Friday 23 May 2014

असंतोष जो सन् 2014 के संसदीय चुनाव में फूटा

सन् 2014 के इस संसदीय चुनाव में काँग्रेस के विरुद्ध जो जनादेश गया है उसने कोई रातों रात आकार नहीं लिया है. इसको आकार लेने और घना होने में एक लंबा समय लगा है. 

यह भी एक तथ्य है कि यह असंतोष केवल कांग्रेस के ही विरुद्ध नहीं वरन समूचे राजनीतिक धड़ों के खिलाफ है. जनता को जब जब जिसमें उम्मीद की लौ दिखी उसे उसने सर आँखों पर लिया- कभी जयप्रकाश नारायण को, कभी अन्ना हजारे को, कभी केजरीवास को और अब नरेंद्र मोदी को.

मुझे लगता है कि इस जन-असंतोष की नींव उसी समय पड़ गई थी जब काँग्रेस से गाँधी का साया हट गया. काँग्रेस को गाँधी ने सेवादल के रूप में ढलने की सलाह दी थी पर कोंग्रेसी नेताओं की राजनीतिक लिप्सा ने ऐसा नहीं होने दिया. नेहरू के नेतृत्व में काँग्रेस की सरकार बनी. किंतु नेहरू के व्यक्तित्व में गाँधी का लचिलापन और प्रभावशालिता नहीं थी. फलस्वरूप उनके मंत्रिमंडल में उनसे असहमति के स्वर उठने लगे. स्वातंत्र्यचेता मंत्रियों/नेताओं  ने अपने लिए जनसेवा की अलग राहें खोज लीं. अंबेडकर दलितों के नेता के रूप में उभरे, राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी बनाई, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की और जयप्रकाश नारायण तथा राममनोहर लोहिया ने प्रजा सेसलिस्ट पार्टी बनाई. असंतोष की यह पहली झलक थी. जो अभी नेताओं के स्तर तक ही सीमित थी. पर नेहरू इससे बेचैन नहीं हुए, वल्कि उनके लिए यह खुशी का सबब था. क्योंकि पश्चिमी रंग ढंग में ढले नेहरू भारतीय संस्कृति को भी पश्चिमी आँखों से ही देखते थे. और अपने ही विचारों को सर्वोपरि मानते थे. 

