7 जुलाई 2014 को रचनाकार में प्रकाशित
अकेले की नाव अकेले की ओर - 2
अकेले की नाव
मित्र !
धरती पर जब मेरी आँखें खुलीं
मिट्टी के स्पर्श ने
मेरे पैरों में बल भरा
ममता भरी आँखों की
उष्मल छुअन ने
मेरे पोरों में जीवन की उष्मा भरी
मैं प्रकृति के नेह से नहा उठा
तब सामने पसरी प्रकृति मेरी थी
मैं प्रकृति का था.
जब मैंने जीवन में प्रवेश किया
मुझे लगा
मिट्टी तो अब भी स्पर्श-मधुर है
पर उन आँखों में
अब दृष्टियों की एकरूपता नहीं है
स्नेह के झीने धागे
अब डोरियों में बदल गए हैं
एक कदम भी आगे चलने पर
उनके कसाव का अनुभव होता है
इनको झिटक देने पर
मुझे लगता है मैं अकेला रह गया हूँ
हाँ अंतरिक्ष का आह्वान
जैसा तब था वैसा अब भी है
आज भी
कुछ उष्मल आँखों के आमंत्रण
मुझे खींचते हैं
पर ये आँखें मेरे समानांतर ही
प्रकृति की कोख में
कहीं स्वतंत्र रूप से खुलीं हैं
जो प्रेमल हैं, उर्जपेाषी हैं
उनके आबद्धन की आकांक्षा
मेरे भीतर से उमड़ी पड़ती है.
इन्हीं के साथ
अनेक अतृप्तियों की एकांत अनुभूतियों से भी
आज मैं अवबोधित हूँ
जिनकी पूर्ति के लिए
कुछ ही पल की टकटकी के बाद
मैं बिलकुल अकेला हो जाता हूँ
और इस यात्रा के लिए
स्वयं मुझे अपने अंतर को
आवेग देना पड़ता है
अर्थ यह कि मुझे अपनी नाव
स्वयं ही खेनी पड़ती है
बिलकुल अकेले अपने अकेले की.
मित्र !
अद्भुत है यह दुनिया
इसमें कसाव भी है और आकर्ष भी
इनकी जड़ें बहुत गहरी हैं
अतः इनके संतुलन में
अकेले की नाव खेना
एक रोमांचक अनुभव है
उसमें बहुत कुछ खोने
और बहुत कुछ पाने का आनंद है
इनके उच्छल अभियान में
मन और शरीर की पीड़ाएँ
जैसे विधि-लेखी हैं
सृष्टि के आकाश में
बहुत सारे कंपन प्रकंपन हैं
जो सहज संवेद्य नहीं है
पर वायु में तरंगित
तुम्हारे प्रखर आमंत्रण ने
मेरी संवेदना के द्वार खोल दिए हैं
और मैंने अपने अकेले की नाव
तुम्हारी तरफ मोड़ ली है
अब मैं
नभवासी चंद्रमा की तरह
तुम्हारी तरफ अग्रसर हूँ
तुम्हें इसका भान अवश्य होगा.
मित्र !
यह अग्रसरण मेरा संकल्प है
पता नही इसका पर्यवसान
तुम्हारे प्रति मेरे समर्पण में होगा
या तुम-सा हो रहने में
जो कुछ भी हो
अभी तो अपनी नौका खेते रहना ही
मेरा ध्येय है
मैं चलता रहूँगा, अपनी नौका खेता रहूँगा
हर पल हर क्षण.
2.
मित्र !
देह और देही के बीच
रच गए आकाश में
जिसे तुमने
अपने अनुभव और अस्तित्व से
तय कर लिया है
मेरे अकेले की नाव संतरण पर है.
अपनी नाव के संतरण के लिए
मैंने कगारों से बल लिया है
उन कगारों से
जहाँ मेरे प्रयाण के पक्ष भी थे, विपक्ष भी
जहाँ समय के प्रवाह में बदलती
संसार की संपूर्ण प्रवृत्तियॉ थीं
और विद्यमान थे
इन्हें केंद्र में लेने के
ज्ञान विज्ञान के सारे प्रयत्न
इससे भी बढ़ चढ़ कर थी
इस अतल और अछोर आकाश के
अंतर्भेदन की
मेरी उन्मुक्त अभीप्सा.
आकाश को बाहों में भर लेने का
उद्दाम आवेग
मैंने अपने स्रोतों से लिया है
अपनी रचना के परमाणुओं को
पोर पोर टटोला है
और मैंने वहॉ पाया है
अपने अभियान का पूर्ण प्रसरण.
अपने पोरों का संसरण
और अपनी स्नायुओं का हौसला नापकर
मैंने अपनी पालें खोल ली हैं
बूँद में दिगंत की यत्रा के लिए.
बड़ी ही सूक्ष्म और
विस्तीर्ण है यह कुक्षि
जिसमें मुझे यात्रा करनी है
इसमें डगमगाती नौका के लिए
कोई टिकाव नहीं है
नौका की संभारित अतियों का संतुलन
मुझे खुद ही रचना है
बड़ा कठिन है यह कार्य.
पुराकाल में इसे रचने
लोग हिमालय जाते रहे हैं
जीवन के कोलाहल से हटकर
जीवन के सूत्र रचते रहे हैं
किंतु आज इसे सरे बाजार रचना है
भीड़ में खड़े खड़े ही
मुझे अंतःप्रवेश करना है
नियति के फैलाव में ही
नियति का अंतःकेंद्र ढूँड़ना है
तभी यह नौका दौड़ते मेघों पर
स्यंदन दौड़ाने जैसी खेई जा सकेगी
अपनी पूरी त्वरा में, अपने पूरे अस्तित्व में.
3.
मित्र !
बड़ी अद्गुत है यह मेरे अकेले की नाव
कोई आभरण नहीं, पर
पूरी लदी फदी लगती है
कोई दिशा नहीं
पर पूरी अभिदिष्ट-सी है.
यह कोई मतिभ्रम है या सत्याभास
मालूम नहीं
पर यह स्थिति
न मुझसे झेली जाती है
न छोड़ी ही जाती है
इसमें टिक रहना बड़ा चुनौतीपूर्ण है
बस यूँ कहूँ कि
सीधे झोंक देना है अपने आप को
उस धधकती आग में
मेरा होना ही जिसकी आहुति है.
पर इस धरती पर उतरा हूँ
तो धरती के अनुशासन
छूटने से तो रहे.
