Wednesday 31 May 2017

समकालीन हिंदी कविता में बारहमासा-3 अंतिम कड़ी


 रचनाकार में प्रकाशित  29-05-2017

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
                                                                      3
अगहन माह से जाड़े का आरंभ और पूस माह तक इसका प्रसार माना जाता है – “अगहन पूस हेमंत ही जान.” अगहन में हल्की ठंढक पड़ने लगती है. छाँह में बैठने पर देह में कँपकँपी-सी लगने लगती है. लोग घरों से निकलकर धूप लोर्हने लगते हैं. औरतें गलियों में खाट खींच धूप-छाहीं में बैठ जाती हैं और स्वेटर आदि बुनने लगती हैं. कवयित्री ने अगहन के ऐसे ही एक क्षण का बहुत सुंदर चित्रण किया है-
भुइले बहुत मगन हैं। ....
गलियों में खाट खींचकर
औरतें धूप मुनने लगी हैं
पूरी यह धरती
उनकी ही काढ़ी हुई चादर—
ये देखो कैसे महीन बेल-बूटे.                (अगहन)
घरों के पास के पेड़ों की झाँझर पत्तियों से छन कर धरती पर आते घूप के टुकड़े किसी चादर पर काढ़े गए बेल-बूटों की तरह दमक रहे है. इन औरतों के लिए एक साझा चूल्हा है. अगहन. ये एक साथ बैठी हैं, चूल्हे पर चढ़ी हुई है केतली, कुल्हड़ में चाय चल रही है. प्रत्येक का जीवन मानो सोंधा-सा कुल्हड़ हो गया है.
‘पूस‘ शीर्षक में लोगों को इस माह की ठिठुराती ठिठुरन कवयित्री की अपनी अनुभूत नहीं है, यह ठिठुरन प्रेमचंद “पूस की रात” कहानी के किसान की अनुभूत है और कोहरा तो चेखव की घोड़ागाड़ी में जुता हुआ है.
लोकप्रचलित कहावत है- “माघ फागुन शिशिर बखान”. माघ माह में जाड़ा उतरने लगता है. पेड़ों से पत्ते झड़ने शुरू हो जाते हैं. लोग कपड़ों के प्रति लापरवाह हो जाते हैं. पूस की अपेक्षा उनके शरीर पर कपड़े कम होने लगते हैं. फलतः ठिठुरन सताने लगती है. लोक में ठिठुरन से बचने के लिए बच्चे-बड़े हल्के कपडे पहनते हैं और जो अभाव में होते हैं वे घेंकुरी मारकर (घुटनों में माथा डाल) अपनी ठिठुरन भगाते हैं. कवयित्री का यह चित्रण देखें-
‘जाड़ा रइया
तोरा डरे घेंकुरी लगइया’
यह डर माघ के कड़क जाड़े का है. कवयित्री की दृष्टि में यह डर एक पवित्र घाव है. जिसमें सारा जहान घेंकुरी लगाया है. घाव में घेंकुरी ? माघ की ठिठुरन के डर में किसानों को जो अनुभूति होती है वह ‘घाव’ से व्यंजित नहीं होती.
फागुन महीने के लिए एक लोक व्यंजना है- “भर फागुन बुढ़ऊ देवर लागे, भर फागुन”. गाँवों में जो फगुआ गाया जाता है, यह उसका एक स्वर भी है. कवयित्री अपने ‘फागुन’ गीत को फगुआ-गान के इस टुकड़े से आरंभ करती हैं. वह अनुभव करती हैं कि मानो फागुन ही कटहली चंपा (एक सुगंधित फूल) के रूप में लोक-रगों में फूल रहा है. इस चंपा पुष्प की सुगंध सर्पों को इतनी पसंद है कि जहाँ यह फूल होता है वहाँ इसकी डालों से ये लिपटे रहते हैं. इसी लिए इस फूल का एक नाम नाग चंपा भी है. फागुन का महीना जब भी आता है लोग इन साँपों की तरह ही फागुनी भावों से लिपट जाते हैं. इस फागुनी रोमल संचार को यह प्रकृति भी खुला खेलती हैं-
बौरा गई है गिलहरी-
खीरी के पेड़ों पर बैठी गौरैया
एक पंख उठाए हुए
लेती है अँगड़ाई मीठी!
यह फागुन महीना ही ऐसा है कि बिना बात के ही उद्गारों के सोते फूट पड़ते हैं, आकाश की तरह साफ
मन से. फिर फागुन के रस से भरे कवयित्री के मन में एक विचार उड़ आता है चील-चाल से.-
एक विचार उड़ रहा है
चील-चाल से।
चील आकाश में उड़ती तो है मंद चाल से लेकिन उसका ध्यान अपने शिकार पर टिका रहता है. अवसर देखते ही वह शिकार पर झपट्टा मार उसे अपनी चोंच में दबोच लेती है. शिकार को बचने का भी अवसर नहीं मिलता. फागुन के महीने में भी कुछ लोक-चीलें मँडराती रहती हैं. कब झपट्टा मार दें कहा नहीं जा सकता.
