आज टीवी पर आतंकवाद का घिनौना चेहरा देखने को मिला। पाकिस्तान के पेशावर में एक सैनिक स्कूल पर तालिबान आतंकियों का हमला हुआ जिसमें सौ से ऊपर किशोर विद्यार्थियों की मौत हो गई। यह बहुत ही दिल दहला देनेवाली घटना है।
तालिबान जो कुछ भी करता है इस्लाम के नाम पर करता है। इसके सरगना अपने क्रूर उद्देश्यों के अनुसार अल्लाह का हुक्म सुना करते हैं, उसका डर दिखाकर लोगों का मानसिक शोषण करते हैं जिसे मीडिया में ब्रेनवाश का नाम दिया गया है। ये उन्हें अपना अनुयायी बना लेते हैं और केवल क्रूर बनाने की शिक्षा देते हैं।
कैसी विडंबना है, ये अपनी क्रूरता और खूंखारता के बल पर अल्लाह के अन्य बन्दों को मौत के घाट उतारकर अल्लाह की नेकनीयती का प्रचार करते हैं. यह वही मानसिकता है जो कभी बर्बर चंगेज खां अपनाया करता था। यह भी इनकी जेहन में नहीं समाता कि जिस ताकत के बल पर ये अपनी क्रूरता को अंजाम देते हैं वह उधार की ताकत है। यह ताकत उनके अल्लाह ने उन्हें नहीं दिया है न ही वे स्वयं अपनी बुद्धि और इंजीनियरिंग से इसे प्राप्त कर सके हैं। यह ताकत पश्चिमी देशों या चीन के लोगों ने अपनी बुद्धि और इंजीनियरिंग के बल पर प्राप्त की है जिसे ये आतंकी चोरी छुपे या किसी साँठ-गाँठ से पाये हैं।
इतिहास गवाह है कि कभी पेशावर, अफगानिस्तान आदि देशों में गौतम बुद्ध के उपदेशों के प्रभाव से सभ्यता की रौशनी पहुंची थी जिससे इस इलाके के निवासियों में करुणा और मनुष्यता का संचार हुआ था। किन्तु इन बर्बर तालिबानियों ने उस करुणा पर प्रहार कर दिया और बुद्ध की विशाल प्रतिमा को नष्ट कर दिया। ये तालिबानी एक प्रस्तर के बुत से इतने डरे हुए थे कि उस बुत की उपस्थिति उनकी क्रूरता पर भारी पड़ रही थी। उसकी उपस्थिति में उनकी क्रूरता कोई आयाम नहीं ले पा रही थी।
सैनिक बल से उनकी क्रूरता पर बहुत बल पड़नेवाला नहीं। जितने बल से उन्हें दबाया जाएगा उनकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही सबल होकर उभरेगी। क्योंकि भूमण्डल की बहुत ताकतें अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाने के लिए इनको उकसाती हैं, हथियार मुहैया कर इन्हें सबल बनाती हैं। और जब ये सबल हो जाते हैं तब स्वयं की सत्ता के लिए व्यग्र हो उठते हैं। इनके पास अपने समाज के लिए एक ही ढाँचा होता है परंपरागत ढांचा जिसमें उनकी क्रूरता खुले रूप से खेल सके। उनके पास नया समाज बनाने का समय नहीं होता। उनको केवल एक ही भूख सताती है - सत्ता की भूख जो उनकी दृष्टि में बल से ही शॉर्टकट में पाई जा सकती है।
इस पेशावर हमले को देखें। इस हमले का दायित्व तालिबान ने लिया है। कारण बताया है सेना से बदला लेना। सेना उनके परिवार को तबाह करती है तो वे उनके संरक्षण में चल रहे स्कूलों पर हमला कर इन स्कूलों में पढ़ रहे उनके परिवार के किशोर बच्चों को मारेंगे। इस हमले के मूल में मात्र घृणा दिखाई देती है। इसी तरह के माहौल में इस्लाम ने जन्म लिया था जब मुहम्मद साहब की करुणा बरसी थी। आज फिर एक मुहम्मद साहब की जरुरत आन पड़ी है जो इस घृणा के माहौल को करुणा के माहौल में अंतरित कर सकें।
