Sunday 31 January 2016

अंगुलिमाल / कहानी


रचनाकार में प्रकाशित   31.01.2015


पूर्व प्रसंग 
समय लगभग ईस्वी पूर्व 500. ज्ञान प्राप्त करने के बाद बुद्ध लोगों तक अपनी देशना पहुँचाने के लिए गाँव गाँव भ्रमण करते थे. भ्रमण करते हुए एक बार वह कोशल महाजनपद की राजधानी सावत्थी (श्रावस्ती) के एक गाँव में थे. वहाँ वह अपने शिष्यों के बीच अपनी देशना देते थे. आस-पास के गाँव के लोग भी उनकी देशना सुनने आते थे. धर्म-देशना के समय तथागत को अनुभव हुआ कि गाँव के लोग कुछ सहमे-से लग रहे हैं. कोई भी पुरवासी खुले मन से इस देशना में नहीं आ रहा. जो आ रहे हैं उनका भी ध्यान देशना को सुनते समय उनकी ओर न होकर अन्य ओर विचलित होता रहता है जैसे कि उनके मन में उनकी ओर किसी हानि पहुँचाने वाले तत्व के आ जाने का भय लगा हो. उन्होंने इस भासित होने वाले तथ्य से अपने शिष्यों को आगाह किया. क्योंकि वे भिक्षाटन के लिए गाँवों में जाते रहते है.
उन्होंने स्वयं भी पुरवासियों की मनस्थिति को जानने की चेष्टा की. उन्हें ज्ञात हुआ कि इस अंचल के पुरवासियों के मन पर किसी अंगुलिमाल नाम के डाकू का आतंक छाया हुआ है. वह दुर्दांत है. वह जंगल से होकर जानेवाले पथिकों और व्यापारियों की हत्या कर उनके दाएँ हाथ की एक-एक उँगली काट लेता है. उँगली के लिए वह तीर्थयात्रियों की भी हत्या कर देता है. वहाँ के वासियों के मन में उसका भय इस कदर समाया हुआ है कि उन लोगों ने जंगल के बाट से जाना आना बंद कर दिया है. वह जंगल से निकल कर पुरवासियों के घर में भी घुस जाता है और उस घर के सदस्यों की हत्या कर उनकी उँगलियाँ काट लेता है. उन काटी गई उँगलियों की माला बनाकर उसने अपने गले में पहन रखी है. वह यहाँ के लोगों में अंगुलिमाल के नाम से जाना जाता है. उसका शरीर विशाल है. उसके चेहरे पर बड़ी बड़ी मूँछें हैं. घने लटियाए हुए बिखरे बाल हैं. बड़े बड़े, लाल लाल, आग बरसाते नेत्र, उँगलियों में बड़े बड़े कटार-से नाखून और उसकी बलिष्ठ भुजाओं की कसी हुई मांसपेशियें ने उसे इतना खूंखार बना रखा हैं कि प्रतीत होता है वह हाथियों को भी चनौती दे डालता होगा.
तथागत को एक दिन यह भी ज्ञात हुआ कि अंगुलिमाल ने अबतक 999 उँगलियाँ अपनी माला में गूँथ ली है. माला में 1000 उँगलियों के गूँथने की उसकी प्रतिज्ञा है. उन्हें किसी स्रोत से यह भी ज्ञात हुआ कि इन्हीं दिनों उसकी माँ उससे मिलने जाने वाली है. वह उससे अक्सर मिलने जाती है. लेकिन इस बार वह थोड़ी डरी हुई है. सम्राट उसे जीवित या मृत पकड़ने की आज्ञा अपने सैनिकों को दे चुके हैं. उसीसे उसे अवगत कराने वह उसके पास जानेवाली है. उसके मन में उधेड़बुन है कि जाने इस बार क्या होगा. क्योंकि अगुलिमाल की माला के पूरी होने अब केवल एक उँगली की ही आवश्यकता है..
तथागत को जब ये तथ्य ज्ञात हुए तो वह कुछ चिंतित हो उठे. उन्होंने सोचा, हत्या करने का अंगुलिमाल का यह कृत्य अब चरम पर पहुँच चुका है.
तथागत को मनुष्य के मनस की गहनतम जानकारी थी. उन्होंने अंगुलिमाल के डाकू बनने की पृष्ठभूमि की सूक्ष्म छानबीन की. उन्हें ज्ञात हुआ कि अंगुलिमाल मगध जनपद के किसी गाँव के ब्राह्मण का पुत्र है. वह कोशल महाजनपद के सम्राट प्रसेनजित का राजपुरोहित है. ध्यान में डुबकी लगाकर उन्होंने उसके मनस की गति को भी जाना. उन्होंने अनुभव किया कि उसके अंतस्तल में, गहरे में कहीं करुणा की बूंदें दबी हुई हैं. वे उद्रेक की स्थिति में नहीं हैं. इसका कारण उसके मन पर हिंसा का अनिवार भार है.
उन्होंने मन में कुछ निश्चय किया और बिना किसीसे कुछ चर्चा किए जंगल की ओर चल पड़े.
