Tuesday 27 March 2012

यात्रा संस्मरण -२

धमक स्तूप (सारनाथ) 
सारनाथ 
रामनगर किले का संग्रहालय देखने के बाद हम सारनाथ के लिए चल दिए. सारनाथ पहुँच कर पहले हम मूलगंध कुटी विहार देखने के लिए चले. साथ में एक गाइड लग गया. गेट से घुसते ही हमें उस विशाल घंटे का दर्शन हुआ     जिसके बारे में गाइड ने बताया की इस घंटे के  बजने पर  इसकी ध्वनि दूर दूर तक सुनाई देती है. फिर उसने हमसे पूरे विहार का फेरा लगवाया. इस फेरे के दरम्यान वह हमें विहार के बारे में बताता रहा. उसने यह भी बताया कि विहार की दीवारें पत्थरों  से बनी हैं और इन पत्थरों को सुर्खी, चूना, गुड और उड़द की  दाल से बने गारे से जोड़ा गया है. विहार  का .एक  फेरा  लग  जाने के बाद हमें विहार के अन्दर प्रवेश करने को कहा. सन १९६५  में जब मैं यहाँ आया था तब ऐसी बात नहीं थी.उस समय गाइड का भी कोई जोर नहीं था.यह गाइड हमें जितना बता रहा था उससे अधिक ही मैं जानता था. यह मूल्गंध  कुटी विहार अपेक्षाकृत  नया बना विहार है. इसे  बनवाने का श्रेय लंका के बौद्ध प्रचारक अंगारिका धर्मपाल को जाता है. विश्वभर के बौद्ध श्रद्धालुओं  के दान से  यह १९३१ में बनकर तैयार  हुआ था. पुराने विहार का भग्नावशेष इस वर्तमान विहार के पश्चिम की तरफ बगल में ही मिला है. खुदाई में २५०० ई पूर्व की इसकी दीवारें भी मिली हैं. इतिहासकारों का अनुमान है की पुराना विहार पूर्व-अशोक काल में बना था. कम से कम खुदाई में मिली ईंटें तो यही बताती हैं. संभवतः इसे बुद्ध के शिष्यों ने बनवाया था.
       विहार के भीतर हमने बुद्ध की भव्य मूर्ति देखी, सुन्दर, मनोहारी.   भीतरी दीवारों पर बुद्ध के जीवन से सम्बंधित चित्रकारी हमें बहुत भाई. इस चित्रकारी को सन १९३६ में जापानी चित्रकार कोसेत्सू नोसू ने बनाए थे. लेकिन बुद्ध की मूर्ति मुझे वैसी नहीं लगी जैसी मैंने इसके पूर्व सन १९६५ में देखी थी. गाइड से पूछा तो वह यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि तब तो मेरा (गाइड का ) जन्म भी नहीं हुआ था.स्पष्ट ही वर्तमान मूर्ति उस समय की मूर्ति से अलग है. जहाँ तक मुझे याद है उस समय की मूर्ति  इससे बड़ी और आदमकद थी.और पूरी की पूरी सोने की थी. बीच में उस मूर्ति के ख़राब होने  की खबर आई थी. उसे नए सिरे से बनाने की भी खबर आई थी.इसी बीच वर्तमान मूर्ति बनी होगी. पर इस मूर्ति में वैसी करुणा छलकती नहीं लगती.
       विहार से निकलकर हम उसके बगल में बने स्थल को देखने गए जहाँ बुद्ध और उनके उन पांच शिष्यों की पत्थर की प्रतिमाएं बनी हैं जिन्हें उन्होंने सारनाथ में धर्मचक्र परिवर्तन का उपदेश दिया था. इसे म्यामार के बौद्ध भिक्षुओं ने सन १९८७ में बनवाया था. उन्होंने  बुद्ध के अट्ठाईस रूपों की  छोटी छोटी मूर्तियाँ भी बनवाई हैं  जो बहुत ही सुन्दर बन पड़ी हैं. अशोक की पुत्री संघमित्रा बोधगया के बोधिवृक्ष, जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, की एक टहनी अपने साथ लंका ले गई थी.उसी टहनी से लहलहाए वृक्ष  से एक डाल लाकर इस स्थल पर भी लगाई गई है जो अब  वृक्ष बन गई है. इस विहार के पीछे के खाली स्थान को एक उद्यान का रूप दे दिया गया है जो प्राचीन मृगदाव का स्मरण दिलाने के लिए पर्याप्त है. सारनाथ का प्राचीन नाम मृगदाव अर्थात मृगों (हिरणों ) के विचरण करने का स्थान था. सारनाथ इस स्थान का आधुनिक नाम है.  जातक की बौद्ध कथाओं की एक कथा के अनुसार बुद्ध अपने एक पूर्वजन्म में मृगों (सारंगों) के राजा थे. उन्होंने एक शिकारी से एक गर्भिणी मृगी (हिरन ) की जान बचाई थी. इसी सारंगों के नाथ के नाम पर इस स्थान का नाम सारनाथ पड़ा. एक इतिहासकार के अनुसार पुराणों में शिव का  एक नाम सारंगनाथ मिलता है.यहाँ शिव का एक मंदिर भी है. यह  स्थान कभी शैवों का उपासना स्थल था. शैवों के नाथ सारंगनाथ के नाम पर इस स्थान का नाम सारनाथ पड़ा. हमने पगोडा शैली में बना मंदिर भी देखा.इसमें बुद्ध की मूर्ति के अगल बगल उनके चीअर शिष्यों की भी मूर्तियाँ बनी हैं.और सामने कुशीनगर में बनी सोए हुए बुद्ध की अनुकृति बने गई है जो बहुत ही कीमती लकड़ी से बनी है.यह बहुत ही सुन्दर, भव्य और आकर्षक है. बुद्ध की बहुत ऊँची और विशाल वह  मूर्ति भी हमने देखी जो अफगानिस्तान के बामियान  में तोड़ी गई प्रस्तर मूर्ति की याद में बाई गई है.
