Sunday 22 December 2013

राजनीति की दिल्ली दिल्ली की राजनीति-2

दिल्ली की राजनीति

कभी दिल्ली राजनीति की थी, आज राजनीति दिल्ली की है. राजनीति का दिल्ली का होना प्रारंभ होता है सन 1947 ई से पं जवाहर लाल नेहरू के स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री बनने के साथ. सत्ता हस्तांतरण के समय भारत के प्रधानमंत्री के लिए सरदार बल्लभभाई पटेल और राजगोपालाचारी चुने गए थे पर गाँधी जी के कहने से इन लोगों ने जवाहर लाल के पक्ष में अपने नाम वापस ले लिए. वह इस पद को पाने के लिए बहुत आतुर भी थे. उनकी यह आतुरता इस घटना से प्रकट होती है. भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के प्रश्न पर गाँधी ने अल्टिमेटम दे दिया था कि यह बँटवारा उनकी लाश पर होगा. पर सत्ता हस्तांतरण में देरी होते देख जवाहर लाल ने उनके इरादे की अनदेखी की. बाद में पटेल भी उनसे सहमत हो गए. नेहरू डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भारत गणतंत्र का (26 जनवरी 1950 को) प्रथम राष्ट्रपति बनाने के पक्ष में भी नहीं थे. सन 1955 में तो उन्होंने 'प्रसाद' की उम्मीदवारी का बाकायदा बिरोध किया. पर राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे दमदार लोगों के जबरदस्त बिरोध के आगे उनकी एक नहीं चली. असल में जवाहर लाल नहीं चाहते थे कि सरकार में उनके कैलिबर का कोई व्यक्ति हो. भीमराव अंबेडकर जैसे कुछ को अपने मंत्रीमंडल में ले भी लिया था उन्होंने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. जयप्रकाशनारायण की स्वतंत्र विचारधारा भी उन्हें पसंद नहीं थी. जवाहरलाल के अंकुश से असंतुष्ट होकर सी. रीजगोपालाचारी ने भी कांग्रेस से अलग होकर अपनी ''स्वतंत्र पार्टी'' बना ली. देखने लायक है कि ये लोग कांग्रेस के प्रभावी सदस्य थे. अंबेडकर तो संविधान निर्माता ही थे. उस समय के अखबारों में अक्सर चर्चा होती रहती थी कि नेहरू सम्राट अशोक बनना चाहते है. पंचशील का सिद्धांत देकर और अमरीका और रूस को करीब लाकर वह यही संकेत देना चाहते थे. इसमें कोई संदेह नहीं कि नए भारत की आधारशिला नेहरू ने ही रखी पर इससे जितनी उनकी अपनी छवि चमकी उतनी देश की सूरत नहीं बदली. सन 1962 के चीनी हमले ने उनके नेतृत्व में मजबूत हुए भारत की पोल खोल दी. चीन की सीमा पर केवल लाठी-भाला लिए सैनिक तैनात थे. चीनी हमले का सामना करने में अपने को असमर्थ पा उन्हें अमेरिका से सहायता की याचना करनी पड़ी. इसके पहले पी.एल-480 के लिए वह देश को परमुखापेक्षी बना ही चुके ही थे. दुनिया में और देश में उनका नाम तो खूब चमका पर उनकी चमक देश की जनता में बल और स्वाभिमान का संचार नहीं कर सकी. उलटे देश के सामने एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो गया कि ''नेहरू के बाद प्रधानमंत्री कौन''. अह! दिल्ली की राजनीति ने भारत को एक निरीह चेहरा दे दिया.

किंतु लगता है दिल्ली ने इसे महसूस किया. उसकी राजनीति ने थोड़ी करवट ली. उसने उहापोह में ही सही भारत के प्रधानमंत्री के लिए एक ऐसे व्यक्ति को चुना जिसने एक छोटी सी रेल-दुर्घटना पर रेलमंत्री के पद से तत्काल इस्तीफा दे दिया था. इस नेहरूभक्त की कद छोटी थी. नेहरू के ग्लैमरस व्यक्तित्व से कोसों दूर यह धोती कुर्ता टोपी पहननेवाला एक सीधा और सरल व्यक्ति था. पर उसमें कुछ कर गुजरने का अपार हौसला और छाती में बेशुमार बल था. यह मन से लौह-इरादेवाला था. किसी भी तरह की सहायता के लिए दुनिया के सामने हाथ पसारना उसे स्वीकार नहीं था. यह थे देश के स्वाभिमान से लदे फदे लालबहादुर शास्त्री. सन 1964 ई. के पाकिस्तान के हमले का इन्होंने डटकर मुकाबला किया. धोती पहने ही वह लाहौर पहुँच गए. देश के स्वाभिमान को जगाने के लिए उन्होंने ''जय जवान जय किसान'' का नारा दिया. उन्होंने देश की जनता से प्रतिज्ञा कराई कि घर के आसपास कोने-काने में जो भी जमीन हो उसमें हम गेहूँ उगाएँगें और उसे ही मिल बाँटकर खाएँगे. किंतु इसके लिए अपना हाथ नहीं पसारेंगे. उनके इस कदम से पूरे देश में बड़े जोरों से यह चर्चा चल पड़ी कि जो काम जवाहर लाल नेहरू ने अपने शालन के अठारह साल में नहीं कर सके उसे लाल बहादुर शास्त्री ने अठारह महीने में कर दिखाया.

इस नाटी कद की असाधारण प्रतिभा ने देश की जनता में जिस बल और स्वाभिमान का संचार किया वह आजतक कायम है. पर राजनीति के नशे में डूबी दिल्ली ने, लगता है उसे एकदम भुला दिया है.
                                                                           क्रमशः      

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