Monday 22 November 2021

*वर्तमान हिंदी आलोचना का रूप रंग* (पिछली पोस्ट से आगे)



शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 22-11-2021 सोमवार


पिछली पोस्ट में संदर्भित शेर है -
"लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया,
हम चुप भी हैं तो यह कोई अहसान कम नहीं।"
जिस मित्र ने राजा दुबे का यह शेर अपने फेसबुक वाल पर पोस्ट किया है किसी चुहलबश नहीं किया है, सोद्देश्य किया है। इस शेर को उनके सामने रखने वाले उनके मित्र गोपेश्वर सिंह ने इसे समय को अतिक्रांत कर देश की वर्तमान हालात पर एक करारा प्रहार बताया है। एक करारा प्रहार लगता भी है यह शेर, आज की हालात पर। लेकिन इस शेर के कहन में एक अंतर्विरोध भी दिखता है। यहाँ एक की 'चुप्पी' दुम दबाने का प्रतीक है तो वहीं दूसरे की अहसान जताने का। शेर को अपने वाल पर देने वाले भी इस तथ्य पर कुछ कहने से कतरा जाते हैं।
इस शेर की अंतर्वस्तु में किसी जुल्म के आगे लोग तो चुप हैं ही, शायर खुद भी चुप है। लेकिन वह अन्य चुप्पों को जुल्म के आगे दुम हिलाने वाला बताता है जबकि अपनी चुप्पी को अहसान करने वाला। यह अहसान तो जुल्म ढाने वाले पर ही हो सकता है, जुल्म के आगे दुम हिलाने वालों पर क्या अहसान हो सकता है।
इस शेर पर टिप्पणी करने वालों ने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया है। इन टिप्पणियों में 'वाह वाह' के अलावे कुछ ऐसी भी टिप्पणियाँ हैं, जिनमें आलोचना की प्रकृति है पर उसमें केवल उसके बाहरी कलेवर को ही छुआ गया है, उसके अंतर्मन को नहीं। शायर के लिए कुछ लोगों की चुप्पी किसी के प्रति दुम दबाने वाली है तो उसके खुद के लिए किसी के प्रति अहसान जताने वाली। यह "किसी"-द्वय अलग अलग है या एक ही है।
मैंने इस शेर को यहाँ इसी बात को समझने के लिए लिया है। हिंदी आलोचना के वर्तमान तौर तरीके से इसे समझना मुझे मुश्किल हो रहा है। क्योंकि उसमें आलोच्य अंतर्वस्तु को केवल ऊपरी तौर पर ही छुआ जाता है जिसमें आलोचक स्वयँ को अधिक व्यक्त कर सके।
अभी एक दिन पहले एक पाठक ने मेरे उक्त प्रश्न पर एक धमाका जड़ दिया - "वर्तमान को छोड़ आप अतीत को ही लेकर बैठ गए। कहीं आप संघी तो नहीं।"
इस शेर को अपने वाल पर पहली बार प्रस्तुत करने वाले मेरे फेसबुक मित्र भी कुछ ऐसा ही रद्दा मार गए थे मुझ पर, शुरू शुरू में - "अब आप ईमर्जेंसी को लेकर खूँटा गाड़ लिए।"
अब पाठकगण ही बताएँ, ईमर्जेंसी के ठीक बाद लिखे गए शेर की कुंजी ईमर्जेंसी में ही तो मिलेगी। फिर ईमर्जेंसी (अतीत) में खूँटा क्यों न गाड़ा जाए। समय का अतिक्रमण भी तो तभी होगा।
प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह के अनुसार यह शेर ईमर्जेंसी में लिखा गया था। राजा दुबे ने इस शेर में, ईमर्जेंसी के दौरान जो अनुभव उनको प्राप्त हुए, उसका निचोड़ व्यक्त किया है।
भारत में यह ईमर्जेंसी जून, 1975 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा लगाई गई थी। क्योंकि सन् 1971 ई के संसदीय चुनाव में उनके प्रतिद्वन्द्वी राजनारायण सिंह ने उनकी चुनावी जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी और कोर्ट ने श्रीमती गाँधी की संसद की सदस्यता को निरस्त कर दिया था। लेकिन इंदिरा गाँधी ने प्रधान मंत्री के पद से इस्तीफा नहीं दिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील की। कोर्ट द्वारा, लोकसभा का सदस्य न रहते हुए भी वह प्र मंत्री बनी रह सकती हैं, का निर्देश पाकर उन्होंने सारी शक्ति अपने मंत्रिमंडल में निहित कर ली। और बिना