Thursday 29 July 2021

कमलाकांत त्रिपाठी के एक लेख पर उनके द्वारा मांगी गई टिप्पणी

 


सम्मान्य,                                                    तिथि—14-06-2021

कमलाकान्त त्रिपाठी जी।

ठोपनिषद पर लिखा आपका लेख पढ़ा। पढ़ कर पाया कि आपने कठोपनिषद के रहस्य को जाने की कोशिश नहीं वरन उसे सुलझाने की कोशिश की है। गोया उसमें कोई समस्या उलझ कर रह गई हो। मेरे देखे इसमें कुछ भी सुलझाने जैसा नहीं है। जिसे सुलझाने की चेष्टा आपने की है वह उपनिषद का विषय है ही नहीं।      

आपके लेख का शीर्षक है-The Mystery Of Kathopanishad Unravelled- A Rational Viewpoint॰ अर्थात कठोपनिषद के रहस्य को बौद्धिक दृष्टिकोण से सुलझाया गयामेरी समझ से सुलझाया उसे जाता है  जो लझा हु हो। इस उपनिषद में कुछ भी उलझा नहीं है। इस उपनिषद का अपना रहस्य है। इसे शीर्षक में आपने भी माना है। रहस्य को उद्घाटित करना, या कहें, खोलना होता है। आपने उपनिषद के रहस्य को जानने की चेष्टा नहीं की है। गौतम बुद्ध का जो सुझाव आपने कोट किया है उसमें जानने की बात की गई है। इस जानने का अर्थ है- Existential Viewpoint से अर्थात अस्तित्वगत दृष्टिकोण से जानना। या तो आपको अस्तित्वगत दृष्टिकोण से जानने की बात का पता नहीं है या आप जानना नहीं चाहते। एक्झिस्टेंशियल विऊ प्वाइंट को यों समझ जा सकता है- 

तैराकी सिखाने वाला कोच, तैराकी सीखने के इच्छुक विद्यार्थी को या तो पहले तैरने की बौद्धिक शिक्षा दे ले फिर उसे पानी में उतारे या उस इच्छुक को सीधे पानी में उतार दे और पानी में ही तैरना सिखाए। यह दूसरी विधि एक्झिसटेंशियल विधि है। आप कठोपनिषद में उतरे नहीं हैं, किनारे बैठ कर उसके रहस्य का अनुमान लगा रहे हैं।

उपनिषदों में उतरने से पूर्व निराग्रह होना अति आवश्यक हैउसी तरह जैसे विद्यार्थियों को कक्षा में विषय को समने से पूर्व होना होता है। यह आपका आग्रह और पाठकों पर दबदबा बनाने की ही चेष्टा है जब आप कहते हैं, मैं एक स्केप्टिक नहीं हूँहालांकि फेसबुक पर आप प्रमाण माँगते हैं। आपकी शिकायत है कि मिथकों/प्रतीकों/रूपकों में उपमेय से कुछ साधर्म्य होना चाहिए। लेकिन आप भूल जाते हैं कि उपनिषद उन अर्थों में साहित्य नहीं है जिन अर्थों में रामचरित मानस या साकेत। ये साहित्य हैं लेकिन गीता के अर्थ में। उपनिषद के प्रतीक योग (पातंजल योग, रामदेव का योग नहीं) और ध्यान के अनुभव से खड़े किए गए हैं। उसमें रहस्य की परतें भी लिपटी हैं। कबीर के इस दोहे का अर्थ कर देखें-

                      लाल रेख स्यंदूर की, काजल दिया जाय।

                      नैनु  रमइया  रमि रहा,  दूजा कहाँ समाय।

उक्त दोहे में दो अर्थ लिपटे हैं एक सामान्य, एक गूढ। गूढ अर्थ के लिए प्रतीक भक्तियोग के हैं।

जैन मुनियों ने तो अपने आदि स्वामी महावीर को ही बाँट लिया है। कोई श्वेतांबर है तो कोई दिगंबर। उनसे आप उपनिषद कैसे समझ सकते हैं। शंकराचार्य की टीका महत्वपूर्ण है पर उनका मस्तिष्क सवी सदी का है जो उपनिषद काल के ऋषियों के निकट का है। उनमें उपनिषद के सत्य को उद्घाटित करने की चेष्टा है और आपकी दृष्टि आधुनिक है जिसमें सुलझाने की चेष्टा प्रबल है, उपनिषद के मूल तक पहुँचने की नहीं।  