तालिबान जो कुछ भी करता है इस्लाम के नाम पर करता है। इसके सरगना अपने क्रूर उद्देश्यों के अनुसार अल्लाह का हुक्म सुना करते हैं, उसका डर दिखाकर लोगों का मानसिक शोषण करते हैं जिसे मीडिया में ब्रेनवाश का नाम दिया गया है। ये उन्हें अपना अनुयायी बना लेते हैं और केवल क्रूर बनाने की शिक्षा देते हैं।
कैसी विडंबना है, ये अपनी क्रूरता और खूंखारता के बल पर अल्लाह के अन्य बन्दों को मौत के घाट उतारकर अल्लाह की नेकनीयती का प्रचार करते हैं. यह वही मानसिकता है जो कभी बर्बर चंगेज खां अपनाया करता था। यह भी इनकी जेहन में नहीं समाता कि जिस ताकत के बल पर ये अपनी क्रूरता को अंजाम देते हैं वह उधार की ताकत है। यह ताकत उनके अल्लाह ने उन्हें नहीं दिया है न ही वे स्वयं अपनी बुद्धि और इंजीनियरिंग से इसे प्राप्त कर सके हैं। यह ताकत पश्चिमी देशों या चीन के लोगों ने अपनी बुद्धि और इंजीनियरिंग के बल पर प्राप्त की है जिसे ये आतंकी चोरी छुपे या किसी साँठ-गाँठ से पाये हैं।
इतिहास गवाह है कि कभी पेशावर, अफगानिस्तान आदि देशों में गौतम बुद्ध के उपदेशों के प्रभाव से सभ्यता की रौशनी पहुंची थी जिससे इस इलाके के निवासियों में करुणा और मनुष्यता का संचार हुआ था। किन्तु इन बर्बर तालिबानियों ने उस करुणा पर प्रहार कर दिया और बुद्ध की विशाल प्रतिमा को नष्ट कर दिया। ये तालिबानी एक प्रस्तर के बुत से इतने डरे हुए थे कि उस बुत की उपस्थिति उनकी क्रूरता पर भारी पड़ रही थी। उसकी उपस्थिति में उनकी क्रूरता कोई आयाम नहीं ले पा रही थी।
सैनिक बल से उनकी क्रूरता पर बहुत बल पड़नेवाला नहीं। जितने बल से उन्हें दबाया जाएगा उनकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही सबल होकर उभरेगी। क्योंकि भूमण्डल की बहुत ताकतें अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाने के लिए इनको उकसाती हैं, हथियार मुहैया कर इन्हें सबल बनाती हैं। और जब ये सबल हो जाते हैं तब स्वयं की सत्ता के लिए व्यग्र हो उठते हैं। इनके पास अपने समाज के लिए एक ही ढाँचा होता है परंपरागत ढांचा जिसमें उनकी क्रूरता खुले रूप से खेल सके। उनके पास नया समाज बनाने का समय नहीं होता। उनको केवल एक ही भूख सताती है - सत्ता की भूख जो उनकी दृष्टि में बल से ही शॉर्टकट में पाई जा सकती है।
इस पेशावर हमले को देखें। इस हमले का दायित्व तालिबान ने लिया है। कारण बताया है सेना से बदला लेना। सेना उनके परिवार को तबाह करती है तो वे उनके संरक्षण में चल रहे स्कूलों पर हमला कर इन स्कूलों में पढ़ रहे उनके परिवार के किशोर बच्चों को मारेंगे। इस हमले के मूल में मात्र घृणा दिखाई देती है। इसी तरह के माहौल में इस्लाम ने जन्म लिया था जब मुहम्मद साहब की करुणा बरसी थी। आज फिर एक मुहम्मद साहब की जरुरत आन पड़ी है जो इस घृणा के माहौल को करुणा के माहौल में अंतरित कर सकें।
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