प्राचीन काल से आजतक की भारतीय राजनीति पर एक सरसरी निगाह डालते हैं तो हमें दीख पड़ता है कि कुछ ही महापुरुष ऐसे हुए हैं जो एक व्यापक फलक पर इस देश की राजनीतिक प्रवृत्ति को समय समय पर निर्धारित करते रहें हैं. इस विषय में मेरा ध्यान प्रथमतः श्रीकृष्ण की ओर जाता है. श्रीकृष्ण ने महाभारत काल में जिस राजनीतिक प्रवृत्ति की नींव डाली उसकी जड़ें अतीत में थीं जिसने तात्कालिक वर्तमान में करवटें लीं. इस राजनीति पर धर्म और चरित्र का नियंत्रण था. धर्म शब्द से मेरा अर्थ उस धर्म से है जिसे ओशो ने परिभाषित किया है. उस धर्म से नहीं जिसे अपने विवेचन में मार्क्स और नीत्से ने लिया है. मार्क्स ने तो इसे अफीम और नीत्से ने मरा घोषित कर दिया था{'ईश्वर मर गया है', जिस धर्म की ये बात कर रहे हैं उसकी धुरी ईश्वर ही है}. मार्क्स ने धर्म के जिस अर्थ को लिया है वह अफीम ही है क्योंकि यह संप्रदाय को द्योतित करता है और संप्रदाय की जड़ें धर्मान्धता में होती हैं. इसी लिए ओशो ने एक नया शब्द गढ़ा है-धार्मिकता. श्रीकृष्ण इस धार्मिकता को राजनीति से ऊपर मानते हैं. राजनीति को इस धार्मिकता के नियंत्रण में होना चाहिए. वह गीता में कहते भी हैं- ईश्वर न कुछ करता है न कराता है. जो , कुछ करती कराती है वह प्रकृति है. अर्जुन ! तुम यदि युद्ध नहीं करोगे तो यह तुम्हारी प्रकृति तुझसे करा देगी .ध्यान से देखें तो महाभारत का हरेक पात्र अपने कथनों के समर्थन में नीतिगत और चरित्रगत बातें करता नजर आता है. श्रीकृष्ण की राजनीति महाभारत युद्ध को होने से तो नहीं रोक सकी किन्तु इसने भारतीय संस्कृति को विखरने और विकृत होने से तो रोक ही लिया. इस राजनीति में श्रीकृष्ण धार्मिकता की भूमिका निभा रहे थे और अर्जुन क्रियारूप राजनीति की.
इसके बाद मेरा ध्यान नंदवंसी सत्ता पर आ टिकता है. जैसी राजनीतिक और सामाजिक विषमता महाभारत काल में दिखती है लगभग वैसी ही विषमता नंदवंशी शासन में भी दीख पड़ती है. इस काल में राजनीति का सूत्र हाथ में लेता है तक्षशिला का प्रखर चिन्तक शिक्षक चाणक्य जिसकी राजनीतिक सक्रियता था चन्द्रगुप्त. इस काल में भी राजनीति धार्मिकता के नियंत्रण में थी. ध्यान से देखें तो इस काल में भी चाणक्य नंदवंसी शासन के विरुद्ध था न कि मगध की जनता और राष्ट्र के प्रति निष्ठावान लोगों के प्रति. राक्षस धनानंद का निष्ठावान मंत्री था. उस काल में राजा के प्रति निष्ठां ही राष्ट्र के प्रति निष्ठां मानी जाती थी. राक्षस धनानंद के प्रति निष्ठ तो था ही पर वह मगध के प्रति भी उतना ही निष्ठ था. चाणक्य की दृष्टि धनानंद के प्रति कठोर थी. यहाँ तक की उसको अपदस्थ करने के उसके सारे उपाय विफल हो जाने पर वह धनानंद की हत्या तक करा देता है. किन्तु अपने सारे उपायों को विफल कर देने वाले राक्षस के प्रति वह कठोर नहीं होता. धनानंद की हत्या के लिए तमाम निर्दय षड्यंत्रों को रचने वाला चाणक्य , राक्षस की हत्या कराने की न सोच मगध की सत्ता चन्द्रगुप्त को सौंप कर राक्षस को उसका मंत्री बना देता है. धर्म नहीं धार्मिकता की इससे बड़ी मिशाल और क्या हो सकती है. इस धार्मिकता का नियंत्रण पूरे मौर्या शासन पर था.
