धमक स्तूप (सारनाथ) |
रामनगर किले का संग्रहालय देखने के बाद हम सारनाथ के लिए चल दिए. सारनाथ पहुँच कर पहले हम मूलगंध कुटी विहार देखने के लिए चले. साथ में एक गाइड लग गया. गेट से घुसते ही हमें उस विशाल घंटे का दर्शन हुआ जिसके बारे में गाइड ने बताया की इस घंटे के बजने पर इसकी ध्वनि दूर दूर तक सुनाई देती है. फिर उसने हमसे पूरे विहार का फेरा लगवाया. इस फेरे के दरम्यान वह हमें विहार के बारे में बताता रहा. उसने यह भी बताया कि विहार की दीवारें पत्थरों से बनी हैं और इन पत्थरों को सुर्खी, चूना, गुड और उड़द की दाल से बने गारे से जोड़ा गया है. विहार का .एक फेरा लग जाने के बाद हमें विहार के अन्दर प्रवेश करने को कहा. सन १९६५ में जब मैं यहाँ आया था तब ऐसी बात नहीं थी.उस समय गाइड का भी कोई जोर नहीं था.यह गाइड हमें जितना बता रहा था उससे अधिक ही मैं जानता था. यह मूल्गंध कुटी विहार अपेक्षाकृत नया बना विहार है. इसे बनवाने का श्रेय लंका के बौद्ध प्रचारक अंगारिका धर्मपाल को जाता है. विश्वभर के बौद्ध श्रद्धालुओं के दान से यह १९३१ में बनकर तैयार हुआ था. पुराने विहार का भग्नावशेष इस वर्तमान विहार के पश्चिम की तरफ बगल में ही मिला है. खुदाई में २५०० ई पूर्व की इसकी दीवारें भी मिली हैं. इतिहासकारों का अनुमान है की पुराना विहार पूर्व-अशोक काल में बना था. कम से कम खुदाई में मिली ईंटें तो यही बताती हैं. संभवतः इसे बुद्ध के शिष्यों ने बनवाया था.
विहार के भीतर हमने बुद्ध की भव्य मूर्ति देखी, सुन्दर, मनोहारी. भीतरी दीवारों पर बुद्ध के जीवन से सम्बंधित चित्रकारी हमें बहुत भाई. इस चित्रकारी को सन १९३६ में जापानी चित्रकार कोसेत्सू नोसू ने बनाए थे. लेकिन बुद्ध की मूर्ति मुझे वैसी नहीं लगी जैसी मैंने इसके पूर्व सन १९६५ में देखी थी. गाइड से पूछा तो वह यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि तब तो मेरा (गाइड का ) जन्म भी नहीं हुआ था.स्पष्ट ही वर्तमान मूर्ति उस समय की मूर्ति से अलग है. जहाँ तक मुझे याद है उस समय की मूर्ति इससे बड़ी और आदमकद थी.और पूरी की पूरी सोने की थी. बीच में उस मूर्ति के ख़राब होने की खबर आई थी. उसे नए सिरे से बनाने की भी खबर आई थी.इसी बीच वर्तमान मूर्ति बनी होगी. पर इस मूर्ति में वैसी करुणा छलकती नहीं लगती.
