Wednesday 5 January 2022

अलविदा 2021

 अलविदा 2021













अलविदा, अलविदा,
टाटा!
इक्कीसवीं सदी का
इक्कीसवाँ वर्ष! टाटा!
जा रहे हो, जाओ
यह तो तुम्हारी नियति है
अच्छा होता
अपनी इस इति को भी
साथ लेते जाते।
तुम्हारी यह इति इतनी जिद्दी
इतनी प्रवाही है कि
भूलना भी इसे हम चाहें
तो नहीं भूल सकते
चाहें कि हम इसे उपेक्षित कर दें
वह बेपरवाह है
हमारे चेहरों पर
हमारे चित्तों पर
अपने समय का लेख
वह लिख ही जाती है
ईलेक्ट्रान-बिंदुओं की लिपि में।
जाने अनजाने
जरा भी स्मृतियों में हम फिसलें
ये उभर आती हैं स्मृति पटल पर
संवेदनाओं का ज्वार लिए
जिसमें होते हैं दंश
फूलों के भी काँटों के भी
स्फुरित हो जाते हैं सारे रोंगटे
मदु-कटु, कटु-मृदु रोमांचों का
संभार लिए।
अब देखो
तुम अभी गए नहीं पर
तुम्हारे बीतने की
आहट भर से
वर्ष भर के दंशों की पीड़ा
अभी से हमें सालने लगी है।
पिछली सदी से
तुम्हें दाय में मिले कोरोना-कहर
अभी भी हमें डरा रहा है
ओमीक्रोन के नाम से।
कहीं बाहर से संक्रमित कोविद-19 ने
तुम्हारे बीते पूरे बीसवें वर्ष में
कोरोना, क्वारंटीन, लाॅकडाउन
माउथ-मास्क, ढाई गज की दूरी
बरतने जैसी चेतावनियों से
हमें भिड़ा दिया।
जैसे तैसे
इस महामारी से हम निपटे
कि
ईर्ष्या से भरे राजनीतिक तूफान ने
हमें जकड़ लिया
कुछ की सत्ता की भूख ने
हमारे संविधान के
चौथे खंभे को भी
व्यभिचारी आचरण से
आक्रांत कर दिया
विधायिका को उच्छृंखलता ने
डँस लिया
न्यायपालिका में भी
विद्रोह के अंकुर उग आए
राजनीति ने
उसके भी आधार को
कुपोषित कर दिया
कार्यपालिका भी विभ्रष्ट होते होते
बची
ज्यादा चांस थे
उसके विभ्रष्ट होने के
हांफती कलपती किसी तरह
वह संतुलित बनी रही
देश ने छलनी होकर भी
अपनी अस्मिता को बचाए रखा।
बीतती सदी!
तुम्हारा आभार मानेंगे हम
किसान आंदोलन-
जो एक छद्म आंदोलन का रूप
लेने लगा था- को
तुमने एक स्खलन से रोक लिया
देश में अराजक स्थिति आने से
रह गई।
देश के अंदर
बाहर के शत्रुओं को
सूराख नहीं मिला
अंदर के शत्रुओं को
बाहर के शत्रुओं से
बल नहीं मिला
वे हाथ मलते रह गए
सत्ता के साथ
छीना झपटी भी हुई पर
नहीं दुहराई हमने सन् बासठ की
वह भयानक भूल।
हमें पहली बार लगा
अपार बल है समुद्र लाँघने की
हममें
हम अपना बल भूले हुए हैं
हनुमान की तरह।
हमें याद है
हमें झिंझोडा था शास्त्री ने
सत्तर के दशक में
इंदिरा ने
हमारे हाथों से
गर्दन पकड़ ली थी पाक की
पर आह! आत्मश्लाघा में
मान लिया उन्होंने
हमारे बल को अपना बल
और रौंद दिया हमें ही
ईमर्जेंसी की प्रताड़ना से।
पर राख में दबी चिंगारी
कभी बुझती नहीं
जयप्रकाश ने फूँक मारी
राख में दबी चिंगारी
दहक उठी
और हमने देखा
एक नया सबेरा।
पर हाय!
अपना एक सबल नेतृत्व
हम विकसित नहीं कर सके
सत्ता के कुछ लोलुपों ने
हमें बाँट हड़प कर
एक रिमोटी नेतृत्व तैयार किया
सारी दुनिया को मिल गया मौका
हम पर हाबी होने के लिए
अभी भी लपलपा रही वह जीभ
हमें निगल लेने को।
पर हम सब कुछ झेलते भी
अपने निरंतर अनुषंगी प्रयास से
अब विकसित किया है
एक जुझारू नेतृत्व
तुम्हारी पनाह में
कई कमियों के होते हुए भी
यह नेतृत्व
हमें अहसास करा रहा है
हम फिर से मथ सकते हैं सागर
हममें इतना बल है।
तुम्हारे समय के लेख
जो हमारे चित्तों पर अंकित हुए हैं
वे हमें कुरेदते हैं
इन कुरेदनों में उत्तेजना भी है
शम के अंश भी हैं
पर सबसे ऊपर
एक संतुलन का संदेश भी है
संयम का तेज भी है
यद्यपि इसमें
कुटिलता की झिलमिलाहट भी है
पर देश के प्रति समर्पण
और बलि जाने के भाव का तेज
सभी संवेदनशील मर्मों को
प्रतिपल भेदने को उद्यत भी है।
हमारे कवि लेखक
जो कभी द्वीप बने हुए थे
नदी के
हमें अफसोस है
अब वे लहरों के द्वीप हो रहे हैं
अपने ही भँवरों में
उलझ सुलझ रहे हैं
अभिव्यक्ति की आजादी का
बड़ा शोर है चतुर्दिक
वे कितना अभिव्यक्त हो रहे हैं
कितनी अभिव्यक्ति दे रहे हैं
सभी सहृदय उलझ गए हैं
इसी को समझने में
पर असमंजस में पड़ गए हैं
ये सभी तो
काटने में ही लगी हैं
एक दूसरे को
प्रगतिशीलता बदल गई है
अंधविश्वास में।
गनीमत है कि सुधी जन
देश के वातावरण के संयमन से
निराश नहीं हुए हैं अभी।
तुम्हारे क्रोड़ के आँचल तले
सभी प्रयासरत हैं
हारमोनी बनाने में
युग के मनों में
तुम्हारे जाने के बाद भी
बढ़ती रहेगी यह धारा
लक्षण यही दिखते हैं।
तुम्हारे इक्कीसवें वर्ष के युगों में
जूझते रहे हैं हम
कई तरह के संघर्षों से -
आत्मगत, पारस्परिक, बहिरागत
खाद्य के मोर्चे पर,
युद्ध के मोर्चे पर,
भीतरघाती छलों, द्वेषों से,
पर सनातन पाचन ने शायद
हमें सहारा दिया
और हमने अपने प्राचीन
सामासिक संयमन को
उद्बुद्ध किया
हम स्वयं और सार्व के प्रति
सदाशय हुए
आज औरों की ही नहीं
अपनी नजरों में भी
अपने को प्रतिष्ठित कर लिया है।
जाओ, खुशी खुशी जाओ
हम कोशिश करेंगे
तुम्हारे समय में आत्ममुग्ध
अपने संयमन को
हम अगली सदी में भी
ले जाएँगे।
28-12-2021
गोरखपुर
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव ,
गोरखपुर।