ठोपनिषद की कथा मिथकीय है। यह आधुनिक युग की लघु कथा नहीं है। लघु कथा को पढ़ कर भी पाठक सोचता है, कथाकार का इसमें कौन-सा उद्देश्य निहित है? उद्देश्य भी आज के युग के प्रश्न और परिस्थिति के अनुसार। फिर कठोपनिषद के मिथक में उतरते समय दिमाग में यह रख कर क्यों न चला जाए कि उपनिषदकार ने इस मिथक के माध्यम से अपने युग के प्रश्नों को हल करने का प्रयास किया है। और फिर यह भी जानने की कोशिश क्यों न की जाए कि उस युग के प्रश्न क्या थे  और परिस्थितियाँ क्या थीं और उन्हें हल कैसे किया गया

उस युग में सर्वमान्य रूप से उपनिषद के ऋषियों ने यह जानने की कोशिश की है कि सृष्टि के और हमारे अस्तित्व के होने का रहस्य क्या है। उनके सामने तब जीविका प्रश्न प्रमुख नहीं था। वह प्रश्न आज भी जीवित है। आज विज्ञान भी इसको जानने के प्रयास में लगा है। विज्ञान आज पदार्थ के टुकड़े कर और उसकी अंतर्गुहा में प्रवेश कर उसके अंतरतम को जानना चाह रहा है। आज का विज्ञान, किसी वाद के घेरे मे नहीं घिरा है। मार्क्सवादी अभी भी पदार्थ के इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान के ज्ञान तक में ही अंटके हैं जबकि विज्ञान की खोज आगे बढ़ गई है। इन कणों की खोज के बाद विज्ञान के सामने यह प्रश्न खड़ा हो गया था कि परमाणु के न्यूक्लियस के चक्कर लगाते इलेक्ट्रानों को न्यूक्लियस में गिर जाना चाहिए क्योंकि उके लगातार गतिशील रहने से उसकी ऊर्जा का क्षय होना चाहिएपर वे केंद्रक में गिरते नहीं। तब विज्ञान ने यह परिकल्पना दी कि दोहरे चरित्र (कणिका रूप और तरंग रूप) वाले ये इलेक्ट्रान अपने गतिशील रूप में क्वान्टम के रूप में होते हैं। चक्रणगति करते इन इलेक्ट्रानों की ऊर्जा उसकी एक औरबिट से दूसरे औरबिट में क्वान्टम लीप (कूद) लेती हैं जिसमें इलेक्ट्रानो की ऊर्जा का क्षय नहीं होता। उनकी कक्षीय ऊर्जा ज्यों की त्यों बनी रहती है और वे केंद्रक में नहीं गिरते। अतः परमाणु नष्ट नहीं होता।

इस क्वान्टम की गति संदिग्ध होती है। परमाणु में कभी वह कणिका के रूप में गति करता है तो कभी तरंग के रूप में। और यही गुण चेतना का भी है (ओशो)। विज्ञान पदार्थ के अंतरतम में प्रवेश कर सृष्टि के रहस्य को जानना चाहता है। कठोपनिषद में ऋषि ने पदार्थ से चेतना के अंतरतम में प्रवेश कर जीवन के अस्तित्व को उपलब्ध करने की बात की है। आज नहीं कल विज्ञान यह अवश्य अनुभव करेगा कि पदार्थ पर ही रूक कर वह अधूरा है। भारतीय आध्यात्म भी आज महसूस कर रहा है कि वह आत्म पर ही रूक कर अधूरा रह गया है। ओशो एक नए मनुष्य के जन्म की बात करते हैं जिसमें पदार्थ और अध्यात्म का ज्ञान अपने पूरेपन में हो। वही मनुष्य पूरा मनुष्य होगा। उस नए मनुष्य का उन्होंने नाम रखा है जोरबा द बुद्ध। जोरबा यानी आइन्स्टाइन, बुद्ध यानी गौतम बुद्ध। उस मनुष्य में आइन्स्टाइन की वैज्ञानिक और बुद्ध की अध्यात्मिक प्रतिभा होगी