विहार से निकलकर हम उसके बगल में बने स्थल को देखने गए जहाँ बुद्ध और उनके उन पांच शिष्यों की पत्थर की प्रतिमाएं बनी हैं जिन्हें उन्होंने सारनाथ में धर्मचक्र परिवर्तन का उपदेश दिया था. इसे म्यामार के बौद्ध भिक्षुओं ने सन १९८७ में बनवाया था. उन्होंने बुद्ध के अट्ठाईस रूपों की छोटी छोटी मूर्तियाँ भी बनवाई हैं जो बहुत ही सुन्दर बन पड़ी हैं. अशोक की पुत्री संघमित्रा बोधगया के बोधिवृक्ष, जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, की एक टहनी अपने साथ लंका ले गई थी.उसी टहनी से लहलहाए वृक्ष से एक डाल लाकर इस स्थल पर भी लगाई गई है जो अब वृक्ष बन गई है. इस विहार के पीछे के खाली स्थान को एक उद्यान का रूप दे दिया गया है जो प्राचीन मृगदाव का स्मरण दिलाने के लिए पर्याप्त है. सारनाथ का प्राचीन नाम मृगदाव अर्थात मृगों (हिरणों ) के विचरण करने का स्थान था. सारनाथ इस स्थान का आधुनिक नाम है. जातक की बौद्ध कथाओं की एक कथा के अनुसार बुद्ध अपने एक पूर्वजन्म में मृगों (सारंगों) के राजा थे. उन्होंने एक शिकारी से एक गर्भिणी मृगी (हिरन ) की जान बचाई थी. इसी सारंगों के नाथ के नाम पर इस स्थान का नाम सारनाथ पड़ा. एक इतिहासकार के अनुसार पुराणों में शिव का एक नाम सारंगनाथ मिलता है.यहाँ शिव का एक मंदिर भी है. यह स्थान कभी शैवों का उपासना स्थल था. शैवों के नाथ सारंगनाथ के नाम पर इस स्थान का नाम सारनाथ पड़ा. हमने पगोडा शैली में बना मंदिर भी देखा.इसमें बुद्ध की मूर्ति के अगल बगल उनके चीअर शिष्यों की भी मूर्तियाँ बनी हैं.और सामने कुशीनगर में बनी सोए हुए बुद्ध की अनुकृति बने गई है जो बहुत ही कीमती लकड़ी से बनी है.यह बहुत ही सुन्दर, भव्य और आकर्षक है. बुद्ध की बहुत ऊँची और विशाल वह मूर्ति भी हमने देखी जो अफगानिस्तान के बामियान में तोड़ी गई प्रस्तर मूर्ति की याद में बाई गई है.
यहाँ से टेम्पोवाला हमें धमेक स्तूप दिखाने ले चला. मुझे यह थोडा अटपटा लगा. क्योंकि जब मैं पहली बार यहाँ आया था तब मुझे परिसर में एक ही बार प्रवेश कर मैंने पूरी घुमाई की थी.. इस बार पुरातत्व विभाग का मेंटेनेंस देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा. चहारदीवारियों से विहार और भग्नावशेषों को अलग कर दिया गया है. फूल और हरे पौधे लगाकर पूरे खँडहर परिसर को हरा भरा बना दिया गया है. यह लहलहाता हरापन दर्शकों की आँखों को ठंढक देता है. पतली पतली पगदंदियाँ भी अवशेषों तक पहुंचने के लिए बना दी गई हैं. एक पगडण्डी से हम धमेख स्तूप पहुंचे. स्तूप को हमने देखा ,फोटो खिंचवाए.और वहीँ से हम खँडहर में उतर गए. खँडहर में हमने उस विशाल स्तूप की बची नींव देखी जिसे धर्मराजिका स्तूप के नाम से चिन्हित किया गया है. वहां एक पट्टी भी लगी है जिसमें बताया गया है की तुर्कों के आक्रमण से यहाँ के बौद्ध स्थल को बहुत नुकसान हुआ था .फिर भी धर्मराजिका स्तूप का बड़ा हिस्सा बचा हुआ था.किन्तु ब्रिटिस काल में काशी नरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने इस स्तूप को तुड़वाकर इससे निकली इंटों से बनारस का मोहल्ला जगतगंज बसाया. इसके बाद हमने वह नींव भी देखी जिसपर अशोक ने वह स्तम्भ बनवाया था जिसके शीर्ष पर चार शेरों के सिरों वाला शिखर बनवाया था. इसके पाद में चौबीस तीलियों वाला चक्र बना है..खुदाई में निकालते समय यह स्तम्भ खंडित हो गया. इसका शीर्ष इससे अलग हो गया था जिसे पास ही बने संग्रहालय में बड़े व्यवस्थित ढंग से रखा गया है. इसके बाद अन्य भग्नावशेषों को भी हमने देखा जिसमें एक टूटा निर्माण खंड था जिसके बारे में बताया गया है की यह संभवतः धर्मराजिका स्तूप के शिखर पर बनाया गया होगा. बड़ा ही सुन्दर और भव्य निर्माण खंड है यह.
