अनुशेष
Tuesday, 15 March 2022
पत्रिका साखी-33 में ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'मत होने दो' पर एक आलोचनात्मक दृष्टि
Wednesday, 5 January 2022
अलविदा 2021
अलविदा 2021
Monday, 22 November 2021
*वर्तमान हिंदी आलोचना का रूप रंग* (पिछली पोस्ट से आगे)
22-11-2021, दिन सोमवार।
Sunday, 14 November 2021
वर्तमान आलोचना का रूप रंग
वर्तमान आलोचना का रूप रंग शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 14-11-2021
एक फेसबुक मित्र ने अपने वाल पर एक शेर उद्धृत किया है राजा दुबे का। इसे वह एक बड़े पाठक वर्ग के सामने रखने से अपने को रोक नहीं पाए हैं। यह शेर उनके मित्र प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने उन्हें भेजा है। यह उन्हें बहुत पसंद है। इसमें लोगों द्वारा जुबान को दुम में बदल लेने की बात की गई है। वह वर्तमान की अवाम को भी इसी हालात में पाते हैं। शेर है -
Thursday, 4 November 2021
भइल बियाह मोर करबऽ का (कहानी)
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 27-10-2021
Sunday, 12 September 2021
सार्विक सुनो कहानी
#सार्विक सुनो कहानी
सार्विक, मेरे पोते!
जब तुम छोटे थे तब तुम्हें कहानी सुनने का बहुत शौक था। मुझे भी कहानी सुनाने में आनंद आता था। अक्सर तुम मुझे कहानी कहने के लिए छेड़ते रहते थे- "दादू एक कहानी कहिए।" कभी कभी मैं तुम्हें भी उकसाता - "तुम भी तो कोई सुनाओ।" तो बिना ना-नुकुर किए तुम भी सुना देते थे। कहानी सुनाने में तुम थोड़ा अटकते जरूर थे पर कहानी के प्रवाह में कोई बाधा नहीं पड़ती थी।
रहते तो हो तुम अपने माता-पिता के साथ मुजफ्फरनगर में, पर स्कूल की छुट्टियों में गोरखपुर जरूर आते हो। छुटपन में जब आते थे तब कहानी सुनने का तुम्हारा आग्रह देखते बनता था। अब तो तुम पाँचवी कक्षा के छात्र हो। कुछ छोटी मोटी कहानियाँ लिखने भी लगे हो। उन कहानियों को फेसबुक पर भी देने लगे हो। तुम्हारा बाल-मन उन कहानियों में खूब क्रीड़ा करता दिखाई देता है। तुम्हारी कहानियों में बालसुलभ कौतूहल के साथ आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों की भी चर्चा रहती है। उन कहानियों पर तुम्हें लाईक भी खूब मिलते हैं।
अब तो बाजार में तरह तरह की कहानियों की किताबें आने लगी हैं। किसी में कहानी चित्रकथा में होती है तो किसी में किस्सा की तरह, किसी में शिक्षाप्रद कहानियाँ होती हैं तो किसी में मनोरंजक। लेकिन तब मैं तुम्हें पंचतंत्र, हितोपदेश या ईशप की बोध कथाएँ (ईशप्स फेबुल) ही सुनाया करता था। 'पंचतंत्र' में दुनिया की सबसे पुरानी कहानियाँ हैं। ये अपने देश भारत में लिखी गईं। 'हितोपदेश' और 'ईशप्स फेबुल' की कहानियाँ पंचतंत्र के आधार पर ही लिखी गई हैं। तुम्हारा भोला मन कहानियों को सुनने में खूब रुचि लेता था। पर कभी कभी किसी कहानी के किसी स्थल पर तुम्हारा बाल-मन प्रश्नों की झड़ी भी लगा देता था। जैसे, शेर-खरगोश की कहानी सुन कर तुम आश्चर्य में पड़ जाते थे-
"तो क्या कुँए में सचमुच का शेर था?", "उस जमाने में ये जानवर क्या बोलते भी थे?"
