सन् 1948 तक दिल्ली की
राजनीति महात्मा गाँधी के नियंत्रण में थी. नीति और उद्देश्य था देश की आजादी
प्राप्त करना. आजादी मिलते ही गाँधी ने काँग्रेस को सेवादल का रूप ले लेने की सलाह
दी थी. पर काँग्रेस को यह स्वीकार नहीं हुआ.
सन् 1947 में सत्ता हस्तांतरण
के समय प्रधानमंत्री का पद पं जवाहरलाल नेहरू ने सँभाला. वह गाँधी की ही पसंद थे. सरदार पटेल की तरफ से कुछ विरोध हुआ पर वह उपप्रधानमंत्री
पद पर सहमत हो गए. गाँधी के जीवन काल में ही, संविधान लागू होने पर स्वतंत्र भारत
का प्रथम राष्ट्रपति किसे होना चाहिए, का प्रसंग आया था. तब अधिकांश नेताओं की
दृष्टि डॉ राजेंद्र प्रसाद की ओर मुड़ी थी. पं जवाहरलाल नेहरू इस पद के लिए सी.
राजगोपालाचारी के पक्ष में थे. फलतः डॉ प्रसाद इस संभावित पद के लिए तैयार नहीं हो
रहे थे. पर गाँधी की इच्छा के आगे उन्हें नतमस्तक होना पड़ा.
सन् 1950 में जब स्वतंत्र
भारत के संविधान के अनुसार भारत के प्रथम राष्ट्रपति के चुनाव का अवसर आया तब डॉ
राजेंद्र प्रसाद इसके उम्मीदवार हुए. नेहरू की इच्छा के अनुसार राजगोपालाचारी ने
भी पर्चा भरा. पर सांसदों का रुख देख उन्हें अपना पर्चा वापस लेना पड़ा. सन् 1955
में दूसरी बार भी नेहरू डॉ प्रसाद को राष्ट्रपति के पद पर नहीं देखना चाहते थे. पर
राजर्षि टंडन आदि ने डॉ प्रसाद के पक्ष में मोर्चा संभाला और डॉ प्रसाद राष्ट्रपति
चुन लिए गए.
डॉ प्रसाद, गाँधी के
नेतृत्व में छेड़े गए स्वतंत्रता संग्राम में पं नेहरू के सहयात्री थे. डॉ प्रसाद
को, देश के प्रति उनकी निष्ठा से प्रसन्न होकर गाँधी ने देशरत्न की उपाधि दी थी. राजनीतिक
और प्रशासनिक क्षमता में वह नेहरू से किसी भी प्रकार से उन्नीस नहीं थे. फिर भी
राष्ट्रपति के चुनाव में नेहरू द्वारा डॉ प्रसाद का ऐसा विरोध ! कुछ विचलित करता है उनका
यह एट्टीच्युड.
दरअसल नेहरू के व्यक्तित्व
का वह पहलू जिसने उनसे यह कराया गाँधी के प्रभालोक में दब-सा गया था. स्वयं नेहरू
ने भी देश के लिए अपने किए कार्यों और उदार पश्चिमगत राजनीतिक व्यवहार से एक ऐसा
व्यक्तित्व बना लिया था जिसके आलोक में उनका वह पहलू ध्यान में आने पर भी नजरअंदाज
किए जाने योग्य हो गया था. वह पहलू था उनका समर्थ और स्वतंत्र व्यक्तित्वों के
प्रति असहज होना. अपनी सूझबूझ के आगे किसी और की सूझबूझ पर विचार करना उन्हें पसंद
नहीं था. अंबेडकर का उनके मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना (सन् 1951) और उस समय के
भावी प्रधानमंत्री कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण तथा कुछ अन्यों को उनके द्वारा
मंत्रिमंडल में न लिया जाना इसी तथ्य की ओर संकेत है. सन् 1947 में सत्ता
हस्तांतरण के ठीक बाद कबायलियों के वेश में पाकिस्तानी सेना के कश्मीर पर आक्रमण को रोकने के
लिए कश्मीर नरेश हरि सिंह के अनुरोध पर भारत ने जेनरल करियप्पा के नेतृत्व में
अपनी सेना भेजी. जेनरल ने आक्रमण को नाकाम कर देने के बाद पाकिस्तानी सेना द्वारा कश्मीर
की कुछ हथिया ली गई जमीन को वापस लेने की अनुमति माँगी तो नेहरू के दबाव में उन्हे
अनुमति नहीं दी गई. नेहरू की अदूरदर्शिता के कारण जो समस्या उत्पन्न हुई वह आजतक भारत
का सिरदर्द बनी हुई है.
