ई- पत्रिका अनुभूति में प्रकाशित नचिकेता की कविता क्या मौसम बदलेगा पर एक प्रतिक्रिया
मौसम तो बदलेगा ही
उसे अनुकूलता की प्रतीक्षा
नहीं होती.
नहीं होती.
पक्षी चहकेगें ही
उन्हें चहकने के लिए
किसी की अपेक्षा
किसी की अपेक्षा
नहीं होती.
मउराए अंकुरों में भी
हरीतिमा आएगी
बस प्रकृति की निकटता भर
पाने की देर है
बस प्रकृति की निकटता भर
पाने की देर है
पर मित्र ! हम तो
अपेक्षाओं के पुलिंदे हैं
इनमें एक जबतक हरी हो
दूसरी मउरा जाती है.
इनमें एक जबतक हरी हो
दूसरी मउरा जाती है.
मौसम तो बदलता है
हमारी अनुभूति में
प्रकृति के आँगन में
सूरज का उगना और डूबना
प्रकृति के तुक हैं
पर इनके प्रतिसंवेदन
और सिहरन
हमारी अनुभूति में ही
सरक
व द्रवीभूत होकर
हमारे होते हैं
सूरज की अरुणाई में खोए
हम
दरअसल हम्हीं
सूरज को उगाते और डुबाते
हैं
मौसम तो बदलेगा ही
जरा सोचें
क्या नए मौसम को
क्या नए मौसम को
अपने में समोने के लिए
हमारे भीतर की ग्रहणशीलता
उर्वर है.