Monday 14 July 2014

अकेले की नाव अकेले की ओर -1

7 जुलाई 2014 को 'रचनाकार' में प्रकाशित


   

                      अकेले  की नाव अकेले की ओर -1      
                       ओशो को संबोधित मेरे अंतर्भावों का संगुंफन
 
                   
                                  

                                   अंतर्भावक       
                             शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

                        

                              पार्वतीपुरम, गोरखपुर
                                                             
                     यह प्रति   :  अपने प्रिंटर पर मुद्रित किया    
                          मुद्रण वर्ष  :  सन् 2012 ई.
        


                      रचना काल : बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध


पता :
715 डी, पार्वतीपुरम्, चकसाहुसेन,
बशारतपुर, गोरखपुर,  273004.  

पुरोवाक
कृष्ण के बाद ओशो धरती पर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने जीवन को उत्सव के रूप में माना. कहा- जीवन जी भर जी लेने जैसा है, उत्सव मनाने जैसा है. लेकिन‘यह युग बुद्धि का है, और बुद्धि घाव हो गई है’ (गीता दर्शन-18,भूमिका). . वह एक जाग्रत पुरुष हैं. उनके रहते मैं उनके सान्निध्य का लाभ नहीं उठा सका. किंतु उनकी देशना व करुणा ने मुझे अत्यंत अभिभूत किया. उनके प्रति मेरा मन भावों के अतिरेक से भर उठा. मन में उठे इन भावों को उनके जीवनकाल में ही मैंने कुछ काव्य-पंक्तियों में ढालना शुरू किया. ऐसा कर उनसे अनुभूति-संपर्क बनाने की मेरी कोशिश थी. कुछ अभिव्यकितयाँ उन्हें भेजी भी थीं पर उन दिनों वह मौन में थे. मुझे उनकी सचिव शीला के प्रत्युत्तर से ही संतोष करना पड़ा. उनकी दृटि में हर नई-पुरानी अभिव्यक्तियों में अंतर्हित संवेदनाओं का स्वागत था. इच्छा थी इन्हें एक अलक्ष्य धागे में पिरोकर एक संगुंफन तैयार करूॅ और उन्हें भेंट करूँ. किंतु मेरी यह लालसा पूरी नहीं हो सकी.यह अभी अधूरा ही था कि वह देहांतरित हो गए. उनके देहांतरण के बाद इस संगुंफन को धरती से संपर्क के लिए उनकी माध्यम मा आनंदो को मैंने प्रेमार्पित किया है. मेरी काव्याभिव्यक्त भावतरंगें उन्हें स्पर्शित कर सकेंगी अथवा नहीं मैं नहीं कह सकता.ये भाव मेरे हृदय से उमड़कर मेरे मन में स्वतंत्ररूप से उठे हैं. यह संगुंफन अब विद्वद्जनों के सुपुर्द है, इसमें उनके प्रवेश और उनकी आलोचना के लिए.
अंतर्भावक


∙ मैंने इस संगुंफन की एक हस्तलिखित प्रति मा आनंदो को दिनांक 21.11.1999 ई.  को भेज दी थी. मा आनंद साधना ने प्रत्युत्तर दिया कि वह हिंदी नहीं जानतीं अतः उत्तर नहीं दे सकीं. ......इसकी कुछ प्रतियाँ मैंने डॉ हरिवंश राय बच्चन, डॉ परमानंद श्रीवास्तव, डॉ के.सी. लाल और डॉ नामवर सिंह को भेजी थीं. इसकी दो-एक भावाभिव्यक्तियॉ आचार्य जानकीबल्लभ शास्त्री को भी भेजी थीं. इनमें से केवल शास्त्री जी का उत्तर आया. उन्हें ये अच्छी लगीं थीं.

                                      प्रेमार्पण
                   
                        image
         
          देहांतरित ओशोके  लिए मा आनंदो को
                (25-12-1999 )
                     image

                                        
                                    अंतर्भावक                         
                             शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव



                                            अनुक्रम
                                          
                               1. हिंदी कविता की चेतना-यात्रा   
                                              2. पुरश्चरण     
                                             3. प्रतिसंवेदन 
                                         4. अकेले की नाव 
                                          5. अकेले के पल 
                                         6. अकेले की ओर 
                                           7. बीज-संवेदन 
                                              8. अनुस्मरण




