Wednesday 8 June 2016

उड़ता पंजाब


'गैंग ऑफ बासेपुर'' के फ़िल्मकार अनुराग कश्यप की नयी फिल्म 'उड़ता पंजाब' पर सेंसर बोर्ड ने कैंची चला दी है. समाचार के अनुसार उसने फिल्म में से करीब अस्सी से अधिक स्थानों पर प्रयुक्त 'पंजाब' शब्द हटाने को कहा है. ट्रिब्यूनल ने तो फिल्म के नाम से भी 'पजाब' शब्द को हटाने को कहा है. अनुराग कश्यप को यह मंजूर नहीं है. अखबारों में आए उनके वक्तव्यों से यही लगता है कि वह पजाब के युवकों को नशाखोरी के खिलाफ सन्देश देना चाहते हैं कि नशा एक बहुत बुरी चीज है. 

लेकिन सेंसर बोर्ड फिल्म से 'पंजाब' शब्द क्यों हटवाना चाहता है इसपर उनके अपने तर्कों के साथ अभी तक उनका कोई वक्तव्य देखने को नहीं मिला. वह अपने किन तर्कों के सहारे फिल्म में 'पंजाब' को रखने पर बल दे रहे हैं, यह न बताकर, सीधे सेंसर बोर्ड पर तानाशाही का आरोप लगा रहे हैं. वह यहीं नहीं रुकते वल्कि सेंसर बोर्ड की तुलना कोरिया के तानाशाही शासन से कर डालते हैं. और विडम्बना देखिये 'आप' के केजरीवाल और कांग्रेस के राहुल गांधी अनुराग के समर्थन में इसे एक अवसर के रूप में लपक लेते हैं. वह अवसर क्या है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमले का अवसर, ठीक जे एन यु काण्ड और फिल्म संस्थान के अध्यक्ष पद की नियुक्ति के मसले को जैसे लपक लिया था. बहाना क्या है, अभ्व्यक्ति की आजादी. अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ही साहित्य अकादमी के पुरस्कार को कुछ लेखकों-कवियों के द्वारा लौटाया गया था. उसका असली उद्देश्य क्या था अब किसी से छिपा नहीं. अनुराग कश्यप ऐसे अबोध नहीं कि वह यह सब नहीं जानते हों. इनके एक समर्थक एक फिल्म-नेता कहते हैं, फिल्म के खिलाफ पंजाब सरकार को कोर्ट जाना चाहिए. इस वक्तब्य के पीछे उनकी मनसा क्या है? इसमें क्या राजनीति की बू नहीं आती? अनुराग कश्यप ही क्यों नहीं कोर्ट चले जाते. ऊल जूल वक्तव्य देने के बजाय सेंसर बोर्ड यदि लिखित आदेश नहीं देता तो यही लेकर वह कोर्ट जा सकते हैं की उन्हें बोर्ड से फिल्म में कटिंग के लिए लिखित आदेश दिलाया जाए. पंजाब सरकार के पास कोर्ट जाने के क्या आधार है जबतक कि फिल्म रिलीज नहीं हो जाती.

नशाखोरी एक बहुत बुरी आदत है. पजाब में यह समस्या खतरनाक मोड़ पर पहुँच गई है. लेकिन क्या यह समस्या केवल पंजाब की ही है. क्या महाराष्ट्र में यह समस्या खतरे के विन्दु तक नहीं पहुँच चुकी है. समाचारों में तो महाराष्ट्र को भी नशाखोरी से ग्रस्त पदेश बताया जाता है. फिर उड़ता पंजाब ही क्यों, उड़ता महाराष्ट्र क्यों नहीं. बेहतर होता इस फिल्म का कोई एक सामान्य नाम होता जिसमें किसी प्रदेश को लक्ष्य न किया गया होता. इस फिल्म में संशोधनों की सलाह पर अनुराग की इस किस्म की प्रतिक्रियाओं से तो यही लगता है कि वह किसी निहित उद्देश्य के तहत पंजाब को लक्ष्य किया है. फिल्म सेंसर बोर्ड कोई प्रभुता संपन्न संस्था नहीं वरन भारतीय सरकार के शासनान्तार्गत एक संस्था है, जबकि कोरिया एक प्रभुतासंपन्न सरकार है. अनुराग कश्यप की इस तुलना में क्या कोई राजनीतिक निहितार्थ नहीं दिखाई देता?

"उड़ता पंजाब" यदि ज्यों का त्यों पंजाब में प्रदर्शित हो जाए और वहां कोई राजनीतिक तूफ़ान उठ खड़ा हो तो क्या कश्यप उसे रोक सकते हैं? इसका राजनीतिक उपयोग नहीं होगा क्या इसकी कोई गारंटी दी जा सकती है. अभी फिल्म रिलीज नहीं हुई और अभी से 'आप' और कांग्रेस ये दोनों दल इसका लाभ लेने के लिए आतुर हो उठे हैं. फिल्म रिलीज होने पर ये कैसा तूफ़ान खडा करेंगे इसका अनुमान अभी से लगाया जा सकता है. यह प्रत्याशित है कि पंजाब में जभी यह दिखाई जाएगी पंजाबी लोग इसका विओध करेंगें. इस फिल्म को पंजाब के लिए वे एक लांछन के रूप में ले सकते हैं. क्या यह उसी तरह का चित्रण नहीं है जैसा मकबूल फ़िदा हुसैन ने हिन्दू देवी देवताओं के प्रति किया था. अनुराग जी फिल्म भी साहित्य का एक हिस्सा है. उसे आग्रही नहीं होना चाहिए. अभिव्यक्ति की आजादी के जितने बड़े शत्रु कमुनिस्ट सरकारें है भारतीय सरकारे तो ऐसी नहीं दिखती. हाँ अभिवक्ति की आजादी के नाम पर धंधा चलाने वाले बहुत दिखाई देते हैं..

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