       यहाँ से टेम्पोवाला हमें धमेक स्तूप दिखाने ले चला. मुझे यह थोडा अटपटा लगा. क्योंकि जब मैं पहली बार यहाँ आया था तब मुझे परिसर  में एक ही बार प्रवेश कर मैंने पूरी घुमाई की थी.. इस बार पुरातत्व विभाग का मेंटेनेंस देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा. चहारदीवारियों से विहार और भग्नावशेषों को अलग कर दिया गया है. फूल और हरे पौधे लगाकर पूरे खँडहर परिसर को हरा भरा बना दिया गया है. यह लहलहाता हरापन दर्शकों की आँखों को ठंढक देता  है. पतली पतली पगदंदियाँ भी अवशेषों तक पहुंचने के लिए बना दी गई हैं. एक पगडण्डी से हम धमेख स्तूप पहुंचे. स्तूप को हमने देखा ,फोटो खिंचवाए.और वहीँ से हम खँडहर में उतर गए. खँडहर में हमने उस विशाल स्तूप की बची नींव देखी जिसे धर्मराजिका स्तूप के नाम से चिन्हित किया गया है. वहां एक पट्टी भी लगी है जिसमें बताया गया है की तुर्कों के आक्रमण से यहाँ के बौद्ध स्थल को बहुत नुकसान हुआ था .फिर भी धर्मराजिका स्तूप का बड़ा हिस्सा बचा हुआ था.किन्तु ब्रिटिस काल में काशी  नरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने इस स्तूप को तुड़वाकर इससे निकली इंटों से बनारस का मोहल्ला जगतगंज बसाया. इसके बाद हमने वह नींव भी देखी जिसपर अशोक ने वह स्तम्भ बनवाया था जिसके शीर्ष पर चार शेरों के सिरों वाला शिखर बनवाया था. इसके पाद  में चौबीस तीलियों वाला चक्र बना है..खुदाई में निकालते समय यह स्तम्भ खंडित हो गया. इसका शीर्ष इससे अलग हो गया था जिसे पास ही बने संग्रहालय में बड़े व्यवस्थित ढंग से रखा गया है. इसके बाद अन्य भग्नावशेषों को भी हमने देखा जिसमें एक टूटा निर्माण खंड था जिसके बारे में बताया गया है की यह संभवतः धर्मराजिका स्तूप के शिखर पर बनाया गया होगा. बड़ा ही सुन्दर और भव्य निर्माण खंड है यह.
        यहाँ से निकलकर हम संग्रहालय देखने गए. संग्रहालय में यहाँ की खुदाई में मिली सामग्रियां रखी गईं हैं. इसमें प्रवेश करते ही हमें चार शेरों के सिरों वाला अशोक स्तम्भ का शीर्ष खंड देखने को मिला. स्वतंत्र भारत की सरकार ने इसे ही अपना राजचिंह घोषित किया है. हमने अन्य अवशेषों को भी  देखा. देखकर बहुत अच्छा लगा. इन भग्नावशेषों के बहाने अपने अतीत में झांक कर हमें रोमांच हो आया. पर एक क्षण के लिए यह भी प्रश्न आ उठा की आज हम अपने समृद्ध अतीत और चरित्र से कितना अलग हो गए हैं.
       टेम्पोवाले का समय अब पूरा हो रहा था. एक ट्रिप में छै घंटे के लिए ही टेम्पो तय होते हैं. अतः संग्रहालय से निकलकर हमने कुछ नाश्ता किया और हम अपने आवास के लिए प्रस्थान कर गए. रास्ते में टेम्पोवाले ने हमें चौखंडी स्तूप दिखाया. यह एक विशाल और भव्य स्तूप है. उसने बताया की इस स्तूप को देखने कोई जाता नहीं. हालाँकि दो एक लोग वहां दिखाई दे रहे थे. मुझे भी इस स्तूप के बारे में कुछ पता नहीं था. घर आने पर मैंने इसका इतिहास जानने की कोशिश की. पता चला की यह सूप भी बहुत पुराना है.एक जगह मिला की अकबर कभी यहाँ आया था और ठहरा था. उसी की स्मृति में टोडरमल के पुत्र  ने इसे बनवाया था. एक अन्य जगह मुझे मिला की यह बहुत पुराना स्तूप है जिसे बुद्ध के अनुयायियों ने गुप्तकाल में बनवाया था. और अकबर के यहाँ ठहरने की स्मृति में इसके ऊपरी सिरे पर एक बुर्ज टोडरमल के पुत्र ने बनवा दिया था. कहते हैं वह बुर्ज अभी भी है.
        रात विश्राम कर दूसरे दिन विन्ध्याचलदेवी  का दर्शन करने गए. देवी का  दर्शन हमने  बहुत आराम से  किया. हमने देवी के चरण छुए, आशीर्वाद लिया और तुरत अष्टभुजी देवी के दर्शन के लिए चल दिए. वह स्थान एक पहाड़ी पर है. टेम्पोवाला पहाड़ की चढ़ाई पार  कर हमें मंदिर तक ले गया. थोड़ी दूर तक पहाड़ी से उतरकर हम मंदिर में गए, हमने देवी का दर्शन किया और थोडा उतरकर फिर एक ऊँची चढाई पर चलकर सीताकुंड गए. वहां एक अज्ञात स्रोत से लगातार पानी आता रहता है. उस पानी को इकठ्ठा करने के लिए एक कुण्ड बना दिया गया है. इसे ही सीता कुण्ड कहा जाता है. वहां पहुंचते ही बंदरों ने हमें घेर लिया पर हमें कुछ नुकसान नहीं पहुँचाया. वहां से और चढ़ाई पर एक और रास्ता जाता दिखा. पता चला वह मोतिया झील को जाता है जो वहां से डेढ़ किलोमीटर दूर है. हम थक गए थे. इसलिए वहां न जाकर लौट आए. रास्ते में टेम्पोवाले ने बताया की मोतियाझील केवल  तांत्रिक  लोग जाते हैं. फिर वहां से हम चुनार  का किला देखने गए. वह एक बहुत ऊँची  पहाड़ी  पर बना है. इस किले का एक छोटा सा हिस्सा ही हमें देखने को मिला. इस छोटे से हिस्से में कैदियों के लिए बनी कोठरियां ही हैं. कठोर सजा मिले कैदियों को तहखाने में रखा जाता था जिसमें ऊपर की तरफ थोड़ी सी जगह हवा आने के लिए छोड़ी गई है . किले में बना फांसी  घर भी देखा. यह ठीक गंगा नदी के किनारे बना है. कैदियों को फांसी  देकर उन्हें नदी में बहा दिया जाता था. किले के बड़े हिस्से पर सेना का कब्ज़ा है.      देवकी नंदन खत्री ने अपने  चंद्रकांता नमक ऐयारी उपन्यास में इसी किले का जिक्र किया  है. इन कैदखानों को देख कर उपन्यास में वर्णित भयावहता का अनुमान होता है. इस किले को देख कर हम बनारस लौट आए और बाहर ही बाहर ट्रेन पकड़ कर गोरखपुर चले आए. 