                      हिंदी कविता की चेतना-यात्रा और यह संगुंफन   
    हिंदी कविता की चेतनायात्रा में वह सबकुछ समाहित है जो काव्यचेतना से संबंधित है- जैसे, कविता की समझ, उसके समझने की दृष्टि, काव्य के सत्य का स्पष्ट बोध, भाववस्तु का चुनाव, काव्यभाषा में करुणा और संवेदना उँड़ेलने की शक्ति आदि.
    हिंदी कविता की यात्रा इसके उद्भव काल से ही प्रारंभ हुई मानी जाती है. महापंडित राहुल सांकृत्यायन यह समय सन् 769 ई मानते हैं. यह वह समय था जब हिंदी अपभ्रंश का केंचुल छोड़कर अपना रूप ले रही थी.             
    हिंदी के उद्भव से उसके वर्तमान तक के विकास में कवियों की काव्य-चेतना ने कई करवटें ली हैं. ये करवटें अधिकतर काव्यवस्तु और काव्यभाषा में ली गई हैं. काव्य की समझ, दृष्टि और उसका सत्य लगभग एक-सा है. इन काव्यवस्तुओं में भारतेंदु के समय तक भावों की प्रधानता है. छायावाद में कल्पना प्रधान हो गई है. इसके बाद के कवियों की काव्यचेतना बहुत उलझी हुई है. वर्तमान में भी वही स्थिति है. अज्ञेय इसे उलझी हुई संवेदना कहते हैं. मेरा यह संगुंफन इन काव्यचेतनाओं के कितने मेल में है और कितना अलग, इस आमुख में मैं इसे ही समझने का प्रयास कर रहा हूँ.
    ंिहदी कविता की यात्रा सिद्धों की काव्यरचना से आरंभ होती है. ये सिद्ध लोक में अपनी वाणी, जिसमें पाखंड का विरोध और लोगों के लिए उनकी सहजवृत्ति के अनुसार चलने का संदेश था, का प्रचार साहित्यिक अपभ्रंश के साथ साथ प्रचलित जनभाषा में भी करते थे. इसमें अपभ्रंश से अलग होते हिंदी के शब्द और भाषारूप अधिक मुखर थे. यह भाषारूप उस समय ‘हिंदी’ नहीं ‘भाषा’ के नाम से जाना जाता था. दोहाकोश और चर्यागीत के रूप में लिखी इनकी रचनाऍ इसी भाषारूप में हैं. ये सिद्धजन सहजयोग के साधक थे. लोगों की सहजवृत्ति पर इनके अधिक जोर देने के कारण समाज में एक स्वच्छंदता व्याप गई. इसकी प्रतिक्रिया में नाथयोगियों ने हठयोग पर जोर दिया. इसके प्रचार के लिए इन्होंने भी जनभाषा में अपनी कुछ काव्यरचनाएँ दीं. ये प्रधानतः उपदेशात्मक हैं. इनका साहित्य दोहों और पदों में मिलता है. यदा कदा चौपाइयों के भी प्रयोग मिल जाते हैं. नाथयोगियों में गोरखनाथ प्रमुख माने जाते है. इनकी कविताएँ ‘सबदी’ में संकलित हैं. इस समय के अपभ्रंश के जैन साहित्य की परंपरा का तब की अपभ्रश से अलग हो रही हिंदी में भी प्रवेश हुआ. जैन साधक भी अपनी वाणी के प्रचार के लिए जन-भाषा में रचनाएँ कर रहे थे. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसे पुरानी हिंदी कहा है. इन लोगों ने अपनी काव्यरचना के लिए प्रबंध, मुक्तक और खंडकाव्य  विधा  को अपनाया. पदुमचरिउ, भविषयसत्त-कहा आदि इसके उदाहरण हैं.
    सिद्ध, नाथ और जैन कवियों की ये काव्यरचनाएँ दसवीं सदी के अंत तक चलती हैं. इनकी काव्य-चेतनाएँ लगभग एक सी हैं और सीमित हैं. इनमें अपनी कविताओं में काव्यगुणों के समावेश का बहुत चाव नहीं था. इनके द्वारा अपनाई गई विधाओं में ही कुछ अंतर है. सभी का एक ही उद्देश्य था अपनी वाणी और साधना का जनभाषा में प्रचार करना. जिन लोगों से इनको अपनी बातें कहनी थीं उनकी समझ और धारिता का ये पूरा ध्यान रखते थे.
   सन् 769 ई से सन् 1000 ई के इस काल में अपभ्रंश के कई रूप थे. इसके  शौरसेनी, अर्धमागधी और मागधी रूपों की कोखों में अंकुरित होकर हिंदी की विभिन्न बोलियों-खड़ी बोली, अवधी, डिंगल, पिंगल (ब्रजभाषा), मगही, मैथिली और भोजपुरी आदि ने जन्म लिया. दसवीं सदी के अंत तक इनमें से कई के रूप एकदम स्पष्ट हो गए और अलग अलग क्षेत्रों में बोलियों के रूप में रूढ़ हो गए. इनमें काव्यरचनाएँ भी होने लगीं. इन बोलियों में सबसे पहले डिंगल (राजस्थानी) में काव्यरचनाएँ मिलती हैं.
   सन् 1000 ई में महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद हिंदी कवियों में कुछ काव्यप्रवृत्तियाँ उभरती दिखाई देने लगती हैं. पृथ्वीराज पर मुहम्मद गोरी के आक्रमण (सन् 1199 ई.) के बाद ये प्रवृत्तियाँ बहुत साफ दिखती हैं. इस समय सारा उत्तर भारत युद्धों से आक्रांत था. कवियों ने अपने नायकों के उत्साहवर्द्धन में वीर रस की कविताएँ लिखीं. उनके जीवन चरित लिखे. इसमें युद्धों के जीवंत वर्णन किए, चरित नायकों की नायिकाओं के सरस श्रृंगारिक वर्णन किए. वीरगीत लिखे. इन कवियों की दो प्रमुख विशेषताएँ थीं, इनका राज्याश्रय में जाना और अपने आश्रयदाता राजाओं की अतिरंजित प्रशंसा के गीत लिखना, ये कवि चारण और भट्ट कहे जाते थे. इसीलिए इनके द्वारा प्रस्तुत साहित्य को चारणी सहित्य कहा जाता है. चारणों ने अपने काव्य के लिए पुरानी राजस्थानी भाषा डिंगल को और भट्टों ने पिंगल (ब्रजभाषा) को अपनाया.   काव्य विधाएँ प्रबंध और वीरगीत (बैलेड्स) अपनाई गईं. ये रचनाएँ काव्यगुणों से संपन्न हैं. इनकी चेतना में आवेग और आवेश की मात्रा भरपूर है. इस अवधि में हिंदी की काव्यचेतना में भाव-वस्तु बदली हुई थी. भाषा में ओजस्विता थी. रसों में वीर और श्रृंगार की मात्रा भरपूर है. युद्धों का रोमांचक और उत्तेजक वर्णन किया गया है. यह चेतना उस समय के परिवेश और तात्कालिक जीवन-सरणि के अनुकूल थी. कवियों ने अपने काव्यों में काव्य-रूढ़ियों का प्रयोग किया है. लेकिन ये काव्यरूढ़ियाँ अबूझ नहीं हैं.