तुम्हारे इन सवालों का जवाब देना मेरे लिए बड़ा कठिन होता था। बच्चों के कुतूहल भरे प्रश्नों का जवाब देना वैसे भी कठिन होता है। क्योंकि इसमें 'क्यों' की भरमार होती है। इसमें उनका भोलापन, उनकी सरलता, उनकी निर्दोषिता घुली मिली रहती है। जवाब देते समय इस बात का भी ख्याल रखना पड़ता है कि उस जवाब से उनके इन सहज उपलब्ध गुणों को क्षति न पहुँचे। मुझे तुम्हारे प्रश्नों के जवाब देते समय हमेशा इस बात का ध्यान रखता पड़ता था।
इस बार कोरोना (सर्दी, खांसी, बुखार से मिलता जुलता एक प्रकार का संक्रामक रोग) की छुट्टियों में अभी कुछ दिन पहले तुम आए थे तो दादी को अस्वस्थ देख तुम्हारी चंचलता में कुछ कमी आ गई थी। इस बार तुमने मुझसे कहानी सुनने की जिद नहीं की। तब मैंने सोचा अब तुम्हें सामने बिठा कर या सोते समय कहानी कहने से बेहतर है कहानी लिख कर तुम्हें भेज दूँ। क्योंकि कहानी सुनने की तुम्हारी जिज्ञासा में कोई कमी आई नहीं दिखती।
सोचता हूँ अबकी बार तुम्हें ऐसी कहानी लिख कर भेजूँ जो पंचतंत्र की कहानियों से कुछ अलग किस्म की हो। उसमें गाँव का हवा-पानी हो और चाल भी गाँव की हो ताकि तुम्हारे ध्यान में यह आए कि समय के बदलने से आज का जमाना कितना कुछ बदल गया है। तब लोगों का बात व्यवहार, रहन सहन कैसा था और आज कैसा हो गया है। इसी गोरखपुर में जब मैं आया था तो यह जगह चकसाहुसेन (अब छोटी कालोनी पार्वतीपुरम) शहर की सीमा से बाहर था। जब शहर की आबादी बढ़ने लगी तब पास के गाँवों मिला कर शहर की सीमा बढ़ाई गई। गोरखपुर में इस समय जहाँ हमारा मकान है वहाँ पहले पचपेड़वा के पाँच गाँवों में से एक यह चकसाहुसेन गाँव था। अब यह शहर का हिस्सा है। सत्तर के दशक में इस गाँव को शहर में मिलाया गया। उस समय गाँव के लड़के शहर का निवासी कहलाते हुए भी बकरियां चराते थे। तब हमारे इस घर के सामने के खाली स्थान में गाँव के औरतें-बच्चे अपनी बकरियाँ चरने के लिए छोड़ देते थे। कभी कोई बकरी हमारी बाउण्ड्री में लगे पौधों को नुकशान पहुँचाती तो हम उसे मार कर भगाते, तो वे हमसे लड़ पड़ते। ताना भी मारते "पता नहीं कहाँ से आ के इ लोग बस गइल बा। अब हमन के बकरियो ना चरा पावऽताटी।"
किसी गाँव को अचानक शहर में कर देने से गाँव का चाल-चलन, वहाँ के लोगों का रहन सहन एकदम से बदल तो नहीं जाता। अब धीरे धीरे ये लोग अपने को शहर का महसूस करने लगे हैं और बच्चे स्कूल भी जाने लगे हैं। इनकी संख्या देख कर अब हमारे इर्द गिर्द ही अनेक स्कूल खुल गए हैं, सड़कें बन गई हैं, बिजली लग गई है। अब तो पानी की सप्लाई भी होने लगी है।
