Tuesday, 15 March 2022

पत्रिका साखी-33 में ज्ञानेन्द्रपति की कविता 'मत होने दो' पर एक आलोचनात्मक दृष्टि

 


साहित्यिक पत्रिका साखी-33 में संपादक ने साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि ज्ञानेन्द्रपति की कोरोना-कवलित कालखंड में लिखित कविताओं को स्थान दिया है। उनमें से उन्होंने उन्हीं के "मत होने दो" कविता को उन कविताओं के शुरू में आमुख के रूप में दिया है-
"मत होने दो
इन दिनों जब संक्रामक कोरोना वायरस ने हमें दूर-दूर कर दिया है एक दूसरे से
अस्तित्ववादी दर्शन का महावाक्य-"दूसरा व्यक्ति नरक है"
तुम्हारा जीवन-दर्शन न बन बैठे कहीं
इन कोरोना-कातर दिनों में
करुणा को कवलित मत होने दो
थोड़ी दूर रहो,
पर मित्र मन को विगलित न होने दो।"
निश्चित ही कोरोना-कवलित कालखंड में लिखित और साखी-33 में स्थान पाई कवि की सभी कविताओं में यह कविता संपादक को विशिष्ट और महत्व की लगी होगी, तभी इसे उन्होंने उन कविताओं के आमुख के रूप में दिया है। मैंने इस कविता को उन कविताओं के आमुख के रूप में देने के पक्ष को कई तरह से समझने की चेष्टा की पर इस संदर्भित कविता में मुझे कोई उल्लेखनीय बात नहीं दिखी जो उन कविताओं का आमुख बनने का कारण बने। काव्य की दृष्टि से मुझे इसमें कोई विशिष्टता नहीं दिखती। इस कविता की पंक्तियाँ सीधी सरल और सपाट हैं। इसमें बातें किसी प्रतीक या बिंब के माध्यम से नहीं कही गई हैं जिससे कोई करुणापूरित संवेदना छलकी पड़ रही हो। विचार की दृष्टि से भी इसमें कोई भास्वर विचार नहीं दिखा जिसपर संपादक रीझ गए हों। किसी किसी नई कविता में कहीं कहीं पंक्तियों को तोड़ कर वाक्य सरणियाँ कुछ इस ढंग से विन्यस्त की गई मिलती हैं कि उनके शिल्प से ही उसमें काव्य जैसी अनुभूति मिलती है पर इसमें वैसा शिल्प भी नहीं है। काव्यशिल्प तो अलग, गद्यकाव्य के शिल्प से भी, जिसमें कविता का-सा आनंद आता है, यह कविता कोसों दूर है। हाँ, इसमें किसी राजनीतिक पुट को सायास ढूँढ़ा जा सकता है पर उसमें कविता की करुणा की संवेदना को संप्रेषित करने की होती क्षमता होती तो वह अनायास ही छलक पड़ रही होती।
इस कविता की पंक्तियों से किसी तरह के भाव के संप्रेषण की आहट नही मिलती, सिवाय करोना-पीड़ितों को दी गई इस प्रगल्भ सलाह के कि वे अस्तित्ववाद के महावाक्य- 'दूसरा नरक है' सूत्र का कायल अपने को न होने दें। करोना वायरस ने उन्हें एक दूसरे से जो अलग कर दिया है, यह प्रकृति की करुणा है उनपर। यह उस कोरोना वायरस के संक्रमण से उनके बचने के लिए डाक्टरों की, उनको दी गई एक चेतावनी भर है। इस चेतावनी में यह निहित नहीं है कि दूसरे से इसलिए दूरी बनाए रखो क्योंकि 'दूसरा नरक के समान है' जैसा कि अस्तित्ववाद के महावाक्य में कहा गया है। दूसरे को नरक के समान मानने से व्यक्तियों के अंतः में उद्बुद्ध करुणा मर जाएगी।
लेकिन इस सलाह में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि कवि की यह सलाह केवल कोरोना काल के लिए ही है या कोरोना-विरत काल के लिए भी है,
केवल कोरोना-कातर लोगों के लिए ही है या कोरोनामुक्त लोगो के लिए भी है। कविता में इस असमंजस का होना उसमें दी गई सलाह में एक कमी के होने को द्योतित करता है।
रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि से इस कविता को कविता नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि इसकी पंक्तियों में जीवन की कोई संवेदित सरणी नहीं है। मात्र कोरोना का उल्लेख कर देने से कोरोना-काल के जीवन का कोई अनुभूत पीड़ा-भार इसमें नहीं जुड़ जाता। हाँ उस कालखंड के जीवन को कोरोना-कातर कहने से उस काल की एक पीड़क स्थिति का बोध अवश्य होता है पर करोना से पीड़ितों को एक कथित महावाक्य में दर्शाई एक खास जीवन-स्थिति को न मानने की मानसिक सलाह उस पीड़ा को घना नहीं कर पाई है। केवल एक नीति का संबोधन भर बन कर रह गई है यह सलाह, रहीम के दोहों की तरह।
मेरे विचार से इस 'मत होने दो' कविता को कवि के कविता समुच्चय के लिए आमुखरूप देने में संपादक को, इसमें पिरोए अस्तित्ववाद के महावाक्य - "दूसरा नरक है" ने आकर्षित किया है। साठ और सत्तर के दशक में पश्चिम में इस महावाक्य ने तो धूम मचाया ही था, हिंदी कविता को भी इस दार्शनिक वाक्य ने बहुत आंदोलित किया था। उस समय यह वाक्य प्रगतिवादी कवियों के लिए तो उनके कंठ का हार बन गया था। आज भी इस वाक्य के प्रति उनका आकर्षण बना हुआ है। वे इसे एक महावाक्य की तरह देखते रहे हैं और आज भी देख रहे हैं।
मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि कोरोनाकाल में लिखी इस कविता में, ज्ञानेन्द्रपति को अस्तित्ववाद के इस महावाक्य के जिक्र की जरूरत क्यों आन पड़ी। क्या कोरोनाकाल में करोनापीड़ित लोग डाक्टरों द्वारा परस्पर दूरी बनाए रखने की दी गई सलाह को एक दूसरे को नरक के समान मानने की सलाह मानने लगे थे? लेकिन मार्च 20 से मार्च 22 के बीच भारत के किसी अखबार, किसी पत्रिका, किसी सूचना-माध्यम या किसी लेखन में इस तरह की बात का जिक्र नही आया। मैं तो सोचता हूँ कोरोना काल में यहाँ के कोरोना-पीड़ितों में शायद ही कोई इस तथाकथित महावाक्य को याद किया हो। कुछ सक्रिय प्रगतिवादियों को छोड़ कर शायद ही कोई इसे जानता भी हो।
ज्ञानेन्द्रपति इस कविता में यह मानते हैं कि इस वाक्य को जीने का एक सूत्र बनाने से लोगों के बीच घुड़ रही करुणा मरेगी ही फिर भी वह इसे एक महावाक्य की ही तरह याद भी कर रहे हैं।
आज इस महावाक्य ('दूसरा नरक है') की स्थिति तथाकथित की है। यह तथाकथित महावाक्य फ्रेंच दार्शनिक सार्त्र का है जो अस्तित्ववादी से मार्क्सवादी बन गए थे। उन्नीस सौ साठ के पहले इस दार्शनिक के इस सूत्र को किसी ने काटने का साहस नहीं किया था। सत्तर के दशक में ओशो रजनीश ने इसे गलत कहा और कहा सार्त्र को यह पता नहीं कि अस्तित्व क्या है। वह बुद्धि से सोचते हैं, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से नहीं। अस्तित्व को तो 'ध्यान' में होकर ही जाना जा सकता है। उन्हें ध्यान का कोई पता नहीं है। और ध्यान में जानी गई बात यह है- The other is not hell. The otherness is hell - दूसरा नरक नहीं है, दूसरेपन के भाव का मन में उठना नरक के समान है। ओशो को यह कथन भारतीय संस्कृति का अनुभूत है, बुद्धि से सोचा गया नहीं।
ओशो ने यह बात सार्त्र के जीवन काल में ही कही थी। सारी दुनिया उनके कथनों से उद्वेलित थी, आज भी है। सार्त्र और उनके अनुवर्ती भी उद्वेलित हुए होंगे। बीसवीं सदी बीत गई, आज इक्कीसवीं सदी का बाईसवाँ वर्ष चल रहा है पर न तो सार्त्र का प्रतिवाद सामने आया न ऊनके किसी अन्य अनुवर्ती का प्रतिवाद उस कथन के बिरोध में आया।
वास्तव में महावाक्य यह है- "दूसरा नहीं, दूसरेपन के भाव का होना नरक है।" महावाक्य जीवन में उन्मेष लाते हैं अवनति और खतरा नहीं। 'दूसरा नरक है' मानने का परिणाम हिटलर का यहूदियों के प्रति व्यवहार में देखा जा सकता है।
मेरा सुझाव है, संपादक और ज्ञानेन्द्रपति दोनों ओशो के उक्त कथन को हृदयंगम करके देखें। और महाभारत के उस बोधकथा को भी पढ़ें जिसमें पेड़ पर बैठा एक पक्षी पेड़ की छाया में आग जला कर भूखा प्यासा बैठे बहेलिए की भूख मिटाने के लिए अपने को उस आग में झोंक देता है। प्रकृति की करुणा के बशीभूत पक्षी दूसरेपन का भाव खोकर बहेलिए का आहार बन जाता है।
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव,
गोरखपुर,
15-03-2022

