Saturday 23 November 2019

मेरे लेखे: “अकेले की नाव अकेले की ओर”

मेरे लेखे: “अकेले की नाव अकेले की ओर” - शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

रचनाकार में प्रकाशित                             २३-११-२०१९                

मेरे लेखे:
अकेले की नाव अकेले की ओर
कुछ तथ्य :
अकेले की नाव अकेले की ओर मेरी प्रथम प्रकाशित काव्य-रचना है. इसकी कवितायेँ वर्तमान में प्रचलित हिंदी की काव्य-परम्परा से एकदम हट कर हैं. ये एक संगुम्फन के रूप में हैं. मेरे प्रकाशक ने इस संगुम्फन को छापकर मुझे दे दिया. इन्हें पाठकों तक पहुँचाना मेरी जिम्मेदारी है. मैं पाठकों तक पहुँचने के लिए व्यग्र हूँ.
वर्तमान में प्रकाशन के उपरांत नयी पुस्तकों को पाठकों तक पहुंचाने हेतु दो बातें आवश्यक रूप से अपनाई जाती दिखती हैं– एक, पुस्तक का विमोचन और दूसरा, उसकी समीक्षा. विमोचन के लिए एक मंच चाहिए और समीक्षा के लिए एक कुशल समीक्षक. इन दोनों के लिए येन केन प्रकारेण स्थापित सरोकार चाहिए जो कुछ शर्तों के अधीन बनाना पड़ता है. आज के समय में साहित्यकारों और आमजन में कविताओं के पढ़ने के प्रति वह ललक नहीं है जो द्विवेदी युग या छायावाद युग में हुआ करती थी. कविता-लेखक भी अब उतने सरल नहीं हैं. स्वतंत्र समीक्षक भी बहुत कम दिखते हैं.

सन १९३६ के बाद के कवियों में पत्रकारों की संख्या अधिक थी. ये किसी न किसी पत्रिका के संपादक थे या उन पत्रिकाओं के लिए काम करते थे. ये कवितायेँ लिखते थे और एक दूसरे को प्रकाशित करते, और उनकी समीक्षा भी लिखते थे. इससे भी जब पाठकों तक इनकी पहुँच अच्छी नहीं बन पाई तो कुछ कवियों ने मिलकर सामूहिक रूप से एक संकलन निकालने की योजना बनाई. अज्ञेय ने इस सामूहिक संकलन के सम्पादन का भार संभाला. इन उत्सुक कवियों में से इन्होंने सात को चुना और उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं को लेकर ‘तारसप्तक’ नाम से एक संकलन निकाला, उसका सम्पादकीय भी लिखा. यह सम्पादकीय तत्कालीन नयी विचारधारा वाले अमरीकी कवियों का आधार लेकर लिखा गया था (मुद्राराक्षस). यह संपादकीय ( परचिंतन से प्रेरित होने के बावजूद) विचारोत्तेजक था. देखते देखते हिंदी के समालोचना-क्षेत्र में इसकी धूम मच गई और नयी कविता की गाड़ी चल निकली. आगे चल कर यह ‘तारसप्तक’ सप्तकों की परंपरा की पहली कड़ी बना. इस संकलन की कविताओं की अपेक्षा इसका सपद्कीय ही अधिक चर्चित हुआ.

मेरे पास ये सब सुविधाएँ नहीं थीं. अतः इस संगुम्फन को सहृदय पाठकों तक पहुँचाने का मैंने एक भिन्न रास्ता अपनाया. इसकी कुछ प्रतियाँ हिंदी के कुछ विद्वज्जनों और कविजनों को भेजीं, अभी भी भेज रहा हूँ. मुझे उम्मीद थी कि ये इसपर दो-एक पंक्ति लिखेंगे ही. लेकिन इन महोदयों ने इस पर कुछ पक्तियां लिखना तो दूर, नंदकिशोर नवल जी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के अध्यक्ष और प्रो महेंद्र भटनागर को छोड़, इसके प्राप्त होने की सूचना तक नहीं दी. अलबत्ता, दिल्ली विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर एस पी सुधेश ने ई-मेल पर लिखा- इसका विषय दर्शन है. यह विषय कविता के लिए अनुकूल नहीं है. हालाँकि, किसी दर्शन का अवलम्ब लेकर यह संगुम्फन मैंने तैयार नहीं किया है. गोरखपुर के प्रो. रामदेव शुक्ल जी को यह अवश्य अच्छा लगा. ओशो के शिष्यों को यह संगुम्फन बहुत पसंद आया. “यैस ओशो” के सम्पादक स्वामी संजय भारती ने लिखा- इसे एक बार पढ़ने से मन नहीं भरता. “ओशो धारा” के सम्पादक स्वामी चैतन्य कीर्ति ने अपनी प्रतिक्रिया ह्वाट्स-एप पर अंग्रेजी में यों दी-

It is a wreathe 0f flowered hindi poems from the heart of a sensitive poet to OSHO, the unparrellel  Being on earth of human perception. With his poems The poet is on journey in this wreathe towards the perception of OSHO to perceive the existence.

चूँकि ओशो को संबोधित कर यह काव्य लिखा गया है तो कोई भी कह सकता है कि उन्हें तो यह पसंद आएगा ही. लेकिन हिंदी काव्य-परंपरा पर जब मेरा ध्यान जाता है तो पाता हूँ कि बीसलदेव रासो, विनय-पत्रिका, भ्रमर-गीत और उद्धव शतक जैसे कुछ गीत-काव्य किसी न किसी नायक को ही संबोधित कर लिखे गए हैं. आलोचकों ने इनकी आलोचना में सम्बोध्य के नाम पर न जाकर इनकी काव्याभिव्यक्तियों के कव्यवैभव पर अपना ध्यान टिकाया है. मेरे संगुम्फन के गीत भी इसी काव्य-परंपरा में हैं. यह काव्य-वैभव की कसौटी पर कितना खरा उतरता है, वरिष्ठ साहित्यकारों से यह जानने की मैं अपेक्षा रखता था. पर मेरी यह आकांक्षा पूरी नहीं हो पाई. कनाडा से प्रकाशित ‘हिंदी चेतना’ पत्रिका के संपादक ने इसपर एक संगोष्ठी करने की मुझे सूचना दी थी. पर संगोष्ठी करने की कौन कहे उन्होंने मेरे ई-मेल पर यह पत्रिका भेजना ही बंद कर दिया. पता चला कि उनके संगोष्ठी के सदस्यों को ‘ओशो’ के नाम ने विचलित कर दिया था, ठीक वैसे ही जैसे ‘ओशो’ का नाम सुनकर नोबेल पुरस्कार बाँटने वाले विदक जाते थे.

भले ही हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार, जिन्हें इस संगुम्फन की प्रतियाँ मैंने भेजी हैं, इसपर मौन साधे बैठे हैं या इसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते हों पर हिंदी के साहित्यिक क्षेत्र में कुछ ऐसे युवा साहित्यकार भी हैं जिन्होंने इस संगुम्फन का स्वागत किया है. नेट पर ‘कविता कोश’ के संस्थापक मनोदैहिक संघर्षों में पले बढ़े श्री ललित कुमार को इस संगुम्फन की कविताएँ इतनी पसंद आईं कि उन्होंने इसे मुझसे माँग कर अपने ‘कविता कोश’ में सम्मिलित किया. नेट के ‘साहित्य शिल्पी’ के रचनाकारों को भी इसकी कविताएँ भाईं. 

मैं अनुभव करता हूँ कि समीक्षाएँ/आलोचनायें अब स्वतंत्र रूप से बहुत कम लिखी जा रही हैं. जो लिखी भी जा रहीं हैं इनमें कृति की समीक्षा के नाम पर समीक्षक अपनी ही बातें अधिक करते दिखाई देते है. कृति में जो नहीं है उसे भी वे उसमें ऊँडेल देते है. मुक्तिबोध पर लिखी समीक्षाओं में यह साफ़ दिखाई देता है. मुक्तिबोध कबीर से कैसे तुलनीय हो सकते हैं, समझ से बाहर है. जहाँ कबीर की कविताओं में मनुष्य-मात्र की चिंता है वहाँ मुक्तिबोध के लिए साम्यवादी-राजनीति और मनुष्य का एक वर्गविशेष ही चिंता का विषय है. इनकी “अँधेरे में” कविता की ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज की आकांक्षा उनकी ‘अस्मिता की खोज’ की आकांक्षा कैसे हो सकती है – ‘अभिव्यक्ति’ की समानार्थक ‘अस्मिता’?, अद्भुत. ‘अभिव्यक्ति’ किसी दृश्य अथवा भाव का मात्र प्रकटीकरण है जबकि ‘अस्मिता’, व्यक्ति की सत्यनिष्ठा अर्थात आइडेंटिटी है. अनिव्यक्ति की भाषा या तो तथ्य की हो सकती है या काव्य की. यहाँ शब्द-संयोजन के कौशल की समीक्षा हो सकती है कवि की अस्मिता की खोज की नहीं. सुधीश पचौरी कहते हैं साम्यवाद की चिंता में परम (absolute) शब्द का स्थान नहीं है. फिर परम अभिव्यक्ति की खोज का तात्पर्य ही क्या, वह भी तब जबकि कवि ने उसे आत्म्सम्भवा घोषित कर रखा है. इसपर कोई आलोचक बात ही नहीं करता, नामवर सिंह भी नहीं. फिर भी कृतिकार की कृति पर लेखनी चली तो. यह महत्वपूर्ण है. मैं भी अपने संगुम्फन पर प्रतिष्ठितों की टिप्पणियाँ चाहता था, इसकी स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता पर. हिंदी के वर्तमान काव्य और आलोचनाओं का परिदृश्य वामपंथी सम्वेदानाओं, जिसमें हृदय के ऊपर बुद्धि प्रतिष्ठित है, से अटा पड़ा है. इस परिदृश्य से अपने को अलगाते और व्यष्टि की स्वतंत्र भूमिका को महत्व देते हुए मैंने यह संगुम्फन तैयार किया है. तारसप्तक के नयी राहों के अन्वेषी कवियों को हिंदी साहित्य ने अपना लिया. मैंने भी एक सर्वथा अलग राह अपनाकर कविता-पथ पर कुछ कदम चल दिए हैं. अब इसकी स्वीकृति या अस्वीकृति सहृदय पाठकों के हाथ में है.

यद्यपि मेरा संगुम्फन, ‘बीसलदेव रासो’, ‘उद्धव शतक’, ‘भ्रमर-गीत’ और विनय-पत्रिका की गीत- परंपरा मे है पर इसका ढाँचा कमोवेश तुलसी की विनय-पत्रिका की परंपरा में संयोजित दिखता है. विनय-पत्रिका दो खण्डों में बंटा है- पूर्वार्ध और उत्तरार्द्ध. पूर्वार्द्ध में स्तुति, उद्वोधन और विनय के पद हैं. ‘स्तुति’ में शिव, हनुमान आदि से राम के प्रति निष्ठ बने रहने की स्तुति की गई है. ‘उद्वोधन’ में तुलसी अपने मन का उद्वोधन कर उसे राम के प्रति उन्मुख करते है. और विनय में अपनी दीनता का वर्णन कर उससे उद्धार करने की प्रार्थना करते है. ‘उत्तरार्द्ध’ (जिसे आत्मबोध भी कहा गया है) में राम के प्रति भक्ति की याचना करते हुए तुलसी ने हनुमान आदि (भारत, लक्ष्मण व शत्तुघ्न समेत) से सिफारिश की है कि वे अपना अपना समय देख उनकी पत्रिका राम की सेवा में प्रस्तुत कर उसपर उनसे सही कर देने का अनुरोध कर दें. तुलसी की सिफारिश के प्रति हनुमान और भरत की रूचि देख लक्ष्मण जी उस पत्रिका को राम के सामने प्रस्तुत कर देते है. और राम उसपर सही कर देते है अर्थात उनकी भक्ति स्वीकार कर लेते हैं. तुलसी ने यहाँ एक प्रकार से राजनीति की है.

मैंने अपने इस संगुम्फन में कोई राजनीति नहीं की है. इस संगुम्फन में मैं भी अपने संबोध्य तक पहुँचने की चेष्टा में हूँ, इसमें मैं उनकी अनुभूति का साक्षी बनने की आकांक्षा लिए अपनी यात्रा पुरश्चरण (शुभ संकल्प) से आरंभ करता हूँ. और अपने अकेले की डोंगी लिए उनके अनुभूति-तट से जुड़ने की तत्परता के साथ अपने अकेले के पलों में प्रकृति में तिरते ऊनके मौन-ध्वनित प्रतिसंवेदनों की प्रतीति करते अपने अक्रले की ओर अग्रसर होता हूँ (ध्यान केन्द्रित करता हूँ). पर अपने अकेले तक की मेरी यह यात्रा पूरी नहीं हो पाती है. और तब मैं अपने बीज-संवेदनों का ध्यान कर बीते पलों के अनुस्मरण (पुनरावलोकन) में लग जाता हूँ. तुलसी तो राम के प्रति समर्पित हैं. पर मैंने ओशो की प्रतीति के आलोक में अनुभव किया है कि मै भी उन्हीं की तरह एक माता की कोख में अभिव्यक्त होकर एक भिन्न शरीर धारण कर संसार में आया हूँ. और संसार में मेरे संसरण (गतिमान होने का  दायित्व मेरा अपना है.

मित्र !
यह सामान्य-सा अनुभव है कि
कोख के अँधेरे में ही
प्रच्छन्न होती है कोई प्रभा
और कोख की ही ऊष्मा से पोषित हो
किसी माता की गोद में
वह आँखें खोलती है
कोई वपु धारण कर.
वह वपु कभी तुम्हारा होता है कभी मेरा
इस वपु में ही
हमें पूरी करनी होती है
अपनी जीवन-यात्रा. (-पतिसंवेदन)

ओशो के प्रवचनों में अक्सर दुहराया गया है कि उन तक या कहें उनकी अनुभूति तक पहुँचने के लिए किसी तरह की सिफारिश की आवश्यकता नहीं है.

यह संगुम्फन:

खैर, मैं इस संगुम्फन की समीक्षा लिखने का इरादा नहीं रखता. पर यह अवश्य बताना चाहता हूँ कि आखिर क्योंकर इन कविताओं को मैंने लिखा और इन्हें “अकेले की नाव अकेले की ओर” शीर्षक से संगुम्फित किया. सच कहूं तो इन कविताओं में, नयी कविता-धारा में प्रतिष्ठित खंड-खंड मनुष्य को एक अखंड इकाई के रूप में प्रस्तुत करने का सदा से मेरा इरादा रहा है. ऐसा कर इन कविताओं में मनुष्य को गरिमा देने की मेरी कोशिश है. अखंड मनुष्य अर्थात जो जीवन के पर-अपर हर क्षेत्र में रूचि लेता हो, पर करुणावान हो कर. यह शीर्षक देकर मैंने इन्हें एक प्रेमपूर्ण अलक्ष्य धागे में विभिन्न इयत्ताओं को गूँथा है. जिससे समाज की रचना होती है. मेरे कविता-प्रसूनों से तैयार इस संगुम्फन में भावी समाज प्रतीकित है.

