Sunday 3 June 2018

मुक्तिबोध की कविताः ‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन-8

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव                 03-05-2018                 रचनाकार में प्रकाशित


clip_image002

मुक्तिबोध की कविताः अँधेरे में’, भाष्यालोचन-8
प्रसंगागतः
रिहा होकर सैनिकों की पकड़ से दूर जाता कवि, कुछ कुछ सार्थक सोचता आगे बढ़ रहा है. वह सोचता जाता है कि उसने जो स्वप्न देखा है (साम्यवादी समाज रचना का) उस स्वप्न की कोमल किरनें केवल किरनें भर नहीं हैं बल्कि वे उसकी दृढ़ीभूत कर्म-शिलाएँ हैं. इन्हीं से उस समाज की नींव पड़ेगी. इसी में जन की मुक्ति है. इसे न कोई रोक सकता है न कोई इससे छल कर सकता है.

एकाएक हृदय....................................................................................गोली चल गई
चलते चलते कवि जब सोच के इस बिंदु पर था कि स्वतंत्रता चाहने वाला कोई व्यक्तिवादी, मुक्ति चाहने वाले के मन को छल नहीं सकता, उसे नगर में अचानक भयानक धुँआ उठता हुआ दिखता है. यह देख एकाएक उसका हृदय धड़क कर रह जाता है. ऐसा क्या हुआ कि नगर में भयानक धुँआ उठ रहा है, नगर में कहीं आग लग गई है और कहीं गोली चल गई है. सड़कें सुनसान हैं जैसे चारों ओर मरा हुआ सन्नाटा फैला है. हवाओं में अदृश्य ज्वाला (आग की ज्वाला उसकी आँखों से ओझल है, केवल उठता हुआ धुँआ ही दीख रहा है) की गरमी है और उस गरमी का (उसको धक्का देकर उसे आगे बढ़ाता हुआ) आवेग है. ऐसे में सैन्य-जुलूस के सैनिक साथ साथ घूमते हैं, साथ साथ रहते हैं, साथ साथ सोते हैं, साथ साथ खाते हैं और साथ साख पीते हैं. उनका एक मात्र उद्देश्य जन का मन है अर्थात जन के मन को दहशत में लाना है. खाकी के कसे हुए ड्रेस में ये पथरीले चेहरे वाले सैनिक यंत्रवत घूमते हैं. वाकई वे जाने पहचाने से लगते हैं. अह! कहीं आग लगी है, कहीं गोली चल रही है.

इस कहीं आग लगने और कहीं गोली चलने की घटना पर सभी चुप हैं. साहित्यिक भी चुप हैं. वे साहित्य में इस संवेदना को ढाल सकते थे पर नहीं ढालते. कविजन गा-गा कर ऐसी कुचेष्टा के विरुद्ध जनता को जागरित कर सकते थे, पर नहीं करते. चिंतक, शिल्पकार और नर्तक भी चुप हैं. ये अपने चिंतन, शिल्प और नृत्य के माध्यम से विरोध कर सकते थे पर नहीं करते. कवि सोचता है इन सब की दृष्टि में उक्त जन ऐसी घट रही घटनाओं के विरोध में जो कुछ करते हैं, यह सब गप है अर्थात ऐसा कोई करता नहीं रहा है. उनके लिए ऐसा उद्धृत करना मात्र किंवदन्ती भर है. ये सभी लोग, रक्तपायी वर्ग (शोषक वर्ग) से नाभि-नाल बद्ध हैं अर्थात इनमें से एक की नाभि (साहित्यिक, चिंतक...की) और दूसरे के नाल (शोषक वर्ग के), नवजात शिशु के नाभि और नाल के समान जुड़े हुए हैं. ये नपुंषक भोग-शिराओं के जाल में उलझे हुए हैं. उक्त बौद्धिक वर्ग ऐसा क्यों करता है, कवि के सामने एक प्रश्न है. कवि महसूस करता है कि इस प्रश्न की उसे कुछ उथली-सी (ऊपर ऊपर की) पहचान है. अर्थात ये ऐसा क्यों करते हैं उसे इसकी कुछ कुछ समझ है. वह उस राह से अनजान है जिसपर चल कर वे यहाँ पहुँचते हैं. यह सोच कर कवि की वाणी में रुआँसापन आ जाता है. इस अराजक स्थिति में कवि को लगा जैसे कहीं कोई निर्दयी किसी के कलेजे पर चढ़ गया और कहीं आग लग गई और कही गोली चल गई.

