Wednesday 25 November 2020

संस्कृत प्रार्थना का अर्थ

 



संस्कृत में एक प्रसिद्ध प्रार्थना है--

त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव

त्वमेव विद्या च द्रविण त्वमेव

त्वमेव सर्वम् मम देव देवं।।

एक चिंतक की इस पर टिप्पणी है कि इस प्रार्थना में ईश्वर को वरीयता क्रम में पहले माता फिर पिता, बन्धु, सखा, विद्या और अंत में धन कहा गया है। जबकि धन पहले होना चाहिए क्योंकि धन ही सबको प्रिय है।
इस संबंध में मेरी दृष्टि है--
इस श्लोक की आपकी व्याख्या तर्कसंगत लगती है। तर्क की नियंता बुद्धि है। और बुद्धि मन से आगे नहीं जाती। मन ही विवाद पैदा करता है। क्योकि तर्क के आयामों को अपने अनुसार बदलने का बुद्धि के पास अवसर होता है। इस श्लोक की, आपकी बुद्धि ने आपके मनोनुकूल व्याख्या कर दी जैसा आपके मन का आग्रह था। आप संतुष्ट हो गए और दूसरों पर व्यंग का प्रहार कर दिया।
जरा ओशो के आलोक में सोचिए।
भारतीय मनीषा ने चार पुरुषार्थ माने हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। ओशो ने इनके उत्तरोत्तर महत्व के अनुसार ये क्रम दिया है- अर्थ, काम, धर्म, मोक्ष। आपको भी यह क्रम भाएगा क्योंकि संसार की शुरुआत 'अर्थ' अर्थात धन से ही होती है। आप इस व्याख्या में कह भी रहे हैं- धन ही सर्वप्रिय है। मनुष्य की आरंभिक आवश्यकता धन ही है- रोटी, कपड़ा, मकान के लिए। इस आकांक्षा की पूर्ति वह भीड़ में भी कर सकता है। लेकिन गृहस्थी बसाने के लिए उसे अनेक से दो (द्वैत) में सिमटना पड़ेगा। याने 'अर्थ' से 'काम' में जाना पड़ेगा, प्रेम और संतानोत्पत्ति के लिए।
काम का असंयत उपयोग अशांति ला सकता है। आज अर्थ और काम के असंयत उपयोग से समूची पश्चिमी सभ्यता अशांति के अतिरेक में जी रही है। शांति की चाह में आज वह भारतीय ध्यान और योग की तरफ वह बुरी तरह आकर्षित हो रही है। भारतीय धर्म की आलोचक होने पर भी उसका आकर्षण इसके प्रति कम नहीं है। उनके अशांत मन में शांति की कामना ही उसे भारतीय ध्यान की ओर ठेल रही है। शांति के लिए ध्यान में भीड़ में रह कर भी एकांत अनुभूति का अभ्यास कराया जाता है। ध्यान धर्म का हिस्सा है, धंधेबाजों के धर्म का नहीं, अपने स्वभाव में स्थित धर्म का। और फिर अपने शरीर के अणु अणु को जागरित कर लेना ही मोक्ष में स्थित होना है।
तो अर्थ से श्रेष्ठ काम, काम से श्रेष्ठ धर्म और धर्म से श्रेष्ठ मोक्ष। भारतीय चिंता साधक को पहले श्रेष्ठतम की ओर आकर्षित होने को कहती है ताकि निम्नतम से अर्थात जहाँ वह है वहीं से आरंभ कर श्रेष्ठतम की ओर बढ़ने की लालसा उसमें बनी रहे।
ईसीलिए इस प्रार्थना में बच्चे से पहले परमात्मा की सर्वोत्तम स्थिति की याद दिलाई गई है। तुम्हीं सृष्टि का गर्भ (माता) हो, सृष्टि का बीजदाता हो, सृष्टि का सहोदर और सखा हो, विद्या भी हो धन भी हो। धन में ही हम जीते मरते हैं। संसार की पहली सीढ़ी धन है। जीवन की आखरी सीढ़ी परमात्मा है तो पहली सीढ़ी भी परमात्मा ही ह