फागुन के कुछ अनुभव कवयित्री ने ‘फागुनी बयार’ में दिया है. फागुन के महीने में कवयित्री किसी झील के एक किनारे बैठी हैं. अचानक कँपकँपी बढ़ाती फागुनी हवा उनसे टकराती है. उन्हें लगता है वह हहरकर (.यहाँ हहरकर विशेषण सटीक नहीं लगता) उनसे कहती है - देखो उस किनारे झील के पानी में पाँव डाले कोई बाँसुरी बजा रहा है. स्वर में कोई कोलाहल नहीं है. उसमें मंद समीरण की ध्वनि है जिसके प्रभाव में झील के पानी की सतह पर छोटी छोटी शांत बीचियाँ उभर-मिट रहीं हैं. मानो झील के कानों में गोरख (नाथपंथ के सद्गुरु) की बानी गूँज रही हो- हबकि न बोलिब, थपकि न चलिब, धीरे रखिब पाँव. लेकिन वह इसे आचरण में उतार नहीं पाती. वह अपने समंदरपन (सबकुछ हो रहने) से थक चुकी है. एक अगस्त्य प्यास (जो उसकी सारी बेचैनियों को पी जाए) की बाट जोहती उसकी लहरें उसी में डूब रही हैं. क्या गजब है, कहीं शांति की भी बाट जोही जाती है. यह तो अपने प्रयासो के प्रति जागरुक होने से बंचित रहने की चतुराई भी हो सकती है. नयी कविता के प्रयास कुछ ऐसे ही प्रतीत होते हैं.
प्रकृति की गति का क्रम भी बहुत अद्भुत और रोचक है. जेठ की गर्मी से राहत के लिए वह आषाढ़ माह में आकाश में बादलों के टुकड़े फैला देती है, कभी सूरज पर आवरण डाल देते हैं तो कभी चाँद को घेर कर बैठक करने लगते हैं. ये बादल सावन में आकाश में और उँचा उठ ढंढा होकर बारिश की झड़ी लगा देते हैं, भादो में उसे घटाटोप आच्छादित कर धारासार बरस जाते हैं. अगहन पूस में बारिशोपरांत जाड़ा तो आएगा ही क्योंकि पर्यावरण की हवा में जल-बूंदों की नमी धीरे धीरे ही जाएगी, इतना धीरे कि माघ फागुन में वातावरण को सम होने का अवसर मिल सके, प्रकृति अपने पुरानेपन को झाड़े और नए को उगने का अवसर दे.
चैत माह में इस नवांकुरण की गति ऐसी होती है कि प्रकृति का कोई भी अंग इससे अछूता नहीं रहता. खेत, बाग, जेल, जन सभी एक रंग (नया होने के) में रंग जाते हैं, मानो पूरे कुँए में ही भंग पड़ गई हो, कोई किसी की नहीं सुनता. इस धुन मे कुछ युवा जेल में कैदी हो गए हैं. कवयित्री के अनुसार बसंत ने गवाही दी होती अर्थात यह आकलन किया गया होता कि इनपर बसंतागम का प्रभाव है तो ऐसा नहीं होता. प्रकृति जानती है ये बेकसूर हैं. इसीलिए पीपल के टूसे के रूप में वह जेल की दीवार फोड़कर अंदर घुस गई है. पत्ते सिर हिलाकर उनके निरपराध होने की खबर दे रहे हैं. कोयल जन्मों से उनकी फरियाद में कुहुक रही है. हालाँकि कोयल इतनी चूजी नहीं होती. चूजी होना तो मनुष्य का स्वभाव है.
