Saturday 24 March 2012

यात्रा संस्मरण

हिंदी साहित्य में अनेक यात्रा संस्मरण लिखे गए हैं. उनमें से कई बहुत रोचक बन पड़े हैं. मैं यह पहला संस्मरण लिख रहा हूँ. प्रयत्न करूँगा यह  आदि से अंत तक रोचक बना रहे.

यह यात्रा मेरी श्रीमती जी की हार्दिक इच्छा का परिणाम थी. लगभग बीस
वर्ष पहले उनके मन में बनारस घूमने की आकांक्षा जगी थी. मैं तो उनकी
इच्छा को  पूरा नहीं कर पाया किन्तु बहू बेटे ने इस बार उनकी इच्छा पूरी
कर दी. होली के दूसरे दिन १० मार्च को हम बनारस  के लिए प्रस्थान  कर दिए रात की साढ़े आठ बजे की बस से.लेकिन बस की यात्रा सुभिधाजनक नहीं रही. रास्ते भर बस में बने सामान रखने वाले टूटे रैक सर पर झनझनाते रहे तो लालू राज में बने बिहारी सड़क जैसी सडकों पर बस के पहिये उछलते कुदाते ठन ठन करते रहे. मेरा सर तो ऐसा भन्नाया की मुझे एक उलटी भी हो गई. रात में लगभग चार बजे हम बनारस कैंट बस स्टेशन पहुंचे. हमने तुरत एक टेम्पो लिया और टेम्पोवाले की सहायता से राजमहल होटल में दो कमरे  बुक करा लिए.

बनारस की यात्रा:
तीन-साढ़े तीन घंटे आराम करने के बाद लगभग साढ़े सात बजे हम बनारस घूमने निकले. यात्रियों में मैं, मेरी श्रीमती  जी, बेटा-बहू और आठ महीने का पोता थे.. होटलवाले ने ही हमारी यात्रा का एक खाका खींच दिया और हमारे लिए एक टेम्पो भी किराए पर ले दिया. खाके के अनुसार सबसे पहले हम दुर्गा कुण्ड गए. वहां हमने दुर्गा मंदिर देखा. फिर और मंदिरों को देखते हुए तुलसी मानस मंदिर गए. मैंने जब इस मंदिर को सन १९६५ में देखा था तब विजली से मूर्तियों को हिलता डुलता दिखाने की तकनीक शायद जल्दी ही विकसित हुई थी.उस समय इस मंदिर में बहुत रौनक थी. इस बार यह मंदिर कुछ बुझा बुझा सा लग रहा था.व्यवस्था की कमी तो थी ही इसकी वजह अन्य तीर्थों में भी इस तकनीक का विकसित हुआ देख आना भी वजह हो सकती है.

वहां से हम सकट मोचन मंदिर गए. टेम्पोवाले ने इस मंदिर में हमें एक पतली गली से प्रवेश कराया. मैं भ्रम में पड़ गया कि यह कौन सा मंदिर है. क्योंकि पहली बार जब मैं यहाँ आया था तब मंदिर मुख्य सड़क के बगल में ही दिखा था.और मैं सड़क से ही मंदिर में प्रवेश किया था.मंदिर में जाकर देखा कि मुख्य सड़क वाला प्रवेश द्वार सामने है. लगता है सन २००६ के आतंकी हमले के बाद चेकिंग के लिए यह नई व्यवस्था की गई है. बाद में याद आया कि जिस गली से हमने मंदिर में प्रवेश किया है वह वही गली है जो पहले नारिया मोहल्ले को जाती थी और उस तरफ अभी दूर तक ख़ाली स्थान था. खैर, मंदिर में आकर हम सब ने वहां बरसती शांति का बहुत आनंद लिया हनुमान जी का दर्शन किया, प्रसाद लिया और सर से लगाया. यह मंदिर बनारस का बहुत प्रसिद्ध मंदिर है. यह मंदिर गंगा की सहायक नदी असी के बगल में स्थित है. हम जहाँ ठहरे थे वहीँ पास में वरुणा नदी बहती है. इस मंदिर की स्थापना तुलसी  दास ने की थी. तुलसी दास को यहीं हनुमान जी का दर्शन हुआ बताते हैं.यह वर्तमान मंदिर मदन मोहन मालवीय ने सन १९०० में बनवाई थी. मंदिर में स्थित पुराने पेड़ पर उछलते कूदते वन्दरों के बच्चे बड़े मनोहारी लग रहे थे.


