Friday 17 October 2014

कायस्थ : स्थिति, उद्भव और विकास

    
'कायस्थ’ भारतीय समाज का एक प्रभावशाली समुदाय है.    बारहवीं सदी के पूर्व तक ये जाति के रूप में स्वीकृत नहीं थे.  तेरहवीं सदी की स्मृति ‘औशनस’ में इनका एक जाति के रूप में उल्लेख है.     
   जातियों में बँटा हमारा समाज वर्तमान समय में चार वर्गों में विभाजित है-सामान्य अथवा अगड़ा वर्ग, पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति वर्ग और अनुसूचित जनजाति वर्ग. कायस्थ सामान्य अथवा अगड़े वर्ग में रखे गए है- अभ्यथियों के लिए फार्म में शासन द्वारा निर्धारित कैटेगरी द्र’टव्य. हमारे समाज के इस वर्गीय विभाजन का आधार जातियों का सामाजिक स्तर है. इस विभाजन का उपयोग मुख्यरूप से शासकीय कार्यों में होता है.
   वैदिक काल में भारतीय समाज चार वर्णों में विभाजित था. यह विभाजन गुण और कर्म के आधार पर किया गया था -गीता. यह विभाजन अभी भी अस्तित्व में है. इस वर्ण-विभाजन में ‘कायस्थ’ अभीतक कोई स्थान नहीं पा सके हैं. पर भारतीय समाज का अंग होने के नाते हैं ये चतुर्वर्ण के अंतर्गत ही.

स्थिति:
   कायस्थों की सामाजिक स्थिति आज भी प्रभावशाली है. इनकी मेधा, बुद्धि की क्षमता, शासन करने के गुण व आभिजात्य आज भी उल्लेखनीय हैं. 
   स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक ब्रिटिश शासन की सेवा में होने का इनका प्रतिशत बहुत ऊँचा था. सन् 1765 ई में बक्सर की लड़ाई में मुगल शासक शाह आलम के अंग्रेजों से हारने के बाद कंपनी सरकार को जब बिहार और उड़िसा की दीवानी मिली थी तो राजा सिताब राय को दोनों प्रांतो का दीवान बनाया गया था जो कायस्थ थे. स्वतंत्रता की लड़ाई में भी कायस्थों ने बढचढ़़कर हिस्सा लिया था.
   ब्रिटिश शासक मुगलों से दुराव रखते थे क्योंकि उन्हें ही अपदस्थ कर वे सत्ता में आए थे. कायस्थ मुगल शासन में ऊँचे ओहदों पर रह चुके थे. अत: अंग्रेज कायस्थों को भी अच्छी नजर से नहीे देखते थे.
   मुस्लिम पीरियड में हर मामले का फैसला मुस्लिम कानूनों के अनुसार होता था. ब्रिटिश शासकों ने अपना रेगुलेशन सन् 1772 ई में पारित किया जो एक निश्चत सीमा तक हिंदू विधि को पुनर्स्थापित किया. यह सन् 1793 ई में लागू हुआ. -द कायस्थ एथ्नोलोजी, मुंषी काली प्रसाद दूसरे. हिंदू धर्मशास्त्रों की खोज की गई. ब्रिटिश विद्वानों ने उनका अध्ययन किया, लेख और डाइजेस्ट लिखे.
   धर्मशास्त्र मनुस्मृति में ‘कायस्थ’ का उल्लेख नहीं है. इसके टीेेकाकार मेधातिथि और कुलुक भट्ट ने भी अपनी टीकाओं में ‘कायस्थ’ का उल्लेख नहीं किया है. पर स्मृति में एक ‘करण’ समुदाय का उल्लेख है जो लेखकों की एक जाति था. स्मृति के अध्याय 10 ष्लोक 8 और 10 के अनुसार वैश्य पुरुष शूद्र स्त्री की लड़की से शादी कर संतान उत्पन्न करता है तो वह ‘करण’ कहलाता है. इन्हीं श्लोकों के आधार पर बाद के ग्रंथों में कायस्थ को ‘करण’ मानकर शूद्र कहा गया है- कायस्थों की सामाजिक पृ’ठभूमि, अशोक वर्मा. हर्बर्ट होप रिजले और कोलब्रुक जैसे विद्वानों ने संभवत: इसी आधार पर कायस्थों को शूद्र माना. और इसी आधार पर ब्रिटिश कोर्टों ने भी इन्हें शूद्र ही माना- en.wikipedia.org/wiki/kayasthas. केलकाता हाईकोर्ट ने एक वाद में कायस्थों के शूद्र होने के पक्ष में फैसला भी दिया -kayasthcharitabletrut.com/ Shyamvihari lal saksena. 
   हिंदू धर्मशास्त्रों में शूद्रों के लिए उँची नौकरियों में नियुक्ति वर्जित थी- वीरमित्रोदयव्यावहाराध्याय, आलोक वर्मा.  अत: कुछ उच्च जातियों ने कायस्थों को स्थायी रूप से शूद्र घोषित कराने के लिए सन् 1873 ई में कलकत्ता हाईकोर्ट में एक वाद दाखिल किया. वे शासन में उँची नौकरियों को अपने लिए सुरक्षित करा लेना चाहते थे. किंतु इसकी भनक लगते ही बंगाल, बंबई और संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के कायस्थों ने उच्च न्यायालय में इस वाद का विरोध किया. इनमें इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला के संस्थापक काली प्रसाद कुलभाष्कर भी थे. इन लोगों ने शूद्रत्व के विरुद्ध अनेक धार्मिक, साहित्यिक और ऐतिहासिक साक्ष्य जुटाए और न्यायालय में पेश किया. इन साक्ष्यों में उन लोगों ने कायस्थ को क्षत्रिय वर्ण के रूप में पेश किया. सन् 1877 ई में इस वाद का फैसला आया. वाद में कायस्थों को शूद्र घोषित करने के लिए किए गए उच्च जातियों के अनुरोध को न्यायालय ने खारिज कर दिया. फलत: कायस्थों को शूद्रत्व से छुटकारा मिल गया. और अंग्रेजी शासन की जनसांख्यिकी में इन्हें (कायस्थों को) शूद्रों की श्रेणी में दर्ज नहीं किया गया. किंतु यह समुदाय मेधावी तो था ही. जिस तरह इस समुदाय ने अरबी और पर्सियन पर अधिकार किया था वैसे ही इन्होंने बहुत आसानी से अंग्रेजी भाषा में भी महारत हासिल कर ली और अंग्रेजों के शासन में भी ये उँचे पद प्राप्त करने में सफल हो सके.
   मध्ययुग के सल्तनत व मुगलकाल (1206-1526 य1526-1707)  में भी कायस्थों ने अपना प्रभुत्व बनाए रखा था. मुगलकाल में राजभाषा पर्सियन थी. इन लोगों ने शासन की राजभाषा पर्सियन पर अधिकार किया और इस शासन के उंँचे पदों पर नियुक्ति पाई. अकबर की मंत्रिपरिषद में राजस्व मंत्री राजा +टोडरमल थे जो कायस्थ थे. इन्होंने ही अकबर की राजस्व-नीति की नींव रखी थी जो कमोबेश आज भी मान्य है. इन्होंने गीता का पर्सियन में अनुवाद भी किया था.
   +राजा टोडरमल ने पटना के नौजर घाट में कायस्थों के आराध्य ‘चित्रगुप्त’ की काले पत्थर की एक छोटी पर भव्य मूर्ति स्थापित करवाई थी जो आज भी है. यह मूर्ति आज से कुछ वर्षों पूर्व चोरी चली गई थी. वह मिली. इस मूर्ति को उस गाँव के एक ग्रामीण श्रवण भगत ने सहेजकर रखा अभी कुछ समय पहले सोनपुर के एक गाँव चित्रसेनपुर के चौर से मिट्टी काटने के दौरान था- पटना के एक अखबार में प्रकाषित खबर, 2 अक्तूबर, 2006. अब इस मूर्ति को नौजर घाट के उसी मंदिर में पुनस्र्थापित कर दिया गया है. चित्र नीचे है.
                      