“चैत : एक अनंत-सा प्रसव” गीत में कवयित्री ने प्रकृति के प्रसव-रहस्य की ओर संकेत किया है. बसंत ऋतु में प्रकृति में जो भी हरियाली और नयापन दीख पड़ता है वह उसके नव-प्रसव का ही परिणाम है. प्रसव के पूर्व कारकों पर बसंत छा जाता है. कवयित्री पर भी यह बसंत छाया है. उनकी रातें नहीं कटतीं, उसी तरह जैसे हँसुए से पकठोसा कटहल नहीं कटता. अब यह उपमा बड़ी विचित्र है. पकठोसा कटहल के काटने में काटकर अलग करने का भाव है और रात के कटने में रात के बीतने का भाव है. इस कटने और बीतने में क्या साधर्म्य है. खैर, बसंती हवा बह रही है, फिजाँ में होली के जले सम्हत की गंध है. कल होली है शायद, वह लोगों को होली की शुभकामनाएँ देती हैं-
ह्वट्सएप पर छिड़क देती हूँ शुभकामनाएँ
जैसे कबूतरों को दाने।                                ( चैत : एक अनंत-सा प्रसव)
समय ही ऐसा है. अब शुभकामाएँ भी दी नहीं जातीं, छिड़क दी जाती हैं जैसे कबूतरों को दाने दिए जाते हों, वे कहीं पड़ें जिसे चुगना हो चुग ले, न चुगना हो न चुगे. फिर वह कुछ चित्रण में लग जाती हैं. इस समय आकाश चिनके हुए आईने की तरह है, उनके बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उनका आँचल अब उनके लिए पूरा नहीं पड़ता. बोतल तिरछी कर पानी पीते, पसीना पोंछते कहीं भी सो जाते हैं. यह गजब का सिलसिला है-
सो जाते हैं फिर से गुड़ी मुड़ी होके।
है यह अजब सिलसिला।
घुटनों के बीच गाड़कर अपना पूरा वजूद
अपने ही गर्भ में गुड़प होना
और जन्म देना खुद को दोबारा हर रोज।      (चैत : एक अनंत-सा प्रसव)
घुटनों में अपना वजूद गाड़, जैसे वे गर्भस्थ हो रहे हों और फिर वहीं से एक नए वजूद का जन्म लेना, यह एक सिलसिला चल निकलता है वजूद के अनंत प्रसव का.
बैसाख, बसंत का उत्तर पक्ष. सूरज की तपन बढ़ने लगती है. सूरज की बढ़ती तपन के साथ जायसी की नागमती की विरह पीड़ा में भी तपन बढ़ती जाती थी. किंतु कवयित्री ने अपने इस ‘बैसाख’ कविता में एक ऐसा पात्र चुना है जिसे सूरज की तपन पसंद है. इस तपन से उन्हें प्रसन्नता होती है. वह है बैसाखनंदन अर्थात गधा या गधा जैसे स्वभाव वाले लोग जिनका काम ही है जीवन भर गठरी ढोना.
बैसाखनंदन ये
लादे गठरियाँ
लो फिर चले घाट पर-                   (बैसाख)
घाट पर याने जीवन के घाट पर. गठरी ढोते हुए भी उनके कान चौकस रहते हैं. वे हवा में तैरती कनबतियों को चौकस (कान उठाकर) होकर सुनते हैं. जमाने को देह की भूख (रसावेग) की आँखों से देखते दम साधे आगे बढ़ते जाते हैं-
भूख देह की आँख है।.....
रसावेग में इनकी
नस-नस फड़कती-सी है!
पर ये रसावेग साधे हुए
बढ़ रहे हैं घाट तक
मौन योगी-से। (बैसाख)
अपने एक ब्लॉगपोस्ट “शब्दों का सफर” में वाडनेरकर ने लिखा है कि बैसाख माह ही गधी का प्रसव काल है.
जेठ माह, गर्मी का पूर्व पक्ष है और आषाढ़ उत्तर पक्ष- “ग्रीषम जेठ आषाढ़ बखान.” जेठ माह में कड़ाके की धूप होती है. दिन में लू चलने लगती है. छाँह पाने के लिए लोग परीशान हो उठते हैं. जेठ की तपन को कवयित्री ने चार शीर्षकों में अनुभव किया है- ‘जेठ-1’, ‘जेठ की दुपहरिया’, जेठी ‘पूर्णिमा’ और ‘दुपहरिया जेठ की’. जेठी पूर्णिमा को छोड़ शेष तीन शीर्षकों में जेठ की दुपहरिया का ही चित्रण है.
लेकिन ‘जेठ-1’ की दुपहरी में वह झुलसाती तपन नहीं है जिसके लिए जेठ का महीना जाना जाता है. इसमें तो किसी बरगद की छाँव में खड़ी/बैठी कवयित्री को उस छाँव में बिछे धूप के टुकड़े ऐसे लगते हैं जैसे इस दुपहरिया ने धूल की चटाई पर फैंसी बिंदिया-चूड़ियाँ सजा दी हो एक मनिहारिन की तरह-
जेठ की यह दुपहरी
बरगद की छाँह-तले.....
बिंदिया-चूड़ियाँ फैंसी
सजा रही हों देखो-
धूल की चटाई पर
मनिहारिन-सी                              (जेठ-1)
उन्हें लगता है यह दुपहरी बरगद की चानी (शिखर) पर धूप की थाप दे रही है और हवा अपनी उँगलियों से उसकी जटाएँ सुलझा रही है. वह थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई है कदाचित धूप की तपन से. इस हवा में आराम तो नहीं है पर जीव जीव का साथ कैसे छोड़े. थोड़ा ही आराम दे सके तो दे ले.
