22-11-2021, दिन सोमवार।
Monday, 22 November 2021
*वर्तमान हिंदी आलोचना का रूप रंग* (पिछली पोस्ट से आगे)
Sunday, 14 November 2021
वर्तमान आलोचना का रूप रंग
वर्तमान आलोचना का रूप रंग शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 14-11-2021
एक फेसबुक मित्र ने अपने वाल पर एक शेर उद्धृत किया है राजा दुबे का। इसे वह एक बड़े पाठक वर्ग के सामने रखने से अपने को रोक नहीं पाए हैं। यह शेर उनके मित्र प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने उन्हें भेजा है। यह उन्हें बहुत पसंद है। इसमें लोगों द्वारा जुबान को दुम में बदल लेने की बात की गई है। वह वर्तमान की अवाम को भी इसी हालात में पाते हैं। शेर है -
Thursday, 4 November 2021
भइल बियाह मोर करबऽ का (कहानी)
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 27-10-2021
Sunday, 12 September 2021
सार्विक सुनो कहानी
#सार्विक सुनो कहानी
सार्विक, मेरे पोते!
जब तुम छोटे थे तब तुम्हें कहानी सुनने का बहुत शौक था। मुझे भी कहानी सुनाने में आनंद आता था। अक्सर तुम मुझे कहानी कहने के लिए छेड़ते रहते थे- "दादू एक कहानी कहिए।" कभी कभी मैं तुम्हें भी उकसाता - "तुम भी तो कोई सुनाओ।" तो बिना ना-नुकुर किए तुम भी सुना देते थे। कहानी सुनाने में तुम थोड़ा अटकते जरूर थे पर कहानी के प्रवाह में कोई बाधा नहीं पड़ती थी।
रहते तो हो तुम अपने माता-पिता के साथ मुजफ्फरनगर में, पर स्कूल की छुट्टियों में गोरखपुर जरूर आते हो। छुटपन में जब आते थे तब कहानी सुनने का तुम्हारा आग्रह देखते बनता था। अब तो तुम पाँचवी कक्षा के छात्र हो। कुछ छोटी मोटी कहानियाँ लिखने भी लगे हो। उन कहानियों को फेसबुक पर भी देने लगे हो। तुम्हारा बाल-मन उन कहानियों में खूब क्रीड़ा करता दिखाई देता है। तुम्हारी कहानियों में बालसुलभ कौतूहल के साथ आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों की भी चर्चा रहती है। उन कहानियों पर तुम्हें लाईक भी खूब मिलते हैं।
अब तो बाजार में तरह तरह की कहानियों की किताबें आने लगी हैं। किसी में कहानी चित्रकथा में होती है तो किसी में किस्सा की तरह, किसी में शिक्षाप्रद कहानियाँ होती हैं तो किसी में मनोरंजक। लेकिन तब मैं तुम्हें पंचतंत्र, हितोपदेश या ईशप की बोध कथाएँ (ईशप्स फेबुल) ही सुनाया करता था। 'पंचतंत्र' में दुनिया की सबसे पुरानी कहानियाँ हैं। ये अपने देश भारत में लिखी गईं। 'हितोपदेश' और 'ईशप्स फेबुल' की कहानियाँ पंचतंत्र के आधार पर ही लिखी गई हैं। तुम्हारा भोला मन कहानियों को सुनने में खूब रुचि लेता था। पर कभी कभी किसी कहानी के किसी स्थल पर तुम्हारा बाल-मन प्रश्नों की झड़ी भी लगा देता था। जैसे, शेर-खरगोश की कहानी सुन कर तुम आश्चर्य में पड़ जाते थे-
"तो क्या कुँए में सचमुच का शेर था?", "उस जमाने में ये जानवर क्या बोलते भी थे?"
तुम्हारे इन सवालों का जवाब देना मेरे लिए बड़ा कठिन होता था। बच्चों के कुतूहल भरे प्रश्नों का जवाब देना वैसे भी कठिन होता है। क्योंकि इसमें 'क्यों' की भरमार होती है। इसमें उनका भोलापन, उनकी सरलता, उनकी निर्दोषिता घुली मिली रहती है। जवाब देते समय इस बात का भी ख्याल रखना पड़ता है कि उस जवाब से उनके इन सहज उपलब्ध गुणों को क्षति न पहुँचे। मुझे तुम्हारे प्रश्नों के जवाब देते समय हमेशा इस बात का ध्यान रखता पड़ता था।
इस बार कोरोना (सर्दी, खांसी, बुखार से मिलता जुलता एक प्रकार का संक्रामक रोग) की छुट्टियों में अभी कुछ दिन पहले तुम आए थे तो दादी को अस्वस्थ देख तुम्हारी चंचलता में कुछ कमी आ गई थी। इस बार तुमने मुझसे कहानी सुनने की जिद नहीं की। तब मैंने सोचा अब तुम्हें सामने बिठा कर या सोते समय कहानी कहने से बेहतर है कहानी लिख कर तुम्हें भेज दूँ। क्योंकि कहानी सुनने की तुम्हारी जिज्ञासा में कोई कमी आई नहीं दिखती।
सोचता हूँ अबकी बार तुम्हें ऐसी कहानी लिख कर भेजूँ जो पंचतंत्र की कहानियों से कुछ अलग किस्म की हो। उसमें गाँव का हवा-पानी हो और चाल भी गाँव की हो ताकि तुम्हारे ध्यान में यह आए कि समय के बदलने से आज का जमाना कितना कुछ बदल गया है। तब लोगों का बात व्यवहार, रहन सहन कैसा था और आज कैसा हो गया है। इसी गोरखपुर में जब मैं आया था तो यह जगह चकसाहुसेन (अब छोटी कालोनी पार्वतीपुरम) शहर की सीमा से बाहर था। जब शहर की आबादी बढ़ने लगी तब पास के गाँवों मिला कर शहर की सीमा बढ़ाई गई। गोरखपुर में इस समय जहाँ हमारा मकान है वहाँ पहले पचपेड़वा के पाँच गाँवों में से एक यह चकसाहुसेन गाँव था। अब यह शहर का हिस्सा है। सत्तर के दशक में इस गाँव को शहर में मिलाया गया। उस समय गाँव के लड़के शहर का निवासी कहलाते हुए भी बकरियां चराते थे। तब हमारे इस घर के सामने के खाली स्थान में गाँव के औरतें-बच्चे अपनी बकरियाँ चरने के लिए छोड़ देते थे। कभी कोई बकरी हमारी बाउण्ड्री में लगे पौधों को नुकशान पहुँचाती तो हम उसे मार कर भगाते, तो वे हमसे लड़ पड़ते। ताना भी मारते "पता नहीं कहाँ से आ के इ लोग बस गइल बा। अब हमन के बकरियो ना चरा पावऽताटी।"
