Thursday 20 February 2014

गीता मेरी समझ में


                                                                                                                                                                                    
    ई-पत्रिका रचनाकार में   2 0.02.2014 को प्रकाशित                
 



   गीता रुपक में कही गर्इ है. इसकी विषयवस्तु कुल इतनी है:

   कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कौरवों और पांडवों की सेनाएं आमने सामने खड़ी हैं.   युद्धारंभक शंख बज चुके हैं. अस्त्र-शस्त्र चलने ही वाले हैं. इसी क्षण अर्जुन धनुष-वाण उठाता है और कृष्ण से अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच ले चलने को कहता है. वह उन कौरवों को देखना चाहता है जो उससे लड़ने आए हैं. वह सबओर दृष्टि फिराता है. दोनों ही सेनाओं में उसे अपने ही संबंधी दिखते हैं. उन्हें  देखते ही उसके मन में ममत्व उमड़ आता है. उसके मन में होता है कि जिनके लिए वह राज्य, सुख, भोग चाहता है वे ही जीवन की आशा  छोड़कर यहा युद्धहेतु खड़े हैं. वह सोचता है कि अपने ही कुटुम्ब को मारकर उसे क्या मिलेगा. उनको मारने की कल्पना से ही वह कांप उठता है. उसका  मुंह सूखने लगता है, हाथ से गांडीव सरकने लगता है, मन विषाद से भर जाता है. वह अपना  धनुष-वाण त्यागकर उदासमन रथ में पीछे बैठ जाता है. अर्जुन का यह कृत्य कृष्ण को कायरतापूर्ण लगता है. वह उससे पूछते हैं-''अर्जुन! इस विषम घड़ी में तुझे यह मोह कहां से हो आया. अर्जुन अपने मन की स्थिति को कृष्ण के सामने रखता है. कृष्ण उसके मनोविज्ञान को समझते हैं. वह देखते हैं कि अर्जुन संशय में पड़ गया है. वह दुविधा में है कि युद्ध करे अथवा छोड़ दे. उनका तेजस्वी मित्र और शिष्य अपने होने (being) को समझ नहीं पा रहा है. वह उसके मन में उठी दुविधा को दूर करने की चेष्टा करते हैं. वह उसे पहले ज्ञानयोग (कर्मसंन्यास) फिर कर्मयोग समझाते हैं और उसे अपनी प्रकृति अथवा स्वधर्म को पहचानने के लिए प्रवृत करते हैं. अर्जुन अपने मन के संशय को दूर करने के लिए कृष्ण के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा देता है. उसका निर्णायक प्रश्न है- इनमें से किस एक को अपनाना उसके लिए उपयुक्त है, कर्मसंन्यास (ज्ञानोपलबिध के बाद कर्म को त्यागना) या कर्मयोग (फल में आसक्ति रखे बिना कर्म करना) को.

    कृष्ण उसे कर्मयोग की ओर प्रवृत करते हैं. वह कहते हैं कि देहनिर्वाह के लिए कर्म तो करना ही पड़ता है. इसलिए फल में आसक्ति रखे बिना स्वधर्म में प्रवृत होकर कर्म करना ही तेरे लिए श्रेष्ठ है. यह युद्ध तूने ठाना नहीं है, तुझपर आ पड़ा है. गुण और कर्म के अनुसार तू क्षत्रिय है, युद्ध करना तेरा स्वधर्म है. उठो और युद्ध करो.

    अर्जुन को कृष्ण की बात समझ में आ जाती है और वह कृष्ण के कहने पर नहीं स्वधर्म से प्रेरित होकर लड़ने के लिए तैयार हो जाता है. 

    इस आ पड़े युद्ध  में, जिसकी ललकार सामने ताल ठोक रही है, युद्ध से विरत होकर अर्जुन का पुन: युद्ध के लिए तैयार हो जाना उसके स्वधर्म अथवा अपने सहज स्वाभाविक कर्म में प्रवृत हो जाने को दिखाता है. आज के कुछ लोगों के देखे अर्जुन का चित्त आतंकी लग सकता है. पर आतंकी चित्त तो घृणा-प्रेरित होता है और युद्ध को ही समस्या का समाधान समझता है. यह युद्ध आपद्धर्म है. 

   अर्जुन यहां केवल 'अर्जुन का नहीं अपितु मनुष्यमात्र का प्रतीक है. प्रत्येक मनुष्य को अपने अंतर्द्र्वन्द्वों और बहिर्द्वन्द्वों से उलझना पड़ता है. अत: यह स्वधर्म मनुष्यमात्र के संदर्भ में है. युद्ध के रुपक में यहां मनुष्यमात्र की प्रतीति ही संदर्भित है.