यहाँ से निकलकर हम संग्रहालय देखने गए. संग्रहालय में यहाँ की खुदाई में मिली सामग्रियां रखी गईं हैं. इसमें प्रवेश करते ही हमें चार शेरों के सिरों वाला अशोक स्तम्भ का शीर्ष खंड देखने को मिला. स्वतंत्र भारत की सरकार ने इसे ही अपना राजचिंह घोषित किया है. हमने अन्य अवशेषों को भी देखा. देखकर बहुत अच्छा लगा. इन भग्नावशेषों के बहाने अपने अतीत में झांक कर हमें रोमांच हो आया. पर एक क्षण के लिए यह भी प्रश्न आ उठा की आज हम अपने समृद्ध अतीत और चरित्र से कितना अलग हो गए हैं.
टेम्पोवाले का समय अब पूरा हो रहा था. एक ट्रिप में छै घंटे के लिए ही टेम्पो तय होते हैं. अतः संग्रहालय से निकलकर हमने कुछ नाश्ता किया और हम अपने आवास के लिए प्रस्थान कर गए. रास्ते में टेम्पोवाले ने हमें चौखंडी स्तूप दिखाया. यह एक विशाल और भव्य स्तूप है. उसने बताया की इस स्तूप को देखने कोई जाता नहीं. हालाँकि दो एक लोग वहां दिखाई दे रहे थे. मुझे भी इस स्तूप के बारे में कुछ पता नहीं था. घर आने पर मैंने इसका इतिहास जानने की कोशिश की. पता चला की यह सूप भी बहुत पुराना है.एक जगह मिला की अकबर कभी यहाँ आया था और ठहरा था. उसी की स्मृति में टोडरमल के पुत्र ने इसे बनवाया था. एक अन्य जगह मुझे मिला की यह बहुत पुराना स्तूप है जिसे बुद्ध के अनुयायियों ने गुप्तकाल में बनवाया था. और अकबर के यहाँ ठहरने की स्मृति में इसके ऊपरी सिरे पर एक बुर्ज टोडरमल के पुत्र ने बनवा दिया था. कहते हैं वह बुर्ज अभी भी है.
रात विश्राम कर दूसरे दिन विन्ध्याचलदेवी का दर्शन करने गए. देवी का दर्शन हमने बहुत आराम से किया. हमने देवी के चरण छुए, आशीर्वाद लिया और तुरत अष्टभुजी देवी के दर्शन के लिए चल दिए. वह स्थान एक पहाड़ी पर है. टेम्पोवाला पहाड़ की चढ़ाई पार कर हमें मंदिर तक ले गया. थोड़ी दूर तक पहाड़ी से उतरकर हम मंदिर में गए, हमने देवी का दर्शन किया और थोडा उतरकर फिर एक ऊँची चढाई पर चलकर सीताकुंड गए. वहां एक अज्ञात स्रोत से लगातार पानी आता रहता है. उस पानी को इकठ्ठा करने के लिए एक कुण्ड बना दिया गया है. इसे ही सीता कुण्ड कहा जाता है. वहां पहुंचते ही बंदरों ने हमें घेर लिया पर हमें कुछ नुकसान नहीं पहुँचाया. वहां से और चढ़ाई पर एक और रास्ता जाता दिखा. पता चला वह मोतिया झील को जाता है जो वहां से डेढ़ किलोमीटर दूर है. हम थक गए थे. इसलिए वहां न जाकर लौट आए. रास्ते में टेम्पोवाले ने बताया की मोतियाझील केवल तांत्रिक लोग जाते हैं. फिर वहां से हम चुनार का किला देखने गए. वह एक बहुत ऊँची पहाड़ी पर बना है. इस किले का एक छोटा सा हिस्सा ही हमें देखने को मिला. इस छोटे से हिस्से में कैदियों के लिए बनी कोठरियां ही हैं. कठोर सजा मिले कैदियों को तहखाने में रखा जाता था जिसमें ऊपर की तरफ थोड़ी सी जगह हवा आने के लिए छोड़ी गई है . किले में बना फांसी घर भी देखा. यह ठीक गंगा नदी के किनारे बना है. कैदियों को फांसी देकर उन्हें नदी में बहा दिया जाता था. किले के बड़े हिस्से पर सेना का कब्ज़ा है. देवकी नंदन खत्री ने अपने चंद्रकांता नमक ऐयारी उपन्यास में इसी किले का जिक्र किया है. इन कैदखानों को देख कर उपन्यास में वर्णित भयावहता का अनुमान होता है. इस किले को देख कर हम बनारस लौट आए और बाहर ही बाहर ट्रेन पकड़ कर गोरखपुर चले आए.
