Friday 24 July 2015

हिंदी कोशों में भिन्न भिन्न शब्द-क्रम - महावीर सरन जैन का प्रत्युत्तर

गुरुवार, 23 जुलाई 2015


प्रो. महावीर सरन जैन
"हिंदी कोशों में भिन्न भिन्न शब्द-क्रम" शीर्षक आलेख पढ़ा। जो सवाल लेखक ने उठाया है वह तार्किक है। इसका कारण यह है कि अनुस्वार, अनुनासिकता और विसर्ग अलग अलग हैं। इनके सम्बंध में न केवल सामान्य व्यक्ति अपितु हिन्दी के कतिपय विद्वानों एवं आलोचकों को भी अनेक भ्रांतियाँ हैं। आजकल अनुस्वार और अनुनासिकता के अन्तर को विश्वविद्यालय स्तर के बहुत से हिन्दी के प्रोफेसर भी नहीं समझते। समय मिलने पर मैं इस विषय पर लेख लिखने की कोशिश करूँगा। 
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय (उच्चतर शिक्षा विभाग) के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' शीर्षक पुस्तक का अनेक वर्षों की सतत साधना और तथाकथित भाषाविदों, विभिन्न विश्वविद्यालयों, संस्थाओं के भाषा विशेषज्ञों, पत्रकारों, हिन्दी सेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मंत्रालयों के सहयोग से सन् 2010 में संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण प्रकाशित किया है।
सन् 1966 में प्रकाशित 'मानक देवनागरी वर्णमाला' तथा 'परिवर्धित देवनागरी वर्णमाला' तथा सन् 1967 में प्रकाशित 'हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' इन तीनों पुस्तिकाओं के समन्वित रूप को संशोधित और परिवर्धन के साथ केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने सन् 1983 में 'देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण' शीर्षक से पुस्तिका प्रकाशित की थी। उस समय भी निदेशालय ने यह दावा किया था कि इसके निर्माण में भाषाविदों, पत्रकारों, हिन्दी सेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मंत्रालयों का सहयोग लिया गया है और एक सर्वसम्मत निर्णय तक पहुँचने का प्रयास किया गया है। सन् 1983 में प्रकाशित पुस्तक का 27 वर्षों के बाद जो संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हुआ है उसमें बढ़चढ़कर दावा किया गया है कि यह संस्करण हिन्दी भाषा के आधुनिकीकरण, मानकीकरण और कंप्यूटीकरण के क्षेत्र में नई दिशा प्रशस्त करेगा। पुस्तक में जो नियम बनाए गए हैं, उनमें परस्पर विरोध है। यह बहुत चिन्त्य है

अनुनासिकता नासिक्य व्यंजन नहीं है। यह स्वरों का ध्वनिगुण है। निरनुनासिक स्वरों के उच्चारण में फेफड़ों से आगत वायु केवल मुखविवर से निकलती है। अनुनासिक स्वरों में वायु का अंश नासिका विवर से भी निकलता है जिसके कारण स्वर अनुनासिक हो जाता है। अनुनासिकता का लिपि चिह्न चंद्रबिन्दु है। ( ँ )। व्यवहारिक कारणों से शिरोरेखा के उपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) के स्थान पर केवल बिन्दु (अनुस्वार चिह्न ं ) के प्रयोग का चलन बढ़ गया है। बहुत से लोग अनुस्वार और चन्द्रबिन्दु में भेद नहीं करते। यह गलत है।
हिन्दी शिक्षण आरम्भ करते समय भाषा अध्यापक को शब्द में जहाँ भी अनुनासिकता हो वहाँ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) का ही प्रयोग करना सिखाएँ। बाद में यह बताया जा सकता है कि इ, ई, ओ, औ की मात्रा जहाँ हो वहाँ चन्द्रबिन्दु ( ँ ) के स्थान पर केवल बिन्दु (अनुस्वार चिह्न ं ) का प्रयोग कर सकते हैं। अनुस्वार कोई एक व्यंजन ध्वनि नहीं है। यह विशेष स्थितियों में पंचमाक्षर ( ङ, ञ, ण, न, म ) को व्यक्त करने के लिए लेखन का तरीका है। संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग य, र, ल, व, श, स, ह के पूर्व नासिक्य व्यंजन को प्रदर्शित करने के लिए तथा संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो विकल्प से पंचमाक्षर को प्रदर्शित करने के लिए लेखन का तरीका है। उदाहरण -
कवर्ग के पूर्व अंग, कंघा ं = ङ
चवर्ग के पूर्व अंचल, पंजा ं = ञ
टवर्ग के पूर्व अंडा, घंटा ं = ण
तवर्ग के पूर्व अंत, बंद ं = न
पवर्ग के पूर्व अंबा, कंबल ं = म

