7 जुलाई 2014 को 'रचनाकार' में प्रकाशित
अकेले की नाव अकेले की ओर - 3
अकेले की ओर
मित्र !
अंतरिक्ष की समाई हो
या परमाणु की कोख
इनमें मनुष्य का प्रवेश
बड़ी तीव्रता से हो रहा है
लेकिन यह संसार
उसकी मुट्ठियों में नहीं आ रहा
यह प्रतिदिन, प्रतिपल
उसकी उँगलियों के पोरों से
फिसलता जा रहा है
जीवन की धारा
उसकी पकड़ में नहीं आ रही
उसकी आँखों के सामने
उसकी चेतना के साक्षीत्व में
उसके अपने ही आवेग
उसके वश में नहीं.
वह आज का प्रत्येक क्षण
जी लेना चाहता है
पर क्षण का पूरापन
जिसमें आगत अनागत क्षणों का
नैरंतर्य भी गॅुथा है
वह अपनी दृष्टि की समाई में
समो नहीं पाता.
वह प्रत्येक क्षण रचनाशील है
और अपने सृजन को
आंदोलन का प्रकंपन देकर
लोगों के रोंगटे
सायास खड़ा करता है
और आत्मविमुग्ध
उद्वसित होता रहता है.
आश्चर्य
वह चिड़ियों से बात करता है
वनपाखी
उसके चित्त के संकलन में हैं
फिर भी वह प्रकृति से
उतनी ही दूर है
जितना स्वयं अपने आप से.
अपनी रचना में
वह बहुत कुछ रच लेता है
जिसमें उसका बुद्धि-प्रसार
और बहुपठित होने की झलक
टिमटिमाती है
फिर भी उसकी पूरी रचना
उसकी स्नायुओं में फिरते
तरंगाघातों के मेल में
नहीं होती
वह रचता तो है विद्रोह
पर रहता है
सुविधा की लय में लवलीन.
बाहर के आकाश में
उसकी उॅगलियॉ
पूजा की मूरतें उकेर लेती हैं
पर उसका अपना ही आकाश
सूना रह जाता है
वह अपने रीतेपन को
भर नहीं पाता
पर रचनाकार बनने के व्यामोह में
पंक्ति बनाते बनाते
स्वयं पंक्ति बन जाता है.
पंक्ति से हटकर चलना
उसकी अवधारणा में नहीं अॅटता
वह सोचता है-
‘‘चला होगा कोई पंक्ति से हटकर
कम रही होंगी उसकी चुनौतियाँ’’
पर मैं सोचता हूँ
धर दूँ निस्संकोच अपने आप को
आज की चुनौतियों की धार पर
और चल पड़ूँ अक्खड़ता से
पंक्ति से हटकर, कदम दो कदम
अकेले की नाव लिए
अकेले के पलों के साथ
अकेले की ओर.
2.
मित्र !
मैं तुम्हारे द्वार पर
जो मेरी प्रतीतियों में ही अधिक
प्रच्छन्न आभासित-सा है
सृष्टि के पलों को
अपने पलों के साथ जी रहा हूँ
मुझे पूरी तरह भान है
कि इन पलों की
और इन्हें भरपूर जी लेने की
अपनी अपनी सीमाएँ हैं
पर मेरे हृदय के आपूर्य आवेग ने
इन सीमाओं का ख्याल न कर
मेरे इन पलों को लंबाता
मुझे आगे ठेलता रहा है.
मैं अपने व्यक्ति की खिड़कियाँ खोले
हवा के स्पंदनों में
अपने स्पंदनों को ढूँढ़ते
और सर्वदिक बरसते
प्रकृति के करुणाजल से
अपने भीतर बाहर को भिंगोते
निरंतर आगे बढ़ता रहा
अपनी सीमाओं को
समय के प्रवाह में घिसता रहा
अपने ‘मैं’ को
अपने अंतर की चोटें देता रहा
पर मैं निस्पृह नहीं था
अनुकूल परिणाम की स्पृहा
मेरे मन में बनी हुई थी.
