Monday 22 November 2021

*वर्तमान हिंदी आलोचना का रूप रंग* (पिछली पोस्ट से आगे)



शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 22-11-2021 सोमवार


पिछली पोस्ट में संदर्भित शेर है -
"लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया,
हम चुप भी हैं तो यह कोई अहसान कम नहीं।"
जिस मित्र ने राजा दुबे का यह शेर अपने फेसबुक वाल पर पोस्ट किया है किसी चुहलबश नहीं किया है, सोद्देश्य किया है। इस शेर को उनके सामने रखने वाले उनके मित्र गोपेश्वर सिंह ने इसे समय को अतिक्रांत कर देश की वर्तमान हालात पर एक करारा प्रहार बताया है। एक करारा प्रहार लगता भी है यह शेर, आज की हालात पर। लेकिन इस शेर के कहन में एक अंतर्विरोध भी दिखता है। यहाँ एक की 'चुप्पी' दुम दबाने का प्रतीक है तो वहीं दूसरे की अहसान जताने का। शेर को अपने वाल पर देने वाले भी इस तथ्य पर कुछ कहने से कतरा जाते हैं।
इस शेर की अंतर्वस्तु में किसी जुल्म के आगे लोग तो चुप हैं ही, शायर खुद भी चुप है। लेकिन वह अन्य चुप्पों को जुल्म के आगे दुम हिलाने वाला बताता है जबकि अपनी चुप्पी को अहसान करने वाला। यह अहसान तो जुल्म ढाने वाले पर ही हो सकता है, जुल्म के आगे दुम हिलाने वालों पर क्या अहसान हो सकता है।
इस शेर पर टिप्पणी करने वालों ने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया है। इन टिप्पणियों में 'वाह वाह' के अलावे कुछ ऐसी भी टिप्पणियाँ हैं, जिनमें आलोचना की प्रकृति है पर उसमें केवल उसके बाहरी कलेवर को ही छुआ गया है, उसके अंतर्मन को नहीं। शायर के लिए कुछ लोगों की चुप्पी किसी के प्रति दुम दबाने वाली है तो उसके खुद के लिए किसी के प्रति अहसान जताने वाली। यह "किसी"-द्वय अलग अलग है या एक ही है।
मैंने इस शेर को यहाँ इसी बात को समझने के लिए लिया है। हिंदी आलोचना के वर्तमान तौर तरीके से इसे समझना मुझे मुश्किल हो रहा है। क्योंकि उसमें आलोच्य अंतर्वस्तु को केवल ऊपरी तौर पर ही छुआ जाता है जिसमें आलोचक स्वयँ को अधिक व्यक्त कर सके।
अभी एक दिन पहले एक पाठक ने मेरे उक्त प्रश्न पर एक धमाका जड़ दिया - "वर्तमान को छोड़ आप अतीत को ही लेकर बैठ गए। कहीं आप संघी तो नहीं।"
इस शेर को अपने वाल पर पहली बार प्रस्तुत करने वाले मेरे फेसबुक मित्र भी कुछ ऐसा ही रद्दा मार गए थे मुझ पर, शुरू शुरू में - "अब आप ईमर्जेंसी को लेकर खूँटा गाड़ लिए।"
अब पाठकगण ही बताएँ, ईमर्जेंसी के ठीक बाद लिखे गए शेर की कुंजी ईमर्जेंसी में ही तो मिलेगी। फिर ईमर्जेंसी (अतीत) में खूँटा क्यों न गाड़ा जाए। समय का अतिक्रमण भी तो तभी होगा।
प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह के अनुसार यह शेर ईमर्जेंसी में लिखा गया था। राजा दुबे ने इस शेर में, ईमर्जेंसी के दौरान जो अनुभव उनको प्राप्त हुए, उसका निचोड़ व्यक्त किया है।
भारत में यह ईमर्जेंसी जून, 1975 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा लगाई गई थी। क्योंकि सन् 1971 ई के संसदीय चुनाव में उनके प्रतिद्वन्द्वी राजनारायण सिंह ने उनकी चुनावी जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी और कोर्ट ने श्रीमती गाँधी की संसद की सदस्यता को निरस्त कर दिया था। लेकिन इंदिरा गाँधी ने प्रधान मंत्री के पद से इस्तीफा नहीं दिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील की। कोर्ट द्वारा, लोकसभा का सदस्य न रहते हुए भी वह प्र मंत्री बनी रह सकती हैं, का निर्देश पाकर उन्होंने सारी शक्ति अपने मंत्रिमंडल में निहित कर ली। और बिना मंत्रिपरिषद की सहमति लिए देश में ईमर्जेंसी थोप दी। सन् 1971 में ही इन्होंने कांग्रेस पार्टी को दो फाड़ कर दिया था - काँग्रेस (ओ) और काँग्रेस (आर)। उनके, सारी शक्ति अपने मंत्रिमंडल में निहित कर देने से, काँग्रेस पार्टी के भीतर के उनके सारे विरोधियों ने चुप्पी साध ली और इंदिरा जी की चापलूसी में लग गए। शेर में दुबे जी द्वारा संबोधित 'लोग' यही हैं, आम जनता नहीं। जनता ने तो आंदोलन के जरिए उनसे इस्तीफा देने की माँग की थी। इस आंदोलन का रूप विकराल था पर इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा देने से मना कर दिया और देश में ईमर्जेंसी लागू कर दी। सारे विपक्षी नेता जेल में ठूँस दिए गए। कुछ समय के लिए विरोध बंद हो गया। लेकिन ईमर्जेंसी के हटते ही जनता उबल पड़ी। चुनाव की घोषणा हुई और इंदिरा सत्ता से बाहर हो गईं। इससे तो यही संकेत मिलता है कि जनता ने अपनी जुबान को दुम में नहीं बदला था। उनका विरोध उनके भीतर धू धू कर सुलग रहा था जो अवसर पाकर चुनाव में फूट पड़ा। मैं ईमर्जेंसी की क्रूरता झेल चुका हूँ। मैं कह सकता हूँ कि शायर का यह कहना कि "लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया था" सही नहीं है, ये 'लोग' आम जनता से नहीं थे। सही यह है कि इंदिरा के विरोधियों ने अपनी जुबान को दुम में बदल लिया था। हाँ काँग्रेस पार्टी में और उसके बाहर सत्ता का समर्थक एक वर्ग था जो सत्ता पर अपनी नजरें गड़ाए था वह भी तत्समय चुप लगा गया था। और एक तरह से इंदिरा सरकार पर अहसान ही कर रहा था। इसे इस घटना से समझिए कि सन् 1998 ई में कांग्रेस पार्टी सोनिया गाँधी के हाथ में आ गई। और उस समय सोनिया-कॉंग्रेस की अल्पमत सरकार को तत्समय की कम्युनिस्ट पार्टी ने समर्थन देकर काँग्रेस की सरकार बनवाई और उसे कमजोर होते देख उसे अपदस्थ कर खुद की सरकार बनाने की कोशिश की। इस आलोक में उक्त शेर का अर्थ किया जाएगा तभी शेर की दूसरी पंक्ति , " हम चुप भी हैं तो यह कोई अहसान कम नहीं" का लिखना सार्थक हो सकेगा।
इस शेर को लिखने वाले राजा दुबे एक खास विचारधारा से जुड़े कवि लगते हैं। इस शेर के द्वारा वह कहना चाहते हैं-
"ईमर्जेंसी द्वारा ढाए गए जुल्म से डर कर लोग (सत्ता से जुड़े लोग, सत्ता से विच्युत होने के डर से) अपनी जुबान को दुम में बदल लिए अर्थात चापलूसी में लग गए। लेकिन कुछ लोग जो सत्ता को स्थिर रखने में अपनी भूमिका मान रहे थे, इसलिए चुप लगा गए कि अभी समय उनके अनुकूल नहीं है। वे अपनी चुप्पी को सत्ता के नेतृत्व पर अपना अहसान मान रहे थे, (हमारा चुप रहना कोई अहसान कम नहीं है)"।
प्रो गोपेश्वर सिंह इस शेर को समय को अतिक्रांत कर वर्तमान पर जो करारा प्रहार मान रहे हैं वह इन्हीं लोगों पर लागू होता है, जो अभी वर्यमान में भी यही माने बैठे हैं कि उनके बिना सत्ता की स्थिरता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगी। अवार्ड वापसी, कुछ एकनिष्ठ पत्रकारों द्वारा उल्टी सीधी सूचनाएँ जनता में पहुँचाना जिससे जनता उद्वेलित हो, रूलिंग पार्टी पर कम केवल प्र मंत्री पर निशाना साधना आदि क्रियाएँ इसी बात की ओर ईशारा कर रही हैं।
अस्तु, इस शेर की टिप्पणीनुमा आलोचना में हिंदी आलोचना का एक ऐसा रूप रंग मिल रहा है जो संतोषप्रद नहीं है। आए दिन यह पढ़ने को भी मिलता है कि हिंदी आलोचना का स्तर अपेक्षाकृत उन्नीस ही है, बीस नहीं।
------ अगली पोस्ट भी देखें
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
गोरखपुर,

22-11-2021, दिन सोमवार। 

Sunday 14 November 2021

वर्तमान आलोचना का रूप रंग

 वर्तमान आलोचना का रूप रंग                 शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव                 14-11-2021 