दरअसल मैं अपने चित्त में एक अखंड मनुष्य की अस्मिता की गूँज सदैव महसूस करता रहा हूँ. मैं विभाजित मनुष्यता के पक्ष में कभी नहीं रहा. काव्य में भी मुझे समग्र मनुष्यता ही अभीष्ट है. किन्तु सन साठ के दशक के कुछ पहले और कुछ बाद तक की कविताओं में मुझे इसका आभाव-सा दिखा. इस काल का साहित्य बामपंथी कवियों की रचनाओं से अटा पड़ा था. आरम्भ में इन कविताओं में कुछ आकर्षण का अनुभव हुआ पर बाद में इसमें एकरसता आती गई दिखी और फिर एक राजनीतिक नारा-सी बनती दिखने लगी. इसमें मनुष्य की चिंता गौण होती गई दिखती है. इस काल में नीत्से ने मनुष्य को आईइज्म या इगो (मेरा ‘मैं’ ही सब कुछ है) के खोल से बाहर नहीं आने दिया और सार्त्र ने अपने एक नाटक में प्रतिस्थापित किया- “Hell is the other”, दूसरा नरक के सामान है. और हिटलर ने इसे चरितार्थ भी कर दिखाया. आज की दुनिया की यही पीड़ा है, यह मनुष्यता से दूर होती जा रही है.

सार्त्र के जीवन-काल में ही ओशो ने उनकी उक्त प्रतिस्थापना को नकार दिया. उन्होंने कहा -“The other is not hell, the otherness is hell”, दूसरा नरक समान नहीं है, दूसरापन का भाव नरक समान है. उनका यह कथन अधिक तर्कसंगत और अस्तित्वगत है. सार्त्र तक यह बात अवश्य पहुंची होगी पर इसपर उनका कोई प्रतिवाद नहीं आया.

ओशो के इस सूत्रवाक्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया. परोक्ष रूप से इसमें मनुष्य की गरिमा अभिव्यक्त हो रही है. मैंने इसे ही अपनी कविता का विषय बनाया है. इसमें ओशो मेरे संबोध्य हैं. ओशो अपने को एक अग्नि-पुरुष व अग्नि-कवि कहते हैं, जो वस्तुत: वह हैं ही. वह भारतीय क्षितिज पर एक बवंडर की तरह उभरे और विश्व के समूचे बौद्धिक एवं भाविक परिदृश्य को आलोड़ित कर दुनिया में एक क्रांति ला दिए. इनके क्रांतिकारी विचारों के आगे अमरीकी महाशक्ति भी बौनी पड़ गई. इससे अमरीकी पादरी-वर्ग इतना डर गया कि वहाँ के राष्ट्रपति रीगन ने अपने पादरियों को तुष्ट करने के लिए ओशो पर अनाप-शनाप आरोप लगाकर उन्हें कैद करा लिया और जेल में डलवा दिया. अमरीकी जेलों में उन्हें थेलियम नामक धीमा जहर भी दिया गया ताकि वह शनै: शनै: मृत्यु को प्राप्त हों जाएं. फिर अमरीकी कानून के अनुसार कोर्ट के बाहर समझौता करवाया गया और उन्हें अमरीका छोड़ देने का आदेश दे दिया गया. ओशो ने अपने संन्यासियों के हितार्थ तीन झूठ बोल कर उस समझौते को स्वीकार किया और उरुग्वे में ठहरने के लिए चल पड़े. लेकिन अभी वह उरुग्वे हवाई अड्डा पर पहुंचे ही थे कि अमरीकी आदेश पाकर उरुग्वे सरकार ने उन्हें हवाई जहाज से उतरने नहीं दिया. इस तरह बाईस देशों तक अमरीका ने उनका पीछा किया और वहाँ उन्हें रुकने नहीं दिया. अंतत: ओशो ने अपने देश भारत की ओर रुख किया. उस समय की भारत की राजीव गाँधी सरकार ने अपने ही प्रतिष्ठित नागरिक को, अमरीका की तीन शर्तें स्वीकार करने के बाद ही अपने देश में प्रवेश करने दिया (जबकि छोटे-छोटे देश भी ऐसा नहीं करते, ऐसा देखने में आता है), शर्तें थीं- किसी पत्रकार को उनसे न मिलने दिया जाए, उन्हें कोई प्रेस-कान्स्फ्रेंस न करने दिया जाए आदि.

भारत आकर अपने रजनीश धाम में उन्होंने हमें एक अनमोल रचना दी- ‘रजनीश उपनिषद’, जो हमें उपनिषद के ऋषियों की याद दिलाती है. ऐसे महापुरुष के लिए, जिसके कलेवर में गौतम बुद्ध ने पुनर्जन्म लिया (कुछ दिनों तक उन्होंने अपना नाम मैत्रेय रखा भी पर बौद्धों के विरोध करने पर उसे छोड़ दिया), गीत लिखना मैंने अपना सौभाग्य समझा. उद्देश्य रहा उनकी अनुभूति का साक्षी बनना जिससे हमारा मनुष्य अपने जीवन यापन में संग्लग्न होता हुआ भी सामान्य व सरल बना रहे.

ओशो के सिखावन के केंद्र में मनुष्य है, सम्पूर्ण मनुष्य- पुरुष और स्त्री समेत. पुरुष को उन्होंने ‘स्वामी’ संबोधन दिया, ‘स्वामी’ अर्थात् स्वयं का मालिक, स्वयं में सम्राट और स्त्री को ‘मा’ संबोधन दिया, ‘मा’ अर्थात् सृष्टि की कारक, स्वयं में सम्राज्ञी. आजतक हर स्तर पर स्त्री उपेक्षणीय रही है. इतिहास में पहली बार स्त्री को ओशो ने इतनी गरिमा दी है. (कहानीकार राजेंद्र यादव स्त्री विमर्ष के नाम पर स्त्री को सम्मान देने की बात करते हैं पर वह इसके प्रति कितने ईमानदार रहे हैं इसका भंडाफोड़ उनकी कहानीकार पत्नी ने ही कर दिया है.). स्त्री और पुरुष पारस्परिक सहयोग के साथ जब द्वंद्व-मुक्त होते हैं तभी एक नए स्वस्थ मनुष्य का जन्म होता है, ठीक एक अंकुर की तरह. उस अंकुर के पौधे में विकसित हो जाने पर उसकी अगली यात्रा में फिर उसके सामने द्वंद्व उपस्थित हो जाता है अगले अंकुर को जन्म देने के लिए. इस यात्रा में साम्य को कोई ठौर-टिकाना मिलता नहीं दिखता. दुनिया तो पल पल परिवर्तनीय है. विकासवादी वैज्ञानिक डार्विन ने अपने अनुसन्धान के हर क्षण में इस परिवर्तन को महसूस किया है.

ओशो ने एक नए मनुष्य के जन्म की ओर इशारा किया है. हमें ही इस नए मनुष्य को जन्म देना है. मेरा यह संगुम्फन एक नए मनुष्य को जन्म देने की कोशिश भी है. ओशो का नया मनुष्य कैसा होगा यह उनके “New Evolution of Man” में देखा जा सकता है. वह नए मनुष्य को ‘जोरबा द बुद्ध’ कहते हैं. यह मनुष्य आइन्स्टीन (पदार्थवाद) और बुद्ध (आत्मवाद) के एकीभूत होने से विकसित होगा.

मैंने इन कविताओं में ‘मैं’ शैली अपनाई है. यह ‘मैं’ मेरा परसोना नही मेरा अपना अस्तित्व है, इसमें दूसरे का जिया अभिनीत नहीं है, आनुभूति के स्तर पर मेरा जिया हुआ ही पुरा है.

इन कविताओं को मैने फुटकल ही लिखा था बिना शीर्षक दिए. इसी दौरान ओशो की “नए भारत
की खोज” पुस्तक मुझे पढ़ने को मिली. उसमें मुझे एक वाक्य मिला- “मनुष्य की यात्रा अकेले से अकेले तक की है”. इसपर मैंने ओशो की भाषा में सोचा. सचमुच में मनुष्य दुनिया में अकेले ही आता है. जीवन के झंझावातों से अकेले ही रूबरू होता है, अकेले ही उससे निकलने की राह निकालता है और अकेले ही एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाता है. जीवन भर के झमेलों से निपटने में आत्मनिर्भरता या परनिर्भरता के रास्ते में से एक का चुनाव भी उसे खुद करना पड़ता है.

इस वाक्य का सन्दर्भ लेकर, मैंने मुड़ कर अपने बीते पलों की तरफ देखा तो महसूस किया कि इन कविताओं के प्रस्फुटित होने तक मेरी जीवन-यात्रा अकेले की ही रही है और अपने अकेले के पलों को ही अबतक जीता रहा हूँ. सोचा, कि क्यों न ओशो की नयी ऊष्मा से परिचालित हो जीवन की एक नयी यात्रा शुरू करूँ. निश्चय ही यह उनके ‘नए मनुष्य’ के जन्म की दिशा में उठा एक कदम- क्रन्तिकारी कदम होगा. अत: इन कविताओं में मैं अपनी अनुभूति के आकाश में अपने अस्तित्व की एक डोंगी लेकर अकेले की ओर की यात्रा पर निकल पड़ा हूँ. ओशो मेरे अकेले की यात्रा के गंतव्य-से हैं, मुझे लगता है ओशो मेरे अंतस्तल से उछली, सागर हो गए, एक बूँद हैं. मेरे अकेले तक की यात्रा कब पूरी होगी मैं नहीं जनता पर मैं अपने अकेले की ओर चल पड़ा हूँ, यह मेरे ध्यान में है.

इन फुटकल कविताओं को, जब मैंने एक संकलन तैयार करने के लिए सँजोना शुरू किया तो
मुझे लगा कि इन्हें कुछ खण्डों में बाँटा जा सकता है जिससे मेरा मंतव्य सहृदयों तक अच्छी तरह
पहुँच सकेगा. और जैसा मैं सोच कर चला हूँ वह भी चरितार्थ होता चलेगा
.
इन कविताओं में मैं समय पर सवार हूँ. अपनी नौका के पाल मैंने खोल लिए हैं और अकेले के पलों में डूबते उतराते अपने अकेले की ओर के अभिगमन में ओशो की अनुभूति की दिशा में चल पड़ा हूँ. अत: इन्हें मैंने तीन खण्डों में बाँटा है – १. अकेले की नाव, २. अकेले के पल और ३. अकेले की ओर. कुछ कविताएँ ऐसी थीं, जिनमें मुझे लगा कि इनमें मेरी मूल चिंता को अभिव्यक्ति मिल रही है जो इन तीन खण्डों में प्रसरित हैं. इन्हें मैंने 'बीज-संवेदन’ शीर्षक के अंतर्गत स्थान दिया है. मुझे यह भी लगा की ये फूलों जैसी प्रस्फुटित हैं और ये उन फूलों की तरह संकलित करने योग्य नहीं हैं जो वृन्तों से अलग हो कर अलग थलग पड़ जाते हैं. इनको सँजोने के लिए मैंने करुणापूरित एक अदृश्य धागा तैयार किया और इन्हें फुनगियों से तोड़े विना उस धागे में गूँथ लिया है. फिर इसे एक माला का रूप देने के लिए आरम्भ में ‘पुरश्चरण’, ‘प्रतिसंवेदन’ और अंत में ‘अनुस्मरण’ अध्याय जोड़ दिया है. यह ‘पुरश्चरण’ वह शुभ मुहूर्त है जिसमें ये कवितायें मेरे भीतर प्रतिसंवेदित हुईं. ‘अनुस्मरण’ में मै कुछ क्षण के लिए ठहरा हूँ और अपने बीते पलों के पुनरावलोकन में ध्यानस्थ हो गया हूँ.
इस तरह इस संगुम्फन के सात खण्ड हैं= १. पुरश्चरण २. प्रतिसंवेदन ३. अकेले की नाव ४. अकेले के पल ५. अकेले की ओर ६. बीज-संवेदन और ७. अनुस्मरण. ये एक दूसरे में करुणा के एक अदृश्य धागे में गुंथे हुए हैं.

                                                                                ( अगली कड़ी, संगुम्फन की समीक्षा ) 
कड़ी (लिंक) निम्न है -

Thursday 11 April 2019

कविता संग्रह - पृश्निका

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव,   10-03-2019,   रचनाकार  में प्रकाशित