डाकू अंगुलिमाल का यह अंगुलिमाल नाम उसके बचपन का नाम नहीं था. बौद्ध-धर्म की पुस्तकों में उल्लिखित है कि कोशल नरेश सम्राट प्रसेनजित के दरबार के राजपुरोहित के घर एक बालक ने जन्म लिया, सुंदर गोलमटोल. उसके चेहरे पर एक कांति खेलती थी. घर में आनंद ही आनंद था. परंपरा के अनुसार राजपुरोहित बच्चे की जन्मकुंडली बनवाने राजज्योतिषी के पास गए. राजज्योतिषी ने बच्चे के जन्म की घंटा-घटी पूछी. राजपुरोहित ने बताई. बच्चे के जन्म की घटी सुनते ही राजज्योतिषी के माथे पर बल पड़ गए. माथे पर बल पड़ते देख पुरोहित जी कुछ घबड़ाए. पूछा-
         “क्या हुआ ज्योतिषी जी? सब ठीक तो है न?”
         “इस घटी में आकाश में अशुभ नक्षत्रों का उदित होना दिखाई दे रहा है. शिशु के जन्म के समय क्या आपको कोई अनहोनी दिखी थी?”
          “हाँ ज्योतिषी जी, रात के जिस प्रहर में इस शिशु का जन्म हुआ, वह घड़ी बहुत डरावनी प्रतीत हो रही थी. आकाश में तारों की जो स्थिति हो रही थी उसे देखकर प्रतीत हो रहा था कि किसी यात्री को लूटने के लिए डाकू आकाश में तलवारें उछाल रहे हैं.”
“ राजपुरोहित जी, इस अशुभ योग में जन्मे बच्चे डाकू और हत्यारा होते हैं. कुंडली से यह भी संकेत मिल रहा है कि यह पिछले जन्म में कोई यक्ष था, मनुष्यों का हत्यारा.”
यह सुनकर राजपुरोहित को तो मानो काठ मार गया. बहुत मन्नतों के बाद घर में एक बालक भी आया तो ऐसा भवितव्य लेकर. घर में सभी के मन में उदासी छा गई. उनके मन में आया, क्यों न इस शिशु का नाम ‘हिंसक’ ही रख दिया जाए.
किन्तु पुरोहित दम्पति विचारवान थे. उन्होंने बहुत सोचा. युगप्रचलित तर्क-वितर्कों का सहारा लिया. अंततः उनका मन इस निषकर्ष पर आकर स्थिर हो गया कि भवितव्य पर किसी का वश नहीं चलता. बहुत विचार विमर्श के बाद उन्होंने निश्चित किया कि यह बालक परमात्मा की देन है. परमात्मा के आगे किसी की नहीं चलती. राजज्योतिषी से परामर्श कर उन लोगों ने उस बालक का नाम लोक-प्रथा के अनुसार ‘अहिंसक’ रखा. इस प्रथा में यह माना जाता है कि ऐसा नाम रखने से वैसा ही प्रभाव उसपर पडेगा. स्यात कहीं ऐसा हो भी जाए कि बार-बार उसे ‘अहिंसक’ कहकर पुकारने से उसके मन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़े कि उसके मन में कभी हिंसा का भाव आए ही न. राजपुरोहित के इस प्रयास में उनके दो-एक शिक्षक साथियों ने भी उनका साथ दिया. गुरुकुल के एक आचार्य ने अहिंसक की प्रारंभिक शिक्षा को संभाला और हर संभव प्रयास किया कि उसके मन में हिंसा का विचार कभी आए ही न. उसके आगे की शिक्षा पर दूसरे आचार्य ने मनोयोगपूर्वक ध्यान दिया. इसतरह उसके स्नातक के पूर्व की शिक्षा सम्पन्न हुई.
अहिंसक पढ़ने में बहुत तेज था. वह बहुत मेधावी भी था. हर विषय में उसकी प्रतिभा बढ़ी चढ़ी थी. चाहे शास्त्र चाहे शस्त्र, सबमें उसकी प्रतिभा अनूठी थी.
पुरोहित ने सम्राट से परामर्श कर अहिंसक को स्नातक की शिक्षा के लिए तक्षशिला भेज दिया. सम्राट एवं उनके दो-एक अन्य अधिकारियों के पुत्र-पुत्री भी स्नातक की शिक्षा के लिए वहीं जा रहे थे. उस समय उँची शिक्षा के लिए तक्षशिला विश्वविद्यालय ही एकमात्र ऐसा स्थान था जहाँ बहुत ही प्रतिभाशाली शिक्षक पढ़ाने का कार्य करते थे. दूर-दूर से प्रतिभाशाली विद्यार्थी उँची शिक्षा ग्रहण करने के लिए यहाँ आते थे.
विद्या के ये सभी अर्थी एक ही आचार्य के अधीन शिक्षा ग्रहण करने लगे.