एक फेसबुक मित्र ने अपने वाल पर एक शेर उद्धृत किया है राजा दुबे का। इसे वह एक बड़े पाठक वर्ग के सामने रखने से अपने को रोक नहीं पाए हैं। यह शेर उनके मित्र प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने उन्हें भेजा है। यह उन्हें बहुत पसंद है। इसमें लोगों द्वारा जुबान को दुम में बदल लेने की बात की गई है। वह वर्तमान की अवाम को भी इसी हालात में पाते हैं। शेर है -

"लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया,
हम चुप भी हैं तो यह कोई एहसान कम नहीं।"
इसपर आई टिप्पणियों को मैंने गौर से देखा। इनमें से कुछ टिप्पणियाँ 'बाह बाह', 'बहुत उम्दा' किस्म की लगीं तो कुछ संप्रति प्रचलित आलोचना के ढर्रे की, पूर्वोक्त उद्गार का ही पिष्टपेषण प्रतीत हुईं। इसमें कुछ ने लिखा है, समय को अतिक्रांत कर वर्तमान के संदर्भ पर यह शेर एक क्रांतिकारी प्रहार है।
मैंने इसपर अपनी यह टिप्पणी दी- इस शेर से यह पता नहीं चलता कि शायर दुबे चुप रह कर किस पर अहसान कर रहे हैं, जुबान को दुम में बदलने वालों पर, जुल्म ढाने वालों पर या सुविधाभोगी वर्ग पर? शेर के संदर्भ का पता नहीं और समय का भी कि यह शेर कब लिखा गया।" कर्मेंदु शिशिर की टिप्पणी से इतना पता चलता है कि राजा दुबे 'कल्पना' पत्रिका के संपादक मंडल में थे।
शेर से इतना तो स्पष्ट है कि लोगों पर कोई बलशाली वर्ग जुल्म ढाए हुए था। उसके जुल्म के विरुद्ध उसके जुल्म ढाने तक कुछ लोगों की जुबान बंद रही। उन चुप रहने वालों में शायर भी था पर वह अपनी चुप्पी (कुछ अन्य लोगों के प्रतीक स्वरूप) को अहसान मान रहा है (पर किस पर? स्पष्ट नहीं होता) और अन्यों की चुप्पी को दुम हिलाना मान रहा है।
ताज्जुब है, न तो इस शेर के संदर्भ का पता है न उस काल का जब यह लिखा गया था, पर इसपर किस्म किस्म की टिप्पणियाँ दे दी गईं हैं। इस शेर को प्रस्तुत करने वाले मित्र को भी संदर्भ का पता नहीं था।
उक्त शेर पर जब मेरी उपर दी गई टिप्पणी मित्र ने पढ़ीं तो एक लंबी टिप्पणी दे मारी। पर उसमें मेरे प्रश्नों का जवाब नहीं था।
मेरी टिप्पणी के बाद प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह की, उक्त मित्र को संबोधित एक टिप्पणी दिखी जिसमें उन्होंने लिखा था - "मुझे अच्छी तरह याद है, राजा दुबे का यह शेर ईमर्जेंसी के बाद धर्मयुग में छपा था।" शेर के प्रस्तुतकर्ता मित्र का ध्यान, गोपेश्वर सिंह जी की इस टिप्पणी की ओर आकृष्ट करते हुए मैंने लिखा, " गोपेश्वर सिंह जी द्वारा इस शेर के संदर्भ के उद्घाटन से शेर को समझने के मेरे ही दृष्टिकोण का समर्थन होता है।" इसपर वह कुछ नाराज से दिखे - कहा, "क्या संदर्भ को पता किए बिना इस शेर पर बात नहीं की जा सकती?" मैंने लिखा, "की क्यों नहीं जा सकती। पर समय को अतिक्रांत कर वर्तमान पर इसे लागू होते कैसे दिखाया जा सकता है? तब अपनी बात को आज के लोगों पर बलात लादने जैसा होगा"
इसका कोई संतोषजनक जवाब उनसे मुझे नहीं मिला। वह मेरी बुजुर्गियत का हवाला देकर कुछ मुझसे सीखने की बात करने लगे।
उनकी संयत टिप्पणियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं। मैंने भी अपनी एक गलती सुधार ली उनको 'सम्मान्य बंधु' से संबोधित कर। असल में उनके प्रोफाईल में उनका वह परिचय नहीं दिया है जो वह वर्तमान में हैं। मैंने उनकी भाषा की शिष्टता और उनके मित्रों के नाम उनकी टिप्पणियों से जान कर उनका अभिज्ञान किया, शक तो पहले से ही था।
अब शेर की मेरे द्वारा की गई व्याख्या अगली पोस्ट में।
-- देखें अगली पोस्ट
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव,
गोरखपुर,
14-11-2021 ।


Thursday 4 November 2021

भइल बियाह मोर करबऽ का (कहानी)

 


शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 27-10-2021

सार्विक!