विहार के भीतर हमने बुद्ध की भव्य मूर्ति देखी, सुन्दर, मनोहारी. भीतरी दीवारों पर बुद्ध के जीवन से सम्बंधित चित्रकारी हमें बहुत भाई. इस चित्रकारी को सन १९३६ में जापानी चित्रकार कोसेत्सू नोसू ने बनाए थे. लेकिन बुद्ध की मूर्ति मुझे वैसी नहीं लगी जैसी मैंने इसके पूर्व सन १९६५ में देखी थी. गाइड से पूछा तो वह यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि तब तो मेरा (गाइड का ) जन्म भी नहीं हुआ था.स्पष्ट ही वर्तमान मूर्ति उस समय की मूर्ति से अलग है. जहाँ तक मुझे याद है उस समय की मूर्ति इससे बड़ी और आदमकद थी.और पूरी की पूरी सोने की थी. बीच में उस मूर्ति के ख़राब होने की खबर आई थी. उसे नए सिरे से बनाने की भी खबर आई थी.इसी बीच वर्तमान मूर्ति बनी होगी. पर इस मूर्ति में वैसी करुणा छलकती नहीं लगती.
विहार से निकलकर हम उसके बगल में बने स्थल को देखने गए जहाँ बुद्ध और उनके उन पांच शिष्यों की पत्थर की प्रतिमाएं बनी हैं जिन्हें उन्होंने सारनाथ में धर्मचक्र परिवर्तन का उपदेश दिया था. इसे म्यामार के बौद्ध भिक्षुओं ने सन १९८७ में बनवाया था. उन्होंने बुद्ध के अट्ठाईस रूपों की छोटी छोटी मूर्तियाँ भी बनवाई हैं जो बहुत ही सुन्दर बन पड़ी हैं. अशोक की पुत्री संघमित्रा बोधगया के बोधिवृक्ष, जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, की एक टहनी अपने साथ लंका ले गई थी.उसी टहनी से लहलहाए वृक्ष से एक डाल लाकर इस स्थल पर भी लगाई गई है जो अब वृक्ष बन गई है. इस विहार के पीछे के खाली स्थान को एक उद्यान का रूप दे दिया गया है जो प्राचीन मृगदाव का स्मरण दिलाने के लिए पर्याप्त है. सारनाथ का प्राचीन नाम मृगदाव अर्थात मृगों (हिरणों ) के विचरण करने का स्थान था. सारनाथ इस स्थान का आधुनिक नाम है. जातक की बौद्ध कथाओं की एक कथा के अनुसार बुद्ध अपने एक पूर्वजन्म में मृगों (सारंगों) के राजा थे. उन्होंने एक शिकारी से एक गर्भिणी मृगी (हिरन ) की जान बचाई थी. इसी सारंगों के नाथ के नाम पर इस स्थान का नाम सारनाथ पड़ा. एक इतिहासकार के अनुसार पुराणों में शिव का एक नाम सारंगनाथ मिलता है.यहाँ शिव का एक मंदिर भी है. यह स्थान कभी शैवों का उपासना स्थल था. शैवों के नाथ सारंगनाथ के नाम पर इस स्थान का नाम सारनाथ पड़ा. हमने पगोडा शैली में बना मंदिर भी देखा.इसमें बुद्ध की मूर्ति के अगल बगल उनके चीअर शिष्यों की भी मूर्तियाँ बनी हैं.और सामने कुशीनगर में बनी सोए हुए बुद्ध की अनुकृति बने गई है जो बहुत ही कीमती लकड़ी से बनी है.यह बहुत ही सुन्दर, भव्य और आकर्षक है. बुद्ध की बहुत ऊँची और विशाल वह मूर्ति भी हमने देखी जो अफगानिस्तान के बामियान में तोड़ी गई प्रस्तर मूर्ति की याद में बाई गई है.