कुछ ही समय में अहिंसक अपने गुरु का प्रिय हो गया. सीखने, समझने और मेधा में वह बहुत कुशाग्र था. अपने अन्य साथियों से वह हर बात में बढ़ा चढ़ा था. गुरु ही नहीं गुरु-पत्नी भी अहिंसक के सौम्य व्यवहार से बहुत प्रसन्न थीं. कोशल-राजकुमारी भी शस्त्राभ्यास अधिकतर अहिंसक के साथ ही करती थी. आचार्य के शिक्षालय में उसे अन्य शिष्यों की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ उपलब्ध थीं. अहिंसक के साथ इन लोगों का अपनी अपेक्षा अधिक प्रिय व्यवहार और उसे उनसे अधिक सुविधाएँ दिए जाते देख उसके कुछ साथियों के मन में उसके प्रति ईर्ष्या होने लगी. उसके प्रति उनकी यह ईर्ष्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही चली गई. कभी कभी ये अहिंसक से उलझ भी जाते थे. लेकिन उससे पार नहीं पा पाते थे. कहते हैं उसमें सात हाथियों के बराबर का बल था.
जब अहिंसक को किसी भी तरह उसके साथी नीचा नहीं दिखा सके तब उन लोगों ने सोचा, क्यों न ऐसा प्रयास किया जाए कि आचार्य जी उसे दीक्षा ही न दें. इसके लिए वे उनके मन में उसके प्रति घृणा के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा करने लगे. वे आए दिन गुरु के पास उसकी उलाहना लेकर आने लगे. ऐसी ऐसी उलाहनाएँ जो आचार्य के मन में अहिंसक के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करते थे. एक दिन इन लोगों ने उसपर यह भी दोष मढ़ दिया कि अहिंसक गुरुमाता के प्रति कुदृष्टि रखता है. वह आचार्य से अपने को अधिक बुद्धिमान भी समझता है.
अहिंसक के प्रति निरंतर इन उलाहनाओं को सुनकर गुरुजी के क्रोध का पारावार नहीं रहा. उनकी भौंहें क्रोध वमन करने लगीं. वह उसे कठोर दंड, कदाचित मृत्युदंड देने का अवसर ढूँढ़ने लगे. किंतु शिक्षक के रूप में वह ऐसा नहीं कर सकते थे. ऐसा करना संस्था के नियमों के प्रतिकूल तो था ही, उनकी प्रतिष्ठा के भी प्रतिकूल होता. अतः उन्होंने शिक्षा-सत्र के समाप्त होने की प्रतीक्षा की.
धीरे धीरे शिक्षा का सत्र समाप्त हुआ. आचार्य ने अहिंसक से कहा-
          “अहिंसक, अब तुम्हारी शिक्षा समाप्त हुई. गुरुदक्षिणा देने के लिए तत्पर हो जाओ”.
उस समय शिक्षा सम्पन्न हो जाने पर दीक्षा दी जाती थी. किंतु उसका स्वरूप आज के दीक्षांत जैसा नहीं था. उस समय जिस आचार्य के अधीन शिष्य शिक्षा ग्रहण करता था वह आचार्य ही उसे दीक्षा देते थे. और दीक्षा के लिए आचार्य को शिष्य द्वारा दक्षिणा देने की परंपरा थी. शिष्य आचार्य से पूछते थे- “गुरुजी, क्या देकर मैं आपको प्रसन्न करूँ”. और गुरुजी जो माँगते थे उसे उन्हें देना पड़ता था.
दीक्षा के लिए जब अहिंसक आचार्य के सामने आया तो गुरुजी ने उससे दक्षिणा में 1000 उँगलियाँ माँग लीं. गुरुजी किसी तरह उसे मारना चाहते थे. सोचा, उँगलियाँ इकट्ठा करने के लिए उसे अनेक हत्याएँ करनी पड़ेंगीं. ऐसा करने में वह स्वयमेव मारा जाएगा. और उनका प्रतिशोध भी पूरा हो जाएगा. उन्होंने अहिंसक से कहा-
“दक्षिणा में तुमसे मुझे मनुष्य के दाएँ हाथ की एक हजार उँगलियाँ चाहिए. और प्रत्येक उँगलियाँ अलग अलग मनुष्य की होनी चाहिए.”
उसके इर्ष्यालु साथियों ने जब यह सुना तो वे बहुत प्रसन्न हुए. उनकी मनोकामना पूरी हो रही थी. लेकिन गुरुमाता और राजकुमारी के हृदय को बहुत ठेस लगी. ये दोनों अहिंसक से बहुत स्नेह करतीं थीं. गुरुदक्षिणा में अहिंसक से गुरु की ऐसी माँग को लेकर वे भौंचक थीं. ऐसा क्या हो गया कि आचार्य अहिंसक के प्रति इतने असहिष्णु हो गए. अहिंसक के व्यवहार में पूरे सत्र में ऐसा कुछ नहीं दिखा जो आचार्य को रुष्ट करने का कारण बने. और किसी तरह उससे रुष्ट ही हो गए हों तो दीक्षा देने के लिए उसे हत्या की ओर उन्मुख करने की क्यों आवश्यकता आ पड़ी.
वे गुरुदक्षिणा में आचार्य की इस माँग को लेकर बहुत असहज थीं. उनके मन में विद्रोह के भाव उठने लगे थे. किंतु विश्वविद्यालय के नियम बहुत कठोर थे. उनके अभिभावक भी उनसे सहमत नहीं हो सकते थे.
