Friday 24 February 2012

एक सशक्त नैतिक शिक्षक क़ी आवश्यकता

अभी मैं टी.वी. पर सी. एन. सिरिअल देख रहा था. इसमें महाभारत में वर्णित एक नीति कथा दिखाई जा रही थी. एक रानी का भेजा बहेलिया शिकार के लिए जंगल गया था. दिन भर दौड़ धूप के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिला. दिन ढलते उसे सामने से जाते  हुए एक हिरनी दिखाई दी. उसने धनुष  उठाकर ज्योंही निशाना साधा हिरन बचने के लिए भागना छोड़ बहेलिये हे पास आ गयी और बोली , "बहेलिया जी मेरे परिवार में एक मेरा बेटा और मेरे पति हैं. पति बीमार हैं. यह जड़ी बूटी उनके लिए ले जा रही हूँ. यह बूटी खाकर वह अच्छे हो जायेंगें और बेटे को पाल पोस लेंगें. अतः आप मुझाए मारिये नहीं. मुझे जाने दीजिये. मैं वादा कराती हूँ यह बूटी अपने पति को देकर वापस आपके पास आ जाऊँगी .तब आप मुझे मारकर अपने परिवार के लिए आहार ले जाईएगा.बहेलिये को हिरनी की वादानिभायगी और परिवार के प्रति जिम्मेदारी की उसकी समझ को गुनकर भा दाई . वह द्रवित हो उठा और हिरनी को विना  मारे उससे क्षमा मांग कर वापस चला गया. राजमहल जाकर हिरन को न लाने के लिए  वह राजा से क्षमा माँगा और जो कुछ घटित हुआ था उसे सच सच बता दिया. राजा बहेलिये से बहुत प्रभावित हुए. हिरनी और बहेलिये के कृत्या उन्हें समाज के लिए बहुत ही नैतिक और अपरिहार्य लगे.
      इस नीति कथा का दृश्य रूपांतरण देखकर अकस्मात् मेरे मन में आया कि जिस युग में यह कथा लिखी गयी उस युग के समाज में  नैतिक भावना का प्रचार ऐसी ही नीति कथाओं के माध्यम से किये जाते  थे. समाज  के लोग अपने अपने इलाकों  में भागवत कथा  या रामायण कथा विद्वानों से कहवाकर अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को निभाते और ताजा करते थे. इस देश में गांधी ने भी एक नैतिक वातावरण बनाया था. इसके लिए उनहोंने कुछ  अनूठे प्रयोग किये थे . प्रयोग का माध्यम थी राजनीति और उनके सारे प्रयोगों  पर राजनीती हावी होती चली गयी. और आज समाज के हर तंत्र पर राजनीती इस कदर  हावी हो गयी है कि इससे इतर सोचना विसरे दिनों की बात हो गई है. आज नैतिकता और मूल्यों कि बातें बहुत होती हैं किन्तु उसपर टिकता कोई नहीं. भागवत और रामयण की कथाएं तो आम लोग आज भी सुनते सूनाते हैं. पर देखने में आता है कि कहीं भी ऐसे समारोह होते भी है तो राजनीतिबाज उसे लपक लेते हैं. आज हमारी भी स्थिति कुछ ऐसी है कि दफ्तरों में ,कालेजों में , नुक्कड़ पर ,अथवा फुर्सत  के क्षणों में भी राजनीति कि ही चर्चा करते हैं और टेबुल  चर्चा में ही सरकारें बना बिगाड़ देते हैं. बात का स्वाद बदलने के लिए थोड़ी नैतिकता और मूल्यों का बघार भी दे देते हैं.
       गांधी के प्रयोग आज विफल दिखाई देते हैं. नैतिक शिक्षकों कि आज भरमार हैं पर सभी के पेट में दाढ़ी है. समय  समय पर इनकी पोल खुलती रहती है. बुद्ध और कबीर जैसे शिक्षक आज दिखाई नहीं देते.नीति कथाओं की आज कोई भूमिका नहीं रह गई है. यह आज  विचारणीय विषय  है कि कौन सा माध्यम अपनाया जाय कि  समाज में नैतिक आचरण का वातावरण बने. गांधी ने हैं राजनितिक आजादी दिलाई,. जवाहरलाल ने नए भारत कि आधारशिला राखी, लालबहादुर शास्त्री ने हमारे भी बाजुओं में बल है .कि याद दिलाई और जयप्रकाश  नारायण ने हमें बोलना सिखाया.किन्तु ये सारे प्रयोग समाज के वाह्य आवरण पर कि गए. ये प्रयोग इस देश के मनुष्यों पर नहीं कि गए. मेरा मतलब है ये प्रयोग मनुष्यों के निर्माण के लिए नहीं किये गए. आज की भारतीय मनीषा प्रयोगधर्मी नहीं है. वह मुखर अधिक है. मैं अनुभव करता हूँ कि आज एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो मनुष्य को केंद्र में रखकर प्रयोग करे .और प्रयोग का लक्ष्य एक ऐसे मनुष्य का निर्माण हो जिसमें अपने दायित्यों का बोध हो , जो आज के आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के वैज्ञानिक वातावरण के अनुकूल  हो..

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