वहां से हम विश्वविद्यालय स्थित विश्वनाथ मंदिर गए. इस मंदिर को बिड़ला मंदिर भी कहते हैं. यह मंदिर अब पूरा बन गया है. इसकी विशालता और भव्यता देखने लायक है.बहुत ही सुन्दर मंदिर है. हमने भक्ति पूर्वक शिवलिंग का दर्शन किया. लान में स्थापित एक गैंडे पर अपने अठ्माहे पुत्र को बिठाकर (मेरे पुत्र ) शोनेंदु ने फोटो लिया. फिर बाहर  निकलकर हमने नाश्ता किया. इसके बाद टेम्पोवाले ने हमें लेकर रामनगर किले के लिए चल दिया.


गंगा बनारस नगर के दक्षिण में बहती है. वरुणा और असी नदियाँ बनारस को घेर कर बहती हुई गंगा में मिल जाती हैं.  गंगा की इन्हीं  दोनों सहायक नदियों के बीच में स्थित होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा, ऐसा कहा जाता है. हालांकि इतिहासकार इसपर सहमत नहीं हैं. वाराणसी का ही अपभ्रंश बनारस है. टेम्पोवाला विश्वविद्यालय से निकल कर गंगा के किनारे कुछ दूर तक चलकर पीपा के पुल से हमें गंगा पार कराया. नया पुल पीपापुल के बगल में अभी बन रहा है. पीपा का पुल सीधे पुराने रामनगर किले के पास ही उतरता है. इस किले को काशी (बनारस का एक नाम) के राजा बलवंत सिंह ने बनवाया था. इसे संग्रहालय का रूप दे दिया गया है.राजपरिवार अब महाराजा चेतसिंह के बनवाए चेतसिंह महल में रहता है. पिछली बार आया था तो मैं  इसे नहीं देख सका था.शोनेंदु ने टिकट लिया और हम संग्रहालय में प्रवेश किए. शुरू के कमरों में हमें पुराने ज़माने की बग्घियाँ ,इक्के ,बैलगाड़ियाँ और हवागाड़ियाँ देखने को मिलीं. इन बग्घियों को देख कर मुझे उस बग्घी की याद आ गयी जिसपर मेरे फूफा बमबहादुर लाल चलते थे.वह हथुआ  राज के किरानी थे. तेल  इंधन से चलने वाली गाड़ियों को हमलोग तब हवागाड़ी या लारी कहते थे. हथुआ राज अस्पताल के छोटे डॉक्टर जिन्हें लोग छोटका बाबू कहते थे इसी में से एक मॉडल की लारी से चलते थे. पुरानी यादें ताजा हो आईं. इसे देख कर श्रीमती जी और बेटे बहू सभी आनंदित हो उठे. इन कमरों को पार कर संकरे कमरों में  रखी मूर्तियाँ और फोटोग्राफ देखते हुए हम एक बड़े आँगन में गए. यह आँगन चारो ओर बने कमरों से घिरा है. हमलोगों ने इन कमरों में प्रवेश किया. इन कमरों में बहुत पुराने हथियार सजाकर रखे गए हैं.छोटी बड़ी तरह तरह  की बंदूकें, पिस्तौलें, तरह तरह  के भाले, तरह तरह के तीर धनुष, छुरे छुरियां, विभिन्न तरह की तलवारें हमें यहाँ देखने को मिलीं. हमें यहाँ शिरस्त्राण और कवच पहने और हाथ में भाला लिए एक योद्धा की प्रतिमूर्ति भी दिखाई दी और युद्ध में लड़ते हुए एक योद्धा की कल्पना कर हमें रोमांच हो आया. यहाँ तो जैसे पुराने हथियारों का जखीरा  ही इकठ्ठा करके रख दिया गया है. इन हथियारों में देश और विदेश में बने दोनों तरह के हथियार संरक्षित हैं. मेरे पूरे परिवार ने इसका आनंद लिया. इसके बाद वह स्थान भी देखा जहाँ राजा का दरबार लगता था. यहाँ से फिर हम तहखाने से होकर शिव  मंदिर गए. इस तहखाने में सीढियां उतरी हैं जो सीधे गंगा में जाती हैं. शायद इन्हीं सीढियों से उतर कर राज परिवार गंगा में स्नान कर मंदिर में पूजा करता था. मंदिर गंगा की ओर खुला है. वहां से गंगका की धारा में  तैरती नावों और उस पार स्थित  विश्वविद्यालय की परिखा का दृश्य बड़ा ही सुन्दर दिखता है. उस पार मीलों लम्बे  फैले विश्वविद्यालय के किनारे फैले पेड़ पौधे आकाश में टंगे तो नहीं दीखते पर बंदनवार से तने अवश्य दिखाई देते हैं.