पर कुछ ऐसी भी बातें होती हैं जिसमें बदलाव एकदम से आ जाए तो संस्कार में टूटन आने लगती है। पर यदि बदलाव धीरे धीरे हो तो बदलते संस्कार अपने से लगने लगते हैं। जैसे, एक समय था जब गाँव के लोग गन्ने की खेती करते थे और गन्ने से गुड़ वे स्वयं ही बनाते थे। लेकिन जब चीनी बनाने वाली सुगर मिलें खुलीं तो गन्ने सुगर मिलों में ले जाए जाने लगे। पहले तो लोग घबड़ाए किंतु बाद में मिलों के आस पास के गाँवों में रहने वाले लोग मिलों में काम करने जाने लगे। लेकिन उनकी जीवनचर्या में एकबारगी बदलाव नहीं आया, धीरे धीरे आया। मिलों में काम पर जाने के लिए उन्हें दौड़-भाग नहीं करना पड़ता था। इधर मिल का पहला भोंपू बजा कि वे तैयारी करने लगते। दूसरा भोंपू बजते घर से चल पड़ते। और तीसरा भोंपू बजे इसके पहले वे मिल पर पहुँच जाते थे। मिलें अपने कर्मचारियों को बहुत सुविधाएँ भी देती थीं। उनकी घर की जरूरतों के अनुसार चारपाई, सुतली, नेवार और लालटेन वगैरह भी अपने स्टोर से वितरित करती थीं। उनके टूट-फूट जाने पर उसे लौटना कर दूसरी ईशू कर देती थीं। एक तरह से मिलें गाँव-जवार के लोगों की लाईफ लाईन बन गई थीं। तुम्हारे परदादा खुद हथुआ सुगर मिल के एक सीनियर क्लर्क थे। यह सब मेरा देखा भाला है। मिलों का खुलना लोगों के जीवन चर्या में किसी तरह का खलल पैदा नहीं किया।
ऐसे ही परिवेश में मेरा ग्रेजुएशन (यानी बी एस सी की पढ़ाई) तक का जीवन बीता। गँवई वातावरण में बीते मेरे जीवन का आकर्षण आज भी मेरे भीतर बना हुआ है। रह रह कर आज भी वे शामें मुझे याद आने लगती हैं जब मैं और मेरी माँ (तुम्हारी परदादी) आँगन के ओसारे में कमरे के एक तरफ बने कउड़े की आग तापते थे। मैं कउड़ा तापते हुए दीए के उजाले में पढ़ता था और पढ़ते पढ़ते जब ऊँघने लगता था तो माँ मुझे जगाती थी- शेषऽ! (ष का दीर्घ उच्चारण)! और मैं झटक कर उठ जाता था। इस झटक कर उठने में मेरे कई पेन कउड़े में गिर कर जल गए। कउड़े के पास बैठे बैठे हम खाना खाते थे। मुझे जगाए रखने के लिए माँ कोई मजेदार कहानी कहने लगती थी।
उन कहानियों में से एक कहानी मुझे इस समय याद आ रही है। उसे लिख कर मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। यह कहानी एक बहुत पुराने समय के गाँव की है। इसे सुना कर मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि तब के गाँवों की क्या स्थिति थी। तकलीफ में रहते हुए भी गाँव के लोग अपना धैर्य और आपसी व्यवहार में सलीका नहीं खोते थे। इस कहानी की नायिका एक ससुरइतिन ( ससुरार में रहने वाली) लड़की बसमतिया की है। उसके पिता जी जब उससे मिलने उसके घर जाते हैं, उस समय उसके द्वारा अपने पिता से घर का हाल चाल जानने का तरीका बड़ा रोचक और सलीके वाला है।