किसी गाँव को अचानक शहर में कर देने से गाँव का चाल-चलन, वहाँ के लोगों का रहन सहन एकदम से बदल तो नहीं जाता। अब धीरे धीरे ये लोग अपने को शहर का महसूस करने लगे हैं और बच्चे स्कूल भी जाने लगे हैं। इनकी संख्या देख कर अब हमारे इर्द गिर्द ही अनेक स्कूल खुल गए हैं, सड़कें बन गई हैं, बिजली लग गई है। अब तो पानी की सप्लाई भी होने लगी है।
पर कुछ ऐसी भी बातें होती हैं जिसमें बदलाव एकदम से आ जाए तो संस्कार में टूटन आने लगती है। पर यदि बदलाव धीरे धीरे हो तो बदलते संस्कार अपने से लगने लगते हैं। जैसे, एक समय था जब गाँव के लोग गन्ने की खेती करते थे और गन्ने से गुड़ वे स्वयं ही बनाते थे। लेकिन जब चीनी बनाने वाली सुगर मिलें खुलीं तो गन्ने सुगर मिलों में ले जाए जाने लगे। पहले तो लोग घबड़ाए किंतु बाद में मिलों के आस पास के गाँवों में रहने वाले लोग मिलों में काम करने जाने लगे। लेकिन उनकी जीवनचर्या में एकबारगी बदलाव नहीं आया, धीरे धीरे आया। मिलों में काम पर जाने के लिए उन्हें दौड़-भाग नहीं करना पड़ता था। इधर मिल का पहला भोंपू बजा कि वे तैयारी करने लगते। दूसरा भोंपू बजते घर से चल पड़ते। और तीसरा भोंपू बजे इसके पहले वे मिल पर पहुँच जाते थे। मिलें अपने कर्मचारियों को बहुत सुविधाएँ भी देती थीं। उनकी घर की जरूरतों के अनुसार चारपाई, सुतली, नेवार और लालटेन वगैरह भी अपने स्टोर से वितरित करती थीं। उनके टूट-फूट जाने पर उसे लौटना कर दूसरी ईशू कर देती थीं। एक तरह से मिलें गाँव-जवार के लोगों की लाईफ लाईन बन गई थीं। तुम्हारे परदादा खुद हथुआ सुगर मिल के एक सीनियर क्लर्क थे। यह सब मेरा देखा भाला है। मिलों का खुलना लोगों के जीवन चर्या में किसी तरह का खलल पैदा नहीं किया।
ऐसे ही परिवेश में मेरा ग्रेजुएशन (यानी बी एस सी की पढ़ाई) तक का जीवन बीता। गँवई वातावरण में बीते मेरे जीवन का आकर्षण आज भी मेरे भीतर बना हुआ है। रह रह कर आज भी वे शामें मुझे याद आने लगती हैं जब मैं और मेरी माँ (तुम्हारी परदादी) आँगन के ओसारे में कमरे के एक तरफ बने कउड़े की आग तापते थे। मैं कउड़ा तापते हुए दीए के उजाले में पढ़ता था और पढ़ते पढ़ते जब ऊँघने लगता था तो माँ मुझे जगाती थी- शेषऽ! (ष का दीर्घ उच्चारण)! और मैं झटक कर उठ जाता था। इस झटक कर उठने में मेरे कई पेन कउड़े में गिर कर जल गए। कउड़े के पास बैठे बैठे हम खाना खाते थे। मुझे जगाए रखने के लिए माँ कोई मजेदार कहानी कहने लगती थी।
उन कहानियों में से एक कहानी मुझे इस समय याद आ रही है। उसे लिख कर मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। यह कहानी एक बहुत पुराने समय के गाँव की है। इसे सुना कर मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि तब के गाँवों की क्या स्थिति थी। तकलीफ में रहते हुए भी गाँव के लोग अपना धैर्य और आपसी व्यवहार में सलीका नहीं खोते थे। इस कहानी की नायिका एक ससुरइतिन ( ससुरार में रहने वाली) लड़की बसमतिया की है। उसके पिता जी जब उससे मिलने उसके घर जाते हैं, उस समय उसके द्वारा अपने पिता से घर का हाल चाल जानने का तरीका बड़ा रोचक और सलीके वाला है।
यह कहानी मैंने माँ से जैसी सुनी थी वैसी ही तुम्हें सुना रहा हूँ। माँ की बोली में तो यह और अच्छी लगती थी। मेरी भोजपुरी माँ की सहज भोजपुरी से हल्का सा अलग लगती है मुझे।
तब मैं शायद कक्षा पाँच या छै में पढ़ता था। रोज की तरह उस दिन शाम को लालटेन जला कर मैं बाहर के सहन में पढ़ने बैठ गया था। वह जाड़े का महीना था। मैं ओढ़ना ओढ़ के बैठा था पर ठंढ कुछ अधिक ही थी। मुझे आलस आने लगा और बाहर पढ़ते पढ़ते नींद भी आने लगी। तब मैं उठा और सीधे आँगन के ओसारे में जल रहे कउड़े के पास जाकर बैठ गया। यह कउड़ा जाड़े भर जलाया जाता था। माँ वहाँ कउड़े की आग तापते हुए खाने के लिए मेरा इंतजार कर रही थी। कउड़े के पास दीयट पर दीया जल रहा था। अंधेरा गहरा होने से रोशनी अच्छी मिल रही थी। मैंने किताब खोला और पढ़ने लगा। माँ उठी और खाना लाने चली गई ताकि साथ बैठ के खाया जाए। वह खाना लेके आई तो मैं पढ़ते पढ़ते ऊँघने लगा था। वह थाली नीचे रख ही रही थी कि मुझे जोर की झपकी आ गई और मैं कउड़े में गिरने गिरने को हो गया। तभी माँ ने मुझे संभाल लिया। मुझे कउड़े की आग में झुलसने से बचाते हुए बोली-
"देखऽ अब तहरा नींद आवऽताऽ। किताब बंद करऽ। खनवो थोड़ी देर बाद खाइल जाई। लऽ ई कहानी सुनऽ। नींद तोहार टूटे। तहरा कहानी सुने में बड़ा मन लागेला।
"बहुत पुराने जमाने के बात हऽ। एक गाँव में एगो परिवार रहे। गाँव के नाँव तऽ ईयाद ना बा। बाकिर ऊ गाँव छोट रहे, ईहे कवनो आठ-दस घर के। ऊ परिवार बहुत गरीब रहे। परिवार में कुल चार जने रहले- माई, बाप, एगो लड़िका आ एगो लड़िकी। लड़िकिया के नाम रहे बसमतिया। ऊ बियाहे लायक हो गईल रहे। लड़िकवा अभी छोट रहे।