                        
              चंद्रगुप्त के महामात्य मुद्राराक्षस द्वारा 2000 वर्ष पूर्व स्थापित एवं टोडरमल द्वारा  
                1573 में जीर्णोद्धारकृत काले कसौटी पत्थर की भगवान चित्रगुप्त की दुर्लभ प्रतिमा
                                   ( नौजर घाट,, पटना )

   मुस्लिम काल में कायस्थों के प्रभाव का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि सरकारी राजस्व का लेखाजोखा कायस्थ ही रखते थे. जिस लिपि में यह रिकाँर्ड किया जाता था उस लिपि का नाम ही इनके नाम पर कैथी पड़ गया. कैथी (कायती कायस्थी कैथी). विद्वान इस लिपि का उद्भव सोलहवीं सदी में मानते हैं. अशोक वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘‘कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि’’ में एक शोध का जिक्र किया है जिसमें कैथी को अंगिका से विकसित अंगी लिपि का वर्तमान रूप बताया गया है.
   वर्णव्यवस्था के चारो वर्णों में स्थान न पाने के बावजूद प्राचीन काल (ई पू 600 बी सी से ई सन् 1206) में समाज में कायस्थों की स्थिति बहुत सम्मानजनक थी. ये सामान्य रूप से तत्कालीन शासकों के यहाँ लेखक और गणक का कार्य तो करते ही थे, कई क्षेत्रों में ये शासक भी थे. कुछ लोगों का कहना हैं कि रघुवंशियों के पहले अयोध्या पर माथुर कायस्थों का शासन था. भारत पर मुहम्मद गजनी के आक्रमण को अफगानिस्तान के जिस राजा जयपाल ने रोकना चाहा था वह कायस्थ थे. कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कायस्थ कश्मीरी शासकों के अधीन बहुत उँचे पदों पर थे. कायस्थ राजा ललितादित्य मुक्तापीड़, आठवीं सदी, में कश्मीर पर शासन कर रहे थे. कश्मीर की राजनीति में कायस्थों की अच्छी दखल थी. चौथी सदी में गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत बंगाल में पहली बार आर्यों, कायस्थों और ब्राह्मणों की कालोनियाँ बनीं तो गुप्त शासकों ने इसकी व्यवस्था में कायस्थों की सहायता ली-en.wikipedia.org/wiki/kayastha. अकबर के प्रधान मंत्री अबुल फजल के अनुसार बंगाल के पाल शासक कायस्थ थे. यहाँ के बारहवीं सदी के सेन शासक भी गौड़ कायस्थ थे. विवेकानंद के अनुसार एक समय आधे भारत पर कायस्थों का शासन था.
   वस्तुत: तेरहवीं सदी के पूर्व तक हिंदू राजाओं के शासन की उँची नौकरियों पर कायस्थों का लगभग एकाधिकार था. दक्षिण के चोल, चालुक्य और पहलव आदि शासक कायस्थ ही थे. ब्रिटिशकाल में कराए गए भारत के एक मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण में मानवशास्त्रियों ने पाया था कि कायस्थ मौर्य काल में भी शासन के अंग थे और बहुत प्रभावशाली थे. कई अभिलेख ऐसे भी मिलते हैं जिसमें खासकर कायस्थों को दान में भूमि देने का उल्लेख हैं. संवत् 907 विक्रम (सन् 850 ई.) में विद्यमान मेधातिथि ने मनुस्मृति की अपनी टीका में स्वीकार किया है कि राजा द्वारा दी हुई भूमि आदि का शासन कायस्थ के हाथ का लिखा ही प्रमाणित माना जाता था-भगवान चित्रगुप्त, रामलाल

कायस्थ : लेखक वर्ग
   संस्कृत शब्दकोश शब्द्ल्पद्रुम में ‘कायस्थ’ को लेखक वर्ग (writer class) के रूप में उल्लिखित किया गया है.
   मुंशी काली प्रसाद श्रीवास्तव ‘दूसरे’ द्वारा प्रस्तुत ‘‘कायस्थ एथनोलोजी, 1877’’ के खंड एक में स्मृतिकार वृहस्पति और व्यास के मत संग्रहीत हैं. उनमें कहा गया है कि राजा को अपने यहाँ  गणक एवं लेखक को एक सचिव (या लेखक जो ‘कायस्थ’ से संबोधित होते हैं) अवश्य नियुक्त करना चाहिए जो पवित्र ग्रंथों के ज्ञान में दक्ष हों और उसके शब्दार्थों को समझने तथा उसकी व्याख्या करने में निपुण हों. इसमें यह भी उल्लिखित है कि दक्ष कहने से उनका अर्थ है कि वे द्विज हों और लेखक हों. इसीमें याज्ञवल्क्य स्मृति की विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा टीका में दिए ‘‘पवित्र साहित्य में दक्ष’’ के अर्थ का भी उल्लेख है- ‘‘वह जो दर्शन, व्याकरण व वेदों को समझनेवाला प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित विद्वान हो’’.
   मिताक्षरा टीका में विज्ञानेशवर ने ‘कायस्थ’ की व्याख्या भी की है- ‘‘कायस्था: लेखका गणकाशच’’  अर्थात लेखक और गणक ‘कायस्थ’ कहे जाते हैं. इतिहासकार डाँ धुर्जे के मत में कायस्थों का मुख्य पेशा लिखना था- कास्ट एंड रेस इन इंडिया. पुराणों में भी इन्हें लेखक ही कहा गया है. 
   साहित्यिक साक्ष्यों से पता चलता है कि लिपि की खोज के बाद सुंदर अक्षरों में लेख (प्रशस्तिपत्र, दानपत्र आदि) लिखने वाले समाज में लेखक के रूप में जाने जाते थे. इतिहास के गुप्त काल में हम इन्हें लेखकरूप (राजस्व आदि का लेखाजोखा रखनेवाले) में नियुक्ति पाते देखते हैं जो ''प्रथम कायस्थ'' अथवा ''ज्येष्ठ कायस्थ'' कहलाते थे- प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास, हेमचंद्र रायचौधरी. विषाखदत्त कृत मुद्राराक्षस में एक शासन-पत्र को सुंदर अक्षरों में लिखवाने के लिए चाणक्य द्वारा किसी शकटदास कायस्थ, जिसे मंत्री राक्षस का सखा कहा गया है, को बुलाने की चर्चा आई है-मुद्राराक्षस का हिंदी अनुवाद, भारतेंदु. मुद्राराक्षस के तृतीय अंक के एक संवाद में चाणक्य एक दूत से कहता है- ‘‘शोणोत्तरे, अचलदास कायस्थ से कहो कि उसके पास भद्रभट्ट इत्यादिकों का जो लेखपत्र है, वह माँगा है.’’ इससे यह भी पता चलता है कि कायस्थ विभिन्न तरह के लेखपत्रों के संरक्षक भी थे.