फिर लगभग दो हजार साल बाद भारत के राजनीतिक क्षितिज पर गाँधी का उदय होता है. गाँधी की राजनीति ने पूरे भारत को आच्छादित कर लिया. राजनीति में उन्होंने एक नया प्रयोग किया. धर्म के क्षेत्र में जीवन को नियंत्रित करने के लिए उपदेशित अहिंसा को राजनीति में स्थापित किया. राजनीति में और भी जीवन मूल्यों की उन्होंने स्थापना की. जिसके खिलाफ लड़ना था उसे शत्रु नहीं माना. जेलों में संतरी की अनुपस्थिति में वह अपने स्वजनों से बात नहीं करते थे. न वह शासन के प्रति शत्रुवत थे न ही आन्दोलन चलाने के उनके उपाय ही शत्रुवत थे. वह देश और जीवन के प्रति समर्पित थे. इन्होंने भी धार्मिकता को राजनीति से ऊपर रखा. चौरीचौरा कांड के बाद आन्दोलन को स्थगित कर देना इसी बात की ओर ध्यान खींचता है. १९१५ में जब गाँधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ वह अफ्रीका में अपनी राजनीति का खम्भा गाड़ चुके थे जिसमें उनके नैतिक
मूल्यों की ईंटें लगी थीं. भारत आकर भी वह जल्दी में नहीं थे. अपने राजनीतिक गुरु बालकृष्ण गोखले के परामर्श पर उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया. देश की जनता को नजदीक से जाना समझा. यहाँ के सांस्कृतिक परिवेश में गहराई से झाँका. फिर यहाँ की राजनीति में कदम रखा. उस समय इस देश की राजनीति में अनेक प्रतिभाशाली हस्तियाँ थी. कोंग्रेस की स्थापना हो चुकी थी. इसका स्वर देश की स्वतंत्रता थी. किन्तु इसे प्राप्त करने के लिए अपनाए जाने वाले उपायों पर मतैक्य नहीं था. देश के मन को समझने का इनका कोई प्रयास नहीं था. गाँधी ने इनकी राजनीति की धुरी ही बदल दी. इन्होंने चंपारण से अपना कम शुरू किया. यहाँ इनके सहयोगी बने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और जे.बी. कृपलानी. नील को लेकर अंग्रेजों से प्रताड़ित स्थानीय लोगों की समस्या जानने के लिए गाँधी के आदेश पर गांव गांव जाकर इन लोगों ने समस्या और उसके पहलुओं के दस्तावेज बनाये. इस तरह से जनता और जनता की समस्याओं तथा मनोवृत्तियों को समझने के बाद ही गाँधी ने अपने आन्दोलन का रुख तय किया. और यही उनकी राजनीति की प्रवृत्ति बन गयी.
लेकिन गाँधी ने सारे प्रयोग राजनीति में किये. उन्होंने जनता के मन को तो समझा पर अपने साथ हो लिए नेताओं के मन को समझने के लिए कोई प्रयोग नहीं किया. इसी लिए उनको न कोई अर्जुन मिला न चन्द्रगुप्त. श्रीकृष्ण ने अर्जुन पर गहन प्रयोग किया था. चाणक्य ने शरीर मन हर तरह से चन्द्रगुप्त को ठोका परखा और उसे सत्तारूढ़ कराने तक ठोकता परखता रहा. चन्द्रगुप्त न सत्तारूढ़ होने की जल्दी में था न सत्ता पाने की उसको ललक ही थी. लेकिन गाँधी के प्रयास से जब राजनीतिक स्वतंत्रता फलित हुई गाँधी के सिपहसालारों में .सत्ता पाने की होड़ लग गयी. यहाँ तक कि गाँधी क़ी इस दृढता को कि देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा इन लोगों ने उपेक्षा कर दी. प्रधानमंत्री के लिए नेहरू और पटेल में द्वंद्व खड़ा हो गया. जवाहर लाल नेहरू एक संवेदनशील व्यक्ति थे .पर उनके मन पर उनके अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि की कुछ खरोंच पड़ी थी शायद. इसी लिए उनके मन में एक गांठ थी. वह अपने मुकाबले के और स्वाभिमानी व्यक्तित्व को पसंद नहीं करते थे. वह अपना सहयोगी भी किसी स्वाभिमानी और स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले को नहीं बनाना चाहते थे. वह नहीं चाहते थे कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाया जाय. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी असहमति भी जाहिर कर दी थी. पर गाँधी के कहने पर कि किसी को तो यह जहर पीनाही पड़ेगा वह इस पद को संभालने को तैयार हुए थे. दूसरी बार भी जवाहर लाल कि इच्छा के विरुद्ध राजर्षि टंडन ने मोर्चा संभाला और तब राजेंद्र प्रसाद दुबारा रस्ग्त्रपति बने.