‘जेठ की दुपहरिया में’ गर्मी की सताती प्यास को बुझाने के लिए रखा प्याऊ का घड़ा / कंठ तक लबालब भरा घड़ा / थोड़ा-सा मता गया है , क्योंकि इसमें जेठ की धधकती हुई लू में / उड़ती हुई जब गदराए आमों की गंध प्रेम-पत्र की तरह आकर घुल गई है. जेठ की दुपहरी को झेलने के लिए कुछ उपाय तो प्रकृति स्वयं करती है और कुछ सहयोग जीव का भी होता है. दुपहरी की यह धूप कई तरह से सताती है. बाहर निकलो देह को जलाती है और घर के अंदर रहो तो पढ़ते पढ़ते विद्यार्थी पुस्तकों पर ही नींद में झूलते हुए लुढ़क जाते है.
जेठ के महीने में कभी कभी बड़े बड़े भयंकर बवंडर उठते हैं, जो एकाएक उत्पन्न होते हैं और जो भी उसकी चपेट में आ गया उसे चोटिल कर आगे बढ़ जाते हैं. ‘जेठी पूर्णिमा’ में कवयित्री ने एक ऐसे ही बवंडर का चित्र प्रस्तुत किया है. यह बवंडर उन्हें उस सनकी बाप की तरह लगा जो बच्चे को एकबारगी पीट देता है जिससे बच्चा बुरी तरह डर जता है, इस बवंडर की चोट से गड्ढों में फँसा पानी उस डरे बच्चे के हृदय-सा हकर हकर (पानी के छलकने की ध्वनि) करने लगता है. इस बच्चे के लिए जेठ-पूर्णिमा का चाँद ताबीज का काम देता है. ताबीज टोन टोटका के अलावे डर कम करने के लिए भी बाँधे जाते हैं. कवयित्री सोचती हैं कि यही बच्चा बडा होकर बडे बडे सपने देखेगा. देखेगा कि आकाश में एक बग्घी उड़ रही है जिसमें रेस के हारे हुए घोड़े जुते हुए हैं. पूर्णिमा का इकलौता चाँद उसे उस बग्घी का एक छिटका हुआ पहिया सा लगेगा. इन पंक्तियों में कवयित्री चुग के यथार्थ को अभिव्यक्त कर रही हैं. वह चिंतित हैं कि जो छिटके हुओं (जीवन से) के संताप को झेला होगा वही छिटके पहिए को बग्घी में लगा सकेगा. लेकिन समाज से छिटके हुओं को समाज से जोड़ने की कला क्या इन्हें आती है-
क्या तुमको आता है पहिया लगाना?
क्या तुमने झेले हैं संताप
छिटके हुओं के?                      (जेठी पूर्णमा)
किसी भी समाज की एक अपनी जमीन होती है. क्या किसी खास समाज-रचना का आग्रह लेकर उस जमीन से छिटकी इकाई उससे जोड़ी जा सकती है.
‘दुपहरिया जेठ की’ में जेठ की दुपहरी कवयित्री को उनके अपने बचपन में पढ़े जासूसी उपन्यास ‘ट्रेजर आइलैंड‘ की तरह लगती है-
आज तलक
लू के भभूखों से पटी पड़ी
दुपहरिया यह जेठ की
फड़फड़ाया करती है मेरे भीतर
जासूसी उपन्यास-सी।
अंत में थोड़े से शब्द अपने इस लेख के संबंध में—
अनामिका के इस गीत-गुच्छ की ओर मेरा ध्यान उनके एक सर्वथा नए प्रयास के लिए गया. इसके अध्ययन में मेरा ध्येय ‘बारामासा’ शीर्षक से दिए इस गीत-गुच्छ की पूर्ववर्ती बारहमासे से तुलना करना नहीं था. प्रसंगवश पूर्ववर्ती बारहमासे और इस बारामासे की केंद्रीयता दिखाने का प्रयास करना पड़ा. पूर्ववर्ती बारहमासा की अवधारणा से इस बारामासा ( मूलत: बारहमासा ही) की अवधारणा एकदम भिन्न है. यह मुझे षड्ऋतु वर्णन कोटि की रचना लगी. मेरे हिसाब से इसका शीर्षक ऋतु-विलास होना चाहिए था.
यह लेख समीक्षा नहीं है, अपितु एक सार-अध्ययन है. सार-अध्ययन इसलिए क्योंकि इसमें आज के परिप्रेक्ष्य के प्रतिबिम्ब आपको नहीं मिलेंगे. किंतु इसमें कविता-गुच्छ की कविताओं के मर्मों के उद्घाटन का पूरा प्रयास किया गया है. आम समीक्षाएँ जो देखने में आती हैं उनमें न तो विषय ही स्पष्ट हो पाता है न इसमें कविताओं के समझने का प्रयास दीख पड़ता है. इनमें समीक्षक कवि और कविता के मर्मोद्घाटन की अपेक्षा अपना ही उद्घाटन करते अधिक दीखते हैं.