कायस्थ : वर्ण
    यहाँ ‘कायस्थ’ के वर्ण की चर्चा मैंने इसलिए की है क्योंकि ब्रिटिशकाल में कायस्थ के वर्ण को लेकर बहुत घमासान मचा था. कोलकाता, तब के कलकत्ता, में अपने पाँव जमा लेने के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपना रेगुलेशन पारित किया जिसमें कुछ हद तक हिंदू विधि को बहाल कर दिया गया. हिंदू शास्त्रों में चतुर्वर्ण के अंतर्गत आनेवाले सभी सदस्यों को आर्य कहा गया है. जो इसके अंतर्गत नहीं आते उन्हें दस्यु समझा जाता है. अर्थात एक पाँचवीं संज्ञा (वर्ग अथवा वर्ण). आईने अकबरी में भी ऐसी ही राय दी गई है- ‘‘The fifth class must be considered out of the pale of religion- kayasth ethnology, preface, 7.
    इस स्थिति में कायस्थ किस वर्ण में समझे जाएँ.? अंगेज जज धर्मशास्त्रों में दिए गए कानूनों से परिचित नहीं थे. अत: अंग्रेज विद्वानों ने उपलब्ध हिंदू धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया, उनका अनुवाद किया, प्रबंध एवं डाइजेस्ट लिखे गए. इनमें से हर्बर्ट होप रिजले और कोलब्रुक जैसे विद्वानों ने कायस्थों को शूद्र माना- en.wikipedia.org/wiki/kayasth.
   ब्रिटिश समय में बंगाली कायस्थ श्यामाचरण सरकार की एक पुस्तक आई थी- ‘'व्यवहार दर्पण’', इसमें बंगाल के कायस्थों को ‘सरकार’ ने शूद्र बताया है. कायस्थ एथ्नोलोजी में एक जातिमाला पुस्तक का उल्लेख है जिसमें कायस्थ को विशुद्ध शूद्र बताया गया है. हालाँकि इसकी प्रामाणिकता संदिग्ध बताई गई है. कायस्थ के संबंध में शास्त्रों में स्पष्ट स्थिति न होने के कारण ब्रिटिश कोर्टों में इन्हीं विद्वानों के मतों के आधार पर कायस्थों को शूद्र मान लिया था. कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक मुकद्दमें में बंगाल के कायस्थों के शूद्र होने के पक्ष में फैसला भी दे दिया था जिसे बंगाल के हिंदू वकीलों ने नहीं माना -कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है, षश्यामविहारी लाल सक्सेना. इसे आधार बनाकर उच्च वर्ण के कुछ लोगों द्वारा कायस्थों को स्थाई रूप से शूद्र घोषित कराने के लिए कलकत्ता हाईकोर्ट में एक वाद दाखिल किया क्योंकि शास्त्रों में शूद्रों को उँची नौकरियों से वंचित रखने का आदेश है
-स्मृतियों को देखें. कायस्थों के विरोध पर कोर्ट ने इस वाद को खारिज कर दिया- मुरारी माथुर का ब्लाँग. एक अन्य मुकद्दमे ईश्वरी प्रसाद बनाम राय हरि प्रसाद में पटना हाईकोर्ट ने कायस्थ का वर्ण क्षत्रिय माना. इस केश में बनारस के पंडितों+ की राय ली गई थी-कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है, श्यामविहारी लाल सक्सेना.
   +ब्रिटिश कोर्टों ने हिंदू विधि के संबंध में राय लेने के लिए पंडितों को लाँ आँफीसर नियुक्त किया था.
   पुराणों में ‘कायस्थ’ को कहीं क्षत्रिय और कहीं ब्राह्मण वर्ण का कहा गया है. पुराविदों में आज भी इसपर विवाद है. भगवतशरण उपाध्याय का स्पष्ट मत है कि कायस्थों में से कुछ निश्चित रूप से ब्राह्मण हैं-भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण. इतिहासविद स्टीन व दत्त इन्हें ब्राह्मण वर्ण की एक शाखा मानते हैं जो शासन कार्य में संग्लग्न रहते थे. डाँ दशरथ षर्मा ने इन्हें क्षत्रिय माना हैं. डाँ संकालिया ने ‘कायस्थ’ को वैश्यों की उपजाति रूप में स्वीकार किया है. -प्राचीन भरत का सामाजिक इतिहास, जयशंकर मिश्र. वेदों में एक विदुषी गार्गी का जिक्र है जिनकी ऋचाएँ वेदों में सम्मिलित हैं. ये शूद्र वर्ण की थीं. अत: माना जा सकता हे कि कायस्थों में शूद्र वर्ण से भी कुछ लोग आए होंगे.
   कायस्थों के संबंध में ब्रिटिश कोर्टों में नियुक्त पंडित लाँ-आँफिसरों की राय पर, जिन्होंने शास्त्रों में उपलब्ध अनेक सूचनाओं का सहपठन कर निर्मित की थी, पटना और इलाहाबाद हाईकोर्टों ने कायस्थों के क्षत्रिय वर्ण में होने के पक्ष में फैसले दिए.  
   चतुर्वर्ण रचना के संबंध में वैदिक साहित्य में उल्लिखित एक रोचक तथ्य की ओर हमारा ध्यान बरबस आकर्षित होता है. शतपथब्राह्मण के अनुसार ब्रह्म ने पहले केवल ब्राह्मण वर्ण की रचना की. पर वह विभूतियुक्त कर्म करने में असमर्थ रहा. तब उसने क्षत्रिय वर्ण की रचना की. फिर भी वह विभूतियुक्त कार्य करने में असमर्थ रहने पर वैशय वर्ण और तदनंतर शूद्र वर्ण की रचना की -कायस्थ्एथ्नाोलोजी, इंट्रोडक्सन , के.पी.श्रीवास्तव, दूसरे. वृहदारण्यक उपनिषद में भी ठीक इसी प्रकार चतुर्वर्ण की रचना बताई र्गई है. पर एक कदम आगे बढ़कर यहाँ कहा गया है कि फिर भी उस बह्म्र ने क्षत्रियों की उग्रता और नियंत्रण में न रह सकने को ध्यान में रखते हुए पाँचवें वर्ण श्रेयोरूप धर्म वर्ण की रचना की- वृहदारण्यकोपनिषद् ऋचा (1. 4. 14)
   जिस हेतु से इस ऋचा में श्रेयरूप पाँचवें धर्म वर्ण की रचना की चर्चा है वे व्यवहार धर्म और लौकिक न्याय सेेेे जुड़े हुए गुण कायस्थों में मिलते हैं. पद्मपुराण के सृष्टि खंड में चित्ररगुप्त के न्याय का विवरण मिलता है. कुछ लोग उसमें 'कायस्थ' के उद्भव के स्रोत होने की संभावना व्यक्त करते हैं.  कदाचित यही कारण हो कि कुछ लोग ‘कायस्थ’ को पाँचवाँ वर्ण मानने के पक्ष में हैं.
   