Wednesday, 5 January 2022

अलविदा 2021

 अलविदा 2021













अलविदा, अलविदा,
टाटा!
इक्कीसवीं सदी का
इक्कीसवाँ वर्ष! टाटा!
जा रहे हो, जाओ
यह तो तुम्हारी नियति है
अच्छा होता
अपनी इस इति को भी
साथ लेते जाते।
तुम्हारी यह इति इतनी जिद्दी
इतनी प्रवाही है कि
भूलना भी इसे हम चाहें
तो नहीं भूल सकते
चाहें कि हम इसे उपेक्षित कर दें
वह बेपरवाह है
हमारे चेहरों पर
हमारे चित्तों पर
अपने समय का लेख
वह लिख ही जाती है
ईलेक्ट्रान-बिंदुओं की लिपि में।
जाने अनजाने
जरा भी स्मृतियों में हम फिसलें
ये उभर आती हैं स्मृति पटल पर
संवेदनाओं का ज्वार लिए
जिसमें होते हैं दंश
फूलों के भी काँटों के भी
स्फुरित हो जाते हैं सारे रोंगटे
मदु-कटु, कटु-मृदु रोमांचों का
संभार लिए।
अब देखो
तुम अभी गए नहीं पर
तुम्हारे बीतने की
आहट भर से
वर्ष भर के दंशों की पीड़ा
अभी से हमें सालने लगी है।
पिछली सदी से
तुम्हें दाय में मिले कोरोना-कहर
अभी भी हमें डरा रहा है
ओमीक्रोन के नाम से।
कहीं बाहर से संक्रमित कोविद-19 ने
तुम्हारे बीते पूरे बीसवें वर्ष में
कोरोना, क्वारंटीन, लाॅकडाउन
माउथ-मास्क, ढाई गज की दूरी
बरतने जैसी चेतावनियों से
हमें भिड़ा दिया।
जैसे तैसे
इस महामारी से हम निपटे
कि
ईर्ष्या से भरे राजनीतिक तूफान ने
हमें जकड़ लिया
कुछ की सत्ता की भूख ने
हमारे संविधान के
चौथे खंभे को भी
व्यभिचारी आचरण से
आक्रांत कर दिया
विधायिका को उच्छृंखलता ने
डँस लिया
न्यायपालिका में भी
विद्रोह के अंकुर उग आए
राजनीति ने
उसके भी आधार को
कुपोषित कर दिया
कार्यपालिका भी विभ्रष्ट होते होते
बची
ज्यादा चांस थे
उसके विभ्रष्ट होने के
हांफती कलपती किसी तरह
वह संतुलित बनी रही
देश ने छलनी होकर भी
अपनी अस्मिता को बचाए रखा।
बीतती सदी!
तुम्हारा आभार मानेंगे हम
किसान आंदोलन-
जो एक छद्म आंदोलन का रूप
लेने लगा था- को
तुमने एक स्खलन से रोक लिया
देश में अराजक स्थिति आने से
रह गई।
देश के अंदर
बाहर के शत्रुओं को
सूराख नहीं मिला
अंदर के शत्रुओं को
बाहर के शत्रुओं से
बल नहीं मिला
वे हाथ मलते रह गए
सत्ता के साथ
छीना झपटी भी हुई पर
नहीं दुहराई हमने सन् बासठ की
वह भयानक भूल।
हमें पहली बार लगा
अपार बल है समुद्र लाँघने की
हममें
हम अपना बल भूले हुए हैं
हनुमान की तरह।
हमें याद है
हमें झिंझोडा था शास्त्री ने
सत्तर के दशक में
इंदिरा ने
हमारे हाथों से
गर्दन पकड़ ली थी पाक की
पर आह! आत्मश्लाघा में
मान लिया उन्होंने
हमारे बल को अपना बल
और रौंद दिया हमें ही
ईमर्जेंसी की प्रताड़ना से।
पर राख में दबी चिंगारी
कभी बुझती नहीं
जयप्रकाश ने फूँक मारी
राख में दबी चिंगारी
दहक उठी
और हमने देखा
एक नया सबेरा।
पर हाय!
अपना एक सबल नेतृत्व
हम विकसित नहीं कर सके
सत्ता के कुछ लोलुपों ने
हमें बाँट हड़प कर
एक रिमोटी नेतृत्व तैयार किया
सारी दुनिया को मिल गया मौका
हम पर हाबी होने के लिए
अभी भी लपलपा रही वह जीभ
हमें निगल लेने को।
पर हम सब कुछ झेलते भी
अपने निरंतर अनुषंगी प्रयास से
अब विकसित किया है
एक जुझारू नेतृत्व
तुम्हारी पनाह में
कई कमियों के होते हुए भी
यह नेतृत्व
हमें अहसास करा रहा है
हम फिर से मथ सकते हैं सागर
हममें इतना बल है।
तुम्हारे समय के लेख
जो हमारे चित्तों पर अंकित हुए हैं
वे हमें कुरेदते हैं
इन कुरेदनों में उत्तेजना भी है
शम के अंश भी हैं
पर सबसे ऊपर
एक संतुलन का संदेश भी है
संयम का तेज भी है
यद्यपि इसमें
कुटिलता की झिलमिलाहट भी है
पर देश के प्रति समर्पण
और बलि जाने के भाव का तेज
सभी संवेदनशील मर्मों को
प्रतिपल भेदने को उद्यत भी है।
हमारे कवि लेखक
जो कभी द्वीप बने हुए थे
नदी के
हमें अफसोस है
अब वे लहरों के द्वीप हो रहे हैं
अपने ही भँवरों में
उलझ सुलझ रहे हैं
अभिव्यक्ति की आजादी का
बड़ा शोर है चतुर्दिक
वे कितना अभिव्यक्त हो रहे हैं
कितनी अभिव्यक्ति दे रहे हैं
सभी सहृदय उलझ गए हैं
इसी को समझने में
पर असमंजस में पड़ गए हैं
ये सभी तो
काटने में ही लगी हैं
एक दूसरे को
प्रगतिशीलता बदल गई है
अंधविश्वास में।
गनीमत है कि सुधी जन
देश के वातावरण के संयमन से
निराश नहीं हुए हैं अभी।
तुम्हारे क्रोड़ के आँचल तले
सभी प्रयासरत हैं
हारमोनी बनाने में
युग के मनों में
तुम्हारे जाने के बाद भी
बढ़ती रहेगी यह धारा
लक्षण यही दिखते हैं।
तुम्हारे इक्कीसवें वर्ष के युगों में
जूझते रहे हैं हम
कई तरह के संघर्षों से -
आत्मगत, पारस्परिक, बहिरागत
खाद्य के मोर्चे पर,
युद्ध के मोर्चे पर,
भीतरघाती छलों, द्वेषों से,
पर सनातन पाचन ने शायद
हमें सहारा दिया
और हमने अपने प्राचीन
सामासिक संयमन को
उद्बुद्ध किया
हम स्वयं और सार्व के प्रति
सदाशय हुए
आज औरों की ही नहीं
अपनी नजरों में भी
अपने को प्रतिष्ठित कर लिया है।
जाओ, खुशी खुशी जाओ
हम कोशिश करेंगे
तुम्हारे समय में आत्ममुग्ध
अपने संयमन को
हम अगली सदी में भी
ले जाएँगे।
28-12-2021
गोरखपुर
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव ,
गोरखपुर।




Monday, 22 November 2021

*वर्तमान हिंदी आलोचना का रूप रंग* (पिछली पोस्ट से आगे)



शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 22-11-2021 सोमवार


पिछली पोस्ट में संदर्भित शेर है -
"लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया,
हम चुप भी हैं तो यह कोई अहसान कम नहीं।"
जिस मित्र ने राजा दुबे का यह शेर अपने फेसबुक वाल पर पोस्ट किया है किसी चुहलबश नहीं किया है, सोद्देश्य किया है। इस शेर को उनके सामने रखने वाले उनके मित्र गोपेश्वर सिंह ने इसे समय को अतिक्रांत कर देश की वर्तमान हालात पर एक करारा प्रहार बताया है। एक करारा प्रहार लगता भी है यह शेर, आज की हालात पर। लेकिन इस शेर के कहन में एक अंतर्विरोध भी दिखता है। यहाँ एक की 'चुप्पी' दुम दबाने का प्रतीक है तो वहीं दूसरे की अहसान जताने का। शेर को अपने वाल पर देने वाले भी इस तथ्य पर कुछ कहने से कतरा जाते हैं।
इस शेर की अंतर्वस्तु में किसी जुल्म के आगे लोग तो चुप हैं ही, शायर खुद भी चुप है। लेकिन वह अन्य चुप्पों को जुल्म के आगे दुम हिलाने वाला बताता है जबकि अपनी चुप्पी को अहसान करने वाला। यह अहसान तो जुल्म ढाने वाले पर ही हो सकता है, जुल्म के आगे दुम हिलाने वालों पर क्या अहसान हो सकता है।
इस शेर पर टिप्पणी करने वालों ने इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया है। इन टिप्पणियों में 'वाह वाह' के अलावे कुछ ऐसी भी टिप्पणियाँ हैं, जिनमें आलोचना की प्रकृति है पर उसमें केवल उसके बाहरी कलेवर को ही छुआ गया है, उसके अंतर्मन को नहीं। शायर के लिए कुछ लोगों की चुप्पी किसी के प्रति दुम दबाने वाली है तो उसके खुद के लिए किसी के प्रति अहसान जताने वाली। यह "किसी"-द्वय अलग अलग है या एक ही है।
मैंने इस शेर को यहाँ इसी बात को समझने के लिए लिया है। हिंदी आलोचना के वर्तमान तौर तरीके से इसे समझना मुझे मुश्किल हो रहा है। क्योंकि उसमें आलोच्य अंतर्वस्तु को केवल ऊपरी तौर पर ही छुआ जाता है जिसमें आलोचक स्वयँ को अधिक व्यक्त कर सके।
अभी एक दिन पहले एक पाठक ने मेरे उक्त प्रश्न पर एक धमाका जड़ दिया - "वर्तमान को छोड़ आप अतीत को ही लेकर बैठ गए। कहीं आप संघी तो नहीं।"
इस शेर को अपने वाल पर पहली बार प्रस्तुत करने वाले मेरे फेसबुक मित्र भी कुछ ऐसा ही रद्दा मार गए थे मुझ पर, शुरू शुरू में - "अब आप ईमर्जेंसी को लेकर खूँटा गाड़ लिए।"
अब पाठकगण ही बताएँ, ईमर्जेंसी के ठीक बाद लिखे गए शेर की कुंजी ईमर्जेंसी में ही तो मिलेगी। फिर ईमर्जेंसी (अतीत) में खूँटा क्यों न गाड़ा जाए। समय का अतिक्रमण भी तो तभी होगा।
प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह के अनुसार यह शेर ईमर्जेंसी में लिखा गया था। राजा दुबे ने इस शेर में, ईमर्जेंसी के दौरान जो अनुभव उनको प्राप्त हुए, उसका निचोड़ व्यक्त किया है।
भारत में यह ईमर्जेंसी जून, 1975 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा लगाई गई थी। क्योंकि सन् 1971 ई के संसदीय चुनाव में उनके प्रतिद्वन्द्वी राजनारायण सिंह ने उनकी चुनावी जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी और कोर्ट ने श्रीमती गाँधी की संसद की सदस्यता को निरस्त कर दिया था। लेकिन इंदिरा गाँधी ने प्रधान मंत्री के पद से इस्तीफा नहीं दिया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ अपील की। कोर्ट द्वारा, लोकसभा का सदस्य न रहते हुए भी वह प्र मंत्री बनी रह सकती हैं, का निर्देश पाकर उन्होंने सारी शक्ति अपने मंत्रिमंडल में निहित कर ली। और बिना मंत्रिपरिषद की सहमति लिए देश में ईमर्जेंसी थोप दी। सन् 1971 में ही इन्होंने कांग्रेस पार्टी को दो फाड़ कर दिया था - काँग्रेस (ओ) और काँग्रेस (आर)। उनके, सारी शक्ति अपने मंत्रिमंडल में निहित कर देने से, काँग्रेस पार्टी के भीतर के उनके सारे विरोधियों ने चुप्पी साध ली और इंदिरा जी की चापलूसी में लग गए। शेर में दुबे जी द्वारा संबोधित 'लोग' यही हैं, आम जनता नहीं। जनता ने तो आंदोलन के जरिए उनसे इस्तीफा देने की माँग की थी। इस आंदोलन का रूप विकराल था पर इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा देने से मना कर दिया और देश में ईमर्जेंसी लागू कर दी। सारे विपक्षी नेता जेल में ठूँस दिए गए। कुछ समय के लिए विरोध बंद हो गया। लेकिन ईमर्जेंसी के हटते ही जनता उबल पड़ी। चुनाव की घोषणा हुई और इंदिरा सत्ता से बाहर हो गईं। इससे तो यही संकेत मिलता है कि जनता ने अपनी जुबान को दुम में नहीं बदला था। उनका विरोध उनके भीतर धू धू कर सुलग रहा था जो अवसर पाकर चुनाव में फूट पड़ा। मैं ईमर्जेंसी की क्रूरता झेल चुका हूँ। मैं कह सकता हूँ कि शायर का यह कहना कि "लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया था" सही नहीं है, ये 'लोग' आम जनता से नहीं थे। सही यह है कि इंदिरा के विरोधियों ने अपनी जुबान को दुम में बदल लिया था। हाँ काँग्रेस पार्टी में और उसके बाहर सत्ता का समर्थक एक वर्ग था जो सत्ता पर अपनी नजरें गड़ाए था वह भी तत्समय चुप लगा गया था। और एक तरह से इंदिरा सरकार पर अहसान ही कर रहा था। इसे इस घटना से समझिए कि सन् 1998 ई में कांग्रेस पार्टी सोनिया गाँधी के हाथ में आ गई। और उस समय सोनिया-कॉंग्रेस की अल्पमत सरकार को तत्समय की कम्युनिस्ट पार्टी ने समर्थन देकर काँग्रेस की सरकार बनवाई और उसे कमजोर होते देख उसे अपदस्थ कर खुद की सरकार बनाने की कोशिश की। इस आलोक में उक्त शेर का अर्थ किया जाएगा तभी शेर की दूसरी पंक्ति , " हम चुप भी हैं तो यह कोई अहसान कम नहीं" का लिखना सार्थक हो सकेगा।
इस शेर को लिखने वाले राजा दुबे एक खास विचारधारा से जुड़े कवि लगते हैं। इस शेर के द्वारा वह कहना चाहते हैं-
"ईमर्जेंसी द्वारा ढाए गए जुल्म से डर कर लोग (सत्ता से जुड़े लोग, सत्ता से विच्युत होने के डर से) अपनी जुबान को दुम में बदल लिए अर्थात चापलूसी में लग गए। लेकिन कुछ लोग जो सत्ता को स्थिर रखने में अपनी भूमिका मान रहे थे, इसलिए चुप लगा गए कि अभी समय उनके अनुकूल नहीं है। वे अपनी चुप्पी को सत्ता के नेतृत्व पर अपना अहसान मान रहे थे, (हमारा चुप रहना कोई अहसान कम नहीं है)"।
प्रो गोपेश्वर सिंह इस शेर को समय को अतिक्रांत कर वर्तमान पर जो करारा प्रहार मान रहे हैं वह इन्हीं लोगों पर लागू होता है, जो अभी वर्यमान में भी यही माने बैठे हैं कि उनके बिना सत्ता की स्थिरता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेगी। अवार्ड वापसी, कुछ एकनिष्ठ पत्रकारों द्वारा उल्टी सीधी सूचनाएँ जनता में पहुँचाना जिससे जनता उद्वेलित हो, रूलिंग पार्टी पर कम केवल प्र मंत्री पर निशाना साधना आदि क्रियाएँ इसी बात की ओर ईशारा कर रही हैं।
अस्तु, इस शेर की टिप्पणीनुमा आलोचना में हिंदी आलोचना का एक ऐसा रूप रंग मिल रहा है जो संतोषप्रद नहीं है। आए दिन यह पढ़ने को भी मिलता है कि हिंदी आलोचना का स्तर अपेक्षाकृत उन्नीस ही है, बीस नहीं।
------ अगली पोस्ट भी देखें
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
गोरखपुर,

22-11-2021, दिन सोमवार। 

Sunday, 14 November 2021

वर्तमान आलोचना का रूप रंग

 वर्तमान आलोचना का रूप रंग                 शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव                 14-11-2021 


एक फेसबुक मित्र ने अपने वाल पर एक शेर उद्धृत किया है राजा दुबे का। इसे वह एक बड़े पाठक वर्ग के सामने रखने से अपने को रोक नहीं पाए हैं। यह शेर उनके मित्र प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने उन्हें भेजा है। यह उन्हें बहुत पसंद है। इसमें लोगों द्वारा जुबान को दुम में बदल लेने की बात की गई है। वह वर्तमान की अवाम को भी इसी हालात में पाते हैं। शेर है -

"लोगों ने जुबान को दुम में बदल लिया,
हम चुप भी हैं तो यह कोई एहसान कम नहीं।"
इसपर आई टिप्पणियों को मैंने गौर से देखा। इनमें से कुछ टिप्पणियाँ 'बाह बाह', 'बहुत उम्दा' किस्म की लगीं तो कुछ संप्रति प्रचलित आलोचना के ढर्रे की, पूर्वोक्त उद्गार का ही पिष्टपेषण प्रतीत हुईं। इसमें कुछ ने लिखा है, समय को अतिक्रांत कर वर्तमान के संदर्भ पर यह शेर एक क्रांतिकारी प्रहार है।
मैंने इसपर अपनी यह टिप्पणी दी- इस शेर से यह पता नहीं चलता कि शायर दुबे चुप रह कर किस पर अहसान कर रहे हैं, जुबान को दुम में बदलने वालों पर, जुल्म ढाने वालों पर या सुविधाभोगी वर्ग पर? शेर के संदर्भ का पता नहीं और समय का भी कि यह शेर कब लिखा गया।" कर्मेंदु शिशिर की टिप्पणी से इतना पता चलता है कि राजा दुबे 'कल्पना' पत्रिका के संपादक मंडल में थे।
शेर से इतना तो स्पष्ट है कि लोगों पर कोई बलशाली वर्ग जुल्म ढाए हुए था। उसके जुल्म के विरुद्ध उसके जुल्म ढाने तक कुछ लोगों की जुबान बंद रही। उन चुप रहने वालों में शायर भी था पर वह अपनी चुप्पी (कुछ अन्य लोगों के प्रतीक स्वरूप) को अहसान मान रहा है (पर किस पर? स्पष्ट नहीं होता) और अन्यों की चुप्पी को दुम हिलाना मान रहा है।
ताज्जुब है, न तो इस शेर के संदर्भ का पता है न उस काल का जब यह लिखा गया था, पर इसपर किस्म किस्म की टिप्पणियाँ दे दी गईं हैं। इस शेर को प्रस्तुत करने वाले मित्र को भी संदर्भ का पता नहीं था।
उक्त शेर पर जब मेरी उपर दी गई टिप्पणी मित्र ने पढ़ीं तो एक लंबी टिप्पणी दे मारी। पर उसमें मेरे प्रश्नों का जवाब नहीं था।
मेरी टिप्पणी के बाद प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह की, उक्त मित्र को संबोधित एक टिप्पणी दिखी जिसमें उन्होंने लिखा था - "मुझे अच्छी तरह याद है, राजा दुबे का यह शेर ईमर्जेंसी के बाद धर्मयुग में छपा था।" शेर के प्रस्तुतकर्ता मित्र का ध्यान, गोपेश्वर सिंह जी की इस टिप्पणी की ओर आकृष्ट करते हुए मैंने लिखा, " गोपेश्वर सिंह जी द्वारा इस शेर के संदर्भ के उद्घाटन से शेर को समझने के मेरे ही दृष्टिकोण का समर्थन होता है।" इसपर वह कुछ नाराज से दिखे - कहा, "क्या संदर्भ को पता किए बिना इस शेर पर बात नहीं की जा सकती?" मैंने लिखा, "की क्यों नहीं जा सकती। पर समय को अतिक्रांत कर वर्तमान पर इसे लागू होते कैसे दिखाया जा सकता है? तब अपनी बात को आज के लोगों पर बलात लादने जैसा होगा"
इसका कोई संतोषजनक जवाब उनसे मुझे नहीं मिला। वह मेरी बुजुर्गियत का हवाला देकर कुछ मुझसे सीखने की बात करने लगे।
उनकी संयत टिप्पणियाँ मुझे बहुत अच्छी लगीं। मैंने भी अपनी एक गलती सुधार ली उनको 'सम्मान्य बंधु' से संबोधित कर। असल में उनके प्रोफाईल में उनका वह परिचय नहीं दिया है जो वह वर्तमान में हैं। मैंने उनकी भाषा की शिष्टता और उनके मित्रों के नाम उनकी टिप्पणियों से जान कर उनका अभिज्ञान किया, शक तो पहले से ही था।
अब शेर की मेरे द्वारा की गई व्याख्या अगली पोस्ट में।
-- देखें अगली पोस्ट
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव,
गोरखपुर,
14-11-2021 ।