बापे के पास थोड़ा जमीन रहे। ओही के ऊ जोतस बोअस। ओही से अपना परिवार के खाना खोराकी चलावस। घर दुआर माटी के रहे। कवनो घर में चउकठ केवाँड़ ना लागल रहे। ले दे के दू गो घर (कमरा) रहे। चोरी-चमारी के डर से केंवाँड़ के जगही ओइमें ताड़ के बड़का पत्ता कैसहूँ बाँध दिहल रहे।
ओ जमाना में ओ गाँव के लड़िकन के पढ़ावे लिखावे के कवनो चलन ना रहे। सहर से दूर- दराज के गाँव में त आजो स्कूल ना बा बाकी जेकरे घर के कवनो अदमी बहरा कमाता ओकर लड़िका बहरे रहि के कुछ पढ़ लिख लेताऽ।
ओ घर में एके आदमी कमाए वाला रहे। खेती से कइसहूँ खाना खोराकी भर अनाज हो जाव। कभी मजूरियो करे के पर जाव। ओ लोग के दिमाग दिन रात खाना खोराकी के जोगाड़े में अँटकल रहे। एने अब बीटिइयवो बियाहे जोग हो गइल रहे। ओके बियाहे के फिकिर अब ओ माई- बाप के कपारे सवार होखे लागल। जब अड़ोसी पड़ोसी ओकरा बियाहे खातिर ओ लोग के टोके लागल त ऊ लोग घर के अउर सब चिंता छोड़ि के लड़िकिया बसमतिया के बियाहे के फेर में जी जान से लाग गइल।
ओकरे बियाहे खातिर ऊ दूनो परानी के बड़ा दउरे के परल। एह गाँवे, ओह गाँवे, ना जाने केतना गाँवे ऊ लोग धवलें। कब साँझ भइल कब बिहान एकर पते ना चलल ऊ लोग के। बाकी बीधी के बीधान केऽ जानेलाऽ। आखिर ऊ लोग के भाग दौड़ रंग लिअइलस। लड़िकी के बियाह तय हो गइल। उहो कवनो बहुत दूर में ना, दू तीन गाँव के आँतर पर। सबसे बढ़ि के त ई भईल कि उ बियाह एगो खाते पीते घर में तय हो गइल। लड़िकी के भाग से ओ घर में कवनो चीज के कमी ना रहे। लड़िको वाले लड़िकी के बारे में अगुआ से पूरा जान समझ के- घर वालन के रहन सहन, लड़िकी के रंग रूप, सुभाव, ऊ कामधाम करे वाला बा की ना, ई सब जान समझ के, बियाह करे खातिर हाँ करि देहलें। घर दुआर देखे देखे ना गइल लोग। बियाह के दिन तय हो गईल आ सब रस्म रिवाज निभा के बियाहो हो गईल। लड़िकी के बिदाई के दिन धरा गइल आ लड़िकी बसमतिया ससुरारी चल गईल।
ससुरार में लड़िकी अब दुलहिन कहाए लागल। दुलहिन के अइला पर सास के जाँगर में फुरती आ गइल। उनके खुसी के ठेकाना ना रहे। एके साँस में ऊ घर के सब कोना ओके देखा देहली। "ई तोहार कमरा हऽ। हेइमें सब रासन पताई रहेलाऽ। हे कमरा में रसोई बनेलाऽ। ए रसोई घर के तू खूब साफ सुथरा रखिहऽ। सफाई से खाना बनइह। आ देखऽ, हमरा घर में कवनो दाई ना बा। सब बर्तन बासन खुदे धोए के परेलाऽ। अब तू एक घर के मालकिन बाड़ू। कवनो चीज के जरूरत पड़े त सँकोचइहऽ मत, ले लिहऽ। हमरा से माँगे के जरूरत नइखे। ई दोगहा हवे। घर के काम काज से खाली भइला पर हम ईंहे बइठीलेऽ। आवऽ तनि देर बइठऽ। अऊर हाँ, निकसार पइसार जाए के होखे तऽ देखऽ, हो कोना में एगो छोट कोठरी बाऽ। ओईमें पायखाना जाइल जाला। सुबहे उठिहऽ आ सबसे पहिले हो लिहऽ।-- आछा, तनि एक गिलास पानी पिया दऽ आ जा अपना कमरा में आराम करऽ।
सास आपन घर-आँगन के सब पेंच समझा के घर के सब जिमेदारी दुलहिन के सँऊप देहली। ऊ लड़िकियो बड़ी लगन से सास ससुर के आपन माई बाप लेखे मान के सेवा करे लागल। गाँव जवार के लोग भी ई जान के बड़ा खुश रहे। सबके मुँह से ईहे बात निकले की ए घर में बड़ी लियाकत वाली बहू आ गइल बाऽ।
लड़िकियो अपना बेवहार, बात विचार से घर के लोग के त मन मोहिए लिहलस, ओ गाँव के लोगो, ओकरे मेल जोल रखे के ढंग के देख के बड़ा खुश रहे लागल। लड़िकी के अदमियो बड़ा सुघर आ बेवहार वाला रहे। अपना मेहरारू के बड़ा मान जान करे। कमासुतो रहे। ससुरो ओ से बहुत खुस रहें। धीरे धीरे ओ घर के दिन अछे तरह से बीते लागल।
एहीमें एक दिन ओ घर के दोगहा के किवाड़ पर ठक ठक के आवाज भईल। दोगहे में सास बइठल रहली। आवाज सुनि के आँगन में आवाज देहली-
"ए दुलहिन, देखबूऽ बाहरा केऽ आइल बाऽ।"
दुलहिन केवाँड़ खोलली आ केवाँड़ खोलते अगरा गइली, "अम्मा जी, बाबूजी आईल बानी।--- बाबूजी, आईं, अंदर आईं। ई अम्मा जी बइठल बानी।"
ऊ दूनो समधिन समधी में परनामा पाती भईल। ऊ लोग एक दूसरे के हाल चाल लेहल। फेर समधी जी समधिन का हाथ में एगो मटकी देहले। ओ घरी रसदार मिठाई ले के लोग आपन रिश्तेदारी में जाव। समधिन मिठाई के मटकी ले के दुलहिन के हाथ में थमा देहली आ ओ से कहली- "दुलहिन, ले जा अपना बाबूजी के अपना कमरा में, पानी ओनी पिआवऽ आ अपना घर के हाल चाल लऽ।"
बसमतिया अपना बाबूजी के आँगन में ले गइल, उनकर हाथ पैर खुदे धोअलस, फेर अपना कमरा में ले गइल। बाबूजी के बिछावन पर बइठा के अपने जमीनी पर पुअरा के बनावल बेठा रख के बइठ गइल आ बतियावे लागल।
"बाबूजी, माई कइसन बिया। ओकर तबियत ठीक रहेला नऽ।"
"हाँ बेटी। तोहार महतारी ठीक-ठाक बाड़ी। उनकर तबियत तनी अनमनाहे रहेला।"
"आ बाबू कइसन बाऽ। हमरा के याद करेला?"
"उहो ठीक बाऽ। तोरा के त बहुत याद करेला।"
" हँऽ हमरा से बहुत लागल रहे नऽ। हमहूँ के ऊ बहुत याद आवेला। का करीं। हमहूँ इहाँ के घर गिरहसती में अइसन फँसल बानी की तनको फुरसत ना मिलेला। क बार इनसे कहनी की चलीं तनी माई बाबूजी के देखि आवल जाव। बाकी इहाँ का जाए के समये ना निकाल पावऽतानी।
"बाबूजी, घर के अऊर हाल चाल का बा?"
