Thursday 29 July 2021

कवि ज्ञानेन्द्रपति के कृतित्व पर लिखे एक आलोचनात्मक लेख पर टिप्पणी

 


चौथीराम यादव ने अपने फेसबुक वाल पर एक टिप्पणी दी थी- "हम अधकचरे आलोचकों के कारण अच्छे आलोचकों ने अपने को क्वारंटीन कर लिया है।" मैंने इस पर पूछा कि उन्होंने अपने को स्वयं क्वारंटीन कर लिया है या इन अधकचरे आलोचकों ने महाराष्ट्र पुलिस की तरह उन्हें क्वारंटीन कर दिया है। उनका जवाब था, स्वयं। लेकिन मैं अनुभव करता हूँ कि वे स्वयं क्वारंटीन नहीं हुए, उन्हें क्वारंटीन कर दिया गया है।
मैं अपने संबंध में कहूँ कि मैं कोई बड़ा आलोचक नहीं हूँ लेकिन मेरे द्वारा लिखी गई आलोचना में एक स्वतंत्र मेधा का प्रतिफलन अवश्य है। पर फेसबुक के जिस एक ग्रुप का मैं सदस्य हूँ, मेरी लिखी आलोचना को पढ़ने से इस ग्रुप के सदस्य परहेज करते हैं। बात इतनी ही समझ में आती है कि मैं उनके ढर्रे पर फिट नहीं बैठता अतः उन लोगों ने मुझसे बचने के लिए मुझे क्वारंटीन में डाल दिया है। मैंने अपना काव्य-संकलन भी इनमें से एक मित्र को भेजा तो उन्होंने उसे कोई तवज्जो नहीं दिया। हाँ चौथी राम यादव जी की टिप्पणी के जवाब में रामप्रकाश कुशवाहा जी की टिप्पणी ने इन अधकचरे आलोचकों की पोल खोल दी है। रामप्रकाश जी ने लिखा है, "सर, आलोचक गोलबंद हो रहे हैं।" यह टिप्पणी देकर जाने अनजाने कुशवाहा जी ने हिंदी के वर्तमान आलोचकों की दुखती रग पर उँगली रख दी है। मालूम नहीं अपनी इस टिप्पणी के प्रति कुशवाहा जी खुद कितने सजग हैं।
यह आलोचनात्मक लेख जो मेरे सामने है इस गोलबंद होने की प्रवृत्ति का एक ताजा उदाहरण है। मैंने साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ज्ञानेंद्रपति के नए काव्य- संकलन 'कविता भविता' पर एक समीक्षा लिखी और फेसबुक' पर उसे पोस्ट कर दिया और संबंधित कवि को व एक मित्र को व्यक्तिगतरूप से भेजा भी पर किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। हाँ उस मित्र ने दो माह बाद ज्ञानेन्द्रपति पर एक लंबा लेख मेरे मेल पर भेजा। यह वही लेख है जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर है और मेरे सामने है। लेकिन इस लेख में ज्ञानेन्द्रपति का काव्यात्मक व्यक्तित्व और कविता की भावराशि पूरी खुल नहीं पाई है। पूरे लेख में आलोचक ही छाए हुए हैं। ज्ञानेन्द्रपति आलोचनात्मक लेख का बहाना मात्र बन कर रह गए हैं।
लेख का शीर्षक है " राजनीतिक परंपरा, समय-संवेदन और जीवन-विमर्श के कवि ज्ञानेंद्रपति "।
शीर्षक बहुत भारी भरकम है। इसमें ज्ञानेन्द्रपति को राजनीतिक परंपरा का कवि कहा गया है लेकिन लेख का प्रारंभ, उन्हें निराला और नागार्जुन की उदात्त परंपरा का कवि कह कर किया गया है। ऐसा विचलन क्यों?