सन् पचास के दशक तक
केंद्रीय मंत्रिमंडल ही नहीं पूरी काँग्रेस नेहरू की छत्रछाया में आ गई थी. उनसे
असहमति रखने वालों को यथारूप उनके मंत्रिमंडल से और काँग्रेस से हटना पड़ा जिनमें राजगोपालाचारी,
जयप्रकाश नारायण, श्यामा प्र मखर्जी वगैरह उल्लेख्य हैं. अब दिल्ली की राजनीति नेहरू के
नियंत्रण में थी. उन्होंने दुनिया के देशों के साथ सौहार्द्र बनाने के लिए पंचशील
का सिद्धांत प्रस्तुत किया जिससे देश की अपेक्षा उनकी अपनी छवि ही अधिक चमकी. तत्कालीन
अखबार उनकी मंशा में सम्राट अशोक जैसा शांति दूत बनने की कामना देखते थे. हालाँकि
इतिहास का यह विद्वान भूल गया था कि अशोकीय भारत की सीमाएँ पूर्णतः सुरक्षित थीं.
सीमापार के देशों की प्रलुब्ध दृष्टियों पर सम्राट अशोक पैनी दृष्टि रखते थे. पर
पंचशील की चकाचौंध में नेहरू इतना बह गए कि देश की सीमाओं की सुरक्षा के प्रति
चौकसी रखना या तो भूल गए या यह उन्हें बेमानी लगा. उनकी नींद तब टूटी जब चीन ने
उनके पंचशील सिद्धांत की धज्जी उड़ाते हुए भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर आक्रमण कर
दिया. चोट खाए नेहरू जब सन् 1962 में तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तो वह अपने ही
मंत्रिमंडल पर अपना नियंत्रण खो चुके थे. उसे नियंत्रण में लाने के लिए उन्हें कामराज
प्लान का सहारा लेना पड़ा. वह एक संवेदनशील व्यक्ति अवश्य थे पर उनके पास गाँधी
जैसा न समाहारी व्यक्तित्व ही था न उनकी जैसी दूरदर्शिता. फिर भी नेहरू ने काँग्रेस
में अपने प्रति यत्किंचित विरोध के बावजूद अपना व्यक्तित्व ऐसा बना लिया था कि
अन्यों की स्थिति लगभग अनुल्लेखनीय हो गई थी. इसीलिए तब एक प्रश्न निरंतर उठता
रहा- ‘’नेहरू के बाद कौन’’. हालाँकि नेहरू मंत्रिमंडल में इस पद के वहन की योग्यता
रखनेवाले कई अनुभवी मंत्री थे.
यह प्रश्न कोई सम्मानजनक
प्रश्न नहीं था.
कहीं इस प्रश्न के पीछे लोगों में कोई
विशेष मंशा तो नहीं काम कर रही थी.
नेहरू की राजनीति अब दिल्ली की राजनीति के रूप में स्थापित हो गई थी. इस नीति
की एक बड़ी विशेषता थी संगठन को कमजोर कर देना. ध्यान देने योग्य है कि अपने तीसरे
मंत्रिमंडल को नियंत्रण में रखने के लिए नेहरू ने तमिल नाडु के मुख्यमंत्री के.
कामराज (कामराज प्लान) का सहारा लिया और उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया. और
सन् 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद जब अगले प्रधानमंत्री के चुनाव का समय आया तो
इसके लिए काँग्रेस अध्यक्ष कामराज ने नेहरू की अनुभवहीन पुत्री इदिरा का प्रस्ताव
किया. इंदिरा के इंकार करने पर लालबहादुर शास्त्री पर सहमति बनी. इन लालबहादुर ने
जो देश के लिए काम किया उसपर उस समय के अखबारों ने टिप्पणी की थी- जो काम नेहरू
अपने अठारह साल के शासन में नहीं कर सके लालबहादुर ने उसे अठारह महीने में कर
दिखाया. और सच में लालबहादुर जब धोती पहने पाकिस्तान के लाहौर तक पहुँच गए तब इस
देश के लोगों ने लगभग उती तरह का उत्साह और जोश महसूस किया जैसा सन् 1942 के भारत
छोड़ो आंदोलन में महसूस किया था.