                         पृश्निका
(सन् 1963 ई से सन् 1967 ई के बीच लिखित)
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​​रचयिता
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
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​पार्वतीपुरम, गोरखपुर
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प्रातःच्छटा
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पूर्व दिशा अरुणिम
प्रणव प्रमन स्वर्णिम
त्विषि-उर्मि त्वरित अप्रतिम ।1।
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रक्त-श्वेत शतदल
खुला प्रणव-स्वर कल
फूटा प्रकाश उज्जवल ।2।
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फूटी किरणें स्वर्णिल
फूटा विहान पर्णिल
गा उठे विहग हिल मिल ।3।
ज्योतित दिङ्मंडल
प्रकृति अपर प्रतिपल
जगा सृष्टि-चिद-्पल।4।
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ग्राम युवति भर वय
मंथर गति अतिशय
चल पड़ी मटकि कटि पै।5।
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मानव मन हँस पड़ा
जीवन प्रकाश लख पड़ा
चल पड़े खेत फावड़ा ।6।
हरियाली मखमली
फैली खेतों में पली
पा स्वर्ण रश्मियाँ खिलीं ।7।
उछल पड़ा प्रति उर
अंतः प्रसन्न अंकुर
श्री लोट पोट आतुर ।7।
-अगस्त सन् 1963 ई
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2. शिशु का हास
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शिशु का हास सरल सुंदर है
ज्वलित किए हृद्-दिङ्मंडल है
माँ के शुचि ऑंचल में लिपटा
धूलि भरा अँगूठा मुख में है ।1।
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गौर वर्ण ऑंखें रूपहली
ज्योति छिटकती ज्यों दोपहरी
प्रतनु-स्मिति अधरस्थ मुखर ज्यों
तड़ित तन्वि शुचि प्रखर तरल है।2।
विखरे मृदु स्फुरण अधर पर
हृद-्निःसृत, माँ झुकी पलक त्वर
चूम रही, मुख खुला, दाँत दो
उगे सरोवर में उत्पल हैं ।3।
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उभरे गाल पल्लवी लाली
गहरी सृक्वणि चरण मराली
धनुषाकृति इंगुरी अधर
हाथों में चरण सहज उर पर हैं।4।
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शैशव के शुचि प्रथम चरण में
पुलकित लुकछिप स्वीय त्वरण में
हृदय उमड़ता , सृष्टि विहँसती
दृष्टि मुष्टि प्रति अंग सुघर है।5।
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सहज सरल स्वर्-प्रेम पवित उर
स्निग्ध-तरल शत भाव समंकुर
अवसित निज असीम में करता
दिव्य़ ज्योति-ज्योतित प्रति उर है।6।
तिथि 11-8-1963
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3. स्वर्ण तरी
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ढला दिवस, फूटी
सवित-रश्मि सिमटी
छायाभ प्रकृति प्रकटी।1।
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आवरण पडमद्धिम
हो रहा घना रक्तिम
रक्तोज्ज्वल द्युति अप्रतिम।2।
उर-मध्य अर्धखंडित
सविता प्रकाश मर्दित
ढल रही विश्व-संस्कृति।3।
शून्य दिङ्मंडल
विरव प्रकृति अंचल
शीतल समीर प्रतिपल।4।
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लघु मेघखंड कीर्णित
श्री स्वर्णपीत वर्तिल
सिंदूर रंग मिश्रित।5।
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निस्पंद प्रकृति स्वर्णिल
सौंदर्य-सृष्टि पर्णिल
रक्ताभ गगन विंवित
चल में सुमंद घूर्णित
मृदु उर अमंद , उर्मित।7।
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स्वर्ण-रश्मि नर्तित
आत्मिष्ठ पुलक स्मित
द्रुम-शीर्ष-पत्र पर टिक।8।
कृष्ण रेख उत्कीर्ण
एकात्म क्षितिज, संकीर्ण
स्विता धन्वाकृति जीर्ण।9।
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दृष्टि-सत्य भैतिक
आघ्यात्म-चिंत्य-चर्वित
उर में प्रशांत वर्तित।10।
31.8.1963
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5. प्रातःच्छटा
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क्षिति नभ मिलन-रेख-उर-तल
स्वर्णोज्ज्वल पीताभ अमल
उग रहा अपल श्री-दिङ्मंडल।1।
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​​आवर्त ज्योति के स्वर्ण-विरल
उर्मिल सिहर प्रवह प्रतिपल
कंकड़-घूर्णित लहरें पल पल।2।
शांत प्रवण सौरमंडल
प्रकृति सृप्र मृदु तरल सरल
कृषक-हृदय उत्फुल्ल विमल।3।
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धरणि शस्य ऑंचल स्वर्णिल
हरी फसल फैली पर्णिल
झूम रही आशा स्वप्निल।4।
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कमल फूटता शनैः ,सरिल
शुभ्र झूमता स्पृष्ट-अनिल
उभर रहीं लहरें सर्पिल।5।
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क्षितिज-पटल रक्ताभ विरत
शनैः शनैः औज्ज्वल्य निरत
तेलोज्ज्वल द्युति कीर्ण अनत।6।
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धवल अंड-पिंड निर्मल
कीर्ण रश्मि-सरणि उज्ज्वल-
पीत-स्वर्ण मृदु प्रतन विरल।7।
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6. पृश्निका
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हरी भरी
द्युति भरी भरी
पृश्निका भरी पल्वल-उर पर.
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आभा निर्मल
दिक् शांत
प्रकृति निभ्ररंत
मृदुल शशि-रश्मि कीर्ण
धरणी तल पर.
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निर्झर चंचल
अंतर में झर
स्वर्-शांति विरल.
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कहीं कहीं
शुचि पृश्नि नहीं
यों खुला सरिल, जिसमें विंवित
शशि-कर तर्पी.
​​
सिहर सिहर
उठती रह रह
शफरी चुंबित
सीमित उर्मिति.
जल में शशि
सोया बिंबित
कँपता सिहरित ज्यों शिशु निद्रिुत
सृत्वरि अविदित.
​​
काली सोरें
फैलीं जल में
नीचे ज्यों समाधिस्थ ऋषि की
बिखरी अलकें
(जो लटक रहा हो द्रुम-दल से).
​​
फूले फूले
उभरे पूरे
छोरों पर पतले फल उसके
ज्यों बजा रही
वाणी वीणा तन्मय स्मित.
​​
फूल फुले
बैंगनी धवल
आभा-वरिष्ठ शुचि-दृष्टि-विरल
चाँदनी पलल
ज्यों विजय स्तंभ
है प्रकृति-मृष्टि की धरणी की.
                         16.9.1963

7. जीवनमयी
​​
तुम स्वप्न में आती रहो
छवि तन्वि दर्शाती रहो
अति प्रतनु पथ से सूक्ष्मता में
विलय हो उर में झरो.
जब स्वप्न की स्वर्-सृष्टि में
ज्वल धुँधलिका की वृष्टि में
अति सूक्ष्म विद्युत- रेख सी
आभास की शुचि-मृष्टि में
मैं देखता उठकर धरा से
हृदय में उठता पुलक से
शांति-सर में तैरती तट पर
अछूती सी लगो.
​​
अयि बालिके उर-वर्णि-पर्व
सरला सतत रत-कर्म-नव
यह सृष्टि अंतर्भूत तुझमें
सृष्टि की चिद्-मृष्टि-संभव
सत्यमयि शुचि शिवम सुंदर
अधर पर स्फुरण नीरव
शुष्कता में शून्य से
जीवनमयी अमृत झरो.
                                 20.9.63
​​8. करमी

(एक तरह की लत्तर जो तालाबों के
उपरी किनारों पर उगती हैं)
​​
बँवर सी फैली हृदय पर पोखरी के
श्यामता-सौंदर्य-श्री में दमकती
हरित आभा से समन्वित मृण्मयी
तोरणों सी राजती करमी सुभग।1।
दृष्टि तक आती नवल सौंदर्य लेकर
शांतिमयि शुचि ज्योत्सना स्निग्ध नीरव
आत्मद्युति में मृष्टि की ऋत-निर्झरी
है बहा देती, शिखर से श्रमित भू पर
मृत्तिका के अंक में लेटी हुई।2।
पर्विणी उभरी अनेकों दिव्य तन पर
स्यात् है चिर प्रत्न अनुभव ग्रंथि प्रभ
त्याग तप संघर्ष की अंकित पड़ी
जल रही जिसमें बनी अतिसूक्ष्म श्रवि में
शौर्य की पुरुषार्थ की आहुति अमर।3।
​​
लहरते पत्ते प्रकृति की गोद में पल
विनत लहराता शमित ज्वल पुंत्स्व-ध्वज
अंग मृदु करता समीरण-स्पर्श, होता
मृष्ट होकर पूर्ण आलिंगन प्रमन।4।
लालिमा की रेख तन पर है खिंची
बह रहा हो रक्त उर्जस्वित तरल
संकटों में फ्फोड़ तन जो निकल पड़ता
चमक पड़ती ऑंख में अति भी प्रखर।5।
​​
ध्वनित ध्वनि होती पवित नीरव प्रवर
अमियमयि जो हृदय में झरती सुधा
लीन हो जाता मनुज आत्मिष्ठ तन्मय
खो प्रकृति में चरम-श्री-सौंदर्य पीकर।6।
शरत शशिबाला प्रमित निश्चिंत लेटी
स्रिल में अति शांत धन्वाकृति अधर पर
अरुणिमा में विरल मुखरित मौन स्मिति
स्यमत स्वर् अनुभूति होती स्वप्न में
प्रिय- मिलन की।7।
​​
पर्विणी हरिताभ करमी की सुघरतर
लग रही ऐसी सुघर सुंदर श्री-तत्पर
चक्षु पर हो प्रकृति ने काढ़ी हृदय रख
बिंदियाँ लघुतम चरम श्रृंगार-परिणति।8।
कीर्ण है आभा चतुर्दिक रश्मि छिटकी
वर्णिका जिसपर चढ़ी उर्मिल मधुर है
ज्योति के आवर्त मंदम मंद उठकर
गगन के अदृश्य तट को छू रहे हैं।9।

9. पल्लव

झर गए श्रीहीन निष्प्रभ शुष्क पत्ते
डालियाँ सूनी हुईं तरु की तपित
उग रहे पल्लव नवल नव कांति उर्मिल
मृदुल मृदुता का सरल तारल्य लेकर।1।
विरल हल्की श्यामता सौंदर्य-श्री में
उठ रहे आवर्त हल्की लालिमा के
मृदु समीरण-स्पृष्ट जो हिलता सहज
प्रतनु नन्हीं रेख है उभरी अमित।2।
​​
ज्यों पड़ी सिकुड़न स्निग्ध मुदु कल्पना में
शशि किरण के सरल शैशव हास में
रक्त-रश्मि स्पनित, नीरव तरल में
हो रहा बिम्बित प्रकृति की गोद में।3।
​​
प्रतनु तन्वंगी तड़ित ज्यों दमकती
पत्रिणी अंकुरति कोमल टहनियों में
पर्व के संकीर्ण अर्भक सूक्ष्म श्रवि में
प्लात्य-उत्पल-शीर्ष ज्यों र्कम पलक्षित
​​
याकि दुर्वृत में उदित अर्कत्वमय रवि।4।
​​
10. बहन से

दे विजय का तिलक मेरे भाल पर
वेदिका का रक्त-प्लुत चंदन वदन
शारदा की शक्ति जिसमें प्रलयकारी
तण्डवी खर तेज उर में भर चले।1।
​​
रुद्र की मुद्रा प्रचंड प्रविष्ट हो
क्षणिक क्षणिका की कड़कमयता न हो
बदलों का प्रलय-गर्जन हो भरा
थहर उठता पूर्ण दिङ्मंडल परम।2।
​​
विंध्य की चंडी शिलाएँ पिघल जाती
मरण का हुंकार जब विक्रमी भरता
री बहन नारीत्व का ज्वल तेज लेकर
शारदा की भृकुटि की क्रता लेकर
मरण की फुंकार भर दो इस तिलक में
रण रणित, आपूर्ति लिसकी सत्यनिष्ठा।3।
अग्नि-लपटें हृदय में उठती ज्वलित ज्वल
यह चुनौती है हमारे पुंस्त्व की
शील की संस्कृति सुसंस्कृति दिव्य की
चेतना की शांति की स्थैर्य की।4।
​​
यह चुनौती देश की स्वाधीनता की
ऐक्य की तपती पवित्र अखंडता की
देश की जगती शिखा की प्रगति की
विश्व में बढ़ती सुरम्य सुकीर्ति की।5।
​​
तरुण तरुणी का ज्वलित कर्तव्य पावन
आज है हम मातृभू के प्रहरियों का
त्याग तप पौरुष-प्रचंडाविष्ट होकर
समर में कूदे प्रलय की शक्ति लेकर
मृत्यु-आमंत्रण सहज स्वीकार कर लें।6।
                                          9.10.63

11. स्वर्ण-केशी
​​
स्वर्ण-केशी
स्वर्ण-वेशी
वर्णि-आकृति, वर्णि-श्लेषी !
तिर रही तुम कल्पना के
नव्य दृग्वृत पल्लवी में
आ रही त्विषि पर्द से छन
रसवती द्योभूमि निःस्वन,
बालरवि की स्निग्ध स्नेहिल
ज्यों किरण नव कमल त्वेषी।।
​​
अरुण पुष्पपुटी -अधर पर
पुष्प नव द्रू-क्षितिज रवि स्वर्
सृक्वणी द्वय पूर्ण गहरी
तरल छवि की पुष्ट प्रहरी,
प्रकृति-श्री की पूर्णते तुम
ज्योत्सना की सृप्रि-शेषी।।
                        22.11. 63

* 12. सूर्योदय
​​
यामिनी निःशेष.
प्रकृति हल्की-
सृप्र शुचि
द्रुति-दृष्टि मृदु
स्वीयता में मुग्ध
भोली बालिका सी.
​​
पूर्व में
निर्मल क्षितिज में
पुण्य द्युति के
उठ रहे आवर्त मृदु
मृदु मंद गति से
स्वर्ण-रेख पुरे.
​​
पवन मंद
स्पर्श-कोमल
स्वप्न-मृदु
श्री की नमी.
​​
झुरमुटों की ओट में
निकला अतल से
स्वर्ण-स्मिति उर्मिल
अधर पर
ज्योति का नव पिंड
नीरव घोष करता
पूर्व दिक से.
​​
और फूटी रश्मि
तन्वी
श्लिष्ट
स्वर्णिल,
सृष्टि में नव
चेतना का
शंख फ्फूँका.
23.12.63
13. सूर्यास्त
डूब रहा
अरुणाभ क्षितिज में
मंद मंद
रवि क्लांत शांत
आरक्त समल.
​​
रश्मि टिकी
तरु पर
निःशेष हो रही
प्रकृति ग्लानि में तप्त
साँवली मलिन हो रही.
​​
सृष्टि-स्मिति
प्रत्यूष-मुखर
स्वप्नोन्मीलित
सर-उर्मि-तरित
त्विषि सहित
सांध्य में लीन हो रही,
डूब रहा है
स्वर्ण कलश
निस्तल जलधि में.
                       23.12.63
​​
* 14. मिट्टी के पुतले
​​
मिट्टी के पुतले
गाँवों के
भारत के.
​​
जाड़े की इस नर्म सुबह में
लोर्ह रहे हैं घाम
खड़े, बैठे
उँचे टीलों पर
कँपते केंकुरते
घरों की ढही भग्न दीवारों से
तन को मलते.
​​
कतिपय बाँधे
गाँती
कतिपय
बिस्टी ओढ़े
घेंकुरी मार बैठे
निश्चल
टकटकी बँधी
अपलक पूरब.
​​
कतिपय
घूरों पर ताप रहे
आगी-जीवन-
वे घुसुक घुसुक कर
पल प्रतिपल.
​​
रह रह
क्षण क्षण में
चल पड़ती है
सर्द हवा
किटकिटा दाँत वे
ढह पड़ते हैं
एक दूसरे के तन पर.
​​
एक झुंड
उस भिंडे पर
बैठा छोटा
टूटे स्वर में
गाता अविरत
‘‘चलनी में आटा
बादर फाटा
चले गोसइयाँ
घामे घाम’’.
​​
15. वाणी से
​​
वाणी मेरी अयि
मौन मुखर!
मिट्टी की श्री से संवेदित
मिट्टी की प्रतिभे! सहज सरल!
सरले! जीवन की स्वर्णलते!
जन जीवन की स्नेह तरल!
सारद तेरी आदर्श पवित
जन-उर करुणा से पूर्ण द्रवित
सरिता की गति-से प्रवहमान
तुम अनलंकृत बन मृष्टि-पलल!
हृद की द्रुति ऋत-भावना सरल
स्व समुच्छ्वसित स्तिया तरल
शब्दों में हो मुखरित उर्मिल
सौम्यता प्रभारी आत्म-विरल!
​​                             26.12.63
​​
16. वाणी
​​
हे वाणी!
हे स्वर्वाणी!
अपरे त्राणी!
पुस्तक धारिणि!
वीणा-पाणी!
हे वाणी!
तुम सृष्टि विरल!
स्वर्णात्म सरल!
पीयूष - दृष्टि!
दिव्याभ तरल!
ज्ीवन में
जीवन में गति दो चेतनते!
स्वर की द्रुति की हे अनुप्राणी!
तुम शांत अमर
तप त्याग प्रवर
उर्जस्वित द्युति
तन अविनश्वर
प्रभ द्युति दो
प्रभ द्युति दो नूतन शक्ति ज्ञान
यह माँग रहा मृण्मय प्राणी।
यह सृष्टि स्वरिल
उर में उर्मिल
तुम चिद्वर्षिणि
शिशु रवि में खिल
मैं तुममें
मैं तुममें मिल एकात्म बनूँ
तू मुझमें मिल हे कल्याणी!
                        28.12.63