यह कहानी मैंने माँ से जैसी सुनी थी वैसी ही तुम्हें सुना रहा हूँ। माँ की बोली में तो यह और अच्छी लगती थी। मेरी भोजपुरी माँ की सहज भोजपुरी से हल्का सा अलग लगती है मुझे।
तब मैं शायद कक्षा पाँच या छै में पढ़ता था। रोज की तरह उस दिन शाम को लालटेन जला कर मैं बाहर के सहन में पढ़ने बैठ गया था। वह जाड़े का महीना था। मैं ओढ़ना ओढ़ के बैठा था पर ठंढ कुछ अधिक ही थी। मुझे आलस आने लगा और बाहर पढ़ते पढ़ते नींद भी आने लगी। तब मैं उठा और सीधे आँगन के ओसारे में जल रहे कउड़े के पास जाकर बैठ गया। यह कउड़ा जाड़े भर जलाया जाता था। माँ वहाँ कउड़े की आग तापते हुए खाने के लिए मेरा इंतजार कर रही थी। कउड़े के पास दीयट पर दीया जल रहा था। अंधेरा गहरा होने से रोशनी अच्छी मिल रही थी। मैंने किताब खोला और पढ़ने लगा। माँ उठी और खाना लाने चली गई ताकि साथ बैठ के खाया जाए। वह खाना लेके आई तो मैं पढ़ते पढ़ते ऊँघने लगा था। वह थाली नीचे रख ही रही थी कि मुझे जोर की झपकी आ गई और मैं कउड़े में गिरने गिरने को हो गया। तभी माँ ने मुझे संभाल लिया। मुझे कउड़े की आग में झुलसने से बचाते हुए बोली-
"देखऽ अब तहरा नींद आवऽताऽ। किताब बंद करऽ। खनवो थोड़ी देर बाद खाइल जाई। लऽ ई कहानी सुनऽ। नींद तोहार टूटे। तहरा कहानी सुने में बड़ा मन लागेला।
"बहुत पुराने जमाने के बात हऽ। एक गाँव में एगो परिवार रहे। गाँव के नाँव तऽ ईयाद ना बा। बाकिर ऊ गाँव छोट रहे, ईहे कवनो आठ-दस घर के। ऊ परिवार बहुत गरीब रहे। परिवार में कुल चार जने रहले- माई, बाप, एगो लड़िका आ एगो लड़िकी। लड़िकिया के नाम रहे बसमतिया। ऊ बियाहे लायक हो गईल रहे। लड़िकवा अभी छोट रहे।
बापे के पास थोड़ा जमीन रहे। ओही के ऊ जोतस बोअस। ओही से अपना परिवार के खाना खोराकी चलावस। घर दुआर माटी के रहे। कवनो घर में चउकठ केवाँड़ ना लागल रहे। ले दे के दू गो घर (कमरा) रहे। चोरी-चमारी के डर से केंवाँड़ के जगही ओइमें ताड़ के बड़का पत्ता कैसहूँ बाँध दिहल रहे।
ओ जमाना में ओ गाँव के लड़िकन के पढ़ावे लिखावे के कवनो चलन ना रहे। सहर से दूर- दराज के गाँव में त आजो स्कूल ना बा बाकी जेकरे घर के कवनो अदमी बहरा कमाता ओकर लड़िका बहरे रहि के कुछ पढ़ लिख लेताऽ।
ओ घर में एके आदमी कमाए वाला रहे। खेती से कइसहूँ खाना खोराकी भर अनाज हो जाव। कभी मजूरियो करे के पर जाव। ओ लोग के दिमाग दिन रात खाना खोराकी के जोगाड़े में अँटकल रहे। एने अब बीटिइयवो बियाहे जोग हो गइल रहे। ओके बियाहे के फिकिर अब ओ माई- बाप के कपारे सवार होखे लागल। जब अड़ोसी पड़ोसी ओकरा बियाहे खातिर ओ लोग के टोके लागल त ऊ लोग घर के अउर सब चिंता छोड़ि के लड़िकिया बसमतिया के बियाहे के फेर में जी जान से लाग गइल।