आचार्य ने अहिंसक से दक्षिणा में जब मनुष्य की उँगलियाँ माँगी तो वह  हतप्रभ हो गया. स्तब्ध होकर आचार्य की ओर देखता रह गया. उसके नेत्रों में विस्मय और उदासी थी. नेत्रों के कोरों में आँसू की कुछ बूँदें छलक आईं थीं. वह समझ नहीं पा रहा था कि आचार्य ने उससे उँगलियाँ क्यों माँगी. इससे तो मेरे प्रति उनकी घृणा ही व्यक्त हो रही है. शस्त्र और शास्त्रज्ञान में उनको उसने कभी निराश नहीं किया. उनकी सेवा में उसने कोई त्रुटि नहीं की. हाँ अपने साथियों से अवश्य वह कभी कभी उलझ पड़ता था. पर इसमें भी उसके साथी ही उसे उलझने के लिए बाध्य कर देते थे. उनका चिढ़ाना कोई कबतक सहता रहे.
एक बार उसके मन में हुआ कि दक्षिणा में आचार्य की इस अव्यावहारिक माँग पर वह प्रश्न उठाए. पर कुछ सोचकर मौन रह गया. विशवविद्यालय के नियम आचार्य के ऐसी अव्यावहारिक माँगों पर कोई व्यवस्था नहीं देते.
वह संकल्प का पक्का था. अबतक वह विश्वविद्यालय के नियमों का पालन करता आया था. दीक्षा के नियमों के प्रति भी वह आदर ही बरतेगा. उसने सोचा- इस माँग के पीछे गुरुजी के मन में क्या है यह तो वह नहीं जानता पर दीक्षा पूरी तभी हो सकेगी जब गुरु द्वारा माँगी गई दक्षिणा दे दी जाए. वह यह दीक्षा पूरी करेगा ही. गुरु की आज्ञा का पालन करना धर्मानुकूल कहा गया है.
जब उसके माता-पिता को इसका पता चला तो वे बहुत उद्विग्न हो गए. उन्हें ज्योतिषी की भविष्यवाणी सचमुच में घटती प्रतीत हो रही थी. उन्होंने अभीतक अहिंसक से ज्योतिषी की भविष्यवाणी की चर्चा नहीं की थी. अब उन्हें उचित प्रतीत हुआ कि उसकी चर्चा अहिंसक से कर दें. अहिंसक ने इस भविष्यवाणी को सुना, पर विचलित नहीं हुआ. किंतु उसके नेत्र अदृष्ट में टिक गए. कुछ क्षण तक उसके चेहरे पर अनेक भाव चढ़े उतरे, फिर स्थिर हो गए. कदाचित उस क्षण उसके मन में जो भाव तिरे उनमें क्रोध और क्षोभ दोनों का मिश्रण था. उसके मन में अपने साथियों के प्रति एक क्षण के लिए वितृष्णा उत्पन्न हो गई. उसके अधरों के हलचल और उससे खिंची कपोल की रेखाओं में यह स्पष्ट दिखा. उसके विषण्ण चेहरे पर उसका क्षोभ भी स्पष्ट दिख रहा था-
          “माता-पिता ने इस तथ्य से मुझे अवगत नहीं कराया. किंतु मुझे अवगत कराके वे करते भी क्या. अवगत कराने पर यह भी हो सकता था कि शिक्षा ग्रहण करने के लिए मैं तक्षशिला तक पहुँच ही न पाता. तक्षशिला भेजने के पूर्व पिता ने मुझे योग्य गुरुओं के पास रखा. इन गुरुओं के पास रहकर मेरे मन में अनूठे-अनूठे भावों का संचार हुआ. किसीको हानि पहुँचाने की बात मैंने कभी सोची ही नहीं. हाँ कभी कभी क्रोध अवश्य आता था और मैं कभी बहुत उग्र भी हो जाता था पर किसी पर प्रहार कर उसे चोट पहुँचाने की बात मेरे मन में कभी नहीं आई. अब जब दक्षिणा के लिए 1000 उँगलियाँ इकट्ठी करनी हैं तो मुझे लोगों को गहरी चोटें पहुँचानी पड़ेंगी. इसके लिए उनकी हत्या भी करनी पड़ेगी.”
यह सोच कुछ पल के लिए वह बहुत उद्विग्न हो उठा. क्या भवितव्य लेकर उसने जन्म लिया है.
उसके माता-पिता से उसकी यह उद्विग्नता देखी नहीं जा रही थी. पर साहस भी नहीं हो पा रहा था कि वे उससे कुछ कहें. माता के नेत्रों में तो रुँधे आँसू पछाड़ खा रहे थे. पर पिता ने साहस किया.