इस लेख में किसी भी वादी समीक्षा के प्रति मेरा झुकाव नहीं है. इन वादी समीक्षाओं और आलोचनाओं ने हिंदी आनोचनाओं का बंटाढार ही किया है. हिंदी आलोचना का नया अस्तित्व गढ़ना अब आवश्यक हो गया है.
शेषनाथ प्र श्री
गोरखपुर

Tuesday 2 May 2017

समकालीन हिंदी कविता में बारहमासा-2



  शेषनाथ प्रसाद


                                                                  2
अनामिका का ‘बारामासा’ आषाढ़ माह से शुरू होता है.
‘बारामासा’ शब्द हिंदी की हरियाणवी बोली का है. इसका अर्थ होता है बिरह गान. ‘बारामासा’ शैली की ऐसी कविताओं के लिए अधिक प्रचलित शब्द है ‘बारहमासा’, जो हिंदी की अन्य बोलियों में प्रयुक्त हुआ है. ‘बारहमासों’ में कवि किसी विरहिणी की मनोभूमि में प्रवेश कर उसकी विरहानुभूतियों को शब्द देते रहे है, प्रकृति उनकी विरहानुभूतियों के उद्दीपन के रूप में प्रयुक्त होती रही है उनकी जीवमसंगिनी बन कर. किंतु इस ‘बारामासा’ में कवयित्री ने किसी विरहानुभूतिशीला की मनोभूमि में न प्रवेश कर स्वयं अपने अनुभवों को शब्द दिया है. प्रकृति इसमें कवयित्री की न सहचरी है न उनके भावों को उद्दीप्त करती है. यह उनके निकट की भी नहीं लगती.
उन्होंने ग्रीष्म ऋतु के आषाढ़ के गिरते पारे में प्रकृति को कभी दूर से देखा, उसके आंगन में रबी की बालियों से पक कर छूट गिरे अन्न-कणों की खुशबुओं और मिट्टी की टटा रही जिह्वा पर आषाढ़ की पहली सिहरती हुई गिरती बूँदों के आस्वाद को अपनी गठरी में समेट लिया. जब वह ऋतु-यात्रा-लेखन में प्रवृत हुईं तो वह गठरी भी उनके साथ थी. उस गठरी में उक्त के अतिरिक्त और भी बहुत सारी निधियाँ उन्होंने भर रखी हैं, जिसमें उनका अधीत भी है, और भी जाने क्या-क्या हैं, यह उनको भी नहीं मालूम. यह गठरी उन्होंने ढीली ढाली बाँध रखी है. इसे लेकर वह काल की पीठ पर लद गई हैं. इस “जिसकी (काल की) पीठ पर लदी” वाक्य-खंड से कवयित्री ने कौन सा बिंब खडा किया है समझ से परे है. हम तो यही जानते हैं कि जीवन काल में प्रवहमान रहता है. और काल में ही सबकुछ होता है. उसे सब का पता होता है. महाभारत सीरियल में इसका बहुत ही सार्थक प्रयोग हुआ है. लेकिन कवयित्री तो कहती हैं उनकी गठरी से उनकी निधियाँ कैसे गिर गईं यह काल भी नहीं जानता.
आखिर यह गठरी है कैसी. मेरे जाने यह गठरी उनकी स्मृति की गठरी है, चुस्त नहीं ढीली ढाली बँधी, कदाचित लापरवाही से. स्मृति से जब निधियों के गिरने के क्रम मे (अर्थात् भूलने के क्रम में)      जतन से संभाला गया उनका ऋतु-विलास गिरने अर्थात भूलने को होता है तो उसे वह सायास पूरे स्मृतिपटल पर फैला लेती हैं. और इसी ऋतु-विलास को वह शब्दों की काया देती हैं. इस काया में वह अपने बारह महीनों की अनुभव-यात्रा के अंकन के लिए अपनी भावयित्री प्रतिभा के साथ प्रस्तुत होती हैं. लेकिन लगता है इसके लिए उनकी पूर्व तैयारी नहीं है. गठरी (स्मृति) में बँधी निधियाँ जल्दी  में बाँधी गई हैं. इसीलिए स्मृति की गठरी में ढीला-ढालापन है. इन निधियों के रखने में कोई तरतीब नहीं है अतः वह बेडौल है और कवयित्री उसके बेडौलपन का दुख झेल रही हैं. यह दुख नहीं, इसे कष्ट कहना चाहिए,  बारहो महीने के मौसम पर लिखी गई कविताओं से इस दुख या कष्ट का क्या सरोकार है, कुछ स्पष्ट नहीं होता.