जहाँ तक उदात्त शब्द के प्रयोग की बात है यह भावनाओं की विशदता और उसके प्रबल प्रभाव की ओर ईशारा करता है। ये ही चरित्र के उदात्त होने का संकेत देते हैं। अगर संदर्भित कवि की कविताएँ उक्त कवियों की परंपरा में आती हैं तो इनकी कविताओं में हृदय में उमड़ रही भावनाओं का मेला होना चाहिए जैसा उनमें है। केवल उल्लेख कर देने मात्र से कोई कवि किसी कवि की उदात्त परंपरा में नहीं आ जाता। कवि के काव्य-संकलनों से कुछेक उद्धरण दे कर इसे प्रतिपादित भी करना होता है। जो विषय लिया उसे प्रतिपादन से दूर रख कर एक अलग संदर्भ उठा देना विषयांतर है जो आलोचना के लिए एक दोष ही माना जाएगा। कविता की राजनीतिक परंपरा में इस उदात्तता का क्या स्थान है मुझे कहीं इसकी चर्चा नहीं मिली। वैसे राजनीति कोई भाव नहीं है। वह सत्ता -संचालन की एक प्रभावशाली क्रिया है या कहें हथियार है।
अगर आलोचक, कविता की राजनीतिक परंपरा का प्रारंभ निराला और नागार्जुन से मान रहे हैं तो उनकी यह धारणा भ्रांत है। निराला की 'वह तोड़ती पत्थर', 'अबे ओबे गुलाब', 'वह आता' और नागार्जुन की 'कई दिनों के बाद', 'रानी हम ढोंएँगें पालकी' आदि राजनीतिक लगने वाली कविताएँ राजनीतिक परंपरा की कविताएँ नहीं हैं। इनमें प्रगतिशीलता के तत्व हैं अवश्य पर काव्य-बस्तु के क्षेत्र को विस्तार देने के अर्थ में।
कविता की राजनीतिक परंपरा प्रगतिवादी कविताओं से शुरू होती है। प्रगतिशील शब्द से शील हटा कर प्रगतिवाद की रचना, कविता को एक 'वाद' के घेरे में समेट लेने की प्रक्रिया है। वह वाद है मार्क्सवाद। कविता को राजनीति की केवल एक धारा में सीमित कर देने से उसकी प्रगति कुंठित ही हुई, प्रगति नहीं कर सकी। जो प्रगति हुई उसमें मनुष्य का भावजगत मुर्झा गया और उसमें राजनीति का तनाव समा गया। कविता मनुष्य के केवल एक आयाम में बही, वह है राजनीतिक आयाम। यह हृदय से कोसों दूर होती चली गई और मनुष्य अपने हृदय की आर्द्रता खोता चला गया। परिणाम यह हुआ है कि आज चारो तरफ संवेदनहीनता का शोर मचा हुआ है। गौर से देखा जाए तो कविता का, प्रगति, प्रयोग और नयी कविता आदि अल्पस्थायी वाद से विभूषित काल केवल तनावों और मरुस्थलों की उमस से भरा है।
कविता की राजनीतिक परंपरा निस्संदेह प्रगतिवादी कविताओं से शुरू होती है। शुरू में तो इन कविताओं में काव्यवस्तु, शिल्प, काव्यभाषा और प्रतीकों में नयापन दिखा, फिर नएपन में अति नएपन के इस उत्साह में राजनीति परस्त कवियों ने अनुभूति की प्रामाणिकता जैसे मूल्य निर्धारित कर फतवे देना शुरू कर दिया था। पर आगे चल कर इसमें दुरूहता और अस्पष्टता बढ़ती गई और फिर कविता में राजनीति एक संवेदना भर होकर नहीं रह पाई, वह एक खास दल का नारा बनने लगी। सत्तर के दशक तक यह पूरी तरह से मार्क्सवाद की नारा बन कर रह गई। अब कविता के केंद्र में मनुष्य नहीं रहा। अब केंद्र में मनुष्य के सत्ता समीकरण की चतुराई रह गई। नक्सलवाद उस चतुराई का एक बेजोड़ उदाहरण है।
अब इस शीर्षक के अंतर्गत आलोचक के अंतरित विचार बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। पहला अंतरित बिन्दु है- ज्ञानेन्द्रपति राजनीतिक कविता परंपरा के कवि है।
अभी तक हिंदी कविता के इतिहास में हम कविता की वीर परंपरा, भक्ति परंपरा, प्रेमाख्यानक परंपरा, छायावादी परंपरा और प्रगति-प्रयोगवादी परंपरा के ही बारे में पढ़ते आए हैं। कविता की राजनीतिक परंपरा का नाम हम पहली बार सुन रहे हैं। अबतक राजनीतिक कविताओं को ही प्रगतिवाद में माना जाता रहा है। क्योंकि प्रगतिवाद का वास्तविक नाम मार्क्सवाद ही है। और जिन्हें भी राजनीतिक कविताएँ कहा जाता है वस्तुतः वे मार्क्सवाद से प्रभावित कविताएँ ही हैं।
लेकिन आलोचक यहाँ कविता की राजनीतिक परंपरा का उल्लेख अलग से करता है। क्या अर्थ हो सकता है आलोचक का, कविता की इस राजनीतिक परंपरा के उल्लेख से? मार्क्सवादी राजनीति के अलावे किसी और भी राजनीति की परंपरा है क्या- जैसे, कांग्रेसी, बसपा, दलित अथवा समाजवादी राजनीति की परंपरा। यहाँ आलोचक का अर्थ- कविता में राजनीति का एक संवेदना के रूप में होना है या कविता में राजनीतिक का एक हस्तक्षेप के रूप में होना है। आलोचक इस लेख में इस बात की कोई चर्चा नहीं करता। वह एक ही बात कहता है कि प्रगतिवादी कविताओं में राजनीति एक अवधारणा के रूप में है। अब यह अवधारणात्मक रूप क्या बला है। कविता की आत्मा का उसकी अवधारणा से भी कोई संबंध होता है क्या?