कायस्थ संज्ञा
   स्कंद पुराण के सह्याद्रि खंड में उल्लिखित है कि हैहयवंशी क्षत्रिय राजा चंद्रसेन की विधवा रानी की कोख से उत्पन्न पुत्र को परशुराम के आदेश से लेखनी थमा दी गई. उसे क्षत्रिय कर्म छोड़कर लेखन कर्म अपनाना पड़ा. कुछ लोगों का कहना है कि रानी की कोख अर्थात काया से उत्पन्न होने के कारण उस पुत्र को कायस्थ कहा गया (कायस्थ एथ्नोलोजी में भी इसका जिक्र है). उसके वंशज कायस्थ कहलाए. ये चांद्रसेनीय कायस्थ कहलाते हैं. यह कायस्थों की एक श्रेणी है. ये अपने को कायस्थ प्रभु लिखते हैं.
   इस समुदाय के पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि ये मूल रूप से अयोध्या के रहने वाले थे. टी. पी. गुप्त के अनुसार मगध के महाराजा महापद्मनंद (460-362 ई पू) के कुशासन से परेशान हो ये अन्यत्र चले गए- एन.वीकीपीडिया.ओर्ग/वीकी/चांद्रसेनीय कायस्थ.
   कुछ लोगों का कहना हैं कि अयोध्या का एक नाम कायदेश भी है. लेखन कर्म करनेवाले यहीं के रहनेवाले थे अत: वे कायस्थ कहलाए. यहीं से ये पूरे देश में फैले-कायस्थ.और्ग/कायस्थ/हिस्टरी
   पुराणों में कायस्थों के कायस्थ संज्ञा पाने का एक प्रतीकात्मक संदर्भ दिया गया है. पुराण कहते हैं, कायस्थों के आराध्य लेखनी और मसिहस्त (लेखक रूप) चित्रगुप्त की उत्पत्ति ब्रह्मा की काया से हुई. चित्रगुप्त के अपनी काया से उत्पन्न होने के कारण ब्रह्मा ने उन्हें कायस्थ संज्ञा दी. इन्हीं चित्रगुप्त के बंशज कायस्थ कहलाए.
   इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो प्राचीन राजाओं के शासन के दस अंग होते थे-वृहस्पति स्मृति.  इनमें से एक अंग लेखक सह गणक का था- कायस्थएथ्नोलोजी, पार्ट वन, वृहस्पति. ये शासन के मुख्य अंग राजा और मुख्य न्यायाधीश से सीधे जुड़े होते थे. मनुस्मृति (ई पू तीसरी सदी) के लिखे जाने तक ये लेखक ‘करण’ नाम से जाने जाते थे. समाज ‘कायस्थ’ शब्द से परिचित नहीं था. गुप्तकाल में हम ‘कायस्थ’ शब्द को एक शासकीय पदनाम के रूप में देखते हैं. गुप्त शासक अपने यहाँ लेखन और लेखा से संबंधित काय में "प्रथम कायस्थ" अथवा "ज्येष्ठ कायस्थ" पदनाम से अधिकारी नियुक्त करते थे. लगता है शासकीय काय में कार्य करने के कारण ही इन्हेें कायस्थ कहा जाने लगा.
   वेदों, स्मृतियो और पुराणों में अक्सर शासन के अंगों को काय अथवा शरीर के अंगों से उपमित किया गया है. वृहस्पति स्मृति में राज्य-शासन के दसों अंगों को शरीर के दस कायांगों से उपमित किया गया है- The king states the head of members, the chief justice mouth, concillers both arm, the law as the hand, the writer and accountant as the thighs,the gold and fire as the two eyes, water as heart, attendents as feet- kayasth ethnology, part 1. चतुर्वर्ण को वेदों में विराट पुरुष के कायांगों से और पुराणों में ब्रह्मा के कायांगों से उत्पन्न हुआ बताया गया है. चुँकि लेखक वर्ग सभी वर्णों से अर्थात पूरी काया (शरीर, समाज रूपी) से आते थे अत: संस्कृत में इस भाषा की प्रकृति के अनुरूप इन्हें काय में अस्थ अर्थात कायस्थ कहा गया, मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति लिखे जाने के बीच की अवधि में ही ‘कायस्थ’ शब्द की निर्मिति हुई होगी. इतिहासविद जयशंकर के अनुसार 'करण' समुदाय एक सीमित क्षेत्र में ही लेखन-कार्य करता था जबकि इनसे इतर एक विशाल वर्ग सभी क्षेत्रों में यही कार्य करता था और शासन से जुड़ा था. करण शब्द में केवल लिपिक की व्यंजना है जबकि कायस्थ में इससे व्यापक पवित्र धर्मशास्त्रों और वेदों के जानने और समझने की भी व्यंजना है. अत: इन्हें कायस्थ संज्ञा से अभिहित किया गया और इसे पदनाम भी बनाया गया.
   पुराण गुप्तकाल में लिखे गए. पुराणों ने संभवत: इसे ही मिथक का रूप देकर कायस्थों के उद्भव की एक सुनिश्चत व्यवस्था दे दी.  
    स्मृतिकार उशनस ने कायस्थ शब्द का निर्माण काल, यम और स्थ्पित (कुम्हार) के प्रथम अक्षरों से मिलकर बना हुआ बताते हैं. कायस्थ में इन तीनों के गुणों की व्यंजना मिलती है. किंतु कब यह षब्द बना औशनस स्मृति यह नहीं बताती.. 