    हिंदी काव्य साहित्य के इतिहास में चारणी साहित्य के उपरांत विद्वानों ने कुछ फुटकर कवियो की चर्चा की है जो अपने क्षेत्रों में बड़े ही प्रतिभाशाली और उच्च कोटि के काव्यगुणों से संपन्न थे.  ये थे अमीरखुसरो और विद्यापति. खुसरो ने खड़ी बोली (हिंदवी) में पहेलियाँ और मुकरियाँ लिखीं, जो उस समय की जन-मनोवृत्ति के  अनुकूल थीं. विद्यापति ने अपनी प्रसिद्ध पदावली, पुरानी हिंदी के अवहट्ठ रूप में लिखी जिसमें उनके संरक्षक राजा शिवसिंह को लक्ष्य कर लिखी कविताएँ भी हैं. अपनी पदावली को सहज बोधगम्य तथा हृदयगम्य और उत्फुल्ल बनाने के लिए उन्होंने लोक के जीवंत शब्दों का संयोजन कर उनमें करुणा और संवेदना की तरलता पिरो दी. इनके लिए काव्यसत्य था, लोक की हृद्तंत्री पर जीवन के रागात्मक तत्वों और उसकी संवेदना की उंगलियों के पोर रख देना. इन्होंने इसके लिए श्रृंगार की राह अपनाई जो उस समय अभिव्यक्ति की बहुप्रचलित राह थी.  कहते हैं, इधर विद्यापति पदावली के पद रचते थे और उधर दूसरे दिन वह पद पूरी मिथिला में गाए जाने लगते थे. ये दोनों ही दरबारी कवि थे.
    चौदहवीं सदी के बाद हिंदी काव्यधारा में कवियों की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एकदम अलग हो जाती हैं. हालाँकि सिद्ध साहित्य में इसकी जड़ें अवश्य मिलती हैं. कहा जा  सकता है कि इस युग में प्रवृत्तियों का एक तरह से संस्कार हो गया. अब काव्य-वस्तु में वे ही कथ्य लिए गए जिसके माध्यम से ये भक्त कवि अपनी भक्ति भावना को व्यक्त कर सकें. इस समय युद्धों से जर्जर इस देश के मनोबल को बनाए रखने के लिए लोगों को उनकी आंतरिक शक्ति से परिचित कराना आवश्यक था. यह कार्य अक्खड़ कबीर ने अपनी साधना से प्राप्त सत्यानुभूति को बेलाग काव्यात्मक दोहों में व्यक्त कर किया. कबीर अपढ़ अवश्य थे पर सत्संग से प्राप्त उनका ज्ञान अनूठा था. काव्य का संस्कार भी उनको सत्संग से ही मिला था. कबीर ने पराजय से जड़ हो चुकी देश की मानसिकता को झकझोर देने के लिए अपने काव्य में अनेक प्रयोग किए जिसकी जड़ें इस देश में ही थीं. योग के प्रतीक और उलटबॅासियों को काव्य में लाना ऐसे ही प्रयोग हैं. जायसी ने इसके लिए सूफी प्रेम को आख्यानक काव्यों में पिरोया. तुलसी ने राम का चरित-काव्य लिखा और सूरदास ने कृष्ण की बाल और युवा छवि तथा गोपी-विरह को अपने काव्य का आधार बनाया. इस काल के भक्त कवियों की काव्यदृष्टि लोकोन्मुख थी. अतः इनके काव्य में लोकमंगल की भावना ही उच्छल है. इन भक्त कवियों ने लोकजन के मन और हृदय तक पहुँचने के लिए अपने क्षेत्रों के अनुसार लोकभाषा को काव्याभिव्यक्ति का माध्यम बनाया. आलोचक कहते हैं कबीर ने  भाषा को दरेरा देकर उससे अपनी बातें कहलवाईं और लोकजन तक पहुँचाई.
    कबीर ने जो भाषा अपनाई उसमें हिंदी की कई बोलियों का पुट है. विद्वानों ने इसे संधा भाषा कहा है. इसमें भोजपुरी की मात्रा अधिक है. भोजपुरीवाले कबीर को भोजपुरी का प्रथम कवि मानते हैं. सूरदास ने ब्रजभाषा को तथा जायसी और तुलसी ने अवधी को प्रमुखता दी. छंदों में इन लोगों ने प्रमुखता से दोहा, चौपाई और अर्द्धाली का प्रयोग किया है. इनकी काव्यचेतना में इनकी काव्यानुभूतियों और काव्याभिव्यक्तियों के विविध आयाम हैं. इनकी काव्यदृष्टि किसी भी आयाम में संकुचित नहीं है. इन लोगों ने अपनी काव्याभिव्यक्तियों के लिए जिन बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग किया है वे जन-जीवन के सामान्य संस्कारों और व्यवहारों से लिए गए हैं. इन लोगों को जिन तक अपने अनुभव, अनुभूति और उद्गार पहॅुचाने हैं उनके प्रति ये बहुत उदार और सहृदय हैं. ये कवि राज्याश्रय से बहुत दूर थे.
    सत्रहवीं सदी के अंत तक भक्ति काव्य की सरिता अविच्छिन्न बहती रही. इस सदी का अंत होते होते कदाचित अचानक कवियों की दृष्टि में एक अल्लेखनीय मोड़ आया. भक्ति की काव्यधारा क्षीण हो गई. अब कवियों की दृष्टि में रीति प्रमुख हो गई. ये कवि राज्याश्रयप्राप्त थे. अतः राजाओं की रुचियों ने इनकी काव्यचेतना को प्रभावित किया. युद्धरत राजाओं की प्रसन्नता हेतु इन्होंने नायक नायिकाओं की भावभंगिमाओं और उनके चितवन का ऐसा अनूठा चित्रा खींचा कि राजा तो राजा आमजन भी उसके भावसौंदर्य में डूबकर निहाल हो गया. इन कवियों द्वारा उकेरा गया भाव सौंदर्य अनूठा तो है ही, अद्वितीय भी है. लेकिन इसमें युगजीवन की ध्वनि का अभाव दीखता है. हाँ जहाँ रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवि राग रंग में डूबे राजाओं के लिए नायिकाओं का नख शिख वर्णन कर उनका मनोरंजन कर रहे थे वहीं कुछ रीतिमुक्त कवि भी थे जो जनता की युगीन आकांक्षाओं को स्वर दे रहे थे. इसमें भूषण प्रमुख थे. इन्होंने अपनी जनता की स्वतंत्रता के लिए मुगलों से लड़ाई लड़ रहे शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के गानों से उनकी सेनाओं के साथ जनता का भी उत्साहवर्द्धन कर रहे थे. इसके लिए वे युद्ध के मैदान में भी जाते थे. रीतिबद्ध कवियों ने काव्यगुणों में नए नए रीतिवादी प्रयोग किए. यह अलंकारों में केशव के विलक्षण प्रयोगों में देखा जा सकता है. उनके इन्हीं प्रयागों के कारण वे आमजन से कट-से गए. आधुनिक प्रयोगवादी कवियों ने भी कुछ इसी प्रकार के प्रयोग कविता के वस्तु-क्षेत्र में किया है. ये कविताएँ भी धीरे धीरे आमजन से दूर होती चली गईं हैं. अज्ञेय के चौथे सप्तक तक आते आते ये कविताएँ चंद बुद्धिजीवियों तक सीमित होकर रह गईं हैं. रीतिवादी कवियो ने अपने काव्य के लिए ब्रजभाषा का उपयोग किया और काव्यरूप में दोहा तथा पद को अपनाया. काव्यालंकारों के प्रति इनकी दृष्टि बहुत रूढ़ थी.
