Sunday 14 November 2021

वर्तमान आलोचना का रूप रंग

 वर्तमान आलोचना का रूप रंग                 शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव                 14-11-2021 


एक फेसबुक मित्र ने अपने वाल पर एक शेर उद्धृत किया है राजा दुबे का। इसे वह एक बड़े पाठक वर्ग के सामने रखने से अपने को रोक नहीं पाए हैं। यह शेर उनके मित्र प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने उन्हें भेजा है। यह उन्हें बहुत पसंद है। इसमें लोगों द्वारा जुबान को दुम में बदल लेने की बात की गई है। वह वर्तमान की अवाम को भी इसी हालात में पाते हैं। शेर है -

"लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया,
हम चुप भी हैं तो यह कोई एहसान कम नहीं।"
इसपर आई टिप्पणियों को मैंने गौर से देखा। इनमें से कुछ टिप्पणियाँ 'बाह बाह', 'बहुत उम्दा' किस्म की लगीं तो कुछ संप्रति प्रचलित आलोचना के ढर्रे की, पूर्वोक्त उद्गार का ही पिष्टपेषण प्रतीत हुईं। इसमें कुछ ने लिखा है, समय को अतिक्रांत कर वर्तमान के संदर्भ पर यह शेर एक क्रांतिकारी प्रहार है।
मैंने इसपर अपनी यह टिप्पणी दी- इस शेर से यह पता नहीं चलता कि शायर दुबे चुप रह कर किस पर अहसान कर रहे हैं, जुबान को दुम में बदलने वालों पर, जुल्म ढाने वालों पर या सुविधाभोगी वर्ग पर? शेर के संदर्भ का पता नहीं और समय का भी कि यह शेर कब लिखा गया।" कर्मेंदु शिशिर की टिप्पणी से इतना पता चलता है कि राजा दुबे 'कल्पना' पत्रिका के संपादक मंडल में थे।
शेर से इतना तो स्पष्ट है कि लोगों पर कोई बलशाली वर्ग जुल्म ढाए हुए था। उसके जुल्म के विरुद्ध उसके जुल्म ढाने तक कुछ लोगों की जुबान बंद रही। उन चुप रहने वालों में शायर भी था पर वह अपनी चुप्पी (कुछ अन्य लोगों के प्रतीक स्वरूप) को अहसान मान रहा है (पर किस पर? स्पष्ट नहीं होता) और अन्यों की चुप्पी को दुम हिलाना मान रहा है।
ताज्जुब है, न तो इस शेर के संदर्भ का पता है न उस काल का जब यह लिखा गया था, पर इसपर किस्म किस्म की टिप्पणियाँ दे दी गईं हैं। इस शेर को प्रस्तुत करने वाले मित्र को भी संदर्भ का पता नहीं था।
उक्त शेर पर जब मेरी उपर दी गई टिप्पणी मित्र ने पढ़ीं तो एक लंबी टिप्पणी दे मारी। पर उसमें मेरे प्रश्नों का जवाब नहीं था।
मेरी टिप्पणी के बाद प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह की, उक्त मित्र को संबोधित एक टिप्पणी दिखी जिसमें उन्होंने लिखा था - "मुझे अच्छी तरह याद है, राजा दुबे का यह शेर ईमर्जेंसी के बाद धर्मयुग में छपा था।" शेर के प्रस्तुतकर्ता मित्र का ध्यान, गोपेश्वर सिंह जी की इस टिप्पणी की ओर आकृष्ट करते हुए मैंने लिखा, " गोपेश्वर सिंह जी द्वारा इस शेर के संदर्भ के उद्घाटन से शेर को समझने के मेरे ही दृष्टिकोण का समर्थन होता है।" इसपर वह कुछ नाराज से दिखे - कहा, "क्या संदर्भ को पता किए बिना इस शेर पर बात नहीं की जा सकती?" मैंने लिखा, "की क्यों नहीं जा सकती। पर समय को अतिक्रांत कर वर्तमान पर इसे लागू होते कैसे दिखाया जा सकता है? तब अपनी बात को आज के लोगों पर बलात लादने जैसा होगा"
इसका कोई संतोषजनक जवाब उनसे मुझे नहीं मिला। वह मेरी बुजुर्गियत का हवाला देकर कुछ मुझसे सीखने की बात करने लगे।
उनकी संयत टिप्पणियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं। मैंने भी अपनी एक गलती सुधार ली उनको 'सम्मान्य बंधु' से संबोधित कर। असल में उनके प्रोफाईल में उनका वह परिचय नहीं दिया है जो वह वर्तमान में हैं। मैंने उनकी भाषा की शिष्टता और उनके मित्रों के नाम उनकी टिप्पणियों से जान कर उनका अभिज्ञान किया, शक तो पहले से ही था।
अब शेर की मेरे द्वारा की गई व्याख्या अगली पोस्ट में।
-- देखें अगली पोस्ट
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव,
गोरखपुर,
14-11-2021 ।


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