आज मैं तुझे एक और कहानी भेज रहा हूँ। इसे भी माँ (तुम्हारी परदादी) से मैंने बचपन में सुनी थी।
बचपन में कहानी सुनना एक मौज की बात होती थी। जब भी मन करता था मैं कहानी सुनाने का आग्रह करता और माँ मुझे कहानी सुना देती थी। लेकिन यह रोज का कोई बँधा नियम नहीं था। माँ को बस फुरसत भर होनी चाहिए थी, चाहे दिन हो या रात। रात का समय ज्यादा सुविधाजनक होता था। कहानी सुनने और सुनाने में कोई बाधा नहीं पड़ती थी। दिन में यह निश्चिंतता नहीं मिलती थी। दिन में कहानी सुनाने और सुनने में कोई न कोई बाधा आ ही जाती है और तब कहानी सुनने का सारा मजा किरकिरा हो जाता है।
मुझे याद आता है, यह कहानी माँ से मैंने कई बार सुनी थी। अभी पढ़ने नहीं जाता था तब भी और जब पढ़ने जाने लगा तब भी। कई बार सुनने से ही यह आज भी मेरी याद में बनी हुई है। इस कहानी के कहने का टोन बहुत आकर्षक था। देखें मेरे कहने से उसमें वह आकर्षण आ पाता है या नहीं।
शायद वह अंतिमवाँ बार था जब मैंने यह कहानी सुनी थी। उस दिन मैं बहुत थका माँदा था। खेलता तो मैं रोज था अपने जोड़ के लड़कों के साथ, लेकिन उस दिन कुछ और भी खेल हो गया था। रोज की तरह उस दिन भी मैं खेलने निकला था। माँ से कहा और घर से कुछ ही दूरी पर स्थित बगीचे में खेलने निकल गया था।
खेलने जाने के लिए हम लड़कों पर कोई बंदिश नहीं थी जैसी हम तुम लोगों (नाती पोते) पर यहाँ शहर में लगाते हैं। क्योंकि तब वहाँ किसी तरह का डर नहीं होता था- कहीं खो जाने का, किसी तरह की मार पीट का या और किसी तरह का। कोई लड़का गाँव की हद के बाहर नहीं जाता था। खेल भी थोड़े से ही थे- कबड्डी, गुल्ली डंडा, एकट दुकट, पाईघुच्ची, पतंग उड़ाना, ठाढ़ी चिक्का और चाभा सेख। इसे खेलने के लिए गाँव से बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी, जैसे फुटबाल वगैरह खेलने लिए पड़ती है। हाँ एक बात का डर तब बहुत सताता था जब यह सुनाई पड़ जाता था कि आस पास के किसी गाँव में धरकोसवा आ गया है। इस धरकोसवा को मैंने कभी देखा नहीं। सयाने लोग कहते थे कि एक आदमी चलता है भीख माँगने के बहाने। वह कंधे पर कपड़े का एक बड़ा सा थैला लटकाए रहता है। जब गाँव में चारो तरफ कभी सन्नाटा पड़ जाता है तब वह किसी छोटे बच्चे को अकेला पाकर उठा लेता है और उसे थैले में रख कर चलता बनता है। वे लड़कों को ले जाकर किसी शहर में बदमाशों को बेंच देते हैं। वे बदममाश उनसे भीख मंगवाने का काम कराते हैं। इससे लड़के जब बाहर खेलने निकलते तो झुंड मे निकलते थे। कभी कोई छोटा बच्चा घर से बाहर खेलने जाने के लिए जिद पकड़ता तो माताएँ धरकोसवा का नाम लेकर उसे डराने लगती थीं- "ऐ, बाहर मत जाना। जाओगे तो धरकोसवा पकड़ लेगा।" मैं खेलने के लिए कई लड़कों के साथ मिल कर बाहर निकलता था।