    पद्माकर (सन् 1753 ई - सन् 1833 ई) रीति परंपरा के अंतिम कवि थे. इन्हीं के समय में सन् 1800 ई. में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक नया क्रांतिकारी मोड़ आया. अंग्रेजों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए प्राच्य भाषाओं के महत्व को समझकर इनके विकास के लिए कोलकाता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला. इसमें हिंदी उर्दू के विकास के लिए हिंदोस्तानी भाषा विभाग खोला गया. सन् 1803 ई. में इसके अध्यक्ष जब प्राइस हुए तो हिंदी के लिए अलग से हिंदी विभाग खोला. तब के प्रसिद्ध हिंदी उर्दू लेखक मुंशी लल्लू लाल उसमें भाषामुंशी नियुक्त किए गए. इसी समय से तबतक प्रचलित हिंदी साहित्य की भाषा ‘भाषा’ अथवा ‘भाखा’‘हिंदी’ के नाम से जानी जाने लगी. पद्माकर के बाद जो कविताएँ लिखी गईं उनकी भाषा ब्रजभाषा ही रही किंतु गद्य की भाषा हिंदवी से नई चाल की खड़ी बोली हिंदी हो गई. इस समय जो कविताएँ लिखी गईं वे रीति परंपरा से अलग थीं. इनके बाद सन् 1857 में साहित्य के क्षेत्र में भारतेंदु के आने से हिंदी की काव्यचेतना में बुनियादी मोड़ आया. वल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि हिंदी साहित्य के हर विधागत क्षेत्र में चेतनागत क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. पश्चिमी चेतना की बयार ने साहित्य के प्रति उनकी दृष्टि को नया आयाम और विस्तार दिया.
    भारतेंदु का ध्यान युग की चेतना और युग की साहित्यिक आवश्यकताओं की ओर गया. उन्होंने हिंदी साहित्य में एक नए मूल्य ‘स्वाधीनता’ को स्थापित किया. हिंदी गद्य में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया. कविता तो वह ब्रजभाषा में ही करते रहे पर उनमें स्वाधीनता के स्वर गूँज उठे. इनके प्रयास से कवियों को आधुनिकता की आहट मिलने लगी. भारतेंदु की कविताओं में भक्ति, रीति और आधुनिक तीनों तरह की चेतनाएँ समाविष्ट हैं.
    भारतेंदु के बाद कविता में जातीय चेतना के स्वर ने स्थान पाया. इसी युग में कविता में खड़ी बोली का प्रयोग किया गया. प्रथम प्रयास श्रीधर पाठक ने किया और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उसे परिपुष्ट कर दिया. द्विवेदी जी कविताओं को सुधारकर और सँवारकर अपनी ‘सरस्वती’ में छापते थे. इस युग में लोगों में जातीय स्मृति जगाने के लिए कवियों ने अपने इतिहास और पुराणेतिहास का आधार लिया. पूर्व के कवियों के द्वारा उपेक्षित पात्रों को इस दौर के कवियो द्वारा सहानुभूति दी गई. प्रबंध और खण्डकाव्य लिखे गए, गीत और चंपू काव्य भी लिखे गए. इन कवियों की काव्यचेतना लोकोन्मुख थी. लोक की चित्तवृत्ति के अनुकूल और चित्ताकर्षक थी. शैली इतिवृत्तात्मक थी. इनका काव्यसत्य भी युग के अनुकूल जन-संवेदना को उभारना था.
    इस इतिवृत्तात्मकता में सरल हृदय का स्फोट था, आवेग था, आवेश था. खुरदरी भाषा में ये खूब खिले भी. थी तो इसमें भी कल्पना की उड़ानें पर यह कल्पना के वैभव से लदी फदी नहीं थीं. इसमें हृदय के कोमल भावों की अभिव्यक्ति के अवसर कम थे. रमणीय दृश्यों और रमणीक भावनानाओं  को रमणीय बनाकर प्रस्तुत करने की शक्ति कम थी. ऐसे में कुछ कल्पना के धनी कवि साहित्य के क्षितिज पर अवतरित हुए और उन्होंने हिंदी कविता की दशा और दिशा ही बदल दी. उनके प्रयास से इसमें कोमल कांत भावों को अभिव्यक्ति देने की असीम शक्ति आ गई. इस हेतु उन्हें अप्रस्तुत वायवीय कल्पनाओं में भी उतरना पड़ा. उनके सामने एक विवशता भी थी.
इस समय (सन् 1915 ई) गाँधी के भारत आगमन के बाद स्वतंत्राता की माँग जोर पकड़ चुकी थी. देश की जनता आंदोलित थी. गिरफतारियाँ भी होने लगी थीं. पुस्तकें प्रतिबंधित होने लगी थीं. पर कवियों को जनाकांक्षा के स्वर में स्वर मिलाना था. ये कविता में प्रस्तुत को अप्रस्तुत के सहारे अभिव्यक्ति देने लगे. इन अभिव्यक्तियों को काव्य के क्षेत्र में छायावाद के नाम से जाना जाने लगा. इनकी आँखों में कविता का एक विशाल और व्यापक फलक था. अंग्रेजी साहित्य का काव्य-लोक और चिंतन- सरणि भी इनके सामने थी. इनका उपयोग भी इन कवियों ने किया किंतु केवल अपने दृष्टि-विस्तार के लिए (वह भी उन्हें पचाकर), अनुरंजित होने के लिए नहीं. कविता में मुक्त छंद का प्रयोग इन्हीं में से एक निराला ने किया. निराला ने ही कविता के लिए परंपरा से चुने जाते रहे विषयों से अलग विषय चुना ‘कुकुरमुत्ता’. गुलाब के फूल को मार्क्स के शब्द कैपिटेलिस्ट की व्यजना दी. मेरी समझ से इसी ‘कुकुरमुत्ता’ के गर्भ से प्रगतिवाद का बिरवा निकला. छायावादी चेतना में सर्व के साथ व्यक्ति-अनुभूति के स्वर भी मुखर हैं.  कदाचित बच्चन जी की व्यक्तिगत भावानुभूतियों के मुखरित स्वर उसकी अग्रिम कड़ी हैं. हालाँकि इन व्यक्तिगत अनुभूतियों में व्यक्ति प्रमुख नहीं है अनुभूतियाँ प्रमुख हैं. ये व्यक्ति में सामान्य अनुभूतियों का प्रतिफलन थीं. यह व्यक्ति -चेतना आगे चलकर व्यक्ति की इयत्ता में सीमित होकर हिंदी कविता में प्रमुख रूप से स्थापित हो गर्इ्र.