17. गीत
​​
बाज रही अंतर्वीणा।
फूट रही त्विषि स्वर्ण विरल
पूरब में सौम्य प्रतनु क्षीणा।।
​​
मृदुल मंद मृदु अमिय वर्षिणी
श्लक्ष्ण-स्पर्शमयि हृदय-कर्षिणी
बरस रही मन उर प्रदेश में
अमर शांति चेतन-चरणा।।
पत्तों की मर्मर में घुलमिल
शबदरहित दिक् में स्वनि उर्मिल
पसर रही संपूर्ण भुवन में
सरस सार जीवन भरणा।।
प्रभु शास्वतता को प्रदान कर
ताल छंद लय सिक्त गान कर
प्राप्त करुँ इस सतत सौख्य को
करुँ सृष्टि को अनुप्राणा।।
30.12.63
18. ममते
​​
ओ स्वर्णिल ममते!
अंतर से चिपटी
आत्मा में सिमटी
री उर्मिल पर्णिलते।।
लघु लघु उठती
लहरें पटतीं
हृद्-दिङ्मंडल में क्या अँटतीं ?
​​
हो सृष्टि-विरल
व्यापक होतीं
स्वर्ण-विरल उर्मियाँ सरल
नव-वय रवि की,
री स्वप्नशयित क्षमते
नर की।।
​​
द्रुति भावुकते!
मृदु उतर स्वप्न शिखरों में
सागर की फ्फेनिल लहरों से
जीवन भर दे
सूने उर में ।।
                                9.1.64
​​
19. दृष्टि
​​
तुम देवि नहीं मानवी -सृष्टि!
अंचल की श्री द्यू-सरित-मृष्टि!
अनुभूति शक्ति की दिव्य परम
जीवन-प्रदीप्ति की ओप चरम
टूटे स्वर की कोमल निर्मिति
उच्छ्वास हृदय की काव्य-दृष्टि!
तू अस्पष्ट स्वीय आत्मा में पल
तन्वी क्षणिके! चेतना -तरल
सूने उर की रसमयी शांति
कल्पना जगत की स्वप्न-सृष्टि!
तू अश्रु-त्वरण की मधुर तृप्ति
स्वर्णिम प्रभात की अमृत दीप्ति
मिट्टी की धूल भरी प्रतिमे!
ग्तिमय प्रवाह की सगति धृष्टि!
                                 सन् 1964
​​
20. रुपसि
​​
रुपसि! विश्वप्रेम श्रेयसि!
मधुर मधुर उतरो किरणों से
अंतर में प्रेयसि!
सृष्टि-प्राण मुदु शरद हासिनी
ज्योति प्रवण ज्योत्सना-स्पर्शिनी
मुक्त स्निग्ध शुचि स्नेह विपर्सिनि
स्वप्नों की अप्सरि!
उर की मौन-ध्वनित चिद् सरणी
स्वर्ण रश्मि की मंथर तरणी
आत्मज्योति से दृप्त प्रज्ज्वलित
ज्योर्मयि स्वर्रसि!
सरि की मृदु संश्लिष्ट उर्मि त्वर
छू लेती अज्ञात अदृश्य स्वर
सरल शील अंतर्मन की द्युति
दुग्ध-विरल क्रोड़सि!
                          6.2.64
21. तुम

सुखद सुधि उर की त्वरण !
दृष्टि की चिंतन चरण!
कल्पना की स्वर्णि! अंतश्चेतने!
अमृत- वरण!
अधर पर मृदु स्मिति-कण
प्रतनु ॠजु तव मौन क्षण
सींचते अविदित सरणि से
ज्योत्सना ज्यों मृदु-तरण ।
रवि-किरण उर-दल-त्वरण
सृष्टि-पल में विरल क्षण-
स्मृति के शुभ देश; जीवन ज्योति
की तुम उपकरण ।
​​
22. याचना
​​
सृत्वरि! अमर-वरण-जीवन!
खोल मनस-पट भर अंतर्घट
प्रणव नाद निःस्वन ।
स्वप्नजड़ित मन शुष्क-विरस-स्वन
क्रांत-हृदय-जल चिंत्य-चरण प्रन
मंद्र मृदुल निज तरल-प्रखर-ध्वनि
छेड़ अमृतमयि वेणु प्रमन ।
छिड़े क्रांति नव मिटे भ्रांति भव
प्रलय-पुलिन-पर प्राण-श्वास-क्रम
नहीं इष्ट, हम मृत्यु-क्रोड़ में बैठ
सृष्टि में भरे त्वरण ।
​​
23. आवर्त

द्युति घिर घिर आती,
स्वप्न-सरल स्वर्णिम निर्झर सी
झर उर में जाती ।
उठती शत शत प्रतनु घूर्णि
दृग का अनंत तट छू अपूर्णि
पलकों में मृदु मृदु सहज अस्त
मन को तियक तरती ।
​​
मन-प्रांगण में ज्वलित स्वर्ण सी
शिशु रवि की चिदमयी किरण सी
उतर स्वर्ग से ज्योति चरण
उर-भावभूमि पटती ।
ग्रीष्म-विरल कृश सरित पुलिन पर
मंद मृदुल उर लोल लहर पर
थिरक थिरक अति सूक्ष्म सरणि से
कण प्रति कण रिसती ।
                          14..5. 1964
​​ 
24. प्रकृति-श्री

हरी हरी
पर्णवी प्रकृति
निर्मल कोमल, नव वयी प्रमित,
स्निग्ध स्नेहमयि ज्योतिर्मयि,
मृदु मौन स्मिति
है खेल रही अधरों पर.
​​
झूम रहे खेतों में पौधे
धानों के श्यामल श्यामल
अपने वय में उर्मिल कोमल
ज्यों तंद्रा में ले रहे मृदुल झापकी तंद्रिल
या शैशव के उच्छ्वासों की
धीमी सिहरन ?
नन्हीं नन्हीं
संश्लिष्ट अमित
हैं स्वर्ण-पीत बालियाँ उगीं
पत्तों में छिपी पड़ीं सिमटी
है उर्ध्व दिशा में शीश उठाए यत्किंचित
ज्यों झाँक रहा मानव-शिशु-सा
क्षिति से नव रवि.
​​
यह देख देख
निज लगी फसल
अति सरल हृदय कृषकों का उर
है उछल रहा बासों नीरव.
​​
प्रातः रवि की किरणें स्वर्णिल
मुख पर उसके पड़ती त्वरिता
मिलकर गालों की लाली में
मूर्च्छित हल्की
कर रही दीप्त प्रभ मुख मंडल
सृक्वणि गहरी, इंगुरी अधर
झुर्री में लिपटा किलक रहा.
                     10.11.1963
​​25. डूब रही
​​
डूब रहीं किरणें निस्तल में
मूक प्रकृति नीरव झंकृति
मृदु उतर रही उर के समतल में ।
सिंदूरी छवि प्रतिबिंबित सर
लघु लहरों पर बिछी मनोहर
अविदित गति तिर्यक पथ पर चल
डूब रहा रवि मन-तल में ।
ज्योति विभा भर मधु सम्पुट में
सिमट रहा सरसिज झुटपुट में
समो रही दिन की आभा निशि
हरित-स्वर्ण शीतल अंचल में ।17.6.1963

26. राखी
​​
स्वप्निल तेरी राखी स्वर्णिल,
अभिलासाओं की सृति पर्णिल।
डूब रही इसमें मेरी
उर की पल्लव-लाली गहरी
भरी स्निग्ध-स्नेह मृदु तेरी
खेल रही नव शक्ति हरी
उड़ उड़ पंखों से स्वप्न जड़ित
हैं सिमट रहीं लहरें वर्णिल ।
वह प्रथम प्रहर की अमर घड़ी
बन गई दृष्टि की एक कड़ी
देखा तुझमें भगिनी अनुपम
उठती लहरों का तट निरुपम
हे बहन! प्रमुद राखी अपनी
बाँधो जिसमें तू खुद उर्मिल ।
                             19.7.1964
​​
27. माटी के नर
​​
धूल भरे माटी के नर-
भिड़े हुए खेतों में पुलकित
स्वेद बिंदु गालों पर नर्तित
ढुलक रहे अनवरत सुतन पर
क्षिप्र-वेग झर झर.
​​
उगी नसें
बाँहों में सुगठित
पुष्ट देह, आशा से उमगित
चला रहे खेतों में अनथक
श्रमनिमग्न फावड़ा मनोमय.
धूल भरी घुटनों तक, उसके
पड़े स्वल्प छींटे उड़ तन पर
पुष्पवृष्टि के पुष्प तनों पर
अँटक गए हों ज्यों केशों में.
खुली देह
पगड़ी है सिर पर
कड़ी धूप जल रहा धरातल
किंतु जटे हैं सभी धूल से
सोना उपजाने को.
​​
इसी बीच
आ जाते कुछ जब मेघखंड
उज्ज्वल श्यामल
लख उन्हें
मग्न कामों में भी
मृदु मधुर स्मिति मुखरित होती
सूखे अरुणिम अधरों पर द्रुत.
​​
हैं मग्न यदपि अपने पल में
फ्फिर भी मुड़कर
हैं तक लेते घर को तिरछे
आती सुमधुर मृदु डग भरती
-उर की रानी-
लेकर दुपहर की मधु रोटी.
दोपहरी में
श्रम-थके कृषक
पेड़ों कम मृदु छाया में जब
करने लगते आराम अमृत
आ जाती मृदु मुसकान लिए
मधु प्रिया, प्रेम को घोल
साग चटनी रोटी में
रख देती सामने,
किलकती दंत पगक्तियाँ स्वर्णोज्ज्वल
बरसा देती कतकी सुभग
हरती थकान
मृदु आलिंगन-सा.
​​
पाकर सुमधुर
श्रमतृप्ति सुमुखि के हाथ
प्रसन्न खाने लगते
पाते असीम संतृप्ति
अपूर्व रसमयी शांति
निज अंतर में
औ प्रिया (तरुणि)
मृदु-स्निग्ध-दृष्टि
रहती अनिमिष देखती
अमृत मधु बरसाती पति के उर में
रहते जबतक खाते निश्चल.
​​
देखो वह तो
आ गई शीश पर तपन
हुआ दोपहर
काम से छुटे
सभी आ गए पेड़ की छाया में.
लो आ पहुँची लेकर
सोहागिनें भी
दोपहर का भोजन लोटों में पानी ले
भरती कटाक्ष देखो कैसे
प्रिय ओर देख
कुछ शर्माती कुछ मुसकाती
निज अंचल पट दाँतों में ले
मुसकरा रहे वे युवक
किस तरह रुक रुक कर.
​​
देखो देखो
वह बाला भी
है खिला रही किस तरह
अपने बापू को
सत्तू मिर्च और अँचार
शीश रखकर उनकी गोदी में निज
खा रही स्वयं भी
लेकर में पींड़ी चटनी.
​​
ये हैं माटी के नर
चलता ऐसे ही इनका जीवन क्रम
हल फार लिए फ्फिरते खेतों में
ये अनुदिन
सोना उपजाने को मिट्टी से खन-खनकर
है नमस्कार शत बार इन्हें
ये हैं उर्वर माटी के नर.
                              22.7.1964
​​
      28. अभीप्सा

बाँध लूँ प्रकृति स्निग्ध उदार
हृदय में उठती उर्मि अपार ।
प्रात की सजल स्वर्णमयि रश्मि
स्वप्न सी सरल प्रतनु चिद्वेश्मि
खींचती श्लक्ष्ण-स्पर्श उर-भेद
सेखती श्रमित-स्रवित मन-स्वेद
लोट पड़ता समेट मृदु भार।
सांध्य की छवि अशेष स्वर्धूलि
कला की तूलि-चित्र कल्लोलि
शमन-तट से अवाक् स्वर्णाभ
क्मल-संपुटित मृदुल उच्छ्वास
टेरती शमित-घूर्णि संभार ।
तरंगित लहर मंद मंथर
अभिप्सित रचूँ स्वर्ग भू पर
बॉध प्रत्यूष सांध्य श्री-भर
फूल फल लता भूमि उर्वर
पत्र तृण द्रुम-अदृश्य झंकार।
प्रिये तेरी सुरम्य छवि राशि
रूप रस गंध भरित मृदु हासि
करूँ शशि-सरस शब्द-गुंफ्फित
अमृत भर करूँ सृष्टि अर्पित
बहे रस शांत क्लांति-हर सार।
                             22.8.1964
29. आग्रह
​​
मेरे उर की तुम ग्रंथि सुभग!
स्वर्णिम स्वप्नों की पुंज सुलभ!
तुम तन्वि तरल-उर प्रतनु-प्राण
नव नव सुमनों की सुरभि बाण
उर की पुलकन रसमयी स्निग्धि
कृश प्रखर द्योति सरिता अमंद।
उतरो बन मिट्टी की धड़कन
जन मन उर की सृति संवेदन
नव गति नव ध्वनि में रूपायित
नव चेतनता में मधुर उमग।
उमगित स्वप्नों के स्वर्ण भृंग
गुंजित मन के चढ़ उच्च शृंग
तजकर पृथ्वी का तल-स्पर्श
मिट्टी की सोंधी गंध प्रमद।
उर की द्रुति मन से समुच्छ्वसित
कवि के श्वासों में समश्वसित
भू के मन की वन समुद्वाह
निखरो शब्दों में स्वर कर्मद।
                        25.8 1964
​​
30. अंतःसृति