Saturday 24 March 2012

यात्रा संस्मरण

हिंदी साहित्य में अनेक यात्रा संस्मरण लिखे गए हैं. उनमें से कई बहुत रोचक बन पड़े हैं. मैं यह पहला संस्मरण लिख रहा हूँ. प्रयत्न करूँगा यह  आदि से अंत तक रोचक बना रहे.

यह यात्रा मेरी श्रीमती जी की हार्दिक इच्छा का परिणाम थी. लगभग बीस
वर्ष पहले उनके मन में बनारस घूमने की आकांक्षा जगी थी. मैं तो उनकी
इच्छा को  पूरा नहीं कर पाया किन्तु बहू बेटे ने इस बार उनकी इच्छा पूरी
कर दी. होली के दूसरे दिन १० मार्च को हम बनारस  के लिए प्रस्थान  कर दिए रात की साढ़े आठ बजे की बस से.लेकिन बस की यात्रा सुभिधाजनक नहीं रही. रास्ते भर बस में बने सामान रखने वाले टूटे रैक सर पर झनझनाते रहे तो लालू राज में बने बिहारी सड़क जैसी सडकों पर बस के पहिये उछलते कुदाते ठन ठन करते रहे. मेरा सर तो ऐसा भन्नाया की मुझे एक उलटी भी हो गई. रात में लगभग चार बजे हम बनारस कैंट बस स्टेशन पहुंचे. हमने तुरत एक टेम्पो लिया और टेम्पोवाले की सहायता से राजमहल होटल में दो कमरे  बुक करा लिए.

बनारस की यात्रा:
तीन-साढ़े तीन घंटे आराम करने के बाद लगभग साढ़े सात बजे हम बनारस घूमने निकले. यात्रियों में मैं, मेरी श्रीमती  जी, बेटा-बहू और आठ महीने का पोता थे.. होटलवाले ने ही हमारी यात्रा का एक खाका खींच दिया और हमारे लिए एक टेम्पो भी किराए पर ले दिया. खाके के अनुसार सबसे पहले हम दुर्गा कुण्ड गए. वहां हमने दुर्गा मंदिर देखा. फिर और मंदिरों को देखते हुए तुलसी मानस मंदिर गए. मैंने जब इस मंदिर को सन १९६५ में देखा था तब विजली से मूर्तियों को हिलता डुलता दिखाने की तकनीक शायद जल्दी ही विकसित हुई थी.उस समय इस मंदिर में बहुत रौनक थी. इस बार यह मंदिर कुछ बुझा बुझा सा लग रहा था.व्यवस्था की कमी तो थी ही इसकी वजह अन्य तीर्थों में भी इस तकनीक का विकसित हुआ देख आना भी वजह हो सकती है.