Thursday, 4 November 2021

भइल बियाह मोर करबऽ का (कहानी)

 


शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव 27-10-2021

सार्विक!
आज मैं तुझे एक और कहानी भेज रहा हूँ। इसे भी माँ (तुम्हारी परदादी) से मैंने बचपन में सुनी थी।
बचपन में कहानी सुनना एक मौज की बात होती थी। जब भी मन करता था मैं कहानी सुनाने का आग्रह करता और माँ मुझे कहानी सुना देती थी। लेकिन यह रोज का कोई बँधा नियम नहीं था। माँ को बस फुरसत भर होनी चाहिए थी, चाहे दिन हो या रात। रात का समय ज्यादा सुविधाजनक होता था। कहानी सुनने और सुनाने में कोई बाधा नहीं पड़ती थी। दिन में यह निश्चिंतता नहीं मिलती थी। दिन में कहानी सुनाने और सुनने में कोई न कोई बाधा आ ही जाती है और तब कहानी सुनने का सारा मजा किरकिरा हो जाता है।
मुझे याद आता है, यह कहानी माँ से मैंने कई बार सुनी थी। अभी पढ़ने नहीं जाता था तब भी और जब पढ़ने जाने लगा तब भी। कई बार सुनने से ही यह आज भी मेरी याद में बनी हुई है। इस कहानी के कहने का टोन बहुत आकर्षक था। देखें मेरे कहने से उसमें वह आकर्षण आ पाता है या नहीं।
शायद वह अंतिमवाँ बार था जब मैंने यह कहानी सुनी थी। उस दिन मैं बहुत थका माँदा था। खेलता तो मैं रोज था अपने जोड़ के लड़कों के साथ, लेकिन उस दिन कुछ और भी खेल हो गया था। रोज की तरह उस दिन भी मैं खेलने निकला था। माँ से कहा और घर से कुछ ही दूरी पर स्थित बगीचे में खेलने निकल गया था।
खेलने जाने के लिए हम लड़कों पर कोई बंदिश नहीं थी जैसी हम तुम लोगों (नाती पोते) पर यहाँ शहर में लगाते हैं। क्योंकि तब वहाँ किसी तरह का डर नहीं होता था- कहीं खो जाने का, किसी तरह की मार पीट का या और किसी तरह का। कोई लड़का गाँव की हद के बाहर नहीं जाता था। खेल भी थोड़े से ही थे- कबड्डी, गुल्ली डंडा, एकट दुकट, पाईघुच्ची, पतंग उड़ाना, ठाढ़ी चिक्का और चाभा सेख। इसे खेलने के लिए गाँव से बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी, जैसे फुटबाल वगैरह खेलने लिए पड़ती है। हाँ एक बात का डर तब बहुत सताता था जब यह सुनाई पड़ जाता था कि आस पास के किसी गाँव में धरकोसवा आ गया है। इस धरकोसवा को मैंने कभी देखा नहीं। सयाने लोग कहते थे कि एक आदमी चलता है भीख माँगने के बहाने। वह कंधे पर कपड़े का एक बड़ा सा थैला लटकाए रहता है। जब गाँव में चारो तरफ कभी सन्नाटा पड़ जाता है तब वह किसी छोटे बच्चे को अकेला पाकर उठा लेता है और उसे थैले में रख कर चलता बनता है। वे लड़कों को ले जाकर किसी शहर में बदमाशों को बेंच देते हैं। वे बदममाश उनसे भीख मंगवाने का काम कराते हैं। इससे लड़के जब बाहर खेलने निकलते तो झुंड मे निकलते थे। कभी कोई छोटा बच्चा घर से बाहर खेलने जाने के लिए जिद पकड़ता तो माताएँ धरकोसवा का नाम लेकर उसे डराने लगती थीं- "ऐ, बाहर मत जाना। जाओगे तो धरकोसवा पकड़ लेगा।" मैं खेलने के लिए कई लड़कों के साथ मिल कर बाहर निकलता था।
उस दिन बगीचे में मैं तीन-चार लड़कों के साथ 'चाभा शेख' का खेल खेल रहा था। इस खेल को कम से कम दो लड़के मिल कर खेलते थे। अधिक भी हो सकते थे। कुछ दूरी पर दो निशान बना दिए जाते थे। एक ओर के स्थान पर फट्ठे की चौड़ाई की एक गुभी (हल्की गहराई और लंबाई की दरारनुमा) खोदी जाती थी जिसपर लकड़ी का गोला रखा जा सके और उसके नीचे फट्ठा डाल कर गोले को फेंका जा सके। इस छोर पर एक लड़का खड़ा हो जाता था। उसके हाथ में बाँस का एक फट्ठानुमा छोटा डंडा होता। वह गुभी के पास फट्ठा लेकर वैसे ही खड़ा होता जैसे आज के क्रिकेट का बैट्समैन गिल्ली रखे डंडों के पास। और दूसरे छोर पर दूसरा लड़का या लड़के खड़े हो जाते। इस छोर का लड़का गोले को गुभी के आगे के सिरे पर रख कर फट्ठे से गोले को उनकी ओर फेंकता था और दूसरे छोर वाले लड़के उस गोले को लोकने को तैयार रहते थे। यदि दूसरे छोर वाला कोई लड़का गोले को लोक लेता था तो इस छोर का गोला फेंकने वाला लड़का आउट हो जाता था तब उस गोले को लोक लेने वाला लड़का गुल्ली फेंकने वाले लड़के का स्थान ले लेता था और गोले को लोक लेने वाला लड़का गोले को फेकने वाले लड़के के स्थान पर आ जाता था। अगर गोले को कोई लड़का नहीं लोक पाता था तो गोला जहाँ जा कर रुकता था वहाँ से वह लड़का उस गोले को उठा कर गुभी की ओर इस तरह फेंकता था कि गोला गुभी को छू ले। इधर का गोला फेंकने वाला लड़का अपने डंडे को गुभी के आगे मुख पर रख देता था। यदि गोला गुभी को छू लेता था तो गोले को डंडे से फेकने वाला लड़का आउट हो जाता था। तब दोनों गोला फेंकने और लोकने वाले एक दूसरे के स्धान पर आ जाते थे। यदि गोला गुभी से दूर जाकर रुकता तब गुभी के पास से, जहाँ फट्ठा रखा होता उस गोले तक की दूरी फट्ठे से नापी जाती। फट्ठे को बार बार पलट कर पलटने की अदद को गिनते हुए गोले के पास तक ले जाया जाता और देखा जाता था कि कितनी बार फट्ठे को पलटा गया। यह गिनती भी अनूठे ढंग से होती थी। लड़का फट्ठे को गुभी के पास पहली बार रखता तो गिनता एँड़ी (एक), फिर फट्ठे के अगले सिरे पर निशान बना कर उसे आगे रखता तो गिनता दोंड़ी (दो)। इसी तरह तेंड़ी (तीन), चौका (चार), पंजा, छक्का, चाभा (सात) शेख (आठ)। फिर और आगे बढ़ना होता तो फिर से ऐसे ही गिनती होती और उसे हममें से ही कोई एक मुँहजबानी याद में रख लेता। तय समय में जो दल अधिक स्कोर बनाता था वह जीत जाता था। ऐसा लगता है किसी जमाने में यहाँ किसी शेख का कब्जा रहा होगा। और उस समय के लोगों को केवल आठ तक की ही गिनती आती होगी और वे आठ की गिनती 'शेख' पर समाप्त करते थे।
उस दिन वह खेल खेलकर सभी लड़के चले गए। मैं कुछ पीछे रह गया। मैं चलने को हुआ तो देखा सामने कई लंगूर दिख रहे हैं। कुछ पेड़ों पर हैं तो कुछ जमीन पर हैं। जो जमीन पर थे मेरे जाने के रास्ते में हैं और कुछ चुन चुन कर खा रहे हैं। मेरे हाथ में डंडा था। मुझे एक शरारत सूझी। मैं बचपन में तुमसे और तुम्हारे पापा से कम शरारती नहीं था। मैं डंडे से मार कर उन्हें भगाने लगा। कुछ तो भाग कर पेड़ पर चढ़ गए पर न मालूम किधर से उनमें से एक लंगूर आया और मुझे उठा कर पटका और भाग कर पेड़ पर चढ़ गया। चोट तो मुझे अधिक नहीं लगी क्योंकि जमीन दो एक दिन पहले की बारिश से नम हो गई थी, लेकिन थकान बहुत लग रही थी। माँ ने जब जाना तब उन्होंने मेरे हाथ पैर सहलाए और फिर मेरी थकान को ही दूर करने के लिए यह कहानी कही। वह भोजपुरी ही बोलती थीं, हिंदी नहीं। यह कहानी उन्होंने भोजपुरी में ही मुझे सुनाईं थीं। मैं उन्हीं के शब्दों में वह कहानी तुझे दे रहा हूँ।
"बहुत पुराना जमाना के बात ह। एगो राजा रहले। बहुत बड़वर ना, छोटहने। उनकर राज बहुत बड़ा ना रहे। ओ जमाना में जवने गाँव में बहुत धन बल वाला आदमी होखें आ जेकर परभाव अगल बगल के दो चार गाँव तक फइलल रहे ऊ ओ इलाका के राजा कहलाव। ओह राजा के भरल पुरल परिवार रहे- ऊ, उनके रानी, दू गो बेटा आ ए गो बेटी। बेटी बड़ा सुन्नर रहे। बोले अईसन जइसे कोइलर बोलेले। नाक नकस त अइसन रहे जे उनकरा खानदान में ओइसन कवनो बेटी कबो भइले ना रहे। सभे ओके बहुत माने, दुलार करे। राजा रानी के त ऊ आँखि के तारा रहे। तनिको भर ऊ आँखि के ओट में हो जाव त ऊ लोग ढेर बियाकुल हो जाव।
धीरे धीरे ऊ लड़िकी बढ़े लागल। तू देखेलऽ न अमावस के बाद चनरमा केङा रोज रोज बढ़े लागेलेऽ, ओइसहीं ऊ लड़िकियो बढ़े लागल। अब गोदी से उतर के ठुमुक ठुमुक के चले लागल। रानी ओकरे पाँव में घुँघरू, हाथ में बाजूबंद आ कमर में करधनी पहिना देले रहली। अइसने में जब ऊ चले त ओकर टेढ़ मेढ़ गिरत पड़त चाल देख के राजा के पूरा परिवार हँसते हँसते लहालोट हो जाव। आ घुँघरू करधनी झुन झुन झुन झुन क के जब बाजे त ओके आवाज के सुन के सभे के हिया फुला जाव। आ रानी त अइसन अगरा जास की दउर के अपना बेटी के अँकवारी में भर लेस आ ओके चूमे चामे लागें। राजा के खुसी के त कवनो ओरे ना रहे।
राज के ऊ राजकुमारी धीरे धीरे बढ़े
