Monday 18 March 2019

असूर्जमपश्या ​​ (कविताएँ 1983-84)

असूर्जमपश्या ​​ (कविताएँ 1983-84) - शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

     
असूर्जमपश्या
​​
(कविताएँ 1983-84)
1.
मुझे ठीक ठीक स्मृति नहीं
कि मेरे गिर्द उड़ते क्षणों में से
कब कोई क्षण
और मैं
लोगों का अंधेरा देखते देखते
अपने क्षणों में उतर गए.
​​
मेरे होने में
उन क्षणों के अहसास
अब भी बाकी है
जब ये जगते हैं
मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं
तब मैं
अपने ही अंधेरे में डूब कर
तिलमिला उठता हूँ.
​​
मैंने सायास जिन आधारों को
खड़ा किया था
वे टूटने लगे थे
मैं अपने ही दर्पण में
अकेला हो गया था.
लेकिन तभी
कहाँ से तुम्हारा तिनका
मेरे हाथ लगा
और मैं अपने अँधेरे को
तुम्हारी गहराईयों में छोड़ कर
खुद भी उसी में हो लिया.
​​
आज मैं
उनके प्रतिसंवेदनों को
झेल रहा हूँ
और किनारों के टूटते अरारों में
सरल सहज हो रहा हूँ.
​​
सच
आज मेरा समग्र होना
मेरे सामने है
और वर्षों बाद ऐसा हुआ है
कि मैं
अपनी ही जड़ों को
अपने रक्त से
सींचने लगा हूँ.
18-2-83
​​
2.
तुम्हारी गहराईयों का भय
अभी भी मुझे डराता है
नित्यदिन
उनके रोमंथनों से होकर
मुझे गुजरना होता है.
​​
लेकिन मेरे मित्र
हर बीतते पल के साथ
मेरे कदम
किन्हीं अनजान धक्कों से ठिल कर
तुम्हारी गहराईयों की तरफ
बढ़ जाते हैं.
​​
मुझे मेरी ग्रंथियाँ
टोकती हैं जरूर
मगर ये ग्रंथियाँ
मेरे लिए अहम नहीं हैं
मुझे तो आपादमस्तक
उन जागरित क्षणों में घुल जाने की
धुन है
जिनमें मेरा लंपूर्ण होना
पूरेपन के साथ
उद्भासित हो उठे.
​​
मैं सजग आँखों से देख सकूँ
मेरे तल में भी अँधेरा है
दुनिया को रोशनी देने के ईरादों में
मैं यह न भूल जाउँ कि
मेरे अँधेरे को भी रोशनी चाहिए.
​​
मेरी शिराओं में गायब होकर
मेरा अँधेरा
दुनिया को अँधेरा नहीं देने देगा.
​​
तुम्हारी गहराई में डूबने का इरादा
मुझे इसलिए भी है
क्योंकि तब
मेरी अस्मिता मेरे अँधेरे को
उगल सके
यह अँधेरा
गहराईयों के भार से थरथराता
धीरे धीरे घुल कर
प्रकाश में बदल जाए
शायद मेरा अँधेरा प्रकाशित हो जाए
तो दुनिया
आप से आप प्रकाशित हो उठेगी.
27-2-83
​​
3.
मैं खेतों में गया
देखा
लोगों के पैरों में बेवाइयाँ थीं
खेतों में शूखे की फटन थी
मेरी आँखों ने दोनों को जोड़ा
मैं द्रवित हुआ
उन्हें पानी चाहिए था
मैंने अपनी करुणा टटोली
क्षमताओं को निरखा
मैंने पाया
मैं पानी का जुगाड़ नहीं
कर सकता.
​​
लेकिन वह मेरी भूल थी
दरअसल उन्हें जो चाहिए था
उसका ठीक ठीक अर्थ
मैं नहीं समझ सका था
मैं उसके स्थूल अर्थ में ही
उलझा रहा.
​​
तुमसे जुड़ने के बाद
आज मुझे मालूम है
आवश्यकताओं के स्थूल अर्थों तक ही
रुक जाना
अधूरे सत्य का साक्षात्कार है.
​​
पूरे सत्य को पाने के लिए
सूक्ष्म तक जाने की जरूरत है
वास्तव में सूक्ष्मार्थ ही
हमारे अस्तित्व के रसों में निचुड़ता है
और हमारे होने में
उतकंठा,आवेग और क्षमता को
जोड़ता है.
​​
मैं उन्हें
पानी का स्थूल तो नहीं
दे सकता था
पर पानी खींच लाने की
संकल्प-ग्रंथियाँ
उनके रक्तों में बो तो सकता था.
​​
बाजवक्त स्थूल के अर्पण से
उन परिस्थितियों की रचना करना ही
अधिक आवश्यक है
जिससे उसकी आत्मा का फूल
पोरों के रसों में
अंतरावेगों से धक्का पाकर
शीर्ष पर खिल सके
दरअसल
उन्हें वही चाहिए था.
​​
मैंने उनकी परिस्थिति से छिटके
शब्दों को तो पकड़ा
पर उनकी शिराओं में घूर्णित
आमंत्रणों पर ध्यान नहीं दिया.
​​
ओ मेरे निकट आत्मीय
तुमसे जुड़ कर
अब उन्हें देख सका हूँ
मुझमें क्षमता है
मैं पानी तो नहीं
पर पानी खींच लाने का आवेग
उनके जिस्म में
त्वरित हो सकने की
परिस्थिति रच सकता हूँ
मैं यह परिस्थिति रचूँगा भी.
फरवरी 1983.
​​
4.
मेरा भी मन हुआ
पूजा के फूल
उस मंदिर में चढ़ाऊँ.
​​
यह चाह लेकर मैं वहाँ गया
देखा
मंदिर के आहाते के कोने में
खिले फूलों में से
श्रद्धालु जन एक फूल तोड़ते हैं
और अपनी अंजलि में
सँजो कर
मंदिर की करुणामयी मूर्ति पर
अर्पित करते हैं.
​​
मैंने भी अपनी श्रद्धा
हाथों की उँगलियों में पिरो कर
एक फूल लेने
टहनी की तरफ हाथ बढ़ाया
लेकिन
अभी फूल के नाल का
स्पर्श किया ही था कि
कुछ तरंग सा
मेरी पूरी देह में खेल गया
और अनेक प्रश्न
मेरे मन हृदय में टँक गए.
​​
सभी प्रश्न तो याद नहीं
पर एक प्रश्न
मेरे अस्तित्व की दहलीज पर
एक क्वांरा दस्तक बन कर
अँटक गया है
और मेंरे उनींदेपन तक में
उसके बोध-अक्षर
अभी भी मुझे टोकते हैं
मेरे सारे सोच-संदर्भों में
इस प्रश्न ने
एक बदलाव ला खड़ा किया है.