ओकरे बियाहे खातिर ऊ दूनो परानी के बड़ा दउरे के परल। एह गाँवे, ओह गाँवे, ना जाने केतना गाँवे ऊ लोग धवलें। कब साँझ भइल कब बिहान एकर पते ना चलल ऊ लोग के। बाकी बीधी के बीधान केऽ जानेलाऽ। आखिर ऊ लोग के भाग दौड़ रंग लिअइलस। लड़िकी के बियाह तय हो गइल। उहो कवनो बहुत दूर में ना, दू तीन गाँव के आँतर पर। सबसे बढ़ि के त ई भईल कि उ बियाह एगो खाते पीते घर में तय हो गइल। लड़िकी के भाग से ओ घर में कवनो चीज के कमी ना रहे। लड़िको वाले लड़िकी के बारे में अगुआ से पूरा जान समझ के- घर वालन के रहन सहन, लड़िकी के रंग रूप, सुभाव, ऊ कामधाम करे वाला बा की ना, ई सब जान समझ के, बियाह करे खातिर हाँ करि देहलें। घर दुआर देखे देखे ना गइल लोग। बियाह के दिन तय हो गईल आ सब रस्म रिवाज निभा के बियाहो हो गईल। लड़िकी के बिदाई के दिन धरा गइल आ लड़िकी बसमतिया ससुरारी चल गईल।
ससुरार में लड़िकी अब दुलहिन कहाए लागल। दुलहिन के अइला पर सास के जाँगर में फुरती आ गइल। उनके खुसी के ठेकाना ना रहे। एके साँस में ऊ घर के सब कोना ओके देखा देहली। "ई तोहार कमरा हऽ। हेइमें सब रासन पताई रहेलाऽ। हे कमरा में रसोई बनेलाऽ। ए रसोई घर के तू खूब साफ सुथरा रखिहऽ। सफाई से खाना बनइह। आ देखऽ, हमरा घर में कवनो दाई ना बा। सब बर्तन बासन खुदे धोए के परेलाऽ। अब तू एक घर के मालकिन बाड़ू। कवनो चीज के जरूरत पड़े त सँकोचइहऽ मत, ले लिहऽ। हमरा से माँगे के जरूरत नइखे। ई दोगहा हवे। घर के काम काज से खाली भइला पर हम ईंहे बइठीलेऽ। आवऽ तनि देर बइठऽ। अऊर हाँ, निकसार पइसार जाए के होखे तऽ देखऽ, हो कोना में एगो छोट कोठरी बाऽ। ओईमें पायखाना जाइल जाला। सुबहे उठिहऽ आ सबसे पहिले हो लिहऽ।-- आछा, तनि एक गिलास पानी पिया दऽ आ जा अपना कमरा में आराम करऽ।
सास आपन घर-आँगन के सब पेंच समझा के घर के सब जिमेदारी दुलहिन के सँऊप देहली। ऊ लड़िकियो बड़ी लगन से सास ससुर के आपन माई बाप लेखे मान के सेवा करे लागल। गाँव जवार के लोग भी ई जान के बड़ा खुश रहे। सबके मुँह से ईहे बात निकले की ए घर में बड़ी लियाकत वाली बहू आ गइल बाऽ।
लड़िकियो अपना बेवहार, बात विचार से घर के लोग के त मन मोहिए लिहलस, ओ गाँव के लोगो, ओकरे मेल जोल रखे के ढंग के देख के बड़ा खुश रहे लागल। लड़िकी के अदमियो बड़ा सुघर आ बेवहार वाला रहे। अपना मेहरारू के बड़ा मान जान करे। कमासुतो रहे। ससुरो ओ से बहुत खुस रहें। धीरे धीरे ओ घर के दिन अछे तरह से बीते लागल।
एहीमें एक दिन ओ घर के दोगहा के किवाड़ पर ठक ठक के आवाज भईल। दोगहे में सास बइठल रहली। आवाज सुनि के आँगन में आवाज देहली-