लागल। बढ़ के एक दिन बियाहे लायक हो गईल। बढ़ला पर ओकर बुधियो बढ़ गइल। ऊ एतना हुँसियार हो गइल की राजकाज में राजा के सलाहो देबे लागल। कवनो कवनो ओकर सलाह राजा आ मंतिरी के अचरज में डाल देव। "एतना सटीक जबाब ए सवाल के त हमहू लोग ना हल क सकऽतीं" -ओ वखत राजा सोचे लागस। एतना हुँसियार लड़िकी खातिर ओ राजकुमारो के एतने हुँसियार होखे के चाहीं जेसे राजकुमारी के बियाह करब।
राजा आ रानी के कपारे अब राजकुमारी बेटी के बिआहे के फिकिर सवार हो गइल। हुँसियार बेटी खातिर हुँसियारे बर चाहीं। राजदरबार के जेतना दरबारी लोग रहे राजा ओ सबके काने में राजकुमारी के बियाहे के बात डाल दिहले। जोर सोर से बियाह खोजाए लागल। बाकी बियाह तय होखे के नामे ना ले। दरबारियो लोग हार गइल, मंतरियो राजकुमारी के लायक कवनो लड़िका ना खोज पवले। राजा जब देखले की जइसन बियाह ऊ तय करे के चाहऽतारे ओ मन माफिक बियाह नइखे तय हो पावत त ऊ पुरोहित जी के बोलवले। आ उनकरा से कहले- "पुरोहित जी अब ई काम रउए के हम सउँपऽतानी। ई बियाह रऊआ तय कराईं। जवन आ जहाँ रउआ तय कर देब हम आँखि मूँद के ओके मान लेब आ ऊँहवे राजकुमारी के बियाह क देब। जाईं बियाह खोजे के तइयारी करीं। जवन चीज के जरूरत होखे मंतरी जी से माँग लीं।"
पुरोहित जी राजकुमारी के बियाह तय करे खातिर जरूरी सामान साथ में ले के चल देहले। राहे में उनकरा मन में आईल जे ई राजा बड़ा घमंडी हवें। ई हमरा साथ बेवहार आछा ना करेलेऽ। जेतना मान जान ए राज में हमार होखे के चाहीं इनही के कारन ना हो पावेला। इनके खातिर जे बाड़े से ऊ मंतिरिए बाड़े। एगो ऊ मसखरवा बा। दिन रात ऊ इनके साथ लागल रहेलाऽ। रायो बात एही लोग से राजा करेलेऽ। हम जइसे कवनो गिनितिए में नइखीं। हमरा अछइत ईहे लोग हमरा ऊपर रही? ना, खूब बढ़ियाँ मौका मिलल बा। अब हम इनके सिखाएब।
ईहे सोचते पुरोहित जी एगो रजवाड़ा में पहुँच गइले। ऊहो छोटहने राज रहे। राजा से बात चलवले। राजकुमार के देखले बाकी बात ना बनल। फेर दोसरे रजवाड़ा गइले। अइसहीं घूमत घूमत जेतना रजवाड़ा के ऊ जानत रहले सब जगह हो अइले। बाकी कहीं राजकुमारी लायक बियाह ना पटल। कहीं पटहूँ लायक लागे त पुरोहित जी के, राजा से डाह ओके ना पटे देहलस। आखिर में हारपाछ के पुरोहित जी लवटि चललें।
चलते चलते उनकरा मने में आइल कि "राजा त बियहवा तय करिए के आवे के कहले बाड़े। आ हम जइसन तय क देब ओके ऊ मनबेऽ करिहें। अइसने हमसे कहले बाड़े। बाकी हम करीं का? सोच ना पावऽतानी। आछा, आगे बढ़ीं कुछ ना कुछ होबे करी।"
इहे सोचते पुरोहित जी लवटत रहले। राहे में उनका पियास लागल त चारू ओर देखले, कहाँ पानी मिली। कहीं कवनो पोखरो ओखरो ना लउकल जे उहाँ जाके दू अँजुरी पानी पी लेस। एक जगही उनके कुछ औरतन के भीड़ देखाई देहलस। नियरे गइले त देखले उ औरत सब ईनार से पानी भरत रहे। ओइमें से एक औरत से कहले-
"हम पानी पीए के चाहऽतानी। बड़ी जोर के पियास लागल बाऽ।"
ऊ औरत उनके टीका चंदन लगवले देख के कहलस- "पाऽ लागीं पंडित जी। लीं पानी पीं।"
पुरोहित जी ओ औरत के आगे आपन अँजुरी बढ़ा देहले। ऊ औरत अपना मटकी के पानी उनका अँजुरी में गिरावे लागल। पुरोहित जी हीक भर पानी पियले आ ओके आसीरवाद दे के जाए लगले। जाए खातिर ऊ पीछे मुड़ले त उनके काने में कुछ बतकही करत जईसन आवाज सुनाई पड़ल। ऊ औरतिया सब पानियो भरत रहे आ आपसे में कुछ बतियावतो रहे। पुरोहित जी धियान से ओ बतकही के सुने लगले। एगो औरत दूसरकी से पूछत रहे -
" का हो फलाना ब (बहू), ओ मउगी (व्याहता स्त्री) के का हालचाल बा जवना के हमन के गँठिधर कहिलेऽ?"
दूसरकी कहलस-
"अछा ऊ! ऊ अपने में मस्त रहेले। कल्हिए ओकरा घर के सामने से हम निकलत रहनी त ओसे पूछनी, तहरे मलिकार के का हाल बा? कहीं गइल बाड़े का, लउकत नइखन? त ऊ बोललस"-
"अउर कहाँ जइहें। आपन दे के बउराए गइल बाड़े ( माने ताड़ी पीए गइल बाड़े)।"
पुरोहित जी ओ औरतन के एह तरह से जब बतियावत सुनलेऽ त उनका मन में हुकुर पुकुर (उधेड़बुन) होखे लागल। उ कुछ अउर जाने के चहलन। उनका लागल जे अब उनकर काम बन जाई। हमके ओ मउगी के बारे में पूरा भेद लेबे के चाहीं। ओ मउगी के ई सब गँठिधर कहताऽ। एकर का मतलब भइल। ए औरत के घर के सब उदिया गुदिया (पूरा परिचय) जाने के चाहीं। पुरोहित जी आगे ना बढ़ के पीछे मुड़ले आ ओ औरतिया सब से बतियावे लगले। ऊ औरतियो सब पुरोहित जी से हिल मिल के बतियावे लगलिन आ बाते बाते में ओ औरत के घर के सब उदिया गुदिया बतला दिहलिन। ऊ सब ईहो बता दिहलिन जे ओकरा बारे में गाँव में एक कहावत बन गइल बा। कहावतो बता दिहलिन।
पुरोहित जी ओ औरतन से ओह औरत (मउगी) के बारे में सब कुछ जान के ओकर घर दुआर, लड़िका, माई- बाप सबके देख अइले। आ ओ कहावत के मतलबो समझ गइलन। सब देख के ऊ मने मने बहुत खुस भइलन। सोचलन जे अब उनकर मुराद पूरा हो जाई, लागऽता। हम राजा से बदलो ले लेहब आ राजकुमारी के बियहवो हो जाई। बियाह हो गइला पर के केकर का क लेलाऽ।
ऊ खुसी खुसी राजभवन पहुँचले आ बियाह तय होखे के खुसखबरी राजा के दे देहले। ई खबर सुनि के राजा रानी के खुसी के ठेकाना ना रहे। राजा पुरोहित जी से पूछले-
"तनी बताईं कइसे ई बियाह तय भइल हा। लड़िका कइसन बा। राजकुमारी जोगे बा नू!"
पुरोहित जी ओ घर परिवार के बारे में सब कुछ राजा के बता देहले। कुछ अपना तरफ से भी जोड़ के ओ परिवार के बड़ी बड़ाई कईले। ऊ जवन कहावत ओ औरतन से सुनले रहले ओईमें कुछ सुधार क के एगो पदे में राजा से ऊ कहावतो कहि देहले। ओ घरी के ईहे रीत रहे। कवनो बात के पद बना के राग में कहला से कुछ परभाव जम जाव। पुरोहित जीकहलने, लीं सुनीं ओ घर परिवार के बारे में-
"घरवा ह चनरघर
बरवा ह बँसिधर
मरदा ह आगिल पाछिल
मउगी ह गँठिधर।"
पुरोहित जी के बात सुनि के राजा-रानी के हिया हुदुर बुदुर करे लागल (हृदय उत्सुकता से भर गया)। ऊ लोग सोचे लागल जरूर ई बियाह कवनो बड़का राजा के घर पुरोहित जी तय क के आइल बानी। राजा पूछले-
"पुरोहित जी एकर मतलब का भइल, तनी अरथा के बताईं। कवना राजा के ईहाँ ई बियाह तय क के आइल बानी?"
पुरोहित जी जवन देखले रहले आ ऊहाँ जवन कहावत सुनले रहले ओइमें आपन अरथ भर के राजा से कहले-
" महाराज! केहू राजा के ईहाँ ई बियाह हम नइखीं तय कइले। कई राजा लोग किहाँ हम गइनी बाकी ऊ राजकुमार लोग हमरा के राजकुमारी लायक ना लगलें। ई बियाह एक अइसन घर में हम तय करके आइल बानी जेकर बात-बेवहार राजा लोग जइसन बा। आ लड़िका त बहुते सुन्नर बा। डील डौल बिलकुल राजकुमारी जोगे। ई पद में जवन हम रउआ के बतवनी हा हमार बनावल त ह बाकी ओ गाँवे में कहू से पूछला पर लोग एहींगा ओ घर के पहचान बतावेला। एकर मतलब एङा समझीं- 'घरवा ह चनरघर' माने लड़िकवा के घर अइसन बनल बा जेके हर कोठरी में चनरमा के चाँदनी चमकत रहेला। 'बरवा ह बँसिधर' माने ऊ बर (बियाह वाला लड़का) बहुत सुघर बा। 'मरदा ह आगिल पाछिल' माने लड़िका के बाप कवनो बात के निरनय लेबे में तनी आगा पीछा करेला बाकी सही निरनय लेबेला। 'मउगी ह गँठिधर' माने लड़िका के माई के कमर में एक तिजोरी के ना कई तिजोरी के चाभी लटकत रहेला।"
पुरोहित जी राजा-रानी के चकमा देबे में सफल हो गइलें। रजो रानी ई सुनि के बड़ा खुश हो गइल लोग। राजा बियाह के बेवसथा पुरोहिते जी के हाथ में दे दिहले। पुरोहितो जी बारात के आवे जावे के अइसन इंतजाम कइले की बियाह होखे तक बर-पछ के पोल ना खुलल।
असल में जवन बात पुरोहित जी राजा-रानी के पद में कह के बतवलन ओ पद के असल मतलब जवन ऊ अरथवले ऊ ना रहे। असल मतलब ई रहे-
'घरवा ह चनरघर' माने ओकर घर चनरमा के घर ह।ओ घर में चनरमे के रोसनीए से काम चलेलाऽ। दीया बाती के जरूरते ना पड़ेला। 'बरवा ह बँसिधर' माने बरवा के नाके में हरमेसा पोंटा (नेटा) भरल रहेला। 'मरदा ह आगिल पाछिल' माने बर के बाप पियक्कड़ हवे। पीए खातिर आगा पीछा कइले रहेला बाकी पीए जरूर जाला। 'मौगी ह गँठिधर' माने लड़िकवा के माई जवन लुगा पहिने ले ऊ एतना फाटल रहेला की आपन लाज बचावे खातिर जहाँ जहाँ लुगा फाटल रहेला उहाँ उहाँ ऊ गाँठ बन्हले रहेले।
राजा के ई बात कबो मालूम ना भइल। काहेकि राजा अपना दामाद के अपने पास बुला लेहले। बाद में जनलो होइहें त का कर लेले होइहें। अब बियहवा त होइए गइल रहे। लोग कहते करेलाऽ, 'भइल बियाह मोर करबऽ काऽ।'
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
सोमवार,
27 सितम्बर, 2021,
गोरखपुर।