​​
मेरे चिंतन की समस्त धारा ही
मेरी अपनी सँकरी गलियों से
बह बह कर
मेरी ग्रंथियों को तोड़ने लगी है.
​​
मैं यह सोचने को बाध्य हूँ कि
उस फूल की खिलावट में
जो निश्चित ही मेरी खिलावट नहीं है
अपनी श्रद्धा समेट कर
उस मंदिर की मूर्ति पर
जो निश्चित ही
मेरे आँगन की मूर्ति का
मात्र प्रक्षेपण है—
चढ़ाने को तत्पर हूँ
पर यह चढ़ाना भी
एक पृथकता की बोध-लकीर ही है
क्यों न ऐसा हो कि
मैं अपनी ही खिलावट को
अपने ही मंदिर की मूर्ति पर
समर्पित करुँ
क्योंकि मेरा मूल होना
परमाणु के भीतर छिपी विद्युत की तरह
मेरे भीतर
आवरित एक तथ्य है
पदार्थ भी तो
विद्युत का ठोसपन ही है
पर विद्युत
अपने ही इस ठोसपन से
संग्रथित हुए बिना
अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती.
फरवरी 1983.
​​
5.
तुम्हारे दरवाजे की तरफ
मेरे पैर बढ़ जरूर रहे हैं
पर पीछे के प्रोत्साहन
अभी भी मेरे मन से
चिपके चले आ रहे हैं.
​​
बाजवक्त इनकी पकड़
इतनी प्रबल हो जाती है कि
अपनी ही जड़ों पर
अडिग टिक रहने का संकल्प
ढीला पड़ने लगता है
और मैं एक चौराहे पर रुक कर
आँगन का पिछला छोर
मुड़ कर देखने लगता हूं.
​​
हाँ उस मोड़ पर पहुँच कर
मेरे कदम
पीछे मुड़ने की तत्परता तो
नहीं दिखाते
क्योंकि किसी भी संकट-बिंदु पर
कुछ क्षण ठहर कर
अपनी समूची नियति को
टटोल लेना
मेरी एक स्थिर स्थिति है.
25-06-1983
​​
6.
मैं खूब ऊपर ऊपर बहता रहा.
​​
कभी एजरा पाउंड
कभी पाब्लो नेरूदा
और कभी वियतनामी स्थितियों पर
लम्बी बहसों में शामिल हुआ.
​​
मैं बहुत खुश था.
​​
आठो पहर
आदमी के तनावों, संत्रासों को
अभिव्यक्ति देना
उसकी कुंठा और घुटन को
सार्वजनिक आयाम देना
उसकी जिजीविषा के संघर्ष को
स्वयं में प्रक्षेपित कर
संकटापन्न घड़ियों में
लड़ाई के लिए तैयार करना,
जबतक मैं उबाल खाता रहा
यह मेरा नियमित कर्तव्य था.
​​
मेरे साथ बहुत से लोग थे
बहुत सोहरत थी मेरी
दूसरों की प्रतीति में
मैं बहुत उद्दीप्त था.
​​
लेकिन उस दिन अचानक
मेरे सारे पंख काट कर
उस व्यक्ति ने मेरी पहचान पूछी
मैं बाहर से मुड़ कर
थोड़ा भीतर बहा
तो मैं थर्रा उठा.
​​
अकेलेपन के भय ने
मुझे जड़ कर दिया
थोड़ी बची खुची चेतना से
मैंने देखा
मेरे शरीर में
गजब के अंग उग आए हैं
वह व्यक्तित्वों का
एक अजायबघर हो गया है.
​​
मैं उसमें नहीं हूँ
मुझे पता ही न चला.
​​
तबसे मैं
अपने को ढूँढ़ रहा हूँ.
​​
इस समय
कभी आकाश के आमंत्रण
अभी अपनी ही गहराइयों के
ध्वनि-संवेदन
मुझे मथे दे रहे हैं.
​​
मैं निरंतर
अपनी जड़ों को ढूँढ़ रहा हूँ
मैं बीज में कहाँ हूँ.
​​
वह तो कहते हैं
बीज में वृक्ष नहीं
वृक्ष की संभावना भर होती है.
​​
क्या मेरी भी
अभी कोई संभावना रह गई है.
​​
इस प्रश्न का उत्तर पाने हेतु
मैं निरंतर अपने को ढूँढ़ रहा हूँ.
​​
संभव है कभी न कभी
मैं अपनी संभावना से रुबरु
हो ही लूँगा
पर उसमें एजरा पाउंड की
या अन्य अस्तित्वों की
थिरकन नहीं होगी
जो अंकुरण के आवेग में
मेरी संभावना की
दुंदुभी फूँकेगी
हाँ हो सकता है तब
एजरा पाउंड या अन्य अस्तित्वों में
घिर कर संभावना का
मैं साक्षी हो सकूँ.
​​
वह कहते हैं बाहर को बहना
एक प्रक्षिप्त स्थिति में जीना है
साक्षी होना
अपनी नींव पर खड़ा होना है
मैं भी तो प्रयोग कर लूँ
अरसा हुआ
मैं अपनी प्रयोगशीलता भूल गया था
साक्षित्व के प्रयोगियों की ताजगी
मुझमें अब उभरने लगी है
मेरे पोरों में टिकाव आने लगे हैं.
​​
मित्र,
अब मैं प्रक्षेपण नहीं ओढ़ूँगा
अपने को उघाड़ कर
अपनी संभावना ढढ़ूँगा
तुम मेरे कर्तृत्व का
साक्षी रहना.
5-12-1983
​​
7
अपने होने के क्षणों की
जो सतत प्रयत्न के बावजूद
मुट्ठी से फिसल फिसल जाते हैं
भरपूर जी लेने के प्रयास में
मैं यदा कदा
इतिहास के खंडहरों में
भटक जाता हूँ.
​​
उन पलों में मैं
इतिहास का
निस्संग यात्री होता हूँ.
​​
मेरे खाली क्षणों की संगिनी
मन की तरंगें भी
मेरे साथ नहीं होतीं.
​​
खंडहरों की गुणकर्ष उड़ानों में
इतिहास के ऊबड़ खाबड़ पल
मेरी निस्संगता को
नंगेपन की हद तक
उधेड़ डालते हैं.
​​
इस उधड़न में
मेरे थरथराते पल
कराह उठते हैं
मैं होश खोने लगता हूँ.