हिन्दी में परम्परागत दृष्टि से तवर्ग एवं पवर्ग के पूर्व नासिक्य व्यंजन ध्वनि [ न्, म्, ] को अनुस्वार [ं] की अपेक्षा नासिक्य व्यंजन से लिखने की प्रथा रही है। सिद्धांत उपर्युक्त स्थितियों में, दोनों प्रकार से लिखा जा सकता है। मगर कुछ शब्दों में नासिक्य व्यंजन के प्रयोग का चलन अधिक रहा है। उदाहरण के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के दशकों तक मार्गदर्शक डॉ. नगेन्द्र अपने नाम को 'नगेंद्र' रूप में न लिखकर 'नगेन्द्र' ही लिखते रहे। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग के नामपट्ट में भी 'हिंदी' रूप का नहीं अपितु 'हिन्दी' रूप का ही चलन रहा है।
केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित "देवनागरी लिपि तथा हिंदी वर्तनी का मानकीकरण" शीर्षक पुस्तिका में अनेक विरोध हैं। हिन्दी जगत में हिन्दी एवं हिंदी दोनों रूप मान्य रहे हैं। निदेशालय के नियम बना दिया है कि केवल अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाए। जो रूप सैकड़ों सालों से प्रचलित रहे हैं, उनको कोई व्यक्ति या संस्था अमानक नहीं ठहरा सकती। किसी भाषा का कोई वैयाकरण अपनी ओर से नियम नहीं बना सकता। उस भाषा का शिष्ट समाज जिस रूप में भाषा का प्रयोग करता है, उसको आधार बनाकर भाषा के व्याकरण के नियमों का निर्धारण करता है।
आज भी उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लिखा जाता है। आज भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन लिखा जाता है। संघ की पत्रिका का शीर्षक है - पाञ्जन्य। निदेशालय इन रूपों को अमानक मानेगा। गलत ठहराएगा। मैं हिन्दीतर क्षेत्रों में जाता हूँ। वे कहते हैं - हम सैकड़ों सालों से हिन्दी, कङ्गन, कम्पन, पाञ्जन्य लिखते आए हैं। भारत सरकार का निदेशालय इनको गलत ठहराता है। प्रचलित एवं मान्य रूपों को गलत ठहराना कितना गलत है - यह विचारणीय है। निदेशालय को मानकीकरण के निर्धारित नियमों पर पुनर्विचार करना चाहिए। भाषा के प्रसार की नीति होनी चाहिए। उसके प्रयोक्ताओं के बीच भ्रम फैलाने के हर कदम का हर हिन्दी प्रेमी को विरोध करना चाहिए। भारत सरकार ने निदेशालय की स्थापना इस कारण की है वह हिन्दीतर क्षेत्रों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को गति प्रदान करे।
अगर उसके किसी कदम से हिन्दीतर क्षेत्रों में हिन्दी के प्रयोक्ताओं में भ्रम पैदा हो रहा है तो उसका कर्तव्य है कि वह उस कदम को वापिस ले ले। कोई व्यक्ति या कोई संस्था भाषा के प्रचलित रूपों को अमानक नहीं ठहरा सकता।
संस्था को हिन्दी के प्रसार के लिए काम करना चाहिए। हिन्दी के प्रसार की गति को अवरुद्ध करने का काम नहीं करना चाहिए।

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