" बाकी हाल चाल त ठीके बाऽ। अब कइसहूँ खेतीबारी हो जाला। तू रहले त तनी सहयतो हो जाव। तोर माई अब केतना का करस।"
असल में लड़िकिया घर दुआर के बारे में ढेर कुछ जाने के चाहत रहे। ओकरा काफी दिन घर से ससुरार अइले भ गइल रहे। ऊ जाने के चाहत रहे कि घरवा वइसहीं उघार पछाड़ के तरह बा की कुछ मरम्मतो वोरम्मत भइल बाऽ। बाकी सीधे पूछे से ऊ डेरात रहे काहे की ओकर सास बगले के कमरा में रहली। जवन ऊ पूछी सब उनके सुनाई देई। अगर अबो घर के उहे हाल होखे त सास के सामने बाबूजी के हेठी हो जाई। बियाहे के वकत त सब बात अगुए के मारफत हो गइल रहे। केहू घरे जाके त घर के हालत जानल नाऽ। ऊ थोरे घड़ी सोचलस फेरू पूछे लागल, सीधे ना पूछ के तनी घुमा फिरा के। अइसे जइसे बुझउवल बुझावत होखे। गाँव में अकसर लोग लड़िकन के बुझउवल बुझावे- 'बूझऽ, सउँसे चँवर में एके गो ढेला।' बूझे का हऽ?' लड़िका लोग ना बता पावें त ओकर जबाब बतावें। जबाब हऽ, 'चनरमा'। अइसन ढेर बुझउवल ऊ सुनले रहे। ऊ हुँसियार सुरुवे से रहे। बाबूजी ई सब जानते रहलें। त ओही भाखा में ऊ बाबूजी से बतियावे लागल। पूछलस- (ओह घरी बाबूजी के बाबा भी कहा जात रहे)
" अबो आकास दीया जरेला हो बाबा?"
"जे तबहीं से अबहीं"-' बाबूजी बोलले।
"एकर मतलब का भइल माई?"- हम पुछनी।
मैं अपनी माँ को माई कहता था। मेरे गाँव में सभी बच्चे अपनी माँ को माई ही कहते हैं। माँ ने इसका अर्थ बताया-
-ओ घर में दीया बाती ना जरे। काहे की गरीबी के कारन दीया जरावे खातिर तेल घर में अइबे ना करे। आसमान में चनरमा उगस त ओही रोसनी में काम धाम होखे। अन्हरिया में रसोई सरिए साँझे बन जाव। बाबूजी कहले 'जइसन तब रहे वईसहीं अबो बाऽ।'
"अछा त एकर मतलब ई भईल। फेर ऊ का पूछली?"- हम माई से पूछलीं।
फेर ऊ पूछलस-
"झुन झुन केवँरिया बाजेलाऽ हो बाबा?"
" जे तबहीं से अबहीं।"- बाबूजी बोलले।
"झुन झुन केवँरियाऽ?"- फेर हमरा अचरज भईल।
माई समझवलस। ओकरा घर में ताड़ के बड़का पत्ता के केवाड़ लागल रहे। जब ओके खोलल जाव आ बंद कइल जाव त ऊ झुन झुन करके बाजे।
"ओखरी परेऊआ ढुरेलाऽ हो बाबा?"-
"जे तबहीं से अबहीं"।
ओ घर के पड़ोस में जब औरत लोग ओखरी में चिउरा ओउरा कूटे त बसमतिया के छोटका भईयवा उहाँ पहुँच जाय आ मूसर के चलला से चिउरा ओउरा के जवन दाना छिटक के बाहर गिरे त ओके ऊ बीन बीन के खाए। परेउआ ऊहे भइयवा हऽ। ढुरेलाऽ माने ओखरी के जेने जेने ओर दाना गिरे ओने ओने दउड़ दउड़ के जाव आ जइसे चीड़ीयवा सब दाना चुगेलेऽ वइसँही दानवा के बीन बीन के खाव।।
"झुर झुर बेनवा डोलेला हो बाबा?"
"जे तबहीं से अबहीं।"
माई एकर मतलब बिना हमरा पिछले बतवलस जे गरमी से जब ऊ परिवार बेहाल हो जाव, जब गरमी ना सहाय त ऊ सब बहरे दरवाजा पर के पेड़ के तरे आ जाव। ऊहाँ झुर झुर कर के जब हवा बहे त अइसन लागे जइसे ताड़ के पत्ता से बनल बेना के डोलवला पर हवा लागेला।
इ सुनि के ओ लड़िकी के बड़ा दुख भइल। बाकी ऊ का कर सकत रहे। ओकरा आँखी से खाली लोर बह के रह गइल। फेर ऊ उहाँ से उठल आ बाबूजी के खिलावे पिलावे के बेवसथा में लागि गइल।"
बाबूजी खा पी के खटिया पर आराम कइले। आ दिन अछते घरे पहुँच जाए खातिर सोच के उठ गइलें आ समधिन से जाए खातिर अगियाँ माँगे लगलन। समधिन बोलली, तनी देर अउर बइठ जाईं। मालिक आ राउर दामाद आते होइहें। समधी जी थोड़ा देर रुक गइलें। फेर समधी आ दामाद से मिलि के घरे खातिर चलि देहलें।
जब कहानी खतम हो गईल तब हम माँ बेटा एक साथ खाना खा कर सोने चले गए।
जोशू! कहानी कैसी लगी जरूर लिखना।
गोरखपुर,
10-09-2021
* सार्विक को यह कहानी पसंद आई।
Thursday, 29 July 2021
कमलाकांत त्रिपाठी के एक लेख पर उनके द्वारा मांगी गई टिप्पणी
सम्मान्य,
तिथि—14-06-2021
कमलाकान्त त्रिपाठी जी।
कठोपनिषद
पर लिखा आपका लेख पढ़ा। पढ़ कर पाया कि आपने
कठोपनिषद के रहस्य को जानने की कोशिश नहीं
वरन उसे सुलझाने की कोशिश की है। गोया उसमें कोई
समस्या उलझ कर रह गई हो। मेरे देखे
इसमें कुछ भी सुलझाने जैसा नहीं है। जिसे सुलझाने की चेष्टा आपने
की है वह उपनिषद का विषय है ही नहीं।
आपके
लेख का शीर्षक है-The Mystery Of Kathopanishad Unravelled- A Rational Viewpoint॰
अर्थात कठोपनिषद के रहस्य को बौद्धिक दृष्टिकोण से सुलझाया गया। मेरी
समझ से सुलझाया उसे जाता है जो
उलझा हुआ हो। इस उपनिषद में कुछ भी उलझा नहीं है। इस
उपनिषद का अपना रहस्य है। इसे शीर्षक में आपने भी माना है। रहस्य को उद्घाटित
करना,
या कहें, खोलना होता है। आपने उपनिषद के रहस्य को
जानने की चेष्टा नहीं की है। गौतम बुद्ध का जो सुझाव आपने