​​
मैंने महसूस किया है
इन कराहते पलों में
कोई मेरा हाथ थाम लेता है
जो दृष्टिपथ में अस्तमित
मगर मेरे टिकावों में
प्रत्यक्ष होता है
इस क्षण में
अपने अकेले के
अकेलेपन में होता हूं.
​​
अपने गिर्द के बीत रहे पलों का
मैं हिस्सा नहीं होता
वरन
एक तटस्थ साक्षी भर होता हूँ.
​​
इतिहास के बीते प्रसंगों में
जितना ही अधिक धसूँ
ऐसे अनेक साक्षियों से
मैं टकरा जाता हूँ
जिन्होंने अंतरिक्ष में
अकेले ही उड़ानें भरी हैं
उनके अकेले की उड़ानों नें
इतिहास की धारा तक मोड़ दी है.
​​
अंतरिक्ष में उड़ानें भरना
मुझे भी पसंद है
पर बिरले ही क्षणों में
मैं अकेला हो पाता हूँ
मेरी आकाँक्षा है
मेरे अकेले होने के क्षण
गहराएँ
और इतना गहराएँ कि
मैं अकेले की
अकेली उड़ान भर सकूँ. 21-12-1983
​​
8 (कविताएँ 1984)
पंछी से मैंने
उसके सपनीले पंख माँगे
और दूर दिगंत में
उड़ चला.
​​
मैं उड़ा
ओर खूब उड़ा
उड़ने के साथ साथ
मेरी अनुभूतियों का दायरा
विराट होता गया.
​​
पर मैंने महसूस किया
मेरी बुनियादी उलझनों में
कोई कमी नहीं आई
मैं अशांत का अशांत ही
बना रहा.
​​
मैंने समझा
मैं विराट का छोर
पकड़ने ही वाला हूँ
मगर देखा
विराट और विराट होता गया है.
​​
फिर बुद्धि मुझे
घाव-सी लगने लगी
अंतर का बल
जो मेरे पैरों के टिकाव का
संबल था
छीजता नजर आया
मेरा फैलाव
मेरे अस्तित्व के लिए
संकट-सा लगने लगा.
​​
किंतु
मैं अपनी सीमाओं को
खोना नहीं चाहता था
मैंने अपनी गतिविधियों की
वर्जना न कर
उन्हें अपने ध्यान में ले लिया.
​​
फिर तो जैसे क्रांति घट गई
अगले क्षण अब मैं
दिगंत का विस्तार नहीं था.
​​
अब तो मैं
अपनी ही गहराईयों में
उतर रहा था.
​​
इस उलट क्रिया में
मैंने एक अजूबा देखा
और देखते ही
ठक से रह गया.
​​
मैंनं देखा
जितना ही गहरे मैं उतरने लगा हूँ
उतना ही उठने भी लगा हूँ
ठीक एक जीवंत वृक्ष की तरह.
​​
तब से लगातार
मैं अपनी गहराईयों में
उतरता ही जा रहा हूँ.
​​
मगर ये गहराईयाँ
अब मुझे डराती नहीं
मेरे अकेले की यह उड़ान
मेरे अकेले तक की दूरी
नाप रही है.
​​
दूरी बढ़ तो नहीं रही
पर दूरियाँ नप रही हैं.
प्रस्थान का बिंदु तो
मेरे मन के संकलन में है
क्या पता मेरे मन का
दूसरा छोर कहाँ है
2-7-84
(आचार्य रजनीश को 24-7-84 को
रजनीशपुरम. ओरेगाँव प्रेषित.
ओशो मौन में थे. पत्रोत्तर
मा आनंद शीला ने दिया0
​​
9.
नदी के पुलिन पर पड़ा मैं
एक दिन
उसकी तली में बंकिम लेटे
शांत स्निग्ध जल से खेलती
सांध्य-किरणों को देख रहा था
दिन की ढलान सुहावनी थी
पलकें कुछ खुली कुछ बंद थीं
तन की शिराओं में
रक्त का प्रवाह
सहज सरल और आकंठ था
सामने जल के अंतस्तल में
नभ की परतें
एक एक कर बीत रहीं थीं
इतने में
बादल का एक सफेद टुकड़ा
जो अब पीताभ होने लगा था
एक पत्र की तरह
मेरी आँखों में खुला
मैंने देखा
उसके एक कोने में
केसर रंग का एक पक्षी
एक सफेद पक्षी के पंखों से
आशीर्ष आवरित
दिगंत की दिशाओं की टोह में
दृष्टि से कुछ खुला
उड़ान भर रहा था.
​​
मैं नहीं जानता
वह सफेद पक्षी
जो एक सहयात्री-सा लग रहा था
उस केशर-पंक्षी की यात्रा में
कहीं साथ हो लिया था
अथवा
प्रारंभ से ही उसके साथ था
पर यहाँ जो दीख रहा था
उसे देख कर मैं अचंभित था
बात ही अचंभा की थी
वह पंक्षी यद्यपि आवरित था
पर उसकी गतिविधि बता रही थी
वह दिगंत की उड़ान में
श्वेत पंछी के आवरण से अनजान
अकेला उड़ रहा था
दिशाएँ उसे लुभा रही थीं
इस लुभावन में
खुलती झिंपती दृष्टि लिए
वह आकाश में डोल रहा था.
वह आवरण की उपस्थिति से
अनजान था.
​​
पर संकल्प का वेग उसमें भरा था
उसके मुख पर
थकान के चिह्न नहीं थे
वह खोजी चित्त का
अथक प्रयासी लगता था.
​​
मेरा मन
उसकी अस्खलित उड़ान पर
इतना रीझ गया कि
उसकी उड़ान में साथ हो लेने की
मुझमें भी साध जाग उठी
मेरा तन केसर नहीं था
तन तो आज भी मेरा केसर नहीं है
पर मेरी साध ने
मुझे भी उस उड़ान से जोड़ दिया
लेकिन उस पंछी के साथ
उड़ान भरने में
मैं बहुत अतिरिक्त महसूस नहीं करता. 14-9-84
​​
10
कितना अच्छा होता
जब आकाश मेरी मुट्ठी में होता
मैं आकाश की मुट्ठी में.
​​
फूलों की खिलावट में मैं खिलता
और फूल मेरी खिलावट में.
बैठे ठाले का धंधा लेकर
किसी दिन
मैं ध्यान में डूबा
तो देखा
मेरे खिलने के साथ
सारी दुनिया खिल उठी है
ध्यान से जब उतरा
तो फिर से दुनियावी अहसास
मुझे छेड़ने लगे थे
फिर एक बार मैं
चतुर्दिक दवाबों, तनावों में
मुहरबंद हो गया था.
