरत नहीं बदली. सन 1962 के चीनी हमले ने उनके नेतृत्व में मजबूत हुए भारत की पोल खोल दी. चीन की सीमा पर केवल लाठी-भाला लिए सैनिक तैनात थे. चीनी हमले का सामना करने में अपने को असमर्थ पा उन्हें अमेरिका से सहायता की याचना करनी पड़ी. इसके पहले पी.एल-480 के लिए वह देश को परमुखापेक्षी बना ही चुके ही थे. दुनिया में और देश में उनका नाम तो खूब चमका पर उनकी चमक देश की जनता में बल और स्वाभिमान का संचार नहीं कर सकी. उलटे देश के सामने एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो गया कि ''नेहरू के बाद प्रधानमंत्री कौन''. अह! दिल्ली की राजनीति ने भारत को एक निरीह चेहरा दे दिया.

किंतु लगता है दिल्ली ने इसे महसूस किया. उसकी राजनीति ने थोड़ी करवट ली. उसने उहापोह में ही सही भारत के प्रधानमंत्री के लिए एक ऐसे व्यक्ति को चुना जिसने एक छोटी सी रेल-दुर्घटना पर रेलमंत्री के पद से तत्काल इस्तीफा दे दिया था. इस नेहरूभक्त की कद छोटी थी. नेहरू के ग्लैमरस व्यक्तित्व से कोसों दूर यह धोती कुर्ता टोपी पहननेवाला एक सीधा और सरल व्यक्ति था. पर उसमें कुछ कर गुजरने का अपार हौसला और छाती में बेशुमार बल था. यह मन से लौह-इरादेवाला था. किसी भी तरह की सहायता के लिए दुनिया के सामने हाथ पसारना उसे स्वीकार नहीं था. यह थे देश के स्वाभिमान से लदे फदे लालबहादुर शास्त्री. सन 1964 ई. के पाकिस्तान के हमले का इन्होंने डटकर मुकाबला किया. धोती पहने ही वह लाहौर पहुँच गए. देश के स्वाभिमान को जगाने के लिए उन्होंने ''जय जवान जय किसान'' का नारा दिया. उन्होंने देश की जनता से प्रतिज्ञा कराई कि घर के आसपास कोने-काने में जो भी जमीन हो उसमें हम गेहूँ उगाएँगें और उसे ही मिल बाँटकर खाएँगे. किंतु इसके लिए अपना हाथ नहीं पसारेंगे. उनके इस कदम से पूरे देश में बड़े जोरों से यह चर्चा चल पड़ी कि जो काम जवाहर लाल नेहरू ने अपने शालन के अठारह साल में नहीं कर सके उसे लाल बहादुर शास्त्री ने अठारह महीने में कर दिखाया.

इस नाटी कद की असाधारण प्रतिभा ने देश की जनता में जिस बल और स्वाभिमान का संचार किया वह आजतक कायम है. पर राजनीति के नशे में डूबी दिल्ली ने, लगता है उसे एकदम भुला दिया है.
                                                                           क्रमशः      

Monday 16 December 2013

राजनीति की दिल्ली, दिल्ली की राजनीति-1

राजनीति की दिल्ली

दिल्ली महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ नाम से जानी गई जब पांडवों ने खांडवप्रस्थ को इसी नाम से अपनी राजधानी बनाई. ग्यारहवीं सदी में राजा अनंगपाल ने संभवतः इसे दिल्ली नाम दिया. तेरहवीं सदी से सोलहवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक यह सल्तनत काल की राजधानी रही. बाबर ने मुगल शासन की स्थापना इसी दिल्ली में की और इसे अपनी राजधानी बनाया. दिल्ली के दुर्भाग्य से अकबर ने कुछ समय के लिए अपनी राजधानी आगरा को बनाया. पर शाहजहाँ ने इसे पुनः दिल्ली में प्रत्यावर्तित कर दिया. और तब से आजतक यह दिल्ली हमारी राजधानी है. इस दिल्ली को मैं राजनीति की दिल्ली इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि मगध के बाद देश की सारी राजनीति हमेशा यहीं से डील होती रही है. 