इस भयंकर आगजनी और गोलियों की बौछार के डर से समाचारपत्रों के स्वामियों के समाचार लिखने के स्थल अब उनके आलीशान भवनों के विवररूपी भीतर के कमरों में कर लिए गए हैं. इन बंद कमरों में अब संवाद और समीक्षाएँ गढ़ी जा रही हैं (जो वास्तविकताओं से दूर होती हैं) और जन के मन और हृदय की शूरता (वीरता) की टिप्पणियाँ गढ़ी जा रही हैं अर्थात कृत्रिम रूप से जन के मन की दृढ़ता की बात लिखी जा रही हैं. बैद्धिक वर्ग पूँजीपति वर्ग का क्रीतदास बना हुआ है. सभी जगह किराए के विचारों का ही उद्भास है अर्थात जन में केवल उन्हीं विचारों का प्रसार है जो शोषकों द्वारा खरीद लिए गए हैं. बड़े बड़े लोगों के चेहरों पर, जिन्होंने शोषक वर्ग का विरोध करने का, ढोंग कर रखा था, उनकी पोल खुल गई है, उनके चेहरों पर स्याही पुत गई है. जन के प्रति उनके मन में जो नपुंसक श्रद्धा थी वह सड़क के नीचे की गटर में छिप गई है अर्थात उन्होंने अपने मुँह छिपा लिए हैं. ऐसे बिरोधहीन माहौल में कहीं आग लग रही है और कहीं गोली चल रही है. आग और गोली चलने से जो धुँआ चतुर्दिक फैल रहा है उससे लहरीले हो गए मेघों के नीचे प्रत्येक पल तेजी से लोगों की अपनी गतियाँ बिखर रही हैं (लोग तितर बितर हो रहे हैं). स्प्लिट सेकेंड (सेकेंड के खंडों में) में सैकड़ों साक्षात्कार लिए जा रहे हैं (संवाददाताओं द्वारा). ऐसे बने माहौल में, आजादी-प्राप्ति के बाद लोगों के मन में रूप ले रहे सपने, धोखे-से भरे हुए लग रहे हैं. लोगों के मन में इस शान की किरनें बह रही हैं कि उनकी आत्मा विश्व-मूर्ति में ढली हुई है अर्थात वे सबका कल्याण चाहते हैं, आततायियों का भी. कवि नगर में कहीं आग लगने और कहीं गोली चलने से बहुत बेचैन है.