डार्विन का विकसवाद जीव के केवल पार्थिव विकास तक ही सीमित है। अपनी खोज में ओशो ने नोवेल पुरस्कार विजेता डा हरगोविंद खुराना से पूछा था, क्या पदार्थ के विश्लेषण से चेतना के विकास को जाना जा सकता है? उत्तर मिला, नहीं, पदार्थ के विश्लेषण से चेतना के विकास को कैसे जाना जा सकता है उपनिषद के ऋषियों ने अस्तित्व-मात्र को जानने के लिए साधना के मार्ग से अपने अंतरतम में प्रवेश करने के प्रयोग को साधा। आज विज्ञान भी कहता है और उपनिषद के ऋषि भी जानते थे कि जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है। अतः अपने अंतरतम को जान कर सृष्टि के रहस्य को भी जाना जा सकता है। कठोपनिषद में, अंतरतम में कैसे प्रवेश किया जा सकता है इस बात की चर्चा है। आपने इसे जानने का प्रयास नहीं किया। प्रयास भी क्यों करते। करते तो आज के पग पग के उलझाव को अतीत पर आरोपित कैसे कर पाते।

जरा सोचिए। इस मिथक में कई पारिभाषिक शब्द हैं, जिनमें प्रतीक और रूपक भी हैं- जैसे- यज्ञ, उद्दालक, दान दी जाने वाली गौयेँ, नचिकेता, यम, यम की पत्नी और तीन प्रश्न। इनमें से कोई भी  शब्द/प्रतीक आपको समझने जैसा नहीं लगा। जबकि ये ही उस युग की परिस्थिति को समझने में सहायक है। ये शब्द/प्रतीक/रूपउस युग के पर्यावरण, मनोविज्ञान और योग-विज्ञान के अनुकूल चुने गए हैं जैसे आज के विज्ञान ने क्वान्टम शब्द को चुना है। और आप उन्हें (उपनिषद्कालीन प्रतीकों को) आज के समयानुकूल चुने गए शब्दों के अर्थों पर कस रहे हैं। जैसे आपकी अधो उद्धरित आपकी पंक्तियों का सेकुलर शब्द है। सेकुलर शब्द स्वयं में एक स्पष्ट अर्थ नहीं रखता 

और वे तीन प्रश्न! उंसमें से दो प्रश्न सांसारिक हैं जिनके लिए यज्ञ, यज्ञ कराने वाले उद्दालक और दान दी जाने वाली क्षीणकाय गौओं का परिवेश बुना गया है। उसमें वर्तमान युग की जनभावना का भी प्रतिबिम्बन है पर परिवेश नहींतीसरा प्रश्न केवल साधक ही अपने गुरु से पूछते हैं या कभी कभी महाभिलाषी पूछते हैं। पर उस प्रश्न को आपने किनारे कर दिया है।

This third question, supposed to be the essence of this Upanishad, to my surprise, is a simple, secular question reflecting natural human curiosity. Nachiketa says, there is a doubt about what happens after the death of a person, some say he remains, others say he doesn’t, please ‘teach me so as to enable me to know this’

मैंने तो घर में, नुक्कड़ पर, किसी सेमिनार में, राजनीतिक मंच पर या संसद में या आज की मार्क्सवादी बैठकों में (शुरू में, जबतक केवल सी पी आई थी मैं उसका मेम्बर था)) कभी यह जिज्ञासा करते नहीं पाया की मरने के बाद मनुष्य का क्या होता है। और आप कह रहे हैं यह एक सामान्य प्रश्न है। आपको आश्चर्य होता है कि ऋषि इसे भी एक गूढ प्रश्न मानते हैं। अब मैं ऋषियों के विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाऊँ या....।  