ये झलकियाँ
मुझे आनंदित करती हैं
अपने पौरुष का
उद्भेद पाता हूँ मैं इसमें
दिगंत को ललकारने का
अपार बल महसूस करता हूँ
अपने पोरों में
पर इस विचिकित्सा से
मैं उबर नहीं पा रहा हूँ
कि आँखों की राह
अभ्यंतर में उतरने पर
देही देह का अंतर मिट जाता है
पर आँखें खुलीं तो
देह-सत्य को नकारना कठिन लगता है.
तुम्हारी लौ की विकीर्ण उष्मा से
मैं आंदोलित हूँ
पर मेरे अंतर में
लोक के केालाहल भी
एक आंदोलन रच रखे हैं
धरती का पुत्र होकर धरती की वेदना से
मैं आहत न होऊँ
यह कैसे हो सकता है
आभास और एहसास के पाटों में
ऊब डूब होती मेरी आँखें
तुम्हारी लौ की तरफ अपलक संदिष्ट है
स्नायुओं में किसी अ-पर की आहट
और परे की सनसनाहट लिए.
4.
मित्र !
अपने सामने पड़े दृश्य
अपने अस्तित्व की सरसराहट
और अपने तईं अनुभूत संसार को
अपनी कोख की उष्मा में तपाते
बिंदु में दिगंत की यात्रा पर निकल पड़ा हूँं
अकेले, अकेले की नाव लिए.
मैं इस उन्मुक्त आकाश में
उन्मुक्त यात्रा का आकांक्षी हूँ
राह में
संघर्ष की कौन सी स्थिति होगी
मैं नहीं जानता
क्योंकि यात्रा के लिए
जो मैंने राह चुनी है
वह दृष्टि के प्रतिष्ठानों से नहीं
मेरे अपने प्रतिमानों से होकर जाती है
जो कुछ भी टकराहट या टूटन होगी
वह मेरी ही निर्मिति में
मेरी ही निर्र्र्मिति की होगी
जो प्रतिमाऍ टूटेंगी, खण्डित होंगी
उनकी दरकन की आहट
मैं अभी ही सुनने लगा हूँ.
मैंने अपनी काया में, चिति में
बहुत सारे जंगल
और झाड़ियॉ उगा ली हैं.
इनसे निर्भार होना ही
संघर्ष का पहला मुद्दा बनेगा
लेकिन मुद्दा बनाकर
राजनीतिक जंग मुझे नहीं छेड़नी
मेरी तो दृष्टि
अब सीमा में नहीं अँट रही
काँटों से लहू लुहान होते भी
पर-अपर में
उलझने का संशय लिए भी
मर्मभेदन का संकल्प प्रगाढ़ करते
मैं तिर रहा हूँ
अपने अकेले की नौका पर
अपने अकेले की पतवार खोले.
स्मृतियाँ मेरा पीछा नहीं छोड़तीं
इनसे पीछा छुड़ाने को मैं तत्पर भी नहीं
आकर्षणों को मैं-सा
मैंने इन्हें ध्यान में ले लिया है
विकर्षण मेरे जीवन का प्रेय नहीं है
मेरे पोर-पोर में
संतुलन की कामना है.
मै सृष्टि से विमुख नहीं हूँ
हो भी कैसे सकता हूँ
दृष्ट अदृष्ट के तार तो
मैंने तोड़ लिए हैं
अपनी इस अकेले की यात्रा के लिए
पर हवाओं पर मेरा वश नहीं
वे अपने स्पर्श से
कभी अभिभूत, कभी कातर
करती रहती हैं मुझे
सृष्टि की सुकृतियाँ और विकृतियाँ
मुझ तक लाना नहीं भूलतीं
मैं इनकी वर्जना कर
इनको बलात ठेलकर
अपने से दूर नहीं कर रहा
वल्कि इससे भींग कर
इन्हें भी अपनी चेतना से भिंगो रहा हूँ
और मैं चकित हूँ यह गुन कर
कि तीखे सवाल मुझे विक्षिप्त नहीं करते
वरन एक समझ विकसित करते हैं
मेरे परमाणुओं में
मैं संघर्ष की उत्तुंगता को
भास्वर बनाते
उसी वीणा की लय में समेकित करते
तिर रहा हूँ
अकेले अकेले की नाव लिए
5.
मित्र !
इस यात्रा अंतर्यात्रा के दौरान
मैं एक तटहीन तट से आ लगा हूँ
बहुत से अन्वेषी
किसी संकल्प की प्रेरणा से
सागर की छाती पर तिरते तिरते
धरती के किसी ठोसपन से
लगते रहे
पर मैं आज जहाँ आ लगा हूँ
वहाँ किसी ठोसपन का अस्तित्व नहीं
चारों तरफ बस तरल ही तरल है
मैं स्वयं भी
एक तरलता का एक हिस्सा-सा
हो रहा हूँ.
पर मेरे बोध में
पृथकता का एहसास अभी भी है
मुझे साफ नगता है
यह कोई तटहीन तट है
पर मेरे तईं यह भी स्पष्ट है कि मैं
किसी नदी का द्वीप नहीं हूँ.
थोड़ी देर के लिए
मुझे दिग्भ्रम-सा हो गया है
मैं तुम तक पहुँचूँगा या नहीं
संदेह के अंकुर उग आए हैं
मेरे मन में
थोड़ा ठिठक भी गया हूँ मैं
पर इस अभियान से विरत
मुझे नहीं होना है.
तुम्हारी दिशा की टोह में
प्रकृति की अंतर्प्रवाही तरंगों को
मै अपना स्पंदन दे रहा हूँ
इन तरंगों के कणों को
मैं अपनी अंतराभिव्यक्ति का
अंकन दे रहा हूँ
ये तुम तक पहुँचेंगीं अवश्य
इनमें बल होगा
तो तुम्हें आंदोलित भी करेंगीं
फिर तुम्हारे बिंदु बिंदु संकेतों पर
मैं परिचालित हो उठूँगा.
यों इन बिंदु-संकेतों के अंतरान्वेषण में
मैं प्रतिपल प्रयत्नशील हूँ
क्योंकि मित्र !