​​
कितना अच्छा होता
जब मेरा खिलना
सहज सरल और निरंतर हो जाता.
​​
मौसम की मारों में विकसनशील
ठीक उस फूल की तरह
जो प्रकृति की क्यारी में
प्रकृति की रसानुभूति पी कर
अंतरिक्ष में किलकारी भरता है.
​​
कितना अच्छा होता
जब मैं भी
अपने गिर्द के मर्म को पी कर
किलकारों की मर्मानुभूति को
पी पाता.
​​
एक ऐसे क्षण का मैं गवाह हूँ
जिसमें कुंठा, घुटन, त्रास
और अंगों को तोड़ते तनाव
ग्रंथियों की तरह घुल कर
अंतर मनस के प्रवाहों को
सहज स्वाभाविक कर देते हैं
कितना अच्छा होता
जब मैं सहज सरल और
स्वाभाविक हो जाता. 23-9-84
​​
11
ढेर सारे प्रकाश के खंडहर में
मुझे तलाश है लौ भर प्रकाश की
जो मेरे अस्तित्व को गतिशील कर दे
और मेरे होने के अर्थ को
उद्भासित कर दे
मेरे गिर्द की बहती हवाओं ने
मुझे मेरी निजता से
अलग थलग कर रखा है
मैं अपनी स्वाभाविकता
खो चुका हूँ.
​​
अलग अलग पहचान वाले
इतने सारे प्रकाश
मेरे गिर्द मँडरा रहे हैं
लेकिन मेरी पहचान तक
मुझे पहुँचाने वाला लौ भर प्रकाश
मुझे नसीब नहीं है
उस ठूँठ ने
इस लौ भर प्रकाश को पाकर
अपने स्वभाव को पा लिया है
तनावों की नींव पर
उसका इतराना बंद हो चुका है
मैं अपने जिस्म में
तनावो की गहराई बोकर
अपनी ही हत्या करा रहा हूँ.
​​
बावजूद इसके
तनावों के अंश भले ही पिघलते हैं
पर मेरी सहजता मुझे नहीं मिलती
उस लौ भर प्रकाश को पाकर
मिलने वाली सहजता की झलक
मेरी अनुभूति में बीज-बिंदु की तरह
क्षीण ही सही
पर लगातार उद्भासित है
मेरी तीब्र आकांक्षा है
वह लौ भर प्रकाश मुझे मिल जाए
मैं सहज स्वाभाविक
जीवन के निकट हो सकूँ. 7-11-84
​​
12.
मेरे स्वप्नशील मन ने
मुझसे कहा
दूर दिगंत में उड़ते पक्षी-सा
उड़ने की जो आकांक्षा
तूने पाल रखी है
उसे अब पूरा कर ही डाल
उसकी परतें उघाड़ कर
बस तू उड़ ही पड़.
​​
बात मेरी भी समझ में आई
थोड़ी देर के लिए
मैं आवेग से भर गया
आकर्षणों से विरत
अपने में सिमट गया
मेरे दृष्टि-पथ में
अब केवल आकाश ही था.
​​
समुद्रलंघी हनुमान की तरह
मैंने ठोस धरती के
एक टुकड़े का चुनाव किया
और उड़ने की मुद्रा बनाकर
आकाश में छलांग लगा ही दी
लेकिन अफसोस
यह उड़ान भरी न जा सकी.
​​
मैं स्तंभित रह गया
आखिर चूक हुई कहाँ
मैंने धरती को छुआ
उसमें वांछित ठोसपन था
अपने गिर्द को टटोला
मैं किसी भी डोर से बँधा न था
चिंता में मेरे हाथ
मेरे पैरों से छू गए
मैंने महसूस किया
उड़ानों के लिए वांछित ठोसपन
मेरे पैरों में नहीं था
हृदय से मस्तिष्क तक का गुरुत्व
जो पैरों को जोड़ते हैं
कहीं लिजलिजा है.
​​
मैंने अपने को रोका
और उस लिजलिजेपन को
एक रीढ़ देने की कोशिश की
मेरी कोशिश अभी बी जारी है.
​​
मुझे उम्मीद है
मेरा संकल्प रंग लाएगा
और मैं आकाश में
उड़ सकूँगा
और लोगों को
उड़ानों का स्वप्न बाँट सकूँगा. 31-11-84
​​
13.
चारो ओर से अपने को काट कर
स्वयं में उतरने की
जब मैंने कोशिश की
मेरे अंगों में थरथराहट उभर आई
अपनी बहिर्मुखी इंद्रियों को
जब मैंने अंतर्मुख किया
मेरे प्राण कँप गए
आकर्षणों के मोह ने रुकावट डाली
लेकिन पिर भी
मैंने संकल्प को चुना
और भीतर उतरने की तैयारी में
अधिनिर्मित कपाट पर दस्तक दिया
दस्तक देने के साथ ही
मुझे जैसे बिजली छू गई
मेरे रोम रोम सिहर उठे
और अचानक मेरे कदम
कुछेक सीढियाँ उतर गए
अब मेरे सामने
अपने करीब का अहसास था
वहाँ मैं था मेरी घबराहट थी
वे स्मृतियाँ थीं यह अहसास था
मेरा दीया था मेरा अँधेरा था
और मैं इन्हें महसूसता
अपनी पोटेंशियलिटी के करीब था
मैंने अनुबव किया
सहस्रों सूर्यों को बटोर कर
दीप्तिमान होने की जो लिप्सा
मैंने पाल रखी थी
इस साक्षात के जाले में
धुँधला गई थी.
​​
यह उजलापन
उन सूर्यों के चमकार से
कहीं अधिक प्रभावान था
लेकिन यह अनुभूति
अधिक टिक न सकी
क्षण भर की यह कौंध
शीघ्र तिरोहित हो गई
और मैं
अपनी मूल प्रवृत्तियों के आईने में
अपना थथमथाया चेहरा लिए
फिर अपनी पूर्वस्थिति में था
मेरी वह अनुभूति
अब मेरी प्रतीति बन गई थी. 4-12-84
​​
14.
आज फिर मेरा स्व
मुझसे टकरा गया
मुझे लगा
एक अग्नि का गोला
मुझे छू गया हो.
​​
कुछ पल के लिए
मैं अपार उर्जा से भर गया
स्फूर्ति ताजगी और संकल्प
मेरे पहलू में उँड़ल गए
मेरा समूचा अस्तित्व
टटके फूल के आविर्भावों से
भर गया.