कभी ख्याल किया है आपने कि सेक्युलर शब्द आज का ईजाद है? आज की परिस्थिति और हमारी

आज की जरूरत के अनुसार। इसके हिन्दी अनुवाद हैं- धर्मनिरपेक्ष,र्वधर्मसमभाव आदि। फिर भी यह सेक्युलर शब्द हमारे सामाजिक व्यवस्था के लिए पूरा फिट नहीं बैठता। हमारे समाज में कई धर्मों के लोग हैं। हिन्दू अहिंसक हैं, मुसलमान हिंसा में विश्वास करते हैं। ईसाई धर्मपरिवर्तन में। साथ ही सभी धर्मों की अपनी अपनी व्याख्याएँ हैं। एम एफ हुसैन हिन्दुओं के देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाएँ और हिन्दू उसका विरोध करें तो वे सेक्युलर नहीं है (अधिकतर मार्क्सवादी ही ऐसा कहते हैं या वे कहते हैं जिनकी राजनीतिक आकांक्षाएँ पूरी नहीं होती)। लेकिन हिन्दू उनके मोहम्मद पर कोई टिप्पणी कर दें तो मुसलमान उनका गला काटने पर तैयार हो जाते हैं। फ्रांस में तो अभी मुसलमानों ने यही किया है। यह सेक्युलर शब्द हमारी सामाजिक समस्या को हल करने में कितना सहायक है?

आज के इसी सेक्युलर शब्द को आप उपनिषद युग पर लागू करते हैं। उस काल में विपरीत मनोभावों वाले कितने धर्म थे? जो थे भी उन्हें हल करने के लिए के लिए ऋषियों को ऐसे झगड़ालू शब्द की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने इसके लिए हिंदुओं की जीवन प्रणाली को गढा और ऐसे गढ़ा कि आगे आने वाले शक, हू, ठाआदि आसानी से हमारे हो लिए। और यह सेकुलरी समाधान हमें कहाँ ला खड़ा किया है, इसे आप खुद देख रहे हैं।

और अंत में-

आपने अपने इस लेख में बड़े मार्के की युक्ति अपनाई है। क्थोपनिषद के रहस्य को जानने के बजाय सुलझाने की बात की है। इस युक्ति को मैंने मार्क्सवादियों को अपनाते पाया है। मार्क्सवादी नैदानिक नब्ज न पकड़ उससे सटे बगल की नब्जड़ते हैं ताकि पाठक को उसमें उलझा कर अपनी बात को वे पाठकों पर थोप सकें। विचार करके देखें।

ध्यान दें। आपने इस उपनिषद के मर्म को तत्कालीन वर्णव्यवस्था में देखना चाहा है। इस उपनिषद के कंटेन्ट में से आपके समक्ष केवल यम की पत्नी द्वारा एक ब्राह्मण को महत्व दिया जाना ही नाच रहा है। हालाँकि यम की पत्नी ने नचिकेता के समादर में जो बातें यम से कही हैं उसमें तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के प्रति आदर का भाव ही है। उसका उपनिषद के विषय से कोई संबंध नहीं है। वर्तमान का सारा राजनीतिक और सामाजिक चिंतन वर्णव्यवस्था में ब्राह्मणों के वर्चस्व के इर्द गिर्द सिमटा है। और इसी वर्चस्व को आप उस काल पर भी थोपना चाहते है। सपर तो आपका इतना ही कहना काफी है कि आपको यह वर्णव्यवस्था अमान्य है। उसकी पुष्टि में जो आपने उदाहरण दिया है वह महाभारत काल का है, जो उपनिषद काल के बहुत बाद का है। यहीं आपकी चतुराई दिखाई देती है। उपनिषद के गुण अवगुण को बताने के लिए उपनिषद काल का ही उदाहरण आप देते तो सटीक होता। सत्यकाम जाबाल का उदाहरण देते तो हमें भी समझ में आता कि आप आग्रही नहीं हैं। सत्यकाम कुल-गोत्रहीन बालक था। वह गुरुकुल में प्रवेश पाने के लिए गया तो गुरुकुल के ब्राह्मण आचार्य ने उससे उसके कुल और गोत्र का नाम पूछा। सत्यकाम ने कहा- मेरी माता ने मुझे यह नहीं बताया। आचार्य ने उसे वापस भेज दिया- जा अपनी माँ से पूछ कर आ। वापस लौट कर सत्यकाम ने आचार्य को बताया- माँ ने कहा- पुत्र! मैंने अपनी जवानी में अनेक ऋषियों की सेवा की है, तू किसका पुत्र है मुझे नहीं मालूम। जा अपने आचार्य से कह दे तेरा नाम वह सत्यकाम जाबाल लिख लें। उस ब्राह्मण आचार्य ने कहा इतना कठोर सत्य कोई ब्राह्मण ही कह सकता है। जा मैंने तुम्हारा नाम लिख लिया–सायकाम जाबल। द्रोणाचार्य राजघराने के ट्यूटर थे, वेतनभोगी, और गुरुकुल में दीक्षा देनेवाल आचार्य कट्टर ब्राह्मण। इस उदाहरण में उपनिषद्कालीन समाज की उदार व्यवस्था की झलक मिलती है। वर्णव्यवस्था अभी रूढ़ नहीं हुई थी। एक वर्ण दूसरे वर्ण को स्वीकार करने को तैयार था। वर्णव्यवस्था में स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था पर गार्गी का वेदपाठी होने का उदाहरण मिलता है। वेदों में गार्गी नाम से एक संहिता भी है। वर्णव्यवस्था रूढ हुई आदि शंकराचार्य के कठोर अनुशासन से। वर्णव्यवस्था के कस जाने से एक समुदाय जो जाति नहीं था जाति में गिना जाने लगा- वह समुदाय है कायस्थ। कायस्थ, ब्राह्मणों का एक वर्ग था जो राजकार्य से सम्बद्ध था। पुरोहित वर्ग उनकी राज्य-शासन में अधिक पूछ-ताछ से खिन्न होकर उनसे अपने को आलाग कर लिया। बहुत समय व्यतीत होने पर हर व्यवस्था में कोई कोई कमी आ जाती है, सो वर्णव्यवस्था में भ आई। आज मार्क्सवाद में भी अनेक कमियाँ आ गई हैं। मार्क्सवाद के आदर्श को देखिए और चीनी मार्क्सवाद और चीनी मार्कस्वाद की तुलना कर लीजिए।