उस दिन बगीचे में मैं तीन-चार लड़कों के साथ 'चाभा शेख' का खेल खेल रहा था। इस खेल को कम से कम दो लड़के मिल कर खेलते थे। अधिक भी हो सकते थे। कुछ दूरी पर दो निशान बना दिए जाते थे। एक ओर के स्थान पर फट्ठे की चौड़ाई की एक गुभी (हल्की गहराई और लंबाई की दरारनुमा) खोदी जाती थी जिसपर लकड़ी का गोला रखा जा सके और उसके नीचे फट्ठा डाल कर गोले को फेंका जा सके। इस छोर पर एक लड़का खड़ा हो जाता था। उसके हाथ में बाँस का एक फट्ठानुमा छोटा डंडा होता। वह गुभी के पास फट्ठा लेकर वैसे ही खड़ा होता जैसे आज के क्रिकेट का बैट्समैन गिल्ली रखे डंडों के पास। और दूसरे छोर पर दूसरा लड़का या लड़के खड़े हो जाते। इस छोर का लड़का गोले को गुभी के आगे के सिरे पर रख कर फट्ठे से गोले को उनकी ओर फेंकता था और दूसरे छोर वाले लड़के उस गोले को लोकने को तैयार रहते थे। यदि दूसरे छोर वाला कोई लड़का गोले को लोक लेता था तो इस छोर का गोला फेंकने वाला लड़का आउट हो जाता था तब उस गोले को लोक लेने वाला लड़का गुल्ली फेंकने वाले लड़के का स्थान ले लेता था और गोले को लोक लेने वाला लड़का गोले को फेकने वाले लड़के के स्थान पर आ जाता था। अगर गोले को कोई लड़का नहीं लोक पाता था तो गोला जहाँ जा कर रुकता था वहाँ से वह लड़का उस गोले को उठा कर गुभी की ओर इस तरह फेंकता था कि गोला गुभी को छू ले। इधर का गोला फेंकने वाला लड़का अपने डंडे को गुभी के आगे मुख पर रख देता था। यदि गोला गुभी को छू लेता था तो गोले को डंडे से फेकने वाला लड़का आउट हो जाता था। तब दोनों गोला फेंकने और लोकने वाले एक दूसरे के स्धान पर आ जाते थे। यदि गोला गुभी से दूर जाकर रुकता तब गुभी के पास से, जहाँ फट्ठा रखा होता उस गोले तक की दूरी फट्ठे से नापी जाती। फट्ठे को बार बार पलट कर पलटने की अदद को गिनते हुए गोले के पास तक ले जाया जाता और देखा जाता था कि कितनी बार फट्ठे को पलटा गया। यह गिनती भी अनूठे ढंग से होती थी। लड़का फट्ठे को गुभी के पास पहली बार रखता तो गिनता एँड़ी (एक), फिर फट्ठे के अगले सिरे पर निशान बना कर उसे आगे रखता तो गिनता दोंड़ी (दो)। इसी तरह तेंड़ी (तीन), चौका (चार), पंजा, छक्का, चाभा (सात) शेख (आठ)। फिर और आगे बढ़ना होता तो फिर से ऐसे ही गिनती होती और उसे हममें से ही कोई एक मुँहजबानी याद में रख लेता। तय समय में जो दल अधिक स्कोर बनाता था वह जीत जाता था। ऐसा लगता है किसी जमाने में यहाँ किसी शेख का कब्जा रहा होगा। और उस समय के लोगों को केवल आठ तक की ही गिनती आती होगी और वे आठ की गिनती 'शेख' पर समाप्त करते थे।
उस दिन वह खेल खेलकर सभी लड़के चले गए। मैं कुछ पीछे रह गया। मैं चलने को हुआ तो देखा सामने कई लंगूर दिख रहे हैं। कुछ पेड़ों पर हैं तो कुछ जमीन पर हैं। जो जमीन पर थे मेरे जाने के रास्ते में हैं और कुछ चुन चुन कर खा रहे हैं। मेरे हाथ में डंडा था। मुझे एक शरारत सूझी। मैं बचपन में तुमसे और तुम्हारे पापा से कम शरारती नहीं था। मैं डंडे से मार कर उन्हें भगाने लगा। कुछ तो भाग कर पेड़ पर चढ़ गए पर न मालूम किधर से उनमें से एक लंगूर आया और मुझे उठा कर पटका और भाग कर पेड़ पर चढ़ गया। चोट तो मुझे अधिक नहीं लगी क्योंकि जमीन दो एक दिन पहले की बारिश से नम हो गई थी, लेकिन थकान बहुत लग रही थी। माँ ने जब जाना तब उन्होंने मेरे हाथ पैर सहलाए और फिर मेरी थकान को ही दूर करने के लिए यह कहानी कही। वह भोजपुरी ही बोलती थीं, हिंदी नहीं। यह कहानी उन्होंने भोजपुरी में ही मुझे सुनाईं थीं। मैं उन्हीं के शब्दों में वह कहानी तुझे दे रहा हूँ।