अपने पलों के साथ
मैं बहता रहा
पर इतना मैंने जरूर किया
कि इन पलों के प्रसरण
इनकी इयत्ता
और इनमें उद्बुद्ध जीवन-सत्ता को
मैं अपने ध्यान में जीता रहा
मैं इनसे पूरी तरह बाखबर था
फिर भी
न मालूम कब कैसा क्या हुआ
कि एक क्षण मुझे लगा
मेरी सीमाएँ पिघलने लगी हैं
मैं बॅूद बॅूद तिरोहित होने लगा हूँ
और तुम्हारी तरफ ढरकती हुई
मेरी चेतना-धारा
उलटकर मेरी तरफ बहने लगी है.
नाव अब भी मेरे अकेले की है
पल भी मेरे अकेले के हैं
पर वह धारा
अब मेरे अकेले की ओर
बह रही है
और मैं अकेला स्थितिमात्र हुआ-सा
अपने इस अंतःप्रवेश का
साक्षी-सा हो रहा हूँ
सृष्टि के पलों को
अपने पलों में जी रहा हूँ.
3.
मित्र !
अग्रसर हूँ मैं निरंतर
अकेले की ओर
अकेले की तरी व
अकेले का आवेग लिए
मेरे ये आवेग
मेरे भीतर से आपूर्य हैं
पर परिवेश की अंतःप्रकृति से भी
ये अजान नहीं हैं.
आज का परिवेश
कदाचित पर्यावरण कहना
अधिक युक्तिसंगत होगा
एक धुंध से भरा हुआ है
लोग इसी धुंध में
अपने स्वगत लक्ष्य का
संधान कर रहे हैं
उनके भीतर भी एक धुंध है
पर वह उन्हें
कोई दृष्टि नहीं देता
मेरे भीतर भी एक धुंध है
इस धुंध मे ही मैं
अपना अर्थ ढूँढ़ता हूँ
मुझे अपनी दृष्टि का
संधान मिलता है इस धुंध में
पर ऐसा भी नहीं है कि मैंने
अपने परिवेश से अपने को काट लिया है
परिवेश का आकर्षण ही तो
मुझे जीने का संघर्ष देता है
पर मेरा अपने केंद्र पर होना
संघर्षों में मेरे पैरों को टिकाव देता है
मैं अपने अकेले की ओर अग्रसर हूँ
बस अपने केंद्र पर होने के लिए
और अब मैं अपने केंद्र पर
होने लगा हूँ
और सच जानो इस होने में
मेरा हर पल
मेरी अंतर्बाह्य अनुभूतियों से
भावदग्ध है
मित्र ! मैं इन पलों को
भरपूर जी लेना चाहता हूँ
अपने पोर पोर में
इन्हें पी लेना चाहता हूँ.
आज अभिव्यक्ति के मोह का
थोड़ा संवरण करूँगा मैं
मन में एक भाव जगा है
कि मैं कुछ ठहरूँ
और अपनी चेतना के प्रवाह का
साक्षी बनूँ
अकेले की ओर के प्रयाण का
यह पहला पड़ाव है स्यात.
∙बीज संवेदन
पंछी से मैंने
सपनीले पंख माँगे
और मैं दिगंत में उड़ चला
मैं उड़ा और खूब उड़ा
उड़ने के साथ
मैं फैलता भी चला गया.
मेरी अनुभूतियों का दायरा
विराट होता गया
पर मैंने महसूस किया
मेरी बुनियादी उलझनो में
कोई कमी नहीं आई
मैं अशांत का अशांत ही बना रहा.
मैंने समझा
मैं विराट का छोर पकड़ने ही वाला हूँ
मगर देखा
विराट और विराट हो गया है
फिर बुद्धि मुझे टीसने लगी
अंतर का बल
जो मेरे पैरों के टिकाव का संबल था
( यह कविता मैंने ओशो को 24.7.1984 को रजनीशपुरम, ओरेगाँव, अमेरिका भेजी था. ओशो उन दिनों मौन में थे. मा आनंद शीला ने इसे उन्हें न दे स्वयं इसका उत्तर दिया.)
