आलोचना:
कविता का भाष्य करते समय मै स्थल-स्थल पर आलोचनाएँ भी देता चला हूँ. पर उसका
संबंध अर्थ को स्पष्ट करने से ही अधिक है, कविता के काव्य-गुण से नही. इसकी
काव्य-वस्तु कवि की कूट-बुद्धि से संयोजित लगती है. “जीवन के कमरे” एक कूट-पद है. जीवन को कमरों के रूप में कैसे देखा जाए,
बौद्ध आचार्य नागार्जुन से राजा मिनांडर ने पूछा. आचार्य आप किससे आए हैं? आचार्य ने कहा, ‘‘रथ से’’. राजा ने आगे
पूछा, क्या पहिया रथ है? ‘नहीं’, क्या उसका धुरा रथ है? ‘नहीं‘, आचार्य ने कहा. इस तरह कई प्रश्नों के उत्तर ‘नहीं’ में सुन कर राजा ने कहा, तब आप झूठ बोल रहे हैं कि आप रथ से आए हैं. जीवन
के इन कमरों के बारे में भी ऐसे प्रश्न उठाए जा सकते हैं जो काव्येतर नहीं होंगे.
विभिन्न काल-खंडों में कवि का जिया जीवन कवि के जीवन के कमरे नहीं हो सकते. उसके
फेफडे, हृदय आदि भी कमरों की तरह व्यवहृत नहीं हो सकते. अतः मैंने इन कमरों को
उनके व्यक्तित्व-खंड माना है. यह काव्य-गत चिंता के मेल में है. कवि की “जीवन के कमरों जैसे
प्रयोग” वाली कल्पना में कोई काव्यगत-सौंदर्य नहीं दिखता.
‘अँधेरे में’ कविता का नायक मेरे जाने मुक्तिबोध स्वयं हैं. वह जिस
कमरे में हैं वह पुरानी पड़ चुकी है. उसमें सुधार चाहिए. या कहें उनके व्यक्तित्व
के जिस खंड में उनकी चेतना है वह पुराने ढर्रे की सोच में है, उसमें नयापन चाहिए.
मुक्तिबोध ने जब अपनी काव्य-यात्रा शुरू की थी, तो वह अपने मन में लेकर चले थे कि
कविता में चल रही वायवीयता को और कविता के पुराने उपकरणों को बदल कर रख देंगे, और
उन्होंने बदला भी. हाँ उनके इस प्रयास में कविता कितनी कविता रह गई और कितनी
राजनीतिक वक्तव्य के निकट का संवेदनाभरित वक्तव्य, इसका निर्णय केवल आलोचना के मर्मज्ञ ही कर सकते
हैं.
कमरे में सुनाई
दे रही पग-ध्वनि से ध्यान हटा मुक्तिबोध जब बाहर देखते हैं तो निकटवर्ती तालाब के
जल, पास की पहाड़ी और वृक्षों की फुनगियों पर कुछ ज्योति देख किसी चिंतन में डूब जाते-से लगते हैं. वह
अपनी अन्य कविताओं में पूँजीवाद साम्यवाद और शोषक शोषित की अक्सर चर्चा करते हैं.
अतः उनके इस ज्योति-दर्शन से उपजे चिंतन को पूँजी-चिंतन (पूँजीवादी चिंतन नहीं)
क्यों न माना जाए. क्योंकि अब भारत स्वतंत्र था. नेहरु के नेतृत्व में भारत में हो
रहे विकास को वह देख रहे थे. वह देख रहे थे कि पूँजी के बिना जीवन की गाड़ी चल नहीं
सकती. उनके प्रशंसक उन्हें अभाव से लड़ने वाला संघर्षशील व्यक्ति मानते हैं. किंतु
मार्क्सवाद या साम्यवाद में खेती के अलावे पूँजी पैदा करने की कोई और व्यवस्था
नहीं है. क्या जाने मशाल की ज्योति देख उनमें साम्यवाद में भी पूँजी पैदा करने के
लिए व्यक्ति-स्वातंत्र्य की बात सोचने की भावना जगी हों. आजादी के बाद के समय में
पूँजी की कमी के कारण तमाम आर्थिक योजनाओं को वह असफल होते देख रहे थे. अतः बहुत
संभव है आजादी के दिनों की अपनी भूमिका से अलग हट वह पूँजी-चिंतन में लगे हों और
पूँजी-चिंतन का फैंटेसी उन्होंने जुलूस में चलती ज्योतिष्क मशालों के रूप में
बनाया हो. (अभी एम्प्रेस मिल की घटना नहीं घटी थी) संभवतः उनके मन में पूँजी के
उपार्जन का कोई बल्ब जलने-जलने को हो कि मशालों की ज्योति बुझ गई. ज्योति के बुझते
ही उन्हें लगा कि किसी ने (इस प्रकार के चिंतन के विरोधी) अँधेरे में पकड़ कर
उन्हें मौत की सजा दे दी हो. मुझे इस स्थान पर मुक्तिबोध अन्य मार्क्सवादियों से थोड़ा
भिन्न लगते है जो केवल पूँजीवाद के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा लेकर चलते हैं, किसी
समाधान में नही जाते.
इसी समय उन्हें
मशालों की लाल ज्योति से (मशालें बुझने को हैं. उनकी ज्योति अब लाल हो गई है)
कोहरे में नहाया एक रहस्य-पुरुष दिखता है जिसको वह अपनी अभिव्यक्ति बताते हैं.
बड़े मजे की बात है, अभिव्यक्तिरूप वह रहस्य-पुरुष अर्थात रहस्यमय अभिव्यक्ति उनके
अनुभव और चिंतन के दुखते मूलों से मुक्त होकर रूपाकार होना चाहती है, कि इसी समय
मशाल की ज्योति बुझ जाती है ( चिंतन-शक्ति चुक जाती है अथवा साम्यवाद का कोई और
लुभावना विचार ओवरलैप कर जाता है) और वह बेचैन निष्प्राण-सा हो जाते है. उसे देख
उनके तन में थरथराहट उत्पन्न हो जाती है. थरथराहट इसलिए कि उनका चिंतन मार्क्सवाद
की ओर झुका है और इस समय उनके मन में उससे उलट उद्भावना उठ रही है. यह कहने की बात
नहीं कि साथी के जरा भी विचलित होने पर मार्क्सवादी बुरी तरह आक्रामक हो उठते है. रामविलास
शर्मा पर उनकी टिप्पणी देखिए.
मशालों की ज्योति
बुझ जाने पर (पूँजी के विचार पर लगाम लग जाने पर) मुक्तिबोध को लगता है उनकी आँखों
में काली पट्टी बाँध कर जैसे उन्हें सूली दे दी गई हो. और सूली के बाद उनके अचेत
शरीर को एक खड्ड में डाल दिया गया हो. पाठक थोड़ा ध्यान टिकाएँ तो वह पाएँगे कि
अपनी दुर्गति के लिए वह किसी और को दोष दे रहे हैं. किसी ने आँखों में पट्टी बाँध
दी, किसीने सूली पर चढ़ा दिया और किसीने उनको अचेत अवस्था में खड्ड में डाल दिया.
पर किसने? वह तो एक कमरे मों बंद थे. कमरे के गवाक्ष से बाहर के अँधेरे में खिलती
ज्योति का आनंद ले रहे थे. ऐसे में कौन-से अदृश्य हाथ उनतक पहुँच जाते हैं जिनका
उन्हें अहसास तक नहीं होता और वे हाथ उनको सूली पर चढ़ा देते हैं? मार्क्सवादी लेखों में
अक्सर पढ़ने को मिलता है कि मार्क्सवादी लेखकों या विचारकों की दुरवस्था का कोई और
ही कारण होता है, वह स्वयं उसका कारण नहीं होते, जैसे झरने के जल ने उसे भिंगो
दिया वह झरने के पास नहीं गया.
मुक्तिबोध की
अभिव्यक्ति के संपुट में, मार्क्सवाद में भी स्वतंत्र रूप से पूँजी उत्पन्न करने
की अवश्य कोई धारणा घुली मिली रही होगी जो मार्क्सवादियों की सामान्य सोच से अलग
होगी. अतः अपनी संभावित अभिव्यक्ति के सामने कदाचित इसीलिए उनमें थरथराहट उत्पन्न
हो गई हो..
ऐसा सोचने का
कारण है. एम्प्रेस मिल का गोलीकांड सन् 1956-58 के बीच हुआ होगा (नंदकिशोर नवल,
निराला और मुक्तिबोध, चार.....पृष्ठ 121). एक साक्षात्कार में मुक्तिबोध के रेडियो
के सहयोगी अनिल कुमार (सन् 1956) ने, “एम्प्रेस मिल गोलीकांड का जिक्र कर कहा है , शैलेंद्रकुमार भी तब
वहीं थे, मुक्तिबोध से उन्होंने कहा था
: महागुरू, कविता
लिखोगे?
वह बोले- नहीं, थोड़ा पकने दो. कुछ दिन बाद
पता चला, कविता अडररिपेयर पड़ी है. एक टिन की पेटी थी उनके पास. कहते थे, फर्स्ट
राइटिंग क्या होता है अनिल कुमार, कि जो हम कहना चाहते हैं न, वह पहले झटके में
छूट जाता है. रिपेयर के लिए उठाते हैं तो रूप ही बदल जाता है. संश्लिष्टता के कारण
लंबाई आ जाती है, गहराई भी” (निराला और मुक्तिबोध, चार लंबी कविताएँ, नंदकिशोर नवल,
पृष्ठ 125). मुक्तिबोध ने यहाँ रिपेयर शब्द का प्रयोग किया है. यह मुझे बहुत खटक
रहा है. कविता तो शब्दों में संपूरित संवेदनाओं के द्वारा संबोध्य तक संप्रेषित
होती हैं, क्या कविताएँ भी मशीनों की तरह रिपेयर की जा सकती हैं?
उक्त पंक्तियों
से लगता है कि मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ कविता एम्प्रेस मिल में घटी घटना के पूर्व ही लिखनी शुरू
कर दी थी. और उसे अंडररिपेयर मानकर उस टिन की पेटी में रख दी थी. ऐसा मैं इसलिए
सोचता हूँ क्योंकि इस कविता के प्रथम दो खंडों में मिल की घटना का आभास तक नहीं
है. इसका आभास मिलता है कविता के तीसरे खंड में. संभव है शैलेंद्र कुमार के टोकने
के बाद उन्होंने मिल की घटना को पकने देकर अर्थात अच्छा ताना-बाना बुन कर
अंडररिपेयर कविता में पिरो दिया हो. पूरा पकने देने का यह भी अर्थ हो सकता है कि
मार्क्सवादी ढाँचे में उसकी चूर गाँठ टीक से बैठा दिया जाए. इसमें उनके पूँजीवाद
का अत्याचार, फासिज्म की आशंका, सबके लिए जगह थी. किंतु सन् 1962 में भारत पर चीन
का जो हमला हो गया, मुक्तिबोध के चित्त को हैरान कर गया होगा. शायद इसी मानसिक
स्थिति में उन्होंने इस कविता के शीर्षक से ‘आशंका के द्वीप’ अंश हटवा दिया. अब प्रश्न था फासिस्ट या
साम्राज्यवादी सरकार कौन, कम्युनिस्ट चीन या लोकतंत्रात्मक भारत?
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