रात के पत्थर............................................................................................चल गई
नगर में आग लगने और गोली चलने का ऐसा प्रभाव है कि कवि की अनुभूति में राह के पत्थर के ढोकों (खड्डों) में पहाड़ों से गिरने वाले झरने मानो तड़पने लगे हों अर्थात झरनों के लिए जैसे पानी की कमी पड़ गई हो. कल्पना में कवि का ध्यान उन श्रमिकों की तरफ जाता है जो परती खेतों में ईंटें पाथ रहे हैं. नगर में लगी आग की धाह से मिट्टी के लोंदे (निट्टी को सान कर बनाया गया गीला गोला) के भीतर भक्ति की अग्नि का उद्रेक (लोंदे के भीतर उपस्थित पानी, जो ईंट को रूप देने के काम आता है, को सुखाती अग्नि का बढ़ना) भड़कने लग गया हो अर्थात वह लोंदा, जिसे साँचे में ढाल कर ईंट बनानी हो, उसके सूख जाने के कारण, उसे ईंट का रूप नहीं दिया जा पा रहा हो. (मकानों को बनाने के लिए ईंटें बनाने हेतु पहले मिट्टी के लोंदे बनाए जाते हैं और उस लोंदे को सांचे में ढाल कर ईंटें बनाई जाती हैं. वे लोंदे आग और गोली की प्रज्वल उष्णता से सूख कर कठोर हुए जा रहे हैं जिससे ईंटों का ढालना असंभव हुआ जा रहा है. कवि इस कल्पना द्वारा अपनी दृष्टि की व्यापकता और श्रमिक के प्रति अपनी सहिष्णुता का बोध कराता है). वायु में उपस्थित धूल-कणों में अनहद नाद का खतरनाक कंपन व्याप्त हो रहा है (यह कंपन कानों को फाड़े दे रहा है). गोलियों की धमक से मकानों की छतों से गार्डर धम्म की आवाज करते हुए गिर रहे हैं. मकानों में खड़े किए गए खंभे भी भयानक वेग से हवा में घूम जा रहे हैं अर्थात गिरने गिरने को हो रहे हैं. दादा का सोटा भी जो किसी की खबर लेने के काम आता था, अपना दाँव पेच खेलता हुआ हवा में नाच रहा है. कक्का की लाठी भी जिससे वह किसी पर अपना दबदबा बनाते थे आकाश में नाच रही है. कहने का अर्थ यह कि इन गोलियों के आगे सभी कुछ बेकार हो चुके हैं. यहाँ तक कि रोते हुए बच्चे की पें-पें की आवाज भी हवा में गुम हो जा रही है. बच्चों की स्लेट पट्टी भी हवा में तेजी से लहराती घूम रही है. एक एक वस्तु हवा में इतनी जेजी से उड़ रही है कि लगता है ये प्रत्येक वस्तु प्राणाग्नि बम-से लगते हैं, ये परमास्त्र, प्रक्षेपास्त्र या किसी बम के जैसे लगते हैं. लगता है वे शून्य आकाश में होते हुए अपने शत्रुओं पर अनिवार्य रूप से टूट ही पड़ रहे हों. कवि कहता है कि यह सब कथा नहीं है जिसे बना कर कहा जा रहा हो. यह सब सच है कि नगर में कही आग लग गई है और कहीं गोली चल गई है.

किसी एक.........................................................................................गोली चल गई
कवि यहाँ उपमा देकर यह बताने की चेष्टा कर रहा है कि किस तरह कोई संकल्प शक्ति हमारी आत्मा को एक लोहे के ज्वलंत टायर (शक्ति की कसावट) में जकड़ने की कोशिश कर रही है. कवि उस उपमा का पहले पूरा ब्योरा दे रहा है. कहता है- एक बलवान साँवले तन वाला लुहार बैलगाड़ी के चक्के पर लोहे का हाल (लोहे का गोल चक्का) चढ़ाने के लिए कण्डों का एक मंडल (गोल घेरा) बनाता है, उसपर कंडों (गोबर से बने) को सजाकर उसमें आग लगाता है. जब कण्डे जल कर लाल-लाल अंगारे-से हो जाते हैं और उससे सुनहरे कमलों की पंखुरियों के समान ज्वालाएँ उठने लगती हैं, उस समय वह लुहार उस गोल ज्वलंत रेखा में लोहे का चक्का रखता है. जलते कण्डों की गोलाई में लोहे के चक्के के लाल होने पर उससे नीली लाल स्वर्णिम चिनगारियाँ निकलने लगती है जैसे फूल खिल रहे हों. ऐसे में कुछ साँवले मुख वाले जन (उस लुहार के साथ) लोहे के चक्के की लाल हुई पट्टी (हाल) को घन मार मार कर लकड़ी के चक्के पर जबरन चढ़ाते हैं, कवि सोचता है कि उसी प्रकार हमारी आत्मा के चक्के पर आतताइयों की संकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत और ज्वलंत टायर चढ़ाया जा रहा है. वह महसूस करने लगता है कि वास्तव में युग बदल गया है. कैसा युग आ गया है कहीं आग लग रही है और कहीं गोलियाँ बरस रही हैं.