"ए दुलहिन, देखबूऽ बाहरा केऽ आइल बाऽ।"
दुलहिन केवाँड़ खोलली आ केवाँड़ खोलते अगरा गइली, "अम्मा जी, बाबूजी आईल बानी।--- बाबूजी, आईं, अंदर आईं। ई अम्मा जी बइठल बानी।"
ऊ दूनो समधिन समधी में परनामा पाती भईल। ऊ लोग एक दूसरे के हाल चाल लेहल। फेर समधी जी समधिन का हाथ में एगो मटकी देहले। ओ घरी रसदार मिठाई ले के लोग आपन रिश्तेदारी में जाव। समधिन मिठाई के मटकी ले के दुलहिन के हाथ में थमा देहली आ ओ से कहली- "दुलहिन, ले जा अपना बाबूजी के अपना कमरा में, पानी ओनी पिआवऽ आ अपना घर के हाल चाल लऽ।"
बसमतिया अपना बाबूजी के आँगन में ले गइल, उनकर हाथ पैर खुदे धोअलस, फेर अपना कमरा में ले गइल। बाबूजी के बिछावन पर बइठा के अपने जमीनी पर पुअरा के बनावल बेठा रख के बइठ गइल आ बतियावे लागल।
"बाबूजी, माई कइसन बिया। ओकर तबियत ठीक रहेला नऽ।"
"हाँ बेटी। तोहार महतारी ठीक-ठाक बाड़ी। उनकर तबियत तनी अनमनाहे रहेला।"
"आ बाबू कइसन बाऽ। हमरा के याद करेला?"
"उहो ठीक बाऽ। तोरा के त बहुत याद करेला।"
" हँऽ हमरा से बहुत लागल रहे नऽ। हमहूँ के ऊ बहुत याद आवेला। का करीं। हमहूँ इहाँ के घर गिरहसती में अइसन फँसल बानी की तनको फुरसत ना मिलेला। क बार इनसे कहनी की चलीं तनी माई बाबूजी के देखि आवल जाव। बाकी इहाँ का जाए के समये ना निकाल पावऽतानी।
"बाबूजी, घर के अऊर हाल चाल का बा?"
" बाकी हाल चाल त ठीके बाऽ। अब कइसहूँ खेतीबारी हो जाला। तू रहले त तनी सहयतो हो जाव। तोर माई अब केतना का करस।"
असल में लड़िकिया घर दुआर के बारे में ढेर कुछ जाने के चाहत रहे। ओकरा काफी दिन घर से ससुरार अइले भ गइल रहे। ऊ जाने के चाहत रहे कि घरवा वइसहीं उघार पछाड़ के तरह बा की कुछ मरम्मतो वोरम्मत भइल बाऽ। बाकी सीधे पूछे से ऊ डेरात रहे काहे की ओकर सास बगले के कमरा में रहली। जवन ऊ पूछी सब उनके सुनाई देई। अगर अबो घर के उहे हाल होखे त सास के सामने बाबूजी के हेठी हो जाई। बियाहे के वकत त सब बात अगुए के मारफत हो गइल रहे। केहू घरे जाके त घर के हालत जानल नाऽ। ऊ थोरे घड़ी सोचलस फेरू पूछे लागल, सीधे ना पूछ के तनी घुमा फिरा के। अइसे जइसे बुझउवल बुझावत होखे। गाँव में अकसर लोग लड़िकन के बुझउवल बुझावे- 'बूझऽ, सउँसे चँवर में एके गो ढेला।' बूझे का हऽ?' लड़िका लोग ना बता पावें त ओकर जबाब बतावें। जबाब हऽ, 'चनरमा'। अइसन ढेर बुझउवल ऊ सुनले रहे। ऊ हुँसियार सुरुवे से रहे। बाबूजी ई सब जानते रहलें। त ओही भाखा में ऊ बाबूजी से बतियावे लागल। पूछलस- (ओह घरी बाबूजी के बाबा भी कहा जात रहे)
" अबो आकास दीया जरेला हो बाबा?"