उनके अपने विचारों की सर्वोपरिता के दुराग्रह के कारण ही भारतीय सीमा के प्रहरी सीमा-सुरक्षा के लिए आवश्यक उपयुक्त हथियारों से लैस नहीं किए जा सके. जबकि हमारे बाद सन् 1949 में आजाद हुआ चीन ने केवल अपनी सीमा को सुरक्षित किया वल्कि असावधान हमपर आक्रमण कर  हमारे एक बड़े भूभाग को हथिया लिया. इस चीनी आक्रमण ने नेहरू को बेचैन कर दिया. मंत्रिमंडल पर भी उनका नियंत्रण ढीला पड़ गया जिसे कामराज प्लान लागू कर उन्होंने बरकरार रखा. उनके बाद लालबहादुर शास्त्री का कार्यकाल बहुत शानदार रहा. उनके हर कदम में जनता की सहभागिता रही. चीनी आक्रमण के समय जिस जनता ने अपने को असहाय और अपमानित महसूस किया था 
उसने शास्त्री जी की उनसे कराई गई प्रतिज्ञाओं को बड़े उत्साह से अपनाया. उसने महसूस किया कि उसमें भी बल पौरुष है. वह शत्रुओं से भली भाँति निपट सकती है. बस नेतृत्व दिलेर चाहिए. लेकिन नेहरू प्रेमियों ने उन्हें भुला दिया. लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद काँग्रेस के नेहरू प्रेमियों ने अनुभवहीन इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया. पर नेहरू के समय जो असंतोष का बीज पड़ गया था उसने कोँग्रेस में दो फाड़ करा दिया. इंदिरा गाँधी के धड़े ने इसमें बाजी मारी. इनके ही नेतृत्व में बाँगला देश का युद्ध हुआ. इस युद्ध में मिली सफलता और ''इंदिरा गाँधी आई हैं नई रोशनी लाई हैं'' के नारे ने इंदिरा गाँधी को और काँग्रेस को काफी बल प्रदान किया. किंतु इस नारे की विफलता ने श्रीमती गाँधी को अलोकप्रिय कर दिया और राजनीति के स्तर पर क्रमशः जोर पकड़ता उक्त असंतोष अब जन-असंतोष का रूप ले लिया. इंदिरा गाँधी के कर्तृत्वों ने इस असंतोष की आग में घी डालने का काम किया. उनके प्रतिद्वंद्वी सांसद राजनारायन सिंह ने रायबरेली से उनके सांसद चुने जाने को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगन्नाथ सिन्हा ने श्रीमती गाँधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. विना सांसद रहे भी प्रधानमंत्री की हैसियत से श्रीमती गाँधी ने जिस तिथि को चुनाव हुआ था उसकी पिछली तिथि से संसद से अपने पक्ष में संविधान-संशोधन करा लिया. यही नहीं उनके शासनकाल में राष्ट्रपति जैसे पद और पद्म जैसे नागरिक सम्मान का भी अवमूल्यन हो गया. प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में भी विद्वान और अनुभूतिशील राजनेताओं के लिए स्थान नहीं रह गया. और इनकी अकुशलता के कारण जब जनता पर इनका प्रभाव क्षीण होने लगा और इनके शासन के विरुद्ध जनांदोलन छिड़ गया तब श्रीमती गाँधी ने देश में इमरजेंसी की घोषणा कर दी. लगा जैसे सत्ता के विना वह रह ही नहीं सकतीं. उन्होंने जनांदोलन ''संपूर्ण क्रांति'' का आह्वान करने वाले वयोवृद्ध नायक (सन् 1942 के भारत छोड़ो अभियान की खिसकती बागडोर को थामने वाले योद्धा) जयप्रकाश नारायण को आवारा जैसे मुजरिमों पर लागू होने वाली धारा में गिरफ्तार कराकर जेल भिजवा दिया. कहाँ भारत रत्न का पूरी तरह से हकदार व्यक्ति और कहाँ यह जेल. गरिमा में अपने से भारी या समकक्ष के प्रति जवाहर लाल में जो इर्ष्या थी इंदिरा गाँधी में वह कुछ अधिक ही मात्रा में थी. उनका यह कदम उनको बहुत भारी पड़ा. इमरजेंसी के बाद होने वाले संसदीय जुनाव में उन्हें और उनकी पार्टी को बहुत ही बुरी तरह हार खानी पड़ी. इस जन असंतोष ने उन्हें बुरी तरह तो़ड़ दिया.