मंत्रिपरिषद की सहमति लिए देश में ईमर्जेंसी थोप दी। सन् 1971 में ही इन्होंने कांग्रेस पार्टी को दो फाड़ कर दिया था - काँग्रेस (ओ) और काँग्रेस (आर)। उनके, सारी शक्ति अपने मंत्रिमंडल में निहित कर देने से, काँग्रेस पार्टी के भीतर के उनके सारे विरोधियों ने चुप्पी साध ली और इंदिरा जी की चापलूसी में लग गए। शेर में दुबे जी द्वारा संबोधित 'लोग' यही हैं, आम जनता नहीं। जनता ने तो आंदोलन के जरिए उनसे इस्तीफा देने की माँग की थी। इस आंदोलन का रूप विकराल था पर इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा देने से मना कर दिया और देश में ईमर्जेंसी लागू कर दी। सारे विपक्षी नेता जेल में ठूँस दिए गए। कुछ समय के लिए विरोध बंद हो गया। लेकिन ईमर्जेंसी के हटते ही जनता उबल पड़ी। चुनाव की घोषणा हुई और इंदिरा सत्ता से बाहर हो गईं। इससे तो यही संकेत मिलता है कि जनता ने अपनी जुबान को दुम में नहीं बदला था। उनका विरोध उनके भीतर धू धू कर सुलग रहा था जो अवसर पाकर चुनाव में फूट पड़ा। मैं ईमर्जेंसी की क्रूरता झेल चुका हूँ। मैं कह सकता हूँ कि शायर का यह कहना कि "लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया था" सही नहीं है, ये 'लोग' आम जनता से नहीं थे। सही यह है कि इंदिरा के विरोधियों ने अपनी जुबान को दुम में बदल लिया था। हाँ काँग्रेस पार्टी में और उसके बाहर सत्ता का समर्थक एक वर्ग था जो सत्ता पर अपनी नजरें गड़ाए था वह भी तत्समय चुप लगा गया था। और एक तरह से इंदिरा सरकार पर अहसान ही कर रहा था। इसे इस घटना से समझिए कि सन् 1998 ई में कांग्रेस पार्टी सोनिया गाँधी के हाथ में आ गई। और उस समय सोनिया-कॉंग्रेस की अल्पमत सरकार को तत्समय की कम्युनिस्ट पार्टी ने समर्थन देकर काँग्रेस की सरकार बनवाई और उसे कमजोर होते देख उसे अपदस्थ कर खुद की सरकार बनाने की कोशिश की। इस आलोक में उक्त शेर का अर्थ किया जाएगा तभी शेर की दूसरी पंक्ति , " हम चुप भी हैं तो यह कोई अहसान कम नहीं" का लिखना सार्थक हो सकेगा।
इस शेर को लिखने वाले राजा दुबे एक खास विचारधारा से जुड़े कवि लगते हैं। इस शेर के द्वारा वह कहना चाहते हैं-
"ईमर्जेंसी द्वारा ढाए गए जुल्म से डर कर लोग (सत्ता से जुड़े लोग, सत्ता से विच्युत होने के डर से) अपनी जुबान को दुम में बदल लिए अर्थात चापलूसी में लग गए। लेकिन कुछ लोग जो सत्ता को स्थिर रखने में अपनी भूमिका मान रहे थे, इसलिए चुप लगा गए कि अभी समय उनके अनुकूल नहीं है। वे अपनी चुप्पी को सत्ता के नेतृत्व पर अपना अहसान मान रहे थे, (हमारा चुप रहना कोई अहसान कम नहीं है)"।
प्रो गोपेश्वर सिंह इस शेर को समय को अतिक्रांत कर वर्तमान पर जो करारा प्रहार मान रहे हैं वह इन्हीं लोगों पर लागू होता है, जो अभी वर्यमान में भी यही माने बैठे हैं कि उनके बिना सत्ता की स्थिरता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगी। अवार्ड वापसी, कुछ एकनिष्ठ पत्रकारों द्वारा उल्टी सीधी सूचनाएँ जनता में पहुँचाना जिससे जनता उद्वेलित हो, रूलिंग पार्टी पर कम केवल प्र मंत्री पर निशाना साधना आदि क्रियाएँ इसी बात की ओर ईशारा कर रही हैं।
अस्तु, इस शेर की टिप्पणीनुमा आलोचना में हिंदी आलोचना का एक ऐसा रूप रंग मिल रहा है जो संतोषप्रद नहीं है। आए दिन यह पढ़ने को भी मिलता है कि हिंदी आलोचना का स्तर अपेक्षाकृत उन्नीस ही है, बीस नहीं।
------ अगली पोस्ट भी देखें
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
गोरखपुर,

22-11-2021, दिन सोमवार। 

No comments:

Post a Comment