देवि उर में चेतना भर
सर्जना के क्षण चिरंतन
चिंतना की अर्जना भर।
विषम विष पीना हमारी
परंपरा का चिर नियम है
उदर में उसको पचाकर
अमृत देने का धरम है
ज्योति दो उर के निमीलित
नयन में संवेदना भर।
दृष्टि में अपनी सुवर्णिल
सृष्टि, जन-मन-स्वप्न वर्णिल
सजल ऋजु उर-विभव तरलित
शांति का उन्मेष उर्मिल
मनस् की चिद्पंगुता में
त्वरण रस अभिव्यंजना भर।
                                  31.8.1964
31. जिज्ञासा
​​
माँ क्यों ये लहरें चंचल ?
सीमा में बँधे सरोवर के
जल के उर पर कैसी हलचल ?
पल पल उर-तल से उठ उठ कर
लड़ती तट से फ्फिर भी थककर
हटना पड़ता कंपित थर थर
रहती फ्फिर भी तट से बँधकर
क्या उसका गत पौरुष उज्ज्वल
या क्रीड़ित-वय का मृदु छलछल।
क्या ये मिट्टी की सीमाएँ
बंधन की जड़मय प्रतिमाएँ
टूटेगी नहीं, अचल बनकर ?
रह लेगी चिर अंकुश बनकर ?
इसकी ही तो परिणति कुंठा
नैराश्य नहीं, उनमें कल कल ।
पिटती जी तोड़ परिश्रम कर
पछताती लहरों में ढलकर ?
सर्जन करती जड़-अर्जन भर
चिंतन का मूल स्वयं बनकर
कुंठित जग का निश्चेतन स्वर
बनता वाणी-आभरण उपल ।
                                 31.8.1964
​​
32. उद्बोध
​​
उठ री प्रतिभे
मिट्टी की !
लेकर कर में तेजस्वि
प्रखर तांडवी तेज
विद्युत-प्रभार-स्वन
प्राण प्राण में फ्फूँक सृजन की क्रांति
चेतना की स्वनि उर्वर!
जाग पड़े रवि का प्रतेज
जग के उर में
ज्योतित करते अंतर्मंडल
वह टूट पड़े कृश ग्रंथि
आवरण सी छाई
मानस-भू में
करती नर को दिग्भ्रमित
शून्य में ज्यों अवाक्
लटकी निष्प्रभ
चेतन की छवि ।       2.9.1964
​​
33. अंतर्वर्तन
​​
ओ अवाक् सौंदर्य !
अमूर्त में मूर्त
मौन में मुखर
हिमालय के शिखरों पर
स्वर्णोज्ज्वल रवि-सा, तेरी
छवि का होता अंतर्वर्तन
स्वर्गिक श्री का स्वस्तिद चिद्वन !
​​
भू के हे मानदण्ड, भूधर!
श्री की समाधि, चिंतन चिद्भर
तेरे बर्फ्फीले सृप्र सुभग
ढलते तिर्यक्पन में तन पर
रवि शशि का स्वर्णोज्ज्वल नर्तन
उज्ज्वल कुहरिल नभ में छिप छिप
ज्योतित किरणों का छवि-अंकन
मन के आनत पथ पर चलकर
मृदु मृदु मंथर मंथर गति से
वर्तित
श्री का होता अहरह
मन को छूकर पुनरावर्तन.
​​
शुचि अतल हरित से
स्वर्ण-ज्वलित
क्षिति के दूर्वादल की नहीं
नभ जल सिंचित
मृदु मंजु फुनगियों पर क्षण भर
लेकर पावन विश्राम
पुनः शृंगों के पट से
प्रतनु-सरणि
त्विषि का कोमल संधान
बर्फ्फ की धवल त्वचा पर
स्वर्ण-स्पर्शन...
उर में होता अंतर्वर्तित
मधुमय छन छन.
​​
ये उज्ज्वल हिम के खंड
तपी, ऋषियों की उच्च कल्पना का
अविजित चिंतन
वेदों का गुह्य गहन दर्शन
लटके उसपर जमकर
उजले बर्फ्फों के दल
स्वणिल किरणों में
लगते यों
ज्यों स्वर्गारोहण की सीढ़ी
या ये सीमाएँ हैं स्वप्निल
भू के श्री वैभव के रखने की
स्वर्सुषमा के अंकों में.
​​
हिम की उँची चट्टानों से
झरते शुचि शुभ्र-सरिल निर्झर
झागों से भरे
सुमन सुंदर
लड़ लड़ चट्टानों से निर्भय
बढ़ना उनका गतिमय कल कल
चरणों में लोट रहे जल का
करना उनका मृदु आलिंगन
रवि के स्वर्णातप से सुंदर
घुलकर निःसृत रेखा-सी कृश
स्रिता का--प्रतनु-सरणि, करती
अनुपम कल्पक उस कालिदास की
अमर कल्पना का मधुमय
शाश्वत सीमामय रेखांकन
नगपति के छवि के महाकाव्य में--
उसका करना मृदु मृदु चुंबन
फ्फिर क्यों न अजय इस सुषमा का
उर में हो मृदु अंतर्वर्तन.
                                  5.9.1964
​​
34. प्रेयसि
​​
प्रेयसि!
प्राणों की अप्सरि!
उर की उर्मिति
मृदु मधुर स्वरण
स्वप्नों की त्वरि!
जब मैं रहता उन्मन उन्मन
चिंतन क्षण में
रमती नभ दिक् पाताल
निखिल ब्रह्मांड कक्ष में
दृष्टि मेरी अंतर्मन की
तुम तन्वि तड़ित सी कृश कोमल
आ जाती मेरी
शांत स्मृति में
क्षण भर को
लगता
रवि का त्विषि उदय हुआ
मन के प्रांगण में.
​​
तुम गीत सुभग
मेरी वाणी के
उर वीणा की नीरव झंकृति
शशि-किरणों से होता तेरा
अवतरण
मेरे मन के शिखरों पर
हिम पर किरणें करती नर्तन
तेरे प्रकाश का
बर्फ्फ पिघलते मृदल मृदुल
पा स्वर्ण स्पर्श
शुचि फूट निकलती शुभ्र-सरिल
स्रिता निर्मल
बह पड़ती है भू के पथ में
संकीर्ण सरणि से
रेखा-सी
ज्यों उतर रही हो ज्ञान राशि
मन-मानसि से.
+ + + + + +
अपरे! श्री की
विभु की सुषमा!
भू की निरुपम दिक् ज्योतिर्मयि
संसृति की सजलांतर्जीवन!
उर के मेरे प्रति बुद बुद में
उठती गिरती मृदु नहरों में
तेरा कोमल अंतर्गुंथन
​​
सुकुमारि!
पल्लवी पात
स्वर्ण संध्या में
तव अंतर्गुंजन
चेतन की तुम चेतना
अचेतन के उर की
मृदु ग्रंथि!
बना जिससे उसका
जीवन मधुमय
संस्कृति की तुम सूक्ष्मता
अमिट
जिससे उसका प्रति कण बेधित.
​​
उभरो तुम बुझी शिखाओं से
ओ सतल चिरंतन समुज्वला!
तुम करो स्वयं निज परिष्कार
अंतर्ज्ञापित शुचि परिमार्जन
शिव की भृकुटी से उमड़
स्पर्श कर भू जीवन
स्वप्नों की प्रतनु तड़ित में त्वर
तुम प्रकट करो स्वर्णिम शिंजन
दिग्भ्रम-युग में जग पड़े
नवल चेतना नवल गति स्वयंबोध
भर चले तृप्ति सबमें मोहन.
+ + + + + + +
प्रेयसि मेरे अंतर्कवि की!
श्री की ह्री संवेदन भू की!
​​
स्वप्नों में तेरा वास
किंतु
अब उतरो तुम मानस-भू पर
जन के मन के.
​​
वह स्वप्न जड़ित
स्वर्णिम प्रहरों में डूब चला
है भ्रमित अभी जड़ चेतन के
दो पाशों में
हाबी उसपर है युग यांत्रिक
रस लूट हृदय का
जीवन कण
वह उसे बना दे मात्र यंत्र
अनुभूति स्पर्श-सुख रहित
जड़त्व-अभिभूत मात्र
वाणी से होती है निःसृत
जन की, केवल
निःश्वासों में युग की
वेदना घुटन कुंठा अतृप्त
है भरा अपरिमित असंतोष
संदेह दृष्टि अपनों में भी.
​​
वाणी, मेरी नीरव कविते!
उर के तल से उठकर पविते!
​​
नव चेतनता भरकर निज में
संतोष तृप्ति का रस लेकर
उमड़ो,
फूटो रवि सा ज्योतित
भू का चेतन संवेदन ले
सर्जन का निस्पृह व्रत लेकर
ऋजुता में तरल सरल होकर
स्पष्ट दिशा निर्देश
स्वयं का ज्ञान, भान
उतरो निर्मल जल में त्विषि सी
युग के उर में
करते स्वर्णिम अंतर्ज्योतित.     5.9.1964
​​
35. रोपनी

रोप रही खेतों में सोना.
हरित भरित
धानों के पौधे
रोप उँगलियों की चुटकी से
कृषक बालिकाएँ
मुखरित मन
डाल रहीं जीवन स्वर भरते.
​​
पड़े हुए बोझे बिखरे
बीया के कितने
तैर रही पानी पर कितनी
छोटी लुड़ियाँ
धीरे धीरे
वे एक एक कर खत्म हुईं
लो लहरा उठीं पवन दोलित
वीणा के तारों पर सुमधुर
सॉवली प्रकृति उँगली फ्फेरी.
​​
हैं कहीं कहीं
तैयार कर रहे कृषक
धान बोने को
खेतों को जोत रहे
हल बैल लिए गहरे पानी में
लेव हो रहे सुभग उँचासों पर कैसे
लड़के आते देखो हेंगी बरही लेकर.
​​
नभ में मेघों की उमड़ घुमड़
विद्युत की चमकीली कड़कन
फ्फिर भी
कितने संतुष्ट सहज
गति से खेती में हैं निमग्न
अधरों पर पड़ती फूट
मधुर रह रह स्मिति
अनुओं का है क्या काम
दौरियाँ पड़ी रहें
भगवान आज खुश हैं हमपर
मेहनत का फल निश्चित देगें.
4.9.1964
​​
36. आवर्तन
​​
दृग में पल पल तू आवर्तित
उर की रस प्रवण शिखा वर्तित
संतृप्ति सुभग उर की स्वर्णिम
सूनेपन की द्रुति संवेदित ।
भू की गरिमा के पुष्ट प्रखर
रवि की द्युतिमा में शुभ्र निखर
गिरि की सुषमा की सृप्रि अ-पर
चिर प्रकृति अनुक्षण परिवर्तित।
​​
कृति की सृति प्रेरक स्वर्ण-प्रखर
स्वर्गिक क्षण की मृदु मधुर प्रहर
पलकों के तल में त्वरित गहन
वीणा के स्वर पर पद नर्तित।
​​
कृश तन्वि त्वरण मन स्वर्ण अरुणि
द्युत ग्रंथि पल्लवी दिव्य तरुणि
उतरो पल पल दिक् ज्योति त्वरणि
उर की दिङश्रवि में मधुचर्चित।
                                    15.9.1964
​​
37. वर दो
​​
देवि वर दो!
ज्योति भर दो!
विश्व को कर दूँ समुज्ज्वल
चेतना की फ्फेंक त्विषि कल
दिग्भ्रमित संचेतना को
दृष्टि-पथ दूँ
सृष्टि-स्वर दो।
नव्य द्युति नव बोध चिद्भर
नव प्रगति नव दृग त्वरण खर
प्रेषिका में भर समीरण
को सरण दूँ
प्रवह-पर दो।
                          14.9.1964
​​
​​38. स्वर्ण किरण
​​
अयि स्वर्ण किरण!
दिव्याभ-वरण
अंतर्दिक में उन्मेष-सरणि
ऋति की ज्योतिर्मयस्वर्ण-चरण।
​​
उर्मिल तुममें उर-संवेदन
अनुदित चिद् त्विषि मुखरित जन मन
मन में नव रवि सा चिर द्योतित
स्फ्फटिक शुभ्र नव भाव प्रवण।
​​
द्युति तन्वि प्रतनु संपुटित प्रमन
उर के दल में मृदु प्राण गहन
मन को फ्फिर भी अस्फुट अप्रतिम
बन ज्योति-स्फुट दिग्ज्योति सरण।
                                15.9.1964
​​
39. लड़कों का खेल

खेल रहे लड़के हर्षित।
धूल भरे
तन से निखरे
वपु से जर्लर
कण-से विखरे
पकड़ी के नीचे किलक रहे
कर दौड़ धूप
संध्यातप में.
चिपका है एक मुँदा
तरु से
छिपते बाकी ले आड़, खड्ड
दीवार, पूँज, कोई न कोई
घन में छिपते ज्यों तारक दल.
​​
लो बजी एक मोटी सीटी
दौड़ने लगा वह इधर उधर
छूने को सबको ऑंख खोल
जिसको छू दे वह पर जाए.
​​
गिरते पड़ते भग रहे
धूल में लिपट
मुक्त किलकारी भर
सब चाह रहे उससे बचकर
तरु को छू दें
बँच जाएँ मुदाने से पर कर.
​​
तन पर उनके मांटी परतें
मिट्टी की पड़ी हुई काली
बैठी नोहों में मैल
हथेली लाल लाल पीली पीली
है नग्न सभी की देह
डाँड़ में फटी चिटी विस्टी
सुखमय
है धूल स्ूक्ष्म आवरण
सबों का एकमात्र
ये हैं भारत के स्वप्न
देश के कर्णधार भवी
कर्मठ
पलता है जिनका पेट
अल्प दोनों के दानों पर
निशि दिन.
+ + + + + + +
उनमें से कुछ हुँसियार,
सयाने हैं किंचित
वे खेल रहे ओल्हापाती
पकड़ी पर चढ़.
​​
हैं सभी चढ़े ऊपर लेकिन
नीचे कर में लकड़ी लेकर
वह फ्फेंक रहा है एक,
एक उद्यत लकड़ी लाने को है
ले देर कहाँ
वह फ्फेंक उसे चढ़ गया वृक्ष पर
द्रुत गति से
औ भगा दूसरा, ला लकड़ी
छूने को व्यस्त हुआ टँगरी
उन लड़कों की
जो ऊपर हैं.
​​
लकड़ी लेकर वह
कभी इधर फ्फिर कभी उधर
है दौड़ रहा
दोखना से व लटकों से वे
हैं लुभा रहे उसको
वह छूने को तत्पर.
​​
लो इसी समय
मृदु ओल्ह गया वह एक सहज
औ चूम लिया पतई को ले
तल में रक्खा
फुर्ती से आ
छू लिया किंतु उसकी टँगरी
वह बोल उठा खिलखिला
‘‘पर गए दुखी मीत’’
चूमना और छूना
दोनों ही साथ हुआ.
​​
कह पड़ किंतु दुखी
‘‘मैंने है चूम लिया पहले पत्ता’’
‘‘कैसे ?
पहले तो छूई है मैंने टाँग तेरी
बढ़ के’’
त्वर बरस पड़ा दूसरा क्रुद्ध
‘‘हूँ, नहीं, चूम ली है पत्ती
पहले मैंने’’
‘‘अकड़ो मत, चूमने से पहले
है छुआ तुझे मैंने’’
कह झगड़ पड़े आपस में वे
सब घेर खड़े हो गए
और लड़के उनको
औ खेल खतम हो गया
इसी झगड़े में तब.