‘बारामासा’ शीर्षक से प्रस्तुत इस कविता-गुच्छ की पहली कविता आषाढ़-1 पूरे बारामासे की भूमिका-सी है. इसकी सुष्ठु पंक्तियों से संकेत मिलता है कि इस बारामासे की भावसंपत्ति पूर्व के बारहमासों से अलग होगी. इसमें हृदयावेगों के स्थान पर बौद्धिक आवेग की प्रमुखता रहेगी. उन्होंने अपनी स्मृति की गठरी से गिरते ऋतु-विलास को संभाल कर उसे एक नए ढंग से अधुनातन शब्दों और बिंबों से सजाकर प्रस्तुत किया है-
                ये जो नसों का जंजाल
                पसरा पड़ा है मेरे भीतर-
                दीमकों की बाँबियों-सा सिहरता है,
                जग जाती है गुदगुदी इसमें
                अव्यक्त बूँदों से लदी हुई
                   ये जो हवा चलती है ऐसे
                   आषाढ़ में.                       (आषाढ़-2)
इन पंक्तियों में कवयित्री प्रकृति के साथ हैं. इसमें गीष्म ऋतु के उपरांत वर्षागमन के पद-चाप की आहट अव्यक्त बूँदों से लदी हुई/ ये जो हवा को उन्होंने सुंदर शब्द संयोजन के साथ एक मनोहारी बिंब रच कर प्रस्तुत करने की कोशिश की है. किंतु इसका आस्वाद लेने के लिए इस बिंब के एकाध शब्द पर आँखें जब ठहरती हैं तो उनके अर्थ को गुन कर आँखों में किरकिरी पैदा हो जाती है. पाठक इस बिंब के ‘जंजाल’ शब्द पर ध्यान दें. जंजाल का अर्थ होता है- प्रपंच, उलझन, किसी समस्या में फँसना. इससे मुहावरा भी बना है, “जी का जंजाल.” अब कवयित्री के भीतर नसों का जाल पसरा है या जंजाल? नसों से होकर ही हमारा जीवन रक्त-गति में समूचे शरीर में प्रवहमान है. और इन्हें वे जंजाल से लगते हैं. आर्द्र हवाओं के नम-स्पर्श से यह नसों का उनका जाल दीमकों की बाँबियों-सा सिहरता है. दीमकों की बाँबियाँ तो किसी गहरी चोट या किसी धमक से ही सिहरती हैं. तो क्या कवयित्री के भीतर पसरे नसों के जाल को ये हवाएँ चोट पहुँचाती हैं? किंतु चोट से गुदगुदी तो नहीं उभरती. फिर उनके फेफड़ों में हवा के ये बलबुले (?) डुब डुब करते हुए उन्हें उनके बचपन की याद दिला देते हैं, जब वह पपीते के फोंके से साबुन के बुलबुले उड़ाती थीं (यह तो किसी भी मौसम का खेल है). कभी वह किन्हीं बरसाती हवावों में शहर के मुहाने पर स्थित भुतही कोठी में चली गई थीं जहाँ उन्हें कुछ अधलिखे प्रेमपत्र मिले थे जो बारिस के झोंकों से सिहर सिहर जाते थे. बारिश की प्रबलता का यहाँ सुंदर चित्रण है. भुतही कोठी में उन्मत्त बरसाती झोंकों से—
                ...चरमराते थे दरवाजे
                तो ढनढनाने-सा लगता था
                      वह अधखुला-सा दराज-
                अपनी ही मेज से आधा बहिष्कृत
                तिरछा होकर अटका,
                आधा लटका यों ही
                       अधर में कहीं।
                कुछ अधलिखे प्रेमपत्र
                धरे हुए थे उसमें सदियों से।              (आषाढ़-2)
इस प्रेमपत्र के बहाने कवयित्री उन विरहिणियों के प्रति कहीं अपनी सहानुभूति तो नहीं प्रकट कर रहीं!
सावन भादो के महीने वर्षा ऋतु के लिए जाने जाते हैं. कवयित्री को सावन में सावन की पहली झड़ी से साक्षात होता है. वह बारिश में अपनी बच्ची के साथ छतरी लिए बाहर निकली हैं. हहाती हवा बह रही है. छतरी वश में नहीं आ रहीं. कंधे भींगने लगे हैं. हवा का बहाव इतना तीव्र है कि उनके, बच्ची के और बारिश के पाँव कहीं के कहीं पड़ रहे हैं (बारिश की धार कम-अधिक तिरछी हो जा रही है). उनके सामने ही फुटपाथ के पेड़ की डाली टूट गिरती है. वह पेड़ के दुख से दुखी होती है. पर कुछ बोलती नहीं, संसार के दैनिक व्यापार में सम्मिलित हो जाती हैं. सामने देखती हैं डाली की ओट लिए अंगीठियाँ सुगबुगा उठी हैं. भुट्टे सिंकने लगे हैं और सिंकने लगा है उनका अकेलापन.