मेरे पोरों के आंदोलन
आकंठ करुणा से आप्लावित होकर
मैं यहाँ ठिठका हूँ अवश्य
पर किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं हूँ
न ही तुम्हारे संकेतों की प्रतीक्षा में
मुझे यहॉ रुकना है
मेरे स्पंदन
प्रकृति के पोर पोर में अनुबद्ध
तुम्हारे संकेतों का सान्निध्य पाने को
निरंतर प्रयत्नशील हैं.
6.
मित्र !
मेरी भाव`स्थ्तियों ने
अपने विवेक का दीया लिए
तुम तक जाने की राह ढूँढ़ ली है.
इस क्षण
मुझे अपने गंतव्य की धॅुधली सी रेखा
दिखने लगी है
तुम्हारे आमंत्रणों ने
मेरे पोरों में जो जागृति भर रखी है
उसमें मुझे
आत्माभिमुख होने का संकेत मिला
तुम तक पहुँचने की उत्कंठा में
मैं अपने होने में ही
धँसता चला गया.
पर आश्चर्य
यहाँ से भी एक राह तुम तक जाती है.
पर मेरे मित्र !
जिस भावस्तर में
इस क्षण मेरी गति हो रही है
तुम मेरे गंतव्य प्रतीत नहीं होते
न ही तुम मेरे अर्थ लगते हो
मैं अपने आप को तिलांजलि देकर
भक्ति के आबद्धनों में
समर्पण के लिए उद्यत भी नहीं हूँ
वरन अपना गंतव्य,
अपना अर्थ पाने की चाह में
जितनी भी देशनाएँ
आज हवा में तिरती पाता हूँ
मेरे तईं इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण
तुम्हारी देशनाएँ हैं
मैं चाहूँ या न चाहूँ
ये ठोंक ठोंक कर
मेरे केंद्र तक को हिला देती हैं
मेरे अस्तित्व में
नदी का प्रवाह घोल देती हैं
प्रकृति की लय से संवलित
और मेरे आपूरित पलों से उद्वलित.
मैं इस सदी के अंतिम दशक में
अपने मध्याह्न की साँसें लेता
एक नए मनुष्य के जन्म की
आहट पा रहा हूँ
सदी की उत्त्प्त घड़ियों में
इसके स्वाभाविक प्रसव के लिए
तुम्हारी देशनाओं में
संतुलन की त्वरा है
उच्छल जीवन के उद्भव हेतु
मुक्त गगन का आह्वान है
मैं अपने अंतर की राह
तुम्हारे आह्वान को पकड़कर
तुम तक पहॅुचने ही वाला हूँ
मेरे आने की धमक तो
तुम तक पहॅुच ही चुकी होगी.
7.
मित्र !
बड़ी उत्कंठा के साथ
मैंने अपनी नाव
तुम्हारी तरफ मोड़ ली थी
पर तुम तक पहॅुचने के पूर्व ही
तुम्हारे आंगन के द्वार पर
टँगी तख्तियों ने
दूर से ही मुझे टोका.
मैं ठिठका, उन्हें घूरा
और कुछ सोचना चाहा
कि किसी अंतर्ध्वनि ने मुझे विरत किया
मुझे अपनी ही तरफ
घूरने का संकेत दिया.
तुम्हारे सिंहद्वार पर पहॅुचने के पूर्व
मैं आज भी
अपने को घूर रहा हूँ
और इस घूरने के क्रम में
ढेर सारे प्रश्न
मुझे व्यथित किए दे रहे हैं.
अपनी यात्रा के दौरान
मैं अभिभूत था
तुम्हारे आकर्षक प्रवचन
मेरी चेतना की गाँठें खोलते से लगते थे
कई गुत्थियों के तुम्हारे सुझाए तर्क
मेंरे अपने तर्कों के प्रमाण से लगते थे
आज भी इनमें बदलाव नहीं आया है
किंतु मैं आज अभिभूत नहीं हूँ
आज मेरे पल
मुझे ठेलते से हैं तुमसे पूछने को
कि तुमने
अपने तक पहुँचने के लिए
निर्भार होने की शर्त क्यो लगाई
रामकृष्ण ने तो यह शर्त
विवेकानंद पर नहीं थोपी
वह तो प्रश्नों का भार लिए ही
पहुँचे थे उनके पास.
मित्र ! तुम मुझमें
अपना दीया आप होने की
चेतना जगाते हो
पर अपने दीए की लौ तक आने को
निर्भार होने की शर्त लगाते हो
मैं सच कहूँ तो इस क्षण
प्रश्नों का भार लिए ही
उद्विग्न फिर रहा हूँ मैं.
तुम तक पहुँचने के लिए
यह जो मैं उत्कंठ हूँ
यह भी एक भार ही है
ये भार मुझसे अलग नहीं हो सकते
तुम तो प्रश्नों की खेती करते हो
मैं यहाँ तुम्हारे बहुत निकट
भूमि पर पसरा हुआ हूँ
आकुंचित विकुंचित हो रहा हूँ
कर सको तो करो खेती
वैसे अपने अंतर के तंतुओं में
इन प्रश्नों की राहें ढॅूढ़ रहा हूँ मैं
मेरे दीए का प्रकाश
बहुत मद्धिम है आज
पर जितना ही अंदर धॅस रहा हूँ
प्रकाश की तीक्ष्णता में
कुछ फर्क आता-सा महसूस होता है
शायद कल बहुत फर्क आ जाए.
8.
मित्र !
तुम तक पहुँचने की उत्कंठा
वस्तुतः भौगोलिक दूरी तय कर
श्रद्धाभिभूत
तुम्हें आँख भर देख लेने की
उत्कंठा नहीं थी
न ही दर्शन की सामयिक प्रकृति से
मैं अनुप्राणित था
अपितु मैं तो तुम्हारे चिदस्पर्श को
अभ्यंतर की अनुभूति बनाने की
आकांक्षा से अनुप्रेरित था.
तुम्हारी वाणी में आकर्षण है
तुम्हारे शब्दों में कविता है
और मुझमें काव्यविवेक हो या न हो
भावों के हुलास अवश्य थे
संवेदना भरपूर थी
तुम्हारे निजत्व के निकट से
बहती सरिता में
मैं अपनी संवेदना की धरोहर पाता था.
तुम्हारी तरफ जाने के जिए
न मालूम कितनी बार मेरे कदम उठे
पर मेरे अंदर के किसी अदृष्ट ने
मेरी श्रद्धा को टोका
और टोकता रहा
मेरे कदम रुकते रहे
तुम्हारे सदेह साक्षात के लिए
मैं नहीं आ सका
हालॉकि तुम्हारी अनुभूति को
अपनी बनाने के क्रम में
अपने दोस्तों द्वारा
‘रजनीश’ उद्वोधन से
व्यंगित किया जाता रहा.
