Tuesday 10 July 2012

तो क्या ईश्वर का अस्तित्व संकट में है ?


अभी पिछले इतवार को हम रिटायर्ड लोगों के क्लब में विज्ञान की नवीनतम खोज गौड-पार्टिकिल पर चर्चा हुई  इस क्लब में अधिकतर विज्ञान के लेक्चरार हैं. इनकी दृष्टि में  यह विज्ञान की एक महत्वपूर्ण  खोज है. लेकिन  एक सदस्य ने, जो श्रीराम शर्मा  के गायत्री परिवार के सदस्य हैं, इस नाम पर कटाक्ष किया. उनके कथन से यही ध्वनि  निकलती प्रतीत हुई कि यह खोज जैसे ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दे  रही हो. वैसे ईश्वर के अस्तित्व पर तो हमेशा प्रश्न उठाए जाते रहे है. कभी इसे भौतिकवादी चिन्तक चार्वाक ने चुनौती दी थी, तो कभी नीत्से ने. नीत्से ने  तो ईश्वर की मृत्यु तक की घोषणा कर दी थी. लेकिन इन लोगों के पास केवल वैचारिक निष्कर्ष था प्रयोगगत नहीं. आज विज्ञान ने कुछ कदम आगे बढ़ कर यह प्रयोगगत खोज की है. उनकी यह खोज उनके  प्रयोगों का  निष्कर्ष है. हालांकि जबसे विज्ञान ने परमाणु के भीतर प्रवेश किया है उसने उसके भीतर के खोजे गए कणों को अपनी आँखों से देखा नहीं है. इन कणों के अस्तित्व को वैज्ञानिकों ने गणितीय विधि से सिद्ध किया है. बोसोन कण भारतीय वैज्ञानिक सत्येन बोस का गणितीय निष्कर्ष है. इनके शोध को एक विज्ञान-पत्रिका के  छापने से इनकार करने पर बोस ने इसे सीधे आइन्स्टीन को भेज दिया था. आइन्स्टीन ने इसे पढ़ा, समझा और इस कण को बोसोन नाम देकर छपवाया. पीटर हिग्स भी सन 1964 में अपने निष्कर्ष पर गणित के माध्यम से ही पहुंचे थे और अपने खोजे हुए कण का नाम 'हिग्स बोसोन' रखा था . इनके कुछ पहले भी  एक वैज्ञानिक ने इसपर काम किया था और इस कण का अनुमान लगाया था जिसका नाम उसने 'गौडम पार्टिकिल' रखा था पर उस शोध के  प्रकाशक ने उसे 'गौड पाटिर्किल' कर दिया. इस कण का वैज्ञानिकों का दिया नाम 'हिग्स बोसोन' है. जो भ्रम की स्थिति बनी है वह मीडिया में इस कण को 'गौड पार्टिकिल' के नाम से अधिक प्रचारित होने से.


इस कण के बारे में कहा गया है कि जब सघन द्रव्य का महाविस्फोट हुआ तब सारा द्रव्य अंतरिक्ष में विखर गया. ठीक उसी क्षण 'हिग्स बोसोन फिल्ड' भी  निर्मित हो गया. इस फिल्ड के हिग्स कणों (गौड पार्टिकिल ) ने ही विखरे द्रव्य के टुकडों को भार प्रदान किया. और तब ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया. इस पार्टिकिल की खोज से  वैज्ञानिकों को ऊर्जा को द्रव्य में बदलने का सूत्र हाथ लग गया प्रतीत होता है. एक तरह से कहेँ तो वैज्ञानिक यह मानने को उद्यत हो गए हैं कि ब्रह्माण्ड के निर्माण के लिए यह 'गौड पार्टिकिल ' ही जिम्मेदार है. स्पष्ट निष्कर्ष देने के लिए उन्हें अभी और विश्लेषणों की आवश्यकता है. लेकिन उन लोंगों के लिए एक  विचिकित्सा तो खड़ी हो ही गई है जो ईश्वर को ब्रह्माण्ड के निर्माण का कारण मानते हैं. उन्हें लगने लगा है कि अगर ऐसा प्रतिस्थापित हो गया तो उनकी परम्परागत सारी धारणाएं ध्वस्त हो जाएँगीं. लेकिन क्या ऐसा हो सकता है?