“पुत्र, अदृष्ट को कदाचित तुमसे यही कराना अभीष्ट है. दीक्षा लेनी है तो गुरु को यह भेंट देनी ही पड़ेगी. दीक्षा देने में असमर्थ होने पर दीक्षा के लिए राजा से धन माँगने का विधान है. पर यहां तो कटी हुई उँगलियाँ जुटानी है. यह अमानुषिक कार्य है. सम्राट तो इसके लिए तुम्हें अनुमति भी नहीं दे सकते. उलटे ऐसा करने से रोकने के लिए तुम्हें कारागार में डलवा सकते हैं. हाँ एक विकल्प है तुम्हारे पास, दीक्षा तुम लो ही न. यह निर्णय तुम्हें ही करना पड़ेगा. हम चाहते हैं तुम जो भी निर्णय लो पूरे मन से लो. स्मरण करो, पिता की आज्ञा के पालन में भगवान परशुराम ने थोड़ा भी आगा-पीछा नहीं किया था. अपने फरसा के एक ही प्रहार से उन्होंने अपनी माता का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया था. उन्होंने परिणाम की थोड़ी भी परवाह नहीं की थी. तब भगवान परशुराम को समाज का सामना नहीं करना पड़ा था किंतु आज तुम्हें लोगों का और स्वयं राज्यशक्ति का भी सामना करना पड़ेगा.”
पिता की बातों से उसे थोड़ा तोष हुआ. उसने मन बना लिया कि दीक्षा लेनी है तो आचार्य की आज्ञा का पालन करना ही होगा. और वह आचार्य द्वारा माँगी गई भेंट को जुटाने के लिए उद्यत हो गया.
उँगलियाँ इकट्ठा करने से पूर्व उसने पिता से परामर्श किया. क्यों न पहले कुछ प्रबुद्ध लोगों से उनकी सहमति लेकर उनकी एक उँगली माँगने की चेष्टा की जाए.
पिता से उत्तर मिला- “पुत्र, यह राजा शिवि का युग नहीं है”.
अंततः दीक्षा के लिए उँगलियाँ इकट्ठी करने का ध्येय अहिंसक के मन में दृढ़ हो गया. इसके लिए उसने ऐसे स्थान को ढूँढ़ा जहाँ से यात्रियों को मारकर वह उनकी उँगली भी काट ले और वह किसी की पकड़ में भी न आ सके. इस हेतु उसे कोशल महाजनपद के सावत्थी (श्रावस्ती) का जंगल अधिक सुरक्षित लगा. सावत्थी कोशल जनपद की राजधानी थी और मगध की सीमा से सटे मल्लगण से कुछ ही दूरी पर थी, घने जंगलों से घिरी (आज के गोरखजपुर और बस्ती जनपद के बीच कहीं, तब यह क्षेत्र घोर वनाच्छादित था). जंगल में घनी झाड़ियों से अटे एक स्थान पर उसने अपना अड्डा जमाया और अपना वांछित कार्य करने लगा. वह जंगल से होकर हाट-व्यापार के लिए जाने वालों, यहाँ तक कि तीर्थयात्रियों की भी हत्या करने लगा और उनकी उँगलियाँ काटकर वापस जंगल में लुप्त होने लगा. उसने हत्या करने के लिए हर तरह के अस्त्र–शस्त्र - तलवार, तीर धनुष आदि अपने पास रख छोड़े थे. जब पथिक जंगल से होकर जाना बंद कर देते तब वह निकट के पुरवासियों के घरों पर आक्रमण कर उनके परिवार वालों की हत्या कर उनकी उँगलियाँ काट लेता.
जब वह प्रथम उँगली के लिए एक पथिक की हत्या करने चला था तो उसे लगा था कि उसका हृदय जैसे विद्रोह कर देगा. उसने कभी कोई हत्या नहीं की थी. पल भर के लिए उसके भागते डग शिथिल होते होते रह गए थे. उस क्षण उसे अपने मन को कड़ा करना पड़ा था. मन कड़ा करने में ही उसके हाथ से तीर चल गया था और पथिक ढेर हो गया था. घायल पथिक की छटपटाहट देख उसे मूर्च्छा सी आने को हुई थी. वह कभी किसी व्यक्ति को पीड़ा से छटपटाते नहीं देखा था. पीड़ित की चीख ने उसके हृदय को मानो चीर दिया था. पर तत्क्षण उसके मन में गुरु को दीक्षा देने की विवशता सामने तड़ित सी झलकी मार गई थी. वह शीघ्र ही संभल गया था. प्रतिज्ञा मनुष्य से क्या-क्या नहीं करा लेती है.
इसके बाद क्रूरता जैसे उसकी संगिनी हो गई.
पहले तो लोगों ने इसे अप्रत्याशित आक्रमण समझा. पर जब आए दिन हत्याएँ होने लगीं और गाँव-घरों में भी घुसकर निर्दोष गृहस्थ परिवारों की  हत्या कर उनकी उँगलियाँ काटी जाने लगीं तब लोगों की समझ में आया कि ये हत्याएँ संज्ञान में की जा रही हैं. क्योंकि इसमें लूट की घटनाओं के चिह्न नहीं थे. तब इन अप्रत्याशित और आपात घटनाओं के प्रति लोग सतर्क हो गए. धीरे धीरे उन लोगों ने पता भी लगा लिया कि ये हत्याएँ एक डाकू कर रहा है. किसीने यह भी लक्ष्य कर लिया कि वह डाकू उन काटी गई उँगलियों की एक माला बनाकर अपने गले में पहन रखा है. उस दिन से वह लोगों में अंगुलिमाल के नाम से जाना जाने लगा.
