Saturday 17 May 2014

चुनाव परिणाम आने के बाद

17.05.2014

   सन् 2014 ई के भारत की संसद का चुनाव कई मायने में ऐतिहासिक रहा.  

   प्रथम तो इस चुनाव के संपन्न होने की अवधि अबतक के हुए चुनावों से सर्वाधिक लंबी थी. इस चुनाव में चुनाव का तरीका भी द्वन्द्वपूर्ण था. चुनाव में भाग ले रही पार्टियों ने अपने प्रचार के लिए शिष्टाचार की सीमाओं को भी लाँघने में कोई संकोच नहीं किया. चुनाव के अंतिम चरण में तो यह प्रचार व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप तक ही सिमट कर रह गया.

  परिणाम की दृष्टि से भी यह चुनाव अभूतपूर्व रहा. राजीव गाँधी की सरकार के बाद दिल्ली की सभी सरकारें गठबंधन की सरकारें थीं. उनके साथ गठबंधन की सारी कमजोरियाँ बनी रहीं जिनने देश को और जनता को कमजोर ही किया. सरकार को बनाए रखने के लिए पार्टियों की तुष्टीकरण की नीति ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया जिसने मनमोहन की सरकार में एक दानव का रूप ले लिया. पर इस चुनाव ने एक अप्रत्याशित परिणाम दे दिया. तमाम राजनीतिक विवेचकों के अनुमानों को धता बताते हुए इसने सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के रूप में भाजपा को पूर्ण बहुमत दे दिया. भाजपा के चिंतकों को भी इसका अनुमान नहीं था. हालाँकि भाजपा के पी एम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी उर्फ नमो के धुँआधार और तर्कसंगत प्रचार ने जनता में अपार उत्साह का संचार कर दिया था पिर भी वे यही मान रहे थे कि इसे पूर्ण बहुमत भले न मिले सबसे बड़ी पार्टी के रूप में यह अवश्य उभरेगी.

  क्या इस परिणाम का कारण किसी चमत्कार को माना जाए अथवा यह माना जाए कि इसप्रकार के परिणाम की भूमिका जाने अनजाने पहले से ही बन रही थी. भाजपा (बिल्ली) के भाग्य से जो यह सिकहर टूटा है, इक्कीसवीं सदी में इसका कारण चमत्कार को मानना बुद्धिसंगत नहीं है. मेरी समझ से उद्विग्न जनता में वर्तमान व्यवस्था के प्रति पक चुका धोर असंतोष ही प्रकाश की एक धुँधली किरण देख उफन पड़ा है. असंतोष के इस उबलते उफान की झलक हमने प्रथमतः जे पी आंदोलन में देखा था जिसे जनता पार्टी के रूप में इकट्ठे महत्वाकांक्षी नेताओं ने लपक लिया था और उसकी धार को भोथरा कर दिया था. फलतः संपूर्ण क्रांति का सपना महज एक नारा बनकर ही रह गया. फिर यह उफान, अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में भ्रष्टाचार मिटाओ के नारे के साथ उबाल खाते युवा वर्ग के प्रबल विरोध में दिखा जो आम आदमी पार्टी के बैनर तले अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए राजनीति के क्षेत्र में उतर पड़ा. लेकिन उनका यह विरोध एक आंदोलन नहीं बन सका. अरविंद केजरीवाल की असली आकांक्षा को जनता ने बहुत जल्दी पहचान लिया. असंतोष और व्यवस्था परिवर्तन के इसी उबाल को अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान भाजपा ने, वल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि नरेंद्र मोदी ने बड़ी चतुराई से लपक लिया. कांग्रेस की मूर्खता ने भी इसमें मोदी को सहयोग ही दिया. और इसका परिणाम हमारे सामने है. अगर सन् 1976 ई की जनता पार्टी की तरह वही मूर्खता भाजपा ने या मोदी ने फिर दुहराई तो इसका परिणाम अब भयंकरता का रूप ले लेगा इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं. जनता के मन में पैठा असंतोष बारूद की ढेरी के समान है. असंयत चिनगारी केवल विस्फोट कर सकती है. रचनात्मक शक्तियों को तब असहाय हो आँसू बहाने के लिए बाध्य हो जाना पड़ेगा. आशा करता हूँ नरेंद्र मोदी की अभिवृत्ति में दिख रहा आता बदलाव उन्हें संयमित राजनीति की ओर ही धकेलेगा.

  जनता के मन में उबाल खाता यह असंतोष है क्या, इसे हमें समझना होगा. आइए इसे समझने का प्रयास करें.
                                                                --शेष अगली कड़ी में
  
 

       

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