आज होली है. सन २०१२ की होली. देश के कुछ हिस्सों में कल ही होली मना ली गयी. यह एक विडम्बना ही है. हमारे ज्योतिषियों को मिलकर एक सामान्य नियम बनाना चाहिए जो समूचे देश के लिए एक हो. ऐसा करना हमारी सामूहिक एकता को बल ही देगा.
सामान्य जनता के लिए तो नहीं पर राजनीतिकों के लिए यह होली कुछ अलग ही रंग लिए होगी. क्योंकि कुछ प्रान्तों में विधान सभा के चुनाव अभी अभी हुए हैं. चुनाव में कोई हारा है कोई जीता है. वैसे तो चुनाव के परिणामों को हर पार्टी के उम्मीदवारों को खेल की भावना के अनुरूप लेना चाहिए पर राजनीतिक वातावरण इतना विषाक्त हो चुका है क़ी खेल क़ी भावना से चुनाव लड़ना सपना देखने जैसी बात है. ध्यान से देखें तो चुनाव लड़ने क़ी तस्वीर ऐसी प्रस्तुत क़ी जाती है जैसे युद्ध में लडाई लड़ी जा रही हो.सभी जानते हैं युद्ध में प्रतिद्वंद्वी को नेस्तनाबूत कर लड़ाई जीतने की कोशिश की जाती है. विधायक चुने जाने को भी पार्टियाँ इसी विचार को लेकर चुनाव लड़ती दिख रहीं हैं. हो भी क्यों न . साहित्य और कला के क्षेत्र में भी इसी प्रकार की मनोवृति दिकाई देती है . संगीत के क्षेत्र में तो संगीत का विश्वयुद्ध जैसे आयोजन होने लगे है जबकि संगीत में युद्ध जैसी भावना सर्वथा अनपेक्षित है. आशा भोसले ने एक आयोजन में आयोजकों का ध्यान इस ओर खींचा भी था.पर इसे कोई माने क्यों. आज के युग में कलाकार से अधिक आयोजक अपने को जानकार मानते हैं. उन्हें कुछ चौंकाने वाले टाइटिल चाहिए. संगीत की गहनता और सौंदर्य को वे क्या जानें और क्यों जानें. धनलाभ में इसकी क्या भूमिका है. हिंदी के के क्षेत्र में ही देखिये. इस विषय के अधिकारी से अधिक वे ही अपनी हांकते हैं जो अधिकारी नहीं हैं.
तो फिर राजनीति ही अनुशासित क्यों हो. कहीं किसी कोने से यह नहीं दीखता की कोई जनसेवा के लिए विधायक बनाना चाहता है. विधयक होने का एक ही ध्येय दीखता है रातों रात अकूत धन का मालिक बन जाना. यह सही है की यह साधारणीकरण सभी विधायकों पर लागू नहीं किया जा सकता पर ९०% से अधिक विधायकों पर तो यह लागू होता ही है. तो जो इस चुनाव में हार गए हैं वे जले भुने बैठे हैं. जो जीत गए हैं वे गरूर में आ गए हैं. और होली का नारा होता है 'बुरा न मानो होली है ' . है तो यह नारा अच्छे सेन्स में पर अच्छे के आवरण में बुरे को प्रतिस्थापित करना हम लोगों को खूब आता है. हार की भड़ांस और गरूर की उद्दंडता का होली में उच्छ्रिन्खल हो जाना आसन सी बात है.अभी कल ही गोरखपुर क्षेत्र में हारने वाले प्रत्याशी के समर्थकों ने उन मतदाताओं पर हिंसक हमला बोल था दिया जिन्होंने उसे वोट नहीं किया था.
राजनीतिकों को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए. जनता का भी यह दायित्व है की देश में इस तरह के वातावरण के निर्माण में सहयोग करे.वास्तव में राजनीति धर्म का क्रियारूप है.
सामान्य जनता के लिए तो नहीं पर राजनीतिकों के लिए यह होली कुछ अलग ही रंग लिए होगी. क्योंकि कुछ प्रान्तों में विधान सभा के चुनाव अभी अभी हुए हैं. चुनाव में कोई हारा है कोई जीता है. वैसे तो चुनाव के परिणामों को हर पार्टी के उम्मीदवारों को खेल की भावना के अनुरूप लेना चाहिए पर राजनीतिक वातावरण इतना विषाक्त हो चुका है क़ी खेल क़ी भावना से चुनाव लड़ना सपना देखने जैसी बात है. ध्यान से देखें तो चुनाव लड़ने क़ी तस्वीर ऐसी प्रस्तुत क़ी जाती है जैसे युद्ध में लडाई लड़ी जा रही हो.सभी जानते हैं युद्ध में प्रतिद्वंद्वी को नेस्तनाबूत कर लड़ाई जीतने की कोशिश की जाती है. विधायक चुने जाने को भी पार्टियाँ इसी विचार को लेकर चुनाव लड़ती दिख रहीं हैं. हो भी क्यों न . साहित्य और कला के क्षेत्र में भी इसी प्रकार की मनोवृति दिकाई देती है . संगीत के क्षेत्र में तो संगीत का विश्वयुद्ध जैसे आयोजन होने लगे है जबकि संगीत में युद्ध जैसी भावना सर्वथा अनपेक्षित है. आशा भोसले ने एक आयोजन में आयोजकों का ध्यान इस ओर खींचा भी था.पर इसे कोई माने क्यों. आज के युग में कलाकार से अधिक आयोजक अपने को जानकार मानते हैं. उन्हें कुछ चौंकाने वाले टाइटिल चाहिए. संगीत की गहनता और सौंदर्य को वे क्या जानें और क्यों जानें. धनलाभ में इसकी क्या भूमिका है. हिंदी के के क्षेत्र में ही देखिये. इस विषय के अधिकारी से अधिक वे ही अपनी हांकते हैं जो अधिकारी नहीं हैं.
तो फिर राजनीति ही अनुशासित क्यों हो. कहीं किसी कोने से यह नहीं दीखता की कोई जनसेवा के लिए विधायक बनाना चाहता है. विधयक होने का एक ही ध्येय दीखता है रातों रात अकूत धन का मालिक बन जाना. यह सही है की यह साधारणीकरण सभी विधायकों पर लागू नहीं किया जा सकता पर ९०% से अधिक विधायकों पर तो यह लागू होता ही है. तो जो इस चुनाव में हार गए हैं वे जले भुने बैठे हैं. जो जीत गए हैं वे गरूर में आ गए हैं. और होली का नारा होता है 'बुरा न मानो होली है ' . है तो यह नारा अच्छे सेन्स में पर अच्छे के आवरण में बुरे को प्रतिस्थापित करना हम लोगों को खूब आता है. हार की भड़ांस और गरूर की उद्दंडता का होली में उच्छ्रिन्खल हो जाना आसन सी बात है.अभी कल ही गोरखपुर क्षेत्र में हारने वाले प्रत्याशी के समर्थकों ने उन मतदाताओं पर हिंसक हमला बोल था दिया जिन्होंने उसे वोट नहीं किया था.
राजनीतिकों को इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए. जनता का भी यह दायित्व है की देश में इस तरह के वातावरण के निर्माण में सहयोग करे.वास्तव में राजनीति धर्म का क्रियारूप है.
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