यहाँ से टेम्पोवाला हमें धमेक स्तूप दिखाने ले चला. मुझे यह थोडा अटपटा लगा. क्योंकि जब मैं पहली बार यहाँ आया था तब मुझे परिसर में एक ही बार प्रवेश कर मैंने पूरी घुमाई की थी.. इस बार पुरातत्व विभाग का मेंटेनेंस देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा. चहारदीवारियों से विहार और भग्नावशेषों को अलग कर दिया गया है. फूल और हरे पौधे लगाकर पूरे खँडहर परिसर को हरा भरा बना दिया गया है. यह लहलहाता हरापन दर्शकों की आँखों को ठंढक देता है. पतली पतली पगदंदियाँ भी अवशेषों तक पहुंचने के लिए बना दी गई हैं. एक पगडण्डी से हम धमेख स्तूप पहुंचे. स्तूप को हमने देखा ,फोटो खिंचवाए.और वहीँ से हम खँडहर में उतर गए. खँडहर में हमने उस विशाल स्तूप की बची नींव देखी जिसे धर्मराजिका स्तूप के नाम से चिन्हित किया गया है. वहां एक पट्टी भी लगी है जिसमें बताया गया है की तुर्कों के आक्रमण से यहाँ के बौद्ध स्थल को बहुत नुकसान हुआ था .फिर भी धर्मराजिका स्तूप का बड़ा हिस्सा बचा हुआ था.किन्तु ब्रिटिस काल में काशी नरेश चेत सिंह के दीवान जगत सिंह ने इस स्तूप को तुड़वाकर इससे निकली इंटों से बनारस का मोहल्ला जगतगंज बसाया. इसके बाद हमने वह नींव भी देखी जिसपर अशोक ने वह स्तम्भ बनवाया था जिसके शीर्ष पर चार शेरों के सिरों वाला शिखर बनवाया था. इसके पाद में चौबीस तीलियों वाला चक्र बना है..खुदाई में निकालते समय यह स्तम्भ खंडित हो गया. इसका शीर्ष इससे अलग हो गया था जिसे पास ही बने संग्रहालय में बड़े व्यवस्थित ढंग से रखा गया है. इसके बाद अन्य भग्नावशेषों को भी हमने देखा जिसमें एक टूटा निर्माण खंड था जिसके बारे में बताया गया है की यह संभवतः धर्मराजिका स्तूप के शिखर पर बनाया गया होगा. बड़ा ही सुन्दर और भव्य निर्माण खंड है यह.
यहाँ से निकलकर हम संग्रहालय देखने गए. संग्रहालय में यहाँ की खुदाई में मिली सामग्रियां रखी गईं हैं. इसमें प्रवेश करते ही हमें चार शेरों के सिरों वाला अशोक स्तम्भ का शीर्ष खंड देखने को मिला. स्वतंत्र भारत की सरकार ने इसे ही अपना राजचिंह घोषित किया है. हमने अन्य अवशेषों को भी देखा. देखकर बहुत अच्छा लगा. इन भग्नावशेषों के बहाने अपने अतीत में झांक कर हमें रोमांच हो आया. पर एक क्षण के लिए यह भी प्रश्न आ उठा की आज हम अपने समृद्ध अतीत और चरित्र से कितना अलग हो गए हैं.