वहां से हम सकट मोचन मंदिर गए. टेम्पोवाले ने इस मंदिर में हमें एक पतली गली से प्रवेश कराया. मैं भ्रम में पड़ गया कि यह कौन सा मंदिर है. क्योंकि पहली बार जब मैं यहाँ आया था तब मंदिर मुख्य सड़क के बगल में ही दिखा था.और मैं सड़क से ही मंदिर में प्रवेश किया था.मंदिर में जाकर देखा कि मुख्य सड़क वाला प्रवेश द्वार सामने है. लगता है सन २००६ के आतंकी हमले के बाद चेकिंग के लिए यह नई व्यवस्था की गई है. बाद में याद आया कि जिस गली से हमने मंदिर में प्रवेश किया है वह वही गली है जो पहले नारिया मोहल्ले को जाती थी और उस तरफ अभी दूर तक ख़ाली स्थान था. खैर, मंदिर में आकर हम सब ने वहां बरसती शांति का बहुत आनंद लिया हनुमान जी का दर्शन किया, प्रसाद लिया और सर से लगाया. यह मंदिर बनारस का बहुत प्रसिद्ध मंदिर है. यह मंदिर गंगा की सहायक नदी असी के बगल में स्थित है. हम जहाँ ठहरे थे वहीँ पास में वरुणा नदी बहती है. इस मंदिर की स्थापना तुलसी  दास ने की थी. तुलसी दास को यहीं हनुमान जी का दर्शन हुआ बताते हैं.यह वर्तमान मंदिर मदन मोहन मालवीय ने सन १९०० में बनवाई थी. मंदिर में स्थित पुराने पेड़ पर उछलते कूदते वन्दरों के बच्चे बड़े मनोहारी लग रहे थे.


वहां से हम विश्वविद्यालय स्थित विश्वनाथ मंदिर गए. इस मंदिर को बिड़ला मंदिर भी कहते हैं. यह मंदिर अब पूरा बन गया है. इसकी विशालता और भव्यता देखने लायक है.बहुत ही सुन्दर मंदिर है. हमने भक्ति पूर्वक शिवलिंग का दर्शन किया. लान में स्थापित एक गैंडे पर अपने अठ्माहे पुत्र को बिठाकर (मेरे पुत्र ) शोनेंदु ने फोटो लिया. फिर बाहर  निकलकर हमने नाश्ता किया. इसके बाद टेम्पोवाले ने हमें लेकर रामनगर किले के लिए चल दिया.


गंगा बनारस नगर के दक्षिण में बहती है. वरुणा और असी नदियाँ बनारस को घेर कर बहती हुई गंगा में मिल जाती हैं.  गंगा की इन्हीं  दोनों सहायक नदियों के बीच में स्थित होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा, ऐसा कहा जाता है. हालांकि इतिहासकार इसपर सहमत नहीं हैं. वाराणसी का ही अपभ्रंश बनारस है. टेम्पोवाला विश्वविद्यालय से निकल कर गंगा के किनारे कुछ दूर तक चलकर पीपा के पुल से हमें गंगा पार कराया. नया पुल पीपापुल के बगल में अभी बन रहा है. पीपा का पुल सीधे पुराने रामनगर किले के पास ही उतरता है. इस किले को काशी (बनारस का एक नाम) के राजा बलवंत सिंह ने बनवाया था. इसे संग्रहालय का रूप दे दिया गया है.राजपरिवार अब महाराजा चेतसिंह के बनवाए चेतसिंह महल में रहता है. पिछली बार आया था तो मैं  इसे नहीं देख सका था.शोनेंदु ने टिकट लिया और हम संग्रहालय में प्रवेश किए. शुरू के कमरों में हमें पुराने ज़माने की बग्घियाँ ,इक्के ,बैलगाड़ियाँ और हवागाड़ियाँ देखने को मिलीं. इन बग्घियों को देख कर मुझे उस बग्घी की याद आ गयी जिसपर मेरे फूफा बमबहादुर लाल चलते थे.वह हथुआ  राज के किरानी थे. तेल  इंधन से चलने वाली गाड़ियों को हमलोग तब हवागाड़ी या लारी कहते थे. हथुआ राज अस्पताल के छोटे डॉक्टर जिन्हें लोग छोटका बाबू कहते थे इसी में से एक मॉडल की लारी से चलते थे. पुरानी यादें ताजा हो आईं. इसे देख कर श्रीमती जी और बेटे बहू सभी आनंदित हो उठे. इन कमरों को पार कर संकरे कमरों में  रखी मूर्तियाँ और फोटोग्राफ देखते हुए हम एक बड़े आँगन में गए. यह आँगन चारो ओर बने कमरों से घिरा है. हमलोगों ने इन कमरों में प्रवेश किया. इन कमरों में बहुत पुराने हथियार सजाकर रखे गए हैं.छोटी बड़ी तरह तरह  की बंदूकें, पिस्तौलें, तरह तरह  के भाले, तरह तरह के तीर धनुष, छुरे छुरियां, विभिन्न तरह की तलवारें हमें यहाँ देखने को मिलीं. हमें यहाँ शिरस्त्राण और कवच पहने और हाथ में भाला लिए एक योद्धा की प्रतिमूर्ति भी दिखाई दी और युद्ध में लड़ते हुए एक योद्धा की कल्पना कर हमें रोमांच हो आया. यहाँ तो जैसे पुराने हथियारों का जखीरा  ही इकठ्ठा करके रख दिया गया है. इन हथियारों में देश और विदेश में बने दोनों तरह के हथियार संरक्षित हैं. मेरे पूरे परिवार ने इसका आनंद लिया. इसके बाद वह स्थान भी देखा जहाँ राजा का दरबार लगता था. यहाँ से फिर हम तहखाने से होकर शिव  मंदिर गए. इस तहखाने में सीढियां उतरी हैं जो सीधे गंगा में जाती हैं. शायद इन्हीं सीढियों से उतर कर राज परिवार गंगा में स्नान कर मंदिर में पूजा करता था. मंदिर गंगा की ओर खुला है. वहां से गंगका की धारा में  तैरती नावों और उस पार स्थित  विश्वविद्यालय की परिखा का दृश्य बड़ा ही सुन्दर दिखता है. उस पार मीलों लम्बे  फैले विश्वविद्यालय के किनारे फैले पेड़ पौधे आकाश में टंगे तो नहीं दीखते पर बंदनवार से तने अवश्य दिखाई देते हैं.