कोट किया है उसमें जानने की बात की गई है। इस जानने का अर्थ
है- Existential Viewpoint से अर्थात
अस्तित्वगत दृष्टिकोण से जानना। या
तो आपको अस्तित्वगत दृष्टिकोण से जानने की बात का पता
नहीं है या आप जानना नहीं चाहते। एक्झिस्टेंशियल
विऊ प्वाइंट को यों समझ जा सकता है-
“तैराकी
सिखाने वाला कोच, तैराकी सीखने के इच्छुक विद्यार्थी को या तो पहले
तैरने की बौद्धिक शिक्षा दे ले फिर उसे पानी में उतारे या
उस इच्छुक को सीधे
पानी में उतार दे और पानी में ही तैरना
सिखाए। यह दूसरी विधि एक्झिसटेंशियल विधि
है। आप कठोपनिषद में उतरे नहीं हैं, किनारे बैठ कर उसके रहस्य का अनुमान
लगा रहे हैं।
उपनिषदों में उतरने से पूर्व निराग्रह
होना अति आवश्यक है। उसी तरह जैसे विद्यार्थियों को कक्षा में विषय
को समझने से पूर्व होना होता है। यह आपका आग्रह और पाठकों पर
दबदबा बनाने की ही चेष्टा है जब आप कहते हैं, मैं एक स्केप्टिक नहीं हूँ। हालांकि
फेसबुक पर आप प्रमाण माँगते हैं। आपकी
शिकायत है कि मिथकों/प्रतीकों/रूपकों में उपमेय से कुछ साधर्म्य
होना चाहिए। लेकिन आप भूल जाते हैं कि उपनिषद उन अर्थों में साहित्य नहीं है जिन
अर्थों में रामचरित मानस या साकेत। ये साहित्य हैं लेकिन गीता के अर्थ
में। उपनिषद के प्रतीक योग (पातंजल योग, रामदेव का योग नहीं) और ध्यान के अनुभव से खड़े किए गए हैं। उसमें रहस्य की परतें
भी लिपटी हैं। कबीर के इस दोहे
का अर्थ कर देखें-
लाल रेख स्यंदूर की, काजल दिया न
जाय।
नैनु
रमइया रमि रहा, दूजा कहाँ समाय।
उक्त
दोहे में दो अर्थ लिपटे हैं एक सामान्य, एक गूढ। गूढ अर्थ के लिए प्रतीक भक्तियोग के हैं।
जैन मुनियों
ने तो अपने आदि स्वामी महावीर को
ही बाँट लिया है। कोई श्वेतांबर है तो
कोई दिगंबर। उनसे आप उपनिषद कैसे समझ सकते हैं। शंकराचार्य की टीका महत्वपूर्ण है पर उनका मस्तिष्क दसवी सदी का है जो उपनिषद काल के ऋषियों के निकट का
है। उनमें उपनिषद के सत्य को उद्घाटित करने की चेष्टा है और आपकी दृष्टि
आधुनिक है जिसमें सुलझाने
की चेष्टा प्रबल है, उपनिषद के मूल तक पहुँचने की नहीं।
कठोपनिषद
की कथा मिथकीय है। यह आधुनिक
युग की ‘लघु कथा’ नहीं
है। लघु कथा को पढ़ कर भी पाठक सोचता है, कथाकार का
इसमें कौन-सा उद्देश्य निहित है? उद्देश्य भी आज के
युग के प्रश्न और परिस्थिति के अनुसार। फिर कठोपनिषद के मिथक में उतरते समय दिमाग
में यह रख कर क्यों न चला
जाए कि उपनिषदकार ने इस
मिथक के माध्यम से अपने युग के प्रश्नों
को हल करने का प्रयास किया है। और फिर यह
भी जानने की कोशिश क्यों न की जाए कि उस युग के प्रश्न क्या थे और परिस्थितियाँ
क्या थीं और उन्हें हल कैसे किया गया।
उस युग में सर्वमान्य रूप से उपनिषद के
ऋषियों ने यह जानने की कोशिश की है कि सृष्टि के और
हमारे अस्तित्व के होने का रहस्य क्या है। उनके सामने तब जीविका प्रश्न प्रमुख
नहीं था। वह प्रश्न आज भी जीवित है। आज विज्ञान भी इसको जानने के प्रयास में
लगा है। विज्ञान आज पदार्थ के टुकड़े
कर और उसकी अंतर्गुहा में प्रवेश कर उसके
अंतरतम को जानना चाह रहा है। आज का विज्ञान, किसी वाद के
घेरे मे नहीं घिरा है। मार्क्सवादी अभी भी पदार्थ के इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान
के ज्ञान तक में ही अंटके हैं
जबकि विज्ञान की खोज आगे बढ़ गई है। इन कणों की
खोज के बाद विज्ञान के सामने यह
प्रश्न खड़ा हो गया था कि परमाणु के न्यूक्लियस के
चक्कर लगाते इलेक्ट्रानों को न्यूक्लियस में गिर
जाना चाहिए क्योंकि उनके लगातार गतिशील रहने से उसकी ऊर्जा का
क्षय होना चाहिए। पर वे केंद्रक में गिरते नहीं। तब विज्ञान ने यह परिकल्पना
दी कि दोहरे चरित्र (कणिका रूप और तरंग रूप) वाले ये इलेक्ट्रान अपने
गतिशील रूप में क्वान्टम के रूप में होते
हैं। चक्रणगति करते इन इलेक्ट्रानों की ऊर्जा उसकी एक
औरबिट से दूसरे औरबिट में क्वान्टम लीप (कूद) लेती
हैं जिसमें इलेक्ट्रानो की ऊर्जा का
क्षय नहीं होता। उनकी कक्षीय ऊर्जा
ज्यों की त्यों बनी रहती है और वे
केंद्रक में नहीं गिरते। अतः परमाणु नष्ट नहीं होता।
इस क्वान्टम की गति संदिग्ध होती है। परमाणु में
कभी वह कणिका के रूप में गति करता है तो कभी तरंग के रूप में। और यही गुण चेतना का भी
है (ओशो)। विज्ञान पदार्थ के अंतरतम में प्रवेश कर
सृष्टि के रहस्य को जानना चाहता है। कठोपनिषद में ऋषि ने पदार्थ से चेतना के
अंतरतम में प्रवेश कर जीवन