गेरुआ मौसम.....................................................................................गोली चल गई
नगर में लगी आग से अंगारे उड़ रहे हैं जिससे आकाश का रंग गेरुआ हो उठा है। लगता है जैसे मौसम गेरुआ हो गया है। इन ओंगारों में जिंदगी के जंगल जल रहे हैं अर्थात नगर की अनेक जिंदगियाँ इस आग में स्वाहा हो रही हैं. इस आग में जलने से लोग भीषण रूप से प्रज्वल और प्रकाशित फूलों से दिख रहे हैं जैसे ज्वालामुखी से निकलने वाले फूल हों. इनकी आत्माओं से उठते हाहाकार में उनकी वेदना (तड़पन) की नदियाँ बह रही हैं. उनकी वेदना-नदियों के जल में (तरल प्रवाह में) सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ अपने ज्वलंत बिंब पेंकती हैं अर्थात सदियों से लोगों की जीवन सरणियों में जो संस्कृतियाँ उनका अंग बन चुकी हैं वे उनकी वेदना के माध्यम से उफन कर सतह पर आ रही हैं. इन वेदना-नदियों में मानो युगों-युगों से (श्रमिक वर्ग के?) आँसू डूबे हुए हैं. इसमें पिताओं (आँसू देने वाली पिछली पीढ़ी) की चिंताओं के उद्विग्न रग और विवेक रूपी पीड़ा की बेचैन गहराई भी है (अर्थात गहरे में भी उनमें बेचैनी है) जिसमें श्रमिकों का संताप डूबा हुआ है. श्रमिकों के संताप से तर जल को पीने से अर्थात उसमें घुली उनकी वेदना को गुन कर कवि से प्रभावित युवकों में व्यक्तित्वांतर (व्यक्तित्व का अंतरण या बदलाव) हो रहा है. व्यक्तित्वांतरित हुए ये युवक विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह के संग्राम कर रहे हैं मानो ज्वाला रूपी पंखुरियों से घिरे, वे सब अग्नि के शतदल-कोष में बैठे हुए हैं अर्थात अग्नि के ढेर पर बैठे हैं. निश्चयी शक्तियाँ (सबकुछ निश्चित कर देने वाली शक्तियाँ या निश्चय के साथ कुछ करने वाली शक्तियाँ) तीव्र-वेग से बह रही हैं. कहीं आग लगी हुई है और कहीं गोली चल रही है.

x x x x

एकाएक फिर.................................................................................कौन थी कौन थी
पूरी काव्य-रचना में कई बार कवि का स्वप्न भंग होता है. अब एकबार फिर उसका स्वप्न भंग होता है. अबतक के स्वप्नों में जो चित्र उसके मन के पर्दे पर बने थे वे सब बिखर गए. अब वह फिर से अपने को अकेला महसूस करता है उन चित्रों के साथ होने से वह अपने को दुकेला समझता था. इस स्वप्नभंग से उसके मस्तिष्क और हृदय में छेद पड़ गए हैं. अर्थात उसके मस्तिष्क और हृदय में टीस की पीड़ा भर गई है. इन दुखते हुए रगों के रंध्रों में गहरे प्रदीप्त ज्योति अर्थात जन-क्रांति के उभार का रस बस गया है.