छीजता नजर आया
मेरा फैलाव मेरे अस्तित्व के लिए
संकट-सा लगने लगा
मैं अपनी सीमा को
खोना नहीं चाहता था
अपनी सारी गतिविधियों की
वर्जना न कर
मैंने उन्हें अपने ध्यान में ले लिया
फिर तो जैसे क्रांति घट गई
अगले क्षण अब मैं
दिगंत का विस्तार नहीं था
इस उलट क्रिया में
मैंने एक अजूबा देखा
और देखते ही ठक से रह गया
जितना ही गहरे उतरने लगा
उतना ही मैं ऊपर उठने भी लगा
ठीक एक जीवंत वृक्ष की तरह
तब से लगातार
मैं अपनी ही गहराइयों में
उतरता जा रहा हूँ
मगर ये गहराइयाँ
मुझे भयभीत नहीं करतीं
मेरे अकेले की यह उड़ान
मेरे अकेले तक की दूरियाँ
नापती जा रही है
दूरी बढ़ तो नहीं रही
पर दूरियाँ नप रहीं हैं.
2.
नदी के पुलिन पर पड़ा मैं
एक दिन
उसकी तली में वंकिम लेटे
शांत स्निग्ध जल से खेलती
सांध्य किरणों को देख रहा था
दिन की ढलान सुहानी थी
पलकें कुछ खुली कुछ बंद थीं
तन की शिराओं में
रक्त का प्रवाह
सहज सरल और आकंठ था
सामने
जल के अंतस्तल में
नभ की परतें
एक एक कर बीत रही थीं
इतने में
बादल का एक सफेद टुकड़ा
जो अब पीताभ होने लगा था
एक पत्र की तरह
मेरी आँखों में खुला
मैंने देखा
उसके एक कोने में
केसर रंग का एक पंछी
एक श्वेत पंछी के पंखों से
आशीर्ष आवरित
दिगंत की दिशाओं की टोह में
उड़ान भर रहा था.
मैं नहीं जानता
वह सफेद पंछी
जो एक सहयात्री-सा लहग रहा था
उस केसर पंछी की रक्षा में
कहीं साथ हो लिया होगा
अथवा प्रारंभ से ही उसके साथ था
पर यहॉ जो दीख रहा था
उसे देखकर मैं अचंभित था
बात ही अचंभा की थी
वह पंछी यद्यपि आवरित था
पर उसकी गतिविधि बता रही थी
वह दिगंत की उड़ान में
श्वेत पंछी के आवरण से अनजान
अकेला उड़ रहा था
दिशाऍ उसे लुभा रहीं थीं
इस लुभावन में
खुलती झिंपती दृष्टि लिए
वह आकाश में डोल रहा था
वह आवरण की उपस्थिति से अनभिज्ञ था
पर संकल्प का वेग उसमें पूरा था
उसके मुख पर
थकान के चिह्न नहीं थे
वह खोजी चित्त का
अथक प्रयासी लगता था.
उसकी अस्खलित उड़ान पर
मेरा मन
इतना रीझ गया कि
उसकी उड़ान में साथ हो लेने की
मुझमें भी साध जग उठी
मेरा मन केसरिया नहीं था
पर मेरी साध ने
मुझे भी उस उड़ान से जोड़ दिया
उस पंछी के साथ उड़ान भरने में
मुझे बहुत अतिरिक्त महसूस नहीं होता.
3.
कितना अच्छा होता
जब आकाश मेरी मुट्ठी में होता
और मैं आकाश की मुट्ठी में
मैं फूलों की खिलावट में खिलता
और फूल मेरी खिलावट में.
बैठे ठाले का धंधा लेकर
किसी दिन मैं ध्यान में डूबा
तो देखा
मेरे खिलने के साथ
सारी दुनिया खिल उठी है
ध्यान से जब उतरा
तो फिर से दुनियावी एहसास
मुझे छेड़ने लगे थे
फिर एक बार मैं
चतुर्दिक दबाओं, तनावों में
मुहरबंद हो गया था.