के अस्तित्व को उपलब्ध करने की बात की है। आज नहीं कल विज्ञान यह अवश्य अनुभव करेगा
कि पदार्थ पर ही रूक कर वह अधूरा है। भारतीय आध्यात्म भी आज महसूस कर रहा है कि
वह आत्म पर ही रूक कर अधूरा रह गया है। ओशो एक नए मनुष्य के जन्म की बात करते हैं
जिसमें पदार्थ और अध्यात्म का ज्ञान अपने पूरेपन में हो। वही मनुष्य पूरा
मनुष्य होगा। उस नए मनुष्य का
उन्होंने नाम रखा है “जोरबा द
बुद्ध”। जोरबा यानी आइन्स्टाइन, बुद्ध यानी गौतम बुद्ध।
उस मनुष्य में आइन्स्टाइन की वैज्ञानिक और
बुद्ध की अध्यात्मिक प्रतिभा होगी।
डार्विन का विकसवाद जीव के केवल पार्थिव
विकास तक ही सीमित है। अपनी खोज में ओशो ने नोवेल पुरस्कार विजेता डा हरगोविंद
खुराना से पूछा था, “क्या
पदार्थ के विश्लेषण से चेतना के विकास को जाना जा सकता है?” उत्तर
मिला,
“नहीं, पदार्थ के विश्लेषण से चेतना के विकास को कैसे जाना जा सकता
है” उपनिषद के ऋषियों
ने अस्तित्व-मात्र को जानने के लिए साधना के मार्ग से अपने अंतरतम में
प्रवेश करने के प्रयोग को साधा। आज विज्ञान
भी कहता है और उपनिषद के ऋषि भी जानते थे कि जो पिण्ड में है वही
ब्रह्माण्ड में है। अतः अपने
अंतरतम को जान कर सृष्टि के रहस्य को भी जाना जा सकता है। कठोपनिषद
में, अंतरतम में कैसे
प्रवेश किया जा सकता है इस बात की चर्चा है। आपने इसे
जानने का प्रयास नहीं किया। प्रयास भी क्यों करते। करते तो आज के पग पग के उलझाव
को अतीत पर आरोपित कैसे कर पाते।
जरा सोचिए। इस मिथक में कई पारिभाषिक शब्द हैं, जिनमें प्रतीक और
रूपक भी हैं- जैसे- यज्ञ, उद्दालक, दान दी जाने वाली गौयेँ, नचिकेता, यम, यम की पत्नी और तीन प्रश्न। इनमें से
कोई भी शब्द/प्रतीक आपको समझने जैसा नहीं
लगा। जबकि ये ही उस युग
की परिस्थिति को समझने में सहायक है। ये शब्द/प्रतीक/रूपक उस युग के पर्यावरण, मनोविज्ञान और योग-विज्ञान के अनुकूल चुने गए हैं जैसे आज के विज्ञान ने ‘क्वान्टम’ शब्द को चुना है। और आप उन्हें (उपनिषद्कालीन प्रतीकों को) आज के समयानुकूल चुने गए शब्दों के
अर्थों पर कस रहे हैं। जैसे आपकी अधो उद्धरित आपकी पंक्तियों का ‘सेकुलर’ शब्द है। सेकुलर शब्द स्वयं में एक स्पष्ट अर्थ नहीं रखता।
और वे तीन प्रश्न! उंसमें से दो प्रश्न सांसारिक हैं जिनके लिए यज्ञ, यज्ञ कराने वाले उद्दालक और दान दी जाने वाली
क्षीणकाय गौओं का परिवेश बुना गया है। उसमें वर्तमान युग की जनभावना का भी प्रतिबिम्बन है पर परिवेश नहीं। तीसरा प्रश्न केवल साधक ही अपने गुरु से पूछते हैं या कभी कभी महाभिलाषी पूछते हैं। पर उस प्रश्न को आपने किनारे कर
दिया है।
•… This third question, supposed to be
the essence of this Upanishad, to my surprise, is a simple, secular question
reflecting natural human curiosity. Nachiketa says, there is a doubt about
what happens after the death of a person, some say he remains, others say he
doesn’t, please ‘teach me so as to enable me to know this’…
मैंने तो घर
में, नुक्कड़ पर, किसी सेमिनार में, राजनीतिक मंच पर या संसद में या आज की
मार्क्सवादी बैठकों में (शुरू में, जबतक केवल सी पी आई थी मैं
उसका मेम्बर था)) कभी यह जिज्ञासा करते नहीं पाया की मरने के बाद मनुष्य का क्या होता
है। और आप कह रहे हैं यह एक सामान्य प्रश्न है। आपको आश्चर्य होता है कि ऋषि इसे
भी एक गूढ प्रश्न मानते हैं। अब मैं ऋषियों के विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाऊँ
या....।
कभी ख्याल किया है आपने कि सेक्युलर शब्द आज का ईजाद
है? आज की
परिस्थिति और हमारी
आज की जरूरत के अनुसार। इसके हिन्दी अनुवाद हैं- धर्मनिरपेक्ष, सर्वधर्मसमभाव आदि। फिर भी यह सेक्युलर शब्द हमारे
सामाजिक व्यवस्था के लिए पूरा
फिट नहीं बैठता। हमारे समाज में कई धर्मों के लोग हैं। हिन्दू अहिंसक हैं, मुसलमान हिंसा में विश्वास करते हैं।
ईसाई धर्मपरिवर्तन में। साथ ही सभी धर्मों की अपनी अपनी व्याख्याएँ हैं। एम एफ
हुसैन हिन्दुओं के देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाएँ और हिन्दू उसका विरोध करें तो वे सेक्युलर नहीं है (अधिकतर मार्क्सवादी
ही ऐसा कहते हैं या वे कहते हैं जिनकी राजनीतिक आकांक्षाएँ पूरी नहीं होती)। लेकिन
हिन्दू उनके मोहम्मद पर कोई टिप्पणी कर दें तो मुसलमान उनका गला काटने पर तैयार हो
जाते हैं। फ्रांस में तो अभी मुसलमानों ने यही किया है। यह ‘सेक्युलर’ शब्द हमारी सामाजिक समस्या को हल करने में कितना सहायक है?