ताशकंद में लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद सन् 1966 में आखिरकार इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री बनाया ही गया. शुरू शुरू में डॉ राममनोहर लोहिया ने उन्हें संसद में एक देखने वाली गुड़िया कहा. पर इस तथाकथित गुड़िया के नेतृत्व में जब पाकिस्तानी बाँगलादेश पर सफल सैनिक अभियान हुआ तो इस गुड़िया में छिपे एक दक्ष और दृढ़प्रतिज्ञ राजनीतिज्ञ को देख सारा देश हतप्रभ रह गया. और देशवासियों को अपनी अपार शक्ति का एहसास भी हुआ. लेकिन वह दिल्ली की उसी राजनीति को लेकर आगे बढ़ीं जिसे नेहरू ने स्थापित की थी. जब सांसद के रूप में उनके चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अबैध घोषित कर किया तो उन्होंने इस्तीफा न देकर न्यायालय के उस फैसले को निरस्त कराने के लिए संसद से पिछली तिथि से कानून पास करा लिया. और पहली बार एक तरह से संसद का अवमूल्यन हुआ.
उस समय एक सशक्त विपक्ष के
न होने से दिल्ली की राजनीति में किसी परिवर्तन की गुंजाईश नहीं थी. पर विपक्ष में
इंदिरा सरकार के विरुद्ध तिरस्कार के स्तर तक का विरोध था. नेहरू की राजनीति का एक
तत्व यह भी था कि सत्ता कहीं हाथ से फिसल न जाए. इसमें देश सेवा का भाव था या
सत्ता लिप्सा का, इसका निर्णय तो इतिहास करेगा. पर इंदिरा गाँधी ने देश में
इमरजेंसी केवल इसीलिए लगाई कि सत्ता उनके
हाथ से न फिसले. और उनका यही कदम उल्टा पड़ गया और सत्ता उनके ङाथ से फिसल गई. सन्
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की टूटती डोर को थामने वाला बूढ़ा शेर ( जयप्रकाश नारायण
) अभी जीवित था. इमरजेंसी के खिलाफ उसने एक दहाड़ मारी और टुकड़ों में साँस ले रहा
विपक्ष उसके पीछे हो लिया. पटना के गाँधी मैदान में उस दहाड़ के पीछे उमड़े जन
सैलाब ने ऐसा करिश्मा दिखाया कि दिल्ली की सत्ता, टुकड़े टुकड़े दलों को मिलाकर
बने जनता दल के हाथ में आ गई.
किंतु सत्ता में आया यह
विपक्ष एकदम नकारा निकला. दिल्ली की राजनीति तो नहीं बदली वल्कि इसमें ‘अहम के टकराव' का एक और तत्व
जुड़ गया. यह ‘अहम’ वैसा ही था जैसा अंग्रेजों के विरुद्ध टुकड़े में लड़ रहे सामंतों में था.
इधर जयप्रकाशनारायण की मृत्यु हुई उधर जनता दल विखर गया. फिर दिल्ली की राजनीति अपने
पूर्वरूप में चलती रही. सदी के अंत में
भाजपा आई और छै साल से कुछ अधिक शासन में भी रही पर दिल्ली की राजनीति में कोई
उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ.
आज भी दिल्ली की राजनीति
में कोई परिवर्तन हुआ हो ऐसा नहीं दिखता. अब तो यह राजनीति पूरी तरह से सत्ता की राजनीति
बनकर रह गई है. इसमें सत्ताशीन और विपक्ष दोनों समान रूप से शामिल हैं. उसमें अब
नए नए अवांक्षित तत्व भी जुड़ते जा रहे हैं जो नेहरूकालीन राजनीति में भी थे पर
सूक्ष्मरूप में, दबे ढँके थे. लेकिन इसने अब भदेस का रूप ले लिया है. इस भदेसी राजनीति
ने कई संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन भी कर दिया है जिसमें प्रधानमंत्री जैसी
संस्था भी है. यह राजनीति न्यायालय जैसी संस्था के भी अवमूल्यन के प्रयास में लगी
दिखती है. इस अवमूल्यन के दौर में राष्ट्रपति जैसी संस्था भी नहीं बच सकी है. क्या प्रजातंत्र
के मूल्यों मे ये संस्थाएँ शामिल नहीं हैं.
पता नहीं इस राजनीति की
अंतिम हद क्या है. आज तो इस राजनीति ने एक अकुशल और अनुभवहीन व्यक्ति, जो किसी भी
समय कुछ भी बोलने के लिए मशहूर है, को प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार किया जा रहा
है. इस राजनीति के ये अद्भुत प्रयोग कहाँ जाकर थमेंगे यह तो भविष्य ही बताएगा.