Friday 8 March 2013

महिला दिवस के अवसर पर

      ''जब कोई पत्नी, बनाने को पति के लिए चाय,नहीं उठ जायेगी अपनी चाय और अखबार छोड़ कर,और साथ बैठ कर वे चाय की चुस्कियों के साथ बांटेंगे अखबार आधा आधा....'(शिखा)
अन्यों के भी अपने अपने विचार हैं. सभी की धारणाएँ अलग अलग हैं. इनमें एक बात अधिक मुखरित है. वह यह कि महिलाओं के विवेक के स्तर पर अविकसित रह जाने  और समान अधिकार न पाने में पुरुष वर्ग ही उत्तरदायी है. इसमें अतिशयोक्ति तो नहीं ही है. पर यह पूरी तरह सत्य भी नहीं है. सती प्रथा के उन्मूलन में  राजा राममोहन राय के अवदान को कैसे भुलाया जा सकता है. आज ओशो ने स्त्री समुदाय को 
जो सम्मान दिया है वह इतिहास में अनूठा और अनुदाहरणीय है. लेकिन ये तथाकथित महिला विषयक चिंतक शुतुर्मुर्गी आचरण से बाहर नहीं आ पा रहे हैं. खैर, यह बहस तो होती रहेगी. पता नहीं इस बहस का परिणाम क्या होगा. इस महिला दिवस पर मैं अपनी एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ.

                प्रेमचंद के नाम पत्र  
            उनकी परित्यक्ता पत्नी का 

सोसती श्री लिखी
स्वामी को हमारा परनाम,
हम सहाँ कुशल से हैं
आशा करती हूँ  आप भी कुशल से होंगे.  

लगभग दस साल तक
मैं आपके पास रही
आपके मन को पाने की पूरी कोशिश की
पर न पा सकी.
लेखक का मन रखते हुए भी
आपने मेरा मरम जानना नहीं चाहा
आखिर हार कर 
आपकी मति फेरकर
आपको अपना बनाने का 
हर एक जतन किया
पर आपको अपना न बना सकी.

वह हमारी भूल थी
आज जूब दूर हूँ
यह बात समझ में आ कही है
दुख है, अफसोस है जो ऐसा किया.

मगर स्वामी,
मैंने महसूस किया कि
आपने मेरे रंग रूप, टोना टोटका
को ही देखा
मेरी पंखुरियों की परतों को उघार कर देखा

अपने लिखा-लिखी में आपने
जान -जहान की एक -एक बारीकी 
अपने अक्षरों में भर दी 
लेकिन मेरे सुहाग,
मेरे भीतर की दुनिया को
जहाँ आँसुओं की जड़ें
और दर्द की अनुभूतियाँ हैं
जहाँ दुख के सुर पनपते बसते हैं
आपने ठीक से नहीं देखा
हाँ, झाँका जरूर
पर केवल झाँकने से, 
हिया की आह में उतरा नहीं जा सकता
मेरे हिया में मेरी सारी जुगत 
आपसे जुड़़ने की थी.

मैं पढ़ी लिखी कम हूँ
देहाती बुद्धि मेरी धरोहर है
पति को वश में करने का
एक ही तरीका मुझे आता था
क्षमा करें स्वामी,
आपने मुझे अपना बनाने का 
तनिक भी जतन नहीं किया.

आप लेखक हैं
नारी के दुखों को खूब समझते हैं
उनके जेहन को खूब उभारा है आपने
अपनी कहानियों में
जीती जागती-सी लगती हैं वे
पर हिया की कसक कुछ अछूती-सी है उनमें
उममें घुटते मन की न कुंठा है 
न कसकते मन का विद्रोह
साथ संग रहकर
मन की पीड़ा को तो
शरत बाबू ने ही समझा था
दुखी मन के क्षोभ-विक्षोभ 
वांक्षित अवांक्षित में उन्होंने 
कभी भेद नहीं किया.

आप तो बस मुझे झेलते रहे
और एक दिन गैर के साथ
मुझे मेरे मैके भिजवाकर
मुझसे छुट्टी पा ली.

मानी आप भी थे, मानी मैं भी थी
फिर भी दुबारा बुलाए जाने की
आपसे आस लगाए रही. 

हाँ, शिवरानी अधिक मानवीय निकलीं
पता चला है
वह मुझे साथ रखना चाहती हैं
पर आपने मुझे मरा मान लिया है
उनके आग्रह पर आप एक ही  बात कहते हैं-
वह मेरे लिए मर गई है.

खैर, जैसे तैसे जीवन बिता रही हूँ
आप जहाँ भी रहें, खुश रहें
अगर हो सके 
तो सिरजनहार की करुणा से भरकर 
मेरे भी मन में झाँकें
और जैसे औरों को अमर कर दिया है
मुझे भी अमर कर दें
आखिर व्याहता हूँ आपकी
मंगल सूत्र है मेरे पास
इसके गुरियों में 
दर्द से पिघलता मेरा ह्रदय
और उमड़कर आँखों से बहे
मेरे आँसू गुँथे हैं
पति की न सही 
लेखक की करुणा से ये गुरियाँ विंध जाएँ
तो दुख भरी एक पोथी बन जाएगी
आपकी करुणा मुझे मिल जाएगी
धन्य हो जाऊँगी मैं
और अमर हो जाएगा
मेरा यह  मंगलसूत्र 
तन का मिलना न हुआ, न हो
आपकी करुणा मिल जाए 
मेरे तन-मन का कन कन करुण हो जाएगा.

और क्या लिखूँ
थोड़ा लिखना बहुत समझना. 

 --शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव



  

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