लेकिन संपूर्ण क्रांति के जनांदोलन के कंधे पर सवार होकर आई मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली कई महत्वाकांक्षी दलों से मिलकर बनी जनता दल सरकार कारगर सिद्ध नहीं हुई. यह दल जे पी आंदोलन की तीखी धार देखकर जल्दबाजी में सत्ता पाने के लालच में बहुत सारे छोटे दलों के इकट्ठे होने से बना था. जयप्रकाश का सोचना था कि टुकड़ों में बँटे ये दल इस आंदोलन की धारा में बूँदों की तरह मिलकर एक प्रखर धारा का रूप ले लेंगे. पर ऐसा हो नहीं सका. जल्दी ही इसमें खींचतान और विखराव शुरू हो गया. मोरारजी के बाद इस विखरते टूटते दल का नेतृत्व चरण सिंह ने संभाला और बिना लोकसभा का सामना किए ही उन्होंने लोकसभा भंग कर दी. संसदीय चुनाव की घोषणा हो गई. आंदोलन की कोख से निकले इस दल ने जनता को बेहद निराश किया. इनका प्रदर्शन काँग्रेस के प्रदर्शन से भी खराब रहा. फलतः इस चुनाव में जनता ने विकल्प के रूप में काँग्रेस को चुना. इसलिए नहीं कि कांग्रेस एक निपुण सरकार देगी, वरन इसलिए कि निजी महत्वाकांक्षा में डूबते उतराते दलों की अपेक्षा यह भले ही अच्छी सरकार न दे सके, एक स्थिर सरकार तो दे ही सकती है. पर कांग्रेस ने अपनी हार से कुछ नहीं सीखा. अपनी सरकार को सत्ता में येनकेन प्रकारेण बनाए रखने के लिए इसने कई संवैधानिक संस्थाओं को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया. फिर गठबंधन- सरकारों का दौर आया. इन सरकारों ने जनता की निराशा को बढ़ाया ही. कुछ समय के लिए गठबंधन सरकार का नेतृत्व अटल विहारी बाजपेई के हाथ में आया पर जन-असंतोष में कोई कमी नहीं दिखी. फिर गठबंधन से दूर भागनेवाली काँग्रेस की गठबंधन-सरकार आई. मनमोहन सिंह प्रधान मंत्री बनाए गए. कुछ ही समय तक वह स्वतंत्र प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर सके. फिर उनकी स्थिति एक रोबोट जैसी हो गई. सरकार में सत्ता का एक बाह्य केंद्र बन गया. जब भी उन्होंने अपने मन से काम करना चाहा, सत्ता के इस बाह्य केंद्र से जुड़े मंत्री प्रधानमंत्री की अवहेलना पर उतर आए. प्रधानमंत्री ने भी सत्ता से जुड़े हर विषय पर मौन साधना ही बेहतर समझा. संभवतः उन्होंने बिना जनता से चुनकर आए, राज्यसभा के सदस्य चुने जाने और प्रधानमंत्री बनाए जाने को इस बाह्य सत्ता केंद्र का अपने प्रति आभार माना.

इस मनमोहन सरकार की हर मोर्चे पर विफलता और परोक्ष रूप से सत्ता चलाने वाले बाह्य केंद्र द्वारा अपनी ही सरकार की फजीहत करने, हाथ से सत्ता को सरकते देख उसके द्वारा उसपर पकड़ बनाए रखने के लिए अनाप शनाप राजनीतिक निर्णय लेने, मँहगाई, घोटालों को रोकने का प्रयास करने के बजाए घोटालेबाजों को बचाने में ही सारी ताकत लगाने, केवल शुद्ध राजनीतिक लाभ के लिए आंध्र का बँटवारा करने, भारत रत्न के प्रथम अधिकारी हॉकी खिलाड़ी की उपेक्षा कर द्वतीय अधिकारी को भारत रत्न देने और देश की वास्तविक हालत की अनदेखी कर केवल एक ही राजनेता पर ऊलजलूल तरीेके से आक्रामक होना काँग्रेस के लिए भारी पड़ गया. जनता को काँग्रेस सहित अन्य दलों के कार्यकलाप ने भी संतोष नहीं दिया. इसी बीच अन्ना हजारे के जनलोकपाल बनाओ की मुहिम से निकले अरविंद केजरीवाल की एक नई राजनीतिक शैली ने जनता को, विशेषकर युवाओं को आकर्षित किया. उन्हें केजरीवाल में आशा की एक नई किरण दिखी. किंतु अभी बीते संसदीय चुनाव में अरविंद की नीयत की विकृति लोगों को दिख गई. भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने युवाओं में उमड़े उत्साह और मूड को भाँपा और तदनुसार अपने को बदला. अपने चुनावी भाषणों के दौरान उन्होंने जनता की नब्ज पर हाथ धरा, जनता में उथल पुथल मचा रहे असंतोष को पढ़ा. चुनावी भाषणों की अवधि समाप्त होते होते जनता के हरेक वर्ग ने उन्हें एक नए रूप में देखा जो उसके अनुकूल था. उनकी पार्टी भाजपा ने भी उन्हें भरपूर सहयोग दिया और अब परिणाम हमारे सामने है.

यह मोदी सरकार जनता की उम्मीदों पर कितनी खरी उतरेगी यह भविष्य ही बताएगा.








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