                भुट्टों की लय में ही धीरे धीरे
                सिंकने लगा है
                ये मेरा अकेलापन
                एक मीठी आँच पर
                फिर से.                        (सावन की पहली झड़ी)
कवयित्री ने बारिश को जैसा देखा, महसूस किया. यहाँ उस पूरे दृश्य का अच्छा चित्रण हुआ है. ध्यान देने योग्य है, बारिश के मौसम में मीठी आँच पर भुट्टे को भुनता देख कवयित्री किसी मधुर स्मृति में खो जाती हैं. उनका अकेलापन उन्हें अखरने लगता है. यह नहीं पता चलता कि वह भीड़ में अकेली हैं या जीवन में. क्या उनकी मीठी आँच में सिंकने की स्मृति पूर्व के बारहमासों की विरहिणियों की विरहानुभूतियों से तुल्य हो सकती हैं. यह मैं अधिक समर्थ और सक्षम समीक्षकों पर छोड़ता हूँ.
भादो के महीने में वर्षा ऋतु का अनुभव उन्होंने तीन शीर्षकों में किया है- ‘’भादो की शाम’’, ‘भादो’ और ‘’खूँटी पर बरसाती : भादो की शाम’’. किसी विषय को टुकड़ों में बाँट कर देखना या अनुभव करना, यह आधुनिक प्रवृत्ति है. शायद इसीलिए किसी विषय या समस्या पर ऐसे लोगों की पकड़ नहीं बन पाती.
भादो में वर्षा का रूप प्रचंड हो जाता है. आकाश में बादल उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, घटाओं में काले मेघ ताबड़तोड़ दौड़ने लगते हैं, तीव्र गर्जन के साथ बिजलियों के तीर चलने लगते हैं, फिर घारासार बारिश से नदियाँ प्रचंड वेग से समुद्र की तरफ दौड़ पड़ती हैं. किसी अनुभूतिशील या अनुभूतिशीला को प्रकृति का यह रूप अनेक उद्दीपनों से भर दे सकता है किंतु भादो की एक शाम कवयित्री को कुछ और ही अनुभूत होता है-
                टूट पड़ा आसमान
                जिनकी मसें भी नहीं भींगी थीं
                वे भी टूट गिरे डाली से !
                उर्वारुकमिवबन्धनात....
                .........................
                वेसे आराम से नहीं, अफरा तफरी में
                वे छूटे उद्दंड झटके से
                एकदम खचाक!
                बीच सड़क टूट गिरे
                वे युवा शरीर--                           (भादो की शाम)
पूरी कविता में कवयित्री प्रकृति के साथ नहीं दिखतीं. ‘’टूट पड़ा आसमान’’ में वर्षा की प्रलयंकरता की ध्वनि तो है किंतु कविता के शीर्षक में भादो न रहे तो इस मुहाबरे का अर्थ विपत्ति का टूट पड़ना होगा. डाली से भी यहाँ वृक्ष की डाली का द्योतन नहीं होता. “जिसकी मसें भी नहीं भींगी” पंक्ति पर ध्यान देने पर ‘डाली’ से किसी अभिभावक की सूचना मिलती है, डाली से टूट गिरने वाले से भी उनके लाढ़ले–लाढ़िली का द्योतन होता है. उर्वारकमिवबंधनात अर्थात जिस प्रकार कँकड़ी या खरबूजा अपनी लत्तर से खुद छूट जाते हैं (यह कवयित्री का किया अर्थ है) वैसे ही वे युवा भी अपने अभिभावकों से छूट जाते हैं. यह उपमा सटीक नहीं लगती. टूटने और छूटने में क्या समान धर्म है. एक खुद अपनी डंठल से छूटता है और दूसरे वैसे आराम से नहीं, अफरा तफरी में एक उद्दंड झटके से एकदम खचाक  छूट जाते हैं और बीच सड़क टूट गिरते हैं. आगे की एक पंक्ति में टूटने का कारण बताया गया है-टूट पड़ी ऐसी तो बिजली. यह बिजली बारिश की बिजली नहीं है. इस बिजली के नाम लोगों ने गैंगरेप, रोज रेड, आदि रख लिया है. इस अप्राकृत कारणों से खिन्न होकर कवयित्री मानवीय अनुभूति में डूब जाती हैं.
‘भादो’ शीर्षक कविता में वह थोडी दार्शनिक हो गई हैं. “उस दिन” उनहोंने अपने को एक बीज में समो लिया. बीज को खाद पानी तो मिला पर खिलने के लिए आकाश का आमंत्रण चाहिए था, वह (ध्वन्यामंत्रण) उन्हें टिटिहरी से मिला. बीज में अंकुरण हुआ, फूल पत्ती आई पर विकास के लिए अनुकूल अवसर न पाकर रूखी पड़ी सृष्टि को दादुर से आर्द्र भावों का स्नेह मिला. यह दादुर भावार्द्रता की बूँदों में लिपटा शास्त्रीय गीतों के बोलों से (बारिश के मौसम में कहीं शास्त्रीय संगीत चल रहा होगा) निकल कर कवयित्री की पीढ़िया तक चला आया था. पीढ़िया अर्थात प्राणों के छोर तक. यहाँ वह अनुभूति मे डूबी लगती हैं. कदाचित इस कविता में वर्षा को वह जीवन के सूत्रण के ऱूप में देख रही हैं.