    हिंदी कविता की इस चेतना-यात्रा में मैंने अनुभव किया कि पुरानी हिंदी के सरहपाद (सरोजभद्रद्ध) से खड़ी बोली  हिंदी के सूर्यकांत त्रिापाठी निराला तक के हिंदी कवियों की काव्यचेतना युगानुरूप परिमार्जित और परिवर्तित होती रही है. इसके भीतर अंतर्वर्तित संवेदना की अंतर्धारा सदैव करुणापूरित रही. कविता अपनी जगह पर कविता की तरह रही, कविता की हैसियत में. मेरी समझ में कविता का मूल स्रोत करुणा ही हैे. यही करुणा संवेदनशील सहृदय पाठक या श्रोता के हृदय में प्रतिसंवेदित होकर अकायिक रूप ग्रहण करती है और अनुचेतित  शब्दों में पुर कर कविता में बह उठती है.  कविता संप्रेषणीय शब्दों की भावतरंगों में होती है जो पाठक को समानुभ्ूति देती है.ये भावतरंगें अनेक तरह की हो सकती हैं.
    सरहपाद से निराला तक की कविताओं में भारतीय काव्य परंपरा के झीने तार एक अंतर्धरा के रूप में अनुस्यूत हैं. इनके बाद की कवि-चेतना को ये झीने तार उसकीे स्वच्छंद गति में अवरोध उत्पन्न करते-से लगे. साथ ही इसमें सामाजिक चेतना का न होना उन्हें एक अभाव-सा लगा. मार्क्सवाद से प्रभावित कवि कविता में राजनीतिक चेतना को पिरोने के पक्षधर थे. परिणामतः हिंदी काव्य जगत में प्रगतिवाद का आविर्भाव हुआ. यह  वाद  मार्क्सवादी  चिंतन से  प्रभावित था. इसमें कविता भाव-चिंतन से समाज-चिंतन की ओर आगे बढ़ी. इसमें जन-जीवन की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को कविता की काव्य-वस्तु के रूप में अवश्य स्वीकार किया गया, पर कविता समाज की मार्क्सवादी व्याख्या से आगे नहीं बढ़ सकी. मार्क्सवाद प्रगतिवादी कविता के लिए रूढ़ हो गया. लेखकों के प्रलेस, जलेस आदि लेखक-संघ बने. इन लेखक-संघों का कमाल था कि इनमें सम्मिलित कवि एक दूसरे के लिए अप्रगतिवादी थे.
    कविता की इस प्रगतिवादी धारा के उपरांत इसकी वह धारा प्रवाहित हुई जिसे आलोचक नंददुलारे बाजपेई ने बैठे ठाले का धंधा बता दिया. इस काव्यधारा को प्रयोगवाद का नाम भी उन्न्होंने ही दिया. पता नहीं यह बैठे ठाले का धंधा था या नहीं, पर अब यह सबने समझ लिया है कि प्रयोगवादी कविता लिखनेवाले कवियों की काव्यचेतना पूर्व के कवियों की काव्यचेतना से एकदम तो नहीं पर बहुत अलग थी. इन कवियों में एक बेचैनी  थी, कविता  के क्षेत्र में  कुछ नया देने की. ये  कविता में विश्वचिंता से कदम मिलाना चाहते थे. इनके सामने अपने साहित्य के साथ पश्चिम का साहित्य भी था जिसमें इस चिंता को लेकर नए नए प्रयाोग हो रहे थे. इन कवियों को छायावाद की वायवीय कल्पना भा नहीं रही थी. इनमें जीवन के यथार्थ को काव्य का विषय बनाने की प्रबल ललक थी. इनके सामने प्रगतिवादी काव्य-धारा भी थी पर  इनका मार्क्सवाद के ढाँचे तक में ही फिट होकर रह जाना इन्हें अलम नहीं था. ये जीवन और समाज के विस्तृत और यथार्थ फलक को अपनी काव्यचिंता में समोना चाहते थे. पर पूर्व की काव्यपद्धति में इन्हें कोई राह नहीं मिल पा रही थी. ये कवि अभी अलग अलग भी थे. इनका समस्वर अभी नहीं बन पाया था. एक हिंदी सम्मेलन के अवसर पर गए इन कवियों ने अपनी इसप्रकार की कविताओं का एक संकलन निकालने की राह खोजी. इसपर उनमें एक सहमति बनी. फलतः सन् 1943 में अज्ञेय के संपादकत्व में तारसप्तक के नाम से उनका संकलन प्रकाशित हुआ. तारसप्तक के प्रकाश में आते ही हिंदी काव्य के क्षेत्र में एक नए वादिक आंदोलन की धमक सुनाई दी. इस संकलन की राह से लोक-जन तक पहुँचने की उन्हें राह मिल गई.
    किंतु इस संकलन में संपादक की काव्यदृष्टि और संकलित कवियों के संबंध में उनका वक्तव्य ही अधिक मुखर हुआ. संपादक ने अपने वक्तव्य में पाश्चात्य काव्यप्रयोगियों के तर्ज पर, वल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उन काव्य-  प्रयोगियों के विचारों और शब्दों में ही संकलित कवियों का परिचय दिया- ‘इनमें किसी बात पर मतैक्य नहीं है’, ‘ये राहों के अन्वेषी हैं’. स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि तारसप्तक के संपादक की काव्य-दृष्टि में पाश्चात्य काव्य-दृष्टि के तत्व अधिक हैं जो सीधे वहीं से उठा लिए गए हैं. सप्तक की कविताओं से यह भी लगता है कि सप्तक के कवि जिन राहों के अन्वेषी हैं वे अभिव्यक्ति की ही राहें हैं. और सरहपाद से सूर्यकांत तक की काव्ययात्रा में जिसे  भाव-वस्तु कहा गया था, वस्तु अथवा विषय कोई भी हो-भले ही वश्स्तु में तब विविधता नहीं थी-उसमें प्रमुखता भाव की होती थी. अब उसे काव्य-वस्तु कहा जाने लगा. इसमें भावों के स्थान पर विचार प्रमुख हो उठे. नई कविता में बस्तु की विविधता को स्थान दिया गया. इन नए कवियों  में कुछ (अकवितावालों) ने ऐसे वस्तु-क्षेत्र में भी प्रवेश किया जिसमें रीतिकालीन कवि भी प्रवेश करने का साहस नहीं कर सके थे. इसमें बुद्धि और कवि की स्वच्छंद वृत्ति प्रधान हो गई. भाव मनुष्य के अस्तित्व का केंद्र हैं जबकि बुद्धि उसकी परिधि. नई कविता मनुष्य की परिधि पर ही अबतक घूम रही है.  इन काव्य-वस्तुओं में उन क्षेत्रों से भी परहेज नहीं किया गया जिनमें भदेस ही भदेस है.