कितना अच्छा होता
जब मेरा खिलना
सहज सरल
और निरंतर हो पाता
मौसम की मारों में विकसनशील
ठीक उस फूल की तरह
जो प्रकृति की क्यारी में
प्रकृति की रसानुभूति पीकर
अंतरिक्ष में किलकारी भरता है.
कितना अच्छा होता
जब मैं भी
अपने गिर्द के मर्म को पीकर
किलकारियों की मर्मानुभूति को
जी पाता.
एक ऐसे क्षण का मैं गवाह हॅू
जिसमें कुंठा, घुटन, त्रास
और उमंगों को तोड़ते तनाव
ग्रंथियों की तरह घुलकर
अंतर्मनस के प्रवाहों को
सहज स्वाभाविक कर देते हैं.
कितना अच्छा होता
जब मैं
सहज सरल और
स्वाभाविक हो पाता.
4.
तुम्हारे और मेरे बीच
एक टुकड़ा दूरी का मुझे भान है.
मगर क्या ही अच्छा हो
यह दूरी
पत्थरों की नहीं फूलों की हो.
पथरीलापन मुझे पसंद नहीं
लेकिन यह सच है
कि मेरी भावनाऍ मेरे अनजाने ही
पथराना शुरू कर देती हैं
जब मेरी ऑखें खुलती हैं
वे पथरा चुकी होतीं.
कुछ अधखिले फूल भी
पंखुरियों में सिमट कर
पत्थरों के बन जाते हैं
क्या ही अच्छा हो
इन पत्थरों में ही फूल खिल आएँ
और पत्थर, पत्थर न रह कर
घाटी की ढलानों की निसेनी बन जाऍ
जो फूलों तक की पहॅुच को
अनिवार जोड़ते हैं.
मैंने सुना है
पुरानी गवाही भी है
कि पत्थरों में भी फूल खिलते हैं
उनके दरारों के पाटों में
कुंठा औंर संत्रास के तनावों को
झेलती दूबें
उनका सीना फाड़ कर
इतरा उठती हैं
और फूलों के यात्रियों की
कठोर यत्राओं में उनके तलवे तर करती है.
क्या ही अच्छा हो
मेरी घाटी के पत्थर ही
मेरी निसेनी बन जाऍ
ताकि पड़ोस के पथरीले तनावों को
मैं कदम कदम पार कर जाऊँ.
5.
ढेर सारे प्रकाश के खंडहर में
मुझे तलाश है
लौ भर प्रकाश की
जो मेरे अस्तित्व को
गतिशील कर दे
और मेरे होने के अर्थ को
उद्भासित कर दे.
मेरे गिर्द की बहती हवाओं ने
मुझे मेरी निजता से
अलग थलग कर रखा है
मैं अपनी स्वाभाविकता खो चुका हॅू
अलग अलग पहचान वाले
इतने सारे प्रकाश
मेरे गिर्द मॅडरा रहे हैं
लेकिन मेरी पहचान तक
मुझे पहॅुचाने वाला
लौ भर प्रकाश मुझे नसीब नहीं है.
उस ठॅूठ ने
लौ भर प्रकाश को पाकर
अपने स्वभाव को पा लिया है
तनावों की नींव पर
उसका इतराना बंद हो चुका है
मैं अपने जिस्म में
तनावों की गहराई बोकर
असहज होता जा रहा हॅू
बावजूद इसके
तनावों के अंश
भले ही पिघलते हैं
पर मेरी सहजता मुझे नहीं मिलती
उस लौ भर प्रकाश को पाकर
मिलने वाली सहजता की झलक
मेरी अनुभूति में
बीज बिंदु की तरह
क्षीण ही सही
पर लगातार उद्भासित है
मेरी तीव्र आकांक्षा है
वह लौ भर प्रकाश मुझे मिल जाए
और मैं
सहज स्वाभाविक
अपने जीवन को पा सकूँ.
6.