"जे तबहीं से अबहीं"-' बाबूजी बोलले।
"एकर मतलब का भइल माई?"- हम पुछनी।
मैं अपनी माँ को माई कहता था। मेरे गाँव में सभी बच्चे अपनी माँ को माई ही कहते हैं। माँ ने इसका अर्थ बताया-
-ओ घर में दीया बाती ना जरे। काहे की गरीबी के कारन दीया जरावे खातिर तेल घर में अइबे ना करे। आसमान में चनरमा उगस त ओही रोसनी में काम धाम होखे। अन्हरिया में रसोई सरिए साँझे बन जाव। बाबूजी कहले 'जइसन तब रहे वईसहीं अबो बाऽ।'
"अछा त एकर मतलब ई भईल। फेर ऊ का पूछली?"- हम माई से पूछलीं।
फेर ऊ पूछलस-
"झुन झुन केवँरिया बाजेलाऽ हो बाबा?"
" जे तबहीं से अबहीं।"- बाबूजी बोलले।
"झुन झुन केवँरियाऽ?"- फेर हमरा अचरज भईल।
माई समझवलस। ओकरा घर में ताड़ के बड़का पत्ता के केवाड़ लागल रहे। जब ओके खोलल जाव आ बंद कइल जाव त ऊ झुन झुन करके बाजे।
"ओखरी परेऊआ ढुरेलाऽ हो बाबा?"-
"जे तबहीं से अबहीं"।
ओ घर के पड़ोस में जब औरत लोग ओखरी में चिउरा ओउरा कूटे त बसमतिया के छोटका भईयवा उहाँ पहुँच जाय आ मूसर के चलला से चिउरा ओउरा के जवन दाना छिटक के बाहर गिरे त ओके ऊ बीन बीन के खाए। परेउआ ऊहे भइयवा हऽ। ढुरेलाऽ माने ओखरी के जेने जेने ओर दाना गिरे ओने ओने दउड़ दउड़ के जाव आ जइसे चीड़ीयवा सब दाना चुगेलेऽ वइसँही दानवा के बीन बीन के खाव।।
"झुर झुर बेनवा डोलेला हो बाबा?"
"जे तबहीं से अबहीं।"
माई एकर मतलब बिना हमरा पिछले बतवलस जे गरमी से जब ऊ परिवार बेहाल हो जाव, जब गरमी ना सहाय त ऊ सब बहरे दरवाजा पर के पेड़ के तरे आ जाव। ऊहाँ झुर झुर कर के जब हवा बहे त अइसन लागे जइसे ताड़ के पत्ता से बनल बेना के डोलवला पर हवा लागेला।
इ सुनि के ओ लड़िकी के बड़ा दुख भइल। बाकी ऊ का कर सकत रहे। ओकरा आँखी से खाली लोर बह के रह गइल। फेर ऊ उहाँ से उठल आ बाबूजी के खिलावे पिलावे के बेवसथा में लागि गइल।"
बाबूजी खा पी के खटिया पर आराम कइले। आ दिन अछते घरे पहुँच जाए खातिर सोच के उठ गइलें आ समधिन से जाए खातिर अगियाँ माँगे लगलन। समधिन बोलली, तनी देर अउर बइठ जाईं। मालिक आ राउर दामाद आते होइहें। समधी जी थोड़ा देर रुक गइलें। फेर समधी आ दामाद से मिलि के घरे खातिर चलि देहलें।
जब कहानी खतम हो गईल तब हम माँ बेटा एक साथ खाना खा कर सोने चले गए।
जोशू! कहानी कैसी लगी जरूर लिखना।
गोरखपुर,
10-09-2021
* सार्विक को यह कहानी पसंद आई।