​​
बड़ा प्यारा था वह क्षण
अपने को करीब पाकर
थोड़ी देर के लिए मैं निहाल हो गया
अब मैं
अपने गिर्द के सारे लोगों के
करीब हो गया था
मैं समूचे निसर्ग के प्रति
आपादमस्तक प्रेम से बर गया
यह दुनिया
मेरे मैं और मेरे स्व के
सिर्फ दो पाटों के बीच
बह रही थी
और मैं किनारे बैठा
उसकी उबरती मिटती
तरंगों के खतरों से
अपने को बुन रहा था. 8-12-84
​​
15.
चलते चलते
जब किसी पड़ोस से टकराना होता है
तो एक गूँज उठती है
कभी चूड़ियों की खनक की तरह
कभी तलवारों की टनक की तरह
एक में जुड़ाव की ध्वनि होती है
एक में द्वंद्व की
लेकिन जब कोई
अपने आप से ही टकराता है
तो वहाँ ऐसा कुछ नहीं होता
वहाँ चेतना की एक धारा चलती है
जो खुद को ही नंगा करने को
मचल उठती है
वहाँ अपने ही अँधेरे और रोशनी
सामने होते हैं
अँधेरे डराते हैं
और रगों में अपनी गाँठें बुनते हैं
रौशनी
साक्षात के लिए साहस जुटाती है
उसकी लौ की धारा
उन गाँठों को भिंगोती है
इस क्षण मैं
अपने ही दीए की लौ लिए
अपने अँधेरे से टकरा रहा हूँ
और परत दर परत
नंगा हो रहा हूँ.
​​
ऐसा नहीं है कि
नंगा होना मुझे अच्छा लगता है
यह तो एक कड़वा अनुभव है
पर ऐसा होने में प्रत्येक उधड़न
ओढ़े यथार्थ की कथा सुनाती है
और मेरा होना
इन बोधों से निथर कर
अपने होने के निकट सरक जाता है. 10-12-84
​​
16.
मौन में बातें कैसे की जाती हैं
मुझे नहीं मालूम
लेकिन मैंने
अपने अंदर उठते आवेगों का
मौन में साक्षात किया है
उसके उद्दाम ज्वार
और उतरते भाटे का
मुझे अहसास है
ऐसे में
फूलों की तरलता से
मेरा हृदय तर हो उठता है
मेरे रोमों में पुलक जाग जाती है
ऐसा महसूस कर
मैं अक्सर आह्लादित हुआ हूँ.
इस तरलता ने
मेरे टूटते रिश्तों को जोड़ा है
लेकिन फिर भी
तथ्य चाहे जो हो
मुँदी या खुली आँखों के
अपलक मौन ने
कितने ही प्रयोग किए हों
इस दुनिया में
मौन को एक चुप्पी माना गया है
एक सुरक्षा माना गया है
लोक में मौन एक ताकत जरूर है
लेकिन वह
अत्यंत संवेदनशीलों को ही
संप्रेषित होती रही है
मुझे तो
मौन से भींगे तुम्हारे शब्दों की
कुछ चोटें चाहिए थीं
जिसकी पगध्वनि
मेरे मन के प्राचीर को लाँघ कर
मेरे समूचे तन को बेध डाले
शब्दों में डोलती
मौन की नीरवता का अभिज्ञान
मुझे है. 12-12-84
​​
​​
17
असूर्यमपश्या
​​
मित्र,
तमाम उम्र तुम दरवाजा पीटते रहे
मगर तुम्हें द्वार नहीं मिला.
आखिरकार तुमने जाना
जिसे तुम पीट रहे थे
वह दरवाजा नहीं
एक खालीपन था, एक शून्य था.
​​
उस पवित्रात्मा की बात पर
तुम क्षुब्ध हो उठे
और निर्भीक अन्वेषी की तरह
अपने क्षोभ को
उसके सामने उगल दिए.
​​
कुछ लोगों का अनुभव है
कि द्वार आँगन के पार है
उसमें प्रवेश पाने के लिए
वे इक परसोना की जरूरत समझते हैं
एक साबुत अस्तित्व को
कवि और कवित्व में बाँट कर
सत्य का अन्वेषण कर रहे हैं.
​​
इस पंक्ति में खड़े होकर
दरवाजा मैं भी पीट रहा हूँ
मगर मुझे मालूम है
जिसे मैं पीट रहा हूं
वह स्थूलता के पीछे
मात्र एक खालीपन है, एक शून्य है
कोई परसोना नहीं लगाया है मैंने
इस हेतु
मैं तो,
सीधे साक्षात्कार के लिए
उत्सुक हूँ
क्योंकि
अपने अहं को बचा रखने की
मुझमें कोई उत्सुकता नहीं है.
​​
जानते हुए भी
मैं इस खालीपन को
इसलिए पीट रहा हूँ
क्योंकि मैंने देखा है
एक स्थूल जड़ प्रणाली भी
इस खलीपन में से
तरंगें पकड़ कर
गतिशील हो उठती हैं
हमारा जीवंत होना तो
इससे भी सूक्ष्मतर
अनुभूतियों की कौंध को
पकड़ने में समर्थ है.
​​
खालीपन में ही द्वार मिलेगा
मगर उनका
कोई स्थूल चौखट नहीं होगा
वह तो निरी एक कौंध होगी
जिसमें द्वार उद्भासित होगा
और हम उस द्वार के अंदर होंगे
वह द्वार हमारे अंदर होगा.
​​
मित्र,
होने की हर घड़ियाँ
इस कौंध की संभावना से
असूर्यमपश्या नहीं है
खालीपन का यह द्वार
हमारी ही गहराईयों में दबा पड़ा है
​​
हमारा अंतःप्रवेश हो सके
बस इतने भर की देर है 13-01-1984
​​
कुछ फुटकल कविताएँ. ( तिथि—02-09-2009 )
​​
1. ईश्वरोक्ति
एक कवि ने अपनी एक कविता में किसी मंदिर में प्रतिष्ठित देवप्रतिमा के पूजन में श्रद्धालुओं का नगण्य होना देख ईश्वर को रोता हुआ चित्रित किया है. व्यक्ति-चेतना की इस दृष्टि को अपरिपक्व मानते हुए मैंने अधोलिखित कविता अपने दृष्टिकोण से लिखी है.
​​
चिदात्मन्!
​​
तुम मेरे बारे में सोचते हो
मेरी दुर्दशा से पीड़ित होते हो
कुछ अद्भुत है यह.
​​
पर तुम्हें जानना चाहिए
मैं कोई स्थूल सत्य नहीं हूँ
मैं सृजनशील सत्य हूँ
और तुम
इस सृजनशीलता की परिणति हो.