मेरे स्वप्नशील मन ने
मुझसे कहा
दूर दिगंत में उड़ते पक्षी-सा
उड़ने की जो आकांक्षा
तुमने पाल रखी है
उसे तुम अब पूरा कर ही डालो
उसकी परतें उघाड़ कर
बस तुम उड़ ही लो.
बात मेरी समझ में आई
थोड़ी देर के लिए
मैं आवेग से भर गया
आकर्षण से विरत अपने में सिमट गया
मेरे दृष्टि-पथ में
अब केवल आकाश ही था.
समुद्रलंघी हनुमान की तरह
मैंने ठोस धरती के
एक टुकड़े का चुनाव किया
और उड़ने की मुद्रा बनाकर
आकाश में छलांग लगा ही दी
लेकिन अफसोस
यह उड़ान भरी न जा सकी.
मैं स्तंभित रह गया
आखिर चूक हुई कहॉ
मैंने धरती को छुआ
94 : बीज संवेदन
उसमें वांछित ठोसपन था
अपने गिर्द को टटोला
मैं किसी भी छोर से बँधा न था
चिंता में मेरे हाथ
मेरे पैरों से छू गए
मैंने महसूस किया
उड़ानों के लिए वांछित ठोसपन
इन पैरों में नहीं था
हृदय से मस्तिष्क तक का गुरुत्व
जो मेरे पोरों को भी जोड़ता है
कहीं लिजलिजा है.
मैंने अपने को रोका
और इस लिजलिजेपन को
एक रीढ़ देने की कोशिश की
मेरी कोशिश अभी भी जारी है
मुझे उम्मीद है
मेरा संकल्प रंग लाएगा
और मैं आकाश में उड़ सकॅूगा
और लोगों को
उड़ने का स्वप्न बाँट सकॅूगा.
7.
चारो ओर से अपने को काटकर
स्वयं में उतरने की
जब मैंने कोशिश की
मेंरे अंगों में थरथराहट उतर आई
अपनी बहिर्मुखी इंद्रियों को
जब मैंने अंतर्मुख हुआ
मेरे प्राण कँप गए
आकर्षणों के मोह ने रुकावट डाली
लेकिन फिर भी
मैंने संकल्प को चुना
और भीतर उतरने की तैयारी में
अधिनिर्मित कपाट पर दस्तक दिया
दस्तक देने के साथ ही
मुझे जैसे विजली छू गई
मेरा रोम रोम सिहर उठा
और अचानक मेरे कदम
कुछेक सीढ़ियॉ उतर गए.
अब मेरे सामने
मेरे करीब का एहसास था
वहॉ मैं था, मेरी घबराहट थी
वे स्मृतियॉ थीं, यह साक्षात था
मेरा दीया था, मेरा अंधेरा था
और मैं इन्हें महसूसता
अपनी पोटेंशियलिटी के करीब था.
मैंने अनुभव किया
सहस्रों सूर्यों के बटोरने
और दीप्तिमान होने की जो लिप्सा
मैंने पाल रखी थी
इस साक्षात के उजाले में
धॅुधला गई थी
यह उतावलापन
उन सूर्यों की चमकार से
कहीं अधिक प्रभावान था
लेकिन यह अनुभूति
अधिक टिक न सकी
क्षण भर की यह कौंध
शीघ्र तिरोहित हो गई
और मैं
अपनी मूल प्रवृत्तियों के आईने में
अपना थथमथाता चेहरा लिए
फिर अपनी पूर्व स्थिति में था
मेरी वह अनुभूति
अब मेरी प्रतीति बन गई थी.
8.
आज मेरा स्व
मुझसे टकरा गया
मुझे लगा
एक अग्नि का गोला
मुझसे छू गया है
कुछ पल के लिए
मैं अपार उर्जा से भर गया
स्फूर्ति ताजगी और संकल्प
मेरे पहलू में उॅड़ल गए
मेरा समूचा अस्तित्व
टटके फूलों के आविर्भावों से
भर गया.