लेकिन कठोपनिषद का केन्द्रीय विषय या थीम वर्णव्यवस्था नहीं है।

अब आप ही बताएँ कठोपनिषद पर आपके आठ पृष्ठ के लेख की तुलना ओशो के, उसपर 70 घंटों में दिए गए 70 प्रवचनों से जो 425 पृष्ठों में फैले हैं, कैसे की जा सकती है। क्थोपनिषद को देखने का ओशो का दृष्टिकोण एक्झिस्टेंशियल है जबकि आपका रेशनल। यही नहीं उन्होंने एक शिक्षक की तरह नचिकेता के प्रश्न के मर्म को अपने शिष्यों को समझा कर फिर यम की भूमिका में आ कर उन्हें उस विद्या को जानने (सुलझाने नहीं) के लिए उस ध्यान की विधि में उतरना भी सिखाया है जिसे इस उपनिषद के ऋषि ने सद्गुरुओं पर छोड़ दिया है। ओशो के प्रवचनों का एक संकलन है- मैं मृत्यु सिखाता हूँ। कभी मन करे तो पढ़िएगा।

कुछ और समझने जैसी बातें-   

1॰ बुद्ध का उपनिषदों का विरोध उनकी आत्मा’, परमात्मा की प्रतिष्ठापना के प्रति था। ये स्थापनाएँ  जड़ीभूत हो चली थीं। जड़ता के रूप में ये आज भी विद्यमान हैं। उन्होंने उपनिषदों की साधना पद्धति को अस्वीकार नहीं किया था। उसे उन्होंने ध्यान में बदल दिया और एक नयी ध्यान पद्धति को जन्म दिया– विपस्सना या विपश्यना ध्यान पद्धति। इस विधि में साधना की मुद्रा में आकर साँस लेने और साँस छोड़ने के बीच की अवधि का साक्षी होना होता हैयोग में साँस लेने का अर्थ जीवन को ग्रहण करना और साँस छोड़ने का अर्थ मृत्यु की ओर अग्रसर होना होता है। इन अर्थों में उपनिषद के यम मृत्यु के प्रतीक हैं (योग का प्रतीक, साहित्य का नहीं)। ओशो की मैं मृत्यु सिखाता हूँ पुस्तक ईसी संदर्भ में है।