अंगुलिमाल की क्रूरता का ओर नहीं था. वह उंगलियों को काट कर उनकी गिनती ठीक रहे इसके लिए वह उन्हें वृक्षों की डालों पर एक जंगली डोर से बाँधकर टाँग देता था. किंतु वन की चिड़ियाँ उनका मांस खाने के लिए उसे बिखेर देती थीं. इससे जब उँगलियों की गिनती में अव्यवस्था होने लगी तब उसने उन उँगलियों को वन की एक पतली और दृढ़ लत्तर में बाँधकर माला बनाकर उसे गले मे पहन लिया था..
अंगुलिमाल के इस कृत्य से पुरवासी भयाक्रांत हो उठे थे. लोगों में भीतर तक डर समा गया था. प्रत्येक क्षण वे अपने और अपने परिवार को असुरक्षित मानने लगे थे. बुद्ध की देशनाओं में जब वे बैठते थे तो इसी अँगुलिमाल का भय उन्हें सताता रहता था. वे देशना को भयोद्विग्न मन से ही सुनते थे. जब उन्होंने किसी भी तरह इस संकट को टलते नहीं देखा तो अपनी रक्षा के लिए सम्राट से याचना की. और आए दिन हो रही इस घटना की समूची कहानी बताई. सम्राट को लोगों ने यह भी बताया कि उनके सैनिकों ने बहुत प्रयास किया पर इस हत्या को वे रोक नहीं सके. सम्राट ने सुना और एक बड़ी सेना लेकर वह लअंगुलिमाल को मारने के लिए चल पड़े.
तथागत बुद्ध की धर्म-देशना उस जंगल के निकट के ही एक गाँव में हो
रही थी जो अंगुलिमाल के विचरण-क्षेत्र से बहुत दूर नहीं था.
जब तथागत को अंगुलिमाल के संबंध में कुछ पुरवासियों से और कुछ उनके अपने अंतर्ज्ञान से सारी स्थिसि समझ में आ गई तब वह बिना किसी से कुछ कहे जंगल के पथ पर आगे चल पड़े.
पुरवासियों ने समझा कि तथागत दैनिक भ्रमण के लिए निकल रहे हैं. कुछ दूर जाएँगें फिर लौट आएँगें. किंतु उनके कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने लक्ष्य किया कि तथागत जिस पथ पर अग्रसर हो रहे हैं वह तो अंगुलिमाल के विचरण-क्षेत्र की ओर जाता है. उन्होंने तथागत को सावधान किया. “भगवन, उस ओर ही डाकू अंगुलिमाल का बास है. वह आपको पाएगा तो मार डालेगा. बहुत निर्मम है वह. उधर आप मत जाइए. शिष्यों ने भी उन्हें रोका.
लेकिन तथागत नहीं माने. तथागत ने उन लोगों से कहा- “मुझे रोको मत. आज मैं रुक गया तो अनर्थ हो जाएगा.
जब वह नहीं माने तो कुछ शिष्य उनके साथ हो लिए. किंतु तथागत ज्यों ज्यों घने बीहड़ में आगे बढ़ते गए, शिष्य धीरे धीरे कम होने लगे. तथागत जब अंगुलिमाल के निकट पहुँचे तब वह अकेले थे.
उधर उसकी माँ भी उससे मिलने के लिए चल पड़ी थी. उसे मारने लिए सम्राट के एक बड़ी सेना लेकर चल पड़ने की सूचना उसे सूचना देने के लिए..
इधर अंगुलिमाल चौकन्ना हो जंगल से होकर जाने वाले बाटों को देख रहा था. उसे एक बाट से उसकी माँ आती दिखी. अपनी माँ को अपनी ओर आते देख वह कुछ सोच में गड़ गया. विधाता ने क्या लिख रखा है मेरे लिए. एक हजारवीं उँगली के लिए अन्य कोई नहीं मिला तो मुझे अपनी माँ की भी हत्या करनी पड़ सकती है. एक पल के लिए लाल डोरों से पटे उसके नेत्रों में माँ की वह गोद स्मरण हो आई जिसमें उसने कभी किलकारी मारी थी. जिसके अधरों के स्पर्श से उसके कपोलों में स्नेह का संचार हो उठता था, एक गुरु को दिए वचन से बँधा मुझे माँ की भी हत्या करनी पड़ेगी. ऐसा उसके मन में होते ही उसके नेत्रों से अश्रु की कुछ बूँदें उसके कपोलों पर ढुलक आईं.
तभी अन्य मार्ग से आते एक बटोही उसे दिख गया जो कदाचित उसी की ओर आ रहा था. वह कोई बटोही नहीं, स्वयं तथगत थे.
अंगुलिमाल तथागत के आने के प्रति अनभिज्ञ था. उसने समझा कोई पथिक आ रहा है. वह प्रसन्न हुआ कि अब उसे एक हजारवीं उँगली पाने की प्रतीक्षा में अपनी माँ की हत्या नहीं करनी पड़ेगी.