कायस्थ : जाति या समुदाय
    दसवीं सदी के पूर्व तक कायस्थ एक जाति के रूप में स्वीकृत नहीं थे. स्पष्ट रूप से ये लेखकों का समूह थे. कुछ लोगों के अनुसार लेखन कर्म करनेवाले मूलरूप से अयोध्या के रहनेवाले थे. अत: इन्हे अयोध्या के एक नाम कायदेश के आधार पर ये कायस्थ कहलाए. अगर इसे प्रामाणिक माना जाए तो यह प्रमाण कायस्थों के उद्भव का प्रमाण न होकर उनके एक समुदाय होने का प्रमाण हो सकता है. इनका मुख्य कार्य अभिलेखों को लिखना और उसका संरक्षण करना था. ये हर वर्ण में होते थे.
   सातवीं-आठवीं सदी में कश्मीरी ब्राह्मणों में दो वर्ग थे -पुरोहिती करने वाले और लेखन-कार्य करने वाले, जो कायस्थ कहे जाने लगे थे. संंभवत: प्रभाव को लेकर इनमें मतभेद हो गया और दोनों वर्ग अलग हो गए-राजतरंगिणी, कल्हण. लगभग नवीं सदी के अंत तक इनका वर्णों में आना जाना (वर्ण बदलना, चांद्रसेनीय कायस्थ के पूर्व पुरुष का वर्ण बदला था) लगा रहा. बौद्ध धर्म के प्रभाव से वर्णव्यवस्था में काफी शिथिलता आ गई थी. दसवीं सदी में तत्कालीन समाज की ढीली-ढाली वर्णव्यवस्था के विरुद्ध आदि शंकराचार्य ने एक जबरदस्त आंदोलन छेड़ा. इससे समाज में ऐसी कसावट आई कि जो, किसी भी वर्ण के हों, अपना पेशा छोड़कर लेखक और गणक के रूप में महत्व व पहचान पा गए थे वे पुन: अपने पूर्व वर्ण में नहीं लिए गए. समाज के चिंतकों ने उन्हें ‘कायस्थ’ घोषित कर दिया क्योंकि लेखन कर्म में संग्लग्न सभी लोग पहले से ही कायस्थ कहे जाते थे. संभवत: इसी समय इन्हें एक जाति माना गया. बारहवीं सदी की औशनस और व्यास स्मृतियों में प्रथम बार इनका एक जाति के रूप में उल्लेख हुआ है. भगवतशरण उपाध्याय ने अपने ‘‘भारतीय इतिहास का सामाजिक विश्लेषण’’ (पृ 119) में ऐसा ही माना है-
   ‘‘विदेशी आक्रमणों की चोट और जैन-बौद्ध-वैष्णव धर्मों की वर्णवर्जित पद्धति के प्रभाव से ब्राह्मणवर्ण विधान भी सर्वथा अक्षुण्ण न रह सका. समाज की वर्णव्यवस्था बहुत ढीली पड़ गई. इसी समय शंकर और कुमारिल ने सारे देश में घूम घूम व्याख्यान दे-दे कर बौद्धों और जैनों को मथ डाला. उनके संघ धर्म का उच्छेद कर प्रव्रजितों को उन्होंने फिर से गृहस्थ बनाया. कायस्थ आदि अनेक वर्ग संभवत: इसी सामाजिक पुनरावर्तन के परिणाम हैं जो आजतक चतुर्वर्णों में अपना निश्चत स्थान न पा सके. यद्यपि इनमें से कुछ निस्संदेह ब्राह्मण और क्षत्रिय हैं’’.     परंतु उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इनका एक जाति होना सिद्ध नहीं होता. क्योंकि इनका विकास एक जाति की तरह कत्तई नहीं हुआ है. जैसे लोहा का काम करनेवाले लोहार कहलाए वैसे लेखन-अभिलेखन का कार्य करनेवाले 'लेखक' कहलाए 'कायस्थ' नहीं. इन लेखकों के कई समुदाय थे जो अलग अलग विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय थे. जैसे करण समुदाय. ये एक सीमित क्षेत्र में लेखन का कार्य करते थे जो बाद में चित्रगुप्त बंशीय कायस्थों में सम्मिलित हो गए. कायस्थों के गोत्रों का भिन्न भिन्न होना भी इसी बात की पुष्टि करता है., जो समुदाय लेखक और गणक के रूप में महत्व पाए हुए थे और अपने पूर्व वर्ण में समंजित नहीं हो पा रहे थे उन्हें आदि शंकराचार्य के आंदोलन के फलस्वरूप कायस्थ में स्थित कर दिया गया. इसमें सभी वर्णों से आए लेखन-कार्य को अपनानेवाले लोग थे. संभवत: इसी लिए डाँ राजबली पांडेय ने कायस्थों को वर्णों और जातियों से अलग एक समुदाय के रूप में माना है जो शासन के कार्य में संग्लग्न रहते थे-प्रा. भा. का सामा. इतिहास, जयशंकर मिश्र. आज भी इनकी स्थिति एक समुदाय की ही दिखती है. कुछ लोगों का यह भी अनुमान है कि कायदेश (अयोध्या) से विभिन्न क्षेत्रों में गए लेखन के पेश में कार्यरत लोगों का एक संघ बना जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और कदाचित वैश्य वर्णों में में से थे. इसी संघ से कायस्थ (काय में अस्थ अर्थात रहनेवाले) समुदाय अस्तित्व में आया -कायस्थ.और्ग/कायस्थ/हिस्टरी/कायस्थ/ओरिजिन.