रामनगर किला और उसके संग्रहालय को देख कर रोमांचित हमलोग वहां से सारनाथ के लिए चल पड़े. पर इसका संस्मरण अलग से. क्योंकि पुराने विश्वनाथ मंदिर की चर्चा बनारस यात्रा में हो तो तारतम्यता बनी रहेगी


सारनाथ घूमने के बाद हम पुराने विश्वनाथ मंदिर गए. होटलवाले ने हमें बताया था की सायं चार  बजे भीड़ कम मिलेगी. टेम्पोवाले ने गलियों के लिए मशहूर बनारस की कुछ चुनिन्दा गलियों से होता हुआ हमें विश्वनाथ मंदिर पहुंचा दिया. सन '६५ में जब मैं यहाँ आया था तब मंदिर तक पहुँचने के लिए  बहुत सारी गलियां नहीं थी. पंडों का  झमेला तब ज्यादा था पर मंदिर में प्रवेश जल्दी ही मिल गया था. इस बार भीड़ कम होते हुए भी मंदिर में प्रवेश  पाने के लिए लम्बी दूरी तय करनी पड़ी.पण्डे तो अभी भी अपना धंधा चला रहे हैं पर सरकारी व्यवस्था के कारण अब वे अधिक हस्तक्षेप नहीं कर पाते हैं. खैर  प्रसाद लेकर हम मंदिर के अन्दर गए. एकाध घंटे में हमें शिवलिंग का दर्शन हो गया. जिस रूप में आज मंदिर है इसे इंदौर की महारानी अहल्याबाई ने सन  १७८० में बनवाया था. मंदिर की दो छतों पर महाराजा रणजीत  सिंह ने सन १७८५ में सोने के पत्तर लगवा दिए थे. मंदिर के  गर्भगृह की ऊँचाई पहले बहुत थी. शिव लिंग को मैंने गर्भगृह में खड़ा होकर स्पर्श किया था..इस बार देखा की गर्भगृह का फर्श ऊँचा हो गया है और शिवलिंग गड्ढे में हो गया है. हमने झुककर  किन्तु शिवलिंग का हाथों से स्पर्श किया. पर इसके प्रभाव में कोई कमी नहीं आई है. वहीँ हमने अन्नपूर्णा मंदिर भी देखा. वहां से निकलकर  हम दशाश्वमेघ घाट गए. घाट की सीढियां उतरने के रास्ते में वह मान मंदिर है जिसकी छत पर जयपुर के राजा मानसिंह ने पुरानी शैली  की एक वेधशाला बनवाई थी जो अभी भी अस्तित्व में है. समय की कमी के कारण हम उसे नहीं देख सके. घाट की सीढियां उतरकर हमने एक नौका ली और बोटिंग का खूब मजा लिया. बोट से ही  हमने बनारस की गंगा आरती देखी. बोट से घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम लग रहा था. मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर कुछ लाशें जल रहीं थी. कथा है की इसी हरिश्चंद्र  घाट परअपना सारा  राज्य विश्वामित्र को दान दे देने के बाद राजा हरिस्व्ह्चंद्र ने श्मसानघाट की पहरेदारी की थी. इसी घाट पर उनहोंने  अपनी पत्नी शैव्या से मृत पुत्र रोहिताश्व के दाह के लिए कर माँगा था .इसी घाट पर वह हृदयविदारक घटना  घटित हुई  थी. जब शैव्या ने अपनी लाज की साड़ी फाड़कर श्मसानघाट का कर चुकाया था. उस दृश्य की कल्पना के हमारी आँखें नाम हो गईं और अपनी यात्रा यहीं समाप्त  कर हम अपने होटल को चल दिए.