वह उस पथिक की ओर झपटा. किंतु कुछ निकट आने पर उसने देखा, वह उसी की ओर आ रहा है. उसकी चलने की गति देखकर थोड़ा अचंभित हुआ. कोई भूले भटके ही इधर आता है, वह भी चौकन्ना और भयभीत हुआ-सा. पर इसके शरीर में तो तनिक भी भय के चिह्न नहीं दिखाई देते. यह चौकन्ना हुआ आगे नहीं बढ़ रहा है. उसकी चाल में एक मतवालापन है. फिर भी उसने पथिक को तेज स्वर में टोका-
“ऐ पथिक”.
यह कड़क स्वर सुन बुद्ध पीछे मुड़े तो देखा, सामने एक काला पहाड़-सा विकराल व्यक्ति खड़ा है. और अंगुलिमाल ने देखा, यह कोई पथिक नहीं, एक संन्यासी है. इसके मुख पर शांति के भाव छलक रहे हैं.. उसकी समूची देह में एक सरलता खेल रही है. यह किसी सामान्य पुरुष की अपेक्षा प्रभावान है. इसके साथ एक आभामंडल-सी है. यह देख कुछ क्षण के लिए वह अपनी क्रूरता को भूल गया. उसने सोचा- “यह संन्यासी किसी अन्य देश से आया प्रतीत होता है, तभी यह मेरे भय से अपरिचित है. इसे सावधान कर देना चाहिए. मैं तो अपनी क्रूरता के लिए तो अभिशप्त हूँ किंतु इस संन्यासी के निश्छल भाव को देखकर इस संन्यासी पर हथियार चलाना मुझे उचित प्रतीत नहीं होता“. यह सोच उसने संन्यासी को चेतावनी दी.
         “संन्यासी, क्या तू नहीं जानता कि यह अंगुलिमाल का क्षेत्र है? मैं अंगुलिमाल हूँ. मैं स्वभाव से क्रूर हूँ. जो भी इधर आता है मैं उसे मार डालता हूँ. लगता है तू इधर भटक कर आ गए हो.”
“अंगुलिमाल, मैं भटककर इधर नहीं आया हूँ. मैं स्वयं अपनी इच्छा से तुम्हारे पास आया हूँ. मैं तुम्हें जानता हूँ. हत्या को तुमने अपना धर्म बना लिया है. पर हत्या करना तुम्हारा स्वभाव नहीं है, यह भी मैं जानता हूं. मुझे यह भी ज्ञात है कि आज किसी की हत्या कर तू 1000 वीं उँगली अपनी उँगलियों की माला में जोड़ने वाले हो. तुम्हें 1000 उँगलियाँ अपने गुरु को दक्षिणा में देनी है. तुम मुझे नहीं जानते. मैं गौतम बुद्ध हूँ. अबतक तू निर्दोषों की हत्या करता रहा है शिकार की तरह. तुम मेरी हत्या कर उस 1000 वीं उँगली को प्राप्त करो. उँगलियाँ प्राप्त करने के लिए प्रारंभ में तूने लोगों से स्वेच्छा से उँगलियाँ देने की प्रार्थना की थी. मैं स्वेच्छा से तुम्हें अपनी उँगली देने आया हूँ. यही इच्छा लेकर तुम्हारी माँ भी तुम्हारे पास आनेवाली है. किंतु मैं नहीं चाहता कि तुम मातृहंता बनो. अभीतक तुम पूर्ण पापी नहीं बन सके हो. माता की हत्या कर तुम पूर्ण पापी बन जाओगे. जिसकी कहीं क्षमा नहीं हो सकेगी.“
अंगुलिमाल बुद्ध की ये बातें सुनकर चौंका. इस संन्यासी को तो सबकुछ पता है. उसके प्रभाव को एक ओर झिटक कर बोला-
“संन्यासी, मैं किसी बुद्ध को नहीं जानता. मैं केवल अपने गुरु को जानता हूँ. प्रारंभ में लोगों ने मुझे उँगलियाँ नहीं दी इस कारण मैं हत्या में प्रवृत नहीं हुआ हूँ. मुझे ये 1000 अँगलियाँ अपने गुरु को दक्षिणा में देनी हैं. इस समय मुझे एक ही धुन है, 1000 वीं उँगली को प्राप्त करने की. तेरी बातें सुनने में अच्छी लगती हैं किंतु मैं अपनी प्रतिज्ञा से पीछे नहीं हट सकता. किंतु तुम्हें मारना भी नहीं चाहता. अतः मैं पुनः कहता हूँ तू चला जा. मैं किसी और को मारकर 1000 वीं उँगली प्राप्त कर लूँगा.”
अंगुलिमाल तथागत को नहीं जानता था. उनके संबंध में हवा में तिरती सूचनाएँ भी उस तक नहीं पहुँच सकीं थीं हालाँकि सम्राट प्रसेनजित तक बुद्ध के सावत्थी में आने की सूचना हो चुकी थी. वास्तव में तक्षशिला में अंगुलिमाल जब अभी अहिंसक नाम से ही स्नातक का छात्र था बुद्ध अभी गौतम ही थे. वह अभी बुद्ध नहीं हुए थे. उन्हें 43 वर्ष की अवस्था में बुद्धत्व की प्राप्ति हुई. उस समय अंगुलिमाल वनस्थ हो गया था.