इस नामकरण के व्यंग्य से
मैं कभी अभिभूत नहीं हुआ
न ही कभी उद्वेलित
यहॉ तक कि तमाम प्रतिटिप्पणियॉ भी
मुझे आक्रुद्ध नहीं कर सकीं
हॉ ये घटनाऍ
मुझे अपने ही विवेक के केंद्र पर
आरूढ़ होने के लिए
संबल अवश्य साबित होती रहीं.
और एक दिन
मुझे पता भी न चला
और मेरे विवेक ने मुझे धक्का देकर
मेरी नौका को
तुम्हारी तरफ ठेल दिया.
बीच धारा में मुझे पता चला
अपनी नौका पर मैं अकेला हूँ
हालॉकि मेरी दृष्टि में
तुम प्रतिपल संवेदित थे
मेरी सारी खिड़कियाँ खुलीं थीं.
हवा के ताजे झोंके
बाजवक्त मुझे सिहरा जाते थे.
इस पूरी यात्रा के दौरान
अपने विवेक और समझ को
मैंने कभी नहीं छोड़ा
तुम दृष्ट अवश्य थे, मेरी अंतर्दृष्टि
सदा इनसे परिचालित रही
और कुछ इसी का फल है
कि आज तुम्हारे द्वार पर
मैं मोहग्रस्त चिंतन के वशीभूत नहीं हूँ.
आज मैं इस बोध से भींग रहा हूँ
कि प्रकृति की एक ही कोख ने
तुम्हें और मुझे जना है
पर तुम्हारी स्नायुओं में
प्रकृति छलक रही है
पर मेरी स्नायुओं में
अभी यह घुली घुली ही है
कल छलकेगी या परसों
पर एक दिन छलकेगी अवश्य.
अकेले के पल
मित्र !
मेरी ऑखें
प्रकृति के आँचल में खुलीं
आँचल की थपकियों में
मुझे ममत्व मिला
फिर उसकी उँगलियों के सहारे
प्रकृति की विराटता में
मेरे कदम उठे
एक दिन वे उॅगलियाँ अदृश्य हो गईं
स्थूलता ने सूक्ष्मता का बाना पहना
और तब मुझे लगा
इस विराट की यात्रा में
मैं अकेला हूँ,
मेरे पल अकेले के हैं.
मैने यह भी अनुभव किया
कि मेरे पास
मेरी निजता की नाव है
जो अस्तित्व की डोर से बँधी
उससे छिटकी एक इयत्ता है
जिसकी पतवार भी मैं हूँ और पाल भी मैं हूँ
और कितना आश्चर्य है
कि यात्री भी मैं ही हूँ.
विराट की करुणा और विराटता की तरफ
48 : अकेले के पल
साश्चर्य खुली मेरी आँखों ने देखा
कुछ खूँटियाँ भी हैं मेरे गिर्द
जो मेरी ही तरह छिटक कर
रूप-कल्पित है
कुछ विकसित कुछ अंतर्विकसित
जिसका मैं चुनाव कर सकता हूँ
मैंने चुना भी, पर खो गया
जब धुरी पर लौटा
तो हवा में तरंगायित तुम्हारे आमंत्रणों ने
मुझे आकर्षित किया
खूँटी से टिक रहने का भय तो
यहाँ भी था
पर अंतरिक्ष के आह्वान से आंदोलित
बीज के प्राणों में
जैसे विस्फोट हो गया हो
तुम्हारे आमंत्रणों ने
मेरे प्राणों में विस्फोट किया
और मैं अपनी नाव
तुम्हारी तरफ मोड़े बिना
नहीं रह सका.
ये आमंत्रण
मानों पंक्ति पंक्ति में बोलती
अस्तित्व की ताजी रचना हैं
जिसकी अभिव्यंजना के तरंगाघात
मुझे मुकुलित करते हैं
मैं इन आमंत्रणों की तरफ मुखातिब
अपने अकेले की नाव में
अपने अकेले के पलों को साथ लिए
तुम्हारे सिंह-द्वार तक आ पहुँचा हूँ
देख रहा हूँ
यहाँ अनेक तख्तियाँ टँगी हैं
ये मुझे टोकती हैं, टटोलती हैं
मेरी आहट लेती हैं
मेरी संभावनाओं की टोह लेती हैं
सो तुम्हारे सिंह-द्वार तक आकर
मुझे ठिठकना पड़ा है.
संप्रति मैं यहाँ ठिठका खड़ा हूँ
ये तख्तियाँ मुझे टोकें, टटोलें
आहट लें, टोह लें
जो भी इनकी प्रयोगशीलता माँगे
ये करें
मुझे कुछ नहीं करना
मैंने तो बस
इनकी संवेदनशीलता पर
अपनी दृष्टि टिका दी है
मैं भी इन्हें उलटूँगा, पलटूँगा
कान पाते ठोकूँगा
अपनी इयत्ता में पूर्ण हो इन्हें झिंझोड़ूँगा.
अब,
जब मैं यहाँ तक आ ही पहुँचा हूँ
तो मिलने की उत्कंठा को
क्योंकर दबाऊँ.
लो मैंने अपने कदम उठा लिए
दस्तकों के लिए हाथ भी उठ गए
अब इसका साक्षी तो मैं ही हूँ
मैं दस्तकें दे रहा हूँ
इन्हें सुन भी रहा हूँ
इस क्षण
मेरा पूरा अस्तित्व झंकृत है
लहरों के वृत्त बन रहे हैं
देखें इनकी वीचियॉ
कहाँ खोकर
कहाँ अंतर्घ्वनित हेाती हैं.
2.
मित्र !
तुम्हारे खुले द्वार पर
दस्तकों के लिए उठी मेरी उँगलियाँ
उठी ही रह गईं हैं हठात
कुछ अनचाहा देखकर
अनुमान से परे गुनकर
जीवन की पूरी ईकाई को
उसकी पूर्णता से तोड़कर
अंतर्प्रवेश को शर्तों से बाँधतीं
इस तख्ती ने
मुझे टोक दिया है, झकझोर दिया है-
‘‘मस्तिष्क और जूतों को यहीं उतार दें’’.
मित्र !