2॰  बुद्ध आज के वैज्ञानिक विकास से परिचित नहीं थे। उन्होंने ध्यान की इस साक्षी की विधि से जाना कि मनुष्य की जीवन-ऊर्जा आत्मा नहीं सूक्ष्म शक्ति-कणों का परिपुष्ट प्रवाह है और वह एक विश्वजनीन शक्ति का अंश है। इससे आत्मा और परमात्मा की जड़ होती धारणा को तोड़ने में उन्हें मदद मिली। ओशो आज के वैज्ञानिक विकास से पूर्णतः परिचित हैं। उन्होंने ईश्वर के व्यक्ति-अस्तित्व की धारणा को विलकुल ही तोड़ दिया है। वह विज्ञान के अनुभव को पने अनुभव से साक्ष्य देते हैं।  

3॰  उपनिषद्कालीन पर्यावरण अध्यात्म और साधना के प्रयोगों से भरा हुआ था। यम के पास भेजने से तात्पर्य ऐसे गुरु के पास भेजना था जो मृत्यु की कला को सिखाने में निपुण हों। मृत्यु कीला अर्थात मैं को विसर्जित करने की क्ला या कहें मैं के घेरे से बाहर आने की काला। नीत्से मैं के घेरे से बाहर नहीं निकल सका और वह विक्षिप्त हो गया। दुनिया के सारे साहित्य के ध्ययन के बावजूद ओशो विक्षिप्त नहीं हुए क्योंकि भारतीय ध्यान पद्धतियों का प्रयोग कर वह मैं के घेरे से बाहर आ गए। नीत्से का हवारूपी मैं उसके बिकारी चिंतनरूपी ताप से मन के खोलरूपी बैलून (अहम) की सीमा में फैलता रहा और एक दिन फूट गया। उसके मैं का प्रसार चतुर्दिक प्रसरित वायु के दाब से संतुलित नहीं हो सका। क्ठोपनिषद में यम ने नचिकेता को इसी संतुलन के पाने की विधि बताई है जिसे तैराकी सिखाने की बौद्धिक विधि की तरह बताया नहीं जा सकता। उपनिषद की विधि पानी में उतर कर तैराकी सिखाने की विधि की तरह है। इसे यम ने नचिकेता से अवश्य कराया होगा किन्तु उपनिषदकार ने इसे छोड़ दिया है। कोरे शब्द भ्रम पैदा कर सकते हैं जैसा आपको हो गया है। आप शब्दों में उलझ कर रह गए हैं।    

4॰  उपनिषद शांति को उपलब्ध होने के लिए ऋषियों की अनुभूति से प्रसूत उपकरण हैं। बुद्धि से अनुभूति में उतरना संभव नहीं है। अनभूति में उतरना अपनी चेतना में उतरना है, सर से पैर तक  होमोजीनियस होंने के लिए। बुद्धि होमोजीनियसनेस के तट तक पहुँचा सकती है उसमें उतार नहीं सकती। कबीर को याद कीजिए- मैं बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठविचार करने वाला विचार करता ही रह गया। सागर का रहस्य जानने के लिए सागर में उतरना होगायह बुद्धि नहीं कर सकेगी।        

5॰  कठोपनिषद का सार-विषय नचिकेता के प्रश्न हैं जिनके उत्तर यम को देने हैं। नचिकेता के यम तक हुंचने के पूर्व एक नाममात्र की कथा की योजना है। विश्वजीत यज्ञ में यज्ञ का फल पाने के लिए अपने पिता ऋषि उद्दालक को अनुपयोगी गौओं को दान देते देख नचिकेता के मन में हुआ कि वह भी तो अपने पिता का धन हैं। अतः श्रद्धा से भर कर पिता से पूछा, आप मुझे किसको दान में दे रहे हैं? उसके इस तरह तीन बार पूछने पर उद्दालक नाराज हो कर कह देते हैं- जा मैंने तुझे यम को दिया। और नचिकेता यम के यहाँ पहुँच जाता है। यम ने उनका तीन दिन इंतजार करने के लिए नचिकेता से तीन वर मांगने को कहते हैं।  