कवि उन देखे गए स्वप्नों का आशय खोज रहा है. और उस आशय की समझ आने पर उसके अर्थों की वेदना (अर्थात अर्थों की संवेदना) उसके मन में घिर आती है. कवि इसे एक अजीब झमेला समझ रहा है. यहाँ अपने मन की अंतर्पीड़ाओं को कवि द्वारा झमेला समझा जाना कवि की सोच और व्यक्तित्व पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा करता है. तब तो यह भी कहा जा सकता है कि जनक्रांति भी उसके लिए झमेला सदृश ही होगी. यह बात अजीब लगती है कि, कवि के अनुसार इस अजीब झमेला के होते हुए भी उसका मन घाव-रूप उन अर्थों के आस-पास घूमता है (अर्थात उन स्वप्नों के आशय कवि को घाव करते से लगते हैं) किंतु इससे उसकी आत्मा में चमक भरी (आकर्षक) प्यास भर गई है (अर्थात उसके मन में हो रहा है कि ये घाव लेने जैसे हैं). कवि को संसार भर में (साम्यवादी समाज की रचना की) सुनहली तस्वीर दिखती है, कुछ इस तरह कि गत सपनों के किसी अनपेक्षित क्षण में सहसा उसने जीवन भर के लिए प्रेम कर लिया हो. मानो उस क्षण उसे किन्हीं अतिशय मृदु बाँहों ने (प्रेमिका की) कस लिया हो और उसके मृदुस्पर्श और चुंबन की उसे याद आ रही हो. कवि उस स्वप्न-प्रणयिनी के प्रति अनजान है. अपने आप से ही पूछता है वह अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?

कमरे में धूप...........................................................................अंतरिक्ष-वायु में सिहरा
किसी स्वप्न-प्रणयिनी के अहसास के साथ कवि का स्वप्न टूटता है. स्वप्न से विरत कवि महसूस करता है कि उसके कमरे में सुबह की धूप आ गई है. गैलरी में सूरज की सुनहली किरणें फैल गई हैं. स्वप्न टूटने पर वह अपने आप से पूछता है, क्या यह स्वप्न फलित होगा? क्या सचमुच में उसे कोई प्रेमिका मिलेगी? वह अपने भीतर इस अहसास के जगने से प्रसन्न नहीं होता. वह उद्विग्न हो उठता है- हाय! स्नेह की यह गहरी वेदना क्योंकर उसके अंदर जाग गई? इसे जगना नहीं चाहिए था
.
स्वप्नलोक से इस जगतलोक में आने पर कवि महसूस करता है कि जग में सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल अर्थात अलक्ष्य, केवल महसूस होने वाला हलचल है. इस हलचल में चुंबक का आकर्षण है. हर वस्तु की अपनी निजी गरिमा का आलोक है, मानो अलग अलग फूलों का अलग अलग रंगीन और बेमाप (जिसे मापा नहीं जा सकता) वातावरण है. इन वस्तुओं का एक अपना प्रकट अर्थ है पर एक अन्य अर्थ भी इसमें छिपा हुआ साफ साफ झलक रहा है. कवि महसूस करता है कि उसके कमरे की डेस्क पर रखे महान ग्रंथों के लेखक उसकी इन मानसिक क्रियाओं के प्रेक्षक बन गए हैं. उसे यह भी महसूस होता है कि उसके कमरे में इस क्षण आकाश उतर आया है, उसका मन अंतरिक्ष की वायु में सिहर उठा है. इन काव्य-पंक्तियों से यही बोध होता है कि जिस स्वप्न-चिंतन में वह लगा था वह उसके लिए बोझस्वरूप था. उससे मुक्त होकर वह अब निर्ग्रँथ है और प्रकृति की बाँहों में है.

उठता हूँ जगता हूँ.................................................................................आत्म-संभवा
धूप निकल आने पर कवि अब अपनी जगह से उठता है और गैलरी में जाकर खड़ा हो जाता है. वह देखता है कि एकाएक वह व्यक्ति (जो कभी मशाल की रौशनी के साथ दिखा था, रक्तालोकस्नात पुरुष) उसकी आँखों के सामने गलियों और सड़कों से होता हुआ लोगों की भीड़ में चला जा रहा है. उसे स्मरण होता है कि यह वही व्यक्ति है जिसे उसने एक गुहा में देखा था. उस व्यक्ति को देख कर उसका दिल धड़कने लगता है. और जैसे ही उसे पुकारने को उसका मुँह खुलता है कि अचानक वह दिखते दिखते फिर किसी जन-यूथ में गुम हो जाता है और उसका हाथ उसे पुकारने को उठा का उठा ही रह जाता है.