काचस्थः उद्भव और विकास
   इतिहास में कायस्थों के उद्भव का कोई निश्चत स्रोत नहीं मिलता. ऐतिहासिक स्रोत के रूप में माथुर कायस्थ एसोशिएशन, मुंर्बइ, के प्रेसिडेंट कृष्ण मुरारी ने अपने एक ब्लाँग में सन् 1900 ई में उर्दू-पर्सियन में लिखी पुस्तक ‘‘अकुअम-अलहिंद’’ का जिक्र किया है. इसमें लिखा है कि सिकंदर लोदी (1498-1517) ने हिंदू युवकों को अरबी-पर्सियन सिखाने के लिए आगरा में एक स्कूल खोला था. इस स्कूल से निकलने वाले छात्रों को ‘कातिब’ कहा जाता था जिसका अर्थ लेखक होता है. यही कातिब शब्द बिगड़कर कैथ, कायथ और अंतत: कायस्थ हो गया. उस समय शासकीय नियुक्तियों में इन कातिबों को ही तरजीह दी जाती थी. शेरशाह सूरी ने इन्हीं कातिबों को अपने शासन में नियुक्त किया था-कायस्थ, क्षत्रिय या शूद्र, कृष्ण मुरारी. इसी समय जिन कायस्थों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया वे मुस्लिम कायस्थ कहलाए. मुस्लिमों में ये शेख कहे जाते हैं. अन्य मुस्लिम समूहों में इनके व्याह-शादी होने के कारण इनकी पहचान अब विरल है.
   कृष्ण मुरारी अपने बुजुर्गों से यह भी सुना बताते हैं कि इन कातिबों को जब नियुक्त किया जाता था तो उनके सर्विस रिकाँर्ड में उनके नाम के आगे ‘कातिब-अस्त’ (कातिब है) लिखा जाता था. यहाँ ‘कातिब’ का अर्थ आगरा स्कूल से पढ़कर निकले कातिब की सनद लिए व्यक्ति से होता था. यही ‘कातिब-अस्त’ बिगड़कर ‘काय-अस्त’ और अंतत: ‘कायस्थ’ बन गया. और लेखन का कार्य करनेवाले कायस्थ कहलाने लगे. ‘कायस्थ’ का उल्लेख अकबर के समय में सूबों की जनसांख्यिकी तैयार करने के क्रम में अकबरनामा (अकबर की जीवनी) में मिलता है.- उक्त ब्लाँग.
   यह एक तथ्य हो सकता है किंतु कायस्थों के उद्भव का स्रोत  नहीं हो सकता. क्योंकि कायस्थ का उल्लेख तो ई पू दूसरी सदी की याज्ञवल्क्य स्मृति में ही मिलता है -पिड्यमानाप्रजारक्षेत् कायस्थै ”चविशेषत:  इतिहासकार जयशंकर मिश्र इसे साहित्यिक दस्तावेजों में कायस्थ का प्रथम उल्लेख मानते हैं. डाँ धर्मवीर अपनी पुस्तक ‘‘हिंदी की आत्मा’’ में श्रीरामगोयल के ‘‘प्राचीन भारतीय अभिलेख संग्रह’’ के हवाले से लिखा है कि मथुरा से प्राप्त कुषाणकालीन बुद्ध प्रतिमा पर किसी कायस्थ की पत्नी का लिखवाया एक अभिलेख उकेरा मिलता है जिसमें ‘कायस्थ’ शब्द का प्रयोग है. अभिलेख के रूप में ‘कायस्थ’ का संभवत: यह प्रचीनतम उल्लेख है.    
   इतिहासविद जयशंकर मिश्र ने अपनी पुस्तक प्रा. भारत का सामा. इतिहास में कायस्थ के उद्भव के संबंध में कुछ ऐतिहासिक अभिलेखों की चर्चा की है. वह कहते हैं कि ग्यारहवीं सदी के एक अभिलेख में इनका उद्भावक कुश और उनका पिता काश्यप लिखा है. रीवाँ के अभिलेख में इनके उद्भव की एक दूसरी ही कथा बताई गई है. सोड्ढल ने इनकी उत्पत्ति शीलादित्य के भाई कालादित्य से मानी है. श्रीहर्ष ने इनका उद्भव यम के लिपिक चित्रगुप्त से माना है. स्पष्ट है कि इन अभिलेखों में उल्लिखित मतों में न तो एकरूपता है न ही इतिहासकार किसी निर्णय पर पहुँचते दीखते हैं.
   इस उलझन की स्थिति में श्रीहर्ष का मत हमें पुराणों की तरफ उन्मुख करता है. पुराणों में ही चित्रगुप्त को यम का लिपिक और कायस्थों का उद्भावक कहा गया है. इसमें चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न कहा गया है और काया से उत्पन्न होने के  कारण ही ये कायस्थ कहे गए बताए गए हैं. अर्थात कायस्थों के उद्भव का स्रोत चित्रगुप्त हैं.
   इस पौराणिक कथन में हमें इतिहास का पुट होने का संकेत मिलता है. पुराण एक तरह से धर्म के आवरण में लिखे गए इतिहास ही हैं. तथ्यात्मक बातों को कहने की इनकी शैली प्रतीक की है.
   ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि आर्य कबीले में आरंभ में एक ही वर्ग था, ब्राह्मण- प्रा. भा. का सा. इतिहास, जयशंकर मिश्र, महाभारत में भी उल्लिखित.  यही वर्ग पुराहिती, कबीले की रक्षा और आजीविका के लिए आखेट का कार्य करता था. जब आर्यकबीलों को अन्य कबीलों से लड़ाई करनी पड़ने लगी तो उन्हें उन्हीं में से लड़ने में रुचि रखनेवालों का एक अलग वर्ग बनाना पड़ा जिसे क्षत्रिय कहा गया. जीविका के लिए जब ये आखेट से कृषि की ओर उन्मुख हुए तब उन्हीं में से कृषि और उद्योग में रुचि रखनवालों का एक और वर्ग बनाना पड़ा. इसे  वैशय कहा गया. आर्यों द्वारा अनार्यों पर विजय प्राप्त करने के पूर्व उनके कबीले में तीन वर्ग बन चुके थे -ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य. विजित अनार्यों को आर्यों ने दास की श्रेणी में रखा और अपने में मिला लिया.
   ऋग्वैदिक समाज में पूर्वागत उक्त तीनों वर्गों में परस्पर वर्ग परिवर्तन की स्वतंत्रता थी. ऋषि विश्वामित्र अपने गुण और कर्म के बल पर ब्रह्मर्षि हो गए थे. दासों के आ जाने से इस वर्ग परिवर्तन की स्वतंत्रता के कारण ऋग्वैदिक समाज दूषित होने लगा. इस दूषण से बचने के लिए ऋग्वैदिक मनीषियों ने गुण और कर्म के सिद्धांतों को आधार बनाकर समाज में वर्णव्यवस्था का विधान किया. अब पूर्वागत तीनों वर्ग वर्ण कहलाए और दासों को शूद्र वर्ण में रखा गया. चतुर्वर्ण विभाजन के ये आधार गुण और कर्म परंपरागत थे और अर्जित थे. और ये हर वर्ण के लिए अतित्वगत थे.
   यहाँ के धर्मभीरू समाज में वर्णविभाजन को सर्वस्वीकृत बनाने के लिए वैदिक मनीषियों ने वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की उत्पत्ति समाजस्वरूप विराट पुरुष के उन्हीं कायांगों-मुख, भुजा, उरू और पैर से बताई जो वर्णों के विशेषक- वाणी, रक्षा, कृषि और सेवा-कार्य के प्रतीकस्वरूप थे. पुराणों ने बह्म्रा की काया को समाजस्वरूप माना और चतुर्वर्ण की उत्पत्ति सृष्टिकर्ता बह्म्रा के उन्हीं कायांगों (मुख, भुजा, उरू, पद) से बताई. पुराणकार एक कदम और आगे गए. उन्होंने ब्रह्मा के उन कायांगों को धारण करनेवाली काया से कायस्थों के आराध्य चित्रगुप्त की उत्पत्ति बताई. यह संस्कृत चित्त की एक वैज्ञानिक अवधारणा है.
   इससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि समाज के सभी वर्णों में लेखन-कर्म करनेवाले थे. अत: ब्रह्मा की काया से अर्थात समाज के चारो वर्णों में विद्यमान लेखन-कर्म करनेवालों के अगुआ के रूप में चित्रगुप्त (एक संस्था?) का उद्भव हुआ. उद्भव के समय उनके हाथों में लेखनी और मसि थी. बह्म्रा की काया से उत्पन्न होने के कारण उन्हें कायस्थ कहा गया. पुराणों का यह काया और चित्रगुप्त का मिथक बहुत अर्थ रखता है. इस मिथक के अर्थ के विश्लेषण से हम पाते हैं कि कायारूपी समाज के चारो वर्णों में बिखरे लेखन कर्म करनेवालों ने मिलकर एक संस्था बनाई जिसे पुराणकारों ने चित्रगुप्त नाम दिया. पुराविद डाँ सुरेशचंद्र श्रीवास्तव चित्रगुप्त को एक संस्था मानते हैं. वायु और गरुड़ पुराण में चित्रगुप्त को अक्षरों को देनेवाला कहा गया है (चित्रगुप्त नमस्तुभ्यम वेदाक्षरादत्ते).. अत: ये उनके आराध्यदेव के रूप में स्वीकृत हुए. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इन लेखनकर्म करनेवालों का उद्भव किसी एक मानव-पुरुष से नहीं हुआ है, वरन एक संस्था से हुआ है.  
   संभवत: इस मिथक की रचना के समय पुराणकारों के सामने वृहदारण्यकोपनिषद की ऋचा {1. 4. 14} थी जिसमें पाँचवे वर्ण ‘धर्म’ की रचना का जिक्र है. इस वर्ण की रचना उक्त चारों वर्णों के नियमन और उसपर नियंत्रण रखने की मंशा से की गई है -ऋचा का शांकर भाष्य. इस पाँचवें वर्ण की चर्चा में हमें एक संस्था के बनाने की ध्वनि निकलती सी प्रतीत होती है. क्योंकि एक संस्था ही चार वर्णोंं में विभक्त समाज का नियमन नियंत्रण करने में समर्थ हो सकती है. चित्रगुप्त को ब्रह्मा ने धर्मराज यम के अनुरोध पर सृष्टिव्यापार के संचालन में उनको सहयोग देने के लिए किया. चित्रगुप्त मानवी सृष्टि के नियमन के दिए उसका लेखा-जोखा रखने के साथ न्यायाधीश के रूप में उनके कर्मफल का निर्णय कर उन्हें सजा देते हैं.
   इतिहास की तर्कप्रणाली का उपयोग कर हम इसे यों भी समझ सकते हैं-
   सभ्यता के आरंभ में मनुष्य भाषा का प्रयोग करने लगा था. वह अपने भावों और अनुभूतियों को सूत्रोंं में अभिव्यक्त कर उसे कंठाग्र करने लगा था. मूल्यवान सूत्रों को सुरक्षित रखने का उनके पास यही एक उपाय था. किंतु मनुष्य यहीं नहीं रुका. सूत्र-साहित्य को दीर्घस्थायी बनाने के लिए धरती को लीप कर भाषा की ध्वनियों के चिह्न बनाने लगा. ये चिह्न लिपि कहलाए. संभवत: लिपि से ही लिख् धातु विकसित हुआ जिससे लेखक शब्द बना. लंका में सुरक्षित त्रिपिटक साहित्य में लेखा और लेखक शब्द का उल्लेख है. संकेतलेखन की परंपरा चिर अतीत से विकसित थी जिसमें पारंगत लोग इस विशेष नाम से संबोधित होते थे- कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि, अशोक वर्मा.  ये लेखक ही एक नए समुदाय में विकसित होकर आगे चलकर कायस्थ कहलाए. हम कह सकते हैं कि प्रारंभ में लेखकों का उद्भव हुआ. आगे चलकर इन्हीं में से कुछ करण और कर्णिक कहलाए. जब ये समाज में अधिक प्रभावी हो गए तब जिस प्रकार समाज के अंगरूप चतुर्वर्ण की उत्पत्ति की उपमा विराट पुरुष और ब्रह्मा के कायांगों से दी गई. उसी तरह समाज की काया से उत्पन्न संस्था अथवा संघ को कायस्थ नाम दिया गया. पुराणों ने इन्हें चित्रगुप्त कहा क्योंकि ये ब्रह्मा के चित्त में गुप्त थे.
   ऋग्वैदिक समय में वर्णविभाजन के आधार परिभाषित कर्मों के भीतर से लेखन-कर्म के धागे झाँकने लगे थे. प्रतीत होता है कि वृहदारण्यकोपनिषद की ऋचा 1.4.14 में इन्हीं लोगों के लिए धर्म वर्ण की कल्पना की गई है जिसे पुराणकारों ने ब्रह्मा की काया से चित्रगुप्त की उत्पत्ति के रूप में प्रस्तुत किया.  
   अत: मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि कायस्थ के उद्भव के कारक ये लेखक ही हैं. मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति के लेखन की बीच की अवधि में इनका 'कायस्थ' संबोधन बहुप्रचलित हुआ. क्योंकि दानपत्र, प्रशस्तिपत्र, अनुदानपत्र, भूमि का पट्टा और  शासनाभिलेख एवं वित्तीय लेखा जोखा रखने, उसे सुरक्षित रखने के लिए बने निकायों में ये पहले से ही कार्य करने लगे थे. कायों से संबद्ध होकर ये कुछ ऐसा प्रसिद्ध हुए कि ये लोक में कायस्थ कहलाने लगे. और याज्ञवल्क्यस्मृति लिखे जाने तक स्मृतिकारों के लिए भी उल्लेख्य हो गए.
   पुराणों में चित्रगुप्त की वंशावली दी गई है, इसमें उनके बारह पुत्रों के नाम हैं, उनके इन्हीं बारह पुत्रों से चित्रगुप्तवंशीय कायस्थों की बारह उपजातियाँ बनीं- श्रीवास्तव, माथुर आदि. अगर इस बंशावली को उलट कर देखा जाए अर्थात उपजातियों से शुरू कर पीछे लौटा जाए तो साफ समझ में आता है कि ये उपजातियाँ स्थानीय स्तर पर लेखन-कार्य करनेवालों का समूह थीं, और  स्थानवाचक नामकरण से संबोधित होती आ रहीं थीं-श्रावस्ती या श्रीनगर के रहनेवाले श्रीवास्तव, मथुरा में रहनेवाले माथुर आदि. संभवत: स्मृतिकाल के मध्य में इनका एक संघ बना और पुराणों ने अपनी शैली में इसे चित्रगुप्त से समीकृत कर ब्रह्मा की काया से उत्पन्न करा दिया. यह भी ध्यान देने योग्य है कि चित्रगुप्त की उत्पत्ति ब्रह्मा के तापसिक चिंतन से हुआ अर्थात एक लंबे विचारोपरांत उनके चित्त में घुमड़ रही अवधारणा प्रकट हुई.