स्वतंत्रता की प्राप्ति के पूर्व तक दिल्ली राजनीति का ही हो के रही. यह राजनीति थी सत्ता को हथियाने, राजाओं की प्रभाव-सीमा को बढ़ाने और उनके अपने निजी हित को साधने की राजनीति. तब राजनीति प्रजा के हित के नाम पर नहीं की जाती थी. इसका चरित्र अधिनायकी था. पांडवों को इंद्रप्रस्थ (आज की दिल्ली) सत्ता के घरेलू झगड़े के समाधान में मिली थी राज्याधिकार के रूप में. अनंगपाल से लेकर बहादुरशाह जफर तक की राजनीति का आधार यही था. इस राजनीति में यह मान लिया गया था कि राजा का कर्तव्य ही है प्रजा की रक्षा और उसका हित करना. इसमें सत्ता उत्तराधिकार में मिलती थी. कभी कभी उत्तराधिकार के लिए जोड़ तोड़ में सशस्त्र विद्रोह किए जाते थे. अंग्रेजों ने राजनीति की दिल्ली को करवट लेने पर मजबूर कर दिया. अब इसका चरित्र सामंती हो गया. इसमें एक नए तत्व का प्रवेश हुआ- आजादी का. इसके लिए अंग्रेजों के विरुद्ध सामंतों ने विद्रोह की अगुआई की. पर यह केवल सामंतों का विद्रोह नहीं रहा. इस विद्रोह में सामंतों को एक नया आयुध हाथ में लेने को बाध्य होना पड़ा. वह आयुध था जनता का सक्रिय सहयोग. अबतक शासक ही राजनीति किया करते थे. लेकिन अब राजनीति का चरित्र सामंती नहीं रह गया. अब दिल्ली ने स्वयं ही राजनीति करना शुरू कर दिया. भारत के गणतंत्र घोषित होते ही दिल्ली की राजनीति खुलकर सामने आने लगी.
                                                                        आगे भी.....





Friday 13 December 2013

अपने पलों के अंतरिक्ष में

      मेरे अप्रकाशित
  'काव्य-पल' का एक पल

  प्रिये
  इसका बोध तुम्हें भी है कि
  जीवन की उमस में
  असबस होते रहकर भी
  एक दूसरे को समझने की
  हमारी समझ में
  कभी व्यतिक्रम नहीं हुआ.

  बीमारियां आर्इं
  आर्थिक थपेड़े झेलने पड़े
  कुछ उलझनों ने
  हमारे बीच दरारें भी डालीं
  हमारी अलग जीवन शैलियों ने
  हमें किनारों पर डाल दिया
  पर जीवन-प्रवाह की प्रचंड धाराओं की
  अलग अलग चोटें सहते भी
  परस्पर समझने की अपनी समझ को
  हमने न टूटने दिया न बिखरने.

  इस समझ से
  अणुओं के अंतरस्थ आकाश की
  दूरी पर सिथत
  विकर्षण के तनावों को झेलते हमने 
  अपने भीतर की
  और एक दूसरे के भीतर की भी
  करुणा को समझा.
 
  मेरे अंतर्मन को समझकर
  तुम्हारी करुणा ने
  मेरे प्रति तुम्हारे बोध को
  किस तरह कितना भिंगोया
  मैं नहीं जानता, पर
  तुम्हारे असितत्व की तरंगों में मैं
  कुछ विधायी अवश्य अनुभव करता हूं
  हां तुम्हारे असितत्वगत बोध से
  मेरी करुणा
  मेरे पोर पोर में जाग गर्इ है
  अणुओं के अंतराकाश के
  तनाव का अवबोध
  अब संसक्ति का बोध हो गया है.

  फिर भी
  समय के अपद्रव्यों ने
  अभी हमें अपना नहीं होने दिया है
  आओ, कुछ पल
  समय के प्रवाह में तिरें
  कुछ अपना हो लें.