"बहुत पुराना जमाना के बात ह। एगो राजा रहले। बहुत बड़वर ना, छोटहने। उनकर राज बहुत बड़ा ना रहे। ओ जमाना में जवने गाँव में बहुत धन बल वाला आदमी होखें आ जेकर परभाव अगल बगल के दो चार गाँव तक फइलल रहे ऊ ओ इलाका के राजा कहलाव। ओह राजा के भरल पुरल परिवार रहे- ऊ, उनके रानी, दू गो बेटा आ ए गो बेटी। बेटी बड़ा सुन्नर रहे। बोले अईसन जइसे कोइलर बोलेले। नाक नकस त अइसन रहे जे उनकरा खानदान में ओइसन कवनो बेटी कबो भइले ना रहे। सभे ओके बहुत माने, दुलार करे। राजा रानी के त ऊ आँखि के तारा रहे। तनिको भर ऊ आँखि के ओट में हो जाव त ऊ लोग ढेर बियाकुल हो जाव।
धीरे धीरे ऊ लड़िकी बढ़े लागल। तू देखेलऽ न अमावस के बाद चनरमा केङा रोज रोज बढ़े लागेलेऽ, ओइसहीं ऊ लड़िकियो बढ़े लागल। अब गोदी से उतर के ठुमुक ठुमुक के चले लागल। रानी ओकरे पाँव में घुँघरू, हाथ में बाजूबंद आ कमर में करधनी पहिना देले रहली। अइसने में जब ऊ चले त ओकर टेढ़ मेढ़ गिरत पड़त चाल देख के राजा के पूरा परिवार हँसते हँसते लहालोट हो जाव। आ घुँघरू करधनी झुन झुन झुन झुन क के जब बाजे त ओके आवाज के सुन के सभे के हिया फुला जाव। आ रानी त अइसन अगरा जास की दउर के अपना बेटी के अँकवारी में भर लेस आ ओके चूमे चामे लागें। राजा के खुसी के त कवनो ओरे ना रहे।
राज के ऊ राजकुमारी धीरे धीरे बढ़े
लागल। बढ़ के एक दिन बियाहे लायक हो गईल। बढ़ला पर ओकर बुधियो बढ़ गइल। ऊ एतना हुँसियार हो गइल की राजकाज में राजा के सलाहो देबे लागल। कवनो कवनो ओकर सलाह राजा आ मंतिरी के अचरज में डाल देव। "एतना सटीक जबाब ए सवाल के त हमहू लोग ना हल क सकऽतीं" -ओ वखत राजा सोचे लागस। एतना हुँसियार लड़िकी खातिर ओ राजकुमारो के एतने हुँसियार होखे के चाहीं जेसे राजकुमारी के बियाह करब।
राजा आ रानी के कपारे अब राजकुमारी बेटी के बिआहे के फिकिर सवार हो गइल। हुँसियार बेटी खातिर हुँसियारे बर चाहीं। राजदरबार के जेतना दरबारी लोग रहे राजा ओ सबके काने में राजकुमारी के बियाहे के बात डाल दिहले। जोर सोर से बियाह खोजाए लागल। बाकी बियाह तय होखे के नामे ना ले। दरबारियो लोग हार गइल, मंतरियो राजकुमारी के लायक कवनो लड़िका ना खोज पवले। राजा जब देखले की जइसन बियाह ऊ तय करे के चाहऽतारे ओ मन माफिक बियाह नइखे तय हो पावत त ऊ पुरोहित जी के बोलवले। आ उनकरा से कहले- "पुरोहित जी अब ई काम रउए के हम सउँपऽतानी। ई बियाह रऊआ तय कराईं। जवन आ जहाँ रउआ तय कर देब हम आँखि मूँद के ओके मान लेब आ ऊँहवे राजकुमारी के बियाह क देब। जाईं बियाह खोजे के तइयारी करीं। जवन चीज के जरूरत होखे मंतरी जी से माँग लीं।"
पुरोहित जी राजकुमारी के बियाह तय करे खातिर जरूरी सामान साथ में ले के चल देहले। राहे में उनकरा मन में आईल जे ई राजा बड़ा घमंडी हवें। ई हमरा साथ बेवहार आछा ना करेलेऽ। जेतना मान जान ए राज में हमार होखे के चाहीं इनही के कारन ना हो पावेला। इनके खातिर जे बाड़े से ऊ मंतिरिए बाड़े। एगो ऊ मसखरवा बा। दिन रात ऊ इनके साथ लागल रहेलाऽ। रायो बात एही लोग से राजा करेलेऽ। हम जइसे कवनो गिनितिए में नइखीं। हमरा अछइत ईहे लोग हमरा ऊपर रही? ना, खूब बढ़ियाँ मौका मिलल बा। अब हम इनके सिखाएब।