धार्मिक स्थलों के बारे में पुरातन कल से चली आ रही कथाएं कितनी ऐतिहासिक हैं नहीं मालूम किन्तु इन्हीं कथाओं में हमारी संस्कृत साँस लेती है.

Saturday 17 March 2012

भारतीय राजनीति की प्रवृत्ति-दिशा

प्राचीन काल से आजतक की भारतीय राजनीति पर एक  सरसरी निगाह डालते हैं तो हमें दीख पड़ता है कि कुछ ही महापुरुष ऐसे हुए हैं जो एक व्यापक फलक पर  इस देश की राजनीतिक प्रवृत्ति को समय समय पर निर्धारित करते रहें हैं. इस  विषय में मेरा ध्यान प्रथमतः श्रीकृष्ण की ओर जाता है. श्रीकृष्ण ने महाभारत काल में जिस राजनीतिक प्रवृत्ति की नींव डाली उसकी जड़ें अतीत में थीं जिसने तात्कालिक वर्तमान में करवटें लीं. इस राजनीति पर धर्म और चरित्र  का नियंत्रण था. धर्म शब्द से मेरा अर्थ उस धर्म से है जिसे ओशो ने परिभाषित  किया है. उस धर्म से  नहीं जिसे अपने विवेचन में मार्क्स और नीत्से ने लिया है. मार्क्स ने तो इसे अफीम और नीत्से ने मरा घोषित कर दिया था{'ईश्वर मर गया है', जिस धर्म की ये बात कर रहे हैं उसकी धुरी ईश्वर ही है}. मार्क्स ने धर्म के जिस अर्थ को लिया है वह अफीम ही है क्योंकि यह संप्रदाय को द्योतित करता है और संप्रदाय की जड़ें धर्मान्धता में होती हैं. इसी लिए ओशो ने एक नया शब्द गढ़ा है-धार्मिकता. श्रीकृष्ण इस धार्मिकता को राजनीति से ऊपर मानते हैं. राजनीति  को  इस धार्मिकता के नियंत्रण में होना चाहिए. वह गीता में कहते भी हैं- ईश्वर न कुछ करता है न कराता है. जो , कुछ करती कराती है वह प्रकृति है. अर्जुन ! तुम यदि युद्ध नहीं करोगे तो यह तुम्हारी प्रकृति तुझसे करा देगी .ध्यान से  देखें तो महाभारत का हरेक पात्र अपने कथनों के समर्थन में नीतिगत और चरित्रगत बातें करता नजर आता है. श्रीकृष्ण  की राजनीति महाभारत युद्ध को होने से तो नहीं रोक सकी किन्तु  इसने भारतीय संस्कृति को विखरने और विकृत होने से तो रोक ही लिया. इस राजनीति में श्रीकृष्ण धार्मिकता की भूमिका निभा रहे थे और अर्जुन क्रियारूप राजनीति की.


इसके बाद मेरा ध्यान नंदवंसी सत्ता पर आ टिकता है. जैसी राजनीतिक और सामाजिक विषमता महाभारत काल में दिखती है लगभग वैसी ही विषमता नंदवंशी शासन  में भी दीख पड़ती  है. इस काल में राजनीति का सूत्र हाथ में लेता है तक्षशिला का प्रखर चिन्तक शिक्षक चाणक्य जिसकी राजनीतिक सक्रियता था चन्द्रगुप्त.  इस काल में भी राजनीति धार्मिकता के नियंत्रण में थी. ध्यान से देखें तो इस काल में भी चाणक्य नंदवंसी शासन के विरुद्ध था न कि मगध की जनता और राष्ट्र के प्रति निष्ठावान लोगों के प्रति. राक्षस  धनानंद का निष्ठावान मंत्री था. उस काल में राजा के प्रति निष्ठां ही राष्ट्र के प्रति निष्ठां मानी जाती थी. राक्षस धनानंद के प्रति    निष्ठ तो था ही पर वह मगध के प्रति भी उतना ही निष्ठ था. चाणक्य की दृष्टि धनानंद के प्रति कठोर थी. यहाँ तक की उसको अपदस्थ करने के उसके  सारे उपाय विफल हो जाने पर वह धनानंद की हत्या तक करा देता है. किन्तु अपने सारे उपायों को विफल कर देने वाले राक्षस के प्रति वह कठोर नहीं होता. धनानंद की हत्या के लिए तमाम निर्दय षड्यंत्रों को रचने वाला चाणक्य , राक्षस की हत्या कराने की न सोच मगध की सत्ता चन्द्रगुप्त को सौंप कर राक्षस को उसका मंत्री बना देता है. धर्म नहीं धार्मिकता की इससे बड़ी मिशाल और क्या हो सकती है. इस धार्मिकता का नियंत्रण पूरे मौर्या शासन पर था.