जूते तो जीवन के साथ
विकसित तत्व नहीं हैं
परंतु मस्तिष्क तो
शरीर के तंतु-विकास का
स्वाभाविक परिणाम है
चेतना के शिखर में
क्या बुद्धि असंस्पर्श्य हो जाती है
विवेक और समझ का आमंत्रण
पर मस्तिष्क का अनामंत्रण
यह गुत्थी मुझसे सुलझती नहीं
मैं इस तख्ती की वर्जना को मानूँ
तो इन पलों को मुझे छोड़ना होगा
जो मेरे रक्त में एकीभूत हैं
‘आनंद’ ने इन पलों को छोड़ा
पर ‘बुद्ध’ का साहचर्य भी उसे
‘महाकश्यप’ नहीं बना सका.
मस्तिष्क को यहीं उतार दूँ
पर भला कैसे
समर्पण तो भक्त भी करते है
गुलाम और बूँधुआ मजदूर भी
मैं अपने मस्तिष्क को उतारकर
यहाँ जूतों की तरह नहीं रख सकता
तुम्हारी ड्यैांढ़ी से पृथक होने पर
उन्हें पहनना ही पड़ेगा
खंडित व्यष्टि से आपूर्य
अस्तित्व की सुगंध के स्वाद में
चेतना के साथ विकसित तथ्य
मस्तिष्क का तर्कानुक्रम
शीला 1 के अनावृत छद्म की
कड़वाहट भर देगा.
तुम्हारे खुले द्वार पर
मैंने अपने को
पूरा का पूरा उतारकर
कुछ क्षणों के लिए
आंगन के पार के द्वार को
लांघने को सोचा अवश्य
पर तब असमंजस ने आ घेरा
पूरा उतारने के बाद
मैं बचूँगा कितना
शून्य होने की कला तो
मुझे आती नहीं
सो बरबस
मुझे यहीं, द्वार पर ही
रुकने को बाध्य होना पड़ा है
बिना दस्तक दिए
अपनी संवेदनाओं में डूबता
मैं यहीं अटका खड़ा हूँ
रिक्त होता, दिशाओं को पीता हुआ.
तमाम स्पंदनों ने
मुझे आ घेरा है
पर एक विशिष्टता है
इनके साथ मैं अपने को भी देख रहा हूँ.
1 ओशो की शिया जिन्होंने रजनीश ( ओशो ) के नाम से एक धर्म चलाना चाहा.
3.
मित्र !
‘अमृता 1’ कहती हैं
‘‘छाती में जलती आग की
परछाईं नहीं होती.’’
संभव है यह सच हो
मैं ही भ्रम में होऊँ
पर मेरे तईं
यह अजूबा ही घट रहा है
कि अपनी छाती में
बलती अग्नि-ज्वाला की
परछाईं के पकड़ने के प्रयास में ही
तुम्हारे सिंहद्वार तक
मेरा आना हुआ है.
पूरी यात्रा में
इस आग की लपलपाती लौ
कभी दिखती
तो कभी लुप्त होती रही है.
दिखती ज्वाल-शिखा के
छितराए प्रकाश में
मैं अपने को पंक्ति दे रहा हूँ
लोप होने पर भी मैंने
किसी पंक्ति की माँग नहीं की है
तुम्हारे सिंहद्वार पर भी
1.प्रसिद्ध कवियित्री अमृता प्रीतम
द्वार खुले हैं
पर जलते बुझते प्रकाश में
तख्तियों के उभरते मिटते अंकन
मुझे ठिठकाए हैं यहाँ
और अंतराग्नि द्वारा रचे द्वंद्व
मेरे अंतर्द्वंद्व से एकाकार हो
मुझे अंचंभे में डाल रखे हैं
सौदामिनी के प्रकाश में
दस्तक देना भूल गया हूँ
तुम्हें मेरी आहट तो मिल ही गई होगी
मैं इन तख्तांकनों में
तुम्हारी आहट ढूँढ़ रहा हूँ.
इस क्षण
मेरी छाती में जलती आग
मुझे ऑच दे रही है
मन के आंगन में उठते धुंध
इस आँच की गरमी से
विरल अवश्य हो रहे हैं
पर तुम्हारी आहट पाने का एकांत
नहीं रच पा रहे हैं
किंतु मैं भी खूब हूँ
तुम्हारी आहट पा लेने को
यहीं जमा पड़ा हूँ.
4.
सुना है मैंने मित्र !
तुम एक अग्नि-कवि हो
तुम्हारे पास एक आग है
जिसे कविताओं के गद्य में समो कर
हवा में उछालते हो
जो फूलों की खिलावट को
तरल क्रांति का प्रकंप तो देती ही है
पत्थर-सी जड़ता को भी
एक झटका दे जाती है
इन झटकों का ताँता
उनकी बौखलाहट को
घना करता जाता है.
यह भी सुना है कि
ऐसी ही एक अग्नि-संवेदित कविता
तुम मेरे लिए भी लाए हो
तुम्हारे सिंहद्वार पर
मैं प्रतीक्षालीन हूँ
अपेक्षित सन्नाटा भी बुन रहा हूँ
और बड़ा गजब है
मुझे एक आहट भी सुनाई देने लगी है
जो निरंतर घनी होती जा रही है.
इस क्षण मेरे अंतर में भी
एक ध्वनि उठने लगी है
जिसकी आहट के प्रति
मेरा अवधान संवेदित है
इन आहटों की प्रतिसंवेदनों से
अभिभूत हूँ मैं
इनके उत्स में उतरने को अनुप्रेरित
तुम्हारे द्वार पर दस्तक देना भूल गया हूँ
क्या मालूम दस्तक देने की भी
कोई सार्थकता है या नहीं.
5.
हे अग्नि-कवि !
तुम मेरे लिए
जो अग्नि-कविता लाए हो
उसे पाने की बड़ी उत्कंठा है
मेरे मन में
किंतु उसके स्वीकरण की
जितनी तैयारी है
मेरी चिद्रचना में
इसके प्रति संचेतित भी हूँ.
इस तैयारी की एक धॅुधली सी
उभरती मिटती प्रतीति
उस कविता की ओर
मुझे लपकाती है
पर पल प्रतिपल
अंतस्तल से उठती कोई टोक
मेरे उठते कदम को
बाधित किए दे रही है.