​​
स्थूल शिलाओं में
मेरी प्रतिष्ठा तो तुमने ने की है
तिरुपति हो या शिरडी, या
अन्य कहीं.
​​
इनके एक एक कण में
तुम्हारी ही आकांक्षाओं के
अनुवाद टंकित हैं
दृश्य या अदृश्य.
​​
मेरे सर्वरूप का तुम्हें भान है
हो भी क्यों न
तुम्हारे जीव-द्रव्य के केंद्र में
मेरी तरल विद्यमानता ने ही
तुम्हें अंकुरित और तंत्रस्थ किया,
अस्तित्व की सृजनशीलता के
किसी क्षण में
तुम्हें ‘मैं’ का उद्बोध हुआ
और तुम मुझसे अलग अनुभव करने लगे.
​​
मैं सभी मनु-पुत्रों में
उनकी स्नायुओं की क्षमतानुसार
शक्तिरूप सक्रिय हूँ
मेरी सृजनशीलता के दरम्यान ही
उन्हें उनकी इयत्ता मिली है
यही उनका ‘मैं’ है
यही तुम हो
यही ‘ मैं ‘ तुम्हारी व्यष्टि है.
​​
इन्हीं व्यष्टियों में, कुछ ने
अपनी वांक्षानुरूप
मेरे रूप गढ़ लिए हैं
और मेरे अनुभूतिगम्य रूप को
वरद मान
अपनी कामना को साधते हैं.
​​
तुम वर्तमान की संवेदना से सने हो,
अस्ति और नास्ति के तर्क में
उलझे तुम्हें
मेरे दुखी मन के
आँसू दिखते हैं
आँसुओं में ही तुम
मेरा वास भी बताते हो
तुम्हारी कल्पना इन आँसुओं को
वैकुंठ में उड़ा देती है
अपने गुजर-बसर के लिए
मुझसे बहुत कुछ माँगते हो
और प्रार्थना के फलित न होने पर
जाने कितने व्यंग्य विद्रूप के
मुझ पर तीर चलाते हो.
​​
पोथियों में तो
मैं अब भी बेमानी हूँ, क्योंकि
शब्दों के अंतराल को
तुम पढ़ना भूल गए हो
इसे पढ़ना तुम्हारे होने जैसा है
होनी मेरे अस्तित्व को नहीं ललकारती
होनी तुम्हारी क्षमता पर विहँसती है.
​​
मेरा निधन निश्चित है
तुम अभी सोचते हो,
पश्चिमी तत्वदर्शी नीत्से तो
मुझे कभी का मार चुका है
कहा “ईश्वर मर गया है”
पर विडंबना देखो
मैं हूँ कि अभी भी
तुम्हारी स्नायुयों में धड़कता हूँ
तुम्हारी उलाहना, आक्रोश
और विरोध में अंतरस्थ.
​​
मंत्रों से अनुप्राणित,
और पत्थरों में प्रतिष्ठित
मेरी कला-मुखर छवि की मूकता
तुम्हारे भीतर कुछ तोड़ती है,
इसी टूटने की अराजक ध्वनि
तुम्हारे कानों को छलनी करती है,
​​
तुम्हारी अनियंत्रित जिजीविषा की
और क्या गति हो सकती है.
​​
अभी व्यस्तता के क्षणों में
कुछ पल के लिए ही सही
थोड़ा अपना तो हो लो
सावन की फुहार सी
तुम्हारी आन्तरिकता तुम पर
बरस पड़ेगी.
​​
तुम प्रकृति का आपूरण हो
मैं तुम्हारे अस्तित्व का आधान हूँ
तुम तथ्य हो, यथार्थ हो,
जहाँ तुम्हारे पैर मचल पड़ें
मैं हँसता दिखता हूँ
जहाँ आहट भर रह जाए
मैं रोता दिखने लगता हूँ
और न जाने कितनी प्रक्षिप्तियाँ
तुम मेरे चेहरे पर जड़ देते हो
​​
जीवन के संसरण की गति
बहुत तेज है
तेज चलो,
अपनी अस्मिता को बरकरार रखते
तालमेल बिठा के चलो
तुम्हारी विश्लिष्ट अनुभूतियों ने
अभी तुम्हें खण्डित ही किया है
तुम्हार सामने
क्षणिकाओं की दीप्ति है
उसमें अभी
अगर वे चूरा बन गईं तो वह
अस्तित्व गोपन की कथा होगी.
(ई-पत्रिका ‘अनुभूति’ में प्रकाशित)
​​
2. ब्लॉग पर प्रकाशित
​​
प्रेमचंद की परित्यक्ता पत्नी का पत्र
प्रेमचंद के नाम
​​
सोसती श्री लिखी
स्वामी को हमारा परनाम,
हम सहाँ कुशल से हैं
आशा करती हूँ आप भी कुशल से होंगे.
​​
लगभग दस साल तक
मैं आपके पास रही
आपके मन को पाने की पूरी कोशिश की
पर न पा सकी.
लेखक का मन रखते हुए भी
आपने मेरा मरम जानना नहीं चाहा
आखिर हार कर
आपकी मति फेरकर
आपको अपना बनाने का
हर एक जतन किया
पर आपको अपना न बना सकी.
​​
वह हमारी भूल थी
आज जूब दूर हूँ
यह बात समझ में आ कही है
दुख है, अफसोस है जो ऐसा किया.
​​
मगर स्वामी,
मैंने महसूस किया कि
आपने मेरे रंग रूप, टोना टोटका
को ही देखा
मेरी पंखुरियों की परतों को उघार कर देखा
अपने लिखा-लिखी में आपने
जान -जहान की एक -एक बारीकी
अपने अक्षरों में भर दी
लेकिन मेरे सुहाग,
मेरे भीतर की दुनिया को
जहाँ आँसुओं की जड़ें
और दर्द की अनुभूतियाँ हैं
जहाँ दुख के सुर पनपते बसते हैं
आपने ठीक से नहीं देखा
हाँ, झाँका जरूर
पर केवल झाँकने से,
हिया की आह में उतरा नहीं जा सकता
मेरे हिया में मेरी सारी जुगत
आपसे जुड़़ने की थी.
मैं पढ़ी लिखी कम हूँ
देहाती बुद्धि मेरी धरोहर है
पति को वश में करने का
एक ही तरीका मुझे आता था
क्षमा करें स्वामी,
आपने मुझे अपना बनाने का
तनिक भी जतन नहीं किया.