फिर लगभग दो हजार साल बाद भारत के राजनीतिक  क्षितिज पर गाँधी का उदय होता है. गाँधी की राजनीति ने पूरे भारत को आच्छादित कर लिया. राजनीति में उन्होंने एक नया प्रयोग किया. धर्म के क्षेत्र में जीवन को नियंत्रित करने के लिए उपदेशित अहिंसा को राजनीति में स्थापित किया. राजनीति में और भी जीवन मूल्यों की उन्होंने स्थापना की. जिसके खिलाफ लड़ना था उसे शत्रु नहीं  माना. जेलों में संतरी की अनुपस्थिति में वह अपने स्वजनों से बात नहीं करते थे. न वह शासन के प्रति शत्रुवत थे न ही आन्दोलन चलाने के उनके उपाय ही शत्रुवत थे. वह देश और जीवन के प्रति समर्पित थे. इन्होंने भी धार्मिकता को राजनीति से ऊपर रखा. चौरीचौरा  कांड के बाद आन्दोलन को स्थगित कर देना इसी बात की ओर ध्यान खींचता है. १९१५ में जब गाँधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ वह अफ्रीका में  अपनी राजनीति का खम्भा गाड़ चुके थे जिसमें उनके नैतिक
मूल्यों की ईंटें लगी थीं. भारत आकर भी वह जल्दी में नहीं थे. अपने राजनीतिक गुरु बालकृष्ण गोखले के परामर्श पर उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया. देश की जनता को नजदीक से जाना समझा. यहाँ के सांस्कृतिक परिवेश में गहराई से  झाँका. फिर यहाँ की राजनीति में कदम रखा. उस समय इस देश की राजनीति में अनेक प्रतिभाशाली हस्तियाँ थी. कोंग्रेस की स्थापना हो चुकी थी. इसका स्वर देश की स्वतंत्रता थी. किन्तु इसे प्राप्त करने के लिए अपनाए जाने वाले  उपायों पर मतैक्य नहीं था. देश के मन को समझने का इनका कोई प्रयास नहीं था. गाँधी ने इनकी राजनीति की धुरी ही बदल दी. इन्होंने चंपारण से अपना कम शुरू किया. यहाँ इनके सहयोगी बने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और जे.बी. कृपलानी. नील को लेकर अंग्रेजों से प्रताड़ित स्थानीय लोगों की समस्या जानने के लिए गाँधी के आदेश पर गांव  गांव जाकर इन लोगों ने समस्या और उसके पहलुओं के दस्तावेज बनाये. इस तरह से जनता और जनता की समस्याओं तथा मनोवृत्तियों को समझने के बाद ही गाँधी ने अपने आन्दोलन का रुख तय किया. और यही उनकी राजनीति की प्रवृत्ति बन गयी.


लेकिन गाँधी ने सारे प्रयोग राजनीति में किये. उन्होंने जनता के मन को तो समझा पर अपने साथ हो लिए नेताओं के मन को समझने के लिए कोई प्रयोग नहीं किया. इसी लिए उनको न कोई अर्जुन मिला न चन्द्रगुप्त. श्रीकृष्ण ने अर्जुन पर गहन प्रयोग किया था. चाणक्य ने शरीर मन हर तरह से चन्द्रगुप्त को ठोका परखा और उसे सत्तारूढ़  कराने तक ठोकता परखता रहा. चन्द्रगुप्त  न सत्तारूढ़ होने की जल्दी में था न सत्ता पाने की उसको ललक ही थी. लेकिन गाँधी के प्रयास से जब राजनीतिक स्वतंत्रता फलित हुई गाँधी के सिपहसालारों में .सत्ता पाने की होड़ लग गयी. यहाँ तक कि  गाँधी क़ी इस दृढता को कि देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा इन लोगों ने उपेक्षा कर दी. प्रधानमंत्री के लिए नेहरू और पटेल में द्वंद्व खड़ा हो गया. जवाहर लाल नेहरू एक संवेदनशील व्यक्ति थे .पर उनके मन पर उनके  अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि की कुछ खरोंच पड़ी थी शायद. इसी लिए उनके मन में एक गांठ थी. वह अपने  मुकाबले के और स्वाभिमानी व्यक्तित्व को पसंद नहीं करते थे. वह   अपना सहयोगी भी  किसी  स्वाभिमानी और स्वतंत्र  व्यक्तित्व वाले को नहीं बनाना चाहते थे. वह नहीं चाहते थे कि  डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाया जाय. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी असहमति भी जाहिर कर दी थी. पर गाँधी के कहने पर कि किसी को तो यह जहर पीनाही पड़ेगा वह इस पद को संभालने को तैयार हुए थे. दूसरी बार भी जवाहर लाल कि इच्छा के विरुद्ध राजर्षि टंडन ने मोर्चा संभाला और तब राजेंद्र प्रसाद दुबारा रस्ग्त्रपति बने.