ईहे सोचते पुरोहित जी एगो रजवाड़ा में पहुँच गइले। ऊहो छोटहने राज रहे। राजा से बात चलवले। राजकुमार के देखले बाकी बात ना बनल। फेर दोसरे रजवाड़ा गइले। अइसहीं घूमत घूमत जेतना रजवाड़ा के ऊ जानत रहले सब जगह हो अइले। बाकी कहीं राजकुमारी लायक बियाह ना पटल। कहीं पटहूँ लायक लागे त पुरोहित जी के, राजा से डाह ओके ना पटे देहलस। आखिर में हारपाछ के पुरोहित जी लवटि चललें।
चलते चलते उनकरा मने में आइल कि "राजा त बियहवा तय करिए के आवे के कहले बाड़े। आ हम जइसन तय क देब ओके ऊ मनबेऽ करिहें। अइसने हमसे कहले बाड़े। बाकी हम करीं का? सोच ना पावऽतानी। आछा, आगे बढ़ीं कुछ ना कुछ होबे करी।"
इहे सोचते पुरोहित जी लवटत रहले। राहे में उनका पियास लागल त चारू ओर देखले, कहाँ पानी मिली। कहीं कवनो पोखरो ओखरो ना लउकल जे उहाँ जाके दू अँजुरी पानी पी लेस। एक जगही उनके कुछ औरतन के भीड़ देखाई देहलस। नियरे गइले त देखले उ औरत सब ईनार से पानी भरत रहे। ओइमें से एक औरत से कहले-
"हम पानी पीए के चाहऽतानी। बड़ी जोर के पियास लागल बाऽ।"
ऊ औरत उनके टीका चंदन लगवले देख के कहलस- "पाऽ लागीं पंडित जी। लीं पानी पीं।"
पुरोहित जी ओ औरत के आगे आपन अँजुरी बढ़ा देहले। ऊ औरत अपना मटकी के पानी उनका अँजुरी में गिरावे लागल। पुरोहित जी हीक भर पानी पियले आ ओके आसीरवाद दे के जाए लगले। जाए खातिर ऊ पीछे मुड़ले त उनके काने में कुछ बतकही करत जईसन आवाज सुनाई पड़ल। ऊ औरतिया सब पानियो भरत रहे आ आपसे में कुछ बतियावतो रहे। पुरोहित जी धियान से ओ बतकही के सुने लगले। एगो औरत दूसरकी से पूछत रहे -
" का हो फलाना ब (बहू), ओ मउगी (व्याहता स्त्री) के का हालचाल बा जवना के हमन के गँठिधर कहिलेऽ?"
दूसरकी कहलस-
"अछा ऊ! ऊ अपने में मस्त रहेले। कल्हिए ओकरा घर के सामने से हम निकलत रहनी त ओसे पूछनी, तहरे मलिकार के का हाल बा? कहीं गइल बाड़े का, लउकत नइखन? त ऊ बोललस"-
"अउर कहाँ जइहें। आपन दे के बउराए गइल बाड़े ( माने ताड़ी पीए गइल बाड़े)।"
पुरोहित जी ओ औरतन के एह तरह से जब बतियावत सुनलेऽ त उनका मन में हुकुर पुकुर (उधेड़बुन) होखे लागल। उ कुछ अउर जाने के चहलन। उनका लागल जे अब उनकर काम बन जाई। हमके ओ मउगी के बारे में पूरा भेद लेबे के चाहीं। ओ मउगी के ई सब गँठिधर कहताऽ। एकर का मतलब भइल। ए औरत के घर के सब उदिया गुदिया (पूरा परिचय) जाने के चाहीं। पुरोहित जी आगे ना बढ़ के पीछे मुड़ले आ ओ औरतिया सब से बतियावे लगले। ऊ औरतियो सब पुरोहित जी से हिल मिल के बतियावे लगलिन आ बाते बाते में ओ औरत के घर के सब उदिया गुदिया बतला दिहलिन। ऊ सब ईहो बता दिहलिन जे ओकरा बारे में गाँव में एक कहावत बन गइल बा। कहावतो बता दिहलिन।
पुरोहित जी ओ औरतन से ओह औरत (मउगी) के बारे में सब कुछ जान के ओकर घर दुआर, लड़िका, माई- बाप सबके देख अइले। आ ओ कहावत के मतलबो समझ गइलन। सब देख के ऊ मने मने बहुत खुस भइलन। सोचलन जे अब उनकर मुराद पूरा हो जाई, लागऽता। हम राजा से बदलो ले लेहब आ राजकुमारी के बियहवो हो जाई। बियाह हो गइला पर के केकर का क लेलाऽ।
ऊ खुसी खुसी राजभवन पहुँचले आ बियाह तय होखे के खुसखबरी राजा के दे देहले। ई खबर सुनि के राजा रानी के खुसी के ठेकाना ना रहे। राजा पुरोहित जी से पूछले-
"तनी बताईं कइसे ई बियाह तय भइल हा। लड़िका कइसन बा। राजकुमारी जोगे बा नू!"