40. अवतरण
​​
मृत्तिके! मैं आ रहा
कर में ज्वलित अंगार लिए
शांति के उर में विघूर्णित
मरण का त्योहार लिए।
​​
चरण पल पल बढ़ रहे हैं
त्वरण से उर भर रहे हैं
धैर्य के घट छलक प्राणों
में रणित-स्वर भर रहे हैं
सृष्टि के उर पर मचलकर
अमिय भूतल पर छिड़ककर
आ रहा रण-प्राण जीवन-
प्रणय का आह्वान लेकर.
सरण में मेरे त्वरण है
प्रखरता में गति-स्वरण है
त्याग तप उपकरण मेरी
धमनियों में सृष्टि-क्षण हैं
तैर कर दुस्तर समीरण
तोड़ प्राणों का विमोहन
अतल तल को फ्फोड़ रवि-सा
नवल कर नव प्राण लेकर।
रुद्र का रुद्रत्व अग्निल
बाहुओं में शक्ति उर्मिल
मेघ की खर मंद्र ध्वनि में,
प्रखरतर पुरुषत्व प्रर्णिल
शक्ति की द्युत शांति लेकर
त्वरण-बल जीवंत भरकर
चीरकर नभ-अक्ष भू की
प्रणयि! जलती ज्वाल लेकर।
​​
41. अर्पण
​​
अर्पित गीतों की अंजलि प्रभु,
तेरे मृदु चरणों में पावन
सुरभि-बंद अनखिली कली प्रभु।
​​
शतदल की पंखुरियाँ स्वर्णिल
मौन-मुखर पल्लव-दल पर्णिल
उर के तल से प्रेमोद्भिज मन
में मुखरित मानस वाणी प्रभु।
​​
तन मन, जीवन धन अंतर्हित
प्राणों की द्रुति से संवेदित
भावों का अंतर्वर्तन इन
ग्ीतों में अंतर्गुंजन प्रभु।
                             19.11.64
42. नमस्कार
​​
नमस्कार ओ अरुण किरण
हरिताभ स्वर्ण-श्वसि प्रतनु किरण।
​​
ओ मधुर प्रात की प्रथम रश्मि
नव तरुण-द्योति कृश स्वर्ण वेश्मि
शिति तुहिन कणों की स्नायु-रेख
पल्लवी प्रात की मुखर किरण ।।
​​
नव रूप गंध नव छंद सृष्टि
चिद्भरण मुक्त स्वर ज्योति वृष्टि
क्षिति के सुरम्य तल से प्रसन्न
समुदित प्रकीर्ण छवि पुंज किरण।।
                                  19.11.64
43.   माँ
​​
माँ तेरे पावन चरणों पर
चढ़ा रहा अंजलि भर भर में
गीतों की पत्रिणी मनोहर ।
उगी सूक्ष्म श्रवि में प्राणों की
अर्घ्य मृदुल कोमल भावों की
जीवन का टुकड़ा संवेदित
युग मन से युग के अधारों पर।
​​
माँ इसमें युग के क्षण उर्मित
नव भावों नव स्वर से गर्भित
अपनाओ उर की ये धड़कन
चिंतन स्वर निज संस्कारों पर।
                                  2.2.65
44. संध्या प्रहर
​​
उतर पड़ी किरणें अरुणिम,
भू के प्रांगण में
मंद मंद सिमटी
लेकर दिन की गरिमा
लीन हो गई प्रकृति
सांध्य के निःस्वन में.
व्याप्त चतुर्दिक नीरवता
शीतल सुकुमार मनोरम क्षण
उतर रही भिंडों से
चरती चपल बकरियाँ
फैल रही वर्तुलाकार
जल में रेखाएँ
पल्वल के.
​​
चहक रहीं चिड़ियाँ
टुट टुट टी वी झुरमुट में
दौड़ रहे कुत्ते बिल्ली नेवले
माँद की ओर.
​​
लो क्षण में यह फैल गया
घन अंधकार
ऑंखों से ओझल सृष्टि हुई. 2.2 65
​​
45. भावों के क्षण में
​​
प्रेयसि तुम भावों के क्षण में,
प्राणों की अप्सरि, उर की
सरस शांति वर्तित कण कण में.
तेरी स्वर्ण भंगिमाओं पर
सदल सजल शत कला निछावर
पर अधरस्थ स्मिति में भरती
व्यंग्य क्षुधा उर की पल पल में
रीझूँ या उलझूँ भू-स्वन में.
​​
कुंठित है जन मन पृथ्वी पर
नव भावों बोधों से तत्पर
दबा हुआ है हृदय तृषित
बौद्धिक जन हैं विप्लव चिंतन में
मानव मन केंद्रित एटम में.
​​
फ्फिर विकल्प मेरी परिणति क्या
तर्क वरूँ लूँ हृदय पक्ष या
अंतर्मन कहता दोनों को
बाँध रखूँ उर के बंधन में
प्रेयरस रम प्राणों के स्वन में.
                                    3.2.65

46. दो शरण
​​
प्रभु दो शरण चरण में अपने,
बीत चले जीवन समस्त
तेरी अनुदिन सेवा में, सपने।
तन मन सब अर्पित का दूँ मैं
तुम गुंजित उर की धड़कन में
विखर पड़ो गीतों में नस नस
चाह यही मेरे उर मन में।
खिलते गीत हृदय के भू पर
मन का भाव रक्त रस पीकर
पर तुम प्राण डाल दो उसमें
तुम बिन वे नीरस उन्मन से।
                      11.2.65
​​
47. कौन तुम
​​
कौन तुम मेरे हृदय में ?
तमस के पीछे क्षितिज से
तपन के स्वर्णिम उदय में ?
अमित मन में ज्योति भरते
शुष्क उर में चरण धरते
घुटन, कुंठित मन, निराशा
में सरसते ज्योति जय में.
शमित धमनी के रुधिर में
प्रखरता भरते अनल में
ऊँघते मन को जगाते, कौन
तुम जीवित प्रलय में ?11.2.65
48. फूटो....
फूटो फूटे ज्यों स्वर्ण पद्म,
वाणी मेरी स्वर्ज्योति सद्म ।
​​
क्षिति से छनकर आ रही किरण
भू पर मन के मृदु मंद सरण
क्रती पावन ऋजु तरल स्वर्ण
निज ब्रह्म स्पर्श मणि से प्रसद्म ।
​​
खिल रही स्वर्ण पृथ्वी प्रमग्न
शुचि स्वर्ण धूलि अंचल प्रसन्न
वह पद्म पत्र से पटी ,सरसि,
झर रहे ज्योति जल-बिंदु छद्म ।
अयि प्रवरि! फूटते चिटख फूल
उड़ती प्रछन्न तन- श्लेषि धूल
मन की अनंत त्वर तोड़ ग्रंथि
फूटो उन्मद ज्यों श्लिष्ट पद्म ।
​​
49. आत्मबल
​​
चरणों में मेरे बल है,
मानस में अपना चिंतन क्षण
अंतर में संविद जल है ।
​​
मैं भू पृथ्वी का प्रण अविचल
पौरुष का दिङ्प्रसर सूर्य- बल
तोड़ कठिन मिट्टी-पट प्रतिपल
नव विवर्द्ध अंकुर ज्वल है ।
​​
प्राणों में अनुस्वरित प्रणव स्वर
सृजन-वह्नि घूर्णित उर में त्वर
तोड़ तमस आवरण क्षणिक यह
रवि स्वर्णिम त्विषि दिङ्ज्वल है।
शुष्क विरस जीवन-तरु चिद्रस
मन यंत्रित निर्झर था नस नस
उमड़ पड़ी भू फ्फोड़ सरित अब
फूट रहे पल्लव-दल हैं।
​​
ज्ञात हमें हम कौन शक्ति क्या
भान हो चुका हृदय-भक्ति क्या
निज समस्त उलझन के हल का
निज मानस में ही बल है।
                                10.3.65
​​50. प्रतीक्षा
​​
बैठी हूँ मैं नयन पसार,
पलकों में ढल गए दिवस निशि
अश्रु ढल रहे परम अपार ।
उमड़ घुमड़ आते बादल नव
खिलते गज भर तरुणि हृदय-भव
शून्य हृदय मन को ले अपलक
प्रिय पथ को मैं रही निहार ।
​​
तरस रहा उनके स्वर को मन
सखि रह रह होता जी अनमन
उनके मृदु आलिंगन के बिन
व्यर्थ मेरा जीवन निस्सार।
​​
माँ! हे दया-प्रवर! ठाकुर शिव!
चरणों में अर्पित तेरे सिर
माँग रही ऑंचल पसार प्रभु
गह लें द्रुत मम प्राण-विहार।
                                 13.3.65
​​
51. तेरी छाया में
​​
प्रभु तेरे कर की छाया में,
बीत रहे दिन प्रतिदिन मेरे
तेरी सुभग सरल साया में ।
मृदु उठते बुद बुद प्राणों में
स्वर तेरे प्रति उर धड़कन में
पसर मधुर वर्तुल टकराते
क्षिति अदृश्य सुखकर काया में ।
एक अकिंचन कण प्राणी मैं
मिट्टी की दुर्लभ्ा वाणी मैं
भटक रही चिंतन नित करती
तेरी वृहद सृजन माया में ।
                            20.2.65
​​
52. वरण करूँ
​​
देवि मरण को वरण करूँ,
शक्ति निहित मुझमें इतनी
ब्रह्मांड निखिल को तरण करूँ ।
देवि क्षमा मैं मनुज अकिंचन
बुद्धि विभव कृति नित कर सिंचन
पर उदार उर का द्रुत संविद
लक्ष्य सृजन का भरण करूँ ।
​​
चरण मेरे बढ़ने के क्रम में
‘‘सृष्टि! खुलो तुम क्यों संभ्रम में
डर मत ओ मानव गति-क्रम से
बल दे क्षण क्षण से रण लूँ ।
प्राण मेरे जन जन के उर में
स्वर मेरे उनके सं-स्वर में
देवि! त्वरण दो प्रणव-प्रवह ले
प्राण प्राण में सरण करूँ ।
​​
53. ग्रंथि
​​
अयि प्रवरि हृदय की स्वर्ण ग्रंथि,
श्री शक्ति शील की प्रवण संधि !
क्षिति की अदृश्य द्रुति में उर्मित
देही प्रसन्न मन में वर्तित
रवि की द्युति में प्रभ समुद्भास
शशि सी शीतल द्यु-सरिल पंथि !
​​
अंकित तेरी प्रतिमा सुंदर
अंतर्गृह में तिर्यक धँसार
चिंतन-भू की भावना रश्मि
अंतःप्रकाश की चिर स्पंदि !
​​
अयि प्रकृति-भूति निर्मल स्वच्छंद
तुम आज अंक में अपर बंद
प्रेयसि परंतु उर में मेरे
तुम वही तरुणि प्रेमल प्रमंदि !
                                    9.9.65
​​
54. अभिसार
​​
सखि मैं करन चली अभिसार,
सहम सहम उठते पग नीरव
हृदय त्वरित धड़कन में ज्वार ।
सजी धजी सोलह सिंगार में
अंतरिक्ष शशि के विहार में
प्राणों के संविद जल में शुचि
उठते मृदु मृदु मधुर उभार ।
प्रिय की छवि अंकित मधु मन में
गुंजित प्रभु पलकों के स्वन में
कंकण क्वणित चरण उठते
गिरते नूपुर ध्वनि में प्रतिबार ।
खिंचती स्मृति-स्मिति अधरों पर
ढलती पलक-पतन में प्रस्फुर
प्रथम मिलन रुकती गति कंपित
हृदय, शीश नत लाज प्रसार ।
                                   27.9.65
55. पी लूँगा
​​
पी लूँगा मैं गरल,
भू नभ में उर्मिल मानव मन
घुटन तरल ।
भर लूँगा मैं भुवन अंक में
मुक्त साँस लूँगा अंबर में
मैं हूँ पृथ्वी-पुत्र मुझे प्रिय
भूमि सरल ।
अस्थि जले आतप में प्रतिपल
व्यथा तोड़ दे मन का संबल
किंतु उबलता रुधिर रगों का
अजय प्रबल ।
मरण वरण करना गौरव व्रत
हँस हँसकर ग्रीवा कर उन्नत
पी लूँगा कुंठन विषाद, दूँगा
जीवन, पीयूष अनल ।
                                       28.10 65

56. नीरव क्षण
​​
मौन स्तब्ध नीरव क्षण में ।
घिर आती प्रेयसि तेरी छवि
स्वर्ण-मुखर प्राणों के पण में ।
​​
जीवन के तट पर एकाकी
चिंत्य क्षणों में गहन प्रवासी
कुंठा के अवसाद प्रहर में
ढरती प्रीति-मधुर त्विषि मन में ।
​​
घुटती मनस्वृत्ति चेतन ओ
भर लेती ब्रह्मांड मुक्त हो
शक्ति त्वरित होती अंतर्दिक्
जग उठता तब ज्योति किरण में ।
​​
उठती मधुर तरंगें संविद
श्लिष्ट सरणि उड़ती हंसों की
पट जाता अंतर्मन पल में
झर पड़ता अमृत कण कण में ।
                                1.11. 65

57. चिर नूतन
​​
प्राण !
ज्योत्सना तरुणि! तन्वि!
रवि की त्विषि में
मृदु धुली धुली
अब तो श्री तुम
मधु किसी अंक की ।
एक दिवस
तुम थी स्वतंत्र
क्रीड़ा-स्वच्छंद
चिंतन प्रमुक्त, गति में अनंत
पर,
बँधी यौन की त्वरण संधि में
त्वर तरंग सी
फूट रही थी त्विषि प्रसन्न
सौंदर्य-प्रभर लाजानुरक्त
निष्काम कर्म की अमर सृष्टि
थी अमृत-वर्षि गीता उर्मिल ।
​​
तुम वही आज भी
दिङ्ज्वल श्री
पर प्रवण प्रकृति गति के क्रम में
प्रस्फुटित पद्मिनी सी स्वर्णिम
रवि की द्युति में
कुंचित मधुमय
कर बंद हृदय में प्राण एक
पीता उसका जो प्राणासव ।
​​
है गति, तेरी मति भी
सम्मति
प्रिय की स्मृति में एकांत विलय
तुम पूर्ण लीन, द्रू समस्तित्व
आबद्ध अस्त
शशि ज्योतिर्मय
आलोक किसी के उर की तुम ।
​​
प्रेयसि !
फ्फिर भी तुम प्राण-मधुर
मेरे उर की रस-त्राण प्रतनु
यद्यपि तू अपर भूति निर्मल
जगमग करती उर दिङ्मंडल
है वही प्रेम उच्छल मेरा
तेरे प्रति तरुण प्रखर नूतन
गंगा के ज्योतिर्मय जल सा
जीवंत, प्रवह,
प्रांजल पवित्र ।
​​
तुम तो अब भी मेरी गति-क्रम
तव वरण नहीं कोई व्यतिक्रम
भरती मेरे उर में जीवन
ज्योतित स्वर्णिम
मिल रही आज भी वही
स्वर्ण प्रेरणा, शक्ति,
श्री की अप्रतिम
रे प्रेम चिरंतन ,चिर नूतन ।
                         2.11.65
​​58. प्यास