इस कथा में दो-तीन बातें ध्यान देने लायक है।

यह कथा-योजना प्रयोजनमूलक है। इससे विषय की स्थापना की गई है। विषय है उद्दालक के मन में ब्रह्म को या स्वर्गिक सुख को उपलब्ध होने की कामना। उपनिषद-काल में इसके लिए कामनार्थी यज्ञ करते थे और दान-दक्षिणा भी देते थे। उद्दालक ने यही किया। आप एक प्रश्न उठाते हैं कि उद्दालक ब्राह्मण थे। वह ब्रह्मज्ञानी थे ही- ब्रह्म को जानने वाले ब्राह्मण। फिर ब्रह्मज्ञान हेतु यज्ञ कैसा। आप ठीक ही कहते हैं। लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं देते कि आर्यों का समाज कबीलाई था। कबीलों में दो तरह के लोगों का महत्व था -एक, पुरोहितों का और दूसरा कबीले के मुखिया का (अर्थात लड़ने भिड़ने वालों का)। पुरोहित अध्यात्म-चर्या में भी लीन रहते थे। संभव है उनमें से किसी एक को अतींद्रिय अनुभूति हुई हो जिसे वह ब्रह्मानुभूति कहने लगे हों और इसीलिए कबीले वाले उस समुदाय को तत्कालीन भाषायी नियम से ब्राह्मण कहने लगे हों। तब ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण ही कहलाएगा। लेकिन वह ब्रह्म का ज्ञानी भी हो आवश्यक नहीं। ब्रह्म को जानना पड़ता है। अंबेडकर का पुत्र/पुत्री अंबेडकर जैसे ज्ञानी तो नहीं हुए। फिर बाजश्रवा का पुत्र ब्रह्मज्ञानी कैसे हो जाएगा। वह तो ब्रह्म-ज्ञान या जगत की सुख सुबिधा को पाने के लिए ही यज्ञ कर रहे हैं। दुनियादारी से दूर बाल नचिकेता का मन अभी जिज्ञासा से भरा हुआ है। गृहचर्या में उसने आत्मा का नाम सुना होगा। आत्मा का मरने के बाद क्या होता है यह भी उसने चर्या में सुना होगा। उद्दालक को भी लगा होगा कि नचिकेता में कुछ गूढ जानने की जिज्ञासा है। अतः क्रोध में ही सही उन्होंने उसे यम के पास भेजा हो, यम अर्थात मृत्यु के देवता (अच्छे कर्म करने वाला), मृत्यु अर्थात मैं (अहम) को विसर्जित करने की कला सिखाने वाला साधक। आपने इस बात पर भी गौर नहीं किया कि आज का जो बुद्धिजीवी वर्ग है वह उपनिषद काल में भी था। तत्कालीन ब्राह्मण ही उस काल के बुद्धजीवी थे।

वर्णव्यवस्था की योजना बुद्धिजीवियों की एक ही बैठक में नहीं बन गई होगी। इतिहास के पास जाइए तो पाएँगे कि कबीलों में पहले एक ही वर्ग था- ब्राह्मण वर्ग (डा जयशंकर, भारत का सामाजिक इतिहास)। जब लड़ने भिड़ने वालों की आवश्यकता हुई तब क्षत्रियों का वर्ग बना। जब कबीलों का जन में गठन हुआ तब कृषि और व्यापार की ओर उन्मुख लोगों का एक और वर्ग बना वैश्य वर्ग। जो सेवा में रत थे (या जिन्हें सेवा में ले लिया गया) वे शूद्र वर्ग में रखे गए। वृहदारण्यक उपनिषद भी देखिए। तत्कालीन समाज का यह मनोवैज्ञानिक बंटवारा था (पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों ने भी मनुष्यों के चार टाइप माने है)। उपनिषद काल तक लोगों का एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आना जाना लगा रहा। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। आगे चलकर मनुष्य की दूसरे पर वर्चस्व कायम रखने वाली वृत्तियाँ ज़ोर पकड़ती गईं और आदि शंकराचार्य तक आकार इसका रूप बदल गया जो आज के लिए अग्राह्य हो गया है।        ---शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव, गोरखपुर। ई-मेल : sheshnath250@gmail.com