पुरोहित जी ओ घर परिवार के बारे में सब कुछ राजा के बता देहले। कुछ अपना तरफ से भी जोड़ के ओ परिवार के बड़ी बड़ाई कईले। ऊ जवन कहावत ओ औरतन से सुनले रहले ओईमें कुछ सुधार क के एगो पदे में राजा से ऊ कहावतो कहि देहले। ओ घरी के ईहे रीत रहे। कवनो बात के पद बना के राग में कहला से कुछ परभाव जम जाव। पुरोहित जीकहलने, लीं सुनीं ओ घर परिवार के बारे में-
"घरवा ह चनरघर
बरवा ह बँसिधर
मरदा ह आगिल पाछिल
मउगी ह गँठिधर।"
पुरोहित जी के बात सुनि के राजा-रानी के हिया हुदुर बुदुर करे लागल (हृदय उत्सुकता से भर गया)। ऊ लोग सोचे लागल जरूर ई बियाह कवनो बड़का राजा के घर पुरोहित जी तय क के आइल बानी। राजा पूछले-
"पुरोहित जी एकर मतलब का भइल, तनी अरथा के बताईं। कवना राजा के ईहाँ ई बियाह तय क के आइल बानी?"
पुरोहित जी जवन देखले रहले आ ऊहाँ जवन कहावत सुनले रहले ओइमें आपन अरथ भर के राजा से कहले-
" महाराज! केहू राजा के ईहाँ ई बियाह हम नइखीं तय कइले। कई राजा लोग किहाँ हम गइनी बाकी ऊ राजकुमार लोग हमरा के राजकुमारी लायक ना लगलें। ई बियाह एक अइसन घर में हम तय करके आइल बानी जेकर बात-बेवहार राजा लोग जइसन बा। आ लड़िका त बहुते सुन्नर बा। डील डौल बिलकुल राजकुमारी जोगे। ई पद में जवन हम रउआ के बतवनी हा हमार बनावल त ह बाकी ओ गाँवे में कहू से पूछला पर लोग एहींगा ओ घर के पहचान बतावेला। एकर मतलब एङा समझीं- 'घरवा ह चनरघर' माने लड़िकवा के घर अइसन बनल बा जेके हर कोठरी में चनरमा के चाँदनी चमकत रहेला। 'बरवा ह बँसिधर' माने ऊ बर (बियाह वाला लड़का) बहुत सुघर बा। 'मरदा ह आगिल पाछिल' माने लड़िका के बाप कवनो बात के निरनय लेबे में तनी आगा पीछा करेला बाकी सही निरनय लेबेला। 'मउगी ह गँठिधर' माने लड़िका के माई के कमर में एक तिजोरी के ना कई तिजोरी के चाभी लटकत रहेला।"
पुरोहित जी राजा-रानी के चकमा देबे में सफल हो गइलें। रजो रानी ई सुनि के बड़ा खुश हो गइल लोग। राजा बियाह के बेवसथा पुरोहिते जी के हाथ में दे दिहले। पुरोहितो जी बारात के आवे जावे के अइसन इंतजाम कइले की बियाह होखे तक बर-पछ के पोल ना खुलल।
असल में जवन बात पुरोहित जी राजा-रानी के पद में कह के बतवलन ओ पद के असल मतलब जवन ऊ अरथवले ऊ ना रहे। असल मतलब ई रहे-
'घरवा ह चनरघर' माने ओकर घर चनरमा के घर ह।ओ घर में चनरमे के रोसनीए से काम चलेलाऽ। दीया बाती के जरूरते ना पड़ेला। 'बरवा ह बँसिधर' माने बरवा के नाके में हरमेसा पोंटा (नेटा) भरल रहेला। 'मरदा ह आगिल पाछिल' माने बर के बाप पियक्कड़ हवे। पीए खातिर आगा पीछा कइले रहेला बाकी पीए जरूर जाला। 'मौगी ह गँठिधर' माने लड़िकवा के माई जवन लुगा पहिने ले ऊ एतना फाटल रहेला की आपन लाज बचावे खातिर जहाँ जहाँ लुगा फाटल रहेला उहाँ उहाँ ऊ गाँठ बन्हले रहेले।
राजा के ई बात कबो मालूम ना भइल। काहेकि राजा अपना दामाद के अपने पास बुला लेहले। बाद में जनलो होइहें त का कर लेले होइहें। अब बियहवा त होइए गइल रहे। लोग कहते करेलाऽ, 'भइल बियाह मोर करबऽ काऽ।'
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
सोमवार,
27 सितम्बर, 2021,
गोरखपुर।