ईश्वर-विमर्श ! शेषनाथ प्रसाद 24-01-2021 रविवार
फेसबुक पर एक मंच बनाया गया है जिसका मैं सदस्य हूँ। उसपर चिंतन, मंथन और विमर्श के लिए कुछ विषय रखे गए हैं। उनमें से एक विषय है ईश्वर-विमर्श। एक सदस्य ने इस पर अपना विचार प्रस्तुत किया है जो प्रस्तावनास्वरूप लगता है। इसमें ईश्वर पर पश्चिम और पूर्व में प्रचलित अवधारणाओं को सामने रखा गया है। लेखक का कहना है कि पश्चिम के “ईश्वर ने दुनिया को एक कुम्हार की तरह बाहर से एक घड़े के रूप में बनाया है।“, “मनुष्य ईश्वर का सृजन या उत्पाद है”। और “भारतीय ईश्वर अपने से बाहर सम्पूर्ण सृष्टि के प्रति उदात्त आत्मीयता के रूप में है। सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर एक बाहरी शक्ति है।“ निष्कर्ष यह कि पश्चिम का ईश्वर एक व्यक्ति है और पूर्व का ईश्वर एक शक्ति है। लेखक ने अपना निजी विमर्श नहीं दिया है कि उनके विचार या अनुभव में ईश्वर क्या है?
भारत में पुरातन काल से ही ईश्वर को
लेकर मनुष्य के चिंतन में दो फाँक रहे हैं। एक फाँक जीवन में अनुशासन के लिए धर्म
(जीवन के स्वाभाविक प्रवाह) को महत्व देता है। यह फाँक
स्वीकार करता है कि ईश्वर का अस्तित्व है, एक व्यापक सत्ता के रूप में, एक व्यक्ति के रूप में नहीं। दूसरा
फाँक ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता है, सत्ता या
व्यक्ति किसी भी रूप में नहीं।
पहले फाँक वाले अध्यात्मवदी (आस्तिक) और दूसरे फाँक वाले
चार्वाकवादी (नास्तिक) कहलाते हैं। चार्वाकवादियों के मत को लोकायत मत भी कहा जाता है।
पश्चिम में धर्म का एक अलग स्वरूप है।
इसमें ईश्वर को सृष्टि का कर्ता माना गया है। इस धर्म को
मानने वालों के धर्मग्रंथ बाइबिल के अनुसार इस दुनिया को ईश्वर ने छै दिन में बनाया है। अब वह अपनी मिशनरियों द्वारा लोगों का धर्म परिवर्तन कर ईशाइयों की संख्या बढ़ाने में लगा
है। पश्चिम में एक और
विचारधारा चल निकली है, मार्क्स के नेतृत्व में। यह विचारधारा ईश्वर के अस्तित्व से इंकार करती
है। मार्क्स एक नयी सामाजिक और आर्थिक संस्कृति
पैदा करना चाहते थे जो उनकी राजनीतिक दृष्टि के अनुकूल हो। उन्होंने अपने शोध में
पश्चिमी समाज को दो वर्गों में बाँटा- एक को नाम दिया सर्वहारा और दूसरे को बुर्जुआ। सर्वहारा वर्ग मेहनतकश वर्ग है जो शोषित है और बुर्जुआ वर्ग शोषक वर्ग है। उनके मत से बुर्जुआ वर्ग धर्म का नशा दे कर सर्वहारा वर्ग का शोषण करता है। इसके लिए वह हथियार बनाता है
ईश्वर नाम की एक शक्ति को जिसमें वहाँ के लोगों की आस्था है। मार्क्स कहते हैं, लेकिन वह ईश्वर कहीं दिखता नहीं। बात भी ठीक लगती है। अगर छै दिन में उस ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण कर दिया तो उसे कहीं दिखना
भी चाहिए। अतः मार्क्स ने ईश्वर के होने से इंकार कर दिया- कहा ईश्वर नहीं है। उनका सोचना था, ईश्वर के अस्तित्व को इंकार कर देने से सर्वहारा वर्ग का शोषण बंद हो
जाएगा। वह यह नहीं सोच सके कि उनकी सोची सामाजिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति का एक नया शोषण शुरू हो जाएगा। और उनके उस मार्क्सीय समाज का नेतृत्व इस समाज पर अपनी सत्ता बनाए रखने
हेतु अपनी मत्वाकांक्षा लादना शुरू कर देगा। आज रूस और चीन में यही हो रहा है। रूस में सल्झेनित्सिन और चीन में श्वाबे
जैसे बुद्धिजीवियों को जेलों में ही जीवन बिताना पड़ा। उनके लेखन की अभिव्यक्ति वहाँ के सत्ता-नेतृत्व की इच्छा के
अनुकूल नहीं थी।
भारत के मार्क्सवादियों ने भी पश्चिम के मार्क्सवादियों की देखादेखी ईश्वर के होने से इंकार किया है। ईश्वर के अस्तित्व से इंकार उनका स्वतंत्र चिंतन नहीं है। पश्चिम में तो ईशाइयों का धर्मग्रंथ ईश्वर को एक निर्माता व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है। पर भारत में ईश्वर पर चिंतन देने वाले उपनिषद ऐसा नहीं कहते। हाँ, पंडे पुरोहितों
के हाथ में पड़ कर हमारा
ईश्वर एक बाहरी सृजनकर्ता जैसा लगता है। पर यहाँ एक अवतरण का सिद्धान्त भी है जिसमें विश्वव्यापी सत्ता को पृथ्वी पर मनुष्यरूप में अवतरित होना बताया जाता है। भारतीय
मार्क्सवादी मार्क्स के अनुसरण में ईश्वर
के अस्तित्व से इंकार करते हैं। फेसबुक पर ही कहीं मैंने पढ़ा था कि एक बुद्धिमान मार्क्सवादी को किसी संदर्भ में मार्क्स ने जवाब दिया था कि मैं मार्क्स हूँ, मार्क्सवादी नहीं। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका कहना था कि वह स्वतंत्र चिंतक हैं, किसी चिंतन का
अनुसरण करने वाले नहीं। भारतीय मार्क्सवादी पश्चिम के मार्क्सवादियों के मात्र अनुसरणकर्ता लगते हैं।
भारत में चार्वाकवादियों का कोई संगठन
नहीं था अतः उनका वह विचार यहाँ महत्व नहीं पा सका। यहाँ इन्हें नास्तिक कहा गया। मार्क्स के अनुयायी भी ईश्वर के
अस्तित्व को इंकार करते हैं। इन मार्क्सवादियों का एक मजबूत संगठन है। कहा जा
सकता है कि ये संगठनबद्ध नास्तिक हैं। भारत में चार्वाकवादियों के ईश्वर के नकार को
तो अप्रासंगिक कर दिया गया पर आज के मार्क्सवादियों
के, ईश्वर के संगठनबद्ध
नकार को, अप्रासंगिक कर देना आसान नहीं है। इसकी मुख्य वजह है राजनीति, जो मात्र तू-तू मैं-मैं से भरी हुई है। इस राजनीति ने आज के किसान आंदोलन
की क्या हालत कर दी है, यह सबके सामने
है।
मैं महसूस करता हूँ कि आज के संदर्भ
में ईश्वर के अस्तित्व को नकारना, स्वीकारना या प्रासंगिक, अप्रासंगिक सिद्ध करना एक अनुपयोगी बात है। क्योंकि इससे राजनीति के
माध्यम से केवल अपना मकशद साधा जा सकता है, क्षीण होती संवेदनशीलता और जन-संवाद को बढ़ाया नहीं जा सकता। जबकि आज इसी की आवश्यकता
है। जनता की संवेदनशीलता
और करुणा को बढ़ा कर ही समस्या के समाधान के लिए उनसे फिर से संवाद कायम किया
जा सकता है। बाइबिल में ईश्वर को एक
कुम्हार की तरह सृष्टि का
निर्माता बताना एक सपाट चिंतन है। ऐसे ही मार्क्सवादियों का ईश्वर के अस्तित्व से
इंकार करना भी एक सपाट चिंतन है। यह युगानुसार वैज्ञानिक चिंतन नहीं है। वैज्ञानिक चिंतन को लें तो आज ईश्वर-विमर्श के स्थान पर सृष्टि के
उत्पन्न होने और उसके संचालन का आधार
क्या है, यह चिंतन का विषय होना चाहिए। विज्ञान
ने इस तरह से चिंतन के आज हमें बहुत से कई आधार मुहैया करा दिए हैं।
सबसे पहले ईश्वर रूपी व्यक्ति के दिखने के सवाल को लें।
आज वैज्ञानिकों ने बहुत सी ऐसी मशीनें बना ली हैं जो स्वचल हैं। मनुष्य-चेतना इन मशीनों के उपकरणों को अलग अलग बना कर फिर उन्हें एक सिस्टम में जोड़ कर जब उसमें विद्युत ऊर्जा का प्रवेश करा देती है तो उसमें एक गति आ जाती है और उससे मनुष्य का इच्छित
उत्पाद मिलने लगता है। अगर ये मशीनें कभी यह जानना चाहें कि उनकी रचना कैसे हुई तो वे अपने रचनाकर को क्या एक व्यक्ति के रूप में देख सकती हैं? नहीं। अगर वैज्ञानिक कभी उन्हें अनुभवशील बनाने में भी सक्षम हो जाएँ तब भी ये मशीनें इतना ही अनुभव कर सकेंगीं कि वे किसी सृजनशील सक्रिय सत्ता की उत्पत्ति हैं। मनुष्य-चेतना एक सृजनशील सत्ता
है जो मनुष्य देह में सक्रिय रहती है। विज्ञान आजतक इस सृजनशील सत्ता का कोई रूप नहीं बता सका है। बता भी नहीं सकेगा क्योंकि यह उसके नियंत्रण के बाहर है। मार्क्सवादी तो उसे पदार्थ का
ऐतिहासिक विकास बताकर (गोलमटोल जवाब दे कर) किनारा कर लेते हैं। और विकासवादी भी अभी तक यह नहीं बता सके कि
बंदर-चेतना ऐतिहासिक रूप से किस प्रकार मनुष्य-चेतना (होमो सेपियंस, मेधावी मनुष्य) में विकसित हुई। इससे स्पष्ट है कि
ईश्वर एक व्यक्ति नहीं है।
अब सृष्टि में जीव-सृष्टि की बात को लें।
आध्यात्मिक सोच रखनेवालों का कहना है कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड में एक अकारण चेतन-अस्तित्व की विद्यमानता है (-ओशो, एक प्रवचन में) जो सतत सक्रिय और सृजनशील है। बिना किसी सृजनशील सत्ता की सक्रियता के जैविक या पार्थिव किसी भी प्रकार का सृजन संभव नहीं है। मशीनों के सृजन में पार्थिव-विद्युत सृजनशील
ऊर्जा है। यह ब्रह्मांडीय चेतन-सृजनशील शक्ति का ही एक पार्थिव रूप है। मशीनों के उपकरणों में उसी की सक्रियता सृजन को जन्म देती है।
जरा वैज्ञानिकों के इस प्रयोग पर भी ध्यान
दें। विज्ञान आज परखनली में भी शिशु का भ्रूण उत्पन्न करने लगा है। पुरुष से शुक्राणु
और स्त्री से डिंबाणु को ले कर, दोनों को वह एक विशेष ताप पर एक परखनली में डालता है और माँ की कोख के वातावरण (ताप आदि) को मेंटेन
करता है जिससे भ्रूण बनता है। फिर शिशु उत्पन्न करने के लिए उस भ्रूण को माँ की कोख में स्थापित कर देता है।
यहाँ जो खास बात ध्यान देने योग्य है वह यह कि भ्रूण को उत्पन्न करने हेतु वैज्ञानिक शुक्राणु-डिंबाणु को सक्रिय करने के लिए किसी पार्थिव ऊर्जा (विद्युत आदि) को प्रवेश नहीं कराता। पर इनको सक्रिय करने के लिए कोई शक्ति या ऊर्जा तो चाहिए ही। यह विज्ञान द्वारा प्रयोग किया गया अनुभव है। पर इस स्थिति में
वह परखनाली में किसी तरह की उरया का प्रवेश नहीं करता। वह परखनली में केवल माँ की कोख के वातवरण (ऊष्मा आदि) को
मेंटेन करता है। और उचित समय पर वे अणुयुगल सृजन के लिए अनुकूल स्थिति पा कर अंतःसक्रिय हो उठते हैं और भ्रूण बना लेते हैं। होता क्या होगा। उस समय परखनली के चतुर्दिक अकारण उपस्थित चेतन ऊर्जा (शक्ति) उस अणुयुगल में प्रवेश कर सक्रिय हो उठती होगी। और क्रोमोजोमों के स्वत: विभाजन और स्वतः अन्तःस्पर्शी जुड़ाव की प्रकृति के कारण भ्रूण बन जाता होगा। आने वाले
दिनों में विज्ञान को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि
ब्रह्मांड में अकारण उपस्थित नित्य सृजनशील शक्ति वहाँ सक्रिय हो उठती है जिस पर विज्ञान का नियंत्रण असंभव है। विज्ञान के पार्थिव सृजन में भी जब उसके उपकरण विद्युत के सक्रिय होने की अनुकूल परिस्थिति में होते हैं तभी वह सृजन कार्यशील होता है। जीव-सृष्टि या पार्थिव सृष्टि दोनों में ही उनके अवयवों या उपकरणों को सृजन प्रक्रिया के लिए अनुकूलता में होना ही होता है।
भारतीय मनीषा की अनुभूति इसी अकारण उपस्थित हर क्षण सक्रिय सृजनशील शक्ति को ईश्वर
नाम देती है। इनके अनुसार ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है, न ही वह कोई रचना करता है। ब्रह्मांड में प्रत्येक पल सृजन होता रहता है, अकारण उपस्थित सृजनशील सक्रियता के कारण। सृजन कल भी हो रहा था आज भी हो रहा है, आगे भी होता रहेगा। प्रतिपल हो रहा
सृजन किसी व्यक्तिरूप ईश्वर के द्वारा कैसे संभव हो सकता है।
ईश्वर भारतीय शब्द है। पश्चिम में इसे
गॉड कहा जाता है। वहाँ उसे ओम्निप्रेसेंट, ओंनिसिएन्ट आदि शब्दों से अभिहित किया जाता है। इन गुणों से सम्पन्न शक्ति को वहाँ गॉड
क्यों कहा जाता है हम नहीं जानते। पर हमारे यहाँ सर्वत्र अकारण उपस्थित सृजनशील
सत्ता को ईश्वर इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह ऐश्वर्य से भरा हुआ है- सृजन आदि हर तरह के ऐश्वर्य से।
भारतीय चिंतन परंपरा में धर्म के चिंतन
में जीवन की व्याख्या के लिए ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया है (विवेकानंद)। भारतीय धारणा धर्म
को जीवन का स्वभाव मानती है, जैसे पानी का
स्वभाव प्यास बुझाना है। जीवन को जीना भी, उसके अपने अवयवों के अनुसार सृष्टि में व्याप्त सृजनशील शक्ति के प्रवाह
में बहना है। यही जीवन का स्वभाव है।
आज के युग में किसी विषय या वस्तु को जानने के लिए विज्ञान की दृष्टि सर्वमान्य है। वह जो भी जानना चाहता है उसे प्रयोगों द्वारा जाँच परख कर दुनिया के सामने रख देता है। पर ध्यान देने योग्य है कि उसके जानने का क्षेत्र केवल पदार्थ है, चेतना नहीं। और जानने का रास्ता विश्लेषण अर्थात तोड़ फोड़ का है, विचार-विमर्श का नहीं। वह पदार्थ की तोड़ फोड़ करता है, फिर परिकल्पना (सत्य के करीब की कल्पना) करता है। वह परिकल्पना जब प्रयोगों द्वारा
सिद्ध हो जाती है तब उसे वह सत्य मान लेता है। डार्विन ने इसी तोड-फोड़ी प्रक्रिया से
गुजर कर यह निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य का
विकास बंदरों से हुआ है। लेकिन विभिन्न बंदर-श्रेणियों से मेधावी मानव (होमोसेपीन्स) का विकास कैसे हुआ आज तक जाना नहीं जा सका। मेधा के विकास अर्थात चेतना के विकास पर विज्ञान का ध्यान नहीं गया। हालांकि विज्ञान ने कुछ ऐसे परिणाम निकले हैं जहां से चेतना के विषय में चिंतन का रास्ता खुल सकेगा। जैसे, विज्ञान की ट्रिनिटी ईलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान के चरित्र भारतीय त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तरह हैं। एलेक्ट्रान की गति (कभी तरंगरूप, कभी कणरूप) के रहस्य से भरे व्यवहार को समझने के लिए क्वान्टम की कल्पना की गई है।
इस क्वान्टम की गति में संदिग्धता का गुण है (यानी कब उसकी गति तरंग का रूप लेगी और कब कण का, यह
निश्चित नहीं है)। यही चेतना का भी गुण है (ओशो)।
ईश्वर के होने न होने के विषय पर ओशो
का अनुभव उल्लेखनीय है। वह
मार्क्सवादियों और चार्वाकवादियों से भी अधिक निश्चितता से ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं। सृष्टि में कोई व्यक्तिरूप ईश्वर नहीं है। अतः
उसके दिखने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। सृष्टि में केवल
एक क्रिएटिविटी अर्थात सृजनशीलता ही है जो समूचे ब्रह्मांड को निरंतर सृजनशील
रखे हुए है।
विज्ञान ब्रह्मांड का सृजन अपने आप
हुआ मानता है। विज्ञान का कहना है कि ब्रह्मांड में सर्वप्रथम एक बिग-बैंग की उपस्थिति थी। बिग-बैंग कैसे बना वह नहीं बताता। यह तथ्य (?) उनकी सोच का विराम है जैसे अध्यात्मवदियों की सोच का विराम अकारण उपस्थित सृजनशील सत्ता है। जबतक
विज्ञान कोई कारण न खोज ले बिग-बैंग भी अकारण उपस्थित एक पिंड है। वैज्ञानिकों के
अनुसार अरबों वर्ष पूर्व इस बिग-बैंग में अकारण एक
विस्फोट हुआ जिससे ब्रह्मांड बना। यह उनका कोई शोध नहीं है। यह अन्तरिक्ष में आज भी घट रही घटना की एक विलोम व्याख्या है। एक वैज्ञानिक (शायद हाफ़किंस) ने एक शक्तिशाली दूरवीन से देखा कि निहारिकाओं के पिंड (तारे आदि) एक दूसरे से निरंतर दूर भाग रहे है। तो उसने
सोचा कि ये पिंड शुरू में संघनित होंगे जो किसी अंतर्विस्फोट से दूर होते जा रहें
हैं। सोचने वाली बात है कि अभीतक विज्ञान ने कोई ऐसी चीज
नहीं बनाई है जो अपने अकारण भीतरी स्फोट से नया सृजन करता हो। हर सृजन में उसे बाह्य ऊर्जा (विद्युत या ईंधन) देनी ही पड़ती है। और उसके सृजन का इस्तेमाल उसके
हाथ में नहीं होता है। अगर उसके सृजन का कहीं ध्वंसात्मक उपयोग है तो उसके लिए
उसका उपयोकर्ता जिम्मेदार है। परमाणुशक्ति का उपयोग राजनीति या धधेबाज करते है।
इसमें परमाणुशक्ति का क्या दोष। ईश्वर का भी उपयोग जब धंधेबाज करने हैं तो अपने
धंधे के विस्तार के लिए अपने कारण खोज लेते हैं। इसके लिए ईश्वर कैसे जिम्मेदार हो
सकता है।
मार्क्स के अनुयायियों के शासन में आज जो अभिव्यक्ति का शोषण हो रहा है उसके लिए मार्क्स को जिम्मेदार
कैसे ठहराया जा सकता है। मार्क्स का तो सपना था कि साम्यवाद पूंजीवादी व्यवस्था से होकर ही आएगा। लेकिन साम्यवाद तो आया नहीं पर उसके
लाने की व्यवस्था उसके अनुयायियों ने गरीबी से त्रस्त देशॉ से की क्योंकि अधिनायकी से दरेरा सर्वहारा वर्ग को ही दिया जा सकता था। साम्यवादी परिवार स्थापित करने के प्रयास में विवाह व्यवस्था को तोड़ने के लिए लेनिन को लाखों रूसियों को
मारना पड़ा था। क्योंकि रूसी लोग इसके पक्ष में नहीं
हो रहे थे। ये लोग पूंजीवादी या सामंती वर्ग से नहीं थे। फिर भी वे विवाह व्यवस्था को तोड़ नहीं सके।
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