मेरे एक मित्र ने ऐसे लोगों की हँसी उड़ाते हुए एक ब्लॉग लिखा था. मैंने उन्हें लिखा कि विज्ञान जो भी देता है निष्कर्ष देता है. वह अंतिम नहीं होता. उसमें परिवर्तन की सम्भावना बनी रहती है. किन्तु धर्म निश्चय देता है. यह निश्चय उसके अंतर्जगत का उद्घाटित तथ्य है, ठीक एक कौंध की तरह. इसके प्रत्युत्तर में उन्होंने  निष्कर्ष  और निश्चय में प्रयोगशीलता का अंतर बताते हुए ईश्वर के अस्तित्व को आस्था का विषय बताया है. उनका मानना है कि धर्म में प्रयोग के लिए अवसर होता ही नहीं. धर्म की जो धारणा मित्र के मन में है उसको  ध्यान में रखने पर उनकी बात ठीक ही लगती है. लेकिन यहाँ मैंने धर्म की व्यापक अर्थ में चर्चा की है. ऐसा लगता है कि विज्ञान की दी हुई जानकारियाँ भी विज्ञान को तरजीह देने वाले लोगों में जड़ता का रूप लेने लगी हैं. ये मान बैठे हैं कि धर्म वही है जो उन्हें बाहर से दीखता है. ये यह भी मान बैठे हैं कि धर्म में प्रयोग होता ही नहीं. यही इनकी जड़ता है. धर्म के जितने भी निश्चय है वे साधकों को उनकी प्रयोगशील साधनाओं में उद्घाटित तथ्य हैं. मैं अपने मित्र को एक बार सलाह दे चुका हूँ , एक बार फिर सलाह देता हूँ कि आप ओशो को मनोयोग से पढ़ें. ओशो का कहना है कि धर्म वह है जिसमें 'मैं' के विसर्जन की अनुभूति फलित होती है. यह राह चलते नहीँ फलित होती. यह साधना के विषम प्रयोगों में डूबने पर फलित होती है जिसमें चेतना के सारे गुण ही बदल जाते हैं. जिस धर्म की हम आप बात करते हैं उसमें तो 'मैं' (अहम्) ही सर्वोपरि है. क्या गौड पार्टिकिल की खोज से मनुष्य की सामयिक चेतना में कोई बदलाव आने की संभावना है? साधना के प्रयोगों में यह संभावना है. आज विज्ञान अपने विकास के चरम पर है और मनुष्य की चेतना विक्षिप्तता के चरम की ओर अग्रसर है. विज्ञान के सारे प्रयोग भौतिक सुविधाओं को ही समृद्ध करने में प्रयुक्त होते हैं. मनाश्चेतना की समस्याएं इससे नही सुलझती. वस्तुतः विज्ञान जीवन को देखने समझने का एक दृष्टिकोण है जो जीवन की व्याख्या के लिए चीर-फाड़ का अर्थात विश्लेषण की पद्धति का सहारा लेता है. और धर्म जीवन को देखने समझने तथा उसकी व्याख्या के    लिए योग का अर्थात संश्लेषण की पद्धति का सहारा लेता है. ओशो कहते हैं आज के सन्दर्भ में ये दोनों पद्धतियाँ एकांगी हैं. वैज्ञानिकों की भाषा में आज का मनुष्य होमो सेपियंस सेपियँस है. ओशो के मत में कल का मनुष्य कुछ और होगा. वह जोरबा द बुद्ध होगा जिसमें आइन्स्टीन का शरीर होगा और बुद्ध की अन्तश्चेतना. डार्विन के  विकासवाद के केंद्र में केवल मनुष्य के शरीर का विकास है. पुराणों की दशावतार धारणा में मनुष्य के शरीर और चेतना दोनों के समवेत विकास की चिन्तना सन्निहित है. तो फिर ईश्वर के संकट में पड़ने का सवाल ही कहाँ उठता . ईश्वर तो जीवन की व्याख्या का एक सूत्र भर है. विभिन्न तरह की चेतनाओं के लिए साधना की चरम अनुभूति तो एक ही है पर उस अनुभूति को ईश्वर शब्द दे देने पर ईश्वर है या नहीं के प्रत्युत्तर में उपनिषद कहते हैं ईश्वर है , बुद्ध इस प्रश्न के उत्तर में चुप हो जाते हैं. ओशो भारत में कहते हैं ईश्वर है और अमेरिका में कहते हैं ईश्वर नहीं है. ये वक्तव्य विरोधी लगते हैं विश्लेषण के स्तर पर संश्लेषण अर्थात अनुभूति के स्तर पर नहीं. 


क्या  किसी वैज्ञानिक की ऎसी सोच होने की संभावना लगती है कि विश्लेषण के प्रयोगों के साथ ध्यान के प्रयोगों में भी वह डुबकी लगा सके. ऐसा सोचना तो उसकी प्रयोगी प्रवृत्ति के तो अनुकूल ही होगा.

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