जवाहर लाल के बाद अब यही वर्तमान भारतीय राजनीति की दिशा और प्रवृत्ति बन गयी है. यह राजनीति गाँधी का उपयोग केवल वोट पाने के लिए करती है. गाँधी को नकारना इसके लिए संभव नहीं है. गाँधी की प्रासंगिकता को बनाये रखना इसकी मजबूरी है. कोंग्रेस का तो यह स्थायी भाव हो गया है. अन्य पार्टियाँ भी इससे अछूती नहीं हैं. जवाहर लाल ने तो कम से कम वंशवाद चलाने की न तो कभी इच्छा जाहिर की थी न
कोशिश की थी. किन्तु आज राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की जो जी तोड़ कोशिश की जा रही है वह कांग्रेस को इतिहास को देखते हुए विस्मयकारी लगता है. इसीलिए मेरा मन करता है कि कहूँ कि यह वह कोंग्रेस नहीं है जिसने भारत को आजादी दिलाने में भूमिका निभाई थी. यह उस कोंग्रेस के सिंडिकेट से निकली है जिसके सदस्यों में सत्ता पर काबिज होने कि होड़ लगी थी. और आज कोंग्रेस इसी विकृति से संत्रस्त है. बाकी पार्टियाँ भी इसी रोग से ग्रस्त हैं.
अन्ना के अनोलन में थोड़ी सी लौ दिखी थी पर लगता है यह अपने ही अंतर्द्वंद्वों की व्यथा झेल रही है.
इसके बाद मेरा ध्यान नंदवंसी सत्ता पर आ टिकता है. जैसी राजनीतिक और सामाजिक विषमता महाभारत काल में दिखती है लगभग वैसी ही विषमता नंदवंशी शासन में भी दीख पड़ती है. इस काल में राजनीति का सूत्र हाथ में लेता है तक्षशिला का प्रखर चिन्तक शिक्षक चाणक्य जिसकी राजनीतिक सक्रियता था चन्द्रगुप्त. इस काल में भी राजनीति धार्मिकता के नियंत्रण में थी. ध्यान से देखें तो इस काल में भी चाणक्य नंदवंसी शासन के विरुद्ध था न कि मगध की जनता और राष्ट्र के प्रति निष्ठावान लोगों के प्रति. राक्षस धनानंद का निष्ठावान मंत्री था. उस काल में राजा के प्रति निष्ठां ही राष्ट्र के प्रति निष्ठां मानी जाती थी. राक्षस धनानंद के प्रति निष्ठ तो था ही पर वह मगध के प्रति भी उतना ही निष्ठ था. चाणक्य की दृष्टि धनानंद के प्रति कठोर थी. यहाँ तक की उसको अपदस्थ करने के उसके सारे उपाय विफल हो जाने पर वह धनानंद की हत्या तक करा देता है. किन्तु अपने सारे उपायों को विफल कर देने वाले राक्षस के प्रति वह कठोर नहीं होता. धनानंद की हत्या के लिए तमाम निर्दय षड्यंत्रों को रचने वाला चाणक्य , राक्षस की हत्या कराने की न सोच मगध की सत्ता चन्द्रगुप्त को सौंप कर राक्षस को उसका मंत्री बना देता है. धर्म नहीं धार्मिकता की इससे बड़ी मिशाल और क्या हो सकती है. इस धार्मिकता का नियंत्रण पूरे मौर्या शासन पर था.
फिर लगभग दो हजार साल बाद भारत के राजनीतिक क्षितिज पर गाँधी का उदय होता है. गाँधी की राजनीति ने पूरे भारत को आच्छादित कर लिया. राजनीति में उन्होंने एक नया प्रयोग किया. धर्म के क्षेत्र में जीवन को नियंत्रित करने के लिए उपदेशित अहिंसा को राजनीति में स्थापित किया. राजनीति में और भी जीवन मूल्यों की उन्होंने स्थापना की. जिसके खिलाफ लड़ना था उसे शत्रु नहीं माना. जेलों में संतरी की अनुपस्थिति में वह अपने स्वजनों से बात नहीं करते थे. न वह शासन के प्रति शत्रुवत थे न ही आन्दोलन चलाने के उनके उपाय ही शत्रुवत थे. वह देश और जीवन के प्रति समर्पित थे. इन्होंने भी धार्मिकता को राजनीति से ऊपर रखा. चौरीचौरा कांड के बाद आन्दोलन को स्थगित कर देना इसी बात की ओर ध्यान खींचता है. १९१५ में जब गाँधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश हुआ वह अफ्रीका में अपनी राजनीति का खम्भा गाड़ चुके थे जिसमें उनके नैतिक
मूल्यों की ईंटें लगी थीं. भारत आकर भी वह जल्दी में नहीं थे. अपने राजनीतिक गुरु बालकृष्ण गोखले के परामर्श पर उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया. देश की जनता को नजदीक से जाना समझा. यहाँ के सांस्कृतिक परिवेश में गहराई से झाँका. फिर यहाँ की राजनीति में कदम रखा. उस समय इस देश की राजनीति में अनेक प्रतिभाशाली हस्तियाँ थी. कोंग्रेस की स्थापना हो चुकी थी. इसका स्वर देश की स्वतंत्रता थी. किन्तु इसे प्राप्त करने के लिए अपनाए जाने वाले उपायों पर मतैक्य नहीं था. देश के मन को समझने का इनका कोई प्रयास नहीं था. गाँधी ने इनकी राजनीति की धुरी ही बदल दी. इन्होंने चंपारण से अपना कम शुरू किया. यहाँ इनके सहयोगी बने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और जे.बी. कृपलानी. नील को लेकर अंग्रेजों से प्रताड़ित स्थानीय लोगों की समस्या जानने के लिए गाँधी के आदेश पर गांव गांव जाकर इन लोगों ने समस्या और उसके पहलुओं के दस्तावेज बनाये. इस तरह से जनता और जनता की समस्याओं तथा मनोवृत्तियों को समझने के बाद ही गाँधी ने अपने आन्दोलन का रुख तय किया. और यही उनकी राजनीति की प्रवृत्ति बन गयी.