तुम्हारी अग्नि-कविता
अकम्पित
शून्य तरंगाघातों की तरह
मेरे गिर्द मौन मुखरित हैं
यह एहसास मुझे है
किंतु जान पड़ता है
प्रकृति का संतुलन
मेरे अनुकूल नहीं है जिससे
तुम्हारी कविता मेरी नहीं हो पाती.
कहीं ऐसा तो नहीं
कि तुम्हारी कविता में
जिस रहस्य-खोज का अनुगुंथन है
वह प्रकृति के संतुलन-रहस्य का
जागरित आत्मीकरण ही है
जिससे छिन्न मेरी भटकन के
उद्बोध के लिए
अपने भाविक संवेदन में
अग्निल अंतरर्थों को भरा है तुमने
युगीन संवेदनाओं के अनुकूल
युगीन संदर्भों में.
तब तो
तुम्हारी अग्नि-कविता के
पाने की उत्कंठा
यहीं से यहीं तक के बीच का
अर्थवान आंदोलन होना चाहिए
मेरे अंतरावेगों की टोका टोकी में
कहीं मेरा यही अंतरर्थ तो
उन्मीलित नहीं है.
मित्र !
अब तो तुम्हारे सिंहद्वार से
दस्तकें न देकर
प्रकृति के अचेतन विस्तार में
अपने अंतरर्थ को ही क्यों न ढूँढ़ लॅू
मुझे लगता है
तुम्हारी निकटता से
संस्पर्शित वायु-कणों व
आकाश के परमाणुओं में
यह ढूँढ़ सरल होगी.
यहाँ एक संधि बनती है
जहाँ सार असार के द्वंद्व में
मेरी प्रयोगधर्मिता
जागरण का प्रयोग कर सकेगी
उसके संघातों को झेल सकेगी.
6.
मित्र !
अपने आकाश को घेरकर
मैंने अपना ऑगन बनाया था
जिसके एक कोने में बैठकर
मैंने सोचा था
पक्षियों के स्वरित गान में
किरणों को पसारते
दोपहर के प्रज्वलन में तेज दिखाते
और अपनी सांध्य-अनुभूतियों
के जागरण में
डूबते सूरज को
मैं देख सकूँगा
और प्रकृति के रहस्य में
अपना रहस्य खोज सकूँगा.
पर इसी समय
वायु के अणु-तरंगों ने
एक निमंत्रण दिया था जिसमें
तुम्हारे शब्दों की ध्वनि और
सिहराता स्पर्श था
उसमें इतना तीव्र कर्षण था कि
अपने अकेले की नाव में बैठ
अकेले के पलों को साथ लिए
तुम्हारे सिंहद्वार तक
मैं खिंचा चला आया था.
वहाँ देखा तुम्हारे द्वार खुले थे
खिड़कियों से प्रकृति निकल पैठ रही थी
फिर भी दस्तक देकर ही
तुम्हारे ऑगन में मैं आना चाहता था
पर दस्तक के लिए उठे मेरे हाथ
उठे ही रह गए थे
द्वार पर टॅगी तख्तियों ने मुझे टोका था
और मेरी उमड़ी श्रद्धा
ठिठकी रह गई थी.
यों इस यात्रा के पहले
कितनी ही बार यह श्रद्धा
उभरती मिटती रही है
किंतु तब कुछ अचंभा नहीं लगा था
पर उस दिन देखा
मैं नदी का द्वीप हो गया हूँ
दूर तक दृष्टि दौड़ाया
कहीं कोई छोर नहीं दिखा
लहरें मुझसे टकराती रहीं
फिर पलटकर
दूर दिगंत में अंतर्र्लीन होती रहीं
वहाँ कुछ दिखी तो केवल प्रकृति दिखी
मेरा मैं नहीं दिखा
पर ‘मैं’ का एहसास दिखा.
मेरे अकेले के पल मेंरे साथ थे उस दिन
मैंने सोचा अभी दस्तक न दूँ
थोड़ा ठहरकर
अपने पलों को ढूढ़ूँ
अपने आप को खोजॅू
कहीं मैं खो तो नहीं गया.
अभी मैं
अंतरान्वेषण में ही लगा था
कि फिर एक स्पंदन हुआ
जो जड़ें
अभी मेरी मुट्ठी में नहीं आईं थीं
एकबारगी हिल गई
लगा कुछ टूट गया
और मेरे अंदर एक रिक्ति उतर आई
एक शून्य तिर गया.
इस प्रतीति ने
शायद मेरी स्नायु की
कोई गाँठ खोल दी
मेरा आकाश
मुक्ति की करुणा से नहा गया
पर कौन सी गाँठ खुली
मैं नहीं समझ सका
पर ग्रंथि खुलने पर मुझे भाषा कि
तुम्हारा भी अपना एक आँगन है
पर उसकी सीमाएँ नहीं दिख रहीं
पर तुम जागरित थे
अस्ति नास्ति से दूर
वह घेरा तुम्हें उत्पीड़क लगा
उसे तोड़कर
आखिरकार तुम आकाश हो गए
सारा आकाश.
कल तुम देही वर्तमान थे
आज तुम शून्यक आकाश हो
अपने देहांतरण के अंतिम क्षणों में
तुमने कहाः
‘‘मैं सदैव वर्तमान हूँ
कल सागर बूँद में सिमट कर
स्थूल हो गया था
आज बूँद सागर में मिलकर
विस्तार पा गई.’’
मित्र !
आज तुम्हारी सीमाएँ
नहीं दिख रहीं
पर तुम्हारी उद्स्थिति
मेरी अनुभूति को छेड़ती है
और भी जीवंत और भी ज्वलंत होकर
काश मैं इन पलों का होकर
इन्हें जी पाता
आकाश की शून्यता मेरी हो जाती
पूरी या अधूरी.
7.
मित्र !
चला था मैं अकेले
अकेले की नाव लिए
तुम तक की एक लंबी यात्रा पर
तू है तो
यहीं से यहीं तक की
दूरी जितनी दूरी पर
पर तुम्हें अनुभव बनाने के लिए
जन्मों की यात्रा भी
शायद छोटी पड़ जाए.
मैं इस दुस्सह लोक-गति की
विपरीत यात्रा पर
विलकुल निस्संग चला था
अपने अकेले के पलों को भी ठेलकर
मैंने दूर किया था
पर ये अनामंत्रित पल
न तो मुझसे छूट सके
न मुझे ये छोड़ सके
ये नाक की साँस की तरह
मेरे साथ लगे रहे हैं.