इन पंक्तियों में कवि स्पष्ट करता है कि अकस्मात दिखा वह पुरुष उसकी अनखोजी (जो खोजी न जा सकी हो) निजी समृद्धि का परम उत्कर्ष है. वह उसकी परम अभिव्यक्ति है. कवि उसका शिष्य है और वह कवि का गुरु है, परम गुरु है. वह कभी उसके पास न आया था न बैठा ही था. उसे कवि ने एकबार तिलस्मी खोह में देखा था, आखिरी बार. किंतु वह रहस्य –पुरुष प्रत्येक पल जगत की गलियों में फटेहाल घूमता रहता है. उसमें विद्युततरंग-सी वही गतिमयता है. वह उत्यंत उद्विग्न, ज्ञान का तनाव है. उसमें अतिशय सक्रिय प्रेमरूप है किंतु उसका रूप वही फटेहाल है जैसा तब था. वह परम अभिव्यक्ति सारे संसार में घूमती है, पता नहीं कहाँ कहाँ, यह भी पता नहीं कि इस समय वह कहाँ है. कवि कहता है कि इसीलिए वह उसे हर गली में और हर सड़क पर झाँक झाँक कर ढूँढ़ता है, हर एक चेहरे को गौर से देखता है. वह प्रत्येक चेहरे की गतिविधि, चरित्र और हर एक आत्मा का इतिहास देखता है. वह हर एक देश की राजनैतिक परिस्थिति, मनुष्य से संबंधित उसका प्रत्येक स्वानुभूत आदर्श, विवेक की प्रक्रिया और उस क्रिया की परिणति भी देखता है. वह उसे (परम अभिव्यक्ति को) पठारों पर, पहाड़ों में, समुद्र में जहाँ उसके मिलने की संभावना देखता है, खोज रहा है. इतना प्रयास करने के उपरांत कवि को यह प्रतीति होती है कि उसकी वह खोई हुई परम अभिव्यक्ति अनिवार्य है किंतु आत्मसंभवा है अर्थात अपने आप प्रकट होने वाली है या कहें स्वतः रूप लेने वाली है.

आलोचनाः
‘अँधेरे में’ कविता का यह आठवाँ खंड उसका समापन अंश है. इस अंश में कवि अनुभव करता है कि कोई बलवान शक्ति उसकी आत्मा को एक लौह-शक्ति के शिकंजे में कसती जा रही है मानो कोई बलवान लोहार अपने साथियों संग घन से पीट पीट कर उसकी आत्मा रूपी गाड़ी के चक्के पर लोहे की पट्टी चढ़ा रहा हो.

इस अंश में कवि एक खास बात कहता है कि आग और गोलियों की मार से आक्रांत जन की वेदना-नदियों की समानुभूति में आकर युवा वर्ग अपने व्यक्तित्वों का अंतरण कर रहे हैं. इस बात से यह ध्वनि निकलती है कि युवाओं में इन आक्रांताओं के विरुद्ध जंग छेड़ने की मनोवृत्ति जाग रही है. वे उनसे लड़ने का मन बनाने लगे हैं.

इस कविता की कई पंक्तियाँ अपना स्पष्ट अर्थ नहीं देतीं. कवि ने इस कविता में जो “मिट्टी के लोंदे के भीतर/भक्ति की अग्नि का उद्रेक/भड़कने लग गया हो वाक्य-विन्यास की रचना की है, इसमें न तो स्पष्टता है न किसी काव्य-सौंदर्य की अनुभूति होती है. यहाँ मिट्टी के लोंदे के भीतर भक्ति की अग्नि क्या चीज है. लोंदे के भीतर पानी की स्थिति होती है. यहाँ किस सहज गुण धर्म की सामान्यता से भक्ति का प्रतीक पानी माना जाय. हाँ पानी की अग्नि से पानी की ऊर्जा का अर्थ लिया जा सकता है जो मिट्टी के अणुओं को जोड़े रखता है. इस ऊर्जा के भड़कने का क्या तात्पर्य हो सकता है. आग की धाह से पानी सूखेगा तभी ईंटें रूप ले सकेंगीं. इसका अर्थ होगा पानी की ऊर्जा में कमी का होना तो फिर अग्नि (ऊर्जा) के भड़कने से क्या आशय लिया जाए.