आज के इसी सेक्युलर शब्द को आप उपनिषद युग पर लागू करते हैं। उस काल में
विपरीत मनोभावों वाले कितने धर्म थे? जो थे भी उन्हें हल करने के लिए के लिए ऋषियों को ऐसे झगड़ालू शब्द की जरूरत नहीं पड़ी।
उन्होंने इसके लिए हिंदुओं की जीवन प्रणाली को गढा और ऐसे गढ़ा कि आगे आने वाले शक, हूण, पठान आदि आसानी से हमारे हो लिए। और यह सेकुलरी समाधान हमें
कहाँ ला खड़ा किया है, इसे आप
खुद देख रहे हैं।
और अंत में-
आपने अपने इस लेख में बड़े मार्के की युक्ति अपनाई है। क्थोपनिषद के रहस्य को जानने
के बजाय सुलझाने की बात की है। इस युक्ति को मैंने मार्क्सवादियों को अपनाते पाया है। मार्क्सवादी नैदानिक
नब्ज न पकड़ उससे सटे बगल की नब्ज पकड़ते हैं ताकि पाठक को उसमें उलझा कर अपनी बात को वे पाठकों पर थोप सकें। विचार करके देखें।
ध्यान दें। आपने इस उपनिषद के मर्म को तत्कालीन
वर्णव्यवस्था में देखना चाहा है। इस उपनिषद
के कंटेन्ट में से आपके समक्ष केवल यम की पत्नी द्वारा एक ब्राह्मण को महत्व दिया जाना ही
नाच रहा है। हालाँकि यम की
पत्नी ने नचिकेता के समादर में जो बातें यम से कही हैं उसमें तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के
प्रति आदर का भाव ही है। उसका उपनिषद के विषय से कोई संबंध नहीं है। वर्तमान का सारा राजनीतिक और सामाजिक
चिंतन वर्णव्यवस्था में ब्राह्मणों के वर्चस्व के इर्द गिर्द सिमटा है। और इसी
वर्चस्व को आप उस काल पर भी
थोपना चाहते है। उसपर तो
आपका इतना ही कहना काफी है कि आपको यह
वर्णव्यवस्था अमान्य है। उसकी पुष्टि में जो आपने उदाहरण दिया है वह महाभारत काल
का है, जो उपनिषद
काल के बहुत बाद का है। यहीं आपकी चतुराई दिखाई देती है। उपनिषद के गुण अवगुण को
बताने के लिए उपनिषद काल का ही उदाहरण आप देते तो सटीक होता। ‘सत्यकाम जाबाल’ का उदाहरण देते तो हमें भी
समझ में आता कि आप आग्रही नहीं हैं। सत्यकाम कुल-गोत्रहीन बालक था। वह गुरुकुल में प्रवेश पाने के लिए गया
तो गुरुकुल के
ब्राह्मण आचार्य ने उससे
उसके कुल और गोत्र का नाम पूछा। सत्यकाम ने कहा- मेरी माता ने मुझे यह नहीं बताया। आचार्य ने उसे वापस भेज दिया-
जा अपनी माँ से पूछ कर आ। वापस
लौट कर सत्यकाम ने आचार्य को
बताया- माँ ने कहा- पुत्र! मैंने अपनी जवानी में अनेक ऋषियों
की सेवा की है, तू किसका पुत्र है मुझे नहीं
मालूम। जा अपने आचार्य से कह दे तेरा नाम वह सत्यकाम जाबाल लिख लें। उस ब्राह्मण आचार्य
ने कहा इतना कठोर सत्य कोई ब्राह्मण ही कह सकता है। जा मैंने तुम्हारा नाम लिख
लिया–सायकाम जाबल। द्रोणाचार्य
राजघराने के ट्यूटर थे, वेतनभोगी, और
गुरुकुल में दीक्षा देनेवाल आचार्य कट्टर ब्राह्मण। इस उदाहरण में
उपनिषद्कालीन समाज की उदार व्यवस्था की झलक मिलती है। वर्णव्यवस्था अभी रूढ़ नहीं
हुई थी। एक वर्ण दूसरे वर्ण को स्वीकार करने को तैयार था। वर्णव्यवस्था में
स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था पर गार्गी का वेदपाठी होने का उदाहरण
मिलता है। वेदों
में गार्गी नाम से एक संहिता भी है। वर्णव्यवस्था रूढ हुई आदि
शंकराचार्य के कठोर अनुशासन से। वर्णव्यवस्था के
कस जाने से एक समुदाय जो जाति नहीं था जाति में गिना जाने लगा- वह समुदाय है कायस्थ। कायस्थ,
ब्राह्मणों का एक वर्ग था जो राजकार्य से सम्बद्ध था। पुरोहित वर्ग उनकी राज्य-शासन में
अधिक पूछ-ताछ से खिन्न होकर उनसे अपने को आलाग कर लिया। बहुत समय व्यतीत होने पर हर व्यवस्था में कोई न कोई कमी आ जाती है, सो वर्णव्यवस्था में भ आई। आज मार्क्सवाद में भी अनेक
कमियाँ आ गई हैं। मार्क्सवाद के आदर्श को देखिए और चीनी मार्क्सवाद और चीनी
मार्कस्वाद की तुलना कर लीजिए।
लेकिन कठोपनिषद का केन्द्रीय विषय या
थीम वर्णव्यवस्था नहीं है।
अब आप ही बताएँ कठोपनिषद पर आपके आठ पृष्ठ के लेख की तुलना ओशो के, उसपर 70
घंटों
में दिए गए 70
प्रवचनों से जो 425 पृष्ठों में फैले हैं, कैसे की जा सकती है। क्थोपनिषद
को देखने का ओशो का दृष्टिकोण एक्झिस्टेंशियल है जबकि आपका रेशनल। यही नहीं उन्होंने एक शिक्षक की
तरह नचिकेता के प्रश्न के मर्म को अपने शिष्यों को समझा कर फिर यम की भूमिका में आ
कर उन्हें उस विद्या को जानने (सुलझाने नहीं) के लिए उस ध्यान की विधि में उतरना
भी सिखाया है जिसे इस उपनिषद के ऋषि ने सद्गुरुओं पर छोड़ दिया है।
ओशो के प्रवचनों का एक संकलन है- मैं मृत्यु सिखाता हूँ। कभी मन करे तो पढ़िएगा।
कुछ और समझने जैसी बातें-
1॰ बुद्ध का उपनिषदों का विरोध
उनकी ‘आत्मा’, ‘परमात्मा’ की प्रतिष्ठापना के प्रति था। ये स्थापनाएँ जड़ीभूत हो चली थीं। जड़ता के रूप में ये आज भी
विद्यमान हैं। उन्होंने उपनिषदों की साधना पद्धति को अस्वीकार नहीं किया था। उसे
उन्होंने ध्यान में बदल दिया और एक नयी ध्यान पद्धति को जन्म दिया– विपस्सना या
विपश्यना ध्यान पद्धति। इस विधि में साधना की
मुद्रा में आकर साँस लेने और
साँस छोड़ने के बीच की अवधि का साक्षी होना होता है। योग
में साँस लेने का अर्थ जीवन को
ग्रहण करना और साँस
छोड़ने का अर्थ मृत्यु
की ओर अग्रसर होना होता है। इन
अर्थों में उपनिषद के यम मृत्यु के प्रतीक हैं
(योग का प्रतीक, साहित्य का नहीं)। ओशो की “मैं
मृत्यु सिखाता हूँ” पुस्तक
ईसी संदर्भ में है।
2॰
बुद्ध आज के वैज्ञानिक विकास से परिचित नहीं थे। उन्होंने ध्यान की इस
साक्षी की विधि से जाना कि मनुष्य की जीवन-ऊर्जा आत्मा
नहीं सूक्ष्म शक्ति-कणों का परिपुष्ट प्रवाह
है और वह एक विश्वजनीन शक्ति का अंश है। इससे आत्मा और
परमात्मा की जड़ होती धारणा को तोड़ने में उन्हें मदद मिली। ओशो आज
के वैज्ञानिक विकास से पूर्णतः परिचित हैं। उन्होंने ईश्वर