लेकिन गाँधी ने सारे प्रयोग राजनीति में किये. उन्होंने जनता के मन को तो समझा पर अपने साथ हो लिए नेताओं के मन को समझने के लिए कोई प्रयोग नहीं किया. इसी लिए उनको न कोई अर्जुन मिला न चन्द्रगुप्त. श्रीकृष्ण ने अर्जुन पर गहन प्रयोग किया था. चाणक्य ने शरीर मन हर तरह से चन्द्रगुप्त को ठोका परखा और उसे सत्तारूढ़ कराने तक ठोकता परखता रहा. चन्द्रगुप्त न सत्तारूढ़ होने की जल्दी में था न सत्ता पाने की उसको ललक ही थी. लेकिन गाँधी के प्रयास से जब राजनीतिक स्वतंत्रता फलित हुई गाँधी के सिपहसालारों में .सत्ता पाने की होड़ लग गयी. यहाँ तक कि गाँधी क़ी इस दृढता को कि देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा इन लोगों ने उपेक्षा कर दी. प्रधानमंत्री के लिए नेहरू और पटेल में द्वंद्व खड़ा हो गया. जवाहर लाल नेहरू एक संवेदनशील व्यक्ति थे .पर उनके मन पर उनके अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि की कुछ खरोंच पड़ी थी शायद. इसी लिए उनके मन में एक गांठ थी. वह अपने मुकाबले के और स्वाभिमानी व्यक्तित्व को पसंद नहीं करते थे. वह अपना सहयोगी भी किसी स्वाभिमानी और स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले को नहीं बनाना चाहते थे. वह नहीं चाहते थे कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाया जाय. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी असहमति भी जाहिर कर दी थी. पर गाँधी के कहने पर कि किसी को तो यह जहर पीनाही पड़ेगा वह इस पद को संभालने को तैयार हुए थे. दूसरी बार भी जवाहर लाल कि इच्छा के विरुद्ध राजर्षि टंडन ने मोर्चा संभाला और तब राजेंद्र प्रसाद दुबारा रस्ग्त्रपति बने.
जवाहर लाल के बाद अब यही वर्तमान भारतीय राजनीति की दिशा और प्रवृत्ति बन गयी है. यह राजनीति गाँधी का उपयोग केवल वोट पाने के लिए करती है. गाँधी को नकारना इसके लिए संभव नहीं है. गाँधी की प्रासंगिकता को बनाये रखना इसकी मजबूरी है. कोंग्रेस का तो यह स्थायी भाव हो गया है. अन्य पार्टियाँ भी इससे अछूती नहीं हैं. जवाहर लाल ने तो कम से कम वंशवाद चलाने की न तो कभी इच्छा जाहिर की थी न
कोशिश की थी. किन्तु आज राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की जो जी तोड़ कोशिश की जा रही है वह कांग्रेस को इतिहास को देखते हुए विस्मयकारी लगता है. इसीलिए मेरा मन करता है कि कहूँ कि यह वह कोंग्रेस नहीं है जिसने भारत को आजादी दिलाने में भूमिका निभाई थी. यह उस कोंग्रेस के सिंडिकेट से निकली है जिसके सदस्यों में सत्ता पर काबिज होने कि होड़ लगी थी. और आज कोंग्रेस इसी विकृति से संत्रस्त है. बाकी पार्टियाँ भी इसी रोग से ग्रस्त हैं.
अन्ना के अनोलन में थोड़ी सी लौ दिखी थी पर लगता है यह अपने ही अंतर्द्वंद्वों की व्यथा झेल रही है.
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