Sunday, 12 September 2021

सार्विक सुनो कहानी


 #सार्विक सुनो कहानी


सार्विक, मेरे पोते!


जब तुम छोटे थे तब तुम्हें कहानी सुनने का बहुत शौक था। मुझे भी कहानी सुनाने में आनंद आता था। अक्सर तुम मुझे कहानी कहने के लिए छेड़ते रहते थे- "दादू एक कहानी कहिए।" कभी कभी मैं तुम्हें भी उकसाता  - "तुम भी तो कोई सुनाओ।" तो बिना ना-नुकुर किए तुम भी सुना देते थे। कहानी सुनाने में तुम थोड़ा अटकते जरूर थे पर कहानी के प्रवाह में कोई बाधा नहीं पड़ती थी।


रहते तो हो तुम अपने माता-पिता के साथ मुजफ्फरनगर में, पर स्कूल की छुट्टियों में गोरखपुर जरूर आते हो। छुटपन में जब आते थे तब कहानी सुनने का तुम्हारा आग्रह देखते बनता था। अब तो तुम पाँचवी कक्षा के छात्र हो। कुछ छोटी मोटी कहानियाँ लिखने भी लगे हो। उन कहानियों को फेसबुक पर भी देने लगे हो। तुम्हारा बाल-मन उन कहानियों में खूब क्रीड़ा करता दिखाई देता है। तुम्हारी कहानियों में बालसुलभ कौतूहल के साथ आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों की भी चर्चा रहती है। उन कहानियों पर तुम्हें लाईक भी खूब मिलते हैं।


अब तो बाजार में तरह तरह की कहानियों की किताबें आने लगी हैं। किसी में कहानी चित्रकथा में होती है तो किसी में किस्सा की तरह, किसी में शिक्षाप्रद कहानियाँ होती हैं तो किसी में मनोरंजक। लेकिन तब मैं तुम्हें पंचतंत्र, हितोपदेश या ईशप की बोध कथाएँ (ईशप्स फेबुल) ही सुनाया करता था। 'पंचतंत्र' में दुनिया की सबसे पुरानी कहानियाँ हैं। ये अपने देश भारत में लिखी गईं। 'हितोपदेश' और 'ईशप्स फेबुल'  की कहानियाँ पंचतंत्र के आधार पर ही लिखी गई  हैं। तुम्हारा भोला मन कहानियों को सुनने में खूब रुचि लेता था। पर कभी कभी किसी कहानी के किसी स्थल पर तुम्हारा बाल-मन प्रश्नों की झड़ी भी लगा देता था। जैसे, शेर-खरगोश की कहानी सुन कर तुम आश्चर्य में पड़ जाते थे-


 "तो क्या कुँए में सचमुच का शेर था?", "उस जमाने में ये जानवर क्या बोलते भी थे?" 


तुम्हारे इन सवालों का जवाब देना मेरे लिए बड़ा कठिन होता था। बच्चों के कुतूहल भरे प्रश्नों का जवाब देना वैसे भी कठिन होता है। क्योंकि इसमें 'क्यों' की भरमार होती है। इसमें उनका भोलापन, उनकी सरलता, उनकी निर्दोषिता घुली मिली रहती है। जवाब देते समय इस बात का भी ख्याल रखना पड़ता है कि उस जवाब से उनके इन सहज उपलब्ध गुणों को क्षति न पहुँचे। मुझे तुम्हारे प्रश्नों के जवाब देते समय हमेशा इस बात का ध्यान रखता पड़ता था।


इस बार कोरोना (सर्दी, खांसी, बुखार से मिलता जुलता एक प्रकार का संक्रामक रोग) की छुट्टियों में अभी कुछ दिन पहले तुम आए थे तो दादी को अस्वस्थ देख तुम्हारी चंचलता में कुछ कमी आ गई थी। इस बार तुमने मुझसे कहानी सुनने की जिद नहीं की। तब मैंने सोचा अब तुम्हें सामने बिठा कर या सोते समय कहानी कहने से बेहतर है कहानी लिख कर तुम्हें भेज दूँ। क्योंकि कहानी सुनने की तुम्हारी जिज्ञासा में कोई कमी आई नहीं दिखती।


सोचता हूँ अबकी बार  तुम्हें ऐसी कहानी लिख कर भेजूँ जो पंचतंत्र की कहानियों से कुछ अलग किस्म की हो। उसमें गाँव का हवा-पानी हो और चाल भी गाँव की हो ताकि तुम्हारे ध्यान में यह आए कि समय के बदलने से आज का जमाना कितना कुछ बदल गया है। तब लोगों का बात व्यवहार, रहन सहन कैसा था और आज कैसा हो गया है। इसी गोरखपुर में जब मैं आया था तो यह जगह चकसाहुसेन (अब छोटी कालोनी पार्वतीपुरम) शहर की सीमा से बाहर था। जब शहर की आबादी बढ़ने लगी तब पास के गाँवों मिला कर शहर की सीमा बढ़ाई गई। गोरखपुर में इस समय जहाँ हमारा मकान है वहाँ पहले पचपेड़वा के पाँच गाँवों में से एक यह चकसाहुसेन गाँव था। अब यह शहर का हिस्सा है। सत्तर के दशक में इस गाँव को शहर में मिलाया गया। उस समय गाँव के लड़के शहर का निवासी कहलाते हुए भी बकरियां चराते थे। तब हमारे इस घर के सामने के खाली स्थान में गाँव के औरतें-बच्चे अपनी बकरियाँ चरने के लिए छोड़ देते थे। कभी कोई बकरी हमारी बाउण्ड्री में लगे पौधों को नुकशान पहुँचाती तो हम उसे मार कर भगाते, तो वे हमसे लड़ पड़ते। ताना भी मारते "पता नहीं कहाँ से आ के इ लोग बस गइल बा। अब हमन के बकरियो ना चरा पावऽताटी।"


किसी गाँव को अचानक शहर में कर देने से गाँव का चाल-चलन, वहाँ के लोगों का रहन सहन एकदम से बदल तो नहीं जाता। अब धीरे धीरे ये लोग अपने को शहर का महसूस करने लगे हैं और बच्चे स्कूल भी जाने लगे हैं। इनकी संख्या देख कर अब हमारे इर्द गिर्द ही अनेक स्कूल खुल गए हैं, सड़कें बन गई हैं, बिजली लग गई है। अब तो पानी की सप्लाई भी होने लगी है।


पर कुछ ऐसी भी बातें होती हैं जिसमें बदलाव एकदम से आ जाए तो संस्कार में टूटन आने लगती है। पर यदि बदलाव धीरे धीरे हो तो बदलते संस्कार अपने से लगने लगते हैं। जैसे, एक समय था जब गाँव के लोग गन्ने की खेती करते थे और गन्ने से गुड़ वे स्वयं ही बनाते थे। लेकिन जब चीनी बनाने वाली सुगर मिलें खुलीं तो गन्ने सुगर मिलों में ले जाए जाने लगे। पहले तो लोग घबड़ाए किंतु बाद में मिलों के आस पास के गाँवों में रहने वाले लोग मिलों में काम करने जाने लगे। लेकिन उनकी जीवनचर्या में एकबारगी बदलाव नहीं आया, धीरे धीरे आया। मिलों में काम पर जाने के लिए उन्हें दौड़-भाग नहीं करना पड़ता था। इधर मिल का पहला भोंपू बजा कि वे तैयारी करने लगते। दूसरा भोंपू बजते घर से चल पड़ते। और तीसरा भोंपू बजे इसके पहले वे मिल पर पहुँच जाते थे। मिलें अपने कर्मचारियों को बहुत सुविधाएँ भी देती थीं। उनकी घर की जरूरतों के अनुसार चारपाई, सुतली, नेवार और लालटेन वगैरह भी अपने स्टोर से वितरित करती थीं। उनके टूट-फूट जाने पर उसे लौटना कर दूसरी ईशू कर देती थीं। एक तरह से  मिलें गाँव-जवार के लोगों की लाईफ लाईन बन गई थीं। तुम्हारे परदादा खुद हथुआ सुगर मिल के एक सीनियर क्लर्क थे। यह सब मेरा देखा भाला है। मिलों का खुलना लोगों के जीवन चर्या में किसी तरह का खलल पैदा नहीं किया।


ऐसे ही परिवेश में मेरा ग्रेजुएशन (यानी बी एस सी की पढ़ाई) तक का जीवन बीता। गँवई वातावरण में बीते मेरे जीवन का आकर्षण आज भी मेरे भीतर बना हुआ है। रह रह कर आज भी वे शामें मुझे याद आने लगती हैं जब मैं और मेरी माँ (तुम्हारी परदादी) आँगन के ओसारे में कमरे के एक तरफ बने कउड़े की आग तापते थे। मैं कउड़ा तापते हुए दीए के उजाले में पढ़ता था और पढ़ते पढ़ते जब ऊँघने लगता था तो माँ मुझे जगाती थी- शेषऽ! (ष का दीर्घ उच्चारण)! और मैं झटक कर उठ जाता था। इस झटक कर उठने में मेरे कई पेन कउड़े में गिर कर जल गए। कउड़े के पास बैठे बैठे हम खाना खाते थे। मुझे जगाए रखने के लिए माँ कोई मजेदार कहानी कहने लगती थी।


उन कहानियों में से एक कहानी मुझे इस समय याद आ रही है। उसे लिख कर मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। यह कहानी एक बहुत पुराने समय के गाँव की है। इसे सुना कर मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि तब के गाँवों की क्या स्थिति थी। तकलीफ में रहते हुए भी गाँव के लोग अपना धैर्य और आपसी व्यवहार में सलीका नहीं खोते थे। इस कहानी की नायिका एक ससुरइतिन ( ससुरार में रहने वाली) लड़की बसमतिया की है।  उसके पिता जी जब उससे मिलने उसके घर जाते हैं, उस समय उसके द्वारा अपने पिता से घर का हाल चाल जानने का तरीका बड़ा रोचक और सलीके वाला है।


यह कहानी मैंने माँ से जैसी सुनी थी वैसी ही तुम्हें सुना रहा हूँ। माँ की बोली में तो यह और अच्छी लगती थी। मेरी भोजपुरी माँ की सहज भोजपुरी से हल्का सा अलग लगती है मुझे।


तब मैं शायद कक्षा पाँच या छै में पढ़ता था। रोज की तरह उस दिन शाम को लालटेन जला कर मैं बाहर के सहन में पढ़ने बैठ गया था। वह जाड़े का महीना था। मैं ओढ़ना ओढ़ के बैठा था पर ठंढ कुछ अधिक ही थी। मुझे आलस आने लगा और बाहर पढ़ते पढ़ते नींद भी आने लगी। तब मैं उठा और सीधे आँगन के ओसारे में जल रहे कउड़े के पास जाकर बैठ गया। यह कउड़ा जाड़े भर जलाया जाता था। माँ वहाँ कउड़े की आग तापते हुए खाने के लिए मेरा इंतजार कर रही थी। कउड़े के पास दीयट पर दीया जल रहा था। अंधेरा गहरा होने से रोशनी अच्छी मिल रही थी। मैंने किताब खोला और पढ़ने लगा। माँ उठी और खाना लाने चली गई ताकि साथ बैठ के खाया जाए। वह खाना लेके आई तो मैं पढ़ते पढ़ते ऊँघने लगा था। वह थाली नीचे रख ही रही थी कि मुझे जोर की झपकी आ गई और मैं कउड़े में गिरने गिरने को हो गया। तभी माँ ने मुझे संभाल लिया। मुझे कउड़े की आग में झुलसने से बचाते हुए बोली- 


"देखऽ अब तहरा नींद आवऽताऽ। किताब बंद करऽ। खनवो थोड़ी देर बाद खाइल जाई। लऽ ई कहानी सुनऽ। नींद तोहार टूटे। तहरा कहानी सुने में बड़ा मन लागेला।


"बहुत पुराने जमाने के बात हऽ। एक गाँव में एगो परिवार रहे। गाँव के नाँव तऽ ईयाद ना बा। बाकिर ऊ गाँव छोट रहे, ईहे कवनो आठ-दस घर के। ऊ परिवार बहुत गरीब रहे। परिवार में कुल चार जने रहले- माई, बाप, एगो लड़िका आ एगो लड़िकी। लड़िकिया के नाम रहे बसमतिया। ऊ बियाहे लायक हो गईल रहे। लड़िकवा अभी छोट रहे। 


बापे के पास थोड़ा जमीन रहे। ओही के ऊ जोतस बोअस। ओही से अपना परिवार के खाना खोराकी चलावस। घर दुआर माटी के रहे। कवनो घर में चउकठ केवाँड़ ना लागल रहे। ले दे के दू गो घर (कमरा) रहे। चोरी-चमारी के डर से केंवाँड़ के जगही ओइमें ताड़ के बड़का पत्ता कैसहूँ बाँध दिहल रहे।


ओ जमाना में ओ गाँव के लड़िकन के पढ़ावे लिखावे के कवनो चलन ना रहे। सहर से दूर- दराज के गाँव में त आजो स्कूल ना बा बाकी जेकरे घर के कवनो अदमी बहरा कमाता ओकर लड़िका बहरे रहि के कुछ पढ़ लिख लेताऽ।


ओ घर में एके आदमी कमाए वाला रहे। खेती से कइसहूँ खाना खोराकी भर अनाज हो जाव। कभी मजूरियो करे के पर जाव। ओ लोग के दिमाग दिन रात खाना खोराकी के जोगाड़े में अँटकल रहे। एने अब बीटिइयवो बियाहे जोग हो गइल रहे। ओके बियाहे के फिकिर अब ओ माई- बाप के कपारे सवार होखे लागल। जब अड़ोसी पड़ोसी ओकरा बियाहे खातिर ओ लोग के टोके लागल त ऊ लोग घर के अउर सब चिंता छोड़ि के लड़िकिया बसमतिया के बियाहे के फेर में जी जान से लाग गइल। 


ओकरे बियाहे खातिर ऊ दूनो परानी के बड़ा दउरे के परल। एह गाँवे, ओह गाँवे, ना जाने केतना गाँवे ऊ लोग धवलें। कब साँझ भइल कब बिहान एकर पते ना चलल ऊ लोग के। बाकी बीधी के बीधान केऽ जानेलाऽ। आखिर ऊ लोग के भाग दौड़ रंग लिअइलस। लड़िकी के बियाह तय हो गइल। उहो कवनो बहुत दूर  में ना, दू तीन गाँव के आँतर पर। सबसे बढ़ि के त ई भईल कि उ बियाह एगो खाते पीते घर में तय हो गइल। लड़िकी के भाग से ओ घर में कवनो चीज के कमी ना रहे। लड़िको वाले लड़िकी के बारे में अगुआ से पूरा जान समझ के- घर वालन के रहन सहन, लड़िकी के रंग रूप, सुभाव, ऊ कामधाम करे वाला बा की ना, ई सब जान समझ के, बियाह करे खातिर हाँ करि देहलें। घर दुआर देखे देखे ना गइल लोग। बियाह के दिन तय हो गईल आ सब रस्म रिवाज निभा के बियाहो हो गईल। लड़िकी के बिदाई के दिन धरा गइल आ लड़िकी बसमतिया ससुरारी चल गईल।