इस कविता से स्पष्ट होता है रक्तपायी वर्ग के द्वारा निकाले गए जुलूस के सैनिकों द्वारा घटित की जाने वाली आगजनी से हर वर्ग विशेषतः श्रमिक वर्ग संत्रस्त है. लेकिन कवि जब अगली फैंटेसी में यह उद्भावना करता है कि आग लगने और गोलियों के चलने से नगर के गेरुए हो गए मौसम में उड़ते अंगारों में अब जिंदगी के जंगल जल रहे हैं (जंगल जल रहे जिंदगी के अब), तो इस पंक्ति से यह आशय भी निकलता है कि नगर की जिंदगियाँ यहाँ स्वाभाविक रूप से नहीं वरन जंगल झाड़ की तरह विकसित हैं. तब तो इन्हें जलाकर साफ करना ही उचित है. जबकि कवि का आशय शांत ढंग से जी रही जिंदगियों में आए विक्षोभ को व्यक्त करना प्रतीत होता है. कवि उसे अभिव्यक्त करने में विफल हुआ प्रतीत होता है.

कविता के अंतिम छंद में कवि अपनी उस खोई हुई अभिव्यक्ति की चर्चा करता है जिसे आरंभिक कविता में वह रक्तालोकस्नात पुरुष के रूप में देखता है. वह कहता है कि वह रहस्यमय पुरुष उसकी निजी समृद्धि का परम उत्कर्ष है, वही उसकी परम अभिव्यक्ति है. मेरा अनुमान है कि कवि जो कुछ कहना चाहता है, उसमें उसकी इच्छा है कि जीवन के सर्वाँग की अभिव्यक्ति आ जाए. और जीवन के सर्वांग में मनुष्य की सकल अनुभूति आ जाती है क्योंकि जीवन की कल्पना मनुष्य के संदर्भ में ही है. उस अभिव्यक्ति के लिए वह अपने भीतर की ओर न देख अपने बाहर के जगत की ओर देख रहा है. जबकि अभिव्यक्ति व्यक्तित्व के तल (बाहरी तल) से नहीं आती, आत्मा के तल (अंतस्तल) से आती है. बाहर के तल से आने वाली अभिव्यक्ति तू-तू मैं-मैं वाली होती है जो पल पल बदलती रहती है. पर आत्मा के तल से आने वाली अभिव्यक्ति अंतर की खुशबू लिए हुए और स्थायी होती है. वही उसकी सच्ची अभिव्यक्ति भी होती है. कवि अपनी अभिव्यक्ति को एक खास पक्ष में खड़ा होकर खोज रहा है. वह जीवन के एक राजनीतिक पक्ष (साम्यवाद) में खड़ा है जिसमें व्यक्ति-स्वातंत्र्य पर सत्ता का पहरा है. जीवन के और भी कई पक्ष हैं- धार्मिक, लोकतंत्री आदि. इनमें व्यक्ति-स्वातंत्र्य की भरपूर गुंजाइश है. इनके पक्ष में होने पर साम्यवाद अलोप तो नहीं होगा पर उसका रूप बदल अवश्य जाएगा. कदाचित साम्यवाद के बदले रूप से कवि सहमत नहीं है. मनुष्य के स्तर पर जीवन के अनेक पक्षों में से केवल एक पक्ष में होकर, वह भी रूढ़ रूप में, मनुष्य के पक्ष में कैसे हुआ जा सकता है और परम अभिव्यक्ति कैसे पाई जा सकती है. परम अभिव्यक्ति में तो सभी पक्षों की अनुभूतियों का समाहार होना चाहिए.