“खूँटी पर बरसाती : भादो की शाम” में वह घनघोर बारिश में घरों के मिटे नंबरों मे आह से अपना घर खोजती हैं. बारिश में भींगी बरसाती को अपना वजूद मानकर उसे घर के बाहर वाली खूँटी पर टाँग देती हैं और साड़ी का फेटा बाँध कर घर के काम में लग जाती हैं. बरसात में घर-गृहस्ती कैसे अस्त व्यस्त हो जती है इसका सुंदर चित्रण है.
आश्विन और कार्तिक शरद ऋतु का महीना है, वर्षा ऋतु के बादल अपनी प्रचंडता खोकर अब धुनी हुई रूई के समान आकाश में तैर रहे है. कवयित्री उनसे छनकर आ रही आसिन की पहलौंठी धूप का आनंद ले रही हैं. वह घर बैठे अनुमान लगा रही हैं कि ऐसे सुहाने मौसम में बंगाली टोले में शहनाइयाँ बज रहीं होंगी. उनके मन में एक व्यंग्य उभरता है. शादियों में दस द्वारों से मिट्टी खनकर लाई जाती है उनमें से एक द्वार वारांगनाओं का द्वार भी होता है. इस मिट्टी में होता है- बासी सिंगार  / बाराँगनाओं का कवयित्री के शब्दों में ये ऐसी कलाकृतियाँ हैं जिन्हें दुनिया की सारी थकानें अँकवार लेती हैं.
“आसिन की दोपहरी” की धूप चटकीली और तीखी होती है. जूतों में तब्दील होने के पहले / चमड़े इसी धूप में सूखते हैं /इसी धूप में सूख कर /कद्दू कमंडल बनते हैं.
‘कातिक’ के महीने में कवयित्री को सोनपुर के मेले की स्मृति आती है. सोनपुर के मेले में ग्रमीण महिलाओं में गोदना गोदवाने की परंपरा होती है. उनमें से अपने हाथों पर, कोई अपने नाम का तो कोई अपने साईँ के नाम का गोदना गोदवाती हैं. उसका स्थान अब टैटू ने ले लिया है. तब मेला जाते हुए मेलाघुमनियों के उनके साईँ उनसे चुहल करते थे- ‘का हो, का गोदना गोदाई ‘. घर लौटने पर कोई पूछे कि हो किसकी लुगाई /तो झट से हाथ दिखाओ ओर छुट्टी. फिर कवयित्री की नजर चाँद पर जाती है. वह कल्पना में खो जाती हैं-आकाश में चाँद ने गोदवाए थे गोदने /रात के नाम के / सी-सी-सी करते हुए. किंतु उनकी आँखों में चाँद के गोदने का सौंदर्य नहीं ठहरता, धरती पर  स्वस्तिक का गोदते हुए गोदना  हिटलर उन्हें याद आ जाता है जिसने खून की नदियाँ बहा दी थी. युग की पीड़ा से कौन पीड़ित नहीं होगा. उनकी नानी ने गोदना गोदवाए थे कि युद्ध से उनके नाना लौटेंगे तो उन्हें दिखाएँगी. पर नाना लौटे कहाँ. ये सारी घटनाएँ कातिक में ही घटीं.
‘कातिक की शाम’ में उन्हें लगता है यह शहर एक घायल तेंदुआ है / क्या जाने कब झपट्टा मारे. कहीं और जाने को लोग चकितनयन (या चौकसनयन?) निकलते हैं खरगोश के समान. कवयित्री ने शहर में एक मृगमरीचिका भी निर्मित कर ली है घायल तेंदुआ की भयंकरता को दिखाने के लिए कि मरीचिका से त्रस्त मृग कैसे उससे बाहर निकले. सोचती हैं वे निकले तो होंगे जरूर पर गए कहाँ होंगे- दूर वन में या डरते काँपते लोगों के मन में. फिर वह इसे दादी के किस्से में ढाल देती हैं. किस्सा सुनाकर दादी कहती थीं किस्सा गया वन में /सोचो अपने मन में  और हंसने लगती थीं. यह कातिक की शाम भी उन्हें वैसी ही हँसती हुई लगती है. याने कातिक की तीखी धूप से घायल हुआ शहर एक किस्सा का हिस्सा है जिसे ईशारों में सुनाकर कातिक की शाम व्यंग्य में हँसती है.

(अगली कड़ी में समाप्य)