बड़ा प्यारा था वह क्षण
अपने को करीब पाकर
थोड़ी देर के लिए मैं निहाल हो गया
अब मैं
अपने गिर्द के सारे लोगों के
करीब हो गया था
मैं सारे निसर्ग के प्रति
आपाद प्रेम से भर गया
यह दुनिया
मेरे ‘मैं’ और मेरे स्व के
दो पाटों के बीच बह रही थी
और मैं किनारे बैठा
उसकी उभरती मिटती
तरंगों के उभारों से
अपने आपको बुनने लगा था.
9.
चलते चलते
जब किसी पड़ोस से
टकराना होता है
तो एक गॅूज उठती है
कभी चूड़ियों की खनक की तरह
कभी तलवारों की झनक की तरह
एक में जुड़ाव की ध्वनि होती है
एक में द्वंद्व की
ल्ेकिन जब कोई
अपने आप से टकरा जाता है
तो वहॉ ऐसा कुछ नहीं होता
वहाँ चेतना की एक धारा चलती है
जो खुद को ही नंगा करने को
मचल उठती है
वहॉ अपने ही अंधेरे और रोशनी
सामने होते हैं
अंधेरे डराते हैं
और रगों में अपनी गॉठें बुनते है
रौशनी साक्षात के लिए
साहस जुटाती है
उसकी लौ की धारा
उन गाँठों को भिंगोती है.
इस क्षण
मैं अपने ही दीए की लौ लिए
अपने ही अंधेरे से टकरा रहा हॅू
और परत दर परत
नंगा हो रहा हूँ.
ऐसा नहीं है कि नंगा हेाना
मुझे अच्छा लगता है
यह तो एक कड़वा अनुभव है
पर ऐसा होने में
प्रत्येक उधड़न
ओढ़े यथार्थों की कथा सुनाती है
और मेरा होना
इन बोधों से निथर कर
अपने होने के निकट
सरक जाता है.
10.
मौन में बातें कैसे की जाती हैं
मुझे नहीं मालूम
लेकिन मैंने
अपने अंदर उठते आवेगों का
मौन में साक्षात किया है
उसके उद्दाम ज्वार
और उतरते भाटे का
मुझे एहसास है
ऐसे में
फूलों की तरलता से
मेरा हृदय तरल हो उठता है
मेरे रोमों में पुलक जाग गई है
मैं आह्लादित हुआ हूँ
इस तरलता ने
मेरे टूटते रिश्तों को जोड़ा है.
लेकिन फिर भी
तथ्य चाहे जो हो
मॅुदी या खुली ऑखों के
अपलक मौन ने
कितने ही तरल प्रयोग किए हों
इस दुनिया में
मौन को एक चुप्पी माना गया है
एक सुरक्षा माना गया है
लोक में मौन एक ताकत जरूर है
लेकिन यह
अत्यंत संवेदनशीलों को ही
संप्रेषित होती रही है
मुझे तो मौन से भींगे
तुम्हारे शब्दों की
कुछ चोटें चाहिए थीं
जिसकी पगध्वनि
मेरे मन के प्राचीरों को लांघ कर
मेरे समूचे तन को बेध डाले.
11.
सच कहता हूँ
एक सीख घुली थी मेरे लहू में
अकेले चलने, अकेले होने का
एक आवेग था, एक आवेश था
सो मैं अकेले चल पड़ा
अकेले हो लिया.
लेकिन अनुभव का घॅूट पीकर देखा
कितना कठिन है अकेले चलना
इसमें फैलना और सिकुड़ना पड़ता है
जिसकी कशमकश
मेरे होने की सीमा में
गाँठें पुरता है
मैं आमूल थर्रा उठता हूँ
कदम डगमगा उठते हैं
धरती का ठोसपन
एक भ्रम बन जाता है
आकाश का फैलाव, एक छलावा
मेरे होने के टिकावों में
एक पिघलन ठॅुक जाती है
जो मुझे गिर्द के खॅूटों से अलगाती है
जो मुझमें
मिटने का डर पैदा करती है
हालॉकि अनुभव के एक क्षण में
मैं गवाही दे सकता हूँ
मेरे अकेलेपन ने
एक अनूठा एहसास दिया
पर वह मेरा नहीं हो सका.