​​
आप लेखक हैं
नारी के दुखों को खूब समझते हैं
उनके जेहन को खूब उभारा है आपने
अपनी कहानियों में
जीती जागती-सी लगती हैं वे
पर हिया की कसक कुछ अछूती-सी है उनमें
उममें घुटते मन की न कुंठा है
न कसकते मन का विद्रोह
साथ संग रहकर
मन की पीड़ा को तो
शरत बाबू ने ही समझा था
दुखी मन के क्षोभ-विक्षोभ
वांक्षित अवांक्षित में उन्होंने
कभी भेद नहीं किया.
​​
आप तो बस मुझे झेलते रहे
और एक दिन गैर के साथ
मुझे मेरे मैके भिजवाकर
मुझसे छुट्टी पा ली.
​​
मानी आप भी थे, मानी मैं भी थी
फिर भी दुबारा बुलाए जाने की
आपसे आस लगाए रही.
​​
हाँ, शिवरानी अधिक मानवीय निकलीं
पता चला है
वह मुझे साथ रखना चाहती हैं
पर आपने मुझे मरा मान लिया है
उनके आग्रह पर आप एक ही  बात कहते हैं-
वह मेरे लिए मर गई है.
​​
खैर, जैसे तैसे जीवन बिता रही हूँ
आप जहाँ भी रहें, खुश रहें
अगर हो सके
तो सिरजनहार की करुणा से भरकर
मेरे भी मन में झाँकें
और जैसे औरों को अमर कर दिया है
मुझे भी अमर कर दें
आखिर व्याहता हूँ आपकी
मंगल सूत्र है मेरे पास
इसके गुरियों में
दर्द से पिघलता मेरा ह्रदय
और उमड़कर आँखों से बहे
मेरे आँसू गुँथे हैं
पति की न सही
लेखक की करुणा से ये गुरियाँ विंध जाएँ
तो दुख भरी एक पोथी बन जाएगी
आपकी करुणा मुझे मिल जाएगी
धन्य हो जाऊँगी मैं
और अमर हो जाएगा
मेरा यह  मंगलसूत्र
तन का मिलना न हुआ, न हो
आपकी करुणा मिल जाए
मेरे तन-मन का कन कन करुण हो जाएगा.
​​
और क्या लिखूँ
थोड़ा लिखना बहुत समझना.
​​
3. फेसबुक पर पोस्टेड 26.06.2013
दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार से पीड़ित लड़की के मरने के उपरांत लिखी गई.
​​
....माँ देखना
माँ! मैं जीना चाहती थी
पर जी नहीं पाई
अलविदा,
अब मैं चलती हूँ.
माँ तू रोना मत
मेरे भाईयों को भी मत रोने देना
अब तो मेरे भाई बहन भी
गिनती से परे हैं
मैं जब सफदरजंग अस्पताल में थी
तो मेरे साथ घटी घटना के विरोध में
सुना संसद की सड़कों पर
क्रोध उफन पड़ा था
शीत की लहरें लू बन गई थीं
उसकी तपन से
देश के तथाकथित मसीहा
सनाका खा गए थे
दर्द में तड़पती हुई भी
मैं भाई बहनों और माँओं के
चेहरों पर तमतमाए
काली के रौर्द्र रूप की कल्पना कर
कुछ क्षण के लिए
स्फुरित हो जाती थी
लेकिन अब तो मैं वायु की तरंगों में
मिल गई हूँ माँ,
उन्हीं सड़कों को कल
मेरे शुभेच्छुओं ने
अपने आँसुओं के जल से सींच दिया था
ठंढी हवाओं के साथ
एक एक जन को छू कर
उनके मन में उमड़ते दर्द को
मैंने नहसूस किया
कितनी पीड़ा में थे वे मेरे प्रति
लेकिन माँ
उनके भीतर उफनते क्रोध की धाराएँ भी
उनके चित्त में चक्रवात बना रहीं थीं
देखना माँ
उनके क्रोध के चक्रवात में
यह देश डूब न जाए.
माँ देखना..
​​
4-   फेसबुक पर पोस्टेड 30-12-2013
​​
मौसम तो बदलेगा ही
परिस्थितियाँ अनुकूल हो या न हो
​​
पक्षी चहकेगें ही
वे किसी अपेक्षा में
नहीं चहकते
​​
मउराए अंकुर भी
प्रकृति के निकट हो
अँकुराएँगे
पर मित्र ! हम तो
अपेक्षाओं के पुलिंदे हैं
​​
मौसम तो बदलता है
हमारी अनुभूति में
प्रकृति के आँगन में
सूरज का उगना और डूबना
प्रकृति के तुक हैं
पर इनके प्रतिसंवेदन
और सिहरन
हमारी अनुभूति में ही सरक
व द्रवीभूत होकर
हमारे होते हैं
​​
सूरज की अरुणाई में खोए हम
दरअसल हम्हीं
सूरज को उगाते और डुबाते हैं
​​
मौसम तो बदलेगा ही
​​
क्या नए मौसम को
अपने में समोने के लिए
हमारे भीतर की ग्रहणशीलता
उर्वर है.
​​
फेसबुक पर पोस्टेड 08-04- 2014
दूर दिगंत में
आँखों से ओझल होता वह पंछी
धरती से छलाँग ले
आकाश को छूने चला-
​​
मुझे लगता है
उसने अपने पंखों में
मेरी आकांक्षाएँ गूँथ रखी हैं
​​
तभी वह
आकाश का छोर नापने का साहस
कर सका है
​​
जो सौंदर्य
उसके इर्द गिर्द
एक तारतम्य में विखरा है
पृथ्वी की बाँछे खिल गईं हैं जैसे
मैं कहूँ धरती का आह्लाद ही
उसके अंतर्तल से खिलकर
अंतरिक्ष में निखर उठा है.
​​
6- 30-08-2014
​​
रोज दिन की घुमड़तीं
अनेक ध्वनियों प्रतिध्वनियों से
जिनमें चीखें हैं कराहें हैं
मेरे कान उद्विग्न हैं
मन विचलित है
हृदय दो टूक हुआ जाता है
लेकिन हाथ बढ़ाओ
तो पाता हूँ
करुणा विगलित करती
इन ध्वनियों में
एक ही स्वर मुखर है
पुकार का
माँगों से भरी हुई
इनमें
एक भी स्वर ऐसा नहीं है
जो धरती पर एड़ी टेक
पैरों में साहस बटोर
हाथ आगे बढ़ा रहा हो
कि पकड़ो मेरे हाथ
बल दो कि
अपने संकट से मैं लड़ सकूँ
यह एक ऐसी विडंबना है
कि पैर आगे बढाकर भी
मैं कुछ नहीं कर पाता.
