Friday 22 June 2012

शुकर ताल में कुछ घंटे

अपने पोते के जन्मदिन की पहली वर्षगाँठ पर मुझे और मेरी श्रीमती जी को अभी पिछले दिनों मुजफ्फरनगर जाना पड़ा. 17 जून  को उसका जन्मदिन पड़ता है. हम  दो दिन पहले ही वहाँ पहुँच गए. मेरा लड़का मेरी रूचि को जानता है. उसने सालगिरह के एक दिन पहले ही हस्तिनापुर देखने का कार्यक्रम बना कर कार रिजर्व करा लिया.

मुजफ्फरनगर खासकर स्टील फैक्टरी, पेपर मिल और चीनी मिल के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन इसके इर्द गिर्द इतिहास की बहुत सारी मूल्यवान सामग्रियां विखरी पड़ी हैं. ये सामग्रियां खुदाई से प्राप्त नहीं हैं वल्कि साहित्यिक साक्ष्यों में निहित हैं और विशेषकर महाभारत काल से सम्बंधित हैं.

हमलोगों ने पहले शुकर ताल के लिए प्रस्थान किया .यह स्थान  महाभारत की  घटना से बाद के काल से   सम्बंध रखता है. यह ताल मुजफ्फरनगर शहर के बगल से बहती हुई गंगा से  एक छरका निकालकर उसे सोनाली नदी में मिलाने से बना है. इसी ताल के किनारे एक ऊंचे टीले को अर्जुन के पोते राजा परीक्षित ने शमीक  ऋषि के गले में मृत साँप डालने के पश्चातापस्वरूप भगवद्भजन  के लिए चुना था. कथा है कि राजा शिकार  करते समय प्यास  से व्याकुल होकर पास ही में तपस्या कर रहे शमीक ऋषि से जल माँगा. उत्तर न मिलने पर राजा परीक्षित ने क्रोध में आकर ऋषि के गले में मरा हुआ साँप डाल दिया और राजधानी चले आये.ऋषि के पुत्र श्रृंगी को जब इसका पता चला तो उन्होंने  शाप दे दिया कि जिस व्यक्ति ने ऐसा किया है  सात दिन के अन्दर उसकी मृत्यु हो जाएगी. शमीक ऋषि को जब इसका पता चला तो वह बहुत दुखी  हुए. उन्होंने अपने पुत्र द्वारा राजा को  दिए शाप की बात उन्हें एक शिष्य से कहला भेजी. राजा ने उस शाप को अपने किए के लिए  दण्ड माना और अपने पुत्र  जनमेजय  को राजसिंहासन पर बिठाकर स्वयं शेष जीवन भगवद्भजन करते हुए  बिताने के लिए  इस टीले पर आ गए. व्यास-पुत्र  शुकदेव जी ने यहीं पर सात दिन तक श्रीमद्भागवत पुराण   की कथा सुनाई जिससे राजा परीक्षित  का डर जाता रहा.


शुकदेव जी के नाम पर  ही इस टीले का नाम शुक-तीर्थ और इस ताल का नाम शुक-ताल पड़ा जिसके बिगड़े  रूप शुक्र-तीर्थ  और शुक्र अथवा शुकर ताल  हैं .शुकर ताल एक  मनोरम स्थल है. हालांकि उस दिन कड़ी धूप  थी. पर ताल में श्रद्धावान लोगों को नहाते और दूर दूर तक फैल़ी गंगा की हरी भरी उपत्यका को देख कर मन प्रसन्न हो उठा.ताल के ऊपरी हिस्से में बंधे से सटे बना उद्यान तो और अच्छा लगा. उसमें बड़े करीने से तरह तरह के पौधे  कुछ वृत्त के आकार में और अधिकांश फैलाकर उगाए गए हैं.यहाँ हमने कल्पवृक्ष भी देखे.फिर पेड़ों की छाँव में कुछ पल आराम कर पास ही कुछ दूरी पर स्थित शुक्र-तीर्थ के लिए चल दिए. वहां पहुँचाने के  लिए ड्राईबर को थोड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ी.शुक्र-तीर्थ में उस समय श्रीमदभागवत का गायन हो रहा था.गवैया लोग    सुन्दर और सुमधुर स्वर में  संस्कृत  में गा रहे थे.उस ऊँचाई पर एक बड़ा भारी बरगद का पेड़ है जिसकी डालियाँ जमीन को छूती सी हैं.इसी वृक्ष की छाया में भगवान कृष्ण का मंदिर है.मंदिर के चबूतरे पर उस वट-वृक्ष  की छाया में हमलोगों ने  बहुत देर तक आराम किया, ठंढा पानी पिया, उछलते कूदते छोटे बड़े बंदरों को देखा.यहाँ हमेशा भागवत का गायन होता रहता है.उस गायन और वहाँ बरसती शांति का आनंद लेकर फिर हम हस्तिनापुर के लिए चल दिए.        

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