यूँ तो हूँ मैं
परमाणुओं का एक संघट्ट ही
और इस तरह
अकेले होने का अर्थ नहीं
लेकिन
मेरी देहयष्टि में जो पुरा है
वह मुझे अकेला करता है
मुझे रचना की
एक इकाई बनाता है
मेरी इकाई ही चलती है
लोगों से और अपनों से
यह इकाई ही टकराती है
इन क्षणों में
इसे किसी मूल का
कोई ख्याल नहीं रहता
तो क्या
इसके अकेलेपन का भय
किसी मूल से अपरिचय का भय है
यह तो केवल तुम्हीं जानते हो
मैं भी जान जाऊँ तो बात बने.
-0-
अनुस्मरण
शताब्दी के पूर्वार्द्ध केअंतिम दशक के प्रारंभ से
शताब्दी के
इस अंतिम दशक के
अंतिम वासर तक के
काल-प्रसार में
जितना मैं स्मरण कर पाता हूँ
मैं अनुभव करता हूँ
मेरी अब तक की यात्रा
निपट मेरे अकेले की रही है.
पहले मुझे इसका भान नहीं था
मित्र! तुम्हारे चिदसंपर्क में आकर
कुछ समझ आने लगा
और तब मेरे पूर्वानुभूत
मेरे बोध में उतरते गए.
आज मैं स्पष्ट देख रहा हूँ
कई उतार चढ़ावों से गुजरता
कभी समय के साथ
कभी समय की धारा से हटकर
मेरा सोचना समझना भी
कुछ इसी तरह का रहा है
मेरे सोच के कई स्तर
अचंभे की हद तक
तुम्हारे सिखावनों से
मिलते जुलते रहे हैं.
पर मेरे लिए वे
गुत्थी-सी पैदा करते रहे हैं
ओर छोर विहीन
कल्पना में औंधे लटकते-से
एकदम न्यारे
परंपरा को चुनौती देते-से ये सोच
कंठ तक आकर भी अमुखर
मेरे अकेले के ही प्रस्फुटन रहे हैं
ये निःसृत होकर भी
युग को चुनौती न देकर
मात्र कल्पना का आवेग बनकर
रह जाते रहें हैं.
पहले पहल
बॉसों से झाँकता सूरज
जब मेरे बोध में उगा था
अपने परिवेश से असंपृक्त
मैं अकेला ही था
अक्षरों के परिचय से लेकर
वाक्यों के सरल तरल अर्थों में
मेरा हृद्-मन जब उलझने लगा
तो पोरों में खिलती अनुभूति
मेरे अकेले की ही थी
मेरे उर मन पर इनके अंकन
फ्लापी की तरह
आज भी संवेदनशील है.
आज मेरा मन
आकुंचन प्रकुंचन के केंचुल छोड़ता
अथ से आज तक के
भावों के उन्मेष को
मुखर वाणी देने लगा है
लोक में संसरित मेरी वाणी
लोक प्रवाह से टकराती
अनमेल और अकेले की है.
ं
तब से अब तक में
फर्क केवल इतना ही पड़ा है
कि तब मेरे प्रयाण की दिशा
अनिर्दिष्ट थी
लोक की उलझनें
मेरी बुद्धि में
राहें खोज लेती थीं
किंतु आज मेरी यात्रा
अकेले की तो है ही
अकेले के पलों के साथ
अकेले के ओर की है.
कल यह संवेदना
मेरी बुद्धि के तल पर थी
आज मैं इसके बोध से
भींग रहा हूँ
आज मेरी अनुभूति साक्षी है
कि प्रकृति का अवयव अकेला है
पर उसकी गति ताल और लय
एक व्यापक छंद में बँधा है
यह अकेले की ओर का चलना
वस्तुतः उस व्यापक छंद को
अपने बोध में लेना है
वल्कि ठीक ठीक कहें तो
प्रकृति का छंद ही बन जाना है.
-0-