आज मैं महसूस करता हॅू
इन्हें ठेलकर दूर करना
वर्जना की दृष्टि है
यह इन्हें और बल दे गई
वस्तुतः इन्हें अलग
किया भी कैसे जा सकता था
ये ही तो मेरी उपस्थिति के
जीवंत रेखांकन हैं
आकाश की कोख में
मेरे होने के हस्ताक्षर हैं
ये मेरे वर्तमान हैं
मैं इनका वर्तमान हूँ.
लोक-दृष्टि में मैं अकेला हूँ
मेरी नाव भी अकेली है
मेरा साक्षी जानता है
कि मेरा ‘मैं’ भी मेरे साथ नहीं है
तय के अनुसार मैंने
अकेले ही प्रस्थान किया था
पर इन पलों का मैं क्या करूं
मुझे क्षमा करना
फिलहाल मैं जिस स्थिति में हूँ
ये पल ही मेरे निर्माण के
साक्षी रहेंगे
यहाँ मेरे चिदअणुओं में पर्त दर पर्त
स्पंदाघात करेंगे
इन्हीं पलों के मौन में
मैं अभिव्यक्त हेाता रहूँगा
मेरे केंद्र के गिर्द
यही मेरा संघनन करेंगे.
मित्र !
तुम्हारे द्वार तक
इन्हीं पलों की तीव्रता
इन्हीं का ओज
इन्हीं की चुभन लिए
मैं आया हूँ आंगन पार करके
पर यहाँ के संस्पर्शों ने
मुझे यहीे ठिठका दिया है
इन पलों के तनावों ने
मुझे जड़ दिया है सागर की लहरों पर
यहाँ मैं हूँ, मेरे पल हैं
समाने उच्छल सागर है,
सागर का विस्तार है
और इस विस्तार के कंपन में
मेरी अनुभूति के स्पंदन हैं.
8.
मित्र !
तेरे आंगन तक तो
मैं पहुँच गया, पर
लौ से बाती जितनी दूरी
अभी भी बनी हुई है
मेरे और तुम्हारे बीच.
जरा सी दीखती यह दूरी
बड़ी पीड़क है
बुद्धि झनझना जाती है
अनुभूति छोटी पड़ जाती है
पर हिम्मत मैं हारूँगा नहीं
विवेक और अनुभूति को और बड़ा करूँगा
प्रयोग और प्रयत्न के बल
अपनी पूरी इयत्ता को
अपनी पूरी रचना को
झकझोर डालूँगा
अपने समकालीन पलों के साथ
बीते पलों को भी
बींध डालूँगा मैं.
मन की खाई से भी
अब मुझे डरना नहीं है
अनुभव बताता है
मैं डरा
तो मूल्यवान पल छूट जाऍगे
मेरी यात्रा के संवेदन
मन का अवबोधन बन जाएँगे.
मेरे मित्र !
लौ तो बाती का अनुभव है
मुझे बाती की तरफ लपकती लौ को
अपना अनुभव बनाना है.
कुछ पल तक
पृथ्वी ग्रह पर तेरे ठहरने ने
बाती और लौ के बीच के
अंतराल का यात्रा पथ
मुझे समझा दिया है.
देहांतरण के बाद भी
तुम वर्तमान की अभिव्यंजना हो
अपार्थिव
मैं वर्तमान की व्यंजना हूँ
पार्थिव
इस अंतराल-यात्रा की
समस्त पीड़ाओं को
समस्त अनुभवों को
मैं झेलूँगा
कदाचित दूर दीखती वह लौ
इन्हीं तरंगों में उद्भासित हो उठे.
9.
मित्र !
कहते हैं
नदी के साथ रहना आ जाए
तो नदी सब सिखा देती है.
नदी के पास कल कल ध्वनि है
तो गहन मौन भी
अविरल प्रवाह है
तो किनारों की तलस्पर्शिता भी
गति की धरोहर है
तो अवरोधों की वर्जना भी.
नदी अवरोधों के पीड़न से
खीझती नहीं न डरती है
उसे अनागत के आमंत्रण का संज्ञान है
और अंतरिक्ष के आह्वान का
सार्थक भान भी
वह धरती के आलिंगन का
पुलक लिए भी
बूँदों की छलांग से आकाश नापती है
जीवन के सातत्य
और उसके संपुटित अस्तित्व के प्रवेग से
उसका प्रत्यंग झंकृत है
मैं उस अंतराल का हो जाऊँ
अंतराल के साथ रहना सीख लूँ
शायद यह अंतराल
मुझे सब कुछ सिखा दे.
10.
मित्र !
मेरी आकांक्षा बन रही है
कि मैं इस अंतराल को
जो मेरे तेरे बीच रच गया है
जीना सीख लूँ
कदाचित कल
यह मेरा आकाश बन जाए.
मैं समझता हूँ
मेरे ‘मैं’ के दृढ़ संयोजन का तरलीकरण ही
संभवतः अस्तित्व का साक्षात है.
मित्र !
अद्भुत है
इस अंतराल की प्रवाहमयता
इसमें कबीर की उलटबाँसियों की
अनुभूतिशील प्रवणता है
इसमें
कभी बूँद समुद्र में समाती दीखती है
कभी समुद्र बूँद में
कभी शून्य की संवेदना से
मेरा आपाद तरबतर हो जाता है
मेरी इयत्ता की लकीरें
तिरोहण के सुपुर्द होने लगती है.
प्रकृति की सत्ता में
प्रकृति की संज्ञानों का खोना
अद्भुत अनुभव है
अपनी मिट्टी के आधार पर
पैर टिका कर
मैं इस अनुभव की कला
सीखना चाहता हूँ
अपने खट्टे मीठे पलों के साथ
इस अंतराल का
मैं सहयात्री बनूँगा
इसे जीना सीखूंगा
जीवंत होकर.
11.
मित्र !
कल तक मैं बाती था
स्नेह-तरल लौ पर टिकी थीं
मेरी आँखें
बड़ी उत्कंठा थी वह लौ
मेरा अनुभव बन जाए.
उत्कंठा अब भी है
पर अब वह
मेरे तंतुओं का आवेग नहीं
उनकी रसमयता है
वह मेरी कल्पना में,
आठों पहर की कल्पना में,
निरंतर घट रही है
लोक-यथार्थ से बिना कटे.
मेरी ऑखों के एक तिल में
अतींद्रिय घट रहा है
दूसरे में
जगत का व्यापार.