​​
फेसबुक पर एक प्रतिक्रिया 30-08-2014
​​
7. आजादी एक भिन्न संदर्भ
(जुलाई 1982 में लिखित, (अयन पत्रिका में प्रकाशित)
1
तुम्हारी सोहबत में आने से पूर्व
मुझे भी यही लगा था-
-कि आजादी
एक दुर्लभ वस्तु है
उसे पाने के लिए
दूसरों से जूझना पड़ता है
जंगलों, पहाड़ों की
खाक छाननी पड़ती है।
​​
-कि आजादी एक माँग है,
जो माँगी जा सकती है
​​
मगर नहीं
तुम्हारी निपट निजता में डूबकर
मैंने जाना कि
आजादी एक शान चढ़ी तलवार है
जिसपर पैर रखे जाएँ
तो रक्त के फौब्बारे फूटते हैं।
​​
चिड़िया ने कैसे समझ लिया
वह संत्रास के हर क्षण से
निरापद ही रहेगी।
​​
पंख के जकड़े जाने की संभावना से
उसने आँखें कैसे मूँद ली।
​​
अगर उसके पंख जकड़े भी गए
तो बँधे पंख की कुंठा
और संक्रमण-संघर्ष की उत्तुंगता
दोनों में से एक को चुनने को
वह आजाद है।
​​
वह संक्रमण-संघर्ष को चुनने से
क्यों कतराए
आजादी तो
मेघ-संकुल अंतरिक्ष में
अस्तित्व के उन्मुक्त उड़ान की
ऐतिहासिक अंतर्धारा भी है।
​​
इतिहास के द्वन्द्वों,अंतर्विरोधों से
लड़कर
आजाद रहने की मनोवृत्तिभी तो
आजादी का एक पहलू है।
​​
नुक्कड़ का एक सिपाही
गालियाँ चबाता है,चबाने दें
पेट-फूली औरत
उधर ध्यान ही क्यों दे।
​​
वह पेट फुलाने को आजाद थी
तो उसे सँजोने को भी आजाद है।
​​
संत्रास आएँगे,
पत्थर चबाने पड़ेंगे।
​​
भिखमंगेपन के लिए
आजादी की कोई अर्थवत्ता नहीं
जो बाजार में लुकाठी लिए खड़ा है
आजादी उसकी है।
​​
सृजन की पीड़ा कोई प्रसूति से पूछे
वह बच्चा जनने को आजाद है
पर संक्रमण-पीर के थपेड़े
उसे झेलने ही पड़ेंगे।
​​
अब जंगल भागकर
पत्थर चबाने से काम नहीं चलेगा।
​​
अब सरे बाजार में
प्रतिरोधों की जकड़न में
अपने अंतर्लोक में झाँकना होगा-
हम अपने अस्तित्व के कितने निकट हैं।
​​
हमारे अस्तित्व के तट से ही
हमारी आजादी की धारा फूटती है।
​​
हमने होना स्वीकारा है
तो होने की सर्वस्वीकृति के लिए
संघर्षों के सातत्य की दुंदुभी
फूँकनी ही पड़ेगी।
2
तुम और मैं
धड़कन ने सुनी तेरी वाणी
वह मौन-मुखर यों बोल पड़ी
मैं हूँ ही कहाँ बस तेरे सिवा
तू ही तो मुझमें धड़क रही
बस एक कदम आगे को बढ़ो
फिर मेरे तुम में कहाँ द्वैध रहे. 20.01.2016
​​
3
स्थिति बड़ी अद्भुत है
जो भी प्रश्न उठते हैं
औचक ही उठते हैं
अभी वे
हमारे अणुओं के ताल मेल में
बैठे नहीं कि
हम चल पड़ते हैं
उत्तर की खोज में औचक ही
सड़क पर.
​​
हमें
प्रश्नों के उत्तर पाने की
इतनी बेचैनी होती है कि
हम हवा में दागने लगते हैं इन्हें
अपनी वाणी के तमंचों से.
​​
हम भूल ही जाते हैं
उन प्रश्नों का एक आयाम
हमारी तरफ भी खुलता है
यहाँ वाणी के नहीं
मौन के तमंचे चलते हैं.
इन प्रश्नों को
अपनी तरफ साधने में
खुद ही घायल होना पड़ता है
प्रश्न का रुख
हवा की तरफ करने में
दार्शनिक की मुद्रा ग्रहण करने में
सुविधा होती है
सोहरत मिलती है.
दीये जले
दीयों ने अपने तन में
बत्तियों को संभाला
इसे हिए के स्नेह में डुबाया
अनुकूल अवसर देख
उसके गिर्द छाए अस्तित्व की
तिल्ली में अंतर्स्फोट हुआ
स्नेह में भींगी बाती में
लौ का उद्भास जगा
और चारो ओर उजाला छा गया
फिर
दीपों की अवलियाँ सज गईं
दीपावली आ गई.
​​
क्यों रे मनुष्य
तू ऐसा नहीं कर सकता
तेरे भी भीतर सज सकती हैं
दीपों की अवलियाँ
सजेंगी ही
पर तुझे यह
स्वयं ही करना होगा
अपने स्वयं में उतर कर
अपने में लौ पैदा कर. 26.06.2013
​​
4
फेसबुक पर संध्या सिंह द्वारा ठहराई गई बद्रीनारायण की उद्धृत कविता पढ़कर...22.04.2017
​​
हाय रे प्रियतम
प्रियतमा ने तुम्हें पत्र लिखा
प्रेम में डूब कर
वह पत्र नहीं था
प्रेम ही था मूर्त रूप में
सुंदर सुरुचिपूर्ण
तुम्हें वह इतना भाया कि
उसके एक-एक शब्द में
डुबकी लगाने के बजाय
तुम उस पत्र को ही
बचाने का जतन करने लगे
कहीं उसे गिद्ध न नोंच खाँय
कहीं आग न जला दे
आखिर तुम आधुनिक जो हो
बुद्धि ही तुम्हारी सम्पत्ति है
जोड़ना, घटाना, बचाना भर ही
उसे आता है
पर प्रेम तो प्रेम ही है
प्रेम चाहे पत्र में हो
चाहे आँखों में
उसमें डूबने पर ही वह
अपना होता है
वह डूबना भी ऐसा कि
प्रेम ही होकर उसमें से निकले
प्रिय प्रियतम !
उस प्रेम-पत्र को
धरोहर बनाने मे लगोगे
तो तुम प्रेम को जी न सकोगे
प्रेममय ही हो जाओ
तब तुम्हें कोई डर नहीं सताएगा
तब तुम्हें न गिद्ध नोंचेंगे न.....
पर ध्यान रहे
प्रेममय होने की कला तुम्हें
सीखनी होगी