आलोचक का कहना है कि ज्ञानेंद्रपति अपनी कविताओं के मूल्यांकन के तीसरे दौर से गुजर रहे हैं। उनकी कविताओं के प्रथम मूल्यांकन का संबंध सत्तर के दशक में आरंभ हुए नक्सलबाड़ी आन्दोलन से था। याने आलोचक ये मानता है या उसकी प्रतिस्थापना है कि कविता की राजनीतिक परंपरा की शुरुआत इसी समय हुई। और यह राजनीतिक परंपरा वस्तुतः मार्क्सवादी राजनीतिक परंपरा ही हो सकती है। क्योंकि नक्सलवादी आन्दोलन भारत के इतिहास में घटी एक राजनीतिक घटना है। ज्ञानेन्द्रपति के कविता के क्षेत्र में प्रवेश का समय भी यही है। लेकिन नक्सलवाद उनकी कविताओं में किस प्रकार अनुस्यूत है आलोचक ने नहीं बताया है।
ज्ञानेन्द्रपति की सारी कविताएँ तो मेरे पास नहीं हैं पर उनकी कविताओं के कुछ चुने हुए अंश ललित कुमार के 'कविता कोश' में मुझे मिले हैं। उन्हें देखने पर उनमें किसी राजनीतिक परंपरा का दर्शन मुझे नहीं हुआ। उनके संशयात्मा संकलन में एक कविता मिली 'गर्भवती स्त्री' जिसमें कवि को ब्रह्मांड का एक कौतुक ही दिखता है, राजनीति की कोई परंपरा नहीं। एक कविता में उन्हें अपने काव्य-चरित्र के छोटे बड़े दाँत दीखते हैं और वह उसे वह काव्य-विषय बनाने में तल्लीन हो गए हैं।
शीर्षक में आलोचक द्वारा दूसरा अंतरित विचार बिन्दु है कवि का समय के संवेदन के प्रति जागरूक होना। किसी भी कवि के कविता-लेखन में यह बिन्दु बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कवि के अपने समकालीन जीवन जगत से जुड़े रहने का यह एक जीवंत तन्तु है। कवि की 'कविता भविता' की समीक्षा लिखते समय इसमें संकलित कविताओं में मुझे ईक्कीसवीं सदी के प्रारंभ के समय की संवेदना की झलक मिलती दिखी थी पर संकलन से विदा होते विदाई में उनके हिलते हाथ न मालूम क्यों मुझे कुछ बेचैन-सा कर गए। आलोचक ने इस बिन्दु पर भी उनकी कविताओं में समय-संवेदन को दिखाने के लिए मन को एकाग्र नहीं किया है। कुछ ऐसे दमदार उद्धरण वह नहीं दे सका ताकि बर्बश हमारा ध्यान उधर खिंच जाए।
और तीसरा विचार-बिन्दु जो शीर्षक में अंतरित है वह है कवि को जीवन-विमर्श का कवि बताना। जीवन-विमर्श, जीवन का एक बहुत बड़ा फलक है पर यह कविता का एकांत विषय नहीं है। मूलतः यह दर्शन का विषय है। सामान्यतः जीवन की सामान्य सरणियों के भी संवेद्य चित्रण में जीवन-विमर्श की बातें आ ही जाती हैं पर प्रमुखता वहां उसमें संवेदना भरने की होती है, तभी वह हृदय को सुग्राह्य हो पाती है। आलोचक ने अपनी आलोचना में इसपर भी सरसरी निगाह ही डाली है। उसे पैनी निगाह से से नहीं जाँचा परखा है।
आलोचना या समीक्षा चाहे छोटी हो या बड़ी जबतक उसमें आलोच्य या समीक्ष्य का व्यक्तित्व उभर कर न आए, वह पाठकों को लुभा नहीं पाती है। पाठक उसके प्रति सहृदय नहीं हो पाता है।
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
गोरखपुर।
29-07-2021

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