लौ अब भी मुझसे दूर है
एक सूक्ष्म आकाश जितनी दूर
पर अब उसके संस्पर्श की उत्कंठा नहीं
वही हो रहने की ललक है.
मैं बहुत खुश हूँ
कि अब मैं
अपने कदमों की आहट सुन सकता हूँ
मेरे कदम मेरे अनुशासन में हैं
उनके अपने पल हैं
अपने पदचाप हैं
जिनकी थरथराहट में
वे अपने को रचते हैं.
दूर दूर तक मैं देख रहा हूँ
एक सूना सागर
सन्नाटों में लहरा रहा है-
मेरे सन्नाटों में,
मैं खुद भी अपने सन्नाटों में
ऊब चूब हो रहा हूँ.
कभी सूक्ष्म की छुअन
कभी स्थूल का स्पर्श
और फिर
मेरे पोरों में प्रकंपन,
अद्भुत है यह अनुभव.
इस अतिरेक में
कह नहीं सकता
मेरी ऑखें उस लौ पर टिकी हैं
या वह लौ खुद ही अपनी आँखें
मुझपर टिकाए है
मित्र ! मेरे पल
कितने अपने हो गए हैं.
12.
मित्र !
मैं बखूबी जानता हूँ
कि मैं तुमसे
मात्र लौ भर की दूरी पर हूँ
किंतु यह दूरी
अंतरिक्ष की समाई लिए
प्रतीत होती है.
बड़ी उत्कंठा है इसे मैं तिर जाऊँ
सतत प्रयत्नशील हूँ
पर पालें अभी
फड़क कर ही रह गई हैं
पूरी तरह खुलीं नहीं.
प्रस्थान-बिंदु से
तुम्हारी चिति के छोर तक
नाव खे कर आना
मुझे सरल लगा था
हालांकि मैं अकेला था
अकेले की ही मेरी नाव थी
इस यात्रा के पलों से उलझना
उनके सामने
सीना तान कर खड़ा हो जाना
मुझे साहसपूर्ण तो लगा
पर कम परिश्रमसाध्य नहीं.
अपने परिवेश से तारतम्य बिठाती
मेरी स्वतंत्र चिति मेरा संबल थी
पर यहाँ आकर
वह भी अपर्याप्त लगती है
यहॉ तो
बस सर्वांग स्वतंत्र होना ही
मार्ग है.
प्रकृति की स्थूलता से जुड़ा पंक्षी
तभी आकाश में छलांग लगा सकता है
जब परिवेश से वह आवेग तो ले
पर सर्वांग स्वतंत्रता के
पर खोलने का
अंतरावेग पा जाए.
कदाचित यह अंतरावेग
सम्यक रूप से
अभी मैं पा नहीं सका हॅू
पर उत्कंठा मैंने खोई नहीं है.
इस कछार पर थिर होकर
मैं सागर की उठती गिरती
लहरें गिनने में व्यस्त नहीं हूँ
मैं बीत रहे हर एक पल में
पलों का प्रवाह हो जाने के लिए
सतत प्रयत्नशील हूँ.
मित्र !
ये पल बड़े अद्भुत हैं
जिन्हें मैं जी रहा हूँ
मेरी बुद्धि इस दूरी को तय करने की
तरकीबें सोचती है
हृदय भावों से भरा है
इनके अतिरिक्त मेरी अंतर्गुहा में
और भी कुछ है
जो उठती गिरती तरंगों की
गिनती नहीं करता
उनका साक्षी बनकर
स्वयं तरंगें हो जाने को
प्रेरित करता है.
बड़े अद्भुत हैं ये पल
इनमें उलझनें भी हैं सुलझनें भी
नदी के प्रवाह की
बीतती त्वरा है इनमें
मैं पलों की इस त्वरा को
उनकी जीवंत अनुभूति में
नहाता हुआ देखता हूँ.
तुम्हारे मेरे बीच की
लौ भर की दूरी
ज्यों की त्यों बनी हुई है
मैं अपने अस्तित्व की कल्पना में
समो देने का आकांक्षी
और आग्रही हो रहा हूँ.
13.
मित्र !
क्या गजब है
ऑखों की टकटकी तुम्हारी तरफ है
चेतना तुम्हारे मौन से नहाई हुई है
पर दुनिया की ध्वनि
यहॉ भी सुनार्इ्र देती है
तुम्हारी देशना के अनुरूप
ध्यान की एकाग्रता के लिए
मैं इन्हें रोक नहीं रहा
बरसात की बूँदों की तरह
इन्हें बरसने दे रहा हूँ
फिर भी मेरे सीने में यह प्रश्न
धड़क जाता है कि
दुनिया मेरे बाहर है या अंदर
बस्तियों से वीरानों, बीहड़ों
और कंदराओं से होकर
मैं यहॉ पहुँचा हूँ.
यहाँ दूर दूर तक
निसर्ग की एकरसता है
सूरज की किरणों से
न जाने कौन सा संदेश पाकर
कमल पंखुरियों में खुल रहे हैं
पंछियों के कंठ से
प्रकृति गुनगुना रही है
मगर इन सब के साथ
मेरे ध्यान में
दुनिया के गीत भी हैं.
मैं कभी निस्पृह
कभी करुणार्द्र हो जाता हूँ
कैसा रहस्य साधे बैठे हो मित्र
अपने गर्भ में !
इन सारी स्थितियों से
तुम्हें गुजरना पड़ा होगा
पर तुम अपना दीया आप हो गए
मैं लकीरें पीटता रहा
आज भी पीट रहा हूँ.
हाँ इतना अंतर अवश्य पड़ा है
कि मेरी दृष्टि में
मेरे अंतर्बाह्य
अब एकसाथ ही तरंगित होते हैं
मैं उन्हें देखता हूँ
और भरपूर देखता हूँ
खुले मन से, खुली आँखों से.
मैं तरंगें नहीं गिनता
वल्कि बाजवक्त ऐसा लगता है कि
मैं स्वयं तरंगें हो जाता हूँ.
मित्र !
क्षण भर का यह एहसास
मुझे प्रश्नाकुल कर देता है
कि जो मैं देख रहा हूँ वह
मेरा विस्तार है
या सामने पसरे विस्तार का ही
मैं सूक्ष्म प्रतिबिंब हूँ
फिर भी
विस्तार और प्रतिबिंब का भेद
मेरे मन में अभी भी है.
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