एक प्यास
गहरी तीखी
अंतर्मन से उमड़ी पड़ती.
​​
उर्वर अनंत
रवि सी ज्वलंत
जीवन प्रवाहिनी शक्तिमंत.
​​
आलोक जगे उर में विपन्न
जन-मन-प्रसन्न
हो उठे विश्व भी उद्भासित
पाकर जिसकी संतृप्ति प्रमन ।
प्यास-
अंतस की भूख,
चिंतन उड़ते
बनकर मानस की धूल
आता प्रतिदिन प्रत्यूष
नवल गति ले नव नव शत रूप
किंतु-
एक सूखी सी स्वर्णिम धूप
ठहाके का मिलता आह्लाद
नहीं अधरों पर खिलती मौन
मधुर नीरव स्मिति मृदु मुखर
हृदय की तृप्ति
उषा की द्रुति शीतल संविद
बनी जाती स्वप्निल संघात
विश्व में नहीं कहीं क्या नमी
ज्योति की तरल सरल स्निग्ध ?
याकि वे नहीं हृदय संवेद्य
तोड़ ले अंतरिक्ष
विश्व का कर मंथन
निचोड़ ले अमृत
और
शांति से बुझा सके निज प्यास ?
मानव क्या सत्य
सृष्टि-उपहास ?
                                   10.12.65
​​
59. चिर तरुणी
​​
चिर तरुणि, प्रवरि,
मन की मानसि!
त्विषि-प्रतनु
तड़ित-तन्वंगि-त्वरणि
ऋत की तापसि!
​​
द्रुति की स्वर्णिल अनुभूति मृदुल
दृग-भर तिर्यक् उर तृप्ति पृथुल
शीतल प्रसन्न शशि-मन-स्पर्शि
छवि की निधि में शतरूप-दर्शि
मधुमय चंचल
शोभा छल छल
वर्तित तिर्यक् उर के जल में ।
​​
तुम तो अंतर्कवि की वाणी
भू की मिट्टी संविद प्राणी
प्राणों के कण कण में उर्मिल
गाँठों में उर की चक्र-त्वरिल ।
​​
तुम सूक्ष्म, स्वरिल
दिङ्श्रवि-गुंफ्फित
उर्मिल अनंत छवि में भू की
देही प्रसन्न तुम तरल-अंक
जीवन नर का जिसमें केंद्रित ।
ममता करुणा
उच्छल स्नेह
श्री शक्ति शील है द्रवीभूत
उपकरण विश्व-सृति के अनुपम ।
​​
तुम ग्रंथि,
सुभगि ऋजु-पंथि!
व्योम के अंतःपथ की द्वंद्वि!
घटाओं में विद्युत नर्तित
जलद-जल के रस से उन्मद
कृषक-उर की जीवन-रस-शांति
चक्षु-पथ से छनकर निर्बंध
बरसती अमृत ! हृदय-भू पर
शुृष्क उर्वर अपन्न संभर!
त्वरणि!
प्रेयसी प्रेम की तृप्ति!
धूल में पली खिली स्वच्छंद
सरल ऋजुता की श्री निष्पन्न
मातृ भू के ऑंचल की त्वरण
ग्राम्य-यौवन का सहज विकास
छलकते घट, पनघट से चरण
लौटते लय गति में स्वरबद्ध
पायलों की बजती जीवंत
-खनक-जीवन का रस संगीत
दृगों के तिर्यक् मद चितवन
बेधते कृषकों का उर त्वेष
प्रवरि!
उन्मद उर के रस से
सींचती रहो हृदय तन मन
स्वर्णि!
चिर तरुणि! दृप्त अक्षर ।
​​
60.      होली
​​
होली के दिन आए सखि री,
होली के दिन आए ।
उड़ने लगी धूल अंबर में
ऑंचल पवन उड़ाए।
प्रथम सारदा ने होली ली
रोली तिलक गुलाल खिली
मुझ सुहागिनों ने मांगों में
नूतन ऋतु-सिंदूर मली ।
अँटकी प्राची में मन ऑंखें
प्रियतम अभी ना आए ।। सखि री...
​​
फूल उठे कण कण के अंतर
नियति नटी ने फ्फूँका मंतर
मह मह मँहक उठीं मंजरियाँ
भूली मान मनौती तंतर-
कलियों की पुलकन में देखा
दिन प्रतिदिन नियराए ।। सखि री...
​​
कल ही तो है पर्व सुभग वह
रोमावलियों में मधु सौरभ
प्राणों में उठते रह रह त्वरर
ननदों ने छेड़ा कल कल कर
अधरों पर मृदु हँसी रिक्त उर
पल पल मन घबड़ाए ।। सखि री...
​​
61. स्वप्न से
​​
ओ स्वर्ण शिखर के स्वप्न मधुर!
मिट्टी का संवेदन भी ले.
तन्वी त्विषि की
द्रुति में डूबी
कृश प्रतनु-सरणि
संश्लिष्ट-द्योति
मृदु मौन मुखर ध्वनि आवेशित
पद्मों की पंखुरियों पद
श्वासों में मलय पवन स्वर्णिम
श्री-प्रवण त्वरण
बर्फ्फीली द्युति !
​​
खोलो तुषार ह्री का घूंघट
निज वक्ष फ्फोड़
रस भरा क्रोड़
भू पर उँड़ेल दो मुक्त हृदय
लूटें स्वच्छंद प्राणी खुलकर.
स्वप्नों की ओ तन्वंगि तरुणि!
स्वर्गिक सुषमा की आलिंगन!
स्थिति तेरी मानव मन में
भू-तत्वों से निर्मित भौतिक
परिवेशों में परिनिष्ठ प्रखर
अनुभूति-प्रवर
संवेदन-धर!
​​
स्वाभाविक ही संविद होना
पृथ्वी क मर्त्य क्षणों से है.
​​
खोकर मत दिव्य प्रहर में तू
ऊषा-श्री-तरल तरंगों में
मोड़ो अपना मुख निर्मम हो
भू की उठती गिरती सृति से
उत्थान पतन में बँधी मही
है आज जीर्ण तन से मन से
लड़ता मानव अपनों से ही
क्षण में निष्ठा विश्वास उसे
निज शक्ति प्रकट करतर टूटे
रथ के पहिए सा छिन्न-भिन्न
जितने तनहैं उतने चिंतन
है मुंडे मुंड मतिर्भिन्ना
अपने को ऊपर करने को
लड़ना तो ऋजु व्यवसाय हुआ
बातें करते नव भावों की
नव बोधों की - नव में बसता
मन प्राण- तोड़ ऐतिह्य स्वस्थ
घोषित करता बौद्धिक निज को
युग-संवेदन-प्रतिनिधि-भाविक
डंके की चोट स्वनित करता
लदना खिन्न जन मानस पर
अपने मन के कृत्रिम भावों
बोधों को, है परिमिति उनकी
जिसका अपना आधार नहीं.
​​
संस्कृति के ठेकेदार, शिष्ट
कवि की वाणी सूखी सूखी
कुंठित मन को कुंठित करती.
​​
मानसि!
मन की अनुभूति तरल!
जीवन की मधु आनंद प्रहर!
फूटो युग के स्वर में स्वर भर
भू का जन-मन-संवेदन धर
हरते उनके प्राणों की कटु
कुंठा तृष्णा नैराश्य घृणा
शिव-सा पीकर कटु गरल तीव्र
भू को निचोड़ दो अमृत दिव्य
घुटती मानवता को जीवन
मृदु तरल दिव्य अनुभूति मिले
हो व्याप्त
सरल मधु-सा उन्मद
प्राणों में भावों की स्वप्निल
संविद-द्रुति-द्रू
बन जाए स्वर्ग स्वर्णिल
भू पर.
​​
62. प्रेयसि
​​
प्रेयसि !
मेरे प्राणों की त्वरि!
उर्मिल
उच्छल
उर की अप्सरि!
स्वर की गति में
तेरी स्वर्सृति
पर्णिल दिक ्में
तेरी ही प्रति
उर की तेरी संविद श्रवि में
परिभ्रमित दृप्त ब्रह्मांड निखिल
भू की स्वर्णिम गौरव गरिमे!
​​
यह सृष्टि मुखर
कुंठित जर्जर
घुटती उर मन ऑंखों में पर
दे तोष स्वयं
जब खो जाता
स्वप्निल द्युति में
श्री की संभरि!
झरता शशि से पीयूष मधुर
मन प्राण सरस शीतल होते
दिखता शतदल की ओट
हरे फूलों पत्तों से घिरा प्रचुर
तेरा मुख-रवि
सिंदूर भरा सीमंत
भाल पर अरुण तिलक देदीप्यमान
उर में उगता प्रत्यूष
ज्योति से भर जाता संपूर्ण
प्राण का अंतरिक्ष
खिलती मधुमय पुलकन
सूखे
साँवले चेहरे पर अप्रतिम
ढरक पड़ती खड्डों में गालों के
ज्यौत्स्निका
ढुलक पड़ता प्राणों में अमृत
झलक पड़ती भावी संस्कृति
प्रत्नता में डूबी संविद
नयी गति नूतनता में त्वरिल
ठोसपन पाने को निर्द्वंद्व-
‘‘सृष्टि थी जलमय अब संपन्न।
​​
63. मेरे किसान
​​
मेरे किसान, मेरे गौरव !
लो घूँट अमृत के प्रेम परक
उमगित उन्मद उर से ढरके
खेतों में जब तुम थक जाओ;
देखो तेरी वह प्रिया मधुर
मृण्मयी अपल
है बाट जोहती मेड़ों पर
थाली लेकर
कैसी तिर्यक् मुसकान लिए.
उसकी उस रूप माधुरी पर
मिट्टी से सनी भली स्वर्णिम
भोली वे अंग-भंगिमाएँ
घूंघट से छनती शशि-किरणें
उभरे उरोज रस से उन्मद
यौवन के प्रथम प्रहर में त्वर
न्योछावर लाख लाख रंभा
उर्वशी अप्सराएँ उनपर
मिट्टी की कर सकता समता
वह स्वप्नलोक सपनों में भी ?
​​
र्इ्रर्ष्या होती
तेरे विधि पर
किसने सौंपी ऐसी द्रुति थी
​​
सिमटी जिसमें स्वर्णाभ प्रकृति
पल्लवी प्रभा प्रत्यूष मुखर
शशि की द्युति सी संविद प्राणा
अनछुई किशोरी छुई मुई
ओ कृषक हृदय भी है तुझको
जो बाँध सको प्राणों तल में ?
​​
‘प्रियतम’!
ज्यों खनक पड़ी वीणा
फूटा स्वर्णिम संगीत मधुर
लो बुला रही पल्लवी करों से
प्राण-प्रिया.
​​
‘ठहरो’,
प्रिय की मृदु ध्वनि सुनकर
पहले कुछ मुसकाई मुड़कर
तिर्यक् दृग से
फ्फिर पुचकारो बैलों को उन
दे उन्हें निमंत्रण भी अकड़ो
औ’ मस्त चाल चलकर पहॅुचो
‘प्रेयसी’ गले लिपटो सुमधुर
पाओ प्रसाद उसके कर से
ऑंखों में डाल ऑंख उसकी.
भू भी प्रसन्न होगी असीम
नभ भी बरसाएगा पानी
फूटेंगी कवियों की वाणी
उमड़ेगी हवा दिशाओं से
सूरज की धूप ढलेगी मृदु
ताजगी मिलेगी तुझे, भरेगा उर्ज
और तुम बदल सकोगे
धुंध भरी तस्वीर देश की
जीर्ण-शीर्ण.
मेरे किसान, मेरे प्रवीण!
                            20.6.66

64. आते घिर घिर
​​
आते घिर घिर
बादल फ्फिर फ्फिर
मृदु मंद हवा बहती झिर झिर.
झोही बदली
बायव्य दिशा में
वर्षा का संदेश
पिघले हैं करुणेश.
​​
टिप टिप
टप टप
झम झमर झमर
लो फटा मेघ उन्मुक्त हृदय
पट गई भूमि पानी पानी
प्यासी धरती की प्यास बुझी
गरमी में झुलसी जली कटी.
​​
पकड़ा पानी ने जोर
घहरने लगे जलद घनघोर
दामिनी तड़क उठी कर रोर
हवा गतिमान
क्रुद्ध तूफान-
समो लेगी क्या भू को अदय
युवापन में अपने क्रोधांध
ठहर
गति में अंधी नादान
पलक भर का है तू मेहमान
सहस्त्रों वर्षों की यह भूमि
तपी आतप ओलों में बहुत
तुम्हारी भी सह लेगी चोट
रहेगी पुनः वही की वही
प्रसन्न अपने में खोई मग्न.
​​
65. आभास
​​
सुबह की
द्रुतिमय सुनहरी
ज्योति की निखरी विभा में
एक मुदु
मिलता सुखद आभास
मंगल चेतना का
शांतिमय
त्वर थिरकता
त्विषि उर्मियों पर
हर्ष से उन्मद
हृदय का पद्म खुल पड़ता
मधुर मिलता प्रतनु संकेत
जीवन सृष्टि के संविद क्षणों का
भूति ऋत आध्यात्म से संतुष्ट
पर धुँधला धुँआ सा
बोध कुछ होता नहीं स्पष्ट
मन बेचैन होता
अद्यतन अनुभूतियों से
चेतना संविद
पुनः भी असंतुष्ट
ज्योति के सम सरल पथ की खोज में
मैं लगा लाखों घुटन कुंठा
कुढ़न के बाद भी
लेकर अगम विश्वास
प्रभु की ज्योति में
पीयूष बरसेगा धरित्री पर यहाँ
दूध की नदियाँ बहेंगी
आत्मा का मधु मिलेगा
मैं बनाऊँगा भुवन के
काव्य से विज्ञान से
रस चूसकर
भूमि को चिर शांति का
आश्रय मिलेगा.
                     26.7.66
​​
66. भू प्रेम
​​
भूलूँ मैं
कैसे इस भू को
मिट्टी में जिसकी स्वर्णिम
है रक्त विरल
मेरे उर का
रंजित
व्यंजित
संस्कृति मेरी.
​​
प्राणों की मधुर व्यक्ति द्रुति-द्रू;
जिसके कण कण में मौन मुखर
मेरे उर की अभिव्यक्ति सरल
जीवन की सृति
संविद वह तो.
​​
छोड़ूँ कैसे
ऐसी भू को
मिट्टी से जिसकी मैं निर्मित
हूँ पला अंक में फला फुला
संस्कारों में उत्थान पतन
वेदना ग्रथित जिनका सुख दुख
यदि आज पडी संकटापन्न
दिग्भ्रमित, मूढ़ उसके चिंतन
जो भटक गई पथ्ी में चलकर
कैसे छोड़ूँ उसको प्रियवर.
​​
कर्तव्य परम
उसके प्रति जो
मेरा होता
कैसे होऊँ मैं विमुख
चंद अपने सुख का अर्थी बनकर
आखिर मैं हूँ मानव माँ वह.
​​
सदियों से वह
आतप में तप
आई युग तक अब्दों चलकर
यह युग भौतिक साधन का युग
पश्चिमी जगत उड़ता शशि तक
तन से समृद्ध पर शांतिहीन
अपनी यह भू
पिसती विपन्नता के क्षण में
ऋत के आदशों को पाले
सामर्थ्यहीन ले कर्णधार
विक्षिप्त स्वयं, कवि के स्वर भी
कुंठित करते उसको अतिशय
उसके दर्दों को ही उभाड़.
​​
कैसे छोड़ूँ ऐसी सृत्वरि
हे देववर्त्म दिक् भी सुन लो
डूबूँगा मैं अंतःपुर में
निकलूँगा सीपी कण बटोर
चुनकर मोती बिखरा दूँगा
डालूँगा प्राण मधुर उसमें
वाणी को प्रांजलता दूँगा
चूमेगी शांति चरण रज को
लेकिन फ्फिर भी मैं तो अलिप्त
माँ की सेवा ही शिरोधार्य
यह मातृभूमि महिमामंडित.
                                   27.7.66
​​
67. निवेदन
​​
बरस सरस जलधार गगन तू
विनती है कर जोर सजन तू .
​​
सूख गई धरती फसलों की
नियति नटी ने खेली होली
परती पड़ गए खेत सभी
पेटों की आग बढ़ी उन्मन तू.
​​
सावन बीता भादो बीता
अंबर रह गया रीता रीता
छिटक कहीं से बादल के कन
एक नहीं छाए, बंधन तू ?
कूँए से पानी ले ले कर
साजन ने बोया कुछ कर धर
सूख गए ऑंखे ले अंकुर
पपड़ी में दबकर, निःस्वन तू.
​​
जोत रहे खेतों में हल ले
साहस से फ्फिर भी वे भोले
बैलों को पैना से पीटे
ऑंखों में ऑंसू हर छन धू.
​​
फार छिटक धरती के हल के
चीर दिए हैं खुर बैलों के
सूख गई जमते ही अगहनी
आगे को रुधिरों में सृजन तू.
​​
ऑंख लगी अपलक ऊपर ही
आशा की किरनें हैं अँटकीं
ऑंचल में तू दूध बरस दे
धरती के जन मन रंजन तू.
                              10.10.66
​​68.  निराला के प्रति
​​
प्रखर,
नीरव,
मंद्र-ध्वनि वेष्टित
अमर,
रवि-सा ज्वलित
व्यक्तित्व था वह.
​​
व्योम
उसका हृदय
प्राणों में मुखर
ब्रह्मांड
सासों में पवन
दिक्-प्रांत
की निस्तब्धि,शृंग-समाधि
वह
इस भूमि का
जाज्ज्वल्य रवि था.
​​
ज्योति
पुंजीभूत
स्वर्णिल स्वप्न थे
उर्मिल
पलक के क्रोड़ में,
मन में धड़ें
उपजी
हृदय की भूमि पर
द्रुति में सनी
जिसकी जड़ें
ध्रुव
सरल
संविद
ओज था वह.
​​
गरल
पीकर
अमृत देना
धर्म था
उसका
मरण के सामने
अविजित
अमर
निर्घोष था.
​​
वह्नि
जलती शक्ति की
तेजस्विता थी भाल में
थर्रा उठे
दिक्-प्रांत
भू ,नभ
गर्जना है काव्य में
उसके प्रखर
सूर्य भी
ले शक्ति
भू के तेज से.
ऑंख के
तिल में दिखे
जिसके गगन
वह गहन
सृष्टि-संश्लिष्ट मन था.
                               12.10.66