    सप्तकों-तारसप्तक से चौथे सप्तक तक-के संपादक ने अपने संपादकीय वक्तव्यों में काव्य-सत्य की भी चर्चा की है.  तापसप्तक के कवि मुक्तिबोध ने भी अपनी ‘एक साहित्यिक की डायरी में’ काव्य-सत्य की बात उठाई है. निश्चित ही काव्य का एक अपना सत्य है. मेरी समझ में दुनिया के सभी कवियों के लिए यह एक ही होना चाहिए. जब क्रौंच-जोड़े में से एक नर-क्रौंच के बध से मादा- क्रौच का हृदयविदारक चीत्कार सुनकर  वाल्मीकि का हृदय करुणा से भर गया था तब उनके अंतर्जगत में उपजी अनुभूतिसिक्त संवेदना ही उनकी वाणी से कविता बनकर उमड़ पड़ी थी. तो इस करुणापूरित अनुभ्ूति-संवेदना के अलावे काव्य का सत्य और क्या हो सकता है. पर इनके वक्तव्यों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि काव्य-सत्य से इनका क्या तात्पर्य है. हाँ काव्यदृष्टियाँ भिन्न हो सकती हैं, काव्याभिव्यक्तियाँ भिन्न हो सकती हैं. ऐसे में सप्तक के कवि जिन राहों के अन्वेषी हैं वे राहें काव्य-सत्य की नहीं हैं. करुणा और संवेदना की राहें नहीं होतीं. ये ही शब्दों से आत्मीय होकर उन्हें काव्य का व्यक्तित्व प्रदान करती हैं. राहें तो दृष्टियों और अभिव्यक्तियों की ही हो सकती हैं. कविता के संबंध में इनकी दृष्टियाँ और उसकी अभिव्यक्ति की राहें पूर्ववर्ती कवियों से नितांत अलग हैं, इनकी कविताओं में यह साफ झलकता है.
    सप्तक के कवियों की काव्य-चेतना में उनकी व्यक्ति-चेतना ही उद्बुद्ध है. उनकी अनुभूतियॉ भी व्यक्ति सापेक्ष अधिक हैं समष्टिगत कम. इन लोगों ने अभिव्यक्ति की एक राह या शैली अपनाई है ‘मैं’ की. नए कवियों के लिए यह शैली बहुत उपयोगी है और कदाचित काव्यजगत के लिए भी. अज्ञेय इसे कवि के लिए एक आवश्यक परसोना बताते हैं. वैसे ही जैसे नाटक में वास्तविक पात्र को अभिनीत करनेवाला अभिनेता अभिनेय चरित्र का एक परसोना होता है. तब क्या प्रयोगवादी अथवा नई कविता में ‘मैं’ कवि की अनुभूति का नाट्य कर रहा होता है ? तब जिस अनुभूति की प्रमाणिकता का हौवा खड़ा किया गया था उसकी प्रामाणिकता का क्या होगा. अनुभूति की प्रामाणिकता की बात तो तभी की जा सकती है जब अनुभूति स्वयं ‘मैं’ की ही हो. अभिनेता अभिनेय पात्र का समग्ररूप का साक्षात नहीं होता. वह अपनी सटीक अनुकरण-कला से अभिनेय को प्रत्यक्ष कर रहा होता है. वहाँ अभिनेता अभिनेय पात्र नहीं है और अभिनेय पात्र अभिनेता नहीं है.
    मैं यह भी महसूस करता हूँ कि जिस नई तरह की चेतना से संवलित कवियों को सप्तक के मंच पर इकट्ठा कर एक नए तरह के काव्यांदोलन का उद्घोष किया गया था उसका देश, काल, परिवेश और अनुभूत अपने नहीं थे. देखें, सन् 1939 ई में दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ा. भारतीय सेना को भी उस युद्ध में झोंक दिया गया. यहाँ उसका विरोध हुआ पर स्वतंत्राता सेनानियों तथा यहाँ की स्वतंत्राताकामी जनता में इसके प्रति जरा भी विक्षोभ के लक्षण नहीं दिखे. उलटे सन् 1942 ई में स्वतंत्राता के अंतिम वारे न्यारे के लिए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का पुरजोर नारा लगा. इसकी जबरदस्त धमक सन् 1947 ई तक बनी रही. अंततः हमें आजादी मिली. सन् 1962 ई के पूर्व तक हमें कोई ऐसा धक्का नहीं लगा जिससे हम कुंठित अैर संत्रस्त हों. पर नई धरा के ये कवि अद्भुत रूप से कुंठा और संत्रास का अनुभव करते रहे. वास्तव में ऊसरे महायुद्ध 1939-45 ने पश्चिमी मन, बुद्धि को बुरी तरह झकझोर दिया था. पश्चिम का मन संत्रास और बुद्धि कुंठा से भर गई थी. और राहों के अन्वेषी ये कवि अपने यहॉ के जनमानस की मनोदशा को किनारे कर पर की कुंठा और संत्रास से पीड़ित होते रहे.
    इस दौर की काव्य-चेतना में एक और बात उल्लेखनीय है. इस काव्य-चेतना से संवलित कवि अपने अंतर्जगत की अंतर्ग्रंथियों से बुरी तरह पीड़ित दिखते हैं. प्रपद्यवाद या नकेनवाद, अकवितावाद, कविता की वापसी, विचार कविता, कभी कुछ और पूर्वलग्नयुक्त कविता आदि अतिरंजनाएँ समय समय पर स्फोट करती रहीं हैं. ये सारे वाद कवियों के अपने निजी आग्रहों के विस्फोट-से हैं. कविता तो कभी कहीं गई नहीं  पर कुछ कवि अपने अंतर को टटोलने के बजाय इसके विस्मृत होने, खो जाने और फिर उसके वापस होने का घोष करते रहे. यहाँ उल्लेखनीय है कि यह सब अज्ञेय की प्रयोगवादी अथवा नई कविता के बाद की स्थिति है जो स्पृहणीय नहीं है.
    पर यह भी झुठलाया नहीं जा सकता कि आज की तिथि में आज के कवि इसी नई कविता के दौर में सॉस ले रहे हैं.
                                     यह संगुफन    प्रारंभ से लेकर आजतक की हिंदी की कविता-यात्रा की समीक्षा में मैंने महसूस किया कि छायावाद के पूर्व तक करुणा और उसकी संवेद्यता कविता के केंद्र में रही है. इसमें भावना की प्रधानता रही है. छायावाद में भावनाओं के साथ कल्पना की अनूठी उड़ान भी जुड़ गई है. कथ्य को संवेद्य और संप्रेष्य बनाने लिए कवियों ने काव्यगुणों पर भरपूर ध्यान दिया हे. जिन लोगों में कवियों की  अभिव्यक्तियाँ  जानी थीं  उनकी ग्रहणशीलता, उनकी भावगत और मानसिक स्थिति का उनको पूरा बोध होता था. संस्कृत में जिसे साधरणीकरण कहा गया है आज उसका स्थान संप्रेषणीयता ने ले लिया है. ये कवि अपनी अभिव्यक्तियों के संप्रेषण के लिए पूरी तरह सजग रहते थे. पर मार्क्सवादी कविता से आजतक की कविता के केंद्र से ये तत्व और प्रवृित्त विस्थापित -से हैं. इन कविताओं के केंद्र में बुद्धि बुरी तरह हाबी है. इनमें आयास का श्रम है,  अभिव्यक्तियाँ स्फूर्त नहीं हैं. ये कविताएँ  जिन आयामों में विचरण कर रही हैं वे कुछ ही बुद्धिशाली लोगों तक अपनी पहुँच बनाती प्रतीत होती हैं. इनकी आलोचनाएँ और  समीक्षाएँ भी कुछ इस तरह प्रस्तुत की गई हैं, और की जा रही हैं कि उनमें वायवीयता ही अधिक मिलती है. इधर आलोचना में एक नया स्वर सुनाई दिया है- ‘कविता का अर्थात’.  डॉ परमानंद श्रीवास्तव ने कुछ चुनिंदा कवियों की कविताओं में ‘कविता के अर्थात’ को खोजने का प्रयास किया है, गोया ‘कविता का अर्थात’ कविता के लिए कोई नई मूल्य-चेतना हो अथवा कविता स्वयं में आज इतनी दुरूह हो गई है कि उसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उसका कोई अर्थात खोजना पड़ रहा है.  