   इस बात को समझने के लिए इस क्षण मेरे मन में हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास 'पुनर्नवा का एक प्रसंग उभर कर आ रहा है. उपन्यास में देवरात की पुत्री मृणाल सुमेर काका से पूछती है-
   ''लड़कियां इस अनाचार के उन्मूलन में कुछ हाथ नहीं बंटा सकतीं काका? पिताजी बता रहे थे कि विंध्याटवी में कोर्इ सिद्धपुरुष हैं जो देवी के सिंहवाहिनी और महिष्मर्दिनी रूप की उपासना का प्रचार कर रहे हैं. परंतु पिताजी कहते हैं कि लड़कियां सिंहवाहिनी की ही उपासना कर सकती हैं, महिष्मर्दिनी की नहीं.. केवल कविता में यह बात फबती है. ऐसा क्यों होगा, काका? सुमेर काका ठठाकर हंसे, ''तू पूछना चाहती है कि भैंसा अगर चढ़ दौड़े तो तेरी-जैसी लड़की को क्या करना चाहिए. तेरे काका का जबाब है, जो कुछ आस-पास मिल जाए उससे उस भैंसे को दमादम पीट देना चाहिए''. 
 
    आमजन की भाषा में सोचें तो सुमेर काका यही कहते हैं कि मुसीबत आन पड़े तो उसका सामना करना ही करणीय कर्तव्य है. या कहें कि आ पड़े क्षण में लड़़ना भी पड़े तो वह मनुष्य का प्रकृत धर्म ही है. यहां मोह या संशय, विनाश को ही आमंत्रित करेगा. यहां तो जीवन का अस्तित्व ही खतरे में है. सिंहवाहिनी से प्रेरणा लेने तक तो अनर्थ हो जाएगा.

    इस युद्ध में कृष्ण अर्जुन से यही कह रहे हैं. हां वह यह अवश्य कहते हैं कि वह (अर्जुन) हर क्षण उसे (अस्तित्व को) स्मरण करता हुआ परिणाम को ध्यान में रखे बिना अनासक्त होकर लड़े. वह अस्तित्व की लीला का मात्रा एक निमित्त है. 

    युद्ध छिड़ने के क्षण में युद्ध से विमुखता युद्ध से भाग खड़ा होने जैसा है-   ठीक भैंसा से बचने के लिए प्राण बचाकर भागने जैसा.   

    युद्ध की कठिन घड़ी में अर्जुन का विषाद उसके अपने कुटुम्बियों के प्रति हुए उसके मोह से उत्पन्न हुआ. उसे लगा कि उसके लिए युद्ध से संन्यास लेना ही उचित होगा. जीवन जीने का यह भी एक मार्ग है. किंतु उसके मन में संन्यास स्यात् पूरी तरह स्पष्ट नहीं था. कृष्ण ने उसे बताया कि संन्यास कर्मों का त्याग अवश्य है पर वह ज्ञान को उपलब्ध हुए ज्ञानियों के लिए ही उपयुक्त है. यह संन्यास, योग भी है जो कर्मरत लोगों के लिए है. इसमें परिणाम की आकांक्षा किए बिना कर्म करना होता है. इसमें कर्म में तो आसक्त नहीं ही होना है, अकर्म में भी आसक्ति नहीं रखनी होती है. यही तेरे लिए करणीय कर्तव्य है. दुविध छोड़ो और युद्ध करो. यही मेरा निशिचत उत्तर है. यह देह तो एक भौतिक पिंड है. इसमें रहने वाला देही (आत्मा) न तो मारता है न ही मारा जाता है. यह एक देह से दूसरी देह में चला जाता है. तू भूलते हो कि तू मारोगे और तेरे भार्इ-बंधु मरेंगे. मैं तो पहले ही उन्हें मार चुका हूं. उनके लिए तेरा शोक करना व्यर्थ है.

    ओशो कहते हैं कि ज्ञानमार्ग यदि अर्जुन की समझ में आ गया होता तो गीता दूसरे अध्याय में ही समाप्त हो सकती थी.

    गीता में उल्लिखित संजय को मिली दूरदृष्टि और कृष्ण का विश्वरूप दर्शन आज के मनस के लिए एक कुतूहलपूर्ण विषय हैं. पर ये तथ्य हैं-

    कृष्ण ने अर्जुन को अपना जो विश्वरूप दिखाया वह उनके द्वारा उसको दी गर्इ ध्यान की एक अचानक विधि थी. रामकृष्ण ने भी विवेकानंद को स्पर्श कर उन्हें ऐसी ही अनुभूति दी थी , निर्विकल्प समाधि की अनुभूति, विश्वरूप जैसी. 

    संजय के पास दूर-दृष्टि के होने के संबंध में गीता पर ओशो के प्रथम प्रवचन से एक उद्धरण उल्लेखनीय है:

    ''एक व्यक्ति है अमेरिका में. अभी मौजूद है, नाम है टेड सीरियो. उसके संबंध में दो बातें कहना पसंद करूंगा तो संजय को समझना आसान हो जाएगा. क्योंकि संजय बहुत दूर है समय में हमसे. और न मालूम किस दुर्भाग्य के क्षण में हमने अपने समस्त पुराने ग्रंथों को कपोल-कल्पना समझना शुरू कर दिया है. इसलिए संजय को छोड़ें..यह टेड सीरियो.. कितने हजार मील की दूरी पर कुछ भी देखने में समर्थ है. न केवल देखने में बलिक उसकी आंख उस चित्र को पकड़ने में भी समर्थ है.-ओशो.