69. आग लग जाती
​​
दुख गईं ऑंखें
सरल यह वाक्य पढ़ते-
‘‘ आदमी टूटा,
कुढ़न, कुंठा ग्रसित है’’.
भर गया
मन
विकृत रूपों से
भिनक जाता,
खपाते
दर्द सिर में हो गया मस्तिष्क,
इस कुढ़ते नएपन में.
पक गए
ये कान मेरे
ध्वनि-
‘तड़पती ध्वनि’ (?)
विकल, बेचैन सुनकर.
सिकुड़ जाती
नाक भौं
साहित्य पढ़कर
स्वस्थ मन भी
टूट
निःस्वन निःस्व होता.
​​
आग लग जाती
बचे सामर्थ्य में भी.
                       13.10.66
​​
70. लहें कैसे
​​
दूर
क्षितिज से पार
अतल से
छिटक कर आती
प्रतनु
त्विषि की किरन
सूक्ष्म
चिंतन के परे
उर की पकड़ से दूर
बुद्धि के भव में
झलक सी चमक जाती
वस्तुवादी मन
लहें कैसे उसे
साधना से दूर
वह विज्ञानवादी है.
                  14.10.66
​​
71. संबल
​​
सुबह की बेला
सुनहरी
ढरकता पीयूष
रवि के ज्योति-उर से
रोक लेते
जलद
इस स्वर्गीय सुख को
भूमि रह जाती
तरस कर
पेट में नव
युगपुरुष की
साध लेकर.
​​
टूट जाता मन
उमड़ती स्वप्न सी
इस भावना को
चोट लगती
हो चुकी है क्षीण
नैतिक शक्ति भी
जो
टूटते मन का
संबल बने.
                  24.12.66

72. सूखे का संदर्भ
​​
देहात,
यह देहात है;
​​
कहते सुधी चिंतक
यहीं
बसता हमारी
भारती का प्राण
लेकिन
कह नहीं सकते
‘चलो देहात
उनको
प्राण देना है.
कृषक ?
ये हैं कृषक
ये ग्रामीण
जिसके सूखते तन पर
फटे कपड़े
मटीले चीथड़े हैं
पाँव में
सूखी फटी बेवाई
ओठों पर
चिटखती पपड़ियाँ,
पेट सटकर
पीठ से प्रतिबद्ध
सूखी रीढ़
सूखी सी हथेली में
खरोंचों की उमड़ती बाढ़
फ्फिर भी अन्नदाता ये.
​​
‘सुनें’
कहती है व्यथित सरकार
संकट की घड़ी से
गुजरता है देश
लें सब
धीरता से काम,
सुरक्षित
आप ही के हाथ में
है देश.
​​
पड़ा सूखा
-प्रकृति का कोप-
प्रतिदिन की तड़प
इन प्राणियों पर,
झेलते
सतत दुख को,
इसे भी झेलना है.
​​
शांत
पर बेचैन
फ्फिर भी पिल पड़े हैं
धूल से दुहकर
अमृत सा दूध लेने
फावड़े चलते
विफल संतोष लेकर
कोड़ते
बज्जड़ बनी निज भूमि को.
दूर
उस खपरैल में
इतनी इकट्ठी भीड़
कुछ ज्यों बँट रहा है;
हाँ,
यही है दीनता के बंधु
की किरपा अकिंचन
जयप्रकाशी छाँह में
कुछ मिल रहा.
पंक्ति में
पीछे खड़ी
काली कलूटी
साँवलापन का तपस्वी रूप
झोंटे में
बने हैं घोंसले
ज्यों पक्षियों के
देह सूजी सी
-युवापन-
पैर भारी हैं,
गोद में भी
एक छोटा जीव
स्तन चूसता सा
काट उठता
दूध जब मिलता नहीं.
​​
जिक्र
मैं करता जभी
बूढ़ों बड़ों से
देह जिनकी हो गई पगजा
तपी,
फूट पड़ते
एक ठंढी साँस ले-
‘‘ आजतक, बेटा !
नहीं ऐसा हुआ
आग जैसी लग गई हो
खेत में.
लड़ रहे हैं
देख लो
फ्फिर भी जुटे,
खींचकर पानी
कुँआ से कूप से
आदमी
आखीर जबतक जान है
हार मानेगा नहीं
लड़ते हुए
कर सकेगा जो
जहाँ तक हो सके
अंत में
मर्जी
उसी भगवान की’’.
​​
नवयुवक कहते
बड़े ही क्रुद्ध हो-
‘‘भ्रष्ट नेता ही
स्वयं हैं
मात्र जिम्मेदार
जो ठेका लिए हैं
देश के निर्माण का
रहते कुटीरों में
जो अंदर स्वर्ग से बढ़कर
इकहरा बदन भी
दुहरा हुआ
लोहू प्रजा का चूसकर’’.
​​
‘‘उलट दो सरकार को
दिल्ली चलो
घेर लो संसद
तड़पती पार्टियाँ
एक करके एक
इस सरकार ने
गढ़ रखी हैं समस्याएँ,
तूल दी,
भूख ही दी भूख
उसने आजतक
सत्य है जबकि
किसी दल ने स्वयं
इस समस्या के लिए
कितना किया
सिर्फ्फ गाली के अलावा
दी हमें है और क्या
इस टूटते मन को
हमेशा चोट दी.
​​
सोचते
इतने बड़े संदर्भ में
मस्तिष्क जिससे तंग है
आ रहा था एकदिन
मैं टहल कर
भग्न चिंतनक्रम हुआ,
सहसा सुना
गा रही सब
झंझटों से दूर
मिट्टी ओढ़कर
किटकिटाती दाँत
अनगढ़ मूरतें-
‘‘रामजी रामजी घाम करऽ
सुगवा सलाम करे
तोहरे बालकवा के
जड़वत हीेईऽ
कंडा फ्फूँक फ्फूँक
तापत होई’’.
                        25.12.66
​​73. स्वर्ण
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स्वर्ण
जिसपर टूटती दुनिया;
स्वर्ण
जिसके हेतु बहती
रूप की धारा
अहर्निश
डाल देती है मुझे भी
जाल
दुविधा में
वरूँ मैं कौन सा पथ ?
सींच दूँ
अंतर में
उसी के रंग में
याकि ठुकरा दूँ
घृणा के मोड़ लूँ
पाक होने की
सुखद उद्घोषणा कर.
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बोल बाला है
इसी का विश्व में
आज;
किंतु कुछ टूटे हुए
स्वर
पूर्व में
भभक से पड़ते
झनक कर क्रांध में
आत्मा का ही
प्रबल अस्तित्व
नर में श्रेष्ठ है
भूति भौतिकवादियों का
स्वर्ग है
मात्र पा सकता मनुज
जिसके क्षणिक
भोग का सुख स्वर्ण
सबसे छीन लेता
शांति, मन का
चूसकर.
26.12.66
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74. विस्मृति
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भूल गई अपनी ही निधि में
बिसर गई पहली सुधि सब तू
सिमट गई प्रिय की सन्निधि में ।
भूल गई तू ज्योति किसी की
मधुर किसी उर में सरसी थी
परस गई मन को किरनों सी
कोमल सरस मनोहर ऋधि में ।
खो दी तूने निज को प्रिय में
कमल सरिस निज पंखुरियों में
लेकिन देख निठुर मत बन तू
मृदु मृदु खुलो रिसो उर निधि में ।
तूने सहज किसी को वर ली
मैंने यह पुलकन हँस के ली
क्षोभ नहीं व्यापा मन मेरे
तू अब तो झलकी संस्कृति में ।
हे मेरे संविद मन की छवि !
प्रिय की रति प्रेयसि तू सुंदरि!
कोई न हीं गिला पर, केवल
मैं प्यासा रस का वारिधि में ।
                           18.5.67
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75. मर्म की पकड़
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माँ तूने दी देह किंतु
मन की वह शक्ति कहाँ पर रख दी ?
जो ऋषि मुनियों का संबल थी
उर मन के संकट का बल थी
इस कुंठित अवसाद पहर में
सूने मन में त्विषि ढरनी थी ।
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माँ मन क्यों कुंठित होता है
पौरुष क्या तब चुक जाता है
टूट चुके हैं मन जनज न के
टूट चुकी द्युति भी क्या उनकी?
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छीज चले सूखे तनम न धन
फ्फिर भी चलता है जन-जीवन
तिल भी अहम नहीं खोता वह
बरती है तन में झिन झिन सी ।
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मैं संविद मन की वाणी हूँ
युग का एक सजल प्राणी हूँ
टूटन से छा लेती मन को
घुटित घुटन बनती दर्शन सी ।
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मुझमें एक दृष्टि है अपनी
जन-जीवनी-शक्ति है लेनी
पा पाता हूँ नहीं मर्म वह
उसकी पकड़ कहाँ पर धर दी ?
                                  29.6.67
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76. जिज्ञासा
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फूल एक प्रसन्न
अझ़हुल का
खिला है पास के उद्यान में
कितना मनोहर
मुग्ध अपने में
मनों को मुग्ध करता
सहज,
श्री सौंदर्य का मोहक
अरुण अग्निल शिखा सा
ज्योति सा
मन के नभों में फूटता है.
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फूटती किरणें
मधुर छन खिड़कियों से
आ रही खिंचकर
मेरे सौंदर्य-मन तक
डूबती मन के अमिय सौंदर्य में
स्वयं मन ही बन गया है
एक मधुमय फूल
फूलों की तरल
सुकुमारता ले.
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कल
यही था फूल
ऐसा ही खिला
मौसम भी यही था
धूप भी थी स्वर्ण
ऐसी ही खिली
पर न जाने क्यों
उभरती टीस सी थी
एक उर में
शूल सा था लग रहा
यह फूल
तीखा वाण अग्निल
मर्म में ज्यों चुभ रहा
बोझ सा
महसूस होता था हृदय पर.
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किंतु ऐसा क्यों
सजल यह फूल ही था क्या
लिए जो वेदना था
भर गया है आज
मोहक मधुरता से ?
याकि यह
मेरे हृदय की ही कसकती टीस ?
स्वर्गिक रम्यता
जो देखता हूँ मैं-
परिस्थिति भिन्नता से
फूल में इस ?
                        19.7.67
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77. पुलकित विहान
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तन्वंगी
मुदु
ज्योतिर्मय.
फूट रही किरणें
स्वर्णिल
नम
अमर शांति का
रस वर्षण
अनुभूति-मधुर
प्रेरणा-प्रचुर
स्वप्निल आवर्तों में
सजकर.
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दृग में ढंढी
द्रुति को उँड़ेल
पुलकित सुंदर
अरुणिम विहान
पर्णिल
निसर्ग की छवियों में
फूटा
फूलों की कलियों में
जीवंत सुखद
मधुरिम निर्मल.
वह, अहा
अतल का ज्योति पिंड
उर्मिल क्षिति के
द्रू-अधरों में
मुसकरा रही ज्यों प्रकृति
देख धरती की श्री
साँवली सजल
मृदु ओस धुली.
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यह प्रकृति
किया जिसका
मनुजों ने चीर फाड़
चिर अवशोषण
फ्फिर भी वह है
कितनी प्रसन्न
कितनी सहिष्णु
संपत्ति लुटाती ही अपनी.
है
दिन प्रतिदिन
बाँटती नित्य पात्रानुसार
अनुभूति, अमृत के घूँट
और
वही यह
चेतन-
कितना चिंतित
कितना अशांत
इस पृथ्वी पर
जर्जर
मानव की आत्मशक्ति.
                          26.11.67
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78. फूटा विहान
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फूटी किरनें
फूटा विहान.
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फूटी
स्वर्णिम चेतना
प्रकृति के अंतर से;
फूटा जीवन
आवरण ओड़ तम का
चहके पक्षी
बाँसों के झुरमुट में
पीकर
फ्फीकी रश्मियाँ
ज्योति-जय की
मधुरिम
उत्फुल्ल मुग्ध अंतर से.
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सर में
तन गए
पद्म
जीवन का राग मँहक;
हल्की मीठी थपकी की
स्वप्न-मूर्च्छना में
सिमटी सहमी पंखुरियों ने
अनुभूत किया
प्रभ एक
स्वर्ण चेतन स्पर्श
फूटा
उर का संगीत
ज्योति की रेखा में.
                           4.12.67 
http://www.rachanakar.org/2019/04/blog-post_10.html     रचनाकार में प्रकाशित ; 10-03-2019