बुद्ध ने कहा-
“मैं यहाँ से जाने के लिए नहीं आया हूँ. मैं तुझसे पुनः कहता हूँ. तू मुझे मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर.“
“तू नहीं मानता, तो ठहर मैं अभी तुझे मारता हूँ. “
अंगुलिमाल खाँड़ लेकर संन्यासी को मारने दौड़ा. लेकिन यह देखकर वह अचंभा में पड़ गया कि जितना ही वह संन्यासी की ओर दौड़ रहा है संन्यासी से उसकी दूरी कम नहीं हो रही. तेज गति से भागने वालों को भी दौड़ कर पकड़ते उसे देर नहीं लगती थी. पर इस संन्यासी को वह नहीं पकड़ पा रहा है. उसे लगा, जितना वह संन्यासी की ओर भाग रहा है संन्यासी भी उसी गति से पीछे की ओर भाग रहा है. (बुद्ध ने अपनी अंतर्शक्ति के बल पर उसे एक विभ्रम में डाल दिया था.)
वह क्रोध से चिल्लाया-
“संन्यासी, तू कह रहा है कि तुझे मारकर मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूँ,
और मैं तुझे मारने चला तो तू पीछे भागता जा रहा है. “
बुद्ध बोले, “मैं कहाँ भाग रहा हूँ. मैंने तो वर्षों पहले भागना छोड़ दिया. मैं  अब पूर्णतः स्थिर हूँ. भाग तो तुम रहे हो. तुम अपने अंदर ढूँढ़ के देखो. तुम्हारा मन चौबीसों घड़ी भाग रहा है. भाग कर मुझे पकड़ो और मारो. हाँ, मुझे मारने के पूर्व तुम मेरा एक कार्य कर दो.“
          “ कहो.”
          “उस वृक्ष की एक पत्ती तोड़ो.”
अंगुलिमाल ने पास के वृक्ष की डाल से एक पत्ती तोड़ी और बुद्ध को देने के लिए हाथ बढ़ाया. बुद्ध ने कहा,
“इसे मुझे मत दो. इसे तुम पुनः उस डाल से उसी स्थान पर जोड़ दो जहाँ से उसे तोड़े हो.”
   “यह कैसे हो सकता है. जो पत्ती टूट गई उसे पुनः जोड़ा नहीं जा सकता.“
बुद्ध ने कहा-
“डाल से तुम पत्ती तोड़ सकते हो किंतु उस पत्ती को उस डाल के उसी स्थान पर तुम जोड़ नहीं सकते. तो सोचो, जिस जीवन को तुम पुनः दे नहीं सकते उसे तुम छीन कैसे सकते हो.”
बुद्ध द्वारा ये वाक्य ऐसे समस्वर में कहे गए थे कि इसकी चोट सीधे उसके हृदय पर पड़ी. उसकी हृत्तंत्री झंकृत हो उठी. यह झंकृति अंगुलिमाल के पोर-पोर, रंध्र-रंध्र को बेध गई. उनके उस मर्मस्पर्शी स्वर को सुन वह अंतर्विमुग्ध अवाक रह गया. ऐसी अनुभूति उसे इसके पहले कभी नहीं हुई थी. बुद्ध की बातें सुनकर उसके शरीर के अणु-अणु में न जाने क्या होने लगा कि उसके कठोर शरीर में मृदुता आने लगी, उसका तना-अकड़ा शरीर ढीला पड़ने लगा. उसके मुखमंडल पर स्पष्ट दिख रहे तनावों की बंकिम लकीरें शिथिल होने लगीं. बुद्ध को मारने को उठा हाथ उठा ही रह गया. ढीली होती उँगलियों से खाँड़ भूमि पर गिर गया. उसका शीश झुकने लगा. वह निढाल हो गया और अंततः उसका शीश बुद्ध के चरणों में झुक गया. कुछ ही भणों में वहाँ बहुत कुछ घट गया. जो अंगुलिमाल कभी खूंखारता का पर्याय होता था वह अब सरलता की मूरत लग रहा था. उसके भीतर घट चुकी अतींद्रिय अंतर्घटना ने उसमें बुद्ध का शिष्य बनने की लालसा भर दी. उसके मुँह से सहसा फूट पड़ा-
“भगवन, अंगुलिमाल आपके चरणों में है. आप मुझे अपनी शरण में ले लें, मुझे अपना शिष्य बना लें.”
और करुणावान तथागत ने उसे अपना शिष्य बना लिया.
उस समय प्रकृति भी मनोहर हो उठी थी. अंगुलिमाल की क्रूरता से वन के जिन पत्थरों, वृक्षों, वृक्षों की पत्तियों, फुनगियों और झाड़ियों में मृत्यु का ग्रास बने लोगों की अनवरत चीखों, चीत्कारों ने घुलकर उन्हें कठोर बना दिए थे उनमें अब मर्मर ध्वनि की अनुगूँज भरने लगी. धीरे धीरे मंद मंद हवाओं के स्फुरण से वन की हरीतिमा मनोमय हो रही थी.
जब उसकी माँ वहाँ पहुँची, अंगुलिमाल तथागत का शिष्यत्व ग्रहण कर चुका था.
-----शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव