यह
नवासी नब्बे की बात है. मैं डी ए वी इंटर कॉलेज में लेक्चरर था. मेरे साथी अध्यापक जो शहर से बाहर के थे अक्सर गोरखपुर
प्रॉपर में भी अपने लिए एक मकान बनवाने की बातें किया करते थे. उनकी बातें
सुन-सुनकर मेरे भी मन में होता कि काश गोरखपुर शहर में मेरा भी एक मकान होता.
अस्सी
के दशक में मेरी श्रीमतीजी ने जब यह बात मेरे सामने रखी थी तब मैंने उन्हें चुप
करा दिया था. उन्होंने मेरी भावनाओं को समझा और सराहा भी था. उस समय अपने गाँव के
प्रति मेरा मोह प्रबल था. मैं अपने माता पिता की जिंदगी में इस तरह का कोई कदम
उठाना भी नहीं चाहता था. गोरखपुर में मकान बनवाने की मेरी कोई उत्कट इच्छा भी नहीं
थी. फिर मैं जिस क्वार्टर में सपरिवार रहता था उसके मालिक की तरफ से भी ऐसा कोई दबाव
नहीं था कि इस तरफ मेरा ध्यान बरबस खिंचता.
लेकिन
नब्बे के दशक में बात बदल गई थी. अब मकान मालिक चाह रहे थे कि वह मकान मैं छोड़ दूँ. मेरे मन में भी अपने लिए
एक मकान की इच्छा हो रही थी. क्वार्टर छोड़ने के बाद आवास के लिए विकल्प भी मेरे
सामने केवल दो ही थे. या तो मैं नया मकान ढूँढ़ूँ या अपने लिए एक मकान बनवाउँ. मैंने
दूसरे विकल्प को चुना. और अपने कॉलेज से पाँच किमी दूर जमीन का एक टुकड़ा ले लिया.
वहाँ एक कमरा, लैट्रिन, बाथरूम बनवाकर और गृह पूजा करवाकर इस नए मकान में शिफ्ट कर
गया. बाउंडरी कराया और फूल पत्तियाँ लगा दीं. फूल पत्तियों के साथ शोपीस के कुछ
पौधे भी लगा दिए. इनमें एक पौधा मोरपंखी का था.
मोरपंखी बड़ी होकर अब आदमकद हो गई थी- मोर के पंखों जैसी खिली उसकी हर
फाँकें बहुत भाती थी मुझे. गेट पर ही उसे लगाया भी था. जब भी मैं घर से बाहर
निकलता उस मोरपंखी के फाँकों पर हाथ जरूर फेरता. इसी बहाने पौधे के स्वास्थ्य का
जायजा भी ले लिया करता.
एक दिन
मैं मोरपंखी के हर फाँकों को एक-एककर निहार रहा था. तभी मेरी नजर उसके भीतर एक
अधबने खोंते पर पड़ी. यह एक चिड़िया का खोंता था. खोंते के नीचे की परत बड़े ही
सुंदर ढंग से रखी गई थी. एक-एक तिनके को मोरपंखी के फाँकों से इसतरह बाँधा गया था
कि तेज हवा चले तो भी खोंते में पड़े चिड़िया के अंडों को कोई क्षति नहीं पहुँचे.
खोंते को निहारकर ज्योंही हटा, देखा कि एक बुलबुल उड़ती हुई आई और मोरपंखी के
झुरमुट में घुस गई. उसकी चोंच में एक बड़ा सा तिनका था. यह खोंता एक बुलबुल
चिड़िया का था.
यों
दिन पर दिन खोंता बड़ा होता रहा. बुलबुल तिनके लाती, खोंते पर रखती, उसे बुनती,
फिर दूसरे तिनके के लिए उड़ जाती. कुछेक दिन तो हमारा ध्यान उधर लगा रहा. हम उसकी
लगन और अपने नीड़ बनाने की तन्मयता को देखते और सोचते- चाहे मनुष्य हो या कोई
प्राणी सबमें माँ की स्थिति ऐसी ही होती है. माँ को सृजन करना होता है. मनुष्य तो
इसके लिए कृत्रिम साधनों को भी ढूँढ़ लेता है किंतु पक्षियों को प्रकृति की दी हुई
सुबिधाओं पर ही निर्भर करना पड़ता है. उसे सृजन के लिए अनुकूल तो बनना ही पड़ता
है, अपने गिर्द के वातावरण को भी अनुकूल बनाना होता है. हर तरह की सुरक्षा के लिए
भी उसे सावधानी बरतनी पड़ती है.
दिन
बीतता रहा, खोंता बनता रहा. पर न जाने कब हमारा ध्यान उधर से हट गया. बुलबुल ने कब
अपने खोंते को पूरा बना लिया और कब उसमें उसने अंडे दे दिए, तनिक भी पता नहीं चला.
रोज
मैं अपने कमरे से निकलता और मोरपंखी को छूकर बगल में स्थित गेट से बाहर निकल जाता.
किंतु जरा भी भनक नहीं लगी कि कब बुलबुल के बच्चे अंडों को फोड़कर बाहर निकल आए.
एक दिन कुछ चीं-चीं की आवाज सुनाई दी तो भीतर झाँककर देखा. खोंते में तीन
नाजुक-नाजुक बच्चे थे. वे एक दूसरे पर लुढ़क हे थे. मेरी आहट पाते ही उन तीनों ने
अपनी चोंचें उर्ध्वोन्मुख खोल लीं और परस्पर चढ़ा ऊपरी करने लगे. उनको लगा उनकी
माँ उनके लिए चारा (खाना) लेकर आ गई है. मैंने देखा है माँ चिड़िया चारा लेकर अपने
बच्चों के पास आती है तो उसके बच्चे चीं-चीं करते
हुए ऐसे ही चोंच फैला देते हैं और माँ उनके
चोंचों में एक-एक कर चारा डाल देती है.
अब रोज मैं उन्हें देखने लगा. उनके शरीर पर अभी
थोड़े से ही बाल आए थे. उनके पंख अभी पूरे खुलते नहीं थे. गर्दन पर बाल बिलकुल
नहीं थे. उनकी गर्दनें हलकी ललाई व फीकी सफेदी लिए थीं. चोंचों को देखकर लगता था
जैसे उनसे अभी रक्त छलक आएगा. एक दिन देखा उस खोंते में केवल एक ही बच्चा रह गचा
है. माँ बुलबुल दो को उसमें से उड़ा ले गई थी.
हम
निश्चिंत थे कि कुछेक दिन में ही माँ बुलबुल इसे भी उड़ा ही ले जाएगी. लेकिन नियति
ने कुछ और ही रच रखा था उस बच्चे के लिए. नियति का वह खेल हमारे लिए एकदम
अप्रत्याशित था. उसका वह अप्रत्याशित खेल उस दिन मेरे मन में एक स्थाई करुण छवि
टाँक गया. वह करुणाप्लावित क्षण आज मेरे मन को इतना द्रवित कर गया कि मेरे हाथ में
अनायास लेखनी आ गई और मैं यह कहानी लिखने को बाध्य हो गया. बड़ी ही रोमांचक और
करुणा मिश्रित घटना थी वह.
रोज की तरह उस दिन भी मैं अपने कमरे से निकला
जिस दिन वह घटना घटी. सुबह का समय था. सात या आठ बज रहा होगा. आकाश साफ था. आँगन
में किसी तरह की कोई गतिविधि नहीं थी, न चीं-चीं न चह-चह न ही किसी अन्य तरह का
शोरगुल, जिससे कुछ अनहोनी होने की आशंका हो. अतः उस घटना के घट रहे होने का कोई आभास
नहीं मिला. घटना घट रही थी पर हम उससे अनभिज्ञ थे. मैं सामान्यरूप से कमरे से
निकला. और ज्योंही फकटक की ओर मुड़ा अचानक मेरा ध्यान मोरपंखी की जड़ की तरफ चला
गया. वहाँ घट रहा वह दृश्य देख मेरा कलेजा धक से होकर रह गया. मैंने देखा मोरपंखी
की जड़ के कुछ ऊपर हाथ डेढ़ हाथ का साँप का एक बच्चा बुलबुल के बच्बे को निगल रहा
है. संपोले का जबड़ा बहुत फैला हुआ था. बुलबुल के फैले शरीर को देखकर लगता नहीं था
कि सँपोला उसे निगल पाएगा. लेकिन देखा कि वह बहुत दम लेकर उसे उदरस्थ करने की
चेष्टा कर रहा है. बुलबुल का बच्चा बिलकुल निश्चेष्ट था. सँपोला बुलबुल के बच्चे
को लगभग गर्दन तक निगल चुका था. बच्चे की चोंच खुली हुई थी. मैं दौड़कर उस सँपोले
पर एक लकड़ी का टुकड़ा फेंका. लकड़ी की चोट लगते ही सँपोला बुलबुल के बच्चे को
छोड़ पास में रखी ईंटों के ढेर में गुम हो गया. सँपोले के मुख से छूटते ही बुलबुल
का बच्चा छिटक कर जमीन पर आ गया. मैं दौड़कर उसे अपने हाथ में थाम लिया. मेरे
अचानक दौड़ने की धमक सुन मेरे पूरे परिवार ने मुझे घेर लिया. सभी चौंक कर पूछने
लगे- क्या हुआ, क्या हुआ? मैंने उन्हें बुबुल के घायल बच्चे को दिखाया और
सारी बातें बताईं. बच्चे के पंख निकल आए थे. बस उनमें उड़ने की शक्ति भर आने की
देर थी
हमने
देखा कि बच्चे की गर्दन के थोड़ा नीचे कट गया है और खून छलक आया है. बच्चा सहमा
सहमा सा है. केवल दिशाओं में देख रहा है. पंख उसके भींग गए हैं और बलात चिपके हुए
हैं. कैसा अनुभव कर रहा होगा सँपोले के जबड़े में जकड़ा वह, उसकी स्थिति देखकर इसका
केवल अनुमान भर मैं कर सकता था. संपोले के जबड़े की कश में आते समय वह
फडफड़ाया होगा अवश्य. कश में आकर छूटने के लिए छटपटाया भी होगा. मृत्यु के ग्रास
में होते हुए भी उसकी साँस अभी घुटी नहीं थी. इससे प्रतीत तो यही होता है कि उसने
जीवट के साथ मृत्यु का सामना किया. उसमें एक मनुष्य-मन का आरोपण करें तो वह जितनी
घड़ी तक सँपोले के जबड़े में था, वह जकड़ की पीड़ा झेलते हुए भी उतना समय आपद्संकट
का सामना करने के लिए साहस बटोरने में लगाया होगा. पंचतंत्र के सहृदय लेखक जैसा
मैं होता- चूँकि वह प्रकृति के अधिक निकट था, पंछियों की वेदना की समानुभूति में
हो जाना उसके लिए सरल था- तो मैं इस घायल पंछी की जूझ को वैसे ही असरदार शब्द दे
देता जैसा वह सहृदय देता. पर मैं ऐसे जमाने में हूँ जिसमें मनुष्य बुद्धि-भार से दबा
है. मैं बहुत चाह रहा हूँ कि इस पंछी की पीड़ानुभूति को उसी की अनुभव-सरणि में
रखूँ पर वाल्मीकि के करुणोद्रेक का तलस्पर्श ही उस दिन मेरे हिस्से में आया. और आज
उसपर बुद्धि की छाया मँड़रा रही है. बुद्धि का अस्र-शस्र तर्क है. और तर्क करुणा
को भोथरा ही करता है.
उसकी
उस पीड़ानुभूति को उकेरने की मैं चेष्टा तो कर रहा हूँ पर बुद्धि आड़े आ जा रही
है. वह क्षण प्रत्यक्ष था उस दिन मेरे सामने. मेरा हृदय बहुत करुण हो गया था. पर आज
मेरे हृदय का द्रवण इस क्षण वह गति नहीं पा पा रहा है. मैं उस बच्चे पंछी के अंतर
में उठ क्षण की उठी वेदना को गद्य में करुणापूरित व्यंजना देने की चेष्टा कर रहा
हूं. पर बुद्धि से वह गति लाई नहीं जा सकती. आज के समस्त काव्य-संसार का भी यही
हाल है. वहाँ भावों के द्रवण की कोई चेष्टा ही नहीं दिखती. इन्हें पढ़कर
हृद-रंध्रों में करुणा रिसती ही नहीं. गद्य में करुणोद्रेक लाना तो और कटिन है. यह
घटना अगर वामभट्ट के सामने घटी होती तो एक और कादंबरी लिख गई होती. कदाचित इस
दृश्य का वर्णन उनकी लेखनी से यों निःसृत हुआ होता- सँपोले के सबल जबड़े में
बुलबुल के बच्चे का आकंठ कसा होना देखकर ऐसा लगा मानों काल का रूप लिए वह सँपोला
वेगवान अंधड़ की तरह आकर खोंते से हवा में पहली उड़ान भरने को उद्यत उस बच्चे को
अपने खूंखार जबड़े में जकड़ लिया होगा. लेकिन यहाँ भी हृदय के द्रवण की गुंजाईश
नहीं दिखाई देती. मेरी कोशिश है कि संवेदना की कुछ ही बूँदें सही यहाँ छलकें
अवश्य.
खैर
कुछ ही क्षणों में घायल बच्चे के बावत मेरे बच्चों की तरफ से तरह तरह के परामर्श
आने लगे. पापा ऐसा करिए, पापा वैसा करिए. मेरी पुत्री तो इतनी उतावली हो गई कि
दौड़कर मेरा बायोकेमिक दवावों का डिब्बा ही उठा लाई. असल में बायोकेमिक दवावों से
घर में मुझे उपचार करते देख उसे इल्म हो गया था कि कटे पर तुरत फेरम फॉस का चूरा बुरक
देना चाहिए. यह थोड़ा गहरा कटा था. अतः उसने उसमें पूरा चूरा भर दिया. और दहशत के
लिए काली फॉस की एक टिकिया बच्चे के मँह में डाल दिया. कुछ ही मिनटों में बुलबुल
का वह बच्चा टनमना गया और चलने फिरने लगा.
लेकिन
हमने उसे स्वतंत्र नहीं छोड़ा. उसे एक बेंत की टोकरी से ढँक दिया. ताकि उसे उन
उपद्रवों (बिल्ली तथा अन्य पक्षी) से बचाया जा सके जो उसे हानि पहुंचा सकते थे.
हुलबुल के बच्चे को सँपोले से हमने बचाया. उसे दवा दी और टोकरी से ढँककर
उसे सुरक्षा दी. किंतु इतने समय तक माँ बुलबुल हमें दिखाई नहीं दी. थोड़ी देर बाद
मैं टोकरी के पास गया तो देखा वह शिशु पखेरू टोकरी के भीतर बेचैनी से जिधर तिधर
घूम रहा है. मुझे लगा वह भूखा है. मैंने आँगन में लगे पोय के कुछ पके फऱ तोड़े और
उसे देने लगा. चिमटी से पकड़कर पहला फर उसके सामने किया तो उसने अपने चोंच फैला
दिए. उस शिशु पखेरू के चोंच एकदन टहनी-से फूटे ललाई लिए कोमल पल्लव की तरह थे.
उसके गले से चोंच तक की शिराओं को देख, लगता था जैसे अभी लाल रक्त टपक पड़ेगा.
मैंने एक फर उसके मुँह में डाल दिया. फर देते ही वह उसे निगल गया और एक-एक कर उसने
कई फर निगल लिए. अब वह स्वस्थ था. उसकी चाल बदल गई थी. मेरा हाथ अभी भी उसके सर के
ऊपर था, चिमटे में पोय का फर पकड़े. चिमटे में पकड़े फर को उसने देखा. पर तुरत पास
नहीं आया. वह कुछ दूर आगे गया, फिर लौटा और चोंच फैला दिया. मैंने वह फर चिमटी से
उसके चोंच में डाल दिया. ऐसा उसने कई बार किया. और हर बार मैं पोय का फर उसकी चोंच
में डालता गया. ऐसा कर मैं वैसा ही आनंद ले रहा था जैसा मेरी श्रीमतीजी आज अपने
चार वर्षीय पोते जोसू को चावल या रोटी का कौर- ये सुग्गा खाएगा, ये मैनी के लिए
है, आदि कहकर खिलाती हैं और आनंदित होती हैं. इसतरह जब मैं उस शिशु पखेरू को खिला
रहा था तो मैंने देखा, उसकी माँ दो तीन बार आकर झाँक गई.
दो से
तीन दिन ऐसा चला. कभी मैं तो कभी मेरे बच्चे उसे पोय का फर या पके चावल के दाने
खिला देते थे. इन दो तीन दिनों में मैंने देखा कि माँ बुलबुल दिन में दो तीन दफा
आकर आँगन में मँडराती, फिर लौट जाती. एकाध बार आँगन की बाहरी दीवार पर उसे बैठे और
उसके बार बार सिर हिलाने के दौरान उसका बच्चे की तरफ भी एक झपक देख लेना उसके दिल
में उमड़ती ममता का अहसास जगा जाता. पखेरू हो या अन्य जीव, सभी में ममता के तंतु
समान ही होते होंगे. पर पखेरुओं की ममता वैसी नहीं छलकती जैसी मनुष्यों मे छलकती
है. माँ बुलबुल मँड़राती अवश्य पर उस टोकरी के पास नहीं आती जिसमें शिशु पखेरू
ढँका था. वहाँ हममें से कोई जो होता. पर हमारे गिर्द वह एक चक्कर लगा जाती अवश्य.
लेकिन
उस दिन माँ बुलबुल एकदम हमारे पास तक आ गई, जैसे हमसे डर ही नहीं रही हो. असल में
उस दिन जब मैंने शिशु पखेरू को दाने देने के लिए टोकरी उठाई तो वह फुदक कर आगे बढ़
आया. मैं चिमटी में दाना लिए उसकी ओर बढ़ा तो वह और आगे फुदक गया. इसतरह जब जब मैं
दाना लेकर आगे बढ़ता वह और आगे फुदक जाता. और फुदकते फुदकते वह आंगन के दूसरे छोर
तक पहुँच गया. वहां मैंने लत्तरवाला एक पौधा लगाया था. जो एक छोटे कमरे पर पड़े
टिन के छप्पर पर पूरा फैल गया था. फुदकते फुदकते वह बच्चा न जाने कब और कैसे
उछलकर ऊपर छप्पर के झाड़ में पहुँच गया, मुझे जरा भी भान न हुआ. माँ बुलबुल भी
लगातार हरकत में थी, इधर उधर मचल रही थी. मैं उस बच्चे को झाड़ से नीचे उतारने में
लगा रहा. वह नीचे उतरा भी पर जमीन पर हाथ नहीं आया. तबतक देखा माँ बुलबुल एक और
सहयोगी को लेकर आ गई. संभवतः वह नर बुलबुल था. यह देख मैं थम गया और उनकी हरकतें
देखने लगा. मैंने देखा उन दोनों में से एक ने बच्चे को चोंच मारी और वह बच्चा
उड़कर दो-चार हाथ आगे चला गया. फिर दूसरे ने चोंच मारी तो वह बच्चा उड़कर पाँच फुट
ऊँची बाउंडरीवाल पर चला गया. माँ बुलबुल ने फिर तीसरी बार उसे चोंच मारी और वह बच्चे
को उड़ा ले गई. मनुष्य के बच्चे को उड़ान भरना सिखाने के लिए विभिन्न तकनीकों का
सहारा लेना पड़ता है पर नभचारियों को उड़ना सीखने के लिए पल भर का अभ्यास ही काफी
है. ये प्रकृति के सहचर जो होते हैं.
23-05-2015, शनिवार
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