जवाहर लाल के बाद अब यही वर्तमान भारतीय राजनीति की दिशा और प्रवृत्ति बन गयी है. यह राजनीति गाँधी का उपयोग केवल वोट पाने के लिए करती है. गाँधी को नकारना इसके लिए संभव नहीं है. गाँधी की प्रासंगिकता को बनाये रखना इसकी मजबूरी है. कोंग्रेस का तो यह स्थायी भाव हो गया है. अन्य पार्टियाँ भी इससे अछूती नहीं हैं. जवाहर लाल ने तो कम से  कम  वंशवाद चलाने की न तो कभी इच्छा जाहिर की थी न
कोशिश की थी. किन्तु आज राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की जो जी तोड़ कोशिश की जा रही है वह कांग्रेस को इतिहास को देखते हुए विस्मयकारी लगता है. इसीलिए मेरा मन करता है कि कहूँ कि यह वह कोंग्रेस नहीं है जिसने भारत को आजादी दिलाने में भूमिका निभाई थी. यह उस कोंग्रेस के सिंडिकेट से निकली है जिसके सदस्यों में सत्ता पर काबिज होने कि होड़ लगी थी. और आज कोंग्रेस  इसी विकृति से संत्रस्त है. बाकी पार्टियाँ भी इसी रोग से ग्रस्त हैं.


अन्ना के अनोलन में थोड़ी सी लौ दिखी थी पर लगता  है यह अपने ही अंतर्द्वंद्वों की व्यथा झेल रही है.

 



Thursday 8 March 2012

होली का असामान्य होना

आज होली है. सन २०१२ की होली. देश के  कुछ हिस्सों में कल ही होली मना ली गयी. यह एक विडम्बना ही है. हमारे ज्योतिषियों को मिलकर एक सामान्य नियम बनाना चाहिए जो समूचे देश के  लिए एक हो. ऐसा करना हमारी सामूहिक एकता को बल ही देगा.
    सामान्य जनता के लिए तो नहीं पर राजनीतिकों  के लिए यह होली कुछ अलग ही रंग लिए होगी. क्योंकि कुछ  प्रान्तों में विधान सभा के चुनाव अभी अभी हुए हैं. चुनाव में कोई हारा है कोई जीता है. वैसे तो चुनाव के परिणामों को हर पार्टी के उम्मीदवारों को  खेल की भावना के अनुरूप लेना चाहिए पर राजनीतिक वातावरण इतना विषाक्त हो चुका है क़ी खेल क़ी भावना से चुनाव लड़ना सपना देखने जैसी बात है. ध्यान से देखें तो चुनाव लड़ने क़ी तस्वीर ऐसी प्रस्तुत क़ी जाती है जैसे युद्ध में लडाई लड़ी जा रही हो.सभी जानते हैं युद्ध  में प्रतिद्वंद्वी को नेस्तनाबूत कर लड़ाई जीतने की कोशिश की जाती है. विधायक चुने जाने को भी पार्टियाँ इसी विचार को लेकर चुनाव लड़ती दिख रहीं हैं. हो भी क्यों न . साहित्य और कला के क्षेत्र में भी इसी प्रकार की मनोवृति दिकाई देती है . संगीत के क्षेत्र में तो संगीत का विश्वयुद्ध जैसे  आयोजन होने लगे है जबकि संगीत में युद्ध जैसी भावना सर्वथा अनपेक्षित है.  आशा भोसले ने एक आयोजन में आयोजकों का ध्यान इस ओर खींचा भी था.पर इसे कोई माने क्यों. आज के युग में कलाकार से अधिक आयोजक  अपने को जानकार  मानते हैं. उन्हें कुछ चौंकाने वाले टाइटिल चाहिए. संगीत की  गहनता और सौंदर्य को वे क्या जानें और क्यों जानें. धनलाभ में इसकी क्या भूमिका है. हिंदी के के क्षेत्र में ही देखिये. इस विषय के अधिकारी से अधिक वे ही अपनी हांकते हैं जो अधिकारी नहीं हैं.
      तो फिर राजनीति ही अनुशासित क्यों हो. कहीं किसी कोने से यह नहीं दीखता की कोई जनसेवा के लिए विधायक बनाना चाहता  है. विधयक होने का एक ही ध्येय दीखता है रातों रात अकूत धन का मालिक  बन जाना. यह सही है की यह साधारणीकरण सभी विधायकों पर लागू नहीं किया जा सकता पर ९०% से अधिक विधायकों पर  तो  यह लागू  होता ही है. तो जो इस चुनाव में हार गए हैं वे जले भुने बैठे हैं. जो जीत गए हैं वे गरूर  में आ गए हैं. और होली का नारा होता है  'बुरा न मानो होली है ' . है तो यह नारा  अच्छे सेन्स में पर अच्छे  के आवरण में बुरे को  प्रतिस्थापित करना हम लोगों को खूब आता है. हार की भड़ांस और गरूर की उद्दंडता का होली में उच्छ्रिन्खल हो जाना आसन सी बात है.अभी कल ही गोरखपुर क्षेत्र में हारने वाले प्रत्याशी के समर्थकों ने  उन मतदाताओं पर हिंसक हमला बोल था  दिया जिन्होंने उसे वोट नहीं किया था.
       राजनीतिकों को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए. जनता का भी यह दायित्व  है की देश में इस तरह के वातावरण के निर्माण में सहयोग करे.वास्तव में राजनीति धर्म का क्रियारूप है.