    मेरा यह संगुंफन नई कविता के इसी दौर में लिखा गया है, अभी ही बीती सदी के उत्तरार्द्ध में. मेरी भावाभिव्यक्तियों के केंद्र में करुणा और उसकी संवेद्यता, दोंनों हैं. बुद्धि भी सानुपातिक है. विचार हैं, कल्पना है. इसमें लघु मानव भी है और महामानव भी. पर यहाँ लघु और महा एक झीने अंतर्स्वन से जुड़े हैं. इन्हें संप्रेष्य बनाने के लिए  मेरी काव्य-चेतना भी पूरी तरह सजग है. हाँ इनमें कुछ तत्सम शब्दों को लेकर सामान्य पाठकों को समस्या हो सकती है. पर वे इस कठिनाई से आसानी से पार पा सकते हैं क्योंकि इनमें वायवीयता नहीं है.
    अपनी भावाभिव्यक्तियों के लिए मैंने कलेवर ‘नर्इ्र कविता’ का, छंद में मुक्त छंद और शैली ‘मैं’ की अपनाई है. यह ‘मैं’ एक अर्थ में परसोना जैसा लगता है क्योंकि यह मेरे अंतर्भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है. किंतु सत्य यह है कि इसमें स्वयं मैं और मेरे अनुभूत धड़क रहे हैं. मेरे इन अंतर्भावों में मेरी अस्मिता घुली हुई है.
    इसमें मैंने हर संभव प्रयत्न किया है कि मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ वह मेरे संबोध्य तक तो एक लय में पहुँचे ही इसके पढ़ने सुनने वाले के हृदय में भी समतरंगों में प्रतिस्वन करे. काव्यभाषा भी मैंने कथ्य के अनुरूप ही अपनाई है.
    मेरे लिए कविता न कहीं गई थी न वापस हुई है. कविता के अणु कवि ही नहीं, हर व्यक्ति के अंतर्जगत में विद्यमान हैं. कैसे कुछ कवि यह कह सके कि कविता की अब वापसी हो गई है, मानो वह कहीं चली गई थी. जिस समय यह विचार हमारे सामने आ रहा था उसी समय भिखरी ठाकुर, जिन्हें राहुल सांकृत्यायन महाकवि की संज्ञा देते हैं, अपनी भोजपुरी कविताओं को जनोन्मुख कर रहे थे. भोजपुरी भी हिंदी की
ही एक उपभाषा है. अवधी और ब्रजभाषा की तरह इसका भी हिंदी में स्थान है. लोक के जन अपनी गलियों, खेतों, चौपालों में जत्थे बनाकर अपनी भाषा में गा नाच कर, और अपने हृद-मन में उमड़ती भावनाओं को अपने शब्दों में पिरो कर हवा में तरंगायित करते रहते हैं. यह कविता ही तो है. इन कवियों को इमानदारी से स्वीकार कर लेना चाहिए था कि उनके हृद-सर का करुणाजल सूख गया था. उनके हृद-मन की घाटी में प्रतिसंवेदन की क्षमता छीज गई थी. कविता न कहीं गई थी न कहीं जाती है. उसके अणु हर व्यक्ति के हृदय में अंतर्भूत रहते हैं. इसको उद्बुद्ध करने के लिए व्यक्ति को अपनी संवेदना को घना करना पड़ता है.
     मेरी काव्य-चेतना ने इस संगुफन में कुछेक प्रयोग किए हैं. इसे इस संगुंफन के शिल्प में देखा जा सकता है. मैं कविता की गलियों का राही हूँ. इस काव्याभिव्यक्ति में मैंने कमोबेश एक नई राह अपनाई है. काव्यवस्तु के चुनाव में अधुनातन दृष्टि का पोषक हूँ. पर मैं उसे उसके पहले की चेतना का ही विकास मानता हूँ. इस संगुंफन की काव्यवस्तु में तुलसी की विनयपत्रिका की झलक है किंतु इसमें अपने संबोध्य तक पहुंचने के लिए तुलसी के दावपेंच नहीं हैं. इसमें तर्क से तर्कातीत की ओर अग्रसर होते हुए सीधे संबोध्य की समानुभूति में प्रवेश करने की चेष्टा है. इस चेष्टा में मेरी आँखों के तिल में विश्व तरंगित है. विश्व-क्षितिज के कोने कोने से आती अनुभव-तरंगें हमारे पोर पोर का अतिक्रमण कर हमारे उर-मन को कुरेदती हैं.
    मैंने अपने हृद-मन की घाटी में इन तरंगों को प्रतिसंवेदित होने दिया है. अपने अकेले के पलों में इनके पलों को निहारा है. फिर अपने अकेले की नाव लिए अपने अकेले के पलों को जीता हुआ अपने संबोध्य की उपस्थिति में अपने अकेले की ओर चल पड़ा हूँ. फिर कुछ पल ठहर कर मैंने अपने अंतस्तल की संवेदना के तंतुओं में उमड़ते करुणाजल को टटोला है. फिर मैं अनुस्मरण में तल्लीन हो गया हूँ, इस परीक्षा के लिए कि जिस राह का मैं राही हूँ उस राह में मेरे संवेदना के तंतुओं में कहीं विखराव तो नहीं हो रहा.
    मुझे  लगता है  आज की  सबसे बड़ी समस्या आज का मनुष्य है. मनुष्य की संवेदना मर-सी गई है.  कवि भी करुणा और संवेदना को कम महत्व देने लगे हैं. उनकी संवेदना उनकी बुद्धि के भार से बोझिल हो गई है. वे इनकी समाई, उनके आयाम और अस्तित्व को तर्क की धनी बुद्धि से नापने लगे हैं. मेरी दृटि में आज कवियों को अनिवार्य रूप से करुणाप्लावित होकर ऐसी रचनाएँ लोक को देनी चाहिए जो उनकी संवेदनाओं को घना करे. अबतक की कविताओं ने उन्हें केवल सुखाया है.  मेरी समझ से व्यक्तिमात्र के अंतर्जगत में बीजरूप में विद्यमान संवेदना के अणुओं को उद्बुद्ध कर उसे घना करना हमारा काव्यधर्म होना चाहिए. इस संगुफन में मेरा यही प्रयास है.  अस्तु.