रामनगर किला और उसके संग्रहालय को देख कर रोमांचित हमलोग वहां से सारनाथ के लिए चल पड़े. पर इसका संस्मरण अलग से. क्योंकि पुराने विश्वनाथ मंदिर की चर्चा बनारस यात्रा में हो तो तारतम्यता बनी रहेगी


सारनाथ घूमने के बाद हम पुराने विश्वनाथ मंदिर गए. होटलवाले ने हमें बताया था की सायं चार  बजे भीड़ कम मिलेगी. टेम्पोवाले ने गलियों के लिए मशहूर बनारस की कुछ चुनिन्दा गलियों से होता हुआ हमें विश्वनाथ मंदिर पहुंचा दिया. सन '६५ में जब मैं यहाँ आया था तब मंदिर तक पहुँचने के लिए  बहुत सारी गलियां नहीं थी. पंडों का  झमेला तब ज्यादा था पर मंदिर में प्रवेश जल्दी ही मिल गया था. इस बार भीड़ कम होते हुए भी मंदिर में प्रवेश  पाने के लिए लम्बी दूरी तय करनी पड़ी.पण्डे तो अभी भी अपना धंधा चला रहे हैं पर सरकारी व्यवस्था के कारण अब वे अधिक हस्तक्षेप नहीं कर पाते हैं. खैर  प्रसाद लेकर हम मंदिर के अन्दर गए. एकाध घंटे में हमें शिवलिंग का दर्शन हो गया. जिस रूप में आज मंदिर है इसे इंदौर की महारानी अहल्याबाई ने सन  १७८० में बनवाया था. मंदिर की दो छतों पर महाराजा रणजीत  सिंह ने सन १७८५ में सोने के पत्तर लगवा दिए थे. मंदिर के  गर्भगृह की ऊँचाई पहले बहुत थी. शिव लिंग को मैंने गर्भगृह में खड़ा होकर स्पर्श किया था..इस बार देखा की गर्भगृह का फर्श ऊँचा हो गया है और शिवलिंग गड्ढे में हो गया है. हमने झुककर  किन्तु शिवलिंग का हाथों से स्पर्श किया. पर इसके प्रभाव में कोई कमी नहीं आई है. वहीँ हमने अन्नपूर्णा मंदिर भी देखा. वहां से निकलकर  हम दशाश्वमेघ घाट गए. घाट की सीढियां उतरने के रास्ते में वह मान मंदिर है जिसकी छत पर जयपुर के राजा मानसिंह ने पुरानी शैली  की एक वेधशाला बनवाई थी जो अभी भी अस्तित्व में है. समय की कमी के कारण हम उसे नहीं देख सके. घाट की सीढियां उतरकर हमने एक नौका ली और बोटिंग का खूब मजा लिया. बोट से ही  हमने बनारस की गंगा आरती देखी. बोट से घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम लग रहा था. मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर कुछ लाशें जल रहीं थी. कथा है की इसी हरिश्चंद्र  घाट परअपना सारा  राज्य विश्वामित्र को दान दे देने के बाद राजा हरिस्व्ह्चंद्र ने श्मसानघाट की पहरेदारी की थी. इसी घाट पर उनहोंने  अपनी पत्नी शैव्या से मृत पुत्र रोहिताश्व के दाह के लिए कर माँगा था .इसी घाट पर वह हृदयविदारक घटना  घटित हुई  थी. जब शैव्या ने अपनी लाज की साड़ी फाड़कर श्मसानघाट का कर चुकाया था. उस दृश्य की कल्पना के हमारी आँखें नाम हो गईं और अपनी यात्रा यहीं समाप्त  कर हम अपने होटल को चल दिए.


धार्मिक स्थलों के बारे में पुरातन कल से चली आ रही कथाएं कितनी ऐतिहासिक हैं नहीं मालूम किन्तु इन्हीं कथाओं में हमारी संस्कृत साँस लेती है.

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