टेम्पोवाले का समय अब पूरा हो रहा था. एक ट्रिप में छै घंटे के लिए ही टेम्पो तय होते हैं. अतः संग्रहालय से निकलकर हमने कुछ नाश्ता किया और हम अपने आवास के लिए प्रस्थान कर गए. रास्ते में टेम्पोवाले ने हमें चौखंडी स्तूप दिखाया. यह एक विशाल और भव्य स्तूप है. उसने बताया की इस स्तूप को देखने कोई जाता नहीं. हालाँकि दो एक लोग वहां दिखाई दे रहे थे. मुझे भी इस स्तूप के बारे में कुछ पता नहीं था. घर आने पर मैंने इसका इतिहास जानने की कोशिश की. पता चला की यह सूप भी बहुत पुराना है.एक जगह मिला की अकबर कभी यहाँ आया था और ठहरा था. उसी की स्मृति में टोडरमल के पुत्र ने इसे बनवाया था. एक अन्य जगह मुझे मिला की यह बहुत पुराना स्तूप है जिसे बुद्ध के अनुयायियों ने गुप्तकाल में बनवाया था. और अकबर के यहाँ ठहरने की स्मृति में इसके ऊपरी सिरे पर एक बुर्ज टोडरमल के पुत्र ने बनवा दिया था. कहते हैं वह बुर्ज अभी भी है.
रात विश्राम कर दूसरे दिन विन्ध्याचलदेवी का दर्शन करने गए. देवी का दर्शन हमने बहुत आराम से किया. हमने देवी के चरण छुए, आशीर्वाद लिया और तुरत अष्टभुजी देवी के दर्शन के लिए चल दिए. वह स्थान एक पहाड़ी पर है. टेम्पोवाला पहाड़ की चढ़ाई पार कर हमें मंदिर तक ले गया. थोड़ी दूर तक पहाड़ी से उतरकर हम मंदिर में गए, हमने देवी का दर्शन किया और थोडा उतरकर फिर एक ऊँची चढाई पर चलकर सीताकुंड गए. वहां एक अज्ञात स्रोत से लगातार पानी आता रहता है. उस पानी को इकठ्ठा करने के लिए एक कुण्ड बना दिया गया है. इसे ही सीता कुण्ड कहा जाता है. वहां पहुंचते ही बंदरों ने हमें घेर लिया पर हमें कुछ नुकसान नहीं पहुँचाया. वहां से और चढ़ाई पर एक और रास्ता जाता दिखा. पता चला वह मोतिया झील को जाता है जो वहां से डेढ़ किलोमीटर दूर है. हम थक गए थे. इसलिए वहां न जाकर लौट आए. रास्ते में टेम्पोवाले ने बताया की मोतियाझील केवल तांत्रिक लोग जाते हैं. फिर वहां से हम चुनार का किला देखने गए. वह एक बहुत ऊँची पहाड़ी पर बना है. इस किले का एक छोटा सा हिस्सा ही हमें देखने को मिला. इस छोटे से हिस्से में कैदियों के लिए बनी कोठरियां ही हैं. कठोर सजा मिले कैदियों को तहखाने में रखा जाता था जिसमें ऊपर की तरफ थोड़ी सी जगह हवा आने के लिए छोड़ी गई है . किले में बना फांसी घर भी देखा. यह ठीक गंगा नदी के किनारे बना है. कैदियों को फांसी देकर उन्हें नदी में बहा दिया जाता था. किले के बड़े हिस्से पर सेना का कब्ज़ा है. देवकी नंदन खत्री ने अपने चंद्रकांता नमक ऐयारी उपन्यास में इसी किले का जिक्र किया है. इन कैदखानों को देख कर उपन्यास में वर्णित भयावहता का अनुमान होता है. इस किले को देख कर हम बनारस लौट आए और बाहर ही बाहर ट्रेन पकड़ कर गोरखपुर चले आए.
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