             
      
  

       पुरश्चरण

     मित्र !
     मेरी आँखों के दृष्टिपथ में
     जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है
     मुझे लगता है यह प्रकृति
     किसी रमणीय अवगुंठन में सजी ढँकी
     एक अद्भुत सत्य की तरफ
     नित्य प्रति
     इंगित करती रहती है.
     उसकी चिद्प्रतीति से
     बोध के स्तर पर
     मैं रोज तर बतर होता रहता हूँ
     कभी कभी मेरा स्थूल
     मुझे किसी सूक्ष्म का
     मूर्त प्रतिबिंबन-सा लगता है
     इस क्षण रह जाती है
     बस अस्तित्व की एक सघनता
     अथवा किसी सघनता का सूक्ष्म.
     पर हाय
     पल दो पल का यह उन्मीलन
     स्वप्नों की घड़ियाँ बन जाता है
     पुरा अद्य अपरद्य
     पुनः संघटित हो जाते हैं
     फिर मेरे अंदर घटित होता है एक जन्म
                           
     और मैं बन जाता हूँ                    
     जन्मों की एक अटूट श्रृंखला
     फिर भी मेरे बोध की गहराई में
     मेरी प्रतीति के छोरों को नापता
     कहीं कुछ अंकुरित भी होता है
     सृजन के अर्घ्य-सा सहज सरल
     ढरक जाने को
     क्षितिज के खुले संपुट में
     उससे छिटकती किरणों के अंतरिक्ष में
     एक किरण-सा हो रहने को.
                       2.
     मेरी अनुभूति के किन्हीं क्षणों में
     मेरे अस्तित्व के परमाणु
     कुछ इतने सघन हो उठे
     कि मेरे प्राणों ने
     एक वर्तुल बना लिया
     उस वर्तुल में कुछ उद्भास जगा
     और मेरा अंतःकरण
     एक मौन अंतर्ध्वनि से तरंगित हो उठा
     सृिष्ट के पल
     अपने अंतर्बाह्य विकारों में आपूरित हो उठे
     इसी क्षण
     भावानुभूतियों के अंकुरण से
     मैं भावाकुल हो उठा
     मेरे भावापन्न पल
     मुझे ठेलकर उस विंदु तक ले गए
     जहाँ संवेदना के आकाश ने
                          
     ठोस धरती का रूप लिया
     सृजन के क्षण अकुला उठे
     अभिव्यक्ति को रूप का ढाँचा मिला
     और मेरे हृदय की तरंगों ने
     अपने को रच-बुनकर
     अपनी ही शाखों पर कुछ फूल खिलाए
     मैने शाखों से अलग किए बिना ही
     इन फूलों को एक तरल सूत्र में गूँथ लिया
     यह गुंथन ही
     इस संगुम्फन में रूपांकित हो उठा है
     एक पुष्पमाला की तरह.
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 

                            
                                                                                                                                   

      प्रतिसंवेदन   

     मित्र !
     यह सामान्य सा अनुभव है कि
     कोख के अंधेरे में ही
     प्रच्छन्न होती है कोई प्रभा
     और कोख की ही उष्मा से पोषित हो
     किसी माता की गोद में
     वह आँखें खोलती है
     कोई वपु धारण कर.
     वह वपु कभी तुम्हारा होता है कभी मेरा
     इस वपु में ही
     हमें पूरी करनी होती है
     अपनी जीवन यात्रा.
     मित्र !
     तुमने अपनी यात्रा पूरी कर ली
     तुम अब समय और सीमा से अतीत हो
     तुम्हारे ठोस वपु के अणु
     अब प्रकृति के स्पंदनों के साथ
     एकलय  हो चुके हैं
     किंतु मैंने
     जीवन के सूक्ष्म स्पंदनों,
     उसके उष्मल पदचापों को
     अभी ही सुना है
     अभी ही मेरे भीतर कुछ झंकृत हुआ है.
                      
     इन झंकारों ने
     संपूर्ण जीवन-प्रसंगों की
     जीवंत संवेदनाओं से
     मेरे पूरे अस्तित्व को
     अभी ही तरंगित किया है.
     मैं अनुभव कर रहा हूँ
     इन तरंगों से तरंगायित मेरा सर्वांग
     संसार में संसरित होते हुए भी
     मुझे अकेले की अनुभूति से
     भरे दे रहा है.
     मुझे लग रहा है
     मैं अकेले की नाव पर सवार हूँ
     मेरे पल अकेले के हैं 
     यात्रा भी मुझे अकेले की
     और अकेले तक की ही करनी है.
     मित्र !
     मेरी यह अनुभूति
     पूरी है या अधूरी, मैं नहीं जानता
     पर तमाम अहजहों के होते हुए भी
     रुक रुक कर ही सही
     मैंने अपने कदम बढ़ा लिए हैं
     अब परिणति की चिंता क्या
     अनुभव की संपदा ही बटोर लॅू
     यही बहुत है.
                     क्रमशः

No comments:

Post a Comment