ससुरार में लड़िकी अब दुलहिन कहाए लागल। दुलहिन के अइला पर सास के जाँगर में फुरती आ गइल। उनके खुसी के ठेकाना ना रहे। एके साँस में ऊ घर के सब कोना ओके देखा देहली। "ई तोहार कमरा हऽ। हेइमें सब रासन पताई रहेलाऽ। हे कमरा में रसोई बनेलाऽ। ए रसोई घर के तू खूब साफ सुथरा रखिहऽ। सफाई से खाना बनइह। आ देखऽ, हमरा घर में कवनो दाई ना बा। सब बर्तन बासन खुदे धोए के परेलाऽ। अब तू एक घर के मालकिन बाड़ू। कवनो चीज के जरूरत पड़े त सँकोचइहऽ मत, ले लिहऽ। हमरा से माँगे के जरूरत नइखे। ई दोगहा हवे। घर के काम काज से खाली भइला पर हम ईंहे बइठीलेऽ। आवऽ तनि देर बइठऽ। अऊर हाँ, निकसार पइसार जाए के होखे तऽ देखऽ, हो कोना में एगो छोट कोठरी बाऽ। ओईमें पायखाना जाइल जाला। सुबहे उठिहऽ आ सबसे पहिले हो लिहऽ।-- आछा, तनि एक गिलास पानी पिया दऽ आ जा अपना कमरा में आराम करऽ।


सास आपन घर-आँगन के सब पेंच समझा के घर के सब जिमेदारी दुलहिन के सँऊप देहली। ऊ लड़िकियो बड़ी लगन से सास ससुर के आपन माई बाप लेखे मान के सेवा करे लागल। गाँव जवार के लोग भी ई जान के बड़ा खुश रहे। सबके मुँह से ईहे बात निकले की ए घर में बड़ी लियाकत वाली बहू आ गइल बाऽ।


लड़िकियो अपना बेवहार, बात विचार से घर के लोग के त मन मोहिए लिहलस, ओ गाँव के लोगो, ओकरे मेल जोल रखे के ढंग के देख के  बड़ा खुश रहे लागल। लड़िकी के अदमियो बड़ा सुघर आ बेवहार वाला रहे। अपना मेहरारू के बड़ा मान जान करे। कमासुतो रहे। ससुरो ओ से बहुत खुस रहें। धीरे धीरे ओ घर के दिन अछे तरह से बीते लागल। 


एहीमें एक दिन ओ घर के दोगहा के किवाड़ पर ठक ठक के आवाज भईल। दोगहे में सास बइठल रहली। आवाज सुनि के आँगन में आवाज देहली- 


"ए दुलहिन, देखबूऽ बाहरा केऽ आइल बाऽ।" 


दुलहिन केवाँड़ खोलली आ केवाँड़ खोलते अगरा गइली, "अम्मा जी, बाबूजी आईल बानी।--- बाबूजी, आईं, अंदर आईं। ई अम्मा जी बइठल बानी।" 


ऊ दूनो समधिन समधी में परनामा पाती भईल। ऊ लोग एक दूसरे के हाल चाल लेहल। फेर समधी जी समधिन का हाथ में एगो मटकी देहले। ओ घरी रसदार मिठाई ले के लोग आपन रिश्तेदारी में जाव। समधिन मिठाई के मटकी ले के दुलहिन के हाथ में थमा देहली आ ओ से कहली- "दुलहिन, ले जा अपना बाबूजी के अपना कमरा में, पानी ओनी पिआवऽ आ अपना घर के हाल चाल लऽ।"


बसमतिया अपना बाबूजी के आँगन में ले गइल, उनकर हाथ पैर खुदे धोअलस, फेर अपना कमरा में ले गइल। बाबूजी के बिछावन पर बइठा के अपने जमीनी पर पुअरा के बनावल बेठा रख के बइठ गइल आ बतियावे लागल।


"बाबूजी, माई कइसन बिया। ओकर तबियत ठीक रहेला नऽ।"


"हाँ बेटी। तोहार महतारी ठीक-ठाक बाड़ी। उनकर तबियत तनी अनमनाहे रहेला।"


"आ बाबू कइसन बाऽ। हमरा के याद करेला?"


"उहो ठीक बाऽ। तोरा के त बहुत याद करेला।"


" हँऽ हमरा से बहुत लागल रहे नऽ। हमहूँ के ऊ बहुत याद आवेला। का करीं। हमहूँ इहाँ के घर गिरहसती में अइसन फँसल बानी की तनको फुरसत ना मिलेला। क बार इनसे कहनी की चलीं तनी माई बाबूजी के देखि आवल जाव। बाकी इहाँ का जाए के समये ना  निकाल पावऽतानी।


"बाबूजी, घर के अऊर हाल चाल का बा?"


" बाकी हाल चाल त ठीके बाऽ। अब कइसहूँ खेतीबारी हो जाला। तू रहले त तनी सहयतो हो जाव। तोर माई अब केतना का करस।"


असल में लड़िकिया घर दुआर के बारे में ढेर कुछ जाने के चाहत रहे। ओकरा काफी दिन घर से ससुरार अइले भ गइल रहे। ऊ जाने के चाहत रहे कि घरवा वइसहीं उघार पछाड़ के तरह बा की कुछ मरम्मतो वोरम्मत भइल बाऽ। बाकी सीधे पूछे से ऊ डेरात रहे काहे की ओकर सास बगले के कमरा में रहली। जवन ऊ पूछी सब उनके सुनाई देई। अगर अबो घर के उहे हाल होखे त सास के सामने बाबूजी के हेठी हो जाई। बियाहे के वकत त सब बात अगुए के मारफत हो गइल रहे। केहू घरे जाके त घर के हालत जानल नाऽ। ऊ थोरे घड़ी सोचलस फेरू पूछे लागल, सीधे ना पूछ के तनी घुमा फिरा के। अइसे जइसे बुझउवल बुझावत होखे। गाँव में अकसर लोग लड़िकन के बुझउवल बुझावे- 'बूझऽ, सउँसे चँवर में एके गो ढेला।' बूझे का हऽ?' लड़िका लोग ना बता पावें त ओकर जबाब बतावें। जबाब हऽ, 'चनरमा'। अइसन ढेर बुझउवल ऊ सुनले रहे। ऊ हुँसियार सुरुवे से रहे। बाबूजी ई सब जानते रहलें। त ओही भाखा में ऊ बाबूजी से बतियावे लागल। पूछलस- (ओह घरी बाबूजी के बाबा भी कहा जात रहे)


" अबो आकास दीया जरेला हो बाबा?"


"जे तबहीं से अबहीं"-' बाबूजी बोलले।


"एकर मतलब का भइल माई?"- हम पुछनी।


मैं अपनी माँ को माई कहता था। मेरे गाँव में सभी बच्चे अपनी माँ को माई ही कहते हैं। माँ ने इसका अर्थ बताया-


-ओ घर में दीया बाती ना जरे। काहे की गरीबी के कारन दीया जरावे खातिर तेल घर में अइबे ना करे। आसमान में चनरमा उगस त ओही रोसनी में काम धाम होखे। अन्हरिया में रसोई सरिए साँझे बन जाव। बाबूजी कहले 'जइसन तब रहे वईसहीं अबो बाऽ।'


"अछा त एकर मतलब ई भईल। फेर ऊ का पूछली?"- हम माई से पूछलीं।


फेर ऊ पूछलस- 

"झुन झुन केवँरिया बाजेलाऽ हो बाबा?"


" जे तबहीं से अबहीं।"- बाबूजी बोलले।


"झुन झुन केवँरियाऽ?"- फेर हमरा अचरज भईल। 


माई समझवलस। ओकरा घर में ताड़ के बड़का पत्ता के केवाड़ लागल रहे। जब ओके खोलल जाव आ बंद कइल जाव त ऊ झुन झुन करके बाजे।


"ओखरी परेऊआ ढुरेलाऽ हो बाबा?"- 


"जे तबहीं से अबहीं"।


ओ घर के पड़ोस में जब औरत लोग ओखरी में चिउरा ओउरा कूटे त बसमतिया के छोटका भईयवा उहाँ पहुँच जाय आ मूसर के चलला से चिउरा ओउरा के जवन दाना छिटक के बाहर गिरे त ओके ऊ बीन बीन के खाए। परेउआ ऊहे भइयवा हऽ। ढुरेलाऽ माने ओखरी के जेने जेने ओर दाना गिरे ओने ओने दउड़ दउड़ के जाव आ जइसे चीड़ीयवा सब दाना चुगेलेऽ वइसँही दानवा के बीन बीन के खाव।।


"झुर झुर बेनवा डोलेला हो बाबा?"


"जे तबहीं से अबहीं।"


माई एकर मतलब बिना हमरा पिछले बतवलस जे गरमी से जब ऊ परिवार बेहाल हो जाव, जब गरमी ना सहाय त ऊ सब बहरे दरवाजा पर के पेड़ के तरे आ जाव। ऊहाँ झुर झुर कर के जब हवा बहे त अइसन लागे जइसे ताड़ के पत्ता से बनल बेना के डोलवला पर हवा लागेला।


इ सुनि के ओ लड़िकी के बड़ा दुख भइल। बाकी ऊ का कर सकत रहे। ओकरा आँखी से खाली लोर बह के रह गइल। फेर ऊ उहाँ से उठल आ बाबूजी के खिलावे पिलावे के बेवसथा में लागि गइल।"


बाबूजी खा पी के खटिया पर आराम कइले। आ दिन अछते घरे पहुँच जाए खातिर सोच के उठ गइलें आ समधिन से जाए खातिर अगियाँ माँगे लगलन। समधिन बोलली, तनी देर अउर बइठ जाईं। मालिक आ राउर दामाद आते होइहें। समधी जी थोड़ा देर रुक गइलें। फेर समधी आ दामाद से मिलि के घरे खातिर चलि देहलें।


जब कहानी खतम हो गईल तब हम माँ बेटा एक साथ खाना खा कर सोने चले गए।


जोशू! कहानी कैसी लगी जरूर लिखना।


गोरखपुर,

10-09-2021


* सार्विक  को यह कहानी पसंद आई।