के व्यक्ति-अस्तित्व की धारणा को विलकुल ही तोड़ दिया है। वह विज्ञान के अनुभव को अपने
अनुभव से साक्ष्य देते हैं।
3॰
उपनिषद्कालीन पर्यावरण अध्यात्म और साधना के प्रयोगों से भरा हुआ था। यम के पास
भेजने से तात्पर्य ऐसे गुरु के पास भेजना था जो मृत्यु की कला को
सिखाने में निपुण हों। मृत्यु की कला
अर्थात ‘मैं’ को
विसर्जित करने की क्ला या कहें ‘मैं’
के घेरे से बाहर आने की काला। नीत्से ‘मैं’
के घेरे से बाहर नहीं निकल सका और वह विक्षिप्त हो गया। दुनिया के सारे
साहित्य के अध्ययन के बावजूद ओशो विक्षिप्त नहीं
हुए क्योंकि भारतीय ध्यान पद्धतियों का प्रयोग कर वह
‘मैं’ के घेरे से बाहर आ गए। नीत्से का हवारूपी
‘मैं’ उसके बिकारी
चिंतनरूपी ताप से मन के खोलरूपी बैलून (अहम) की
सीमा में फैलता रहा और एक दिन फूट गया। उसके मैं का प्रसार चतुर्दिक प्रसरित वायु के दाब से
संतुलित नहीं हो सका। क्ठोपनिषद में यम ने नचिकेता को इसी संतुलन
के पाने की विधि बताई है जिसे तैराकी सिखाने की बौद्धिक विधि की तरह
बताया नहीं जा सकता। उपनिषद की विधि पानी में उतर कर तैराकी सिखाने की विधि की तरह
है। इसे यम ने नचिकेता से अवश्य कराया होगा किन्तु उपनिषदकार ने इसे छोड़ दिया है।
कोरे शब्द भ्रम पैदा कर सकते हैं जैसा आपको हो गया है। आप
शब्दों में उलझ कर रह गए हैं।
4॰
उपनिषद शांति को उपलब्ध होने के लिए ऋषियों की
अनुभूति से प्रसूत उपकरण हैं। बुद्धि से अनुभूति में
उतरना संभव नहीं है। अनभूति में उतरना अपनी चेतना में उतरना है, सर से पैर तक होमोजीनियस होंने के लिए। बुद्धि
होमोजीनियसनेस के तट तक पहुँचा
सकती है उसमें उतार नहीं सकती। कबीर को याद कीजिए- “मैं
बौरा डूबन डरा रहा किनारे बैठ”। विचार
करने वाला विचार करता ही रह गया। सागर का रहस्य जानने के लिए सागर में उतरना होगा। यह
बुद्धि नहीं कर सकेगी।
5॰ कठोपनिषद का सार-विषय नचिकेता के प्रश्न हैं जिनके उत्तर यम को
देने हैं। नचिकेता के यम तक पहुंचने के पूर्व एक नाममात्र
की कथा की योजना है। विश्वजीत यज्ञ में यज्ञ का फल पाने के लिए अपने पिता ऋषि
उद्दालक को अनुपयोगी गौओं को दान देते देख नचिकेता
के मन में हुआ कि वह भी तो
अपने पिता का धन हैं। अतः श्रद्धा
से भर कर पिता से पूछा, आप मुझे
किसको दान में दे रहे हैं? उसके इस तरह तीन बार
पूछने पर उद्दालक नाराज हो कर कह देते हैं- जा मैंने तुझे
यम को दिया। और नचिकेता यम के यहाँ पहुँच जाता है। यम
ने उनका तीन दिन
इंतजार करने के लिए नचिकेता से तीन वर मांगने को कहते
हैं।
इस कथा में दो-तीन बातें ध्यान देने
लायक है।
यह कथा-योजना प्रयोजनमूलक
है। इससे विषय की स्थापना की गई है। विषय है
उद्दालक के मन में ब्रह्म को या स्वर्गिक सुख को उपलब्ध
होने की कामना। उपनिषद-काल में इसके लिए कामनार्थी यज्ञ करते थे और
दान-दक्षिणा भी देते थे। उद्दालक ने
यही किया। आप एक प्रश्न उठाते हैं कि उद्दालक
ब्राह्मण थे। वह ब्रह्मज्ञानी थे ही- ब्रह्म
को जानने वाले ब्राह्मण। फिर ब्रह्मज्ञान
हेतु यज्ञ कैसा। आप ठीक ही
कहते हैं। लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं
देते कि आर्यों का समाज कबीलाई था। कबीलों में दो तरह के लोगों का महत्व था -एक, पुरोहितों का और दूसरा कबीले के मुखिया
का (अर्थात लड़ने भिड़ने वालों का)। पुरोहित अध्यात्म-चर्या में भी लीन
रहते थे। संभव है उनमें से किसी एक को अतींद्रिय
अनुभूति हुई हो जिसे वह ब्रह्मानुभूति कहने लगे हों और इसीलिए कबीले वाले उस
समुदाय को तत्कालीन भाषायी नियम से ब्राह्मण कहने लगे हों। तब ब्राह्मण
का पुत्र ब्राह्मण ही कहलाएगा। लेकिन वह ब्रह्म का ज्ञानी भी हो आवश्यक
नहीं। ब्रह्म को जानना पड़ता है। अंबेडकर
का पुत्र/पुत्री अंबेडकर जैसे ज्ञानी तो नहीं हुए। फिर बाजश्रवा का
पुत्र ब्रह्मज्ञानी कैसे हो जाएगा। वह तो ब्रह्म-ज्ञान या जगत की सुख सुबिधा को
पाने के लिए ही यज्ञ कर रहे हैं। दुनियादारी से दूर बालक
नचिकेता का मन अभी जिज्ञासा
से भरा हुआ है। गृहचर्या में उसने आत्मा का नाम सुना होगा। आत्मा का मरने के बाद
क्या होता है यह भी उसने चर्या में सुना होगा। उद्दालक
को भी लगा होगा कि नचिकेता में कुछ गूढ जानने
की जिज्ञासा है। अतः
क्रोध में ही सही उन्होंने उसे यम के
पास भेजा हो, यम अर्थात
मृत्यु के देवता (अच्छे कर्म करने वाला), मृत्यु अर्थात मैं (अहम) को विसर्जित
करने की कला सिखाने वाला साधक। आपने इस बात
पर भी गौर नहीं किया कि आज का जो बुद्धिजीवी वर्ग है वह उपनिषद काल में भी था। तत्कालीन
ब्राह्मण ही उस काल के बुद्धजीवी थे।
वर्णव्यवस्था की योजना
बुद्धिजीवियों की एक ही बैठक
में नहीं बन गई होगी। इतिहास के पास जाइए तो पाएँगे
कि कबीलों में पहले एक ही वर्ग था- ब्राह्मण वर्ग (डा
जयशंकर, भारत का
सामाजिक इतिहास)। जब लड़ने भिड़ने वालों की आवश्यकता हुई तब
क्षत्रियों का वर्ग बना। जब कबीलों का जन में गठन हुआ तब
कृषि और व्यापार की ओर उन्मुख लोगों का एक और वर्ग बना वैश्य वर्ग। जो
सेवा में रत थे (या जिन्हें सेवा में ले लिया गया) वे
शूद्र वर्ग में रखे गए। वृहदारण्यक उपनिषद
भी देखिए। तत्कालीन समाज का यह मनोवैज्ञानिक बंटवारा था
(पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों ने भी मनुष्यों के चार टाइप माने है)। उपनिषद काल तक
लोगों का एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आना जाना लगा रहा। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं।
आगे चलकर मनुष्य की दूसरे पर वर्चस्व कायम रखने वाली वृत्तियाँ ज़ोर पकड़ती गईं और
आदि शंकराचार्य तक आकार इसका रूप बदल गया जो आज के लिए अग्राह्य हो गया
है। ---शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव, गोरखपुर। ई-मेल : sheshnath250@gmail.com