कायस्थों की श्रेणियाँ:
   कायस्थ की तीन श्रेणियाँ हैं-
     1.चित्रगुप्तवंशीय कायस्थ,  इनका गोत्र कश्यप है.   
     2.चांद्रसेनीय कायस्थ      इनका गोत्र बगदालिया है   
     3..मिश्र कायस्थ          इनके गोत्र गौतम, गर्ग आदि हैं
इन सबके आराध्य देव भगवान चित्रगुप्त हैं.

28 comments:

  1. भारतीय हिन्दू समाज की सर्वाधिक विवादित जाति कायस्थ हैं जो हिन्दू धर्म के चारो वर्ण से बाहर भी है और चारो वर्ण में सम्मिलित भी हैं।

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    1. Kayashth jab Brahmin ka kary kiy Brahmin Jale kshatriya ka kary kiy kshatriya Jale vaisya ka kary kiy vaisy Jale kyuki ye uchch koti k log the sare karyo ko thik se kiye

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  2. Jai dharmraj jai maa chandi aapke is lekh ke liye koti koti dhanywad...aapke lekh se ye clear ho gya ki shri chitragupt bhagwan ki utpati 4 varano ke nirman ke bad hui thi aur unko chitragupt ki sangya awam kayastha kha gya kyoki bhagwan chitragupt ji ka hi name kayastha h usliye inke vansaj ko kayastha kha gya pr bad me anya varno ke log bhi kayastha vans me ghus gye aur khud ko kayastha batane lge jisse bhrantiya utpan ho gyi aur bhagwan chitragupt ko bramha dev ki aagyase kshatriya varan apnane ko kha gya.....aath chitraguptvansi kshatriya h jinko kayastha kha jata h

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  3. Bhagwan shri chitragupt ji ko hi dharmraj , 14th yam ,7th manu aur nyay ke devta kha jata h

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  4. Yagwalkya Smriti ka koi varnan nahi...

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  5. लेख उच्च कोटि का है।

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  6. आपका अनुसंधानात्मक लेख जो दुर्लभ जानकारियों से भरी पड़ी है के लिए आपको कोटि कोटि धन्यवाद्!

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  7. [4/8, 12:47 PM] ashwaniabm9: Its misleading to say that there was no Kayastha caste in Kashmir. The Kayasthas were originally a section of the Brahmins who took up writing and administration as a profession. It was so across North India, from Kashmir to Kanyakubj. At the time of King Lalitaditya of Kashmir, Kayasthas were in the stage of being formed into a separate caste from the Brahmins, but, not yet totally separate. Though, they had now emerged as a separate class from the Brahmins. And, therefore, the King is described in various ancient Kashmiri texts as a Brahmin, Kayastha and a Kayastha-Brahmin. It was so across North India. Most Bengali Kayasthas, e.g., have much recent origins in Brahmins from far off places like Rajasthan, Gujarat and Kashmir.
    The confusion will arise if you compare the then Kayastha-Brahmins of Kashmir with today's Kayasthas of North India. Because, today's Kayasthas are a distinct Caste, altogether, through a socio-political process that took place after the rule of Kashmiri Kayasthas. But, its from that very Brahmin-Kayastha class that today's Kayastha caste has emerged.
    Kalhana in his Rajtarangini clearly not only talks about a powerful Kayastha class, but also about their rivalry with the Brahmins. This rivalry exists till date in the rest of India, and in Bengal reached its climax some 700 years ago.
    What exactly happened to the Kayasthas of Kashmir is still a mystery though. There are evidences that many migrated to other parts of India after the Islamic invasion. Most probably perished or converted to Islam.
    A British historian (I don't remember the name) claimed the Srivastava Kayasthas of today are descendants of one such clan of Brahmin Kayasthas from Srinagar, Kashmir (Srivas means resident of Sri(nagar)). (Awadhi (talk) 10:27, 8 June 2016 (UTC))
    [4/8, 12:59 PM] ashwaniabm9: At the time that Rajtarangini was written, Kayastha was not a separate caste anywhere in India, not even in the plains of North India. Kayasthas were simply a class of Brahmins who took up administrative work. It's the same class which later evolved into the Kayastha caste like elsewhere in India.(Awadhi (talk) 15:05, 23 August 2017 (UTC))

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  8. Very critical and analysis of community.They are very intelligent,clever and up to somewhat extent selfish.

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    1. yes you are right but we kayastha are belongs to the brahmin community

      https://www.vepachedu.org/manasanskriti/Brahmins.html

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  9. कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ आपको इस जानकारी के लिए

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  10. कोटी कोटी नमन आपके लेखन के लिए

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    1. घटिया लख के लिये कोटि कोटि नमन वाह भाई वाह अच्छी इज़्ज़त उतरी खेर कायस्थ ब्रहमण होते है इस बददिमाग को शायद नही पता

      https://www.vepachedu.org/manasanskriti/Brahmins.html

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    2. कायस्थ सूर्यवंशी क्षत्रिय होते हैं।

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    3. Kayasthon ke vishey mein PAYE jaane waale lekh
      1. Manu smriti karn means vratya kshtriya.
      2.bhandarkar abhilekh 34,48,188,209,459,1228.
      3.usnas sanhita duty of karnas to protect dugantahpur.
      4.tipera tamrapatra about samant king loknath as a brahmin.
      5.kalhan inscription karn as administrator.
      6.udaipur Rajputana inscription 1191AD karnika brahman.
      7.bhaskar varman nidhanpur tamrapatra nyayii brahmin karn.
      8.naadol puralekh gaudvanshi brahmin kayasth thakur pedath karn.
      9.pedarabandh tamrapatra 1294AD pratiraj kayasth.
      10.delhi sivalik abhilekh stambh puralekh 1163AD gaudvanshi sripati kayasth.
      11.udaykaran hasthinapur mararaj prithivi raj Ka Diwan.
      12.gupta dynasty karn kshtriya.
      Many abhilekh who described the karnas were vratya kshtriyas.

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  11. sir the what ever youmentioned in this blog it's really impresive but the fact is karan kayasthabelongs to brahmin community i will give you exact status of karan kayastha. we karanas are nothing but more over we are brahmin of niyogi community please read it...and do some favour and please don't spread rumor..

    https://www.vepachedu.org/manasanskriti/Brahmins.html

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  12. Bahut jankari bala lekh hai.lekin etihaskaro ne kayatha ko ek bibad ka subject banaye rakha.ye to satya hai ki kayasth ek uchh sthan prapt karne bali jati thi iske logo ka hamesha samaj mai ek uchh sthan raha jisne aur vargo mai Jalan paida ki jinhone inke bare mai tarah tarah ki afbahe failai

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  13. Historical sources se ye proved hai ki kayasth govt services aur lekhan ke sath sath rular bhi thai.

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  14. बहुत ही ध्यानपूर्वक लेख पढा
    विद्वानों के विचार जानने को मिले
    लेख बहुत ही उत्तम है
    इतनी सब व्याख्याएं होने के उपरांत भी यह निर्णय नहीं निकल पाया कि कायस्थ किस वर्ण से हैं
    जैसा कि मनुस्मृति के बारे में बताया गया है कि उसमें कायस्थों का कोई उल्लेख नहीं है, स्पष्ट है कि कायस्थ अनार्य थे जो वर्ण व्यवस्था से इतर थे,
    लेख से एक बात और स्पष्ट होती है कि कायस्थ एक प्रबुद्ध जाति थी, शासक भी रही है और शासन व्यवस्था में भी, इनके इसी बुद्धि कौश्ल्य की वज़ह से कथित ब्राह्मण वर्ण इनकी उपेक्षा नहीं कर पाया, इसलिये इस वर्ग ने चित्रगुप्त जोकि कायस्थों के आदिपुरुष थे को अपने देवी देवता की श्रैणी में रखा और कहने लगे *श्री चित्रगुप्ताय नमः*
    अतः जहां तक मेरा मानना है कायस्थ भारतवर्ष के मूल निवासी हैं.जोकि समाज व्यवस्था को मानते थे और अन्य मूल निवासियों से अधिक प्रबुद्ध थे, यही कारण रहा कि उन्होंने विभिन्न भाषाओं को सरलता से सीखा,
    और किसी धर्म के प्रचार प्रसार की व्यवस्था क्या रही होगी वो क्रिश्चन धर्म जिसका प्रसार कुछ सदियों पूर्व हुआ है से जाना जा सकता है, भारतीय ईसाईयों में भी देखा गया है कि स्थानीय परंपराओं को बहुतायत से अपनाया गया है, ठीक उसी तरह ब्राह्मण वादियों अर्थात् आर्यों ने बहुत सी परंम्पराएं हमारी यानि मूल निवासियों की अपनाईं, और मूलनिवासियों को बेवकूफ बनाने के लिये उनके आराध्य जोकि उनके पूर्वज होते थे को देवी देवताओं का स्वरूप देकर अपनी परंपराएं और आधिपत्य स्थापित किये, यही कारण है कि हिंदु धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता हैं

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    1. Bhai sahab mool nivashi mool nivashi karte mar jaaoge Kuch nhi milega. Kayasthon Ka vivran iss baat SE kiya jaa Sakta hai ki kayasth ek vrriti hai na ki jaati. Lekhak ek varg hai na ki jaati. Manu smriti ke anusaar bahut se Brahman jab karm kand SE aajivika Nahi kama paate the to ye log Anya kaamon me sanlagn ho saktey they jiviko Parjhan hetu jisko ayaachak vrriti bhi Kaha jaata hai.

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    2. Sabd pradipt naamak granth mein karn sabd Ka arth vratya kshtriya / brahm kshtriya bhi Kaha Gaya hai.

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  15. kayasth ek aisi vansh h jo varn vyavstha se alag hote huye bhi sabhi varno ke vidvan the is karan sabhi varno me gine jate the💪💪💪💪

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  16. श्रीवास्तव कायस्थ मूलतः चित्रगुप्तवंशी नहीं थे। मध्यकालीन अभिलेखों के अनुसार वे कश्यपवंशी थे। ऋषि कश्यप के पुत्र कुश और कचर जैसे ऋषियों के पुत्रों से श्री-वास्तव्य कायस्थ अर्थात श्रीवास्तव कायस्थ अपना वंश बताते मिलते हैं अभिलेखों मे।

    उसी प्रकार अम्बष्ठ कायस्थ हरिवंशपुराण मे बताएं आणव क्षत्रियों की शाखा हैं। आणव क्षत्रिय अर्थात चंद्रवंशी राजा अणु के वंशज। राजा अणु के वंशज राजा उशीनर के सबसे छोटे पुत्र राजा सुव्रत के पुत्रों को अम्बष्ठ कहा हैं हरिवंशपुराण मे।

    बंगाल मे कुलीन कायस्थों मे बसु (वसु) कुल पुरुवंशी राजा वसु के वंशज मानते हैं स्वयं को। घोष कुल वंश से ऋषि सौखलिन के वंशज होते हैं। मित्रा अपने आप को मित्रवंशी बताते हैं।

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  17. अति उत्तम लेखन।
    कृपया परम दानी मेधावी काली प्रसाद कुलभास्कर की जीवनी पर भी शोध एवम् लेखन करें।

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  18. बहुत ही सुन्दर Karn पर भी

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  19. बहुत ही विस्तृत और उपयोगी लेख है।इस लेख को अंतिम न मानते हुए इसमें और भी जानकारी समाविष्ट कर जानकारी को समृद्ध करने के बजाय आलोचना करना कुत्सित प्रयास है। अपने अपने स्रोत से इसे और उपयोगी बनाना उचित होगा। धन्यवाद आदित